विश्व के समस्त सनातनियों को श्री
गुरुपूर्णिमा की अनंत शुभकामनायें,,
विश्व के समस्त गुरुओं को सादर
नमन,,कोटि कोटि वंदन,,
गुरु महिमा !!
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
प्रेरणा देनेवाले,सूचना देनेवाले,(सच) बताने
वाले,(रास्ता) दिखानेवाले,शिक्षा देनेवाले,
और बोध कराने वाले –
ये सब गुरु समान है ।
गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् ।
अथा प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥
आत्मवान् लोगों का शासन गुरु करते हैं;
दृष्टों का शासन राजा करता है;
और गुप्तरुप से पापाचरण करनेवालों का
शासन यम करता है (अर्थात् अनुशासन तो
अनिवार्य ही है) ।
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष संश्रयः ॥
मनुष्यत्व,मुमुक्षत्व,और सत्पुरुषों का
सहवास – ईश्वरानुग्रह करानेवाले ये तीन
का मिलना,अति दुर्लभ है ।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
बहुत कहने से क्या ?
करोडों शास्त्रों से भी क्या ?
चित्त की परम् शांति,गुरु के बिना मिलना
दुर्लभ है ।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः
स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्
शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं,
स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं,हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं,उन्हें गुरु कहते हैं ।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
धर्म को जाननेवाले,धर्म मुताबिक आचरण
करनेवाले,धर्मपरायण,और सब शास्त्रों में
से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे
जाते हैं ।
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ब्रह्मा है,गुरु विष्णु है,गुरु हि शंकर है;
गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को
प्रणाम ।
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली
शीलेन भार्या कमलेन तोयम् ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः
शमेन विद्या नगरी जनेन ॥
जैसे दूध बगैर गाय,फूल बगैर लता,
शील बगैर भार्या,कमल बगैर जल,
शम बगैर विद्या,और लोग बगैर नगर
शोभा नही देते,वैसे ही गुरु बिना शिष्य
शोभा नहि देता ।
विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो
जानाति तत्त्वं न विचक्षणोऽपि ।
आकर्णदीर्घायित लोचनोपि दीपं
विना पश्यति नान्धकारे ॥
जैसे कान तक की लंबी आँखेंवाला भी
अँधकार में,बिना दिये के देख नही सकता,
वैसे विलक्षण इन्सान भी,गुणसागर ऐसे
गुरु बिना,तत्त्व को जान नहि सकता ।
पूर्णे तटाके तृषितः सदैवभूतेऽपि
गेहे क्षुधितः स मूढः ।
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः
गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥
जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी
रहे,वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के
पास होते हुए भी प्यासा,घर में अनाज
होते हुए भी भूखा,और कल्पवृक्ष के
पास रहते हुए भी दरिद्र है ।
वेषं न विश्वसेत् प्राज्ञः वेषो दोषाय जायते ।
रावणो भिक्षुरुपेण जहार जनकात्मजाम् ॥
(केवल बाह्य) वेष पर विश्वास नहि करना चाहिए; वेष दोषयुक्त (झूठा) हो सकता है ।
रावण ने भिक्षु का रुप लेकर हि सीता का
हरण किया था ।
त्यजेत् धर्मं दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत् ।
त्यजेत् क्रोधमुखीं भार्यां निःस्नेहान् बान्धवांस्त्यजेत् ॥
मनुष्य को दयाहीन धर्म का,विद्याहीन गुरु
का,क्रोधी पत्नी का,और स्नेहरहित संबंधीयों
का त्याग करना चाहिए ।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।
गुरोस्तु चक्षु र्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
गुरु की उपस्थिति में (शिष्य का) आसन
गुरु से नीचे होना चाहिए; गुरु जब उपस्थित
हो,तब शिष्य को जैसे-तैसे नही बैठना चाहिए ।
यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः ।
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः ॥
गुरु सब प्राणियों के प्रति वीतराग और
मत्सर से रहित होते हैं ।
वे जीतेन्द्रिय,पवित्र,दक्ष और सदाचारी
होते हैं ।
योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ
निमग्नः सदा शान्ति क्षान्ति नितान्त
दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः
संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति
स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥
योगीयों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समजा हुआ,
(संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ,
शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला,
धर्म में एकनिष्ठ,अपने संसर्ग से शिष्यों के
चित्त को शुद्ध करनेवाले,ऐसे सद्गुरु,बिना
स्वार्थ अन्य को तारते हैं,और स्वयं भी
तर जाते हैं ।
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥
गुरु शिष्य को जो एकाध अक्षर भी कहे,
तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन
नही,जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें।
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से,अज्ञानरुप
अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली,
उन गुरु को नमस्कार ।
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् ।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥
विद्वत्व,दक्षता,शील,संक्रांति,अनुशीलन, सचेतत्व,और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक
के गुण हैं ।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
‘गु’कार याने अंधकार,और ‘रु’कार याने
तेज;जो अंधकार का (ज्ञाना का प्रकाश
देकर) निरोध करता है,वही गुरु कहा
जाता है ।
नीचः श्लाद्यपदं प्राप्य स्वामिनं हन्तुमिच्छति ।
मूषको व्याघ्रतां प्राप्य मुनिं हन्तुं गतो यथा ॥
उच्च स्थान प्राप्त करते ही,अपने स्वामी को
मारने की इच्छा करना नीचता (का लक्षण) है;
वैसे ही जैसे कि चूहा शेर बनने पर मुनि को
मारने चला था।
कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रस्तु गौतमः ।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः ॥
कश्यप,अत्रि,भरद्वाज,विश्वामित्र,गौतम,
जमदग्नि,और वशिष्ठ – ये सप्त ऋषि हैं ।
नमोस्तु ऋषिवृंदेभ्यो देवर्षिभ्यो नमो नमः । सर्वपापहरेभ्यो हि वेदविद्भ्यो नमो नमः ॥
ऋषि समुदाय,जो देवर्षि हैं,सर्व पाप हरने
वाले हैं,और वेद को जाननेवाले हैं,उन्हें मैं
बार बार नमस्कार करता हूँ ।
ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभुतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ॥
ब्रह्मा के आनंदरुप परम् सुखरुप,ज्ञानमूर्ति,
द्वंद्व से परे,आकाश जैसे निर्लेप,और सूक्ष्म
“तत्त्वमसि” इस ईशतत्त्व की अनुभूति ही
जिसका लक्ष्य है; अद्वितीय,नित्य विमल,
अचल,भावातीत,और त्रिगुणरहित –
ऐसे सद्गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः ।
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः ॥
जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण
करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण
करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं ।
दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे
सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः
स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे
सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते
भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥
तीनों लोक,स्वर्ग,पृथ्वी,पाताल में ज्ञान देनेवाले
गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती ।
गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है,तो वह ठीक नहीं है,कारण पारसमणि केवल लोहे
को सोना बनाता है,पर स्वयं जैसा नहि
बनाता।
सद्बुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नही है,
गुरु तो अलौकिक है ।
गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥
जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका
विरोध करना चाहिए ।
यदि यह शक्य न हो तो कान बंद करके
बैठना चाहिए; और (यदि) वह भी शक्य
न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर
चले जाना चाहिए ।
अचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयत्यति । स्वयमप्याचरेदस्तु स आचार्यः इति स्मृतः ॥
जो स्वयं सभी शास्त्रों का अर्थ जानता है,
दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो
इसलिए अहर्निश प्रयत्न करता है;
और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण
में लाता है,उन्हें आचार्य कहते है ।
—#साभारसंकलित
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जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,,
ॐ गुरवे नमः
जय भवानी,,
जय श्री राम
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