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अंबेडकर – दूध का दूध पानी का पानी  !
6 दिसंबर 1956 को माननीय डा. अंबेडकर जी का देहावसान हुआ । कानपुर के वैदिक गवेषक पंडित शिवपूजन सिंह जी का चर्चित ‘भ्रांति निवारण’  सोलह पृष्ठीय लेख  ‘सार्वदेशिक ‘ मासिक के जुलाई-अगस्त 1951अंक में उनके देहावसान के पांच वर्ष तीन माह  पूर्व प्रकाशित हुआ । डा. अंबेडकर जी इस मासिक से भलीभांति परिचित थे और तभी यह चर्चित अंक भी उनकी सेवा में.भिजवा दिया गया था । लेख  डा. अंबेडकर के वेदादि विषयक विचारों की समीक्षा में 54 प्रामाणिक  उद्धरणों के साथ लिखा गया था। इसकी प्रति विदर्भ के वाशिम जनपद के आर्य समाज कारंजा के प्राचीन ग्रंथालय में सुरक्षित है।
आशा थी कि अंबेडकर जी जैसे प्रतिभाशाली विद्वान या तो इसका उत्तर देते या फिर अपनी पुस्तकें बताये गये अकाट्य तथ्यों की रोशनी में संपादित करते। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। ऐसा इसलिये कि जो जातिगत भेदभाव और अपमान उन्होंने लगातार सहा उसकी वेदना और विद्रोह ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
डा. अंबेडकर जी की दोनों पुस्तकें – अछूत कौन और कैसे तथा शूद्रों की खोज – पर लेख शंका समाधान शैली में लिखा गया था पर डा. कुशलदेव शास्त्री जी ने इसे सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रुपांतरित किया है जिसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस लेख को स्वामी जी द्वारा लिखित ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ के आलोक में पढ़कर सत्यासत्य का निर्णय सहर्ष लिया जा सकता है ।
1 – ‘ अछूत कौन और कैसे ‘
डा. अंबेडकर- आर्य लोग निर्विवाद रूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे,जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य और दूसरे यजुर्वेदीय आर्य , जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी।ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे,अथर्ववेदीय जादू-टोना में।
पंडित शिवपूजन सिंह- दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप जैसे कुछ मस्तिकों की उपज है।यह केवल कपोल कल्पना या कल्पना विलास है।इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है।कोई ऐतिहासिक विद्वान भी इसका समर्थन नहीं करता।अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नहीं है।
डा. अंबेडकर- ऋग्वेद में आर्यदेवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (सांप देवता) से होता है,जो कालांतर में नाग देवता के नाम से प्रसिध्द हुआ।
पं. शिवपूजन सिंह- वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश पाताल का अंतर है।यहाँ इंद्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है।यह संघर्ष आर्य देवता और और नाग देवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होने वाला संघर्ष है।वैदिक शब्दों के विषय में.निरुक्त का ही मत मान्य होता है।वैदिक निरूक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण ही आपको भ्रम हुआ है।
डा. अंबेडकर- महामहोपाध्याय डा. काणे का मत है कि गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेही संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था की गयी है।
पं. शिवपूजन सिंह- श्री काणे जी ने वाजसनेही संहिता का कोई प्रमाण और संदर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है।आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।
डा. अंबेडकर- ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।
पं. शिवपूजन सिंह- कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं , किंतु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खंडन किया है।वेद में गोमांस भक्षण  विरोध करने वाले 22 विद्वानों के मेरे पास स-संदर्भ प्रमाण हैं।ऋग्वेद से गोहत्या और गोमास भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं , वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अंतर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं । जैसे वेद में’उक्ष’ बलवर्धक औषधि का नाम है  जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ‘बैल’ क्यों न हो ।
डा. अंबेडकर- बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता । मधुपर्क में मांस और विशेष रूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है ।
पं. शिवपूजन सिंह- आपका यह विधान वेदों पर नहीं अपितु गृह्यसूत्रों पर आधारित है । गृहसूत्रों के वचन वेद विरूध्द होने से माननीय नहीं हैं । वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती जी के अनुसार,” दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है । उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है ।”
डा. अंबेडकर- अतिथि के लिये गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही ‘गोघ्न’ , अर्थात् गौ की हत्या करना पड़ गया था ।
प. शिवपूजन सिंह- ‘गोघ्न’ का अर्थ गौ की हत्या करने वाला नहीं है । यह शब्द ‘गौ’ और ‘हन’ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं , यथा – वाणी , जल , सुखविशेष , नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ‘हन’ का अर्थ ‘गति’ और ‘हिंसा’ बतलाते हैं।गति के अर्थ हैं – ज्ञान , गमन , और प्राप्ति । प्राय: सभी सभ्य देशों में जब किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिये गृहपति घर से बाहर आते हुये कुछ गति करता है , चलता है,उससे मधुर वाणी में बोलता है , फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासंभव उसके सुख के लिये अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिये कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है नहीं , गृहपति की आंखें भी उस ओर टकटकी लगाये रहती हैं । ‘गोघ्न’ का अर्थ हुआ – ‘ गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै: स गोघ्न: ‘ = जिसके लिये गौदान की जाती है , वह अतिथि ‘गोघ्न’ कहलाता है ।
डा. अंबेडकर- हिंदू ब्राह्मण हो या अब्राह्मण , न केवल मांसाहारी थे , किंतु गोमांसहारी भी थे ।
प. शिवपूजन सिंह- आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिये मांस भक्षण का भी विधान नहीं है ।
डा. अंबेडकर- मनु ने गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया । उसने तो विशेष अवसरों पर ‘गो-मांसाहार’ अनिवार्य ठहराया है ।
पं. शिवपूजन सिंह- मनुस्मृति में कहीं भी मांसभक्षण का वर्णन नहीं है । जो है वो प्रक्षिप्त है । आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया कि मनु जी ने कहां पर गोमांस अनिवार्य ठहराया है। मनु ( 5/51 ) के अनुसार हत्या की अनुमति देनेवाला , अंगों को काटने वाला , मारनेवाला , क्रय और विक्रय करने वाला , पकाने वाला , परोसने वाला और खानेवाला इन सबको घातक कहा गया है ।

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2- ‘ शूद्रों की खोज ‘
डा. अंबेडकर- पुरूष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिध्दि के लिये प्रक्षिप्त किया है।कोल बुक का कथन है कि पुरूष सूक्त छंद और शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न है।अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरूष सूक्त बाद का बना हुआ है।
पं. शिवपूजन सिंह- आपने जो पुरूष सूक्त पर आक्षेप किया है वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है।आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरूषों का समुदाय – ‘संगठित समुदाय’- ‘एक पुरूष’ रूप है।इस समुदाय पुरूष या राष्ट्र पुरूष के यथार्थ परिचय के लिये पुरुष सूक्त के मुख्य मंत्र ‘ ब्राह्मणोSस्य मुखमासीत्…’ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिये।
उक्त मंत्र में कहा गया है कि ब्राह्मण मुख है , क्षत्रिय भुजाएँ , वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख , केवल भुजाएँ , केवल जङ्घाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं अपितु मुख , भुजाएँ , जङ्घाएँ और पैर ‘इनका समुदाय’ पुरुष अवश्य है।वह समुदाय भी यदि असंगठित और क्रम रहित अवस्था में है तो उसे हम पुरूष नहीं कहेंगे।उस समुदाय को पुरूष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।
राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं , भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय हैं , जङ्घाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं । राष्ट्र में चारों वर्ण जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं तभी इनकी पुरूष संज्ञा होती है । अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते ।

आधिभौतिक दृष्टि से यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान , क्षात्र , व्यापार- व्यवसाय , परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ‘एक पुरुष’ रूप है।

चर्चित मंत्र का महर्षि दयानंद जी इसप्रकार अर्थ करते हैं-
“इस पुरूष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण , सत्य भाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है । इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है।इस पुरुष के उपदेश से खेती , व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना और पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिध्द होता है।जैसे पग सबसे नीचे का अंग है वैसे मूर्खता आदि गुणों से शूद्र वर्ण सिध्द होता है।”
आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद जोड़ दिया गया सर्वथा भ्रमपूर्ण है।मैंने अपनी पुस्तक ” ऋग्वेद दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात ” में संपूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खंडन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल , जिसमें पुरूष सूक्त भी विद्यमान है , बाद का बना हूआ है ।
डा. अंबेडकर- शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय हैं।ऋग्वेद में सुदास , तुरवाशा , तृप्सु,भरत आदि शूद्रों के नाम आये हैं।
पं. शिवपूजन सिंह- वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं , रूढ़ि नहीं । आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है वो ऐतिहासिक नाम नहीं हैं । वेद में इतिहास नहीं है क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया गया ज्ञान है ।
डा. अंबेडकर- छत्रपति शिवाजी शूद्र और राजपूत हूणों की संतान हैं (शूद्रों की खोज , दसवां अध्याय , पृष्ठ , 77-96)
पं. शिवपूजन सिंह- शिवाजी शूद्र नहीं क्षत्रिय थे।इसके लिये अनेक प्रमाण इतिहासों.में भरे पड़े हैं । राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ महामहोपाध्याय डा. गौरीशंकर हीराचंद ओझा , डी.लिट् , लिखते हैं- ‘ मराठा जाति दक्षिणी हिंदुस्तान की रहने वाली है । उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल पुरुष मेवाड़ के सिसौदिया राजवंश से ही था।’  कविराज श्यामल दास जी लिखते है – ‘ शिवाजी महाराणा अजय सिंह के वंश में थे। ‘  यही सिध्दांत डा. बालकृष्ण जी , एम. ए. , डी.लिट् , एफ.आर.एस.एस. , का भी था।

इसीप्रकार राजपूत हूणों की संतान नहीं किंतु शुध्द क्षत्रिय हैं । श्री चिंतामणि विनामक वैद्य , एम.ए. , श्री ई. बी. कावेल , श्री शेरिंग , श्री व्हीलर , श्री हंटर , श्री क्रूक , पं. नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य , एम.एम.डी.एल. आदि विद्वान राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते हैं।प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है कि जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत दोनों एक ही श्रेणी के हैं ।

– ‘ आर्य समाज और डा. अंबेडकर,

डा. कुशलदेव शास्त्री

(डॉ. अरुण लवानिया)

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नालंदा विश्वविद्यालयन को क्यों जलाया गया था..?

जानिए सच्चाई …??

एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क लूटेरा था….बख्तियार

खिलजी.

इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।

उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित

कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.

एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने

उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली …

मगर वह ठीक नहीं हो सका.

किसी ने उसको सलाह दी…

नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के

प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र

जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय

विधियों से इलाज कराया जाय

उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय

वैद्य …

उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और

वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए

फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए

उनको बुलाना पड़ा

उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी…

मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा…

किसी भी तरह मुझे ठीक करों …

वर्ना …मरने के लिए तैयार रहो.

बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई… बहुत

उपाय सोचा…

अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर

चले गए..

कहा…इस कुरान की पृष्ठ संख्या … इतने से

इतने तक पढ़ लीजिये… ठीक हो जायेंगे…!

उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..

जी गया…

उसको बड़ी झुंझलाहट

हुई…उसको ख़ुशी नहीं हुई

उसको बहुत गुस्सा आया कि … उसके

मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय

वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है…!

बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने

के बदले …उनको पुरस्कार देना तो दूर …

उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग

लगवा दिया …पुस्तकालयों को ही जला के

राख कर दिया…!

वहां इतनी पुस्तकें थीं कि …आग

लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके

जलती रहीं

उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार

डाले.

आज भी बेशरम सरकारें…उस नालायक

बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन

बनाये पड़ी हैं… !

उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को…

मैंने यह तो बताया ही नहीं… कुरान पढ़ के वह

कैसे ठीक हुआ था.

हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर

रख के नहीं पढ़ते…

थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते

मिएँ ठीक उलटा करते हैं….. कुरान के हर पेज

को थूक लगा लगा के पलटते हैं…!

बस…

वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ

पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप

लगा दिया था…

वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट

गया…ठीक हो गया और उसने इस एहसान

का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया

आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान

लेते है

यह प्राचीन भारत में उच्च्

शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और

विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के

इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के

साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के

छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में

पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण–पूर्व

और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में

एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम

द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध

विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन

वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक

पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण

के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग

तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस

विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत

जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं

शताब्दी में

यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक

विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत

किया था। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारिपुत्र’

का जन्म यहीं पर हुआ था।

स्थापना व संरक्षण

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय

गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७०

को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार

गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग

मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले

सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में

अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट

हर्षवर्द्धन और पाल

शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए

शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के

साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से

भी अनुदान मिला।

स्वरूप

यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय

विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें

विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं

अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस

विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न

क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान,

चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस

तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण

करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट

शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध

धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय

की नौवीं शती से बारहवीं शती

तक

अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।

परिसर

अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र

में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य

कला का अद्भुत नमूना था।

इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से

घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य

द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर

मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक

भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध

भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं।

केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और

इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें

व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में

तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के

होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल

के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर

की चौकी होती थी। दीपक,

पुस्तक

इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे।

प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था।

आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक

प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के

अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें

भी थी।

प्रबंधन

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध

कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे

जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे।

कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के

परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम

समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य

देखती थी और द्वितीय समिति सारे

विश्वविद्यालय की आर्थिक

व्यवस्था तथा प्रशासन की देख–भाल

करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले

दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय

की देख–रेख यही समिति करती थी।

इसी से

सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े

तथा आवास का प्रबंध होता था।

आचार्य

इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के

आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम,

द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे।

नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र,

धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और

स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग

के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख

शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक

और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से

ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ

एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस

विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे

जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध

है

वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र।

ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ

आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र

३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ

का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।

प्रवेश के नियम

प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और

उसके कारण

प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते

थे। उन्हें तीन कठिन

परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था।

यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध

आचरण और संघ के नियमों का पालन

करना अत्यंत आवश्यक था।

अध्ययन-अध्यापन पद्धति

इस विश्वविद्यालय में आचार्य

छात्रों को मौखिक व्याख्यान

द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त

पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी।

शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर

में अध्ययन तथा शंका समाधान

चलता रहता था।

अध्ययन क्षेत्र

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन,

वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं

का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत

और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण,

दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र

तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के

अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक

काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ

विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु

की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान

का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र

अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।

पुस्तकालय

नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और

आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक

विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से

अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस

पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें

थी। यह ‘रत्नरंजक’ ‘रत्नोदधि’ ‘रत्नसागर’

नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था।

‘रत्नोदधि’ पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य

हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से

अनेक

पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने

साथ ले गये थे।

Posted in हिन्दू पतन

*भारत में मुसलमानो के 800 वर्ष के शासन का झूठ : 
_*क्या भारत में मुसलमानों ने 800 वर्षों तक शासन किया है-*_

_सुनने में यही आता है पर न कभी कोई आत्ममंथन करता है और न इतिहास का सही अवलोकन। आईये देखते हैं, इतिहास के वास्तविक नायक कौन थे? और उन्होंने किस प्रकार मुगलिया ताकतों को रोके रखा और भारतीय संस्कृति की रक्षा में सफल रहे।_
_*राजा दाहिर : प्रारम्भ करते है मुहम्मद बिन कासिम के समय से-*_

_भारत पर पहला आक्रमण मुहम्मद बिन ने 711 ई में सिंध पर किया। राजा दाहिर पूरी शक्ति से लड़े और मुसलमानों के धोखे के शिकार होकर वीरगति को प्राप्त हुए।_
_*बप्पा रावल:*_ _दूसरा हमला 735 में राजपुताना पर हुआ जब हज्जात ने सेना भेजकर बप्पा रावल के राज्य पर आक्रमण किया। वीर बप्पा रावल ने मुसलमानों को न केवल खदेड़ा बल्कि अफगानिस्तान तक मुस्लिम राज्यों को रौंदते हुए अरब की सीमा तक पहुँच गए। ईरान अफगानिस्तान के मुस्लिम सुल्तानों ने उन्हें अपनी पुत्रियां भेंट की और उन्होंने 35 मुस्लिम लड़कियों से विवाह करके सनातन धर्म का डंका पुन: बजाया। बप्पा रावल का इतिहास कही नहीं पढ़ाया जाता। यहाँ तक की अधिकतर इतिहासकर उनका नाम भी छुपाते है। गिनती भर हिन्दू होंगे जो उनका नाम जानते हैं!_
*_दूसरे ही युद्ध में भारत से इस्लाम समाप्त हो चुका था। ये था भारत में पहली बार इस्लाम का नाश।_*
_*सोमनाथ के रक्षक राजा जयपाल और आनंदपाल:*_ _अब आगे बढ़ते है गजनवी पर। बप्पा रावल के आक्रमणों से मुसलमान इतने भयक्रांत हुए की अगले 300 सालों तक वे भारत से दूर रहे।_
_इसके बाद महमूद गजनवी ने 1002 से 1017 तक भारत पर कई आक्रमण किये पर हर बार उसे भारत के हिन्दू राजाओ से कड़ा उत्तर मिला। पहले राजा जयपाल और फिर उनका पुत्र आनंदपाल, दोनों ने उसे मार भगाया था।_
_महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर भी कई आक्रमण किये पर 17 वे युद्ध में उसे सफलता मिली थी। सोमनाथ के शिवलिंग को उसने तोडा नहीं था बल्कि उसे लूट कर वह काबा ले गया था। जिसका रहस्य आपके समक्ष जल्द ही रखता हु। यहाँ से उसे शिवलिंग तो मिल गया जो चुम्बक का बना हुआ था। पर खजाना नहीं मिला। भारतीय राजाओ के निरंतर आक्रमण से वह वापिस गजनी लौट गया और अगले 100 सालो तक कोई भी मुस्लिम आक्रमणकारी भारत पर आक्रमण न कर सका।_
_*सम्राट पृथ्वीराज चौहान:*_ _1098 में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज राज चौहान को 16 युद्द के बाद परास्त किया और अजमेर व दिल्ली पर उसके गुलाम वंश के शासक जैसे कुतुबुद्दीन, इल्तुमिश व बलवन दिल्ली से आगे न बढ़ सके। उन्हें हिन्दू राजाओ के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। पश्चिमी द्वार खुला रहा जहाँ से बाद में ख़िलजी लोधी तुगलक आदि आये। ख़िलजी भारत के उत्तरी भाग से होते हुए बिहार बंगाल पहुँच गए। कूच बिहार व बंगाल में मुसलमानो का राज्य हो गया पर बिहार व अवध प्रदेश मुसलमानो से अब भी दूर थे। शेष भारत में केवल गुजरात ही मुसलमानो के अधिकार में था। अन्य भाग स्वतन्त्र थे।_
_*राणा सांगा:-*_ _1526 में राणा सांगा ने इब्राहिम लोधी के विरुद्ध बाबर को बुलाया। बाबर ने लोधियों की सत्ता तो उखाड़ दी पर वो भारत की सम्पन्नता देख यही रुक गया और राणा सांगा को उसने युद्ध में हरा दिया। चित्तोड़ तब भी स्वतंत्र रहा पर अब दिल्ली मुगलो के अधिकार में थी। हुमायूँ दिल्ली पर अधिकार नहीं कर पाया पर उसका बेटा अवश्य दिल्ली से आगरा के भाग पर शासन करने में सफल रहा। तब तक कश्मीर भी मुसलमानो के अधिकार में आ चूका था।_
*_महाराणा प्रताप:-_*

  _अकबर पुरे जीवन महाराणा प्रताप से युद्ध में व्यस्त रहा। जो बाप्पा रावल के ही वंशज थे और उदय सिंह के पुत्र थे जिनके पूर्वजो ने 700 सालो तक मुस्लिम आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना किया। जहाँगीर व शाहजहाँ भी राजपूतों से युद्धों में व्यस्त रहे व भारत के बाकी भाग पर राज्य न कर पाये।_
_दक्षिण में बीजापुर में तब तक इस्लाम शासन स्थापित हो चुका था।_
*_छत्रपति शिवाजी महाराज:_* _औरंगजेब के समय में मराठा शक्ति का उदय हुआ और शिवाजी महाराज से लेकर पेशवाओ ने मुगलो की जड़े खोद डाली। शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य का विस्तार उनके बाद आने वाले मराठा वीरों ने किया। बाजीराव पेशवा इन्होने मराठा सम्राज्य को भारत में हिमाचल बंगाल और पुरे दक्षिण में फैलाया। दिल्ली में उन्होंने आक्रमण से पहले गौरी शंकर भगवान से मन्नत मांगी थी कि यदि वे सफल रहे तो चांदनी चौक में वे भव्य मंदिर बनाएंगे। जहाँ कभी पीपल के पेड़ के नीचे 5 शिवलिंग रखे थे। बाजीराव ने दिल्ली पर अधिकार किया और गौरी शंकर मंदिर का निर्माण किया। जिसका प्रमाण मंदिर के बाहर उनके नाम का लगा हुआ शिलालेख है। बाजीराव पेशवा ने एक शक्तिशाली हिन्दुराष्ट्र की स्थापना की जो 1830 तक अंग्रेजो के आने तक स्थापित रहा।_
_*अंग्रेजों और मुगलों की मिलीभगत:*_

  _मुगल सुल्तान मराठाओ को चौथ व कर देते रहे थे और केवल लालकिले तक सिमित रह गए थे। और वे तब तक शक्तिहीन रहे। जब तक अंग्रेज भारत में नहीं आ गए। 1760 के बाद भारत में मुस्लिम जनसँख्या में जबरदस्त गिरावट हुई जो 1800 तक मात्र 7 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी। अंग्रेजो के आने के बाद मुसल्मानो को संजीवनी मिली और पुन इस्लाम को खड़ा किया गया, ताकि भारत में सनातन धर्म को नष्ट किया जा सके। इसलिए अंग्रेजो ने 50 साल से अधिक समय से पहले ही मुसलमानो के सहारे भारत विभाजन का षड्यंत्र रच लिया था। मुसलमानो के हिन्दु विरोधी रवैये व उनके धार्मिक जूनून को अंग्रेजो ने सही से प्रयोग किया तो यह झूठा इतिहास क्यों पढ़ाया गया?:-_

 _असल में हिन्दुओ पर 1200 सालो के निरंतर आक्रमण के बाद भी जब भारत पर इस्लामिक शासन स्थापित नहीं हुआ और न ही अंग्रेज इस देश को पूरा समाप्त कर सके। तो उन्होंने शिक्षा को अपना अस्त्र बनाया और इतिहास में फेरबदल किये। अब हिन्दुओ की मानसिकता को बदलना है तो उन्हें ये बताना होगा की तुम गुलाम हो। लगातार जब यही भाव हिन्दुओ में होगा तो वे स्वयं को कमजोर और अत्याचारी को शक्तिशाली समझेंगे। इसी चाल के अंतर्गत ही हमारा जातीय नाम आर्य के स्थान पर हिन्दू रख दिया गया, जिसका अर्थ होता है काफ़िर, काला, चोर, नीच आदि ताकि हम आत्महीनता के शिकार हो अपने गौरव, धर्म, इतिहास और राष्ट्रीयता से विमुख हो दासत्व मनोवृति से पीड़ित हो सकें। *वास्तव में हमारे सनातन धर्म के किसी भी शास्त्र और ग्रन्थ में हिन्दू शब्द कहीं भी नहीं मिलता बल्कि शास्त्रो में हमे आर्य, आर्यपुत्र और आर्यवर्त राष्ट्र के वासी बताया गया है। आज भी पंडित लोग संकल्प पाठ कराते हुए  “आर्यवर्त अन्तर्गते…”* का उच्चारण कराते हैं । अत: भारत के हिन्दुओ को मानसिक गुलाम बनाया गया जिसके लिए झूठे इतिहास का सहारा लिया गया और परिणाम सामने है।_
 _*लुटेरे और चोरो को आज हम बादशाह सुलतान नामो से पुकारते है उनके नाम पर सड़के बनाते है।* शहरो के नाम रखते है और उसका कोई हिन्दू विरोध भी नहीं करता जो बिना गुलाम मानसिकता के संभव नहीं सकता था। इसलिए उन्होंने नई रण नीति अपनाई। इतिहास बदलो, मन बदलो और गुलाम बनाओ। यही आज तक होता आया है। जिसे हमने मित्र माना वही अंत में हमारी पीठ पर वार करता है। इसलिए झूठे इतिहास और झूठे मित्र दोनों से सावधान रहने की आवश्यकता है।_
_*इस लेख को अधिक से अधिक जनता तक पहुंचाएं। हमें अपना वास्तविक इतिहास जानने का न केवल अधिकार है अपितु तीव्र आवश्यकता भी, ताकि हम उस दास मानसिकता से मुक्त हो सकें जो हम सब के अंदर घर कर गयी है, ताकि हम जान सकें की हम कायर और विभाजित पूर्वजों की सन्तान नहीं, हम कर्मठ और संगठित वीरों की सन्तान हैं।*

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मूर्ती पूजा का रहस्य जरूर पढ़े :-


मूर्ती पूजा का रहस्य जरूर पढ़े :-
कोई कहे की की हिन्दू मूर्ती पूजा क्यों

करते हैं तो उन्हें बता दें

मूर्ती पूजा का रहस्य :-
स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने

अपने भवन में बुलाया और बोला,
“तुम हिन्दू लोग मूर्ती की पूजा करते हो!

मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ती का.!
पर मैं ये सब नही मानता।

ये तो केवल एक पदार्थ है।”
उस राजा के सिंहासन के पीछे

किसी आदमी की तस्वीर लगी थी।
विवेकानंद जी कि नजर उस

तस्वीर पर पड़ी।
विवेकानंद जी ने राजा से पूछा,

“राजा जी, ये तस्वीर किसकी है?”
राजा बोला, “मेरे पिताजी की।”
स्वामी जी बोले, “उस तस्वीर को अपने

हाथ में लीजिये।”
राज तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।
स्वामी जी राजा से : “अब आप उस

तस्वीर पर थूकिए!”
राजा : “ये आप क्या बोल रहे हैं

स्वामी जी.?
“स्वामी जी : “मैंने कहा उस

तस्वीर पर थूकिए..!”
राजा (क्रोध से) : “स्वामी जी, आप होश मे

तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।”
स्वामी जी बोले, “क्यों?
ये तस्वीर तो केवल

एक कागज का टुकड़ा है,

और जिस पर कूछ रंग लगा है।
इसमे ना तो जान है,
ना आवाज,
ना तो ये सुन सकता है,
और ना ही कूछ बोल सकता है।”
और स्वामी जी बोलते गए,
“इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण।
फिर भी आप इस पर कभी थूक

नही सकते।
क्योंकि आप इसमे अपने

पिता का स्वरूप देखते हो।
और आप इस तस्वीर का अनादर

करना अपने पिता का अनादर करना

ही समझते हो।”
थोड़े मौन के बाद स्वामी जी आगे कहाँ,

“वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी,

या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान

कर करते हैं।
भगवान तो कण-कण मे है, पर

एक आधार मानने के लिए और

मन को एकाग्र करने के

लिए हम मूर्ती पूजा करते हैं।”
स्वामी जी की बात सुनकर राजा ने

स्वामी जी के चरणों में गिर कर

क्षमा माँगी।
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