Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

राजस्थान की रियासत मेवाड (उदयपुर) मे सच्ची घटना


राजस्थान की रियासत मेवाड (उदयपुर) मे सच्ची घटना जो इस बात का जीता जागता प्रमाण है कि सच्चाई पर चलने वाला को हमेशा छल से ही ठगा गया है और मान बडाई वाले कभी सत्य ऊपर नही आने देते । मेरी राजस्थान यात्रा के दोरान उदयपुर मे गाईड से सुने कुछ अंश जो हु ब हु इंटरनेट पर भी उपलब्ध है । कोई व्यक्ति विशेष आहत ना करे क्युकी ये इतिहास के सच्चे अंश है
बहुत समय पहले की बात है। मेवाड़ में एक राणा राज्य करता था। वह बहुत ही दयालु और परोपकारी था। उसे खेल तमाषे देखने का बड़ा शौक था। उसके दरबार में दूर दूर के बाजीगर आकर तमाशा दिखाते थे।एक दिन मेवाड़ में एक नट परिवार आया। उस परिवार में एक मुखिया, उसकी पत्नी, दो बेटे और एक बेटी थी। बेटी का नाम गलकी था। गलकी बहुत ही सुंदर थी। उसके अंगों में इतनी लचक थी कि, वह उन्हें जैसा चाहती, तोड़ मरोड़ सकती थी।

गलकी चमड़े की बनी रस्सी पर इतना आकर्षक नृत्य करती थी, जितना दूसरी नटनियां जमीन पर भी न कर सकतीं। उसके नृत्य को देखकर बड़े बड़े लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे। कुछ ही दिनों में उसकी चर्चा सारे शहर में होने लगी।

फिर तो गलकी के खेल तमाषे बड़े बड़े ठाकुरों और सामंतों की हवेलियों व डेरों में होने लगे।

एक दिन राणा का दरबार लगा हुआ था। खेल तमाशों की चर्चा चली तो चूड़ावत सरदार ने कहा, ”महाराज, आजकल हमारे शहर में एक चमत्कारी नटनी आई हुई है। वह रस्सी पर इतना अद्भूत नाच करती है कि लोग देखते ही रह जाते हैं।“

राणा ने झट से पूछ लिया, ”कौन है वह?“

इस पर दूसरे दरबारी ने कहा, ”महाराज, वह एक नटनी है, नाच की तो वह महारानी है।“

राणा ने तुरंत हुक्म दिया कि उसे बुलाया जाए। महाराणा का हुक्म पाते ही कुछ सेवक उस नट परिवार को बुला लाए।

गलकी को राणा के सामने हाजिर किया गया।

राणा ने उसे गौर से देखा और कहा, ”ऐ नटनी, तेरा तो बदन ही इतना नाजुक सा है, तू भला क्या नाच दिखाएगी?“नटनी अपने फन में माहिर थी, राणा का इस तरह बोलना उसे अपमानजनक लगा। उसके खून में तो जोश था ही, वह लापरवाह और निडर भी थी। तपाक से बात बोल गई, ”माई बाप! आप हमारे अन्नदाता हैं, आपके पांवों की हम धूल चाटते हैं। लेकिन छोटे मुंह आज मैं बड़ी बात कह रही हूं। आपने अभी तक बंद महलों में ही नाच देखे हैं, खुले आकाश के नीचे जब हमारा नाच देखेंगे, तब असलियत जानेंगे।“

राणा को उस गरीब नटनी की बात लग गई। वह कड़ककर बोले, ”ऐसा तू कौन सा नाच दिखाएगी नटनी?“

नटनी ने बेधड़क होकर जवाब दिया, ”आपकी किसी झील पर एक रस्सी बंधेगी और उस पर तलवार लेकर नाचूंगी।“

सुनकर राणा भौंचक्के रह गए। बोले, ”हमें विश्वास नहीं होता।“

गलकी महान कलाकार थी, वह गर्व से बोली, ”आप हुक्म तो दीजिए, फिर अपनी आंखों से देखिएगा।“

उसका साहस देखकर राणा ने चुनौती दी, ”यदि तूने पिछौला झील को रस्से पर नाचते हुए पार कर लिया तो हम तुम्हें मेवाड़ का आधा राज्य दे देंगे।“

इस घोषणा के साथ ही सारे सामंतों व उमरावों की आंखें फट गईं, सब सोचने लगे कि राणा जी ने यह क्या घोषणा कर दी।

गलकी ने साहस के साथ दृढ़ स्वर में कहा, ”अन्नदाता, मुझे आपकी शर्त मंजूर है। एक ओर गलकी की जान और दूसरी ओर आपका आधा राज्य! माई बाप, आज इसमें से एक जाएगा।“

देखते देखते पिछौला झील पर रस्सा बंध गया।

राणाजी के लिए तंबू ताना गया। उसमें एक ऊंचे स्थान पर उनका सिंहासन रखा गया। उसके आस पास सामंत, ठाकुर और उमराव विराजमान थे।नटों ने ढोल बजाने शुरू कर दिए। इस नाच की चर्चा जंगल की आग की तरह सारे शहर में फैल गई। भीड़ इकट्ठी होने लगी, ढोल और जोर से बजने लगे। गलकी को पहनने के लिए नई पोशाक दी गई, लाल साटन का घाघरा और केसरिया चोली, कनार के फूलों से जड़ा ओढ़ना, वह अप्सरा सी दिख रही थी।

गलकी बांस पर चढ़ने लगी। उसके मुंह में तलवार थी, जो धूप में चमक रही थी। उसकी चमक से गलकी का चेहरा दपदपा रहा था। थोड़ी ही देर में गलकी रस्से के पास पहुंच गई। उसने हाथ में तलवार लेकर नचाई। फिर सिर नवाकर हनुमान बाबा को नमस्कार किया।

मुंह में तलवार और पांवों में बिजली सी थिरकन लिए गलकी ने पहला पांव जैसे ही रस्से पर रखा, वैसे ही उपस्थित लोगों ने तालियां बजाई।

राणा ने अपने दीवान से कहा कि बेचारी बातों ही बातों में हठ कर बैठी, इसकी मौत का हमें दुख होगा।

झील पानी से भरी हुई थी, रस्से पर लहराती गलकी और नीचे लहराता हुआ अथाह जल। गलकी नाच नाचकर आगे बढ़ने लगी। लग रहा था, जैसे वह कोई जादूगरनी हो, जब वह मुंह से तलवार पकड़ कर रस्सी पर पलटा खाती तो लोगों के मुंह से चीख निकल जाती और एक वाक्य हवा में तैरत ‘गिरी अब गिरी’।

गलकी ने आधा रस्सा पार कर लिया। अब सामंतों, ठाकुरों और उमरावों का माथा ठनका। उन्होंने सोचा कि यदि इस नटनी ने बाजी जीत ली, तो आधे मेवाड़ की महारानी बन जाएगी। हम सब ऊंचे कुल के लोग ताबेदार होंगे। फिर बड़े लोगों में इशारे होने लगे।दीवान ने राणा के नजदीक आकर कहा, ”अन्नदाता, लगता है कि इस नटनी को कोई सिद्धि मिली हुई है, यह तो रस्सा पार कर लेगी और हम बाजी हार जाएंगे।“

”तो क्या हुआ?“ राणा ने लापरवाही से कहा, ”हम इसे आधा राज्य दे देंगे, नटनी तो कमाल कर रही है।“

दीवान ने चूड़ावत सरदार से कहा, चूड़ावत ने शक्तावत सरदार से कहा। उन्हें पूरा यकीन हो गया कि अब हमें इस तुच्छ नटनी के अधीन रहना पड़ेगा। उसके दरबार में सिर झुकाना पड़ेगा। भला बड़े लोग इसे सहन कैसे करते? तुरंत ही गुपचुप बातें हुई। बड़े लोग गए और उन्होंने रस्से को काट डाला। गलकी चीख पड़ी। उसकी करूण चीख से लोग कांप उठे।

गलकी छपाक से पानी में गिर पड़ी। उसके परिवार वाले तूफानी वेग से झपटे, लेकिन वे गलकी के प्राण न बचा सके।

गलकी की लाश देखकर राणा की आंखें भर आईं पर वे भी सामंतों के विद्रोह के भय से न्याय नहीं कर सके।

गलकी के बाप ने रोते रोते कहा, ”अन्नदाता, मुझे न्याय मिलना चाहिए, मेरी बेटी की हत्या की गई है।“

राणा कुछ बोलते, इससे पहले ही सामंतों ने उसको घेर लिया और नटों के मुखिया को धन की एक थैली देकर मामला रफा दफा कर दिया।

गरीब असहाय नट परिवार भला क्या करता? रोता बिलखता चला गया।

आज भी उदयपुर की झील में नटनी की याद में एक चबूतरा बना हुआ है। एक असाधारण नटनी का साधारण चबूतरा।

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इजराइल


*प्रसंगवश – प्रधानमंत्री जी की इजराइल यात्रा*

– प्रशांत पोल
मैं तीन बार इजराइल गया हूँ. तीनों बार अलग अलग रास्तों से. पहली बार लंदन से गया था. दूसरी बार पेरिस से. लेकिन तीसरी बार मुझे जाने का अवसर मिला, पडौसी राष्ट्र जॉर्डन से. राजधानी अम्मान से, रॉयल जॉर्डन एयरलाइन्स के छोटेसे एयरक्राफ्ट से तेल अवीव की दूरी मात्र चालीस मिनट की हैं. मुझे खिड़की की सीट मिली और हवाई जहाज छोटा होने से, तुलना में काफी नीचे से उड़ रहा था. आसमान साफ़ था. मैं नीचे देख रहा था. मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का अथाह फैला रेगिस्तान दिख रहा था. पायलट ने घोषणा की, कि ‘थोड़ी ही देर में हम नीचे उतरने लगेंगे’. और अचानक नीचे का दृश्य बदलने लगा. मटमैले, कत्थे और भूरे रंग का स्थान हरे रंग ने लिया. अपनी अनेक छटाओं को समेटा हरा रंग..!
रेगिस्तान तो वही था. मिटटी भी वही थी. *लेकिन जॉर्डन की सीमा का इजराइल को स्पर्श होते ही मिटटी ने रंग बदलना प्रारंभ किया. यह कमाल इजरायल का हैं. उनके मेहनत का हैं. उनके जज्बे का हैं.* रेगिस्तान में खेती करनेवाला इजराइल आज दुनिया को उन्नत कृषि तकनिकी निर्यात कर रहा हैं. रोज टनों से फूल और सब्जियां यूरोप को भेज रहा हैं. आज सारी दुनिया जिसे अपना रही हैं, वह ‘ड्रिप इरीगेशन सिस्टम’, इजराइल की ही देन हैं.
*इजराइल प्रतीक हैं स्वाभिमान का, आत्मसम्मान का और आत्मविश्वास का..!*
मात्र अस्सी लाख जनसँख्या का यह देश. तीन से चार घंटे में देश के एक कोने से दुसरे कोने की यात्रा संपन्न होती हैं. मात्र दो प्रतिशत पानी के भण्डार वाला देश. प्राकृतिक संसाधन नहीं के बराबर. ईश्वर ने भी थोड़ा अन्याय ही किया हैं. आजु बाजू के अरब देशों में तेल निकला हैं, लेकिन इजराइल में वह भी नहीं..!
इजराइल यह राजनितीक जीवंतता और राजनीतिक समझ की पराकाष्ठा का देश हैं. इस छोटे से देश में कुल १२ दल हैं. आजतक कोई भी दल अपने बलबूते पर सरकार नहीं बना पाया हैं. *पर एक बात हैं – देश की सुरक्षा, देश का सम्मान, देश का स्वाभिमान और देश हित… इन बातों पर पूर्ण एका हैं.* इन मुद्दों पर कोई भी दल न समझौता करता हैं, और न ही सरकार गिराने की धमकी देता हैं. इजराइल का अपना ‘नॅशनल अजेंडा’, जिसका सम्मान सभी दल करते हैं.
१४ मई, १९४८ को जब इजराइल बना, तब दुनिया के सभी देशों से यहूदी (ज्यू) वहां आये थे. अपने भारत से भी ‘बेने इजराइल’ समुदाय के हजारों लोग वहां स्थलांतरित हुए थे. अनेक देशों से आने वाले लोगों की बोली भाषाएं भी अलग अलग थी. अब प्रश्न उठा की देश की भाषा क्या होना चाहिए..? उनकी अपनी हिब्रू भाषा तो पिछले दो हजार वर्षों से मृतवत पडी थी. बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे. इस भाषा में साहित्य बहुत कम था. नया तो था ही नहीं. अतः किसी ने सुझाव दिया की अंग्रेजी को देश की संपर्क भाषा बनाई जाए. पर स्वाभिमानी ज्यू इसे कैसे बर्दाश्त करते..? उन्होंने कहा, ‘हमारी अपनी हिब्रू भाषा ही इस देश के बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनेगी.’
निर्णय तो लिया. लेकिन व्यवहारिक कठिनाइयां सामने थी. बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे. इसलिए इजराइल सरकार ने मात्र दो महीने में हिब्रू सिखाने का पाठ्यक्रम बनाया. और फिर शुरू हुआ, दुनिया का एक बड़ा भाषाई अभियान..! पाँच वर्ष का.
इस अभियान के अंतर्गत पूरे इजराइल में जो भी व्यक्ति हिब्रू जानती था, वह दिन में ११ बजे से १ बजे तक अपने निकट के शाला में जाकर हिब्रू पढ़ाता था. अब इससे बच्चे तो पाँच वर्षों में हिब्रू सीख जायेंगे. बड़ों का क्या..? 
इस का उत्तर भी था. शाला में पढने वाले बच्चे प्रतिदिन शाम ७ से ८ बजे तक अपने माता-पिता और आस पड़ोस के बुजुर्गों को हिब्रू पढ़ाते थे. अब बच्चों ने पढ़ाने में गलती की तो..? जो सहज स्वाभाविक भी था. इसका उत्तर भी उनके पास था. अगस्त १९४८ से मई १९५३ तक प्रतिदिन हिब्रू का मानक (स्टैण्डर्ड) पाठ, इजराइल के रेडियो से प्रसारित होता था. अर्थात जहां बच्चे गलती करेंगे, वहां पर बुजुर्ग रेडियो के माध्यम से ठीक से समझ सकेंगे.
*और मात्र पाँच वर्षों में, सन १९५३ में, इस अभियान के बंद होने के समय, सारा इजराइल हिब्रू के मामले में शत प्रतिशत साक्षर हो चुका था..!*
आज हिब्रू में अनेक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं. इतने छोटे से राष्ट्र में इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर सारी उच्च शिक्षा हिब्रू में होती हैं. इजराइल को समझने के लिए बाहर के छात्र हिब्रू पढने लगे हैं..!
*ये हैं इजराइल..! जीवटता, जिजीविषा और स्वाभिमान का जिवंत प्रतीक..!* ऐसे राष्ट्र में पहली बार हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी राजनयीक दौरे पर जा रहे हैं. 
हम सब के लिए यह निश्चित ही ऐतिहासिक घटना हैं..!

– प्रशांत पोल #Modi-in_Israel, #Israel

Posted in मंत्र और स्तोत्र

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ॥


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं । विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ॥

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं । चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥1॥
(हे मोक्षरूप, विभु, व्यापक ब्रह्म, वेदस्वरूप ईशानदिशा के ईश्वर और सबके स्वामी शिवजी, मैं आपको नमस्कार करता हूं. निज स्वरूप में स्थित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन, आकाश रूप शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूं.)
निराकारमोङ्कारमूलं तुरीयं । गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकालकालं कृपालं । गुणागारसंसारपारं नतोऽहम् ॥2॥
(निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत) वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे परमेशवर को मैं नमस्कार करता हूं.)
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं । मनोभूतकोटिप्रभाश्री शरीरम् ॥

स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगङ्गा । लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥3॥
(जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है…)
चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं । प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ॥

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि ॥4॥
(जिनके कानों में कुण्डल शोभा पा रहे हैं. सुन्दर भृकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्न मुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं. सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाल पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ श्री शंकरजी को मैं भजता हूं.)
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं । अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥

त्रय: शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥5॥
(प्रचंड, श्रेष्ठ तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्य के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूं.)
कलातीतकल्याण कल्पान्तकारी । सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ॥

चिदानन्दसंदोह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥6॥
(कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप, प्रलय करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुरासुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालनेवाले हे प्रभो, प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए.)
न यावद् उमानाथपादारविन्दं । भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥7॥
(जब तक मनुष्य श्रीपार्वतीजी के पति के चरणकमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक में, न ही परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और अनके कष्टों का भी नाश नहीं होता है. अत: हे समस्त जीवों के हृदय में निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न होइए.)
न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् ॥

जराजन्मदुःखौघ तातप्यमानं । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥8॥
(मैं न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं. हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए. हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं.)
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ॥।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥9॥
(जो मनुष्य इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर शम्भु विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं.)

अविनाश गौर

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

महर्षि दुर्वासा


महर्षि दुर्वासा !!!
दुर्वासा हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं।

वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं।
दुर्वासा सतयुग,त्रैता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं।
वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए थे।

कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता था।

वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ थे।
महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे।

उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा,

विष्णु और महेश तीनों ही पत्‍ि‌नयों के अनुरोध पर श्री अत्री और अनसूयाजी के चित्रकुट स्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए।
ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में,विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासा के रूप में उपस्थित हुए।
बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे।

साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थित होकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है।
पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है।
दुर्वासा जी कुछ बडे हुए,माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे।
विशेषत: यम-नियम,आसन, प्राणायाम,ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई।
अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए।

तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया।
दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था।
एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे।
समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासा आ गए।
महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया,पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए।
पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है।

भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ क्रत्या राक्षसी उत्पन्न की,परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे।
भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई।
दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे।

शिवजी की चरण में पहुंचे।

शिवजी ने विष्णु के पास भेजा।

विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है।

अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं,तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें।
जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे,तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था।
उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया।

दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया।
दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए।
महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया।
अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए।
महर्षि दुर्वासा जी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं।

शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुर के नाम से प्रसिद्ध है।
आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति वेदान्त गोस्वामी जी ने कराया।
ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है।
यह महर्षि दुर्वासा की सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है।

भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं।
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भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार महर्षि अत्रि और महासती अनसूया ने सौ वर्ष तक जगदीश्वर (जगत को बनाने वाला) को एक समझकर तपस्या की।

उनकी  तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने एक साथ दर्शन दिये।
उनको देख महर्षि अत्रि और महाशती अनसूया ने कहा कि प्रभु! हमने तो श्रेष्ठ संतान हेतु एक जगदीश्वर की तपस्या की थी,आप तो तीन हैं।

आप में से जो भी जगत की रचना करने वाला हो वही हमें श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होने का वर दे।
तब तीनों ने कहा — हम तीनों ही जगत की रचना करने वाले हैं।

तीनों एक ही हैं।

हमारे तीनों के अंश से ही तुम्हें एक-एक पुत्र प्राप्त होगा।

ब्रह्मा के अंश से सोम,विष्णु से दत्तात्रेय और शिव के अंश से दुर्वासा उत्पन्न हुए।
महर्षि दुर्वासा ने बचपन से ही तप का मार्ग चुना और वे माता-पिता की आज्ञा लेकर तप करने के लिए वन में चले गए।
उस समय सरस्वती नदी हरियाणा से होकर बहा करती थी जिसके किनारे अनेक ऋषि-मुनियों ने कठोर तप किया।

सरस्वती नदी की धारा से हरियाणा में अनेक सरोवरों का निर्माण हुआ।
दूबलधन का तीर्थ नामक सरोवर भी उन्हीं में से एक है।

जब दुर्वासा तप के लिए उपयुक्त स्थान की तलाश कर रहे थे तो गहरे वन में इस पवित्र सरोवर पर उनकी दृष्टि पड़ी।
उन्होंने इसी स्थान को उपयुक्त मानकर शिव की कठोर साधना शुरू की तथा अपना आश्रम भी बनाया।
यह भी सर्वविदित है कि महर्षि दुर्वासा अपने नाम के अनुरूप ही भोजन के रूप में केवल हरी दूब का सेवन करते थे।
इस जंगल में दूब अत्यधिक मात्रा में थी इस कारण भी महर्षि दुर्वासा ने इस स्थान का चयन किया था।
महर्षि दुर्वासा के इस वन में आने से यहां धन की उत्पत्ति भी होने लगी।
इसी कारण इस स्थान का नाम दूबलधन पड़ा।
इस स्थान पर उस समय महर्षि दुर्वासा का विशाल आश्रम था जहां वे अपने 24 हजार शिष्यों को शिक्षा प्रदान करते थे।
बेरी में भी महर्षि दुर्वासा द्वारा निर्मित देवी का मंदिर है जहां वे हस्तिनापुर की कुलदेवी मां भीमेश्वरी की पूजा-अर्चना के लिए प्रतिदिन बेरी जाते थे।
बताया जाता है कि इस तीर्थ की यात्रा श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को भी करायी थी।
जिनकी स्मृति में गांव छारा में श्रवण कुमार का मंदिर स्थापित है।

यह मंदिर हरियाणा का एकमात्र श्रवण कुमार का मंदिर है।
लोक-कथाओं में वनवास के दौरान श्री राम,सीता व लक्ष्मण का भी इस वन में ठहरने का वर्णन मिलता है।
इस स्थान को महर्षि दुर्वासा व शृंगी ऋषि की मिलन स्थली के रूप में भी जाना जाता है।
दूूबलधन के तीर्थ सरोवर के बारे में कहा जाता है कि इसमें शकुंतला की अंगूठी गुम होने के कारण शकुंतला ने इसी तीर्थ सरोवर को शाप दिया था  कि ‘जिस प्रकार महाराजा दुष्यंत मुझे भूल गये हैं कलियुग आने पर लोग तुम्हें भी भूल जायेंगे।’
आज भी यह तीर्थ शकुंतला के दिये शाप से ग्रस्त है।
जिस तीर्थ में स्नान मात्र से सारे पाप धुल जाते थे,आज सारे गांव का गंदा पानी इसी तालाब में जमा होता है।
ऋषि दुर्वासा का स्वभाव;
ऋषि दुर्वासा जी जीवन-भर भक्तों की परीक्षा लेते रहे अपने महा ज्ञानी स्वरूप होने तथा सभी सिद्धियों के ज्ञान के बावजूद भी ऋषि दुर्वासा जी अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं कर पाते थे जो उनकी सबसे बड़ी कमी भी रही।
उन्हें कभी-कभी अकारण ही भयंकर क्रोध भी आ जाता था।

अपने क्रोध के लिए प्रचलित मुनि दुर्वासा जी किसी को भी श्राप दे देते थे।
उन्होंने शकुन्तला को श्राप दिया और जिस कारण शकुंतला को अनेक कष्ट सहन करने पड़े।
इसी प्रकार उनके क्रोध से कोई भी नहीं बच पाया।
आम जन से लेकर राजा,देवता,दैत्य, असुर सभी उनके इस क्रोध के भागी बने।
ऋषि दुर्वासा के जीवन की प्रमुख घटनाएँ |
दुर्वासा ऋषि जी ने अपनी साधना एवं तपस्या द्वारा अनेक सिद्धियों को प्राप्त किया था अष्टांग योग का अवलम्बन कर उन्हें अनेक महत्वपुर्ण उपलब्धियां प्राप्त हुई थीं उनके जीवन में अनेकों ऎसी घटनाएं रहीं हैं जो सदियों तक अविस्मरणिय रहीं हैं और जिनके होने से कई घटना क्रमों की उत्पत्ति हुई
ऋषि दुर्वासा और कुंती;;
एक बार कुंती के अतिथ्य सत्कार से प्रसन्न होकर वह उसे एक मंत्र प्रदान करते हैं जिसके द्वारा वह किसी भी देव का आहवान करके उस देव के अंश को जन्म दे सकती थी।
इसी वरदान स्वरुप कुंती को कर्ण जैसे पुत्र समेत पांच पांडव प्राप्त हुए और जिनकी उत्पत्ति ने इतिहास में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए।
दुर्वासा और कृष्ण;;
एक बार दुर्वासा कृष्ण के स्वभाव की परीक्षा लेते हैं की प्रकार से उन्हें विचलित करने का प्रयास करते हैं पर कृष्ण हर अवस्था में शांत स्वभाव व्यक्त करते हैं और एक दिन ऋषि उन्हें अपनी जूठी खीर को शरीर पर मलने को कहते हैं।
उनके आदेशनुसार कृष्ण अपने पूरे शरीर पर खीर लगा लेते हैं तो दुर्वासा प्रसन्न होकर कृष्ण को वरदान देते हैं कि सृष्टि का जितना प्रेम अन्न में होगा उतना ही तुम में भी होगा।
दुर्वासा और राजा अंबरीष;;
एक बारा दुर्वासा ऋषि महाराज अम्बरीष के राजभवन में पधारते हैं।
उस दिन राजा अंबरीष निर्जला एकादशी उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे।
पूजा पाठ करने के पश्चात राजा ने ऋषि दुर्वासा को प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन करते हैं ताकि वह अपना वर्त पूर्ण कर सकें परंतु ऋषि दुर्वासा यमुना स्नान करके ही कुछ ग्रहण करने की बात कहते हैं ओर चले जाते हैं।
इधर पारण का समय समाप्त हो रहा होता है।
अत: ब्राह्मणों के परामर्श पर राजा चरणामृत ग्रहण कर पारण करते हैं।
इस पर जब ऋषि दुर्वासा वहां पहुंच जाते हैं और जब उन्हें इस बात का बोध होता है तो उन्हें बहुत क्रोध आता है और वह राजा अम्बरीश को भस्म करने के लिए अपनी जटा से क्रत्या राक्षसी उत्पन्न करते हैं किंतु राजा बिना विचलित हुए भगवान विष्णु का स्मरण करने लगते हैं और वह राक्षसी जैसे ही उन पर आक्रमण करती है तो स्वत: ही अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र उसे भस्म कर देता है और दुर्वासा ऋषि को मारने के लिए सक्रिय हो जाता है।
अपनी रक्षार्थ दुर्वासाजी वहां से भागने लगते हैं परंतु उन्हें कहीं भी शरण नहीं मिलती तब वह शिवजी के पास जाते हैं।
भगवान शिव उन्हें विष्णु के पास भेजते हैं तब विष्णु जी उनसे कहते हैं कि यदि वह अपनी रक्षा करना चाहते हैं तो राजा अम्बरीष से क्षमा मांगें।
इस पर ऋषि दुर्वासा अंबरीष के पास जाते हैं तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगते हैं।

महर्षि दुर्वासा की यह दशा देखकर अंबरीष सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उसे लौट जाने को कहते हैं।
इस प्रकार दुर्वासा ऋषि राजा के इस व्यवहार से अत्यंत प्रसन्न हो उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
इस तरह से अनेकों घटनाएँ है जिनसे हमें ऋषि दुर्वासा के जीवन का ज्ञान होता है और अनेक शिक्षाऐं भी प्राप्त होती है।

#साभार_संकलित,,
महर्षि दुर्वासा की जय,,

सनातन धर्म की जय,,
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,

जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,,

हर हर महादेव,

ॐ विष्णवे नमः,

जय भवानी,,,

जय श्री राम,,

विजय कृष्ण पांडेय

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गरीब कौन था महर्षि कणाद ऋषि या राजा?


गरीब कौन था महर्षि कणाद ऋषि या राजा?
एक महर्षि थे।

उनका नाम था कणाद।

किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद

जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे,उन्हें बीन करके वह

अपना जीवन चलाते थे।

इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके

कष्ट का पता चला।

उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मंत्री को

उन्हें भेंट करने भेजा।
मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, “मैं सकुशल हूं।

इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो,जिन्हें इसकी

जरूरत है।”
इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा

और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इंकार

कर दिया।
अंत में राजा स्वयं उनके पास गया।

वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया।

उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार

कर लें,किन्तु वे बोले, “उन्हें दे दो, जिनके पास

कुछ नहीं है।

मेरे पास तो सबकुछ है।”
राजा को विस्मय हुआ।

जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है,वह कह रहा है

कि उसके पास सबकुछ है।

उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही।

वह बोली, “आपने भूल की।

ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं,लेने के लिए

जाना चाहिए।”
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।
कणाद ने कहा, “गरीब कौन है ?

मुझे देखो और अपने को देखो।

बाहर नहीं,भीतर।

मैं कुछ भी नहीं मांगता,कुछ भी नहीं चाहता।

इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।”
एक सम्पदा बाहर है,एक भीतर है।

जो बाहर है,वह आज या कल छिन ही जाती है।

इसलिए जो जानते हैं,वे उसे सम्पदा नहीं,विपदा

मानते हैं।

जो भीतर है,वह मिलती है तो खोती नहीं।

उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।
—यह कैसी धर्म-साधना?
एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा,

“मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती।

यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।”
साधु बोला, “ठीक है।”
अगले दिन सबेरे ही वह साधु उसके घर गया।

पति वहां नहीं था।

उसने उसके सम्बंध में पत्नी से पूछा।
पत्नी ने कहा, “जहां तक मैं समझती हूं,वह इस

समय मोची  की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।”
पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था।

उसने पत्नी की बात सुनी।

उससे यह झूठ सहा नहीं गया।

बाहर आकर बोला, “यह बिल्कुल गलत है।

मैं पूजाघर में था।”
साधु हैरान हो गया।

पत्नी ने यह देखा तो पूछा, “सच बताओं कि क्या

तुम पूजाघर में थे ?

क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में,माला हाथ में और

मन कहीं और नहीं था?”
पति को होश आया।

पत्नी ठीक कह रही थी।

माला फेरते-फेरते वह सचमुच मोची की दुकान

पर ही चला गया था।

उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी

पत्नी से कहा था कि सबेरा होते ही खरीदने जाऊंगा।

माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन मोची

की दुकान पर पहुंच गया था और मोची से जूते

के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था।
विचार को छोड़ों और निर्विचार हो जाओ तो तुम

जहां हो,वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।
माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख मांहि.

मनवा तो चहुँ दिस फिरे यह तो सुमिरन नाहि..
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,

जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,

हर हर महादेव,,,

जय भवानी,,

जय श्री राम

विजय कृष्णा पांडे

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અકબર ના દરબાર માં ખોંખારો ન ખવાય,મુંછ પર તાવ ન દેવાય,


અકબર ના દરબાર માં ખોંખારો ન ખવાય,મુંછ પર તાવ ન દેવાય, એવા માં ચારણ કવી દુરશાજી મુંછ પર તાવ દેતા..

અકબર કહે આ ને ખ્યાલ નથી હું અકબર છું મારી સામે બેઅદબી કરે છે?

ત્યારે બીરબલ બોલ્યો તો જહાંપનાહ આને ના બોલાવતા શક્તિ અંશ ચારણ છે તમે એક મહારાણા થી પરેશાન છો જો આ ને કંઈ બોલ્યા તો આ હજાર રાણા પેદા કરવાની તાકત ધરાવે છે પછી શું થશે? એટલે આ ને કાંઈ ન કહેતા.. ધન્ય ચારણત્વ ધન્ય દુરશાજી 🙏🏻
Ha charan ha
Jay ma aavad

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शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगं।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं। वन्देर्विष्णुः भवभयहरं सर्वलोकैकनाथं।।


शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगं।।

लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिर्भिध्यानगम्यं।

वन्देर्विष्णुः भवभयहरं सर्वलोकैकनाथं।।
वे अपने चार हाथों में क्रमश: शंख,चक्र,गदा

और पद्म धारण करते हैं।

जो किरीट और कुण्डलों से विभूषित,

पीताम्बरधारी,वनमाला तथा कौस्तुभमणि को

धारण करने वाले, सुन्दर कमलों के समान नेत्र

वाले भगवान श्री विष्णु का ध्यान करता है वह

भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरूडध्वजः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः ॥
भगवान् विष्णु मंगल हैं,गरुड वाहन वाले मंगल हैं,

कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं,हरि मंगल के

भंडार हैं ।

मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं,शुभ हैं,कल्याणप्रद हैं,

जैसे समझ लें ।
श्रीविष्णु के दस अवतार:-
दूसरे शब्दों में देवताओं के प्रकट होने की तिथियों

को अवतार कहते हैं।

इन्हें जयन्ती भी कहते हैं।
सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्री विष्णु हैं।

यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु की शक्ति से

ही संचालित है।

वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी।
वे अपने चार हाथों में क्रमश: शंख,चक्र,गदा और

पद्म धारण करते हैं।

जो किरीट और कुण्डलों से विभूषित,

पीताम्बरधारी,वनमाला तथा कौस्तुभमणि

को धारण करने वाले,सुन्दर कमलों के समान

नेत्र वाले भगवान श्री विष्णु का ध्यान करता है

वह भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।
पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में वर्णन है कि भगवान

श्री विष्णु ही परमार्थ तत्व हैं।

वे ही ब्रह्मा और शिव सहित समस्त सृष्टि के आदि

कारण हैं।

जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना

जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है।

विष्णु की सहचारिणी लक्ष्मी है।
वे ही नारायण,वासुदेव,परमात्मा,अच्युत,कृष्ण,

शाश्वत,शिव,ईश्वर तथा हिरण्यगर्भ आदि अनेक

नामों से पुकारे जाते हैं।

नर अर्थात जीवों के समुदाय को नार कहते हैं।
सम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान

श्री विष्णु ही नारायण कहे जाते हैं।

कल्प के प्रारम्भ में एकमात्र सर्वव्यापी भगवान

नारायण ही थे।

वे ही सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करके सबका पालन

करते हैं और अन्त में सबका संहार करते हैं।

इसलिये भगवान श्री विष्णु का नाम हरि है।
मत्स्य,कूर्म,वाराह,वामन,हयग्रीव तथा श्रीराम-कृष्ण

आदि भगवान श्री विष्णु के ही अवतार हैं।
भगवान श्री विष्णु अत्यन्त दयालु हैं।

वे अकारण ही जीवों पर करुणा-वृष्टि करते हैं।

उनकी शरण में जाने पर परम कल्याण हो जाता है।
जो भक्त भगवान श्री विष्णु के नामों का कीर्तन,

स्मरण,उनके अर्चाविग्रह का दर्शन,वन्दन,गुणों का

श्रवण और उनका पूजन करता है,उसके सभी पाप-

ताप विनष्ट हो जाते हैं।
यद्यपि भगवान विष्णु के अनन्त गुण हैं,

तथापि उनमें भक्त वत्सलता का गुण

सर्वोपरि है।

चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से उनकी

उपासना करते हैं,वे उनकी उस भावना को

परिपूर्ण करते हैं।
ध्रुव,प्रह्लाद,अजामिल,द्रौपदी,गणिका आदि अनेक

भक्तों का उनकी कृपा से उद्धार हुआ।
भक्त वत्सल भगवान को भक्तों का कल्याण करनें

में यदि विलम्ब हो जाय तो भगवान उसे अपनी भूल

मानते हैं और उसके लिये क्षमा-याचना करते हैं।

धन्य है उनकी भक्त वत्सलता।
मत्स्य,कूर्म,वाराह,श्री राम,श्री कृष्ण आदि अवतारों

की कथाओं में भगवान श्री विष्णु की भक्त वत्सलता

के अनेक आख्यान आये हैं।

ये जीवों के कल्याण के लिये अनेक रूप धारण

करते हैं।
वेदों में इन्हीं भगवान श्री विष्णु की अनन्त महिमा

का गान किया गया है।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में वर्णन मिलता है कि लवण

समुद्र के मध्य में विष्णु लोक अपने ही प्रकाश से

प्रकाशित है।
उसमें भगवान श्री विष्णु वर्षा ऋतु के चार मासों

में लक्ष्मी द्वारा सेवित होकर शेषशय्या पर शयन

करते हैं।
पद्म पुराण के उत्तरखण्ड के 228वें अध्याय में

भगवान विष्णु के निवास का वर्णन है।

वैकुण्ठ धाम के अन्तर्गत अयोध्यापुरी में एक दिव्य

मण्डप है।

मण्डप के मध्य भाग में रमणीय सिंहासन है।
वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासन को नित्य घेरे

रहते हैं।

धर्म,ज्ञान,ऐश्वर्य,वैराग्य सभी वहाँ उपस्थित रहते हैं।

मण्डप के मध्यभाग में अग्नि,सूर्य और चंद्रमा रहते है।

कूर्म,नागराज तथा सम्पूर्ण वेद वहाँ पीठ रूप धारण

करके उपस्थित रहते हैं।

सिंहासन के मध्य में अष्टदल कमल है;

जिस पर देवताओं के स्वामी परम पुरुष भगवान

श्री विष्णु लक्ष्मी के साथ विराजमान रहते हैं।
भक्त वत्सल भगवान श्री विष्णु की प्रसन्नता के

लिये जप का प्रमुख मन्त्र-

ॐ नमो नारायणाय तथा

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय है।
उद्यत्कोटिदिवाकराभमनिशं शङ्खं गदां पङ्कजं

चक्रं बिभ्रतमिन्दिरावसुमतीसंशोभि पार्श्वद्वयम्।

कोटीराङ्गदहारकुण्डलधरं पीताम्बरं कौस्तुभैर्दीप्तं

विश्वधरं स्ववक्षसि लसच्छ्रीवत्सचिन्हं भजे।।
उदीयमान करोड़ोँ सूर्य के समान प्रभातुल्य,अपने

चारोँ हाथोँ मेँ शङ्ख,गदा,पद्म तथा चक्र धारण

किये हुए एवं दोनोँ भागोँ मेँ भगवती लक्ष्मी और

पृथ्वी देवी से सुशोभित,किरीट,मुकुट,केयूर,

हार और कुंडलोँ से समलङ्कृत,कौस्तुभमणि

तथा पीताम्बर से देदीप्यमान विग्रहयुक्त एवं

वक्षः स्थल पर श्रीवत्स चिन्ह धारण किये

हुए भगवान विष्णु का मैँ निरंतर स्मरण

ध्यान करता हुँ।
मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरूडध्वजः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मंगलायतनो हरिः ॥
भगवान् विष्णु मंगल हैं,गरुड वाहन वाले मंगल हैं,

कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं,हरि मंगल के

भंडार हैं ।

मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं,शुभ हैं,कल्याणप्रद हैं,

जैसे समझ लें ।
समस्त चराचर प्राणियों एवं सकल विश्व का

कल्याण करो प्रभु !
सदा सर्वदा सुमंगल !

ॐ विष्णवे नमः

जय लक्ष्मी भवानी,,

जय श्री राम

विजय कृष्ण पांडेय

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शिव और सती के विवाह से लेकर दक्ष के यज्ञ में भष्म होने तक की बहुत रोचक एवम ज्ञानवर्धक कथा।


शिव और सती के विवाह से लेकर दक्ष के यज्ञ में भष्म होने तक की बहुत रोचक एवम ज्ञानवर्धक कथा।
दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं। पर दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो। सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे।
तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, ‘मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती।
मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी।’ फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहाँ जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं।
उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा।

जब सती विवाह योग्य हुई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, ‘सती आद्या का अवतार हैं।
आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।’ दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। यद्यपि भगवान शिव के दक्ष के जामाता थे, किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया।
*घटना इस प्रकार थी— एक बार ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे। भगवान शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ।
दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी।
वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान शिव को किसी के मान और किसी के अपमान से क्या मतलब? वे तो समदर्शी हैं। उन्हें तो चारों ओर अमृत दिखाई पड़ता है। जहां अमृत होता है, वहां कडुवाहट और कसैलेपन का क्या काम?
भगवान शिव कैलाश में दिन-रात राम-राम कहा करते थे। सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी। उन्होंने अवसर पाकर भगवान शिव से प्रश्न किया, ‘आप राम-राम क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?’ भगवान शिव ने उत्तर दिया, ‘राम आदि पुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं। सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं।’ किंतु सती के कंठ के नीचे बात उतरी नहीं।
वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते?
सती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। सीता का रूप धारण करके दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं। भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा, ‘माता, आप एकाकी यहाँ वन में कहां घूम रही हैं? बाबा विश्वनाथ कहां हैं?’
राम का प्रश्न सुनकर सती से कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया। राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं। सती जब लौटकर कैलाश गईं, तो भगवान शिव ने उन्हें आते देख कहा, ‘सती, तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया।
सीता मेरी आराध्या हैं। अब तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो! इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते।’ शिव जी का कथन सुनकर सती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था। शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? शिव जी समाधिस्थ हो गए। सती दु:ख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
उन्हीं दिनों सती के पिता कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं और मुनियों को आमन्त्रित किया था, किंतु शिव जी को आमन्त्रित नहीं किया था, क्योंकि उनके मन में शिव जी के प्रति ईर्ष्या थी।
सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ की रचना की है, तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए बैचैन हो उठा। शिव जी समाधिस्थ थे। अतः वे शिव जी से अनुमति लिए बिना ही वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर चली गईं।
कहीं-कहीं सती के पितृगृह जाने की घटना का वर्णन एक दूसरे रूप में इस प्रकार मिलता है— एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल कि ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को दिखकर भगवान शिव से पूछा, ‘प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं?’
भगवान शकंर ने उत्तर दिया, ‘आपके पिता ने यज्ञ की रचना की है। देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।’
सती ने दूसरा प्रश्न किया, ‘क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया?’
भगवान शंकर ने उत्तर दिया, ‘आपके पिता मुझसे बैर रखते हैं, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे?’
सती मन ही मन सोचने लगीं, फिर बोलीं, ‘यज्ञ के अवसर पर अवश्य मेरी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा।’
भगवान शिव ने उत्तर दिया,’इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं,हो सकता है वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता’।
भगवान शिव ने उत्तर दिया,’हां, विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति की हो जाती है। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता है।’
किंतु सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। उनके साथ अपना एक गण भी कर दिया, उस गण का नाम वीरभद्र था। सती वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया।
दक्ष ने उन्हें देखकर कहा,’तुम क्या यहाँ मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर है। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक है। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता है।’
दक्ष के कथन से सती के हृदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं, ‘उन्होंने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता है? अब तो आ ही गई हूं।’
पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं।
वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं, ‘पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं, किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है।
आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया?’ दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया, ‘मै तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा।
सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा,’ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं, मुझे धिक्कार है।
देवताओ, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है।
जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नरक में जाना पड़ता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो!
मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती।’ सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया।
देवता उठकर खड़े हो गए। वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषि-मुनि भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक देया। समाचार भगवान शिव के कानों में भी पड़ा। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे।
सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया, जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।
भगवान शिव ने उन्मत की भांति सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे— पाहिमाम! पाहिमाम! भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े।
वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए, तो पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।
धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया है, वंदनीय बना दिया है।

लष्मीकांत वर्शनय

Posted in PM Narendra Modi

कृपया तसल्ली से पूरा मेसेज पढ़ें…
उसने टोपी नहीं पहनी मुस्लिमों को नाराज किया….
उसने 1% टैक्स लगा कर स्वर्णकारों को नाराज किया….
उसने होटल वालों के सर्विस चार्ज पर हथौड़ा चला के ग्राहकों के हित के लिए होटलवालों से पंगा लिया…
उसने 500 और 1000 के नोट बन्द कर के अपने ही परम्परागत वोट बैंक को नाराज किया….
कैश लेस को बढ़ावा दे कर वो टैक्स चोरों के रास्तों का रोड़ा बन गया है….
रेडा जैसा क़ानून कर के बिल्डरों को नाराज़ किया…
बेनामी संपत्ति का क़ानून पारित कर के ज़मीन के काला बाजारियों को बेनक़ाब कर रहा है…
स्पेक्ट्रम, कोयला आदि का भ्रष्टाचार दूर कर, देश को लाखों करोड़ों का फ़ायदा देने के लिए बड़े उद्योगपतियों से पंगा लिया….
गैस सब्सिडी, मनरेगा आदि का पैसा सीधे बैंक खाते में जमा करने के कारण सभी बिचौलियों की दुकानें बंद कर दी….
युरिया को नीम कोटिंग करने से केमिकल फ़ैक्टरियों का गोरख धंदा चौपट कर दिया…
लगभग हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम करने के नये नये तरीक़ों का आग़ाज़ कर रहा है….
सभी सरकारी कामों में टेक्नॉलजी के कारण गति लाने के प्रयास के कारण दलालों का ‘स्पीड-मनी’ बंद कर रहा है…
और न जाने कितनों को वो रोज़ नाराज़ कर रहा है….

हो सकता है आप भी उस के किसी क़दम से नाराज़ चल रहे हो, आप का भी कुछ नुक़सान हुआ हो….
वो सही में पागल बन गया है क्या? वो चाहता तो आराम से किसी का दिल दुखाए बिना राज कर सकता है…
वह हर रोज़ नये नये क़दम उठा कर देश के हर क्षेत्र की बुराइयाँ दूर करने की रात दिन मेहनत कर रहा है…
क्योंकि…
उसे कुर्सी से प्रेम नहीं है । उसे सिर्फ अपने देश और सवा सौ करोड देशवासियों से प्रेम है…वो अपने देश को दुनियाँ में सबसे समृद्ध बनाना चाहता है…हर बुराई को ख़त्म करना चाहता है…वो भी इसी जनरेशन में…
अब भले ही आप उसे वोट न दें….

हो सकता है उस की कुर्सी 2019 में चली जाएँ लेकिन उसे उस की चिंता नहीं है….
आज जो उसका या उस के समर्थकों का मजाक उडा रहा है वो वास्तव में खुद का और खुद की भावी पीढी का मजाक उडा रहा है…। 
देश बेचकर अपना जेब भरनेवाले चंद दोगले नेताओं, टीवी चैनलों और ब्युरोक्रेट्स की बातों में आकर उसका साथ छोडा तो खुद को मजाक बनने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। 
सरकार की कुछ कमियों को, कुछ अब तक न हुए कामों को बढ़ा चढ़ा कर बोल कर ये लोग आप को गुमराह कर रहे है…
इस स्थिति में सभी खूनी भेडिये उसके खिलाफ लामबंद हो रहे हैं…
लेकिन देश के लिए उसे हमारे साथ की जरुरत है…

इस से भी ज्यादा हमें उस की ज़रूरत है। आप ने उसे हटा दिया तो उस का कुछ नहीं बिगड़नेवाला…वो तो हिमालय चला जाएगा…
लेकिन हमारी अगली नस्लें हमें सैकड़ों सालों तक कोसेगी….
जागो भाइयों, 

हमें अपने प्रधानमंत्री का साथ हर हाल में देना ही होगा..हमें उसकी आवाज बननी है…अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए….
बाकि आपको जो अच्छा लगे कीजिए लेकिन एकबार यह ज़रूर सोचिए कि आखिर वह यह सब काम किसके लिए कर रहा है…हमारे लिए या अपने लिए???

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

निर्मल चित्त


निर्मल चित्त
बड़ी पुरानी कहानी है। महाराष्ट्र में संत हुए रामदास। उन्होंने राम की कथा लिखी। वे लिखते जाते, और रोज लोगो को सुनाते जाते। कहते हैं, कथा इतनी प्यारी थी कि खुद हनुमान भी सुनने आते थे। छिपकर बैठ जाते भीड़ में। जब हनुमान सुनने आए तो बात कुछ राज की ही होगी, क्योंकि हनुमान ने तो कथा खुद ही देखी थी। अब कुछ इसमें देखने जैसा नहीं था। लेकिन रामदास कह रहे थे तो बात ही कुछ थी कि खुद देखनेवाला मौजूद जो था, चश्मदीद गवाह, वह भी यह कहानी सुनने आता था। लेकिन जब एक जगह हनुमान को बरदाश्त न हुआ। क्योंकि हनुमान का ही वर्णन हो रहा था। और रामदास ने कहा, हनुमान गए अशोक—वाटिका में, लंका में। और उन्होंने देखा कि चारों तरफ सफेद फूल खिले हैं। हनुमान ने कहा, ठहरो। सुधार कर लो। फूल लाल थे, सफेद नहीं थे। रामदास ने कहा कि कौन नासमझ बीच में सुधार करवा रहा है? तब हनुमान ने अपने को प्रकट कर दिया। उन्होंने कहा कि अब प्रकट करना ही पड़ेगा कि मैं खुद ही हनुमान हूं, जिसकी तुम कथा कह रहे हो। और मैं कहता हूं कि वहां फूल लाल थे, सफेद नहीं। रामदास ने कहा, कोई भी हो, चुप बैठो! फूल सफेद थे।
झगड़ा बहुत बड़ा हो गया। और तब एक ही उपाय था कि अब राम के पास जाया जाए। हनुमान ने कहा, तो चलो राम के पास। वे जो कह देंगे वही निर्णय। क्योंकि यह हद हो गई! मैं जब खुद चश्मदीद आदमी हूं और कह रहा हूं कि मैंने फूल देखे! तुम मेरी कथा कह रहे हो—और वह भी हजारों साल बाद कह रहे हो। और एक सी बात पर जिद्द कर रहे हो। क्या बिगड़ता है कि तुम हूल लिख दो कि लाल थे?
पर रामदास ने कहा, बिगाड़ने का सवाल नहीं; जो सच है, सच है। फूल सफेद थे।
झगड़ा राम के पास गया, और राम ने हनुमान से कहा, तुम चुप रहो। रामदास जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। तुम उस समय इतने क्रोध में थे, आंखें खून से भरी थीं, तुम्हें लाल दिखाई पड़े होंगे। रामदास को कोई क्रोध नहीं है। वह दूर तटस्थ भाव से देख रहा है! फूल सफेद ही थे। मुझे भी पता है?
जब तुम क्रोध से देखोगे तो चीजें और हो जाएगी। स्वभावतः जब तुम लोभ से देखोगे तो चीजें और हो जाएंगी। जब तुम वासना, कामना से भरकर देखोगे तो चीजों में एक सौंदर्य आ जाएगा, जो है ही नहीं। देखनेवाला अपने को ही फैलाकर देखता है। इसलिए तुम्हारी दृष्टि ही तुम्हारी सृष्टि हो जाती है। जब तुम बदलोगे और तुम्हारी दृष्टि बदलेगी, तत्क्षण सारी सृष्टि बदल जाएगी। जहां तुम्हें बहुमूल्य दिखाई पड़ता था वहां कचरा दिखाई पड़ेगा। जिससे तुमने असार समझकर छोड़ दिया था, हो सकता था वहां सार दिखाई पड़े; और जिसे तुमने सार समझकर छाती से लगा रखा था वहां तुम्हें असार दिखाई पड़े
भगवती कालिया