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तीन प्रश्न ? मित्रों, विख्यात रूसी साहित्यकार “टालस्टाय” अपनी कहानी “तीन प्रश्न”


तीन प्रश्न ?

मित्रों, विख्यात रूसी साहित्यकार “टालस्टाय” अपनी कहानी “तीन प्रश्न” में लिखते हैं कि किसी राजा के मन में तीन प्रश्न अक्सर उठा करते थे जिनके उत्तर पाने के लिए वह अत्यंत अधीर था इसलिए उसने अपने राज्यमंत्री से परामर्श किया और अपने सभासदों की एक बैठक बुलाई | राजा ने उस सभा में जो अपने तीनों प्रश्न सबके सम्मुख रखे ; वे थे —

  1. सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्या होता है ?
  2. परामर्श के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति कौन होता है ?
  3. किसी भी निश्चित कार्य को करने का महत्त्वपूर्ण समय कौन सा होता है?

कोई भी राजा के प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर न दे पाया लेकिन उस सभा में राजा को एक ऐसे सन्यासी के बारे में पता चला जो सुदूर जंगल में एक कुटिया में रहते थे और सबकी जिज्ञासा का समाधान करने में समर्थ थे | राजा भी साधारण वेष में अपने कुछ सैनिकों एवं गुप्तचरों को साथ लेकर चल दिया उस सन्यासी के दर्शनों के लिए | दिल में एक ही आस थी कि अब उसे अपने प्रश्नों के उत्तर अवश्य ही मिल जायेंगे | जब वे सब सन्यासी की कुटिया के समीप पहुंचे तो राजा ने अपने सभी सैनकों एवं गुप्तचरों को कुटिया से दूर रहने का आदेश दिया और स्वयं अकेले ही आगे बढ़ने लगा |

राजा ने देखा कि अपनी कुटिया के समीप ही सन्यासी खेत में कुदाल चला रहे हैं | कुछ ही क्षणों में उनकी दृष्टि राजा पर पड़ी | कुदाल चलाते-चलाते ही उन्होंने राजा से उसके आने का कारण पूछा और राजा ने भी बड़े आदर से अपने वही तीनों प्रश्न सन्यासी को निवेदित कर दिए | राजा अपने प्रश्नों के उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा लेकिन यह क्या ? साधु ने तो उत्तर देने की बजाय राजा को उसकी कुदाल लेने का संकेत कर डाला और राजा भी कुदाल लेकर खेत जोतने लगा | आख़िरकार राजा को अपने प्रश्नों के उत्तर भी तो चाहिए थे |

राजा के खेत जोतते- जोतते संध्या हो गयी |इतने में ही एक घायल व्यक्ति जो खून से लथपथ था और जिसके पेट से खून की धार बह रही थी ,उस सन्यासी की शरण लेने आया | अब सन्यासी एवं राजा दोनों ने मिलकर उस घायल की मरहम पट्टी की | दर्द से कुछ राहत मिली तो घायल सो गया |प्रातः जब वह घायल आगंतुक राजा से क्षमायाचना करने लगा तो राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा | आगन्तुक राजा की स्थिति देख तत्काल अपना परिचय देते हुए बोला –“कल तक आपको मैं अपना घोर शत्रु मानता था क्योंकि आपने मेरे भाई को फाँसी की सज़ा दी थी | बदले का अवसर ढूढ़ता रहता था | कल मुझे पता लग गया था कि आप साधारण वेषभूषा में इस साधु के पास आये हैं | आपको मारने के उद्देश्य से मैं यहाँ आया था और एक झाड़ी के पीछे छिपकर बैठा था लेकिन आपके गुप्तचर मुझे पहचान गये और घातक हथियारों से मुझे चोट पहुँचाई लेकिन आपने अपना शत्रु होने के बावजूद भी मेरे प्राणों की रक्षा की | परिणामतः मेरे मन का द्वेष समाप्त हो गया है | अब मैं आपके चरणों का सेवक बन गया हूँ | आप चाहे दण्ड दें अथवा मुझे क्षमादान दें, यह आपकी इच्छा |”

घायल की बात सुनकर राजा स्तब्ध रह गया और मन ही मन इस अप्रत्याशित ईश्वरीय सहयोग के लिए के लये प्रभु का धन्यवाद करने लगा | सन्यासी मुस्कराया और राजा से कहने लगा –“राजन्, क्या अभी भी आपको अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले ?”

राजा कुछ दुविधा में दिखाई दे रहा था इसलिए सन्यासी ने ही बात आगे बढ़ाई – ‘आपके पहले प्रश्न का उत्तर है —सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य वही होता है जो हमारे सामने होताहै ; जैसे आपने मुझे खेत जोतने में सहयोग दिया | यदि आप मुझे सहानुभूति न दिखाते तो आपके जीवन की रक्षा न हो पाती ।

आपका दूसरा प्रश्न था कि परामर्श के लिए कौन महत्त्वपूर्ण होता है जिसका उत्तर आपको स्वयं ही मिल चुका है कि जो व्यक्ति हमारे पास उपस्थित होता है , उसी से परामर्श मायने रखता है | जैसे उस घायल व्यक्ति को सहायता की आवश्यकता थी जिसके प्राण आपने बचाये | इस तरह आपका शत्रु भी आपका मित्र बन गया ।

तीसरे प्रश्न का उत्तर यही है कि किसी भी निश्चित कार्य को करने का महत्त्वपूर्ण समय होता है “अभी” |

मित्रो, महान् रूसी साहित्यकार टालस्टाय की यह कहानी हमें सावधान करती है कि वर्तमान के महत्त्व को कभी भी नहीं भूलना चाहिए | भविष्य की चिंता में वर्तमान यदि बिगड़ गया तो हम हाथ ही मलते रह जायेंगे | प्रस्तुत कार्य को मनोयोग से करना अथवा समय का सदुपयोग ही न केवल उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं की नींव होता है अपितु यही सर्वांगीण प्रगति का मूलमंत्र भी है |

आचार्य विकास शर्मा

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महाभारत का युद्ध चल रहा था। अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे।


महाभारत का युद्ध चल रहा था।  अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे।

जैसे ही अर्जुन का बाण छूटता,  कर्ण का रथ दूर तक पीछे चला जाता।

जब कर्ण का बाण छूटता,
तो अर्जुन का रथ सात कदम पीछे चला जाता।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन की प्रशंसा के स्थान पर
कर्ण के लिए हर बार कहा…
कितना वीर है यह कर्ण?

जो उनके रथ को सात कदम पीछे धकेल देता है।

अर्जुन बड़े परेशान हुए।
असमंजस की स्थिति में पूछ बैठे…

हे वासुदेव! यह पक्षपात क्यों?  मेरे पराक्रम की आप प्रशंसा नहीं करते…
एवं मात्र सात कदम पीछे धकेल देने वाले कर्ण को बारम्बार वाहवाही देते है।

श्रीकृष्ण बोले-अर्जुन तुम जानते नहीं…

तुम्हारे रथ में महावीर हनुमान…
एवं स्वयं मैं वासुदेव कृष्ण विराजमान् हैं।

यदि हम दोनों न होते…
तो तुम्हारे रथ का अभी अस्तित्व भी नहीं होता।

इस रथ को सात कदम भी पीछे हटा देना कर्ण के महाबली होने का परिचायक हैं।

अर्जुन को यह सुनकर अपनी क्षुद्रता पर ग्लानि हुई।

इस तथ्य को अर्जुन और भी अच्छी तरह तब समझ पाए जब युद्ध समाप्त हुआ।

प्रत्येक दिन अर्जुन जब युद्ध से लौटते…
श्रीकृष्ण पहले उतरते,
फिर सारथी धर्म के नाते अर्जुन को उतारते।

अंतिम दिन वे बोले-अर्जुन…
तुम पहले उतरो रथ से व थोड़ी दूर जाओ।

भगवान के उतरते ही रथ भस्म हो गया।

अर्जुन आश्चर्यचकित थे।
भगवान बोले-पार्थ…
तुम्हारा रथ तो कब का भस्म हो चुका था।

भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य
व कर्ण के  दिव्यास्त्रों से यह नष्ट हो चुका था।  मेरे संकल्प ने इसे युद्ध समापन तक जीवित रखा था।

अपनी श्रेष्ठता के मद में चूर अर्जुन का अभिमान चूर-चूर हो गया था।

अपना सर्वस्व त्यागकर वे प्रभू के चरणों पर नतमस्तक हो गए।
अभिमान का व्यर्थ बोझ उतारकर हल्का महसूस कर रहे थे…

गीता श्रवण के बाद इससे बढ़कर और क्या उपदेश हो सकता था कि सब भगवान का किया हुआ है।
हम तो निमित्त मात्र है।
काश हमारे अंदर का अर्जुन इसे समझ पायें।नमन ओशो

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नानक हरिद्वार गए और एक घटना घटी।


🔴🔴🔴🔴
नानक हरिद्वार गए और एक घटना घटी। पितृ-पक्ष चलता था और लोग कुएं पर पानी भर कर आकाश में अपने पुरखों को भेज रहे थे। नानक ने भी बाल्टी उठा ली, कुएं से पानी भरा और लोग तो पूरब की तरफ मुंह करके भेज रहे थे, उन्होंने पश्चिम की तरफ बाल्टी उलटानी शुरू कर दी। और जोर से कहा, पहुंच मेरे खेत में। जब दस-पांच बाल्टी डाल चुके और सब जगह खराब कर दी, पानी से भर दी, तो लोगों ने पूछा कि आप यह कर क्या रहे हैं? आपका दिमाग ठीक है? और पुरखों को जो पानी चढ़ाया जाता है, वह सूर्य की तरफ, पूर्व की तरफ, आप यह पश्चिम की तरफ उलटा धंधा कर रहे हैं! और यह क्या कहते हैं कि पहुंच मेरे खेत में? कहां खेत है तुम्हारा?
नानक ने कहा, यहां से कोई दो सौ मील दूर है। लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम पागल हो; शक तो हमें पहले ही हुआ था। कहीं दो सौ मील दूर यह पानी पहुंच सकता है? नानक ने कहा, तुम्हारे पुरखे कितनी दूर हैं? उन्होंने कहा कि वे तो अनंत दूरी पर हैं। तो नानक ने कहा कि जब अनंत दूरी तक पहुंच रहा है, तो दो सौ मील फासला क्या बहुत बड़ा है! जब तुम्हारे पुरखों तक पहुंच जाएगा तो हमारे खेत तक भी पहुंच जाएगा।
नानक क्या कह रहे हैं? नानक यह कह रहे हैं, थोड़ा चेतो! तुम क्या कर रहे हो? थोड़ा होश संभालो! कहां पानी ढाल रहे हो? इस तरह की मूढ़ताओं से क्या होगा?
लेकिन सारा धर्म इस तरह की मूढ़ताओं से भरा है। कोई पुरखों को पानी पहुंचा रहा है, कोई गंगाओं में स्नान कर रहा है कि पाप धुल जाएंगे, कोई पत्थर की मूर्तियों के सामने बिना किसी भाव के, बिना किसी अर्चना के, सिर झुकाए बैठा है और मांग कर रहा है संसार की। धर्म के नाम पर हजार तरह की मूढ़ताएं प्रचलित हैं।
इसलिए नानक कहते हैं, न तो शास्त्र से मिलेगा, न संप्रदाय से मिलेगा, न अंधे अनुकरण से मिलेगा। धर्म का संबंध होता ही तब है, जब कोई व्यक्ति मनन को उपलब्ध होता है।
जब कोई व्यक्ति जाग जाता है, भीतर सुरति आती है। बस जहां से ओंकार का नाद शुरू होता है, वहीं से धर्म का संबंध शुरू होता है। जिस दिन तुम समर्थ हो जाओगे नाद को सुनने में, करने वाले नहीं रहोगे, सिर्फ सुनने वाले, और भीतर नाद हो रहा है, और तुम आह्लादित हो, तुम साक्षी हो, तुम द्रष्टा हो–उसी दिन तुम्हारा धर्म से संबंध जुड़ जाएगा। निश्चित ही यह धर्म मजहब नहीं हो सकता। यह धर्म रिलीजन नहीं हो सकता। इस धर्म का वही अर्थ है जो बुद्ध के धम्म का। इस धर्म का वही अर्थ है जो महावीर के धर्म का।
धर्म का अर्थ है, स्वभाव। जो लाओत्से का अर्थ है ताओ से, वही धर्म से अर्थ है नानक का। तुम अपने स्वभाव से जुड़ जाओगे। और स्वभाव में हो जाना ही परमात्मा में हो जाना है। स्वभाव से हट जाना, खो जाना है। स्वभाव में लौट आना, वापस घर पहुंच जाना है।

ओशो
♣♣♣♣

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मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है अत्यंत काल्पनिक कहानी है


मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है
अत्यंत काल्पनिक कहानी है
                           लेकिन विचार करने जैसी है।
वह शायद उपयोग की हो।
मैंने सुना है, एक मुसलमान सूफी फकीर ने एक रात्रि स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है और उसने वहां यह भी देखा कि स्वर्ग में बहुत बड़ा समारोह मनाया जा रहा है। सारे रास्ते सजे हैं। बहुत दीप जले हैं। बहुत फूल रास्ते के किनारे लगे हैं। सारे पथ और सारे महल सभी प्रकाशित हैं। उसने जाने वालों से पूछा, आज क्या है? क्या कोई समारोह है? और उसे ज्ञात हुआ कि आज भगवान का जन्मदिन है और उनकी सवारी निकलने वाली है। वह एक दरख्त के पास खड़ा हो गया।
लाखों लोगों की बहुत बड़ी शोभायात्रा निकल रही है। सामने घोड़े पर एक अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति बैठा हुआ है। उसने लोगों से पूछा, यह प्रकाशवान व्यक्ति कौन है? ज्ञात हुआ कि यह ईसा मसीह हैं और उनके पीछे उनके अनुयायी हैं। लाखों-करोड़ों उनके अनुयायी हैं। उनके निकल जाने के बाद वैसे ही दूसरे व्यक्ति की सवारी निकली, तब फिर उसने पूछा कि यह कौन हैं? उसे ज्ञात हुआ, यह हजरत मोहम्मद हैं। वैसे ही लाखों लोग उनके पीछे हैं। फिर बुद्ध हैं। फिर महावीर हैं, जरथुस्त्र हैं, कनफ्यूशियस हैं और सबके पीछे करोड़ों-करोड़ों लोग हैं। जब सारी शोभायात्रा निकल गई तो पीछे अत्यंत दीन और दरिद्र सा एक वृद्ध घोड़े पर सवार है। उसके पीछे कोई नहीं है। उसने पूछा, यह कौन है? और ज्ञात हुआ कि यह स्वयं परमात्मा हैं। घबराकर उसकी नींद खुल गई और हैरान हुआ…।

यह स्वप्न में सत्य नहीं हुआ है,
यह आज सारी जमीन पर सत्य हो गया है।
लोग क्राइस्ट के साथ हैं, बुद्ध के साथ हैं, राम के साथ हैं, कृष्ण के साथ हैं,
परमात्मा के साथ कोई भी नहीं है।
जिसे परमात्मा के साथ होना हो उसे बीच में किसी मध्यस्थ को लेने की कोई भी जरूरत नहीं। और जो परमात्मा के साथ हो,
वह स्मरण रखे कि क्राइस्ट के साथ हो ही जाएगा,
लेकिन जो क्राइस्ट के साथ है, अनिवार्य नहीं है कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा।
जो परमात्मा के साथ है, वह राम, बुद्ध, कृष्ण और महावीर के साथ हो ही जाएगा, लेकिन जो उनके साथ है स्मरण रखे कि अनिवार्य नहीं कि वह परमात्मा के साथ हो जाएगा।

और फिर यह भी स्मरण रहे कि जो बुद्ध के साथ है,
कृष्ण के विरोध में है; और जो क्राइस्ट के साथ है और राम के विरोध में है; और जो महावीर के साथ है तथा कनफ्यूशियस के विरोध में है, वह कभी परमात्मा के साथ नहीं हो सकता। जो परमात्मा के साथ है वह एक ही साथ क्राइस्ट, राम, बुद्ध, महावीर सबके साथ हो जाता है।

एक एक कदम

💖ओशो

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समाजिक बनिए


🌹🔥समाजिक बनिए🔥🌹

एक चूहा एक कसाई के घर में बिल बना कर रहता था।

एक दिन चूहे ने देखा कि उस कसाई और उसकी पत्नी एक थैले से कुछ निकाल रहे हैं। चूहे ने सोचा कि शायद कुछ खाने का सामान है।

उत्सुकतावश देखने पर उसने पाया कि वो एक चूहेदानी थी।

ख़तरा भाँपने पर उस ने पिछवाड़े में जा कर कबूतर को यह बात बताई कि घर में चूहेदानी आ गयी है।

कबूतर ने मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि मुझे क्या? मुझे कौनसा उस में फँसना है?

निराश चूहा ये बात मुर्गे को बताने गया।

मुर्गे ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा… जा भाई.. ये मेरी समस्या नहीं है।

हताश चूहे ने बाड़े में जा कर बकरे को ये बात बताई… और बकरा हँसते हँसते लोटपोट होने लगा।

उसी रात चूहेदानी में खटाक की आवाज़ हुई,  जिस में एक ज़हरीला साँप फँस गया था।

अँधेरे में उसकी पूँछ को चूहा समझ कर उस कसाई की पत्नी ने उसे निकाला और साँप ने उसे डस लिया।

तबीयत बिगड़ने पर उस व्यक्ति ने हकीम को बुलवाया। हकीम ने उसे कबूतर का सूप पिलाने की सलाह दी।

कबूतर अब पतीले में उबल रहा था।

खबर सुनकर उस कसाई के कई रिश्तेदार मिलने आ पहुँचे जिनके भोजन प्रबंध हेतु अगले दिन उसी मुर्गे को काटा गया।

कुछ दिनों बाद उस कसाई की पत्नी सही हो गयी, तो खुशी में उस व्यक्ति ने कुछ अपने शुभचिंतकों के लिए एक दावत रखी तो बकरे को काटा गया।

चूहा अब दूर जा चुका था, बहुत दूर ……….।

अगली बार कोई आपको अपनी समस्या बतायेे और आप को लगे कि ये मेरी समस्या नहीं है, तो रुकिए और दुबारा सोचिये।

समाज का एक अंग, एक तबका, एक नागरिक खतरे में है तो पूरा देश खतरे में है।

*_अपने-अपने दायरे से बाहर निकलिये। स्वयं तक सीमित मत रहिये। सामाजिक बनिये..”जय श्रीकृष्ण नमन ओशो

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सबसे शक्तिशाली कौन?


👉 सबसे शक्तिशाली कौन??

🔷 एक पिता ने अपने पुत्र की बहुत अच्छी तरह से परवरिश की !उसे अच्छी तरह से पढ़ाया, लिखाया, तथा उसकी सभी सुकामनांओ की पूर्ती की !

🔶 कालान्तर में वह पुत्र एक सफल इंसान बना और एक मल्टी नैशनल कंपनी में सी.ई.ओ. बन गया! उच्च पद ,अच्छा वेतन, सभी सुख सुविधांए उसे कंपनी की और से प्रदान की गई!

🔷 समय गुजरता गया उसका विवाह एक सुलक्षणा कन्या से हो गया,और उसके बच्चे भी हो गए। उसका अपना परिवार बन गया!

🔶 पिता अब बूढा हो चला था! एक दिन पिता को पुत्र से मिलने की इच्छा हुई और वो पुत्र से मिलने उसके ऑफिस में गया…..!!!

🔷 वहां  उसने देखा कि….. उसका पुत्र एक शानदार ऑफिस का अधिकारी बना  हुआ है, उसके ऑफिस में सैंकड़ो कर्मचारी  उसके अधीन कार्य कर रहे है… ! ये सब देख कर पिता का सीना गर्व से फूल गया!

🔶 वह बूढ़ा पिता बेटे के चेंबर में  जाकर उसके कंधे पर हाथ रख कर खड़ा हो गया! और प्यार से अपने पुत्र से पूछा…

🔷 “इस दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान कौन है”? पुत्र ने पिता को बड़े प्यार से हंसते हुए कहा “मेरे अलावा कौन हो सकता है पिताजी “!

🔶 पिता को इस जवाब की आशा नहीं थी, उसे विश्वास था कि उसका बेटा गर्व से कहेगा पिताजी इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान आप हैैं, जिन्होंने मुझे इतना
योग्य बनाया!

🔷 उनकी आँखे छलछला आई ! वो चेंबर के गेट को खोल कर बाहर निकलने लगे!

🔶 उन्होंने एक बार पीछे मुड़ कर पुनः बेटे से पूछा एक बार फिर बताओ इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान कौन है ???

🔷 पुत्र ने  इस बार कहा “पिताजी आप हैैं, इस दुनिया के सब से शक्तिशाली इंसान “!

🔶 पिता सुनकर आश्चर्यचकित हो गए उन्होंने कहा “अभी तो तुम अपने आप को इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान बता रहे थे अब तुम मुझे बता रहे हो” ???

🔷 पुत्र ने हंसते हुए उन्हें अपने सामने बिठाते  हुए कहा “पिताजी उस समय आप का हाथ मेरे कंधे पर था, जिस पुत्र के कंधे पर या सिर पर पिता का हाथ हो वो पुत्र
तो दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान ही होगा ना, बोलिए पिताजी”!

🔶 पिता की आँखे भर आई उन्होंने अपने पुत्र को कस कर के अपने गले लग लिया !

🔷 सच है जिस के कंधे पर या सिर पर माता पिता का हाथ होता है, वो इस दुनिया का सब से शक्तिशाली इंसान होता है !

🔶 सदैव बुजुर्गों का सम्मान करें हमारी सफलता के पीछे वे ही हैं..

🔷 हमारी तरक्की उन्नति से जब सभी लोग जलते हैं तो केवल माँ बाप ही हैं जो खुश होते हैं!!

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अंत ध्रुव जब श्रीहरि के लोक में जाने लगे,


अंत

ध्रुव जब श्रीहरि के लोक में जाने लगे, तो वे अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सौंप गए थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम कल्प था। बहुत से लोग उसे उत्कल भी कहते थे। उत्कल की सांसारिक सुखों और राज्य में बिल्कुल रूचि नहीं थी। वह विरक्त था, समदर्शी था। उसे अपने और दूसरों में बिलकुल भेद मालूम नहीं होता था। वह अपने ही भीतर समस्त प्राणियों को देखता था। अतः उसने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया। जब ध्रुव के ज्येष्ठ पुत्र ने राजसिंहासन पर बैठने से इन्कार कर दिया तो ध्रुव का कनिष्ठ पुत्र राजसिंहासन पर बैठा। वह बड़ा धर्मात्मा और बुद्धिमान था। उसने बहुत दिनों तक राज्य किया। उसके राज्य में चारों ओर शांति थी। प्रजा को बड़ा सुख था।

वत्सर के ही वंश में एक ऐसा राजा उत्पन्न हुआ जो धर्म की प्रतिमूर्ति था। वह सत्यव्रती और बड़ा शूरवीर था। जिस प्रकार बसंत ऋतु में प्रकृति फूली, फली रहती है, उसी प्रकार उस राजा के राज्य में प्रजा फूली और फली रहती थी। उस राजा का नाम अंग था। अंग की कीर्ति−चांदनी चारों ओर छिटकी हुई थी। छोटे−बड़े सभी उसके यश का गान करते थे। वह पुण्यात्मा तो था ही, बड़ा प्रजापालक भी था। उसकी प्रजा उसका आदर उसी प्रकार करती थी, जिस प्रकार लोग देवताओं का आदर करते हैं।

एक बार अंग ने एक बहुत बड़े यज्ञ की रचना की। यज्ञ में बड़े−बड़े ऋषि−मुनि और विद्वान ब्राह्मण बुलाए गए थे। यज्ञ के लिए पवित्र स्थानों से चुन−चुनकर सामग्रियाँ मंगायी गयीं थीं। तीर्थस्थानों से जल मंगाया गया था। शुद्ध और पवित्र लकड़ियाँ इकट्ठी की गई थीं। किंतु विद्वान ब्राह्मणों ने वेदमन्त्रों के साथ देवताओं को आहुतियाँ दीं तो देवताओं ने उन आहुतियों को लेना अस्वीकार कर दिया। केवल यही नहीं, प्रार्थनापूर्वक बुलाए जाने पर भी देवतागण भाग लेने के लिए नहीं आए। विद्वान ब्राह्मणों ने चिंतित होकर कहा, ‘महाराज! यज्ञ की सामग्रियाँ पवित्र हैं, जल भी शुद्ध है और यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण भी शुद्ध तथा चरित्रनिष्ठ हैं किंतु फिर भी देवगण आहुतियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, मन्त्रों से अभिमन्त्रित किए जाने पर भी अपना भाग लेने के लिए नहीं आ रहे हैं।’ विद्वान ब्राह्म्णों के कथन को सुनकर महाराज अंग चिंतित और दुःखी हो उठे। उन्होंने दुःख भरे स्वर में कहा, ‘पूज्य ब्राह्मणों, यह तो बड़े दुःख की बात है। क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है या मुझसे कोई दूषित कर्म हुआ है? मैंने तो अपनी समझ में आज तक कोई ऐसा कार्य किया नहीं।’

विद्वान ब्राह्म्णों ने उत्तर में कहा, ‘आप तो बड़े धर्मात्मा और पुण्यात्मा हैं। कोई सोच भी नहीं सकता कि आपके द्वारा कभी कोई पाप कर्म हुआ होगा। इस जन्म में तो आपने कभी कोई दूषित कर्म किया नहीं। हो सकता है, पूर्वजन्म में आपने कोई पाप कर्म किया हो। मनुष्य को पूर्वजन्म में किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल भी भोगना पड़ता है।’ महाराज अंग ने दुःख के साथ निवेदन किया, ‘यज्ञ मंडप में बड़े−बड़े विद्वान ब्राह्मण और ऋषि व मुनि एकत्र हैं। यहाँ ऐसे भी ऋषि और मुनि हैं जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं। मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे अवगत कराएं, इस जन्म में या पूर्वजन्म में मुझसे कौन−सा दूषित कर्म हुआ है?’ महाराज अंग की प्रार्थना को सुनकर ऋषिगण विचारों में डूब गए। कुछ क्षणों के पश्चात ऋषियों ने कहा, ‘महाराज, इस जन्म में या पूर्वजन्म में आपसे कोई पाप कर्म नहीं हुआ है। सच बात तो यह है कि आप पुत्रहीन हैं। जो पुत्रहीन होता है, देवगण उसके यज्ञ की आहुतियाँ स्वीकार नहीं करते। अतः यदि आप देवताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करें। जब तक आप पुत्र प्राप्त नहीं कर लेंगे, देवगण आपकी आहुतियों को स्वीकार नहीं करेंगे।’ ऋषियों और मुनियों की सलाह से महाराज अंग ने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। यज्ञकुंड में एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ जो अपने हाथों में खीर का पात्र लिए हुए था। उसने खीर के पात्र को महाराज अंग की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘महाराज, पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दीजिए। आपको अवश्यमेव पुत्र की प्राप्ति होगी।’

दिव्य पुरुष अंग को खीर का पात्र देकर अदृश्य हो गया। अंग की प्रसन्नता की सीमा नहीं थी। उन्होंने पात्र की खीर को अपनी रानी को खिला दिया। रानी गर्भवती हुईं। उन्होंने समय पर एक बालक को जन्म दिया। ज्योतिषियों ने बालक की कुण्डली बनाकर, उसके ग्रहों के अनुसार उसका नाम वेणु रखा। वेणु का अर्थ होता है − बांस। जहाँ बांस पैदा होता है, वहाँ दूसरे पौधे पैदा नहीं होते। यों भी कहा जा सकता है कि, बांस दूसरे पौधों को उगने नहीं देता है। बांसों की रगड़ से कभी−कभी आग लग जाती है तो सारे बांस अपनी ही आग में जल जाया करते हैं व दूसरों को भी जला देते हैं। वेणु की कुण्डली में भी इसी प्रकार के ग्रह पड़े थे। वेणु धीरे−धीरे बड़ा हुआ। वह जब बड़ा हुआ, तो अंग के उलटे रास्ते पर चलने लगा। जुआ खेलने लगा, मद्यपान करने लगा और परायी स्त्रियों की लज्जा को लूटने लगा। उसके अत्याचारों से प्रजा कांप उठी। अंग के कानों में जब वेणु के बुरे कर्मों के समाचार पड़े, तो वे बड़े दुःखी हुए। उन्होंने वेणु को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु वह क्यों मानने लगा? उसकी जन्मकुण्डली में तो ग्रह ही बुरे पड़े थे। किसी ने ठीक ही कहा है−

फूलहि फलहिं न बेंत, जदपि सुधा बरसहिं जलद।
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंच सम।।

अंग के बहुत समझाने पर भी जब वेणु ने बुरे कर्मों का परित्याग नहीं किया, तो वे बड़े दुःखी हुए। वे सब कुछ छोड़कर तप करने के लिए वन में चले गए। मनुष्य का जब कोई बस नहीं चलता, तो वह ईश्वर को छोड़कर और किसी का सहारा नहीं लेता। महाराज के चले जाने पर वेणु राजसिंहासन पर आसीन हुआ। वह अतिचारी और अविचारी तो पहले से ही था, जब राजसिंहासन पर बैठा, तो उसके बुरे विचारों को पंख लग गए। वह अपने आप को सर्वेश्वर और अखिलेश्वर समझने लगा। उसने अपने राज्य में चारों ओर आदेशपत्र प्रचारित किया− ‘कोई भी मनुष्य यज्ञ न करे, पूजा−पाठ न करे, ईश्वर का नाम न ले, ईश्वर के गुणों का गुणगान न करे। जो मनुष्य ऐसा करेगा, उसे दण्ड दिया जाएगा। प्रत्येक प्रजाजन को ईश्वर की जगह पर वेणु की ही पूजा करनी चाहिए। वेणु के ही यश−गुणों का गान करना चाहिए, क्योंकि वेणु ही परमात्मा है, अखिलेश्वर है।’ वेणु की घोषणा ने सारे राज्य में हलचल उत्पन्न की दी। किंतु कोई कर क्या सकता था? उसके सैनिक और सिपाही राज्य में चारों ओर घूम−घूमकर उसकी आज्ञा का पालन करवा रहे थे। जो मनुष्य उसके आदेश का उल्लंघन करता था, उसे तलवार के घाट उतार दिया जाता था, उसके घर को जला दिया जाता था। वेणु और उसके सिपाहियों के अत्याचारों से चारों ओर हाहाकार पैदा हो उठा, दुःख और पीड़ा के बादल छा गए।

राज्य में रहने वाले ऋषि, मुनि और ब्राह्मण चिंतित हो उठे। वे वेणु को समझाने के लिए उसकी सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने वेणु को समझाते हुए कहा, ‘महाराज, आप जो कुछ कर रहे हैं, वह आपके पूर्वजों के विपरीत है। आपके पूर्वजों में स्वयंभू मनु और ध्रुव प्रजा को पुत्रवत मानते थे। वे प्रजा का पालन करना ही अपना सबसे बड़ा धर्म समझते थे। आपके पूर्वज ईश्वरानुरागी थे। वे अपने को ईश्वर का तुच्छ सेवक समझते थे। जो राजा प्रजा का पालन नहीं करता, उसे नर्क की यातना भोगनी पड़ती है।’ किंतु वेणु के हृदय पर ऋषियों और मुनियों के कथन का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह उनके कथन के उत्तर में बोला, ‘ऋषियों, राजा के शरीर में देवता वास करते हैं। अतः वही सर्वश्रेष्ठ है। प्रजा को उसी का गुणानुवाद करना चाहिए, उसी को सर्वेश्वर मानना चाहिए। मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। तुम सबको मेरी आज्ञा का पालन करना चाहिए। मेरे बताये हुए मार्ग पर चलना चाहिए।’ वेणु का खरा उत्तर सुनकर ऋषियों और मुनियों ने सोचा, वेणु के हृदय पर किसी भी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मनुष्य जब उन्मत्त हो जाता है, तो वह अपने हाथों से ही अपना विनाश कर डालता है।

ऋषि और मुनिगण दुःखी होकर वन में चले गए। वेणु निडर होकर पापाचार से खेलने लगा। अत्याचार का व्यापार करने लगा। प्रजा उसके अत्याचारों से दुःखी होकर करुण क्रंदन करने लगी, चीत्कार करने लगी, सकरुण स्वरों में भगवान को पुकारने लगी। प्रजा की पुकार ऋषियों के कर्णकुहरों में पड़ी। ऋषियों ने एकत्र होकर सोचा, वेणु जब तक जीवित रहेगा, उसका अत्याचार बंद न होगा। अतः उसे मार डालना चाहिए। अत्याचारी और अधर्मी को मार डालने से पाप नहीं लगता। ऋषियों और मुनियों ने अपने मन्त्रों की शक्ति से वेणु को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया। जो अत्याचार करता है, जो अधर्म के पथ पर चलता है, एक न एक दिन सज्जनों के हाथों से वेणु के समान ही मारा जाता है।

।। जय श्री कृष्णा।।
Sundar guru

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शुभम् करोति कल्याणम्


        ‼ शुभम् करोति कल्याणम्

गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् |

विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता:॥

                 स्वयं मे अच्छे गुणों की वॄद्धी करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता।

               दूध न देनेवाली गाय उसके गले में लटकी हुयी घंटी बजाने से बेची नही जा सकती।

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ऐसा हुआ कि तिब्बत का एक फकीर


👏 ऐसा  हुआ  कि  तिब्बत  का एक फकीर  अपने  गुरु  के  पास  गया।
गुरु  की  बड़ी  ख्याति  थी।  और यह फकीर  बड़ा  श्रद्धालु  था।  और गुरु जो  भी  कहता,  सदा  मानने  को तैयार  था।  इसकी  प्रतिष्ठा  बढ़ने लगी।  और  शिष्यों  को  पीड़ा  हुई।

उन्होंने  एक  दिन  इससे  छुटकारा पाने  के  लिए-एक  पहाड़ी  के  ऊपर बैठे थे- इससे  कहा  कि  अगर  तुम्हें गुरु  में  पूरी  श्रद्धा  है  तो  कूद  जाओ।

तो  वह  कूद  गया।  उन्होंने  तो  पक्का माना  कि  हुआ  खतम।  नीचे जाकर देखा  तो  वह  पद्यासन  में  बैठा  था।
और  ऐसा  सौंदर्य  और  ऐसी  सुगंध उन्होंने  कभी  किसी  व्यक्ति  के  पास न  देखी  थी,  जो  उसके  चारों तरफ बरस  रही  थी।

वे  तो  बड़े  हैरान  हुए।  सोचा  संयोग है।संदेह  ज्यादा  से  ज्यादा संयोग  तक  पहुंच  सकता  है, कि  संयोग की बात  है  कि  बच  गया। कोई  फिकर नहीं।

एक  मकान  में  आग’  लगी थी,उन्होंने  कहा  कि  चले जाओ, अगर  गुरु  पर पूरा  भरोसा  है, शिष्यों  ने  कहां।  वह चला   गया  भीतर।

मकान  तो  जलकर  राख  हो  गया।
जब  वे  भीतर  गए  तो  आशा  थी कि
वह  भी  जलकर  राख  हो  चुका होगा। वह  तो  वहां  ऐसे  बैठा  था, जल में कमलवत। आग  ने  छुआ  ही  नहीं।
उन्होंने  सुनी  थीं  अब  तक  ये  बातें
कि  ऐसे  लोग  भी  हुए  हैं-जल  में कमलवत,  पानी  में  होते  हैं  और पानी  नहीं  छूता। आज  जो  देखा, वह अदभुत  चमत्कार  था! आग  में था और  आग  ने  भी  न  छुआ। पानी  न छुए, समझ  में  आता  है!

अब  संयोग  कहना  जरा मुश्किल मालूम  पड़ा। गुरु  के  पास  ये खबरें पहुंची। गुरु  को  भी  भरोसा  न  आया, क्योंकि गुरु  खुद  ही  इतनी
श्रद्धा  का  आदमी  न  था।गुरु ने सोचा  कि  संयोग  ही  हो  सकता  है, क्योंकि  मेरे  नाम  से  हो  जाए! अभी  तो  मुझे ही  भरोसा  नहीं  कि  अगर  मैं जलते मकान  में  जाऊं  तो  बचकर  लौटूंगा, कि  मैं  कूद  पड  पहाड़  से  और
कोई  हाथ  मुझे  सम्हाल  लेंगे  अज्ञात के।

तो  गुरु  ने  कहा  कि  देखेंगे। एक दिन नदी  के  तट  से  सब  गुजरते  थे।
गुरु  ने  कहा  कि  तुझे  मुझ  पर इतना भरोसा  है   कि  आग  में  बच  गया, पहाड़  में  बच  गया, तू  नदी  पर चल जा।

वह  शिष्य  चल  पड़ा। नदी  ने  उसे न डुबाया। वह  नदी  पर  ऐसा  चला जैसे  जमीन  पर  चल  रहा  हो।

गुरु  को  लगा  कि  निश्चित  ही मेरे नाम  का  चमत्कार है। अहंकार भयंकर  हो  गया। कुछ  था  तो  नहीं पास।तो  उसने  सोचा, जब  मेरा नाम लेकर  कोई  चल  गया, तो मैं तो चल ही  जाऊंगा। वह  चला,पहले  ही कदम  पर  डुबकी  खा  गया। किसी  तरह बचाया  गया।

उसने  पूछा  कि  यह  मामला  क्या है
मैं  खुद  डूब  गया! वह  शिष्य  हंसने लगा। उसने  कहा, मुझे  आप  पर श्रद्धा  है, आपको  अपने  पर  नहीं।
श्रद्धा  बचाती  है।

कभी- कभी  ऐसा  भी  हुआ है कि जिन पर  तुमने  श्रद्धा  की उनमें  कुछ भी न था, फिर  भी  श्रद्धा  ने बचाया। और कभी-कभी  ऐसा  भी  हुआ  है, जिन पर  तुमने  श्रद्धा  न  की उनके पास सब  कुछ  था, लेकिन  अश्रद्धा ने डुबाया  है।

कभी  बुद्धों  के  पास  भी  लोग संदेह करते  रहे  और  डूब गए। और कभी इस  तरह  के   पास  भी  लोगों  ने श्रद्धा  की  और  पहुंच  गए।

तो  मैं  आप लोगों से कहना चाहता हूं
गुरु  नहीं  पहुंचाता, श्रद्धा  पहुंचाती है। इसलिए  मैं  आप लोगों से  कहता  हूं  श्रद्धा  ही  गुरु  है। और   जहां तुम्हारी  श्रद्धा  की आंख  पड़  जाए वहीं  गुरु  पैदा  हो  जाए। परमात्मा नहीं  पहुंचाता, प्रार्थना  पहुंचाती है।
और  जहां  हृदयपूर्वक  प्रार्थना  हो
जाए  वहीं  परमात्मा  मौजूद  हो  जाता है। मंदिर  नहीं  पहुंचाते, भाव  पहुंचाते हैं। जहां  भाव  है  वहां  मंदिर  है।

इसलिए आप लोगों से कहता हूं कि वृंदावन में मंदिर न बना कर घर को वृंदावन बनाइए

👏👏👏👏👏👏👋👏👏राधे राधे जय श्री कृष्णा जय राधा रानी👏👏?👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏?👏👏👏
Ramdayal jadiya

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काशी


काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है।

हम एक ऊर्जा मशीन का निर्माण करने की कोशिश करते हैं। इसे ही परंपरागत रूप से यंत्र कहा जाता है।

सामान्य त्रिकोण सबसे मूल यंत्र है। अलग-अलग स्तर की मशीनों को बनाने के लिए अलग-अलग तरह की व्यवस्था करनी पड़ती है। ये मशीनें आपकी भलाई के लिए काम करती हैं

वाराणसी – एक यंत्र है यह शहर

तो यह काशी एक असाधारण यंत्र है। ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना।

इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया,  जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो  और जो हमेशा सक्रिय रह सके। और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।

काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है। इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है।

यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है।

सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी
सूर्य के व्यास से 108 गुनी है।

आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।

अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे। हम उन चक्रों पर काम नहीं करते।

शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।

पूरे काशी  बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से,  उनका विशेष अंक पांच है।

इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है।
इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं।

यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है। गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं। सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।

यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है। असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।

वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था

यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया।

एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये – जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।

तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है। यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी।

इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था।

इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो।

काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है।

कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।

रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई।

ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई।

मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं,
और 54 शक्ति या देवी के हैं।

अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा।

दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का। यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है – आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का।

*यहां 468 मंदिर बने,
क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं – इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।

आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है।

सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं।

इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना। अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी।

मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है। इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।

यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था।

भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था – काशी जाने का। यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना। इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं। शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था,
“पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।”यह गणित बनारस से ही आया।

इस गणित का आधार यहां है। जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था।

ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।

S N Vyas