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शेर से एक बात सीखे. बगुले से एक! मुर्गे से चार!


शेर से एक बात सीखे. बगुले से एक! मुर्गे से चार! कौवे से पाच! कुत्ते से छह! और गधे से तीन!!!

#शेर से यह बढ़िया बात सीखे की आप जो भी करना चाहते हो एकदिली से और जबरदस्त प्रयास से करे.

#बुद्धिमान व्यक्ति अपने इन्द्रियों को बगुले की तरह वश में करते हुए अपने लक्ष्य को जगह, समय और योग्यता का पूरा ध्यान रखते हुए पूर्ण करे.

#मुर्गे से हे चार बाते सीखे…

१. सही समय पर उठे. २. नीडर बने और लढ़े. ३. संपत्ति का रिश्तेदारों से उचित बटवारा करे. ४. अपने कष्ट से अपना रोजगार प्राप्त करे.

#कौवे से ये पांच बाते सीखे… १. अपनी पत्नी केसाथ एकांत में प्रणय करे. २. नीडरता ३. उपयोगी वस्तुओ का संचय करे. ४. सभी ओर दृष्टी घुमाये. ५. दुसरो पर आसानी से विश्वास ना करे.

#कुत्ते से ये बाते सीखे १. बहुत भूख हो पर खाने को कुछ ना मिले या कम मिले तो भी संतोष करे. २. गाढ़ी नींद में हो तो भी क्षण में उठ जाए. ३. अपने स्वामी के प्रति बेहिचक इमानदारीरखे ४. नीडरता.

#गधे से ये तीन बाते सीखे. १. अपना बोझा ढोना ना छोड़े. २. सर्दी गर्मी की चिंता ना करे. ३. सदा संतुष्ट रहे.

जो व्यक्ति इन बीस गुणों पर अमल करेगा वह जो भी करेगा सफल होगा!

-आचार्य चाणक्य
साभार- चक्रपाणि त्रिपाठी

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अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः । सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74॥ (महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)


“अहिंसा परमो धर्मः …” – महाभारत में अहिंसा संबंधी नीति वचन
“अहिंसा परमो धर्मः” यह नीति-वचन लोगों के मुख से अक्सर सुनने को मिलता है। प्राचीन काल में अपने भारतवर्ष में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के लगभग समकालीन (कुछ बाद के) महात्मा बुद्ध ने भी करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व तमाम कर्तव्यों के साथ अहिंसा का उपदेश तत्कालीन समाज को दिया था। अरब भूमि में ईशू मसीह ने भी कुछ उसी प्रकार की बातें कहीं। आधुनिक काल में महात्मा गांधी को भी अहिंसा के महान् पुजारी/उपदेष्टा के रूप में देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो उनके सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर दिया।
अहिंसा की बातें घूमफिर कर सभी समाजों में की जाती रही हैं, लेकिन उसकी परिभाषा सर्वत्र एक जैसी नहीं है। उदाहरणार्थ जैन धर्म में अहिंसा की परिभाषा अति व्यापक है, किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार से कष्ट में डालना वहां वर्जित है। इस धारणा के साथ जीवन धारण करना लगभग नामुमकिन है। अरब मूल के धर्मो के अनुसार मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों में रूह नहीं होती, तदनुसार उनके साथ अहिंसा बेमानी है। कुर’आन से मैंने यही निष्कर्ष निकाला। वास्तव में सभी समाज अपने भौतिक हितों को ध्यान में रखते हुए अहिंसा की परिभाषा अपनाते हैं। विडंबना देखिए कि महावीर, बुद्ध एवं गांधी के इस भारत में अहिंसा की कोई अहमियत नहीं। पग-पग पर हिंसा के दर्शन होते है। अहिंसा वस्तुतः एक आदर्श है जिससे आम तौर पर सभी परहेज करते हैं। लेकिन “अहिंसा परमो धर्मः” की बात मंच पर सभी कहते हैं।
अस्तु, अहिंसा या हिंसा की वकालत करना इस आलेख में मेरा उद्देश्य नहीं है। “अहिंसा परमो धर्मः” की नीति की मानव जीवन में सार्थकता है या नहीं इसकी समीक्षा मैं नहीं कर रहा हूं। मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि इस नीति का उल्लेख महाभारत महाकाव्य में कई स्थालों पर देखने को मिलता है। उन्हीं की चर्चा करना मेरा प्रयोजन है। जो यहां उल्लिखित हो उसके अतिरिक्त भी अन्य स्थलों पर बातें कही गयी होंगी जिनका ध्यान या जानकारी मुझे नहीं है।
अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः ।
सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74॥
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)
(अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम् कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते ।)
अर्थ – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं।
यहां कार्य से तात्पर्य सत्कर्मों से होना चाहिए। सत्कर्म सत्य के मार्ग पर चलने से ही संभव होते हैं। धर्म बहुआयामी अवधरणा है। मनुष्य के करने और न करने योग्य अनेकानेक कर्मों का समुच्चय धर्म को परिभाषित करता है। करने योग्य कर्मों में अहिंसा सबसे ऊपर या सबसे पहले है यह उपदेष्टा का मत है।
महाभारत ग्रंथ के वन पर्व में पांडवों के 12 वर्षों के वनवास (उसके पश्चात् एक वर्ष का नगरीय अज्ञातवास भी पूरा करना था) का वर्णन है। वे वन में तमाम ऋषि-मुनियों के संपर्क में आते हैं जिनसे उन्हें भांति-भांति का ज्ञान मिलता है। उसी वन पर्व में पांडवों का साक्षात्कार ऋषि मारकंडेय से भी होता है। ऋषि के मुख से उन्हें कौशिक नाम के ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ व्याध के बीच के वार्तालाप की बात सुनने को मिलती है। उक्त श्लोक उसी के अंतर्गत उपलब्ध है।
अगले दो श्लोक अनुशासन पर्व से लिए गए हैं। महाभारत युद्ध के बाद सब शांत हो जाता है और युधिष्ठिर राजा का दायित्व संभाल लेते हैं। भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में मृत्यु-शैया पर लेटे होते हैं। वे युधिष्ठिर को राजधर्म एवं नीति आदि का उपदेश देते हैं। ये श्लोक उसी प्रकरण के हैं।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः ।
दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 60 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा सर्व-भूतेभ्यः संविभागः च भागशः दमः त्यागः धृतिः सत्यम् भवति अवभृताय ते ।)
अर्थ – सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता है।
वैदिक परंपरा में यज्ञ-यागादि का विशेष महत्व है और उन्हें पुण्य-प्राप्ति का महान् मार्ग माना जाता है। ऐसे आयोजन के समापन के पश्चात विधि-विधान के साथ किए गये स्नान को अवभृत स्नान कहा गया है। यहां बताये गये अहिंसा आदि उस स्नान के समान फलदातक होते हैं यह श्लोक का भाव है।
उक्त श्लोक में “अहिंसा परमो धर्मः” कथन विद्यमान नहीं है, किंतु अहिंसा के महत्व को अवश्य रेखांकित किया गया है। वनपर्व का अगला श्लोक ये है:
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 115 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा परमो धर्मः तथा अहिंसा परम्‍ तपः अहिंसा परमम्‍ सत्यम्‍ यतः धर्मः प्रवर्तते ।)
अर्थ – अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।
इस वचन के अनुसार अहिंसा, तप और सत्य आपस में जुड़े हैं। वस्तुतः अहिंसा स्वयं में तप है, तप का अर्थ है अपने को हर विपरीत परिस्थिति में संयत और शांत रखना। जिसे तप की सामर्थ्य नहीं वह अहिंसा पर टिक नहीं सकता। इसी प्रकार सत्यवादी ही अहिंसा पर टिक सकता है यह उपदेष्टा का मत है।
अहिंसा की जितनी भी प्रशंसा हम कर लें, तथ्य यह है कि मानव समाज अहिंसा से नहीं हिंसा से चलता है।

आचार्य विकाश शर्मा

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दलित विरोधी ब्राम्हण..??? 


दलित विरोधी ब्राम्हण..???
ब्राह्मण तो अहिंसा के लिए प्रसिद्ध हैं। लेकिन आजकल चलन ये है कि सबसे बुरा ब्राह्मण ही है । लेकिन इतिहास गबाह है कि ब्राह्मण ने ही तकलीफ सबसे ज्यादा अभी तक झेले है ।कृपया धैर्य से पूरा पढ़ें तभी प्रतिक्रिया दें-

यह पोस्ट किसी जाति के लिए नहीं वरन ब्राह्मणों के विरुद्ध समाज में फैलाई जा रही नकारात्मकता के बारे में है ।

क्या आधुनिक भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा तर्कसंगत

है?

जिन लोगों ने भारत को लूटा, तोडा, नष्ट किया, वे आज इस देश में ‘अतीत भुला दो’ के नाम पर सम्मानित हैं और एक अच्छा जीवन जी रहे हैं। जिन्होंने भारत की मर्यादा को खंडित किया, उसके विश्विद्यालयों को विध्वंस किया, उसके विश्वज्ञान के भंडार पुस्तकालयों को जला कर राख किया, उन्हें आज के भारत में सब सुविधाओं से युक्त सुखी जीवन मिल रहा है। किंतु वे ब्राह्मण जिन्होंने सदैव अपना जीवन देश, धर्म और समाज की उन्नति के लिए अर्पित किया, वे आधुनिक भारत में “काल्पनिक” पुराने पापों के लिए दोषी हैं।
आधुनिक इतिहासकार हमें सिखाते हैं कि भारत के ब्राह्मण सदा से दलितों का शोषण करते आये हैं जो घृणित वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक भी हैं। ब्राह्मण-विरोध का यह काम पिछले दो शतकों में कार्यान्वित किया गया।

वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कभी किसी अन्य जाति के लोगों को पढने लिखने का अवसर नहीं दिया। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े शोधकर्ता यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ब्राह्मण सदा से समाज का शोषण करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं, कि उन्होंने हिन्दू ग्रन्थों की रचना केवल इसीलिए की कि वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊपर घोषित कर सकें…किंतु यह सारे तर्क खोखले और बेमानी हैं, इनके पीछे एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह अंततः सत्य प्रतीत होने लगता, इसी भांति इस झूठ को भी आधुनिक भारत में सत्य का स्थान मिल चुका है।
आइये आज हम बिना किसी पूर्व प्रभाव के और बिना किसी पक्षपात के न्याय बुद्धि से इसके बारे सोचे, सत्य घटनायों पर टिके हुए सत्य को देखें। क्योंकि अपने विचार हमें सत्य के आधार पर ही खड़े करने चाहियें, न कि किसी दूसरे के कहने मात्र से। खुले दिमाग से सोचने से आप पायेंगे कि ९५ % ब्राह्मण सरल हैं, सज्जन हैं, निर्दोष हैं। आश्चर्य है कि कैसे समय के साथ साथ काल्पनिक कहानियाँ भी सत्य का रूप धारण कर लेती हैं। यह जानने के लिए बहुत अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं कि ब्राह्मण-विरोधी यह विचारधारा विधर्मी घुसपैठियों, साम्राज्यवादियों, ईसाई मिशनरियों और बेईमान नेताओं के द्वारा बनाई गयी और आरोपित की गयी,ताकि वे भारत के समाज के टुकड़े टुकड़े करके उसे आराम से लूट सकें।
सच तो यह है कि इतिहास के किसी भी काल में ब्राह्मण न तो धनवान थे और न ही शक्तिशाली। ब्राह्मण भारत के समुराई नहीं है। वन का प्रत्येक जन्तु मृग का शिकार करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है, और भारत का ब्राह्मण वह मृग है। आज के ब्राह्मण की वह स्थिति है जो कि नाजियों के राज्य में यहूदियों की थी। क्या यह स्थिति स्वीकार्य है? ब्राह्मणों की इस दुर्दशा से किसी को भी सरोकार नहीं, जो राजनीतिक दल हिन्दू समर्थक माने गए हैं, उन्हें भी नहीं;सब ने हम ब्राह्मणों के साथ सिर्फ छलावा ही किया है।
ब्राह्मण सदा से निर्धन वर्ग में रहे हैं! क्या आप ऐसा एक भी उदाहरण दे सकते हैं जब ब्राह्मणों ने पूरे भारत पर शासन किया हो?? शुंग,कण्व ,सातवाहन आदि द्वारा किया गया शासन सभी विजातियों और विधर्मियों को क्यूं कचोटता है? *चाणक्य* ने *चन्द्रगुप्त मौर्य* की सहायता की थी एक अखण्ड भारत की स्थापना करने में। भारत का सम्राट बनने के बाद, चन्द्रगुप्त ,चाणक्य के चरणों में गिर गया और उसने उसे अपना राजगुरु बनकर महलों की सुविधाएँ भोगते हुए, अपने पास बने रहने को कहा। चाणक्य का उत्तर था: ‘मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरा कर्म है शिष्यों को शिक्षा देना और भिक्षा से जीवनयापन करना। क्या आप किसी भी इतिहास अथवा पुराण में धनवान ब्राह्मण का एक भी उदाहरण बता सकते हैं?

श्री कृष्ण की कथा में भी निर्धन ब्राह्मण सुदामा ही प्रसिद्ध है।
संयोगवश, *श्रीकृष्ण* जो कि भारत के सबसे प्रिय आराध्य देव हैं, यादव-वंश के थे, जो कि आजकल *OBC* के अंतर्गत आरक्षित जाति मानी गयी है।

यदि ब्राह्मण वैसे ही घमंडी थे जैसे कि उन्हें बताया जाता है, तो यह कैसे सम्भव है कि उन्होंने अपने से नीची जातियों के व्यक्तियों को भगवान् की उपाधि दी और उनकी अर्चना पूजा की स्वीकृति भी?(उस सन्दर्भ में यदि ईश्वर ब्राह्मण की कृति हैं जैसा की कुछ मूर्ख कहते हैं) देवों के देव *महादेव शिव* को पुराणों के अनुसार *किराट जाति* का कहा गया है, जो कि आधुनिक व्यवस्था में *ST* की श्रेणी में पाए जाते हैं
दूसरों का शोषण करने के लिए शक्तिशाली स्थान की, अधिकार-सम्पन्न पदवी की आवश्यकता होती है। जबकि ब्राह्मणों का काम रहा है या तो मन्दिरों में पुजारी का और या धार्मिक कार्य में पुरोहित का और या एक वेतनहीन गुरु(अध्यापक) का। उनके धनार्जन का एकमात्र साधन रहा है भिक्षाटन। क्या ये सब बहुत ऊंची पदवियां हैं? इन स्थानों पर रहते हुए वे कैसे दूसरे वर्गों का शोषण करने में समर्थ हो सकते हैं? एक और शब्द जो हर कथा कहानी की पुस्तक में पाया जाता है वह है – ‘निर्धन ब्राह्मण’ जो कि उनका एक गुण माना गया है। समाज में सबसे माननीय स्थान संन्यासी ब्राह्मणों का था, और उनके जीवनयापन का साधन भिक्षा ही थी। (कुछ विक्षेप अवश्य हो सकते हैं, किंतु हम यहाँ साधारण ब्राह्मण की बात कर रहे हैं।)

ब्राह्मणों से यही अपेक्षा की जाती रही कि वे अपनी जरूरतें कम से कम रखें और अपना जीवन ज्ञान की आराधना में अर्पित करें। इस बारे में एक अमरीकी लेखक *आलविन टाफलर* ने भी कहा है कि ‘हिंदुत्व में निर्धनता को एक शील माना गया है।’
सत्य तो यह है कि शोषण वही कर सकता है जो समृद्ध हो और जिसके पास अधिकार हों अब्राह्मण को पढने से किसी ने नहीं रोका। श्रीकृष्ण यदुवंशी थे, उनकी शिक्षा गुरु संदीपनी के आश्रम में हुई, श्रीराम क्षत्रिय थे उनकी शिक्षा पहले ऋषि वशिष्ठ के यहाँ और फिर ऋषि विश्वामित्र के पास हुई। बल्कि ब्राह्मण का तो काम ही था सबको शिक्षा प्रदान करना। हां यह अवश्य है कि दिन-रात अध्ययन व अभ्यास के कारण, वे सबसे अधिक ज्ञानी माने गए, और ज्ञानी होने के कारण प्रभावशाली और आदरणीय भी। इसके कारण कुछ अन्य वर्ग उनसे जलने लगे, किंतु इसमें भी उनका क्या दोष यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो वाल्मीकि जी रामायण कैसे लिखते और तिरुवलुवर तिरुकुरल कैसे लिखते?
और अब्राह्मण संतो द्वारा रचित इतना सारा भक्ति-साहित्य कहाँ से आता? जिन ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की वे भी एक मछुआरन माँ के पुत्र थे। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने कभी भी विद्या देने से मना नहीं किया।
जिनकी शिक्षायें हिन्दू धर्म में सर्वोच्च मानी गयी हैं, उनके नाम और जाति यदि देखी जाए, तो *वशिष्ठ, वाल्मीकि, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, कबीरदास, विवेकानंद* आदि, इनमें कोई भी ब्राह्मण नहीं। तो फिर ब्राह्मणों के ज्ञान और विद्या पर एकाधिकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता! यह केवल एक झूठी भ्रान्ति है जिसे गलत तत्वों ने अपने फायदे के लिए फैलाया, और इतना फैलाया कि सब इसे सत्य मानने लगे।
जिन दो पुस्तकों में वर्ण(जाति नहीं) व्यवस्था का वर्णन आता है उनमें पहली तो है मनुस्मृति जिसके रचियता थे *मनु* जो कि एक क्षत्रिय थे, और दूसरी है *श्रीमदभगवदगीता* जिसके रचियता थे *व्यास* जो कि निम्न वर्ग की मछुआरन के पुत्र थे। यदि इन दोनों ने ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया तो केवल उसके ज्ञान एवं शील के कारण, किसी स्वार्थ के कारण नहीं।
ब्राह्मण तो अहिंसा के लिए प्रसिद्ध हैं।

पुरातन काल में जब कभी भी उन पर कोई विपदा आई, उन्होंने शस्त्र नहीं उठाया, क्षत्रियों से सहायता माँगी।

बेचारे असहाय ब्राह्मणों को अरब आक्रमणकारियों ने काट डाला, उन्हें गोवा में पुर्तगालियों ने cross पर चढ़ा कर मारा, उन्हें अंग्रेज missionary लोगों ने बदनाम किया, और आज अपने ही भाई-बंधु उनके शील और चरित्र पर कीचड उछल रहे हैं। इस सब पर भी क्या कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखाई दी, क्या वे लड़े, क्या उन्होंने आन्दोलन किया?
औरंगजेब ने बनारस, गंगाघाट और हरिद्वार में १५०,००० ब्राह्मणों और उनके परिवारों की ह्त्या करवाई, उसने हिन्दू ब्राह्मणों और उनके बच्चों के शीश-मुंडो की इतनी ऊंची मीनार खडी की जो कि दस मील से दिखाई देती थी, उसने उनके जनेयुओं के ढेर लगा कर उनकी आग से अपने हाथ सेके। किसलिए, क्योंकि उन्होंने अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपनाने से मना किया। यह सब उसके इतिहास में दर्ज़ है।
क्या ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाया? फिर भी ओरंगजेब के वंशज हमें भाई मालूम होते हैं और ब्राह्मण देश के दुश्मन?
यह कैसा तर्क है, कैसा सत्य है?

कोंकण-गोवा में पुर्तगाल के वहशी आक्रमणकारियों ने निर्दयता से लाखों कोंकणी ब्राह्मणों की हत्या कर दी क्योंकि उन्होंने ईसाई धर्म को मानने से इनकार किया। क्या आप एक भी ऐसा उदाहरण दे सकते हो कि किसी कोंकणी ब्राह्मण ने किसी पुर्तगाली की हत्या की? फिर भी पुर्तगाल और अन्य यूरोप के देश हमें सभ्य और अनुकरणीय लगते हैं और ब्राह्मण तुच्छ! यह कैसा सत्य है?
जब पुर्तगाली भारत आये, तब *St. Xavier* ने पुर्तगाल के राजा को पत्र लिखा “यदि ये ब्राह्मण न होते तो सारे स्थानीय जंगलियों को हम आसानी से अपने धर्म में परिवर्तित कर सकते थे।” यानि कि ब्राह्मण ही वे वर्ग थे जो कि धर्म परिवर्तन के मार्ग में बलि चढ़े। जिन्होंने ने अपना धर्म छोड़ने की अपेक्षा मर जाना बेहतर समझा। *St. Xavier* को ब्राह्मणों से असीम घृणा थी, क्योंकि वे उसके रास्ते का काँटा थे,

हजारों की संख्या में गौड़ सारस्वत कोंकणी ब्राह्मण उसके अत्याचारों से तंग हो कर गोवा छोड़ गए, अपना सब कुछ गंवा कर। क्या किसी एक ने भी मुड़ कर वार किया? फिर भी *St. Xavier* के नाम पर आज भारत के हर नगर में स्कूल और कॉलेज है और भारतीय अपने बच्चों को वहां पढ़ाने में गर्व अनुभव करते हैं

इनके अतिरिक्त कई हज़ार सारस्वत ब्राह्मण काश्मीर और गांधार के प्रदेशों में विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों मारे गए। आज ये प्रदेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान कहलाते हैं, और वहां एक भी सारस्वत ब्राह्मण नहीं बचा है। क्या कोई एक घटना बता सकते हैं कि इन प्रदेशों में किसी ब्राह्मण ने किसी विदेशी की हत्या की? हत्या की छोडिये, क्या कोई भी हिंसा का काम किया?
और आधुनिक समय में भी इस्लामिक आतंकवादियों ने काश्मीर घाटी के मूल निवासी ब्राह्मणों को विवश करके काश्मीर से बाहर निकाल दिया। ५००,००० काश्मीरी पंडित अपना घर छोड़ कर बेघर हो गए, देश के अन्य भागों में शरणार्थी हो गये, और उनमे से ५०,००० तो आज भी जम्मू और दिल्ली के बहुत ही अल्प सुविधायों वाले अवसनीय तम्बुओं में रह रहे हैं। आतंकियों ने अनगनित ब्राह्मण पुरुषों को मार डाला और उनकी स्त्रियों का शील भंग किया। क्या एक भी पंडित ने शस्त्र उठाया, क्या एक भी आतंकवादी की ह्त्या की? फिर भी आज ब्राह्मण शोषण और अत्याचार का पर्याय माना जाता है और मुसलमान आतंकवादी वह भटका हुआ इंसान जिसे क्षमा करना हम अपना धर्म समझते हैं। यह कैसा तर्क है?
माननीय भीमराव अंबेडकर जो कि भारत के संविधान के तथाकथित रचियता (प्रारूप समिति के अध्यक्ष) थे, उन्होंने एक मुसलमान इतिहासकार का सन्दर्भ देकर लिखा है कि धर्म के नशे में पहला काम जो पहले अरब घुसपैठिया मोहम्मद बिन कासिम ने किया, वो था ब्राह्मणों का खतना। “किंतु उनके मना करने पर उसने सत्रह वर्ष से अधिक आयु के सभी को मौत के घाट उतार दिया।” मुग़ल काल के प्रत्येक घुसपैठ, प्रत्येक आक्रमण और प्रत्येक धर्म-परिवर्तन में लाखों की संख्या में धर्म-प्रेमी ब्राह्मण मार दिए गए। क्या आप एक भी ऐसी घटना बता सकते हो जिसमें किसी ब्राह्मण ने किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों की हत्या की हो?
१९वीं सदी में मेलकोट में दिवाली के दिन टीपू सुलतान की सेना ने चढाई कर दी और वहां के ८०० नागरिकों को मार डाला जो कि अधिकतर मंडयम आयंगर थे। वे सब संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। (आज तक मेलकोट में दिवाली नहीं मनाई जाती।) इस हत्याकाण्ड के कारण यह नगर एक श्मशान बन गया। ये अहिंसावादी ब्राह्मण पूर्ण रूप से शाकाहारी थे, और सात्विक भोजन खाते थे जिसके कारण उनकी वृतियां भी सात्विक थीं और वे किसी के प्रति हिंसा के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने तो अपना बचाव तक नहीं किया। फिर भी आज इस देश में टीपू सुलतान की मान्यता है। उसकी वीरता के किस्से कहे-सुने जाते हैं। और उन ब्राह्मणों को कोई स्मरण नहीं करता जो धर्म के कारण मौत के मुंह में चुपचाप चले गए।
अब जानते हैं आज के ब्राह्मणों की स्थिति क्या आप जानते हैं कि बनारस के अधिकाँश रिक्शा वाले ब्राह्मण हैं? क्या आप जानते हैं कि दिल्ली के रेलवे स्टेशन

पर आपको ब्राह्मण कुली का काम करते हुए मिलेंगे?

दिल्ली में पटेलनगर के क्षेत्र में 50 % रिक्शा वाले ब्राह्मण समुदाय के हैं। आंध्र प्रदेश में ७५ % रसोइये और घर की नौकरानियां ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार देश के दुसरे भागों में भी ब्राह्मणों की ऐसी ही दुर्गति है, इसमें कोई शंका नहीं। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वाले ब्राह्मणों का आंकड़ा ६०% है।
हजारों की संख्या में ब्राह्मण युवक अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में जाकर बसने लगे हैं क्योंकि उन्हें वहां software engineer या scientist का काम मिल जाता है। सदियों से जिस समुदाय के सदस्य अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समाज के शिक्षक और शोधकर्ता रहे हैं, उनके लिए आज ये सब कर पाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भारत सरकार को उनके सामर्थ्य की आवश्यकता क्यों नहीं ? क्यों भारत में तीव्र मति की अपेक्षा मंद मति को प्राथमिकता दी जा रही है? और ऐसे में देश का विकास होगा तो कैसे?
कर्नाटक प्रदेश के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां के

वासियों का आर्थिक चित्रण कुछ ऐसा है: ईसाई भारतीय – १५६२ रू/ वोक्कालिग जन – ९१४ रू/ मुसलमान – ७९४ रू/ पिछड़ी जातियों के जन – ६८० रू/ पिछड़ी जनजातियों के जन – ५७७ रू/ और ब्राह्मण – ५३७ रू। तमिलनाडु में रंगनाथस्वामी मन्दिर के पुजारी का मासिक वेतन ३०० रू और रोज का एक कटोरी चावल है। जबकि उसी मन्दिर के सरकारी कर्मचारियों का वेतन कम से कम २५०० रू है। ये सब ठोस तथ्य हैं लेकिन इन सब तथ्यों के होते हुए, आम आदमी की यही धारणा है कि पुजारी ‘धनवान’ और ‘शोषणकर्ता’ है, क्योंकि देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अनेक वर्षों तक इसी असत्य को अनेक प्रकार से चिल्ला चिल्ला कर सुनाया है।
क्या हमने उन विदेशी घुसपैठियों को क्षमा नहीं

किया जिन्होंने लाखों-करोड़ों हिंदुओं की हत्या की और देश को हर प्रकार से लूटा? जिनके आने से पूर्व भारत संसार का सबसे धनवान देश था और जिनके आने के बाद आज भारत पिछड़ा हुआ third world country कहलाता है। इनके दोष भूलना सम्भव है तो अहिंसावादी, ज्ञानमूर्ति, धर्मधारी ब्राह्मणों को किस बात का दोष लगते हो कब तक उन्हें दोष देते जाओगे?
क्या हम भूल गए कि वे ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा बच्चा गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था? क्या हम भूल गए कि ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा था?
भारत के स्वर्णिम युग में ब्राह्मण को यथोचित सम्मान दिया जाता था और उसी से सामाज में व्यवस्था भी ठीक रहती थी। सदा से विश्व भर में जिन जिन क्षेत्रों में भारत का नाम सर्वोपरी रहा है और आज भी है वे सब ब्राह्मणों की ही देन हैं, जैसे कि अध्यात्म, योग, प्राणायाम, आयुर्वेद आदि। यदि ब्राह्मण जरा भी स्वार्थी होते तो यह सब अपने था अपने कुल के लिए ही रखते दुनिया में मुफ्त बांटने की बजाए इन की कीमत वसूलते। वेद-पुराणों के ज्ञान-विज्ञान को अपने मस्तक में धारने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे गए और आज उनके ये सब योगदान भूल कर हम उन्हें दोष देने में लगे है।
जिस ब्राह्मण ने हमें मन्त्र दिया *‘वसुधैव कुटुंबकं’* वह

ब्राह्मण विभाजनवादी कैसे हो सकता है? जिस ब्राह्मण ने कहा *‘लोको सकलो सुखिनो भवन्तु’* वह किसी को दुःख कैसे पहुंचा सकता है? जो केवल अपनी नहीं , केवल परिवार, जाति, प्रांत या देश की नहीं बल्कि सकल जगत की मंगलकामना करने का उपदेश देता है, वह ब्राह्मण स्वार्थी कैसे हो सकता है?
इन सब प्रश्नों को साफ़ मन से, बिना पक्षपात के विचारने की आवश्यकता है, तभी हम सही उत्तर जान पायेंगे।
आज के युग में ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार पर चलने के समान है। यदि ब्राह्मण अयोग्य है और कुछ अच्छा कर नहीं पाता तो लोग कहते हैं कि देखो हम तो पहले ही जानते थे कि इसे इसके पुरखों के कुकर्मों का फल मिल रहा है। यदि कोई सफलता पाता है तो कहते हैं कि इनके तो सभी हमेशा से ऊंची पदवी पर बैठे हैं, इन्हें किसी प्रकार की सहायता की क्या आवश्यकता? अगर किसी ब्राह्मण से कोई अपराध हो जाए फिर तो कहने ही क्या, सब आगे पीछे के सामाजिक पतन का दोष उनके सिर पर मढने का मौका सबको मिल जाता है। कोई श्रीकांत दीक्षित भूख से मर जाता है तो कहते हैं कि बीमारी से मरा। और ब्राह्मण बेचारा इतने दशकों से अपने अपराधों की व्याख्या सुन सुन कर ग्लानि से इतना झुक चूका है कि वह कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करता, बस चुपचाप सुनता है और अपने प्रारब्ध को स्वीकार करता है।
बिना दोष के भी दोषी बना घूमता है आज का ब्राह्मण। नेताओं के स्वार्थ, समाज के आरोपों, और देशद्रोही ताकतों के षड्यंत्र का शिकार हो कर रह गया है ब्राह्मण। बहुत से ब्राह्मण अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़ चुके हैं आज। बहुत से तो संस्कारों को भी भूल चुके हैं । अतीत से कट चुके हैं किंतु वर्तमान से उनको जोड़ने वाला कोई नहीं। ऐसे में भविष्य से क्या आशा?

द्विवेदी पुष्पेंद्र

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डाकू का संकल्प


डाकू का संकल्प
आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम लाहौर के पास एक गांव में आर्य समाज के एक समारोह में प्रवचन कर रहे थे। उन्होंने वैदिक धर्म और कर्म के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘जो भी शुभ या अशुभ कर्म मनुष्य करता है, उसका फल उसे अवश्य मिलता है। चोरी, हत्या, हिंसा आदि पाप कर्म करने वालों को किए का दंड अवश्य भोगना पड़ता है। कोई भी उसे बचा नहीं सकता।’
पंडित जी के प्रभावशाली प्रवचन को सुनने वालों में उस क्षेत्र का कुख्यात अपराधी डाकू मुगला भी था। पंडित जी की इस चेतावनी ने उसका हृदय झकझोर डाला। मुगला ने प्रवचन के बाद उन्हें प्रणाम किया और बोला, ‘मैं आपसे एकांत में कुछ बातें करना चाहता हूं। आप कहां ठहरे हुए हैं?’ पंडित जी ने बताया, ‘आर्य समाज मंदिर में ठहरा हुआ हूं। वहां आकर मिल सकते हो।’
मुगला रात को पंडित जी के बताए हुए पते पर पहुंचा। वहां उपस्थित लोग उसे देखते ही कांपने लगे। वे एक-एक कर खिसकने लगे। पर इन सबसे अविचलित मुगला ने श्रद्धापूर्वक पंडित जी के चरण स्पर्श किए और कहा,’महाराज, मैं वर्षों से डाके डालता रहा हूं। कई हत्याएं कर चुका हूं। आपने प्रवचन में कहा कि हर आदमी को अपने पाप कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। मुझे अपने पापों की माफी का रास्ता दिखाइए।’
पंडित जी ने समझाया, ‘यदि अपराध करना आज से ही छोड़ दो, लोगों की सेवा, हर मौके पर उनकी सहायता करने और बाकी का जीवन भगवान की उपासना में लगाने का संकल्प ले लो, तो तुम अपने पापों से मुक्ति पा सकते हो।’ पंडित जी की बात मुगला को समझ में आ गई। उसने उसी समय पंडित लेखराम जी के बताए मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प ले लिया। कुछ ही दिनों में सत्संग ने उसे अपराधी की जगह भगत और भले आदमी के रूप में ख्याति दिला दी।

नीरज आर्य अँधेड़ी

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દયા – ત્યાગનો મહિમા


” દયા – ત્યાગનો મહિમા ”

જ્ઞાન સાથે ગમ્મત ( gyan sathe Gammat )

મહાદેવી સતીએ રાજા હિમાલયના ઘરે પાર્વતી સ્વરૂપે જન્મ લીધો. આ જન્મમાં પણ દેવાધિદેવ મહાદેવને પતિ સ્વરૂપે મેળવવા દેવી પાર્વતી નારદજીના કહ્યા પ્રમાણે જંગલમાં જઈ ઘોર તપ કરવા લાગ્યાં. વર્ષોવર્ષ અતિકઠિન તપ પાર્વતીજીએ કર્યું. પાર્વતીજીની કઠિન સાધનાથી ભગવાન શિવ પ્રસન્ન થયા અને મનવાંછિત ફળ આપ્યું અને થોડી ક્ષણો માટે અંતધ્ર્યાન થઈ ગયા.

ત્યારે અચાનક જ પાર્વતીજીને કોઈ નાનકડા બાળકનો મદદની પોકાર કરતો રડતો, આર્ત સ્વર સંભળાયો. એક ઘડી પણ રોકાયા વિના

પાર્વતીજી દોડ્યાં.

થોડે દૂર એક ઝીલ પાસેથી અવાજ આવતો હતો. પાર્વતીજીએ ઝીલ નજીક જઈ જોયું તો એક સુંદર નિર્દોષ બાળકને એક મગરે પકડી લીધો હતો અને બાળક મદદ માટે પોકાર કરી રહ્યો હતો.

પાર્વતીજીએ મગરને હાથ જોડી વિનંતી કરી, ‘મગરરાજ, આપ આ નાના બાળકને છોડી દો. તેને હજી આખું જીવન જીવવાનું છે.’

મગરે કહ્યું, ‘દેવી, આ મારો આહાર છે. તેને છોડું તો હું ભૂખ્યો રહીશ માટે હું તેને છોડી ન શકું.’

પાર્વતીજીએ કહ્યું, ‘મગરરાજ, આપ મને ખાઈ જાઓ પણ બાળકને છોડી દો.’

મગરે કહ્યું, ‘દેવી, મારે આપને ખાવાં નથી, પરંતુ આપ મને તમારા તપનું ફળ અર્પણ કરો જેથી હું આ જન્મમાંથી મુક્તિ પામી શકું અને બાળકને છોડી દઉં.’

પાર્વતીજીએ કહ્યું, ‘બહુ સારું મગરરાજ, તમે આ બાળકને છોડી દો. મારા માત્ર આ તપનું જ નહીં આખા જન્મ દરમ્યાન મેં જે પુણ્યનો સંચય કર્યો છે એ બધું જ આપને અર્પણ કરું છું.’

પાર્વતીજી આટલું બોલતાં જ ચારે બાજુ પ્રકાશ ફેલાયો અને મગરનું શરીર તપના તેજથી ચમકી ઊઠ્યુ. મગર બાળકને છોડીને અદૃશ્ય થઈ ગયો.

હવે એક સંતોષનો શ્વાસ લઈ પાર્વતીજીએ પોતાનું તપનું ફળ ચાલ્યું ગયું એમ વિચારી ફરીથી તપ કરવાનો નિશ્ચય કર્યો ત્યાં ભગવાન શિવ પ્રગટ થઈ બોલ્યા, ‘દેવી, તમારે ફરીથી તપ કરવાની જરૂર નથી. આ તમારી પરીક્ષા હતી. તમે આ તપ મારું જ કર્યું હતું અને મારા માટે મને જ અર્પણ કર્યું છે, કારણ કે આ મારી લીલા હતી. બાળક પણ હું જ હતો અને મગર પણ હું જ હતો. તમારી દયા અને ત્યાગનો મહિમા જોવા માટે મેં આ લીલા કરી અને આ દાનના ફળસ્વરૂપે તમારી તપસ્યા હવે હજાર ગણી થઈને અક્ષય થઈ ગઈ છે.

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અન્યને લઈને ઊડો


” અન્યને લઈને ઊડો ”

જ્ઞાન સાથે ગમ્મત ( gyan sathe Gammat )

એક દિવસ કંઈક અજુગતું થયું. પક્ષીજગતમાં વાદવિવાદ થયો અને ઊંચે ઊડવાની હરીફાઇ થઈ. નાનાં-નાનાં પંખીઓમાંથી ચકલી હિંમત કરી આગળ આવી અને મોટાં-મોટાં દિગ્ગજ પંખીઓમાંથી બધાંએ ગીધને મોકલ્યો.

ચકલી અને ગીધ વચ્ચે હરીફાઈ નક્કી થઈ. એવું નક્કી થયું કે જે સૌથી ઊંચે પહોંચશે એ વિજયી થશે અને એનો પક્ષ વિજયી ગણાશે. ચકલી નાનકડી હતી. એને ખબર હતી કે એણે ખૂબ મહેનત કરવી પડશે છતાં જીત શક્ય નથી તો પણ એ પ્રયત્ન કરવા તૈયાર હતી. હરીફાઈ શરૂ થતાં જ ચકલી પૂરી તાકાત લગાવી ફરરર…ફરરર… કરતી ઉપર ઊડવા લાગી… પૂરી મહેનતથી પાંખો ફફડાવી એ ઉપર જતી હતી ત્યાં તો એને બે કીડા દેખાયા જે ઉપરથી નીચે પડી રહ્યા હતા. ચકલીએ બન્ને કીડાને ઝીલી લીધા અને ધીરે-ધીરે ઉપર ઊડવા લાગી. બે કીડાનું વજન વધવાથી ચકલીને ઊડવામાં વધુ મહેનત પડતી હતી, પરંતુ એણે મહેનત ચાલુ જ રાખી ઉપર-ઉપર ઊડતી ગઈ.

આ બાજુ હરીફાઈ શરૂ થતાં જ ગીધ તરત જ પોતાની મોટી-મોટી પાંખો ફફડાવી બહુ ઊંચે સુધી પહોંચી ગયું હતું, પરંતુ ત્યાં જ એક પર્વતની તળેટીમાં એને એક સડેલી લાશ દેખાઈ અને ગીધે વિચાર્યું કે લાવ જરાક લાશમાંથી માંસ ખાઈ લઉં પછી પાછું ઉપર જલદી ઊડીને પહોંચી જઈશ. ચકલી મને ક્યાં આંબી શકશે. ગીધ વળી નીચે આવી લાશ ખાવા બેઠું. હરીફાઈ ભૂલી જ ગયું અને આ બાજુ ચકલી ધીમે-ધીમે કરતી ખૂબ ઉપર પહોંચી ગઈ અને હરીફાઈ જીતી ગઈ.

દૂરથી આ હરીફાઈ નિહાળનાર સંત બોલ્યા,

ઊંચે ઊઠે ફિર ના ગિરે,

યહી મનુજ કો કર્મ,

આૈરન લે ઉપર ઊઠે,

ઇસસે બડો ન ધર્મ.

અર્થાત્ એક વાર ઉપર ઊઠી પછી નીચ કાર્ય કરી નીચે ન પડવું જોઈએ એ જ માણસનું કર્મ છે અને બીજાને સાથે લઈ પ્રગતિ કરવી સાચો ધર્મ છે. જે મનુષ્ય જીવનમાં જ્ઞાન-કર્મ-ધર્મના આચરણથી ઊંચાઈ પર પહોંચે – સફળતા મેળવે છે તે મનુષ્યના પતન, નિષ્ફળતા પાછળ તેના કર્મ જવાબદાર હોય છે. જે શાંતિથી, ધીમે-ધીમે અન્યને મદદ કરતાં-કરતાં; અન્યને સાથે લઈ જીવનમાં જ્ઞાન-કર્મ-ધર્મ પથ પર ચાલતા રહે છે તેઓ સફળતાની ઊંચાઈઓને સ્પર્શી શકવામાં સફળ થાય છે.

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સજ્જન કોણ


.” સજ્જન કોણ? ”

જ્ઞાન સાથે ગમ્મત ( gyan sathe Gammat )

 

એક સંત યાત્રાએ નીકળ્યા હતા. લાંબો રસ્તો હતો અને રસ્તામાં રાત પડી ત્યારે નજીકના ગામમાં રોકાવાનો વિચાર કર્યો. સંતજીનો એક નિયમ હતો કે તેઓ કોઈ સદ્ગૃહસ્થ સજ્જન અને ધર્મવાન વ્યક્તિના ઘરનું જ અન્નજળ ગ્રહણ કરતા હતા. હવે અજાણ્યા ગામમાં સજ્જનનું ઘર કયું એ પ્રશ્ન હતો.

સંતે ગામમાં પગ મૂક્યો. પહેલું ઘર જે આવ્યું એનાં દ્વાર ખખડાવ્યાં. એક સજ્જન દેખાતા માણસે દરવાજો ખોલ્યો. સંતે તેમને કહ્યું, ‘હું યાત્રાએ નીકળ્યો છું. અહીં રાત રોકાવા ઇચ્છું છું, પરંતુ મારો નિયમ છે કે હું શુદ્ધ આચારવિચારવાળા માણસને ત્યાં જ અન્નજળ ગ્રહણ કરું છું? શું હું આપના ઘેર એક રાત રોકાઈ શકું? આપ શુદ્ધ આચરણવાળા સજ્જન છો? તો મારો નિયમ જળવાય અને મને આશરો મળે?

પેલા માણસે વિનમ્રતાપૂર્વક જવાબ આપ્યો, ‘મહારાજજી, હું તો નાદાન, નરાધમ છું. ગામમાં મારા સિવાય બીજા બધા સાચા વૈષ્ણવ, શુદ્ધ આચરણવાળા સજ્જન છે છતાં મારી આપને અંતરથી વિનંતી છે કે જો આપ આપનાં પાવન ચરણોથી મારા ઘરને પવિત્ર કરશો અને મને તમારી સેવા કરવાનો મોકો આપશો તો હું મને પોતાને ભાગ્યશાળી માનીશ.’

સંતે નિયમ ન તોડ્યો. આગળ વધ્યા, કોઈ સજ્જનનું ઘર શોધવા અને બીજા ઘરનો દરવાજો ખખડાવ્યો. ત્યાં પણ એક માણસે દરવાજો ખોલ્યો. તેણે પણ જવાબ આપ્યો કે ‘અહીં ગામમાં મારા સિવાય બધા જ સજ્જન છે.’ સંત આગળ ચાલ્યા. ત્રીજા ઘરનો દરવાજો ખખડાવ્યો. ત્યાં પણ આવો જ જવાબ મળ્યો. ચોથા… પાંચમા… છઠ્ઠા… કરતાં સંત આગળ વધતા ગયા. આખા ગામના દરેક ઘરમાંથી આવો જ ઉત્તર મળ્યો. ગામના દરેક નાગરિકે માત્ર પોતાને નરાધમ અને બાકી બીજા બધાને સજ્જન ગણાવ્યા. ગામલોકોના આવા ઉત્તરથી સંત સમજી ગયા કે આ ગામના બધા જ લોકો સાચે સજ્જન અને વૈષ્ણવ છે, જેઓ પોતાનામાં અવગુણ અને અન્યમાં ગુણ જુએ છે. સંતે ગામના મુખીના ઘરે જઈ કહ્યું, ‘તમારા ગામમાં બધા જ સદ્ગૃહસ્થ સજ્જન છે, હું અધમ છું. આજે હું ગામમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરી રાતવાસો કરી ધન્ય બનીશ. તમારા ગામના દરેક સજ્જન ગ્રામવાસીને મારા નમન છે.’

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સેવા કરવાનો વારો


” સેવા કરવાનો વારો ”

જ્ઞાન સાથે ગમ્મત ( gyan sathe Gammat )

રાયબહાદુર લાલચંદજીની ગણના પંજાબના શ્રેષ્ઠ સમાજસુધારકોમાં થતી હતી. સમાજને જ્યારે-જ્યારે જરૂર પડતી ત્યારે તેઓ દાન આપવામાં સદા અગ્રગણ્ય રહેતા.

એક વખત રાયબહાદુર લાલચંદજીએ કન્યાશિક્ષણને પ્રોત્સાહન આપવા ખાસ કન્યા ગુરુકુળને મોટી ધનરાશિ દાનમાં આપી. તેમની આ સવિશેષ ઉદારતા માટે આભાર માનવા કન્યા ગુરુકુળના મુખ્ય આચાર્ય અંગત રીતે મળવા તેમના ઘરે ગયા.

રજાના દિવસે સવારે આચાર્યજી જોડે બે-ત્રણ શિક્ષકોને લઈ લાલચંદજીના ઘરે ગયા. ઘણી વાર સુધી દરવાજો ખખડાવવા છતાં દરવાજો કોઈએ ખોલ્યો નહીં. જરાક ધ્યાનથી જોયું તો દરવાજો માત્ર અટકાવેલો હતો, આમ ખુલ્લો હતો. અને ત્યાં જ અંદરથી અવાજ આવ્યો કે અંદર ચાલ્યા આવો! આ સાંભળી આચાર્યશ્રી અને શિક્ષકગણ અંદર ગયા. અંદરનું દૃશ્ય જોઈ તેઓ બધા હતપ્રભ રહી ગયા.

અંદર કમરામાં એક ખાટલામાં એક વૃદ્ધ વ્યક્તિ સૂતી હતી અને અન્ય વૃદ્ધ વ્યક્તિ તેમના પગ દબાવી રહી હતી અને હતપ્રભ થવાનું કારણ એ હતું કે પગ દબાવનાર વ્યક્તિ રાયબહાદુર લાલચંદજી સ્વયં હતા.

પગ દબાવતાં-દબાવતાં જ લાલચંદજીએ આચાર્યશ્રી અને અન્યોનું સ્વાગત કર્યું. બધાએ વિચાર્યું, સ્વયં લાલચંદજી જેમના પગ દબાવી રહ્યા છે તો તે મહાનુભાવ કોણ હશે? જિજ્ઞાસાવત્ આચાર્યશ્રીએ પૂછ્યું, ‘લાલચંદજી, આપ જેમના પગ દબાવી રહ્યા છો તે મહાનુભાવ કોણ છે? તેમનો પરિચય આપો.’

રાયબહાદુર લાલચંદજીનો જવાબ સાંભળી બધા નવાઈ પામ્યા. લાલચંદજીએ જવાબ આપતા કહ્યું, ‘તે મારો અતિ વિશ્વાસુ સેવક છે. છેલ્લાં ચાલીસ વર્ષથી તેણે મારી દિન-રાત સેવા કરી છે. આજે તેની તબિયત સારી નથી. શરીરમાં ખૂબ જ દુખાવો થાય છે. તેથી હવે તેની સેવા કરવાનો વારો મારો છે, એ કરી રહ્યો છું.’

આ સાંભળી બધાનાં માથાં શ્રદ્ધા થી ઝૂકી ગયાં.

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ઢળતું વાસણ


” ઢળતું વાસણ ”

મહાન ચિંતક કન્ફ્યુશિયસ લૂ દેશમાં ગયા. લૂ દેશના રાજા હોંગ ખૂબ જ ચતુર અને પ્રજાપ્રિય હતા. રાજા હોંગને મળવા કોન્ફુસિયસ તેમના મહેલમાં ગયા.

મહેલમાં તેમણે જોયું કે મહેલના મંદિરમાં વચ્ચોવચ એક મેજ પર એક ઢળતું વાસણ મૂકેલું જોયું.

કન્ફ્યુશિયસે મંદિરના રખેવાળને પૂછ્યું, ‘ભાઈ, અહીં આ વાસણ શાનું છે?’

રખેવાળે જવાબ આપ્યો, ‘મહાત્મા, આ વાસણને અહીં બધા ઢળતું વાસણ કહે છે અને એનો ઉપયોગ બીજો કશો નથી. એને માત્ર આ મેજ પર મૂકવામાં આવ્યું છે.’

કન્ફ્યુશિયસ ચિંતક હતા અને જાણતા હતા કે રાજા હોંગ ખૂબ જ હોશિયાર છે, એથી તેમને રખેવાળના જવાબથી સંતોષ ન થયો. તેમણે વિચાર્યું આ રખેવાળે તો નવું કંઈ ન કહ્યું, માત્ર માહિતી આપી કે વાસણ અહીં મેજ પર ઢળતું રહે છે; પણ શા માટે આ ઢળતું વાસણ મેજ પર રાખવામાં આવ્યું છે એનું ચોક્કસ કોઈ ખાસ કારણ હશે.

કન્ફ્યુશિયસે તપાસ કરવાનું નક્કી કર્યું. બીજે દિવસે વહેલી રાજા હોંગ મંદિરમાં પ્રાર્થના-પૂજા કરવા આવ્યા. પ્રાર્થના-પૂજા-નમસ્કાર બાદ રાજા હોંગ ઢળતા વાસણના મેજ તરફ ગયા, ઢળતું વાસણ ખાલી હતું અને એક તરફ ઢળેલું હતું. બાદ રાજાએ એ વાસણમાં પાણી ભરવાનું કહ્યું.

જેમ-જેમ પાણી ભરાતું ગયું એ વાસણ સમતોલ થઈ ગયું અને બરાબર સીધું થઈ ગયું અને રાજાએ હજી વધુ પાણી ભરવાનું કહ્યું અને છલોછલ ભરતાં જેવું પાણી છલકાયું કે વાસણ મેજ પરથી ગબડી પડ્યું, ત્યાર બાદ રાજા વાસણ અને મંદિરમાં નમન કરી નીકળી ગયો.

કન્ફ્યુશિયસે રાજાની આ આખી પ્રાર્થનાની પ્રક્રિયા જોઈ. થોડું સમજાયું, થોડું નહીં. તેઓ રાજા પાસે ગયા અને રાજા હોંગને ઢળતાં વાસણનું રહસ્ય પૂછ્યું. રાજા હોંગે સૌપ્રથમ ચિંતક કન્ફ્યુશિયસને વંદન કર્યા. પછી કહ્યું, ‘આ ઢળતું વાસણ આપણા મન, જીવનનું પ્રતીક છે. કંઈ જ નથી ત્યારે ખાલીખમ કોઈ પણ બાજુ ઢળેલું રહે છે, જ્યારે મન, જીવન, કોઈ પણ સારી વસ્તુ-વિચારોથી ભરાય છે ત્યારે એ સીધું અને સમતોલ થઈ જાય છે અને જ્યારે કોઈ પણ વસ્તુ કે વિચારોનો અતિરેક થાય છે ત્યારે પડી જવાય છે. હું હંમેશાં સાવધાન રહેવા રોજ આ પ્રક્રિયા કરું છું.

કન્ફ્યુશિયસ ખૂબ જ ખુશ થયા અને બીજા દિવસે પોતાના શિષ્યોને જીવનનું સત્ય સમજાવવા રાજા હોંગની પ્રાર્થનામાં લઈ ગયા.

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મુક્તાફળનો આસ્વાદ


“મુક્તાફળનો આસ્વાદ”

જ્ઞાન સાથે ગમ્મત ( gyan sathe Gammat )

બેટા, તને ફળ લેવા મોકલ્યો હતો અને ખાલી થેલી લઈને પાછો આવ્યો? શું થયું? રસ્તામાં કંઈ અકસ્માત નડ્યો? કોઈ દોડતી ગાયે ફળ પાડી નાખ્યાં કે પછી પૈસા જ રસ્તામાં પડી ગયા?’ ફળ લેવા મોકલેલા દીકરાને ખાલી હાથે આવેલો જોઈને પિતાએ પ્રશ્ન ની ઝડી વરસાવી. એમાં પુત્રની ચિંતા હતી.

બાર વર્ષના પુત્રે કહ્યું, ‘મેં તો આપની આજ્ઞાનું પાલન જ કર્યું છે. આપે મગાવેલાં ફળ કરતાંય ચડિયાતાં મીઠાં-મધુરાં ફળ આજે તો હું લઈને આવ્યો છું.’

પિતાજીએ પૂછ્યું, ‘ક્યાં છે ફળ?’

પુત્ર બોલ્યો, ‘પિતાજી, એ ફળનો આસ્વાદ લેતાં પહેલાં તમારે મારી વાત સાંભળવી પડશે. હમણાં જ એનો મધુરો સ્વાદ તમને ચખાડું. આવાં ફળ કદાચ જીવનમાં પહેલી વાર જ તમને ચાખવા મળશે.’

પિતાજી બોલ્યા, ‘કયાં ફળ? કોની વાડીનાં છે? કઈ ઋતુમાં ઊગે છે?’

પુત્ર બોલ્યો, ‘આ ફળ તો બારમાસી છે અને દુનિયાભરમાં ઉગાડી શકાય છે.’

પિતા બોલ્યા, ‘હવે તો તું જલદી સમજાવ ક્યાં છે ફળ?’

પુત્ર કહે, ‘પહેલાં મારી વાત સાંભળો. હું ફળ ખરીદવા ફ્રૂટમાર્કેટમાં ગયો. ત્યાં એક દૃશ્ય નિહાળી થંભી ગયો. શારીરિક રીતે એક અક્ષમ માણસ ભૂખથી તરફડી રહ્યો હતો. તેની આંખોમાં છવાયેલી દીનતા મારા હૈયાસોંસરવી નીકળી ગઈ. એ જ પળે મારા મનમાં વીજળીની માફક એક વિચાર આવ્યો – ફળ લાવવા આપેલા પૈસાની આ માણસને બહુ જરૂર છે. ભૂખ્યાને રોટી આપવી અને દુ:ખીને દિલાસો દેવો એ ઈશ્વરનો આદેશ છે. હું એ આદેશ અમલમાં મૂકીને આવ્યો છું પિતાજી. એ પૈસામાંથી હું તેના માટે ભોજનસામગ્રી લઈ આવ્યો. જમતાં-જમતાં તેની આંખોમાં આનંદની જે ચમક આવી અને મુખ પર સંતોષની જે લાગણી આવી, તેને જે અપૂર્વ આનંદ મળ્યો એનું ફળ ખૂબ જ મિષ્ટ-મધુરું લાગ્યું અને એની સામે બધાં ફળ ફિક્કાં લાગે. દેવોનેય દુર્લભ એ મુક્તાફળ આજે હું આપની પાસે લઈ આવ્યો છું. આપના જ આપેલા ઉપદેશનું મેં પાલન કર્યું છે.’

પુત્રની વાત સાંભળી પિતાની છાતી ગજ-ગજ ફૂલી. પુત્રને આપેલા સંસ્કાર આજે દીપી ઊઠ્યાં હતા. પુત્રને આપેલું શિક્ષણ આજે સાર્થક થયું હતું. પોતાના પરદુ:ખભંજક પુત્રને પિતા પ્રેમથી ભેટી પડ્યા અને બોલ્યા, ‘બેટા, આવા મુસ્તાફળનો આસ્વાદ તું જીવનભર મેળવતો રહે એવા મારા તને આર્શીવાદ છે.’

મુક્તાફળનો અદ્ભુત આસ્વાદ કરનાર, કરાવનાર એ બાળક હતા સંત રંગદાસ.