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प्रभु_की_लीला


#प्रभु_की_लीला
मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को पृथ्वी पर भेजा ।

एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था।

देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं ।

तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?
उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।
मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है!

तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।
इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।
देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?
उसे जमीन पर फेंक दिया गया।

एक मोची, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के।

जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत था, जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था।

उस को दया आ गयी।

और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो मोची ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।

उस देवदूत को ले कर मोची घर लौटा। न तो मोची को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर मोची घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।
और देवदूत पहली दफा हंसा। मोची ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।
देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि मोची देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के कपड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकि यह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!
जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने मोची का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि मोची महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।
एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। मोची ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।
लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब मोची ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?
देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।
भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह मोची उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।
लेकिन वह हंसा आज दुबारा। मोची ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।
दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।
तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।
और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं।

उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है?

उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।
अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।
देवदूत तीसरी बार हंसा। और मोची को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देखते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं ।🙏🏼🙏
जो प्रभु करते है अच्छे के  लिए करते है ।🙏
#जय_श्री_राधे
लष्मीकांत वर्शनय

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सात फेरों के सात वचन


सात फेरों के सात वचन
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!
(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है–गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,

वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,

वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,

वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)।

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વિધાતા ની છઠ્ઠી – N.CHIRAGKUMAR PATEL


વિધાતા ની છઠ્ઠી

http://chiragkumarpatel.blogspot.com/2017/04/blog-post.html
ભુતકાળમાં વિધાતા છઠ્ઠી ના દિવશે બાળકનું ભાગ્ય લખતી. અને આજે…?

હા આજે શુક્રાણું સ્રી બીજને મળે તે પહેલાં એનું ભવિષ્ય નક્કી કરે છે મા બાપ…

જ્યારે બાળક લીક્વીડ ફોર્મમાં પણ ન હોય ત્યારથી તેને ટેલેન્ટેડ બનાવવાની હોડ લાગી છે.

ચાર પાંચ વર્સના બાળકોને જ્યારે ટીવીના કોઇ રીયાલીટી શોમાં નાચતાં, ગાતાં, મિમીક્રી કરતાં જોઇએ ત્યારે વિચાર આવે….

કે આ બાળકના માબાપ ને છોકરું જોઇએછે કે એક મલ્ટી ટેલેન્ટેડ મશીન.

છ વર્સની છોકરી ટીવી કે ફીલ્મ જોઇને ગીત ગાય છે. લેલા મે લેલા એસી હું લેલા… સાંથે નાચે પણ છે,

હકીકત માં આ ટેલેન્ટ કરતાં નકલ વધું છે, મા બાપ છાતી ફુલાવી આ નકલીયાવ્રુતીને ક્રીયેટી વીટીમાં ખપાવે છે…..

મા બાપનું કામ તો શીક્ષણ અને સંસ્કાર આપવાનું છે, પછી કુદરતી ટેલેન્ટ તો આપોઆપ બહાર આવશે,

કિશોર કુમાર કે રફીના મા બાપે એ બોલતા થયાં ત્યારથી ગાતાં ન હોતું શીખવ્યું. રાજકપુર ના રણધીર અને રાજીવ બંન્ને છોકરાં કલાકાર તરીકે નિસ્ફળ રહ્યા.

કેમ….? એતો ઘર અને કુટુંબમાંજ પ્ટેટફોર્મ લૈને જનમ્યા હતા. એવુંજ રાજેન્દ્ર કુમાર ના કુમાર ગૌવરવ નું થયું….

કેમ કે એમના પોતાનામાં એ સફળતા માટેની કુદરતી ટેલેન્ટ ન હતી.

નરેન્દ્ર મોદી સાહેબ ના બા હીરાબા એ કાંઇ બાળ નરેન્દ્ર બોલતા થયા ત્યારથી જાહેર માં સ્પિચ આપવાનું નતું શીખવ્યું કે નતો એ બાળકને વક્રુત્વ સ્પર્ધા ના ક્લાસ કરાવ્યા. કુદરતી ટેલેન્ટ સમય આવે બહાર આવેજ….

સામે પક્ષે પાંચ પેઢીથી ભાષણબાજી અને જાહેરજીવન ના પ્લેટફોમ વાળા રાહુલજી ભાષણમાં એટલા એગ્રેસીવ નથી લાગતા.

ધીરુભાઇ અંબાણીના માતા બાળ ધીરુને ઉંધાડવા હાલરડાંને બદલે કોઇ કંપનીના નફા નુકશાન ના સ્ટેટમેન્ટ નહોતા સંભળાવતા કે વાર્તાની જગ્યાએ બેન્કની પાસબુક વાંચી સંભળાવતા….

આજે તો ચાર વર્સની ચાર્મી ને એશ્વર્યા બનાવી દેવી છે. અને પાંચ વર્સના પપ્પુને સલમાન……

બાળકના બાળપણની જીંદગીની ભ્રુણહત્યા ની હોડ જામી છે. એ સફળજ છે, જરુરી નથી કે બધા સલમાન બને, શાહરૂખ કે રુત્વીક કે તેન્ડુલકર બને….

પહેલાં એને પ્રાથમીક શિક્ષણ આપો, સારા શંસ્કાર આપો, પછી કુમાર અવસ્થામાં એનામાં રહેલી શક્તિ આપો આપ ખીલશે.

અને જો ટેલેન્ટ હશે તો નાનકડા વડ નગર જેવા પછાત ગામમાં થી દોડીને એ દીલ્હીની ગાદીએ બેસસે… એને નાનપણમાં સરપંચના રોલ કરાવી એનામાં રહેલા વડાપ્રધાન ની ટેલેન્ટ નું ગળું ન દબાવી દો.

જે પિંપળાને ફુટવુંજ છે એતો આરસીસી નો સ્લેબ ફાડીને પણ ફુટશે…..

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महादेवी वर्मा की सुंदर पंक्तियाँ


महादेवी वर्मा की सुंदर पंक्तियाँ

आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ..!

पर तनिक ठहरो..
ड्योढी पर पड़े पायदान पर,
अपना अहं झाड़ आना..!

मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीँ उड़ेल आना..!

तुलसी के क्यारे में,
मन की चटकन चढ़ा आना..!

अपनी व्यस्ततायें,बाहर खूंटी पर ही टांग आना..!

जूतों संग, हर नकारात्मकता उतार आना..!

बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत माँग लाना..!

वो गुलाब के गमले में,
मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना..!

लाओ, अपनी उलझनें मुझे थमा दो..
तुम्हारी थकान पर, मनुहारों का पँखा झुला दूँ..!

देखो, शाम बिछाई है मैंने,

सूरज क्षितिज पर बाँधा है,

लाली छिड़की है नभ पर..!
🙏🏻🙏🏻👌🏻
प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर, चाय चढ़ाई है,

घूँट घूँट पीना..!
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना..!!

Posted in संस्कृत साहित्य

कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे
*200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन*
           *द्रौपदी का एक पति था- युधिष्ठिर*
_जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्स मूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया। किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र – चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिको के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजो के हर दुष्प्रचार  और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।_

*अब ध्यानपूर्वक पढ़ें—*
*विवाह का विवाद क्यों पैदा हुआ था:–*
(१) अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यदि उससे विवाह हो जाता तो कोई परेशानी न होती। वह तो स्वयंवर की घोषणा के अनुरुप ही होता।
(२) परन्तु इस विवाह के लिए कुन्ती कतई तैयार नहीं थी।
(३) अर्जुन ने भी इस विवाह से इन्कार कर दिया था। *”बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह हो जाए यह तो पाप है। अधर्म है।”* (भवान् निवेशय प्रथमं)
मा मा नरेन्द्र त्वमधर्मभाजंकृथा न धर्मोsयमशिष्टः (१९०-८)
(४) कुन्ती मां थी। यदि अर्जुन का विवाह भी हो जाता,भीम का तो पहले ही हिडम्बा से (हिडम्बा की ही चाहना के कारण) हो गया था। तो सारे देश में यह बात स्वतः प्रसिद्ध हो जाती कि निश्चय ही युधिष्ठिर में ऐसा कोई दोष है जिसके कारण उसका विवाह नहीं हो सकता।
(५) आप स्वयं निर्णय करें कुन्ती की इस सोच में क्या भूल है? वह माता है, अपने बच्चों का हित उससे अधिक कौन सोच सकता है? इसलिए माता कुन्ती चाहती थी और सारे पाण्डव भी यही चाहते थे कि विवाह युधिष्ठिर से हो जाए।
*प्रश्न:-क्या कोई ऐसा प्रमाण है जिसमें द्रौपदी ने अपने को केवल एक की पत्नी कहा हो या अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बताया हो?*
*उत्तर:-* 
*(1)* द्रौपदी को कीचक ने परेशान कर दिया तो दुःखी द्रौपदी भीम के पास आई। उदास थी। भीम ने पूछा सब कुशल तो है? द्रौपदी बोली जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव है?
आशोच्यत्वं कुतस्यस्य यस्य भर्ता युधिष्ठिरः ।

जानन् सर्वाणि दुःखानि कि मां त्वं परिपृच्छसि ।।-(विराट १८/१)
_द्रौपदी स्वयं को केवल युधिष्ठिर की पत्नि बता रही है।_
*(2)* वह भीम से कहती है- जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों,जो इन सबसे घिरी हो तथा सब प्रकार अभ्युदयशील हो, ऐसी स्थिति में मेरे सिवा और दूसरी कौन सी स्त्री दुःख भोगने के लिए विवश हुई होगी-
भ्रातृभिः श्वसुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता ।

एवं सुमुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ।।-(२०-१३)
द्रौपदी स्वयं कहती है उसके बहुत से भाई हैं, बहुत से श्वसुर हैं, बहुत से पुत्र भी हैं,फिर भी वह दुःखी है। यदि बहुत से पति होते तो सबसे पहले यही कहती कि जिसके पाँच-पाँच पति हैं, वह मैं दुःखी हूँ,पर होते तब ना ।
*(3)* और जब भीम ने द्रौपदी को,कीचक के किये का फल देने की प्रतिज्ञा कर ली और कीचक को मार-मारकर माँस का लोथड़ा बना दिया तब अन्तिम श्वास लेते कीचक को उसने कहा था, *”जो सैरन्ध्री के लिए कण्टक था,जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं अनृण हो जाऊंगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।”-*
अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम् ।

शांति लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रीकण्टकम् ।।-(विराट २२-७९)
इस पर भी कोई भीम को द्रौपदी का पति कहता हो तो क्या करें? मारने वाले की लाठी तो पकड़ी जा सकती है, बोलने वाले की जीभ को कोई कैसे पकड़ सकता है?
*(4)* द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। *द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया।* किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, *”जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।”-*
अस्वाभ्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)
*”ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।”*
यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि “पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।”
_स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।_
इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया – जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।
*(5)* द्रौपदी कहती है- *”कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नि हूं।तथा उनके ही समान वर्ण वाली हू।आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी?आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।”-*
तमिमांधर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।

ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)
*द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।*
*(6)* पाण्डव वनवास में थे दुर्योधन की बहन का पति सिंधुराज जयद्रथ उस वन में आ गया। उसने द्रौपदी को देखकर पूछा -तुम कुशल तो हो?द्रौपदी बोली सकुशल हूं।मेरे पति कुरु कुल-रत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर भी सकुशल हैं।मैं और उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में आप पूछना चाह रहे हैं, वे सब भी कुशल से हैं। राजकुमार ! यह पग धोने का जल है। इसे ग्रहण करो।यह आसन है, यहाँ विराजिए।-
कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः

अहं च भ्राताश्चास्य यांश्चा न्यान् परिपृच्छसि ।-(१२-२६७-१६९४)
*द्रौपदी भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव को अपना पति नहीं बताती,उन्हें पति का भाई बताती है।*
और आगे चलकर तो यह एकदम स्पष्ट ही कर देती है। जब युधिष्ठिर की तरफ इशारा करके वह जयद्रथ को बताती है—
एतं कुरुश्रेष्ठतमम् वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।-(२७०-७-१७०१)
*”कुरू कुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही ,धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं।”*
क्या अब भी सन्देह की गुंजाइश है कि द्रौपदी का पति कौन था?
*(7)* कृष्ण संधि कराने गए थे। दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहने लगे”– दुर्योधन! तेरे सिवाय और ऐसा अधम कौन है जो बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करे जैसा तूने किया। –
कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति ।

आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदीम् त्वया ।।-(२८-८-२३८२)
कृष्ण भी द्रौपदी को दुर्योधन के बड़े भाई की पत्नी मानते हैं।
*अब सत्य को ग्रहण करें और द्रौपदी के पवित्र चरित्र का सम्मान करें।*
नीरज आर्य अँधेड़ी

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मेघों का मौसम और हरियाली अमावस
मित्रो ! सावनी अमा यानी हरियाली अमावस्या की बधाई।

हमारे इधर, इस पर्व का बड़ा महत्व है। अवकाश रहता है और चित्तौड़गढ़ से लेकर उदयपुर तक, राजसमन्द से लेकर डूंगरपुर बांसवाड़ा तक मेलों या मेलों का माहौल रहता है। श्रावणादि संवत्सर होने से तो इसका महत्व रहा ही, वनभ्रमण, शिव सन्निधि और उल्लास का अवगाहन भी तो इससे जुड़े हैं। यह रबड़ी-मालपूओं की महक वाली अमावस भी है।

उदयपुर में तो बड़ा मेला लगता है। संभाग सबसे बड़ा मेला। एक नहीं दो दिन का। पहले दिन मिलाजुला और दूसरे दिन केवल स्त्री-सहेलियों का। सहेलियों की बाड़ी और फतहसागर पर आमद तो देखिए ! आसमान में मेघ, नीचे जनसैलाब और सागर में उठती लहरों का किल्लोल : मेळा रे थारै मजो बोत आयो, 

मांगां टपक्यो हींगळू जी कांई 

गालां पर छायो,

रंग गालां पर छायो।

मेळा रे थारे मालपूओ खायो,

वासुंदी मजेदार पायो,

मूंछा पै चढ चढ़ गयो हबड़को,

चाट-चाट खायो, मेळा रे थारै बोत आयो…
सन् 1899 में जब फतहसागर बनकर तैयार हुआ तो महाराणा फतहसिंह महारानी चावड़ी के और लवाज़मे के साथ मुआयने को निकले, तब हरियाली अमावस ही थी। महलों के कोठार-भंडार की ओर से ही मेला लगाया गया। जुलूस में लोग उमड़े तो इतने कि तिल रखने का ठौर नहीं। दर्शन में नई दोआनी सिक्कों की कोथलियां खाली होती जाती थी। महिलाएं सबसे कम दीखीं तो चावड़ी ने एक दिन का मेला महिलाओं के नाम मांग लिया। हां करने की देर थी, आधी दुनिया के लिए मेला शुरू। आज 118 बरस पुराना मेला हो गया। हर साल रौनक रहती है और यह जीवन को रसपूरित करता है, हालांकि अब कई मायने बदल गए मगर ये मेले हैं, मेले फिर भी लगते रहेंगे क्योंकि ये हमारे-तुम्हारे नहीं हम सबके हैं 🙂
मित्रो ! जीवन की रोजाना तपती रेत पर हरिताभ वाली खुशहाली और जबां पर दूधिया पूओं की मिठास हो… और मेघमालाओं के मंडन से मानसूनी बूंदनियां आपकी आशाओं का अभिषेक, अभिनंदन करती रहे। 

🙏🏼

शत-शत शुभकामनाएं। 

श्रीकृष्ण ‘ जुगनू’

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चंद्रशेखर आज़ाद की मौत ( असली राज )

मित्रों, चंद्रशेखर आज़ाद की मौत से जुडी फ़ाइल आज भी लखनऊ के सीआइडी ऑफिस १- गोखले मार्ग मे रखी है .. उस फ़ाइल को नेहरु ने सार्वजनिक करने से मना कर दिया .. इतना ही नही नेहरु ने यूपी के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त को उस फ़ाइल को नष्ट करने का आदेश दिया था .. लेकिन चूँकि पन्त जी खुद

एक महान क्रांतिकारी रहे थे इसलिए उन्होंने नेहरु को झूठी सुचना दी की उस फ़ाइल

को नष्ट कर दिया गया है ..

क्या है

उस फ़ाइल मे ?

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उस फ़ाइल मे इलाहबाद के तत्कालीन पुलिस सुपरिटेंडेंट मिस्टर नॉट वावर के बयान दर्ज है जिसने अगुवाई मे ही पुलिस ने अल्फ्रेड पार्क मे बैठे आजाद को घेर लिया था और एक भीषण गोलीबारी के बाद आज़ाद शहीद हुए |

नॉट वावर ने अपने बयान मे कहा है कि ” मै खाना खा रहा था तभी नेहरु का एक संदेशवाहक आया उसने कहा कि नेहरु जी ने एक संदेश दिया है कि आपका शिकार अल्फ्रेड पार्क मे है और तीन बजे तक रहेगा .. मै कुछ समझा नही फिर मैं तुरंत आनंद भवन भागा और नेहरु ने बताया कि अभी आज़ाद अपने साथियो के साथ आया था वो रूस भागने के लिए बारह सौ रूपये मांग रहा था मैंने उसे अल्फ्रेड पार्क मे बैठने को कहा है ”

फिर मै बिना देरी किये पुलिस बल लेकर अल्फ्रेड पार्क को चारो ओर घेर लिया और आजाद को आत्मसमर्पण करने को कहा लेकिन उसने अपना माउजर निकालकर हमारे एक इंस्पेक्टर को मार दिया फिर मैंने भी गोली चलाने का हुकम दिया .. पांच गोली से आजाद ने हमारे पांच लोगो को मारा फिर छठी गोली अपने कनपटी पर मार दी |”

आजाद नेहरु से मिलने क्यों गए थे ?

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इसके दो कारण है

१- भगत सिंह की फांसी की सजा माफ़ करवाना

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महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद जिनके नाम से ही अंग्रेज अफसरों की पेंट गीली हो जाती थी, उन्हें मरवाने में किसका हाथ था ? 27 फरवरी 1931 को क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद की मौत हुयी थी । इस दिन सुबह आजाद नेहरु से आनंद भवन में उनसे भगत सिंह की फांसी की सजा को उम्र केद में बदलवाने के लिए मिलने गये थे, क्यों की वायसराय लार्ड इरविन से नेहरु के अच्छे ”सम्बन्ध” थे, पर नेहरु ने आजाद की बात नही मानी,दोनों में आपस में तीखी बहस हुयी, और नेहरु ने तुरंत आजाद को आनंद भवन से निकल जाने को कहा । आनंद भवन से निकल कर आजाद सीधे अपनी साइकिल से अल्फ्रेड पार्क गये । इसी पार्क में नाट बाबर के साथ मुठभेड़ में वो शहीद हुए थे ।अब आप अंदाजा लगा लीजिये की उनकी मुखबरी किसने की ? आजाद के लाहोर में होने की जानकारी सिर्फ नेहरु को थी । अंग्रेजो को उनके बारे में जानकारी किसने दी ? जिसे अंग्रेज शासन इतने सालो तक पकड़ नही सका,तलाश नही सका था, उसे अंग्रेजो ने 40 मिनट में तलाश कर, अल्फ्रेड पार्क में घेर लिया । वो भी पूरी पुलिस फ़ोर्स और तेयारी के साथ ?

अब आप ही सोच ले की गद्दार कोन हें ?

२- लड़ाई को आगे जारी रखने के लिए रूस जाकर स्टालिन की मदद लेने की योजना

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मित्रों, आज़ाद पहले कानपूर गणेश शंकर विद्यार्थी जी के पास गए फिर वहाँ तय हुआ की स्टालिन की मदद ली जाये क्योकि स्टालिन ने खुद ही आजाद को रूस बुलाया था . सभी साथियो को रूस जाने के लिए बारह सौ रूपये की जरूरत थी .जो उनके पास नही था इसलिए आजाद ने प्रस्ताव रखा कि क्यों न नेहरु से पैसे माँगा जाये .लेकिन इस प्रस्ताव का सभी ने विरोध किया और कहा कि नेहरु तो अंग्रेजो का दलाल है लेकिन आजाद ने कहा कुछ भी हो आखिर उसके सीने मे भी तो एक भारतीय दिल है वो मना नही करेगा |

फिर आज़ाद अकेले ही कानपूर से इलाहबाद रवाना हो गए और आनंद भवन गए उनको सामने देखकर नेहरु चौक उठा |

आजाद ने उसे बताया कि हम सब स्टालिन के पास रूस जाना चाहते है क्योकि उन्होंने हमे बुलाया है और मदद करने का प्रस्ताव भेजा है .पहले तो नेहरु काफी गुस्सा हुआ फिर तुरंत ही मान गया और कहा कि तुम अल्फ्रेड पार्क बैठो मेरा आदमी तीन बजे तुम्हे वहाँ ही पैसे दे देगा |

मित्रों, फिर आपलोग सोचो कि कौन वो गद्दार है जिसने आज़ाद की मुखबिरी की थी ?

चंदन दुबे

Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav

ननद ने अपनी भाभी को फोन किया और पूंछा : भाभी मैंने राखी भेजी थी मिल गयी क्या आप लोगों को ???

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भाभी : नहीं दीदी अभी नहीं मिली

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ननद : भाभी कल तक देख लो अगर नहीं मिली तो मैं खुद आऊंगी राखी लेकर

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अगले दिन भाभी ने खुद फोन किया : हाँ दीदी आपकी राखी मिल गयी है, बहुत अच्छी हे *Thank you Didi*

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ननद ने फोन रखा और आँखों में आंसू लेकर सोचने लगी “लेकिन भाभी मैंने तो अभी राखी भेजी ही नहीं और आपको मिल भी गयी !!!”

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“””यह बहुत पुरानी कहानी कई जगह अब सच होने लगीं हैं दोस्तों कृपया अपने *पवित्र रिश्तों* को सिमटने और फिर टूटने से बचाएं क्योंकि रिश्ते हमारे जीवन के फूल हैं जिन्हें ईश्वर ने खुद हमारे लिए खिलाया है…

रिश्ते काफी अनमोल होते है इनकी रक्षा करे

*बहन बेटी पर किये गए खर्च*

*से हमेशा फ़ायदा ही होता है*

*बहने हमसे चंद पैसे लेने नही बल्कि हमे बेसकिमति दुआएं देने आती है, हमारी बलाओं को टालने आती है, अपने भाई भाभी व परिवार को मोहब्बत भरी नज़र से देखने आती है*

*रक्षाबंधन की अग्रिम शुभकामनाये*

अनुज चौधरी

Posted in गंगा माँ

चीनी भाषा में माँ को माँ कहते हैं । अंग्रेजों के चाकरों की किताबों ने मुझे सिखाया कि चीन की सबसे महत्वपूर्ण नदी का नाम ह्वांग-हो है । जब इंटरनेट के माध्यम से मैंने उसका वास्तविक उच्चारण पता किया तो “ग्वङ्गो” निकला, अर्थात “गङ्गा” का अपभ्रंश ! अफ्रीका में विषुवत पर सबसे ऊंचे पर्वत को प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में मेरु कहा गया है (जिसका एक छोड़ उत्तर ध्रुव में सुमेरु तथा दक्षिण ध्रुव में कुमेरु कहा जाता था, बीच में विषुवत पर मेरु था)। अंग्रेजों ने इसका नाम बदलकर माउण्ट केन्या कर दिया, यद्यपि “किनयन-गिरी” कुछ ही दक्षिण तंजानिआ में है । माउण्ट केन्या की तलहटी में आज भी मेरु नाम का नगर है जो मेरु प्रान्त की राजधानी है और वहाँ की भाषा का नाम भी मेरु है । आजकल उन्हें ईसाई बनाने में मिशनरियाँ बहुत सक्रिय हैं । किन्तु संस्कृत का अफ्रीका से चीन तक के सम्बन्धों को छुपाकर यूरोप वाले हमें सिखाते हैं कि आर्य पूर्वी यूरोप और द्रविड़ भूमधसागरीय तटवर्ती क्षेत्रों से आये, ऑस्ट्रेलॉयड और नेग्रिटो अफ्रीका से आये, तथा मंगोलॉयड चीन-मंगोलिया से आये, जैसे भारत मनुष्य की उत्पत्ति के लायक था ही नहीं । सच्चाई उल्टी है : भारत संसार का एकमात्र देश है जहां संसार की सभी नस्लें हैं, दूसरे किसी देश में सारी नस्लें क्यों नहीं गयी ? माउण्ट एवेरेस्ट से बहुत ऊंचा है मेरु, बशर्ते भूकेन्द्र से दूरी को पैमाना माने, न कि काल्पनिक समुद्रतल से (प्रमाण नीचे है)। भूव्यास हर जगह एक समान नहीं है, अतः समुद्रतल एक जैसा नहीं है । पुराणकारों का गणित अंग्रेजों से बेहतर था । ग्रीक लोगों ने ईसा से तीन सौ वर्ष पहले जाना कि पृथ्वी गोल है, जबकि “भूगोल” शब्द उससे बहुत पुराना है और प्राचीन ग्रन्थों में है ।

एक उदाहरण प्रस्तुत है :-

महाभारत में वेद व्यास जी ने लिखा है कि जब जरासन्ध ने मथुरा पर अपनी (तन्त्र द्वारा सिद्ध) गदा फेंकी तो वह मथुरा के बगल में मगध की राजधानी गिरिव्रज से 99  योजन दूर जाकर गिरी । परम्परागत पञ्चाङ्गकारों द्वारा सर्वमान्य और वराहमिहिर द्वारा सर्वोत्तम माने गए सूर्यसिद्धान्त के अनुसार भूव्यास 1600 योजन का है । गूगल अर्थ द्वारा गिरिव्रज और मथुरा के अक्षांशों का औसत निकालकर फल का कोज्या (कोसाइन) ज्ञात करें और उसे विषुवतीय अर्धव्यास से गुणित करें, इष्टस्थानीय भू-व्यासार्ध प्राप्त होगा । इसे मथुरा और गिरिव्रज के रेखांशों (Longitudes) के अन्तर से गुणित करें, फल 98.54 योजन मिलेगा, जो पूर्णांक में 99  योजन है । इसका अर्थ यह है कि व्यास जी ने पृथ्वी को गोल मानकर उपरोक्त गणित किया था । गौतम बुद्ध के काल में मगध की राजधानी राजगीर थी, गिरिव्रज तो महाभारत के मूल कथानक के काल की प्रागैतिहासिक राजधानी थी । ऐतिहासिक युग में योजन का मान बढ़ गया था, विभिन्न ऐतिहासिक ग्रन्थों में भूपरिधि सूर्यसिद्धान्तीय मान 5026.5 योजन के स्थान पर केवल 3200 योजन बतायी गयी । अतः स्पष्ट है कि वेद व्यास जी का गणित पूर्णतया शुद्ध था और अतिप्राचीन था । अब बतलाएं, क्या पृथ्वी के गोल होने और पृथ्वी के व्यास की खोज ग्रीक लोगों ने ईसापूर्व तीसरी शताब्दी में की ?

माउण्ट एवरेस्ट का अक्षांश है 27:59 । विषुवतीय एवं ध्रुवीय भूव्यासार्धों में अन्तर है 21772 मीटर , अतः माउण्ट एवरेस्ट के अक्षांश पर भूव्यासार्ध का मान विषुवत पर स्थित मेरु पर्वत के पास के भूव्यासार्ध से 6769 मीटर कम है, जबकि माउण्ट एवरेस्ट की समुद्रतलीय ऊँचाई मेरु की समुद्रतलीय ऊँचाई से 3649 मीटर अधिक है । फलस्वरूप भूकेन्द्र से मेरु-शिखर की ऊँचाई भूकेन्द्र से एवरेस्ट-शिखर की ऊँचाई की तुलना में 3120 मीटर अधिक है , दोनों में कोई तुलना ही नहीं है ! पृथ्वी के महाद्वीपीय भार का विषुवतीय केन्द्र पर्वतराज महामेरु ही है जो पृथ्वी के घूर्णन पर जायरोस्कोपिक नियन्त्रण रखता है और सम्पात-पुरस्सरण (precession of equinoxes) का भी केन्द्र है (न्यूटन ने प्रिन्सिपिया में विषुवतीय अफ्रीका के पर्वतीय उभार को पृथ्वी के घूर्णन का जायरोस्कोपिक नियन्त्रक बताया था) । पुराणकारों का गणित अंग्रेजों से बेहतर था न ! फिर भी अंग्रेजों ने मेरु पर्वत नाम बदलकर माउण्ट केन्या कर दिया और पौराणिक गणित को कपोरकल्पित घोषित कर दिया ! मेरुपर्वत की सबसे बड़ी विशेषता है कि चारों ओर के धरातल की तुलना में यदि ऊँचाई मापी जाय तो यह संसार का सबसे ऊँचा पर्वत है, सपाट धरातल पर पाँच किलोमीटर ऊँचा पिरामिड है जिसकी नक़ल में मिश्र के पिरामिड बनते थे और दक्षिण सूडान में प्रागैतिहासिक मेरु साम्राज्य था (माउण्ट एवरेस्ट आसपास के धरातल से केवल 300 मीटर ऊँचा है)।

ग्रीक लोगों ने प्राचीन सभ्यताओं के सारे ज्ञान का जो थोड़ा सा हिस्सा समझा उसे अपने नाम से लिखकर सिकन्दरिया के विशाल पुस्तकालय में आग लगा दी और विरोधियों को मौत के घाट उतार दिया । सिकन्दर तो इतना क्रूर था कि अपने बाप फिलिप को पटककर चाकू भिरा दिया था, गुरुभाई कैलीस्थीनीज (प्राचीन ग्रीक में उच्चारण “कालीस्थानी”, ग्रीक में अन्तिम “स” का उच्चारण नहीं होता था) को सूली पर टाँग दिया, और भारत में दिगम्बर साधु महात्मा दाण्डायण को जबरन पकड़ लाने के लिए सिपाहियों को भेजा लेकिन सिपाहियों ने हिम्मत नहीं की तब स्वयं गया, मेगास्थनीज (“महास्थानी”) ने दाण्डायण को “दमदमी” लिखा !

हमारे इतिहासकार भी इन बातों पर ध्यान नहीं देते, उन्हें रामायण, महाभारत और पुराणों में ज्ञान की कोई बात नहीं दिखती, जबकि भारतीय संस्कृति इन्हीं ग्रन्थों पर आश्रित रही है ; वेद कितने लोग पढ़कर अर्थ लगा सकते हैं ? रामायण, महाभारत और पुराणों के माध्यम से ही वैदिक धर्म और संस्कृति बची हुई है जिसे मिटाने में हमारे “सेक्युलर” बुद्धिजीवी रात-दिन परिश्रम करते रहते हैं । एक भी “सेक्युलर” बुद्धिजीवी को संस्कृत भाषा का भी ज्ञान नहीं है, उनके विदेशी आका जो लिखते हैं उसे ये लोग तोते की तरह दुहराते रहते हैं । कोई बहस करे तो उसे इतिहास का भगवाकरण कहकर चिल्ल-पों मचाते हैं, शराफत से शास्त्रार्थ भी नहीं करते । अतः इन बदमाशों का एक ही इलाज है : असहिष्णुता पूर्वक इनके सारे पद, सारी उपाधियाँ और सारे पुरस्कार छीन लिए जाएँ । असत्य और अनाचार को सहना अधर्म है, सहिष्णुता नहीं । सहिष्णुता है सत्य की ओर जाने वाले अपने मार्ग से भिन्न दूसरे सत्य मार्गों को सहन करना , सभी सच्चे पन्थों का सर्वपन्थ-समभाव की भावना से आदर करते हुए अपने पन्थ पर चलना ।
——

विनय झा