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महाभारत की एक बहुचर्चित कथा,,भीष्म प्रतिज्ञा एक सम्पूर्ण प्रस्तुति,,, भीष्म पितामह–पूर्वजन्म से मृत्यु तक,,

महाभारत एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें कई नायक हैं। उनमें से एक नायक भीष्म पितामह भी हैं। सभी लोग जानते हैं कि भीष्म पितामह ने महाभारत की लड़ाई में कौरवों की ओर से युद्ध किया था, लेकिन बहुत से लोग उनके जीवन से जुड़ी बड़ी घटनाओं के बारे में नहीं जानते जैसे- भीष्म पितामह पूर्व जन्म में कौन थे, किसके श्राप के कारण उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेना पड़ा। उनके गुरु कौन थे और उन्हें क्यों अपने ही गुरु से युद्ध करना पड़ा?

आज हम आप सब को इस लेख में भीष्म पितामह के पूर्वजन्म से लेकर उनकी इच्छा मृत्यु तक की सम्पूर्ण कथा बताएँगे।

पूर्व जन्म में वसु थे भीष्म,,,महाभारत के आदि पर्व के अनुसार एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वसिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में बंधी नंदिनी नामक गाय पर पड़ गई। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है।

पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय का हरण कर लिया। जब महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। जब सभी वसु ऋषि वसिष्ठ से क्षमा मांगने आए।

तब ऋषि ने कहा कि तुम सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। महाभारत के अनुसार द्यौ नामक वसु ने गंगापुत्र भीष्म के रूप में जन्म लिया था। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

कैसे हुआ भीष्म पितामह का जन्म,,,भीष्म पितामह के पिता का नाम राजा शांतनु था। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगातट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक परम सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए।

शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी, लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया।

इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां सात पुत्रों ने जन्म लिया, लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाएं क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। आठवां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है?

उस स्त्री ने बताया कि मैं देवनदी गंगा हूं तथा जिन पुत्रों को मैंने नदी में डाला था वे सभी वसु थे जिन्हें वसिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका। इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के आठवें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई।

देवव्रत था भीष्म का असली नाम,,,गंगा जब शांतनु के आठवे पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगा में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है।

यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुई और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका आठवां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वसिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इंद्र के समान इसका तेज है।

देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गई। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया।

इसलिए देवव्रत का नाम पड़ा भीष्म,,,एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।

यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।

तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा।

भीष्म ने किया था काशी की राजकुमारियों का हरण,,,,भरतवंशी राजा शांतनु को पत्नी सत्यवती से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। दोनों ही बड़े होनहार व पराक्रमी थे। अभी चित्रांगद ने युवावस्था में प्रवेश भी नहीं किया था कि राजा शांतनु स्वर्गवासी हो गए। तब भीष्म ने माता सत्यवती की सम्मति से चित्रांगद को राजगद्दी पर बैठाया। लेकिन कुछ समय तक राज करने के बाद ही उसी के नाम के गंधर्वराज चित्रांगद ने उसका वध कर दिया।

तब भीष्म में विचित्रवीर्य को राजा बनाया। जब भीष्म ने देखा कि विचित्रवीर्य युवा हो चुका है तो उन्होंने उसका विवाह करने का विचार किया। उन्हीं दिनों काशी के राजा की तीन कन्याओं का स्वयंवर भी हो रहा था। लेकिन काशी नरेश ने द्वेषतापूर्वक हस्तिनापुर को न्योता नहीं दिया। क्रोधित होकर भीष्म अकेले ही स्वयंवर में गए और वहां उपस्थित सभी राजाओं व काशी नरेश को हराकर उनकी तीनों कन्याओं अंबा, अंबिका व अंबालिका को हर लाए।

तब काशी नरेश की बड़ी पुत्री अंबा ने भीष्म से कहा कि वह मन ही मन में राजा शाल्व को अपना पति मान चुकी है। यह बात जानकर भीष्म ने अंबा को उसके इच्छानुसार जाने की अनुमति दे दी तथा शेष दो कन्याओं का विवाह विचित्रवीर्य से कर दिया।

भीष्म ने क्यों किया अपने गुरु से युद्ध,,,,,
महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई।

अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।

भीष्म ने दिया था युधिष्ठिर को विजय होने का आशीर्वाद,,,जिस समय कौरवों और पांडवों में युद्ध शुरु होने वाला था। उसी समय धर्मराज युधिष्ठिर अपने रथ से उतर कर कौरव सेना की ओर चल दिए। कौरव सेना में जाकर युधिष्ठिर ने सबसे पहले भीष्म पितामह से आशीर्वाद लिया और युद्ध करने के लिए उनसे आज्ञा मांगी। तब भीष्म ने कहा कि- यदि तुम इस समय मेरे पास न आए होते तो मैं तुम्हारी पराजय के लिए तुम्हें श्राप दे देता। लेकिन अब मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं।

तुम युद्ध करो, तुम्हारी ही विजय होगी। तब युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से कहा कि- आपको तो युद्ध में कोई भी जीत नहीं सकता तो हम युद्ध कैसे जीत पाएंगे। भीष्म ने कहा- संग्राम भूमि में युद्ध करते समय मुझे जीत सके, ऐसी तो मुझे कोई दिखाई नहीं देता। मेरी मृत्यु का भी कोई निश्चित समय नहीं है। इसलिए तुम किसी दूसरे समय आकर मुझसे मिलना।

भीष्म ने दिलाया था श्रीकृष्ण को क्रोध,,,जब पांडवों व कौरवों का युद्ध प्रारंभ हुआ, उस समय कौरवों के सेनापति भीष्म पितामह ही थे। युद्ध के तीसरे दिन भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना पर भयंकर बाण वर्षा कर भयभीत कर दिया। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह भीष्म पितामह से युद्ध करे। अर्जुन और भीष्म पितामह में भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन थोड़ी देर बाद अर्जुन युद्ध में ढीले पड़ गए और पांडवों की सेना में भगदड़ मच गई। यह देखकर श्रीकृष्ण को बहुत क्रोध आया और वे रथ से उतर गए।

श्रीकृष्ण अपने हाथ में सुदर्शन चक्र लेकर बड़ी तेजी से भीष्म की ओर झपटे। श्रीकृष्ण के इस रूप को देखकर भीष्म बिल्कुल भी भयभीत नहीं हुए। भगवान श्रीकृष्ण को ऐसा करते देख अर्जुन रोकने के लिए उनके पीछे दौड़े। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को आश्वस्त किया कि अब मैं युद्ध में ढिलाई नहीं करुंगा आप युद्ध मत कीजिए। अर्जुन की बात सुनकर श्रीकृष्ण शांत हो गए और पुन: अर्जुन का रथ हांकने लगे।

भीष्म ने स्वयं बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य,, महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह ने पांडव सेना में भयंकर मारकाट मचाई। पांडव भी भीष्म का यह रूप देखकर डर गए। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से भीष्म पितामह को हराने का उपाय पूछा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि यह उपाय तो स्वयं भीष्म ही बता सकते हैं। तब पांचों पांडव भगवान श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह से मिलने गए और उनसे पूछा कि आपको युद्ध में कैसे हराया जा सकता है।

तब भीष्म ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री था, बाद में पुरुष बना। अर्जुन यदि शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करें, वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दें। इस प्रकार मुझ पर विजय प्राप्त करने के बाद ही तुम यह युद्ध जीत सकते हो।

ऐसे हुई भीष्म पितामह की पराजय,,,महाभारत युद्ध के दसवें दिन भी भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना में भयंकर मारकाट मचाई। यह देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से भीष्म पितामह को रोकने के लिए कहा। अर्जुन शिखंडी को आगे करके भीष्म से युद्ध करने पहुंचे। शिखंडी को देखकर भीष्म ने अर्जुन पर बाण नहीं चलाए और अर्जुन अपने तीखे बाणों से भीष्म पितामह को बींधने लगे।

इस प्रकार बाणों से छलनी होकर भीष्म पितामह सूर्यास्त के समय अपने रथ से गिर गए। उस समय उनका मस्तक पूर्व दिशा की ओर था। उन्होंने देखा कि इस समय सूर्य अभी दक्षिणायन में है, अभी मृत्यु का उचित समय नही हैं, इसलिए उन्होंने उस समय अपने प्राणों का त्याग नहीं किया।

युधिष्ठिर को दिया धर्म ज्ञान,,,महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि इस समय पितामह भीष्म बाणों की शैय्या पर हैं। आप उनके पास चलकर उनके चरणों को प्रणाम कीजिए और आपके मन में जितने भी संदेह हो, उनके बारे में पूछ लीजिए।

श्रीकृष्ण की बात मानकर युधिष्ठिर भीष्म पितामह के पास गए और उनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान प्राप्त किया। युधिष्ठिर को ज्ञान देने के बाद भीष्म पितामह ने उनसे कहा कि अब तुम जाकर न्यायपूर्वक शासन करो, जब सूर्य उत्तरायण हो जाए, उस समय फिर मेरे पास आना।

ऐसे त्यागे भीष्म पितामह ने अपने प्राण,,,,जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब युधिष्ठिर सहित सभी लोग भीष्म पितामह के पास पहुंचे। उन्हें देखकर भीष्म पितामह ने कहा कि इन तीखे बाणों पर शयन करते हुए मुझे 58 दिन हो गए हैं।

उन्होंने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहा कि अब मैं प्राणों का त्याग करना चाहता हूं। ऐसा कहकर भीष्मजी कुछ देर तक चुपचाप रहे। इसके बाद वे मन सहित प्राणवायु को क्रमश: भिन्न-भिन्न धारणाओं में स्थापित करने लगे।

भीष्मजी का प्राण उनके जिस अंग को त्यागकर ऊपर उठता था, उस अंग के बाण अपने आप निकल जाते और उनका घाव भी भर जाता। भीष्मजी ने अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राण को सब ओर से रोक लिया, इसलिए वह उनका मस्तक (ब्रह्म रंध्र) फोड़कर आकाश में चला गया। इस प्रकार महात्मा भीष्म के प्राण आकाश में विलीन हो गए।

संजय गुप्ता

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एक छोटे से शहर के प्राथमिक स्कूल में कक्षा 5 की शिक्षिका थीं।
उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा “आई लव यू ऑल” बोला करतीं। मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती । वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं।
कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको एक आंख नहीं भाता। उसका नाम राजू था। राजू मैली कुचेली स्थिति में स्कूल आजाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान। । । व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता।
मिस के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता तो लग जाता..मगर उसकी खाली खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता.कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब हे.धीरे धीरे मिस को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मिस की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते. बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते.और मिस उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।
मिस को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर महसूस नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता । मिस को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी।
पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मिस ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट माता पिता को दिखाने से पहले हेड मिसट्रेस के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की रिपोर्ट देखी तो मिस को बुला लिया। “मिस प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।” “मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। “मिस घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं।
हेड मिसट्रेस ने एक अजीब हरकत की। उन्होंने चपरासी के हाथ मिस की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन मिस ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। “पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।” उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। “राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।” “बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।” “
अंतिम सेमेस्टर में भी राजू ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। “मिस ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली।” राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। .उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। “” राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। । घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है.जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है। “”
राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। । उसे बचाना होगा…इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। “मिस के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे.
अगले दिन जब मिस कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश “आई लव यू ऑल” दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था । व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मिस से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर उनकी ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मिस ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मिस हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मिस को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी।
उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास ।
विदाई समारोह में सभी बच्चे मिस के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मिस की टेबल पर ढेर लग गये । इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस पड़े। किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये राजू लाया होगा। मिस ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया। ।
कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर मिस को बताया कि “आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।”
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है? मगर हर साल के अंत में मिस को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि “इस साल कई नए टीचर्स से मिला।। मगर आप जैसा कोई नहीं था।” फिर राजू का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी। कई साल आगे गुज़रे और मिस रिटायर हो गईं। एक दिन उन्हें अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था:
“इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात .. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं।। आप जैसा कोई नहीं है………डॉक्टर राजू
साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। मिस खुद को हरगिज़ न रोक सकती थीं। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडितजी भी थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है…मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी शिक्षिका ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया। माइक हाथ में पकड़ कर उसने कुछ यूं बोला “दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाउंगा।।।……..यह मेरी माँ हैं – ————————- “
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!! प्रिय दोस्तों…. इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा । अपने आसपास देखें, राजू जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है………..👍

पोस्ट अछि लगे तो frnds   रिक्वेस्ट भेजे जल्दी adding स्टार्ट हे
संजय गुप्ता

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रसखान #MuslimDevotteOfLordKrishna
रसखान का जन्म सन् 1548 में हुआ माना जाता है। उनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था और वे दिल्ली के आस-पास के रहने वाले थे। कृष्ण-भक्ति ने उन्हें ऐसा मुग्ध कर दिया कि गोस्वामी विट्ठलनाथ से दीक्षा ली और ब्रजभूमि में जा बसे। सन् 1628 के लगभग उनकी मृत्यु हुई।

सुजान रसखान और प्रेमवाटिका उनकी उपलब्ध कृतियाँ हैं। रसखान रचनावली के नाम से उनकी रचनाओं का संग्रह मिलता है।

प्रमुख कृष्णभक्त कवि रसखान की अनुरक्ति न केवल कृष्ण के प्रति प्रकट हुई है बल्कि कृष्ण-भूमि के प्रति भी उनका अनन्य अनुराग व्यक्त हुआ है। उनके काव्य में कृष्ण की रूप-माधुरी, ब्रज-महिमा, राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का मनोहर वर्णन मिलता है। वे अपनी प्रेम की तन्मयता, भाव-विह्नलता और आसक्ति के उल्लास के लिए जितने प्रसिद्ध हैं उतने ही अपनी भाषा की मार्मिकता, शब्द-चयन तथा व्यंजक शैली के लिए। उनके यहाँ ब्रजभाषा का अत्यंत सरस और मनोरम प्रयोग मिलता है, जिसमें ज़रा भी शब्दाडंबर नहीं है।

रसखान के दोहे

प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।
अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥

रसखान की पदावलियाँ |

मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

रसखान के फाग सवैय्ये

रसखान के फाग सवैय्ये
मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै।
कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकैं।।
रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति

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                 महर्षि भृगु
                 

          भृगु जी ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक हैं ।वे एक प्रजापति भी हैं, चाक्षुष मन्वन्तर में इनकी सप्तर्षियों में गणना होती है ।इनकी तपस्या का अमित प्रभाव है ।दक्ष की कन्या ख्याति को इन्होंने पत्नी रूप में स्वीकार किया था; उनसे धाता, विधाता नाम के दो पुत्र और श्री नाम की एक कन्या हुई।इन्हीं श्री का पाणिग्रहण भगवान नारायण ने किया था ।इनके और बहुत से पुत्र हैं, जो विभिन्न मन्वन्तरों में सप्तर्षि हुआ करते हैं ।वाराहकल्प के दसवें द्वापर में महादेव ही भृगु के रूप में अवतीर्ण होते हैं ।कहीं कहीं स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षियों में भी भृगु की गणना है ।सुप्रसिद्ध महर्षि च्यवन इन्हीं के पुत्र हैं ।इन्होंने अनेकों यज्ञ किये-कराये हैं  और अपनी तपस्या के प्रभाव से अनेकों को संतान प्रदान की है ।ये श्रावण और भाद्रपद दो महीनों में भगवान सूर्य के रथ पर निवास करते हैं ।प्रायः सभी पुराणों में महर्षि भृगु की चर्चा आयी है ।उसका अशेषतः वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता ।हाँ, उनके जीवन की एक बहुत प्रसिद्ध घटना, जिसके कारण सभी भक्त उन्हें याद करते हैं, लिखी जाती है ।
          एक बार सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों की बहुत बड़ी परिषद् बैठी थी।उसमें यह विवाद छिड़ गया कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश — इन तीनों में बड़ा कौन है ।इसका जब कोई संतोषजनक समाधान नहीं हुआ, तब इस बात का पता लगाने के लिए सर्वसम्मति से महर्षि भृगु ही चुने गये।ये पहले ब्रह्मा की सभा में गये और वहाँ अपने पिता को न तो नमस्कार किया और न उनकी स्तुति की।अपने पुत्र की इस अवहेलना को देखकर ब्रह्मा जी के मन में बड़ा क्रोध आया; परंतु उन्होंने अपना पुत्र समझकर इन्हें क्षमा कर दिया, अपने क्रोध को दबा लिया ।इसके बाद ये कैलास पर्वत पर अपने बड़े भाई रुद्रदेव के पास पहुँचे।अपने छोटे भाई भृगु को आते देखकर आलिंगन करने के लिए वे बड़े प्रेम से आगे बढ़े, परंतु भृगु ने यह कहकर कि ‘तुम उन्मार्गगामी हो’— उनसे मिलना अस्वीकार कर दिया ।उन्हें बड़ा क्रोध आया और वे त्रिशूल उठाकर इन्हें मारने के लिए दौड़ पड़े।अन्ततः पार्वती ने उनके चरण पकड़कर प्रार्थना की और क्रोध शान्त किया ।अब विष्णु भगवान की बारी आयी।ये बेखटके वैकुण्ठ में पहुँच गये।वहाँ ब्राह्मण– भक्तों के लिए कोई रोक-टोक तो है ही नहीं ।ये पहुँच गये भगवान के शयनागार में ।उस समय भगवान विष्णु सो रहे थे और भगवती लक्ष्मी उन्हें पंखा झल रहीं थीं, उनकी सेवा में लगी हुईं थीं ।इन्होंने बेधड़क वहाँ पहुँच कर उनके वक्षःस्थल पर एक लात मारी।तुरंत भगवान विष्णु अपनी शय्या पर से उठ गये और इनके चरणों पर अपना सिर रखकर नमस्कार किया और बोले —‘भगवन् ! आइये –आइये, विराजिये।आपके आने का समाचार न जानने के कारण ही मैं आपके स्वागत से वंचित रहा ।क्षमा कीजिए! क्षमा कीजिए ! कहाँ तो आपके कोमल चरण और कहाँ यह मेरी वज्रकर्कश छाती।आपको बड़ा कष्ट हुआ ।’ यह कहकर उनके चरण अपने हाथों से दबाने लगे ।उन्होंने कहा — ‘ब्राह्मण देवता ! आपने मुझपर बड़ी कृपा की।आज मैं कृतार्थ हो गया ।अब यह आपके चरणों की धूलि सर्वदा मेरे हृदय पर ही रहेगी ।’ कुछ समय बाद महर्षि भृगु वहाँ से लौटकर ऋषियों की मण्डली में आये और अपना अनुभव सुनाया।इनकी बात सुनकर ऋषियों ने एक स्वर से यह निर्णय किया कि जो सात्त्विकता के प्रेमी हैं, उन्हें एक मात्र भगवान विष्णु का ही भजन करना चाहिए ।महर्षि भृगु का साक्षात् भगवान से सम्बन्ध है, ये परम भक्त हैं ।इनकी स्मृति हमें भगवान की स्मृति प्रदान करती है ।
             (भक्त चरितांक)
               कल्याण – 40

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गाय माता से जुड़ी कुछ रोचक जानकारी । 1. गौ माता जिस जगह खड़ी रहकर आनंदपूर्वक चैन की सांस लेती है । वहां वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं । 2. गौ माता में तैंतीस कोटी देवी देवताओं का वास है । 3. जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं । 4. गौ माता के गले में घंटी जरूर बांधे ; गाय के गले में बंधी घंटी बजने से गौ आरती होती है । 5. जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की विपदाओं को गौ माता हर लेती है । 6. गौ माता के खुर्र में नागदेवता का वास होता है । जहां गौ माता विचरण करती है उस जगह सांप बिच्छू नहीं आते । 7. गौ माता के गोबर में लक्ष्मी जी का वास होता है । 8. गौ माता के मुत्र में गंगाजी का वास होता है । 9. गौ माता के गोबर से बने उपलों का रोजाना घर दूकान मंदिर परिसरों पर धुप करने से वातावरण शुद्ध होता है सकारात्मक ऊर्जा मिलती है । 10. गौ माता के एक आंख में सुर्य व दूसरी आंख में चन्द्र देव का वास होता है । 11. गाय इस धरती पर साक्षात देवता है । 12. गौ माता अन्नपूर्णा देवी है कामधेनु है । मनोकामना पूर्ण करने वाली है । 13. गौ माता के दुध मे सुवर्ण तत्व पाया जाता है जो रोगों की क्षमता को कम करता है । 14. गौ माता की पूंछ में हनुमानजी का वास होता है । किसी व्यक्ति को बुरी नजर हो जाये तो गौ माता की पूंछ से झाड़ा लगाने से नजर उतर जाती है । 15. गौ माता की पीठ पर एक उभरा हुआ कुबड़ होता है । उस कुबड़ में सूर्य केतु नाड़ी होती है । रोजाना सुबह आधा घंटा गौ माता की कुबड़ में हाथ फेरने से रोगों का नाश होता है । 16. गौ माता का दूध अमृत है । 17. गौ माता धर्म की धुरी है । गौ माता के बिना धर्म कि कल्पना नहीं की जा सकती । 18. गौ माता जगत जननी है । 19. गौ माता पृथ्वी का रूप है । 20. गौ माता सर्वो देवमयी सर्वोवेदमयी है । गौ माता के बिना देवों वेदों की पूजा अधुरी है । 21. एक गौ माता को चारा खिलाने से तैंतीस कोटी देवी देवताओं को भोग लग जाता है । 22. गौ माता से ही मनुष्यों के गौत्र की स्थापना हुई है । 23. गौ माता चौदह रत्नों में एक रत्न है । 24. गौ माता साक्षात् मां भवानी का रूप है । 25. गौ माता के पंचगव्य के बिना पूजा पाठ हवन सफल नहीं होते हैं । 26. गौ माता के दूध घी मख्खन दही गोबर गोमुत्र से बने पंचगव्य हजारों रोगों की दवा है । इसके सेवन से असाध्य रोग मिट जाते हैं । 27. गौ माता को घर पर रखकर सेवा करने वाला सुखी आध्यात्मिक जीवन जीता है । उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती । 28. तन मन धन से जो मनुष्य गौ सेवा करता है । वो वैतरणी गौ माता की पुछ पकड कर पार करता है। उन्हें गौ लोकधाम में वास मिलता है । 28. गौ माता के गोबर से ईंधन तैयार होता है । 29. गौ माता सभी देवी देवताओं मनुष्यों की आराध्य है; इष्ट देव है । 30. साकेत स्वर्ग इन्द्र लोक से भी उच्चा गौ लोक धाम है । 31. गौ माता के बिना संसार की रचना अधुरी है । 32. गौ माता में दिव्य शक्तियां होने से संसार का संतुलन बना रहता है । 33. गाय माता के गौवंशो से भूमि को जोत कर की गई खेती सर्वश्रेष्ट खेती होती है । 34. गौ माता जीवन भर दुध पिलाने वाली माता है । गौ माता को जननी से भी उच्चा दर्जा दिया गया है । 35. जहां गौ माता निवास करती है वह स्थान तीर्थ धाम बन जाता है । 36. गौ माता कि सेवा परिक्रमा करने से सभी तीर्थो के पुण्यों का लाभ मिलता है । 37. जिस व्यक्ति के भाग्य की रेखा सोई हुई हो तो वो व्यक्ति अपनी हथेली में गुड़ को रखकर गौ माता को जीभ से चटाये गौ माता की जीभ हथेली पर रखे गुड़ को चाटने से व्यक्ति की सोई हुई भाग्य रेखा खुल जाती है । 38. गौ माता के चारो चरणों के बीच से निकल कर परिक्रमा करने से इंसान भय मुक्त हो जाता है । 39. गाय माता आनंदपूर्वक सासें लेती है; छोडती है । वहां से नकारात्मक ऊर्जा भाग जाती है और सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति होती है जिससे वातावरण शुद्ध होता है । 40. गौ माता के गर्भ से ही महान विद्वान धर्म रक्षक गौ कर्ण जी महाराज पैदा हुए थे । 41. गौ माता की सेवा के लिए ही इस धरा पर देवी देवताओं ने अवतार लिये हैं । 42. जब गौ माता बछड़े को जन्म देती तब पहला दूध बांझ स्त्री को पिलाने से उनका बांझपन मिट जाता है । 43. स्वस्थ गौ माता का गौ मूत्र को रोजाना दो तोला सात पट कपड़े में छानकर सेवन करने से सारे रोग मिट जाते हैं । 44. गौ माता वात्सल्य भरी निगाहों से जिसे भी देखती है उनके ऊपर गौकृपा हो जाती है । 45. गाय इस संसार का प्राण है । 46. काली गाय की पूजा करने से नौ ग्रह शांत रहते हैं । जो ध्यानपूर्वक धर्म के साथ गौ पूजन करता है उनको शत्रु दोषों से छुटकारा मिलता है । 47. गाय धार्मिक ; आर्थिक ; सांस्कृतिक व अध्यात्मिक दृष्टि से सर्वगुण संपन्न है । 48. गाय एक चलता फिरता मंदिर है । हमारे सनातन धर्म में तैंतीस कोटि देवी देवता है । हम रोजाना तैंतीस कोटि देवी देवताओं के मंदिर जा कर उनके दर्शन नहीं कर सकते पर गौ माता के दर्शन से सभी देवी देवताओं के दर्शन हो जाते हैं । 49. कोई भी शुभ कार्य अटका हुआ हो बार बार प्रयत्न करने पर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गौ माता के कान में कहिये रूका हुआ काम बन जायेगा । 50. जो व्यक्ति मोक्ष गौ लोक धाम चाहता हो उसे गौ व्रती बनना चाहिए । 51. गौ माता सर्व सुखों की दातार है । हे मां आप अनंत ! आपके गुण अनंत ! इतना मुझमें सामर्थ्य नहीं कि मैं आपके गुणों का बखान कर सकूं । जय गौ माता की ..।

Via MyNt
Sajay gupta

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ये हैं भगवदगीता के दस सबसे लोकप्रिय श्लोक, जिनमें समाहित हैं गूढ़ जीवन-दर्शन,,,

श्रीमद्भगवद्गीता दुनिया के श्रेष्ठ ग्रंथों में है,जो न केवल सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है,बल्कि कही और सुनी भी जाती है।कहते हैं जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा सकती है। भारत की सनातन संस्कृति में श्रीमद्भगवद्गीता न केवल पूज्य बल्कि अनुकरणीय भी है।कहते हैं, इस ग्रंथ में उल्लिखित उपदेश इसके 18 अध्यायों में लगभग 720 श्लोकों में हैं।

प्रस्तुत है इस महान दार्शनिक ग्रंथ के कुछ चुनींदा श्लोक:

(1) नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)

इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र  काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)

(2) हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)

इस श्लोक का अर्थ है: यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे… इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने वर्तमान कर्म के परिणाम की चर्चा की है, तात्पर्य यह कि वर्तमान कर्म से श्रेयस्कर और कुछ नहीं है।)

(3) यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।

(4) परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8)

इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

इस प्रसिद्ध शक्तिपीठ में नहीं है देवी की कोई मूर्ति, होती है श्रीयंत्र की पूजा

(5) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 47)

इस श्लोक का अर्थ है: कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो। (यह श्रीमद्भवद्गीता के सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है, जो कर्मयोग दर्शन का मूल आधार है।)

(6) ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 62)

इस श्लोक का अर्थ है: विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने विषयासक्ति के दुष्परिणाम के बारे में बताया है।)

(7) क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(द्वितीय अध्याय, श्लोक 63)

इस श्लोक का अर्थ है: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।

(8) यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
(तृतीय अध्याय, श्लोक 21)

इस श्लोक का अर्थ है: श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण यानी जो-जो काम करते हैं, दूसरे मनुष्य (आम इंसान) भी वैसा ही आचरण, वैसा ही काम करते हैं। वह (श्रेष्ठ पुरुष) जो प्रमाण या उदाहरण प्रस्तुत करता है, समस्त मानव-समुदाय उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं।

(9) श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 39)

इस श्लोक का अर्थ है: श्रद्धा रखने वाले मनुष्य, अपनी इन्द्रियों पर संयम रखने वाले मनुष्य, साधनपारायण हो अपनी तत्परता से ज्ञान प्राप्त कते हैं, फिर ज्ञान मिल जाने पर जल्द ही परम-शान्ति (भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति) को प्राप्त होते हैं।

(10) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(अठारहवां अध्याय, श्लोक 66)

इस श्लोक का अर्थ है: (हे अर्जुन) सभी धर्मों को त्याग कर अर्थात हर आश्रय को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ, मैं (श्रीकृष्ण) तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो।,

Sajay gupta

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बिटिया बड़ी हो गयी, एक रोज उसने बड़े सहज भाव में अपने पिता से पूछा – “पापा, क्या मैंने आपको कभी रुलाया” ?


बिटिया बड़ी हो गयी, एक रोज उसने बड़े सहज भाव में अपने पिता से पूछा – “पापा, क्या मैंने आपको कभी रुलाया” ?

पिता ने कहा -“हाँ ”

उसने बड़े आश्चर्य से पूछा – “कब” ?

पिता ने बताया – ‘उस समय तुम करीब एक साल की थीं,
घुटनों पर सरकती थीं।
मैंने तुम्हारे सामने पैसे, पेन और खिलौना रख दिया क्योंकि मैं ये देखना चाहता था कि, तुम तीनों में से किसे उठाती हो तुम्हारा चुनाव मुझे बताता कि, बड़ी होकर तुम किसे अधिक महत्व देतीं।
जैसे पैसे मतलब संपत्ति, पेन मतलब बुद्धि और खिलौना मतलब आनंद।

मैंने ये सब बहुत सहजता से लेकिन उत्सुकतावश किया था क्योंकि मुझे सिर्फ तुम्हारा चुनाव देखना था।

तुम एक जगह स्थिर बैठीं टुकुर टुकुर उन तीनों वस्तुओं को देख रहीं थीं।
मैं तुम्हारे सामने उन वस्तुओं की दूसरी ओर खामोश बैठा बस तुम्हें ही देख रहा था।
तुम घुटनों और हाथों के बल सरकती आगे बढ़ीं,
मैं अपनी श्वांस रोके तुम्हें ही देख रहा था और क्षण भर में ही तुमने तीनों वस्तुओं को आजू बाजू सरका दिया और उन्हें पार करती हुई आकर सीधे मेरी गोद में बैठ गयीं।
मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि, उन तीनों वस्तुओं के अलावा तुम्हारा एक चुनाव मैं भी तो हो सकता था।

वो पहली और आखरी बार था बेटा जब, तुमने मुझे रुलाया और बहुत रुलाया…

भगवान की दी हुई सबसे अनमोल धरोहर है बेटी…

क्या खूब लिखा है एक पिता ने…

हमें तो सुख मे साथी चाहिये दुख मे तो हमारी बेटी अकेली ही काफी है

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स्वयं कर्म कोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते॥

प्राणी स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका फल भोगता है । स्वयं संसार में भटकता है और स्वयं इससे मुक्त हो जाता है ।
॥ॐ॥

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महाभारत युद्ध समाप्त होने पर धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से पूछा


महाभारत युद्ध समाप्त होने पर धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से पूछा- मैं अंधा पैदा हुआ, सौ पुत्र मारे गए भगवन मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसकी सजा मिल रही है. श्रीकृष्ण ने बताना शुरू किया- पिछले जन्म में आप एक राजा थे. आपके राज्य में एक तपस्वी ब्राह्मण थे. उनके पास हंसों का एक जोड़ा था जिसके चार बच्चे थे.
ब्राह्मण को तीर्थयात्रा पर जाना था लेकिन हंसों की चिंता में वह जा नहीं पा रहे थे. उसने अपनी चिंता एक साधु को बताई. साधु ने कहा- तीर्थ में हंसों को बाधक बताकर हंसों का अगला जन्म खराब क्यों करते हो. राजा प्रजापालक होता है. तुम और तुम्हारे हंस दोनों उसकी प्रजा हो. हंसों को राजा के संरक्षण में रखकर तीर्थ को जाओ.
ब्राह्मण हंस और उसके बच्चे आपके पास रखकर तीर्थ को गए. आपको एक दिन मांस खाने की इच्छा हुई. आपने सोचा सभी जीवों का मांस खाया है पर हंस का मांस नहीं खाया. आपने हंस के दो बच्चे भूनकर खा लिए. आपको हंस के मांस का स्वाद लग गया. हंस के एक-एक कर सौ बच्चे हुए और आप सबको खाते गए.अंततः हंस का जोड़ा मर गया.
कई साल बाद वह ब्राह्मण लौटा और हंसों के बारे में पूछा तो आपने कह दिया कि हंस बीमार होकर मर गए. आपने तीर्थयात्रा पर गए उस व्यक्ति के साथ विश्वासघात किया जिसने आप पर अंधविश्वास किया था. आपने प्रजा की धरोहर में डाका डालकर राजधर्म भी नहीं निभाया.
जिह्वा के लालच में पड़कर हंस के सौ बच्चे भूनकर खाने के पाप से आपके सौ पुत्र हुए जो लालच में पड़कर मारे गए. आप पर आंख मूंदकर भरोसा करने वाले से झूठ बोलने और राजधर्म का पालन नहीं करने के कारण आप अंधे और राजकाज में विफल व्यक्ति हो गए.
श्रीकृष्ण ने कहा- सबसे बड़ा छल होता है विश्वासघात. आप उसी पाप का फल भोग रहे हैं.
Vikramprakash raisony

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पहली पत्नी :- वानी गनपती (1978-1988)

दुसरी पत्नी :- सारिका ठाकुर (1988-2004)

तीसरी पत्नी :- गौतमी  (2015-2016)

इन 👆👆👆तीन महिलाओं को तलाक देने वाला गिरगिट एवं नमकहराम का नाम है “कमल हसन”।

2013 में रोकर कमल हसन ने कहा था, “मुझे कट्टरपंथी मुस्लिमो से बचाओ, वरना देश छोड़ दूंगा”।

दैनिक भारत इस बात को अच्छे से समझता है कि भारत में हिन्दुओ की याददास्त बहुत ही कमजोर होती है, वो तो ये भी भूल गया है कि वो हिन्दू है या नहीं, अधिकतर हिन्दुओ से पूछो तो वो कहेंगे “आई एम ह्यूमन”, अरे भैया हिन्दू भी ह्यूमन ही होता है, अगर कोई हिन्दू है तो इसका मतलब ये नहीं कि वो एनिमल हो गया है, वो भी ह्यूमन ही होता है, खैर

आज कमल हसन हिन्दुओ को आतंकवादी बता रहे है, असहिष्णु बता रहे है, हिंसक बता रहे है, पर हमे कमल हसन की 2013 वाली शक्ल याद आ गयी, आपकी याददास्त को दुरुस्त करते हुए हम विस्तारपूर्वक बताते है।

बात है साल 2013 की, कमल हसन ने एक फिल्म बनाई थी, जिसके निर्माता भी वही थे, इस फिल्म का नाम था विश्वरूपम, इस फिल्म में आतंकवाद के दृश्य थे, आतंकवाद की कहानी पर ये फिल्म आधारित थी, कमल हसन ने इस फिल्म को बनाने में मार्किट से भी बहुत पैसा उठाया था, काफी खर्चा किया था

विश्वरूपम का विरोध करते मुस्लिम संगठन, फिल्म के बारे में जैसे ही तमिलनाडु और केरल में मुस्लिम संगठनो को पता चला, उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया, जगह जगह कमल हसन के पुतले जलाये जाने लगे, राजनितिक दबाव बनाया जाने लगा, कांग्रेस और वामपंथी नेता साथ ही PFI, मुस्लिम लीग जैसे जिहादी संगठन कमल हसन का विरोध करने लगे, कमल हसन को जान से मारने की धमकी के अलावा बेटी से बलात्कार की भी धमकियाँ दी जाने लगी

पहले से फिल्म में बहुत पैसा लगा चुके कमल हसन की स्तिथि टाइट होने लगी, कट्टरपंथियों के साथ तो वैसे भी राजनेता होते है, कमल हसन की फिल्म को बैन करने की भी बातें होने लगी, फिल्म के रिलीज से पहले बहुत बुरी स्तिथि हो गयी थी कमल हसन की

और इसी के बाद कमल हसन एक दिन सामने आये और रोते हुए उन्होंने कहा की, मैंने इस फिल्म में अपना सबकुछ लगा दिया है, और मुझे कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनो से बचाओ, वरना मैं देश छोड़ने पर मजबूर हो जाऊंगा, 2013 में रो रो कर कमल हसन ने खुद को कट्टरपंथी मुस्लिमो से बचाने की अपील की थी

जैसे तैसे कमल हसन की फिल्म रिलीज हुई और सभी मुस्लिमो ने उसका बहिष्कार किया, कमल हसन को सुरक्षा तक देना पड़ा, केरल और तमिलनाडु के मुस्लिम बहुल इलाकों में तो उनकी फिल्म कभी रिलीज ही नहीं हो सकी, हिन्दुओ ने कमल हसन की फिल्म देखि और फिल्म हिट हुई, और कमल हसन की की कमाई हुई अन्यथा उनकी आर्थिक स्तिथि टाइट हो गयी थी

और आज वो कमल हसन जो 2013 में कट्टरपंथी मुस्लिमो के कारण रो रहे थे, देश छोड़ने की बात कर रहे थे, वो राजनीती में आने के लिए हिन्दुओ को आतंकी बता रहे है, साफ़ होता है कि 2013 में हिन्दुओ ने जो कमल हसन का साथ दिया था, हिन्दुओ से वो बड़ी भूल हो गयी थी

क्यूंकि जिस शख्स को हम मनोरंजन का चाची 420 समझकर बैठे हुए थे, वो तो अब्दुल 786 निकला.  

ये 👆 कमल हसन एक वामपंथी सेकुलर है जिस थाली में खाता है उसी में छेद करता है।

बालिवुड के 👆ऐसे सेकुलर बहरुपियों से सावधान।

ऐसे 👆👆रंग बदलने वाले गिरगिटों से सावधान।

कॉपी पेस्ट।