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राम राम क्यों कहा जाता है?


*राम राम क्यों कहा जाता है?*👌 क्या कभी सोचा है कि बहुत से लोग जब एक दूसरे से मिलते हैं तो आपस में एक दूसरे को दो बार ही *“राम राम”* क्यों बोलते हैं ? *एक बार या तीन बार क्यों नही बोलते ?* दो बार *“राम राम”* बोलने के पीछे बड़ा गूढ़ रहस्य है क्योंकि यह आदि काल से ही चला आ रहा है… हिन्दी की शब्दावली में *‘र’* सत्ताइसवां शब्द है, *‘आ’* की मात्रा दूसरा और *‘म’* पच्चीसवां शब्द है… अब तीनो अंको का योग करें तो 27 + 2 + 25 = *54*, *अर्थात एक “राम”* का योग 54 हुआ- *इसी प्रकार दो “राम राम”* का कुल *योग 108* होगा। हम जब कोई जाप करते हैं तो 108 मनके की माला गिनकर करते हैं। सिर्फ *’राम राम’* कह देने से ही पूरी *माला का जाप* हो जाता है।आपको सभी को 🌹🎊👏 *राम राम जी* 👏🎊

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एक बार एक संत ने अपने दो भक्तों को बुलाया


एक बार एक संत ने अपने दो भक्तों को बुलाया और कहा आप को यहाँ से पचास कोस जाना है। 👉एक भक्त को एक बोरी खाने के समान से भर कर दी और कहा जो लायक मिले उसे देते जाना 👉और एक को ख़ाली बोरी दी उससे कहा रास्ते मे जो उसे अच्छा मिले उसे बोरी मे भर कर ले जाए। 👉दोनो निकल पड़े जिसके कंधे पर समान था वो धीरे चल पा रहा था 👉ख़ाली बोरी वाला भक्त आराम से जा रहा था 👉थोड़ी दूर उसको एक सोने की ईंट मिली उसने उसे बोरी मे डाल लिया 👉थोड़ी दूर चला फिर ईंट मिली उसे भी उठा लिया 👉जैसे जैसे चलता गया उसे सोना मिलता गया और वो बोरी मे भरता हुआ चल रहा था 👉और बोरी का वज़न। बड़ता गया उसका चलना मुश्किल होता गया और साँस भी चढ़ने लग गई 👉एक एक क़दम मुश्किल होता गया । 👉दूसरा भक्त जैसे जैसे चलता गया रास्ते मै जो भी मिलता उसको बोरी मे से खाने का कुछ समान देता गया धीरे धीरे बोरी का वज़न कम होता गया 👉और उसका चलना आसान होता गया। 👉जो बाँटता गया उसका मंज़िल तक पहुँचना आसान होता गया 👉जो ईकठा करता रहा वो रास्ते मे ही दम तोड़ गया 👉दिल से सोचना हमने जीवन मे क्या बाँटा और क्या इकट्ठा किया हम मंज़िल तक कैसे पहुँच पाएँगे। 👉जिन्दगी का कडवा सच…👈 👉आप को 60 साल की उम्र के बाद कोई यह नहीं पूछेंगा कि आप का बैंक बैलेन्स कितना है या आप के पास कितनी गाड़ियाँ हैं….? 👉दो ही प्रश्न पूछे जाएंगे …👈 1-आप का स्वास्थ्य कैसा है…..? और 2-आप के बच्चे क्या करते हैं….? 👉 *किसी और का भेजा हुआ यह मैसेज* आपको भी अच्छा लगे तो ओरो को भी भेजें 👉क्या पता किसी की कुछ सोच बदल जाये। 👉प्यार बाटते रहो यही विनती है।

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क्रोध के दो मिनट


😡क्रोध के दो मिनट😡 एक युवक ने विवाह के दो साल बाद परदेस जाकर व्यापार करने की इच्छा पिता से कही । पिता ने स्वीकृति दी तो वह अपनी गर्भवती पत्नी को माँ-बाप के जिम्मे छोड़कर व्यापार करने चला गया । परदेश में मेहनत से बहुत धन कमाया और वह धनी सेठ बन गया । सत्रह वर्ष धन कमाने में बीत गए तो सन्तुष्टि हुई और वापस घर लौटने की इच्छा हुई । पत्नी को पत्र लिखकर आने की सूचना दी और जहाज में बैठ गया । उसे जहाज में एक व्यक्ति मिला जो दुखी मन से बैठा था । सेठ ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो उसने बताया कि इस देश में ज्ञान की कोई कद्र नही है । मैं यहाँ ज्ञान के सूत्र बेचने आया था पर कोई लेने को तैयार नहीं है । सेठ ने सोचा ‘इस देश में मैने बहुत धन कमाया है, और यह मेरी कर्मभूमि है, इसका मान रखना चाहिए !’ उसने ज्ञान के सूत्र खरीदने की इच्छा जताई । उस व्यक्ति ने कहा- मेरे हर ज्ञान सूत्र की कीमत 500 स्वर्ण मुद्राएं है । सेठ को सौदा तो महंगा लग रहा था.. लेकिन कर्मभूमि का मान रखने के लिए 500 स्वर्ण मुद्राएं दे दी । व्यक्ति ने ज्ञान का पहला सूत्र दिया- कोई भी कार्य करने से पहले दो मिनट रूककर सोच लेना । सेठ ने सूत्र अपनी किताब में लिख लिया । . कई दिनों की यात्रा के बाद रात्रि के समय सेठ अपने नगर को पहुँचा । उसने सोचा इतने सालों बाद घर लौटा हूँ तो क्यों न चुपके से बिना खबर दिए सीधे पत्नी के पास पहुँच कर उसे आश्चर्य उपहार दूँ । . घर के द्वारपालों को मौन रहने का इशारा करके सीधे अपने पत्नी के कक्ष में गया तो वहाँ का नजारा देखकर उसके पांवों के नीचे की जमीन खिसक गई । पलंग पर उसकी पत्नी के पास एक युवक सोया हुआ था । . अत्यंत क्रोध में सोचने लगा कि मैं परदेस में भी इसकी चिंता करता रहा औ र ये यहां अन्य पुरुष के साथ है । दोनों को जिन्दा नही छोड़ूगाँ । क्रोध में तलवार निकाल ली । . वार करने ही जा रहा था कि उतने में ही उसे 500 स्वर्ण मुद्राओं से प्राप्त ज्ञान सूत्र याद आया- कि कोई भी कार्य करने से पहले दो मिनट सोच लेना । सोचने के लिए रूका । तलवार पीछे खींची तो एक बर्तन से टकरा गई । . बर्तन गिरा तो पत्नी की नींद खुल गई । जैसे ही उसकी नजर अपने पति पर पड़ी वह ख़ुश हो गई और बोली- आपके बिना जीवन सूना सूना था । इन्तजार में इतने वर्ष कैसे निकाले यह मैं ही जानती हूँ । . सेठ तो पलंग पर सोए पुरुष को देखकर कुपित था । पत्नी ने युवक को उठाने के लिए कहा- बेटा जाग । तेरे पिता आए हैं । युवक उठकर जैसे ही पिता को प्रणाम करने झुका माथे की पगड़ी गिर गई । उसके लम्बे बाल बिखर गए । . सेठ की पत्नी ने कहा- स्वामी ये आपकी बेटी है । पिता के बिना इसके मान को कोई आंच न आए इसलिए मैंने इसे बचपन से ही पुत्र के समान ही पालन पोषण और संस्कार दिए हैं । . यह सुनकर सेठ की आँखों से अश्रुधारा बह निकली । पत्नी और बेटी को गले लगाकर सोचने लगा कि यदि आज मैने उस ज्ञानसूत्र को नहीं अपनाया होता तो जल्दबाजी में कितना अनर्थ हो जाता । मेरे ही हाथों मेरा निर्दोष परिवार खत्म हो जाता । . ज्ञान का यह सूत्र उस दिन तो मुझे महंगा लग रहा था लेकिन ऐसे सूत्र के लिए तो 500 स्वर्ण मुद्राएं बहुत कम हैं । . ‘ज्ञान तो अनमोल है ‘ इस कहानी का सार यह है कि जीवन के दो मिनट जो दुःखों से बचाकर सुख की बरसात कर सकते हैं । वे हैं – ‘क्रोध के दो मिनट’ . इस कहानी को शेयर जरूर करें क्योंकि आपका एक शेयर किसी व्यक्ति को उसके क्रोध पर अंकुश रखने के लिए प्रेरित कर सकता है । 😌🙂☺ #spr ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖

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हिन्दू विवाह के सात वचन


हिन्दू विवाह के सात वचन : 1. पहले वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थ यात्रा में जाएँ, या कोई व्रत इत्यादि करें अथवा कोई भी धार्मिक कार्य करें, तो मुझे अपने बाएँ भाग में जरुर स्थान दें. यदि आप ऐसा करने का वचन देते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 2. दूसरे वचन में कन्या वर से वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें और परिवार की मर्यादा के अनुसार, धार्मिक अनुष्ठान करते हुए भगवान के भक्त बने रहें. यदि आप ऐसा करने का वचन देते हैं, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 3. तीसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं: युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में मेरा पालन करने का वचन देते हैं. तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 4. चौथे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप परिवार का पालन-पोषण करने और परिवार के प्रति अपने सारे दायित्वों का पालन करने का वचन देते हैं, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 5. पांचवें वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि आप अपने घर के कामों में, लेन-देन में या किसी दूसरे काम के लिए खर्च करते समय मेरी भी सलाह लेने का वचन देते हैं, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 6. छठे वचन में कन्या वर से कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों या अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी रहूँ, तो आप वहाँ सबके सामने मेरा अपमान नहीं करेंगे. आप जुआ या किसी भी प्रकार की बुरी आदतों से खुद को दूर रखेंगे. यदि आप ऐसा करने का वचन देते हैं, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ. 7. सातवें वचन में कन्या वर से कहती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के प्रेम के बीच में किसी और को नहीं आने देंगे. यदि आप ऐसा करने का वचन देते हैं, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ.

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एक बार एक संत अपनी कुटिया में शांत बैठे थे


एक बार एक संत अपनी कुटिया में शांत बैठे थे, तभी उन्हें कुछ शोर सुनाई दिया जा कर देखा तो एक बंदर ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था, उसका एक हाथ एक घड़े के अंदर था और वह बंदर अपना हाथ छुड़ाने के लिए चिल्ला रहा था। संत को देख वह बंदर संत से आग्रह करने लगा के महाराज कृपया कर के मुझे इस बंधन से मुक्त करवाए। संत ने बंदर को कहा के तुमने घड़े के अंदर हाथ डाला तो वह आसानी से उसमे चला गया, परन्तु अब इसलिए बाहर नहीं निकल रहा है क्यूंकी तुमने अपने हाथ में लड्डू पकड़ा हुआ है जो की उस घड़े के अंदर है, अगर तुम वह लड्डू हाथ से छोड़ दो तो तुम आसानी से मुक्त हो सकते हो। बंदर ने कहा के महाराज, लड्डू तो मैं नहीं छोड़ने वाला, अब आप मुझे बिना लड्डू छोड़े ही मुक्त होने की कोई युक्ति सुझाए। संत मुस्कुराए और कहा के या तो लड्डू छोड़ दो अन्यथा तुम कभी भी मुक्त नही हो सकते। हज़ार कोशिशों के बाद बंदर को इस बात का एहसास हुआ कि बिना लड्डू छोड़े मेरा हाथ इस घड़े से बाहर नही निकल सकता और मैं मुक्त नही हो सकता। आख़िरकार बंदर ने वो लड्डू छोड़ा और सहजता से ही उस घड़े से मुक्त हो गया। यह कहानी सिर्फ़ उस बंदर की ही नहीं बल्कि आज के हर उस इंसान की है जो की उस घड़े में (संसार में) फँसा बैठा है। लड्डू (संसारिक वस्तुओं) को छोड़ना भी नहीं चाहता और उस घड़े (84 के फेरे से) से मुक्त भी होना चाहता है। हमारे संतो ने समझानें का कार्य कर दिया, अब किसे कब समझ आए और वह कब मुक्त होगा यह उसकी समझ है।

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क्यों कहलाते हैं हम दाधीच कहां से आया यह दाधीच शब्द


क्यों कहलाते हैं हम दाधीच कहां से आया यह दाधीच शब्द कैसे बना दाधीच शब्द जानिए अपने बारे म ें जय श्री कृष्ण गोठ और मांगलोद नामक गाँवों के मध्य नागौर जिला मुख्यालय से उत्तर पूर्व में लगभग 44 किमी दूरी पर जायल तहसील में एक प्राचीन शक्ति पीठ स्थित है जो दधिमति माता के मंदिर के नाम से विख्यात है। ‘दाहिमा’ (दाधीच) ब्राह्मण दधिमति माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं तथा इस मंदिर को अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित मंदिर मानते हैं। यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 665 (608 ई.) के लगभग माना जाता है, जिसके अनुसार इस मंदिर के निर्माण के लिए दाधीच ब्राह्मणों द्वारा दान किया गया था, जिसका मुखिया ‘अविघ्न नाग’ था। कुछ विद्वान अभिलेख लिपि के अक्षर तथा राजस्थान में गुप्त राजाओं का शासन क्षेत्र के आधार पर इस मंदिर का निर्माण गुप्त शासनकाल के अंतिम दिनों में चौथी शताब्दी में हुआ मानते हैं। कुछ विद्वान उपरोक्त काल से असहमत होते हुए, इसे 9 वीं शताब्दी का मानते हैं। दधिमति दधिची ऋषि की बहन थी। दधिमति माता को महालक्ष्मी का अवतार माना जाता है। दधिमति का जन्म माघ शुक्ल सप्तमी (रथ सप्तमी) को आकाश के माध्यम से हुआ माना जाता है। दधिमति माता का मंदिर देवी महामात्य का वर्णन करता उत्तर भारत का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है, जो कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के महालक्ष्मी मंदिर से भी पुराना है। दधिमति माता की कथा- जगत के प्राणियों को अभय प्रदान करने के लिए तथा विकटासुर राक्षस का वध करने के लिए “योगमाया महालक्ष्‍मी” महर्षि अथर्वा के घर में भगवती नारायणी दधिमति माता के रूप में प्रकट हुई थी। देवी के भय से विकटासुर दधिसागर में छिप गया, तब भगवती ने दधिसागर का मन्‍थन कर माघ शुक्‍ला अष्‍टमी को संध्‍याकाल में विकटासुर का वध किया। इसी वजह से वही तिथि जयाष्‍टमी के नाम से विख्‍यात है। दधिसागर का मन्‍थन करके विकटासुर को मारने के कारण ब्रह्माजी ने उनका नाम दधिमथी रखा तथा महर्षि अथर्वा को पुत्र प्राप्‍ति का वरदान दिया। ब्रह्माजी ने भगवती दधिमथी को अपने भाई दधीचि के वंश की रक्षा करते हुए उनकी कुलदेवी होने का आशीर्वाद दिया। अथर्वा के पुत्र तथा दधिमति के भाई महर्षि दधिची द्वारा विश्‍वकल्‍याण एवं धर्म की रक्षा हेतु दैत्‍यराज वृत्रासुर के वध के लिए अपनी अस्थियाँ देवताओं को प्रदान कर दी। तब दधिची की गर्भवती पत्‍नी स्वर्चा सती होने के लिए तत्‍पर हुई। तब देवताओं ने स्‍मरण कराया कि आपके गर्भ में जो ऋषि का तेज है, वह रूद्र अवतार है। पहले आप उसे जन्म दें। इस पर ऋषि पत्‍नी ने अपना गर्भ निकाल कर आश्रम में ऋषि द्वारा स्‍थापित अश्‍वत्‍थ वृक्ष को सौंपा और भगवती दधिमथी से प्रार्थना की कि आप हमारी कुलदेवी है, इस बालक की रक्षा करें। कुलदेवी दधिमथी के सानिध्‍य में पीपलवृक्ष के नीचे पलने के कारण महर्षि दधिची के पुत्र का नाम पिपलाद हुआ। भगवान विष्‍णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती देह को खण्डित करने पर जहां-जहां सती के शरीर के अंग गिरे, वे 52 स्‍थान पवित्र 52 शक्तिपीठ कहलाए। भगवती सती काकपाल पुष्‍कर क्षेत्र से 96 किमी दूर उत्तर में गोठ मांगलोद नाम के दो गांवों के बीच में गिरा जो “कपाल सिद्ध पीठ” नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘कपाल पीठ तीर्थ’ गोठ मांगलोद नागौर के पूर्व में 44 किमी दूर जायल तहस ील में है। आपसे अनुरोध है कि सभी दाधीच भाइयों को इस मैसेज से अवगत कराएं …… 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏

ब्रिंमोहन ओजा दधीच

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स्वामी विवेकानन्द एक बार रेल में यात्रा कर रहे थे


स्वामी विवेकानन्द एक बार रेल में यात्रा कर रहे थे। एक भिखारी ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए उनसे भीख मांगी। पहले स्वामीजी मौन हो गये। फिर दूसरी बार भिखारी ने कहा, ‘‘श्रीमान्, मैं बहुत गरीब हूं, मेरे पास कुछ भी नहीं है, मुझ पर दया करो।’’ दुबारा भीख मांगने पर विवेकानन्द जी की आंखों से आंसू टपकने लगे। तपाक से सहयात्री ने पूछा, ‘‘श्रीमान्, क्या बात है ?’’ विवकेकानन्द ने कहा, ‘‘इस अमीर आदमी द्वारा दयनीय जीवन जीने एवं भीख मांगने के कारण मुझे कष्ट हुआ।’’ इस पर सहयात्री ने कहा, ‘‘अरे, यह तो भिखमंगा है। आप इसे अमीर कैसे कह रहे हैं ?’’ तब स्वामीजी ने भिखारी से पूछा, ‘‘क्या आप मुझे अपना बांया हाथ एक लाख रुपयों में बेचोगे ? मैं खरीदना चाहता हूं, रुपये अभी दूंगा।’’ भिखारी ने मना कर दिया। ‘‘क्या दांया हाथ एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं।’’ ‘‘क्या बांया पांव एक लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं।’’ ‘‘दूसरा पांव दो लाख में दोगे ?’’ ‘‘नहीं, यह बेचने के लिये नहीं है।’’ ‘‘क्या एक आंख दो लाख में दोगे ?’’ यहां पर भी उत्तर नकारात्मक ही था। ‘‘दूसरी आंख के पांच लाख दूंगा।’’ ‘‘नहीं स्वामीजी, मैं इन्हें कैसे बेच सकता हूं ?’’ इस पर स्वामीजी बोले, ‘‘बेच तो नहीं सकते, लेकिन इनका उपयोग भीख मांगने के लिये करते हो। इतना सब कुछ होते हुए भी क्या तुम अब भी गरीब हो ? क्या तुम्हारे पास कुछ नहीं है ? जिसके पास इतना कीमती मानव शरीर है उसे आप क्या कहेंगे ? भिखारी शरमा कर वहां से चला गया। वह अपनी पूंजी, अपनी शक्तियों, अपनी योग्यताओं, अपनी क्षमताओं, प्राकृतिक वरदानों से अवगत नहीं था।

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बाबा अमरनाथ पर जो चढ़ावा आता है उसका एक भाग किसी मुस्लिम परिवार को जाता है।


अब तक हम सबको एक बात
की घुट्टी पिलाई जाती थी की

बाबा अमरनाथ पर जो चढ़ावा आता है उसका एक
भाग किसी मुस्लिम परिवार को जाता है।

तो आज का प्रश्न है की
उस परिवार को उस धन का उपयोग करने वाले,
हर एक मुस्लिम को कब
समुदाय से निकाला जाएंगा ?
कब उन पर फतवा आयेगा?

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गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय ….


गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय …….
गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas) का जन्म राजापुर गांव (Rajapur Village, U.P.) (वर्तमान बांदा जिला) उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में हुआ था. संवत् 1554 की श्रावण मास की अमावस्या के सातवें दिन तुलसीदास का जन्म हुआ था. उनके पिता का नाम आत्माराम (Atma Ram) और माता का नाम हुलसी देवी (Hulsi Devi) था. लोगों में ऐसी भी मान्यता है कि तुलसीदास (Tulsidas)का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था जिसकी वजह से वह काफी हृष्ट पुष्ट थे. जन्म लेने के बाद प्राय: सभी शिशु रोया ही करते हैं किन्तु इस बालक ने जो पहला शब्द बोला वह राम था. अतएव उनका घर का नाम ही रामबोला पड गया. माँ तो जन्म देने के बाद दूसरे ही दिन चल बसीं, पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गए. जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही. वह गली-गली भटकता रहा।

बचपन में इतनी परेशानियां और मुश्किलें झेलने के बाद भी तुलसीदास ने कभी भगवान का दामन नहीं छोडा और उनकी भक्ति में हमेशा लीन रहे. बचपन में उनके साथ एक और घटना घटी जिसने उनके जीवन को पूरी तरह बदल कर रख दिया. भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा. इसके बाद उन्हें शिक्षा दी जाने लगी.

21 वर्ष की आयु में तुलसीदास का विवाह यमुना के पार स्थित एक गांव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से कर दी गई. क्यूंकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गए और वहां शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गए. लेकिन एक दिन अपनी पत्नी की बहुत याद आने पर वह गुरु की आज्ञा लेकर उससे मिलने पहुंच गए. लेकिन उस समय यमुना नदी में बहुत उफान आया हुआ था पर तुलसीराम ने अपनी पत्नी से मिलने के लिए उफनती नदी को भी पार कर लिया.

लेकिन यहां भी तुलसीदास के साथ एक घटना घटी. रात के अंधेरे में वह अपनी पत्नी के घर उससे मिलने तो पहुंच गए पर उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे. उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को महान तुलसीदास बना दिया. रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीति।

अर्थात जितना प्रेम मेरे इस हाड-मांस के बने शरीर से कर रहे हो, उतना स्नेह यदि प्रभु राम से करते, तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती.

यह सुनते ही तुलसीदास की चेतना जागी और उसी समय से वह प्रभु राम की वंदना में जुट गए. इसके बाद तुलसीराम को तुलसीदास के नाम से पुकारा जाने लगा. वह अपने गांव राजापुर पहुंचे जहां उन्हें यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर नष्ट हो चुका है तो उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ. उन्होंने विधि-विधान पूर्वक अपने पिता जी का श्राद्ध किया और गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे.

कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे. कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया. हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की. हनुमानजी ने कहा- “तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी के दर्शन होंगें.” इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े.

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया. एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए. उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं. तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके. तभी पीछे से हनुमान्‌जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे. इस पर हनुमान्‌जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे.

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुद्धवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए. उन्होंने बालक रूप में आकरतुलसीदास (Tulsidas)से कहा-”बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?” हनुमान ‌जी ने सोचा,कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर.
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गए. अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये.

संवत् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े. उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था. वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये. पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए. वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी. माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया. वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे. परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते. यह घटना रोज घटती. आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ. भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो. तुलसीदास जी की नींद उचट गयी. वे उठकर बैठ गये. उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए. तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया. इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो. मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी.”

यह सुनकर संवत्‌ 1631 में तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना शुरु की. दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था. उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की. दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ. संवत्‌ 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए.

इसके बाद भगवान् की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये. वहाँ उन्होंने भगवान्‌ विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया. रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी. प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया- ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ जिसके नीचे भगवान्‌ शंकर की सही (पुष्टि) थी. उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ की आवाज भी कानों से सुनी.

तुलसीदास (Tulsidas)जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा. तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया. हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति ‘विनय-पत्रिका’ लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया. श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया.

संवत्‌ 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने “राम-राम” कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया.

तुलसीदासने ही दुनिया को “हनुमान चालिसा” नामक डर को मिटाने वाल मंत्र दिया है. कहा जाता है कि हनुमान चालिसा के पाठ से सभी भय-विकार मिट जाते हैं. तुलसीदास जी ने देवनागरी लिपि में अपने लेख लिख हिन्दी को आगे बढ़ाने में भी काफी सहायता की है. भारतभूमि सदैव अपने इस महान रत्न पर नाज करेगी.

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एक हंसमुखी भारतीय ने अपना पुराना जॉब छोड़कर कनाडा के – नरेन्द्र कुमार दुबे


एक हंसमुखी भारतीय ने अपना पुराना जॉब छोड़कर कनाडा के , एक विश्व के सबसे बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में सेल्समेन की नौकरी ज्वाइन की ।

बॉस ने पूछा ” – तुम्हे कुछ तज़ुर्बा है ? उसने कहा – हाँ , मैं भारत में सेल्समेन ही था ।

पहले दिन उस भारतीय ने पूरा मन लगाकर काम किया । शाम के 6 बजे बॉस ने पूछा “- आज पहले दिन तुमने कितने सेल किये ?

भारतीय ने कहा कि सर मैंने 1 सेल किया । बॉस चौंक कर बोले – क्या मात्र एक ही सेल ??? सामान्यत: यहाँ कार्य करने वाले हर सेल्समेन 20 से 30 सेल रोज़ाना करते है । अच्छा ये बताओं तुमने कितने का सेल किया ।

” 933005 पाउंड्स ” – भारतीय बोला ।

” क्या ??? – लेकिन तुमने यह कैसे किया ” आश्चर्यजनक रूप से बॉस ने पूछा !

“अच्छा बताता हूँ , भारतीय ने कहा – ” एक व्यक्ति आया और मेने उसे एक छोटा मछली पकड़ने का हुक बेचा , फिर एक मझोला और फिर अंततः एक बड़ा हुक बेचा ।

फिर उसे मैंने एक बड़ी फिशिंग रॉड और कुछ फिशिंग गियर बेचे । फिर मैंने उससे पूछा कि तुम कहाँ मछली पकड़ोगे तो उसने कहा कि वह कोस्टल एरिया में पकड़ेगा । तब मैंने कहा कि इसके लिए एक नाव की भी ज़रूरत पड़ेगी । अतः मैं उसे नीचे बोट डिपार्टमेंट में ले गया और उसे 20 फीट की डबल इंजन वाली स्कूनर बोट बेच दी ।

जब उसने कहा कि यह बोट उसकी वोल्कस वेगन में नहीं आएगी । तब मैं उसे अपने ऑटो मोबाइल सेक्शन में ले गया और उसे बोट केरी करने के लिए नयी डीलक्स 4 × 4 ब्लेज़र बेचीं ।

और जब मैंने उसे पूछा कि तुम मछली पकड़ते वक़्त कहाँ रहोगे । उसने कुछ प्लान नहीं किया था । तो मैं उसे कैम्पिंग सेक्शन में ले गया और उसे फोल्डिंग टेंट बेच दिया ।

अब बॉस दो कदम पीछे हटा और बेहद ही भौचक्के अंदाज़ में पूछने लगा -” तुमने इतना सब उस आदमी को बेच दिया जो केवल एक मछली पकड़ने का काँटा खरीदने आया था ? ? ?

” NO, SIR,” युवा भारतीय सेल्समेन ने जवाब दिया । ” वह तो केवल सरदर्द दूर करने की एक टेबलेट लेने आया था । मैंने उसे समझाया कि मछली पकड़ना ही सरदर्द दूर करने का सबसे अच्छा उपाय है ???” ।

बॉस – ” तुमने इसके पहले भारत में कहाँ काम किया था ” ?

भारतीय सेल्समेन – ” जी मैं ,भारत में LIC में बीमा एजेंट था ।

बॉस बोला – तुम मेरी कुर्सी पर बैठो । मैं तुम्हारी पुरानी संस्था ज्वाईन करने जा रहा हूँ । आदमी को फंसाने का प्लान सीखता हूँ फिर आगे जिन्दगी के साथ भी और जिन्दगी के बाद भी ??? हँसते रहिये ! हा हा हा !