प्रभु श्री राम एवं जगत जननी माता
सीता के पाणिग्रहण के शुभ अवसर
पर समस्त राम भक्तों एवं राष्ट्रवासियों
को अनंत शुभकामनाएं,,,,
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि
को भगवान श्री राम और माता सीता
का विवाह हुआ था।
इसलिए इस तिथि को विवाह पंचमी के
नाम से जाना जाता है।
राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इस
लिए था कि वे जनक को हल कर्षित रेखा
भूमि से प्राप्त हुई थीं।
बाद में उनका विवाह भगवान राम से हुआ।
वाल्मीकि रामायण में जनक जी सीता
की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं:-
अथ मे कृषत: क्षेत्रं
लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा
नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु
व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या
स्थापितेयमयोनिजा॥
राम जन्म के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण
घटना है वह है राम की शिक्षा और राजा
जनक के दरबार में भगवान शिव के धनुष
को तोड़कर सीता से विवाह करना।
सीता से विवाह करने की इच्छा से एक से
एक बलवान और पराक्रमी राजे महाराजे
जनक के दरबार में आए थे।
इनमें रावण भी उपस्थित था।
सभी ने ऎड़ी चोटी का जोर लगाया लेकिन
कोई भी शिव के धनुष को उठाने में सफल
नहीं हुआ।
अंत में ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से स्वयंवर
देखने आए श्रीराम ने धनुष को खिलौने की
तरह उठा लिया और सहज भाव से तोड़ दिया।
यह तो मूल घटना है लेकिन सवाल उठता
है कि राम आखिर धनुष तोड़ने में कैसे
सफल हुए।
इसका उत्तर जानने के लिए सीता के
बचपन की एक घटना को जानना होगा।
एक बार सीता पूजा घर की साफ-सफाई
कर रही थी।
जहां शिव का धनुष रखा था वहां काफी
गंदगी हो गई थी सीता ने इसे साफ करने
के लिए एक हाथ से धनुष उठा लिया और
दूसरा से सफाई करने लगी।
अचानक राजा जनक पूजा घर में आ गए
और सीता को शिव का धनुष उठाए देखकर
हैरान रह गए।
राजा जनक ने पूछा तुमने इस भारी धनुष
को कैसे उठा लिया।
सीता ने सहज भाव से उत्तर दिया,
यह धनुष तो बहुत ही हल्का है,
मैंने तो इसे एक हाथ से उठा लिया।
माता सीता स्वयं माँ शक्ति का अवतार थीं,
उनके लिए यह अत्यंत सहज था।
इसी समय राजा जनक ने कहा कि जो
कोई इस धनुष को भंग कर देगा वही सीता
का पति होगा।
सीता से विवाह के इच्छुक बलशाली व्यक्ति
बल के अहंकार में डूबे थे।
वह धनुष उठाते समय शरीर का पूरा बल
धनुष पर लगा देते थे जिससे धनुष उठने
की बजाय और बैठ जाता था।
यह उसी प्रकार होता था जैसे किसी डब्बे
के उपर लगा हुआ ढ़क्कन खोलते समय
आप जोर लगाएं तो वह और बैठ जाता
है लेकिन आराम से खोलें तो तुरंत खुल
जाता है।
राम ने इस चीज को गौर से देखा कि सभी
धनुष के साथ बल प्रयोग कर रहे हैं इसलिए
धनुष उठ नहीं रहा है।
इसलिए जब राम धनुष उठाने गए तो जिस
प्रकार सीता सहज भाव से बिना बल लगाए
धनुष उठा लेती थी उसी प्रकार राम ने भी
धनुष को उठाने का प्रयास किया और
सफल हुए।
सीता राम की हो गई।
राम ने यहां संसार को ज्ञान दिया कि
बल की बजाय हमेशा बुद्धि से काम
लेना चाहिए।
प्रभु श्री राम के धनुष भंग करने के बाद
माता सीता की सखियाँ माता सीता को
बताती हैं कि प्रभु श्री राम ने धनुष तोड़
दिया है।
अब श्रृंगार कर विवाह के लिए तैयार
हो जाएँ।
भोजपुरी भाषा में बड़ा ही श्रृंगारिक
वर्णन है:-
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।
शिव धनुष रामजी तोडले हा,
सीता से नाता जोड़ले हा।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।
शीश सिया के चुनर सोहे,
नथिया में रूप मनोहर बा।
सुन्दर सुघर का कहि,
रघुवर-जानकी के जोड़ी बा।
हाथ सिया के चूड़ी सोहे,
कंगन दम-दम दमकेला।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।
कमर सिया के करधनी लटके,
झुमका कान में सोहेला।
पांव सिया के पायल सोहे,
बिछिया अंगूरी में चमकेला।
सुन्दर सुघर का कहि,
जानकी के छटा मनमोहत बा।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।
राम विवाह का जो प्रसंग तुलसीदास
जी ने रामचरित मानस में वर्णित किया
है उससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीराम
और सीता जी विवाह से पहले जनकपुर
के पुष्प वाटिका में मिल चुके थे।
जनकपुर वर्तमान में नेपाल में स्थित है।
भगवान श्री राम और गुरू विशिष्ठ की
आज्ञा से पूजा हेतु वाटिका से फूल लाने
गये थे।
माता सीता भी उस समय वाटिका में
मौजूद थीं।
जब राम और सीता ने एक दूसरे को देखा
तो एक दूसरे के प्रति मोहित हो गये।
सीता ने उसी क्षण राम को पति रूप में
स्वीकार कर लिया।
सीता इस बात से चिंतित थीं कि पिता द्वारा
रखी गयी शिव धनुष भंग की शर्त को किसी
और ने पूरा कर दिया तो राम उन्हें पति रूप
में नहीं प्राप्त होंगे।
अपने मन की चिंता को दूर करने के लिए
सीता अपनी अराध्य देवी मां पार्वती की
शरण में गयी।
तुलसीदास जी ने लिखा है कि सीता की
मनोदशा को समझकर माता पार्वती उन्हें
समझाती हैं कि राम साक्षत परमेश्वर हैं।
यह सब की मनोदशा को समझते हैं।
भगवान श्री राम ने ही शिव को मुझ से
विवाह के लिए प्रेरित कर मेरी तपस्या
को सफल किया इसलिए तुम भी मन
से चिंता निकाल दो।
राम ही तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे।
तुलसीदास जी ने इस संदर्भ को इस
प्रकार दोहे में स्पष्ट किया है।
‘करूणानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।’
पार्वती ने सीता को समझाया कि श्रीराम करूणानिधान और शीलवान और सर्वज्ञ हैं।
वह सब जानते हैं।
ऊपर से मेरा आशीर्वाद है कि ‘पूजहि मन
कामना तुम्हारी’
‘सो बरू मिलिहि जाहिं मनु राचा’।
पार्वती जी कहती हैं कि तुमने मन में जिसे बिठाकर पूजा की है वही सहज,सुन्दर,
सांवरा वर तुम्हें प्राप्त होगा।
पार्वती जी द्वारा कहे गये शब्दों को ध्यान
में रखकर सीता ने तय किया कि वह श्री
राम को करूणानिधान के नाम से ही पुकारेंगी।
करुणानिधानः केवल सीता ही राम को इस
नाम से पुकारती थी,मां सीता प्रभु श्री राम
को इसी नाम से बुलाती थीं।
कथा है कि सीता की ख़बर लेने के लिए
जब हनुमान जी लंका जाने लगे तब श्री
राम ने हनुमान को अपने पास बुलाकर
कहा कि मेरी मुद्रिका सीता को देना इससे
वह तुम्हें मेरा दूत मान लेगी।
तब हनुमान ने शंका जताई कि अगर इससे
भी न मानी सीता माता तो क्या करूं।
इस पर श्री राम ने हनुमान जी से कहा
कि सीता मुझे करूणानिधान के नाम से
बुलाती है,यह बात सिर्फ मुझे मालूम हैं।
यह बात तुम सीता को कहना की आप
के करूणानिधान ने यह मुद्रिका दी है तो
सीता पूर्ण विश्वास कर लेगी और तुम्हें
मेरा दूत मान लेगी।
और ऐसा ही हुआ,,,,
“राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य शपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्ही राम तुम कहँ सहिदानी।।
माँ सीता प्रिय प्रभु श्री राम की वंदना:-
नमामि भक्त-वत्सलं,
कृपालु-शील-कोमलम्।
भजामि ते पदाम्बुजं,
अकामिनां स्व-धामदम्।।
निकाम-श्याम-सुन्दरं,
भवाम्बु-नाथ मन्दरम्।
प्रफुल्ल-कंज-लोचनं,
मदादि-दोष-मोचनम्।।
प्रलम्ब-बाहु-विक्रमं,
प्रभो·प्रमेय-वैभवम्।
निषंग-चाप-सायकं,
धरं त्रिलोक-नायक…म्।।
दिनेश-वंश-मण्डनम्,
महेश-चाप-खण्डनम्।
मुनीन्द्र-सन्त-रंजनम्,
सुरारि-वृन्द-भंजनम्।।
मनोज-वैरि-वन्दितं,
अजादि-देव-सेवितम्।
विशुद्ध-बोध-विग्रहं,
समस्त-दूषणापहम्।।
नमामि इन्दिरा-पतिं,
सुखाकरं सतां गतिम्।
भजे स-शक्ति सानुजं,
शची-पति-प्रियानुजम्।।
त्वदंघ्रि-मूलं ये नरा:,
भजन्ति हीन-मत्सरा:।
पतन्ति नो भवार्णवे,
वितर्क-वीचि-संकुले।।
विविक्त-वासिन: सदा,
भजन्ति मुक्तये मुदा।
निरस्य इन्द्रियादिकं,
प्रयान्ति ते गतिं स्वकम्।।
तमेकमद्भुतं प्रभुं,
निरीहमीश्वरं विभुम्।
जगद्-गुरूं च शाश्वतं,
तुरीयमेव केवलम्।।
भजामि भाव-वल्लभं,
कु-योगिनां सु-दुलर्भम्।
स्वभक्त-कल्प-पादपं,
समं सु-सेव्यमन्हवम्।।
अनूप-रूप-भूपतिं,
नतोऽहमुर्विजा-पतिम्।
प्रसीद मे नमामि ते,
पदाब्ज-भक्तिं देहि मे।।
पठन्ति से स्तवं इदं,
नराऽऽदरेण ते पदम्।
व्रजन्ति नात्र संशयं,
त्वदीय-भक्ति-संयुता:।।
तात् राम नहीं नर भोपाला।
भुवनेश्वर कालहू कर काला।।
समस्त चराचर प्राणियों एवं
सकल विश्व का कल्याण करो प्रभु !!
जगतजननी माता सीता की कृपा
सदा बरसती रहे,,,
जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,
सदा सर्वदा सुमंगल,,,,
हर हर महादेव,
जय भवानी,,,
जय सीता(श्री) राम,,,
जय सिया(श्री) राम,,,
जय श्री राम~
Vijay Krishna Pandey