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एक मीठा उलाहना
” अजी सुनते हो एक बात कहू आपसे ???”
एक 80 साल की पत्नी ने अपने 84 साल के पति से
कहा .
पति अपनी पत्नी के करीब आया और बोला कहो .
पत्नी भावुक होकर बोली ,
” आपको याद है आपने हमारी शादी से पहले
अपनी माँ को छुपकर एक ख़त लिखा था जिसमे आपने
अपने गुस्से का इजहार करते हुए लिखा था की आप मुझसे
शादी नहीं करना चाहते
क्युकी आपको मेरा चेहरा पसंद नहीं था “
पति ने हैरान होकर पूछा ,
” वो ख़त तुझे कहा मिला वो तो बहुत पुरानी बात हे “
पत्नी आँखों में आंसू भरके बोली ,
” कल आपके बक्से से मुझे ये पुराना ख़त मिला .
मुझे
नहीं पता था की ये शादी आपकी
मर्जी के खिलाफ
हुई थी . वरना में खुद ही मना कर देती “
पति ने अपना सर अपनी पत्नी की बांहों में रखा और
बोला ,
अरे पगली उस वक्त मैं सिर्फ 12 साल का था और मुझे
लगा तू मेरे से शादी करके जब आएगी तो मेरे कमरे में मेरे
साथ मेरा बिस्तर और तकिये पे सोएगी .
मेरे सारे
खिलोनो के साथ खेलेगी और मेरी गुल्लक से पैसे
चुरा लेगी .
लेकिन उस वक्त मैं ये कहा जानता था की तू
मेरी जिन्दगी में आकर मेरी जिन्दगी को
एक कमरे से
बाहर एक घर तक ले जायेगी.
ये कहा जानता था की मुझे कपड़ो के बने खिलोनो से
कही ज्यादा खुबसूरत और प्यारे खिलोने ( हमारे बच्चे )
तू मुझे देगी .
ये कहा जानता था की मेरी चिल्लर से भरी गुल्लक के
मुकाबले तू मुझे प्यार की बेशकीमती दौलत
देगी ,
अब बोल और भी कुछ पूछना बाकी हे ??”
पत्नी ने तसल्ली के साथ कहा .
” भगवान् का शुक्र हे . में तो समझ रही थी तुम्हे उस
पड़ोस वाली से प्रेम था “
पति ने हंसते हुए कहा ,
” अजी रहने दो कहा वो और
कहा मेरी राजकुमारी…… “
पत्नी और पति एक दुसरे से लिपट गए .
प्यार के
आखिरी सफ़र की मंजिल अब कुछ ही दूर
बची थी !!
गणेश महाजन

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एक बहुत प्यारी सूफ़ी कहानी हैः

एक बादशाह ने एक दिन सपने में अपनी मौत को आते हुए देखा। उसने सपने में अपने पास खड़ी एक छाया देख, उससे पूछा-‘तुम कौन हो? यहां क्यों आयी हो?’

उस छाया या साये ने उत्तर दिया-मैं तुम्हारी मौत हूं और मैं कल सूर्यास्त होते ही तुम्हें लेने तुम्हारे पास आऊंगी।’ बादशाह ने उससे पूछना भी चाहा कि क्या बचने का कोई उपाय है, लेकिन वह इतना अधिक डर गया था कि वह उससे कुछ भी न पूछ सका। तभी अचानक सपना टूट गया और वह छाया भी गायब हो गयी। आधी रात को ही उसने अपने सभी अक्लमंद लोगों को बुलाकर पूछा-‘इस स्वप्न का क्या मतलब है, यह मुझे खोजकर बताओ।’ और जैसा कि तुम जानते ही हो, तुम बुद्धिमान लोगों से अधिक बेवकूफ कोई और खोज ही नहीं सकते। वे सभी लोग भागे-भागे अपने-अपने घर गये और वहां से अपने-अपने शास्त्र साथ लेकर लौटे। वे बड़े-बड़े मोटे पोथे थे। उन लोगों ने उन्हें उलटना-पलटना शुरू कर दिया और फिर उन लोगों में चर्चा-परिचर्चा के दौरान बहस छिड़ गयी। वे अपने-अपने तर्क देते हुए आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे।

उन लोगों की बातें सुनकर बादशाह की उलझन बढ़ती ही जा रही थी। वे किसी एक बात पर सहमत ही नहीं हो पा रहे थे। वे लोग विभिन्न पंथों के थे। जैसा कि बुद्धिमान लोग हमेशा होते हैं, वे स्वयं भी स्वयं के न थे।

वे उन सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखते थे, जिनकी परम्पराएं मृत हो चुकी थीं। उनमें एक हिन्दू, दूसरा मुसलमान और तीसरा ईसाई था। वे अपने साथ अपने-अपने शास्त्र लाये थे और उन पोथों को उलटते-पलटते, वे बादशाह की समस्या का हल खोजने की कोशिशों पर कोशिशें कर रहे थे। आपस में तर्क-विर्तक करते-करते वे जैसे पागल हो गये। बादशाह बहुत अधिक व्याकुल हो उठा क्योंकि सूरज निकलने लगा था और जिस सूर्य का उदय होता है, वह अस्त भी होता है क्योंकि उगना ही वास्तव में अस्त होना है। अस्त होने की शुरुआत हो चुकी है। यात्रा शुरू हो चुकी थी और सूर्य डूबने में सिर्फ बारह घंटे बचे थे।

उसने उन लोगों को टोकने की कोशिश की, लेकिन उन लोगों ने कहा-‘आप कृपया बाधा उत्पन्न न करें। यह एक बहुत गम्भीर मसला है और हम लोग हल निकालकर रहेंगे।’

तभी एक बूढ़ा आदमी-जिसने बादशाह की पूरी उम्र खिदमत की थी-उसके पास आया और उसके कानों में फुसफुसाते हुए कहा-‘यह अधिक अच्छा होगा कि आप इस स्थान से कहीं दूर भाग जायें क्योंकि ये लोग कभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे नहीं और तर्क-वितर्क ही करते रहेंगे और मौत आ पहुंचेगी। मेरा आपको यही सुझाव है कि जब मौत ने आपको चेतावनी दी है, तो अच्छा यही है कि कम-से-कम आप इस स्थान से कहीं दूर सभी से पीछा छुड़ाकर चले जाइए। आप कहीं भी जाइयेगा, बहुत तेजी से।’ यह सलाह बादशाह को अच्छी लगी-‘यह बूढ़ा बिल्कुल ठीक कह रहा है। जब मनुष्य और कुछ नहीं कर सकता, वह भागने का, पीछा छुड़ाकर पलायन करने का प्रयास करता है।’

बादशाह के पास एक बहुत तेज दौड़ने वाला घोड़ा था। उसने घोड़ा मंगाकर बुद्धिमान लोगों से कहा-‘मैं तो अब कहीं दूर जा रहा हूं और यदि जीवित लौटा, तो तुम लोग तय कर मुझे अपना निर्णय बतलाना, पर फिलहाल तो मैं अब जा रहा हूं।’

वह बहुत खुश-खुश जितनी तेजी से हो सकता था, घोड़े पर उड़ा चला जा रहा था क्योंकि आखिर यह जीवन और मौत का सवाल था। वह बार-बार पीछे लौट-लौटकर देखता था कि कहीं वह साया तो साथ नहीं आ रहा है, लेकिन वहां स्वप्न वाले साये का दूर-दूर तक पता न था। वह बहुत खुश था, मृत्यु पीछे नहीं आ रही थी और उससे पीछा छुड़ाकर दूर भागा जा रहा था।

अब धीमे-धीमे सूरज डूबने लगा। वह अपनी राजधानी से कई सौ मील दूर आ गया था। आखिर एक बरगद के पेड़ के नीचे उसने अपना घोड़ा रोका। घोड़े से उतरकर उसने उसे धन्यवाद देते हुए कहा-‘वह तुम्हीं हो, जिसने मुझे बचा लिया।’

वह घोड़े का शुक्रिया अदा करते हुए यह कह ही रहा था कि तभी अचानक उसने उसी हाथ को महसूस किया, जिसका अनुभव उसने ख्वाब में किया था। उसने पीछे मुड़कर देखा, वही मौत का साया वहां मौजूद था।

मौत ने कहा-‘मैं भी तेरे घोड़े का शुक्रिया अदा करती हूं, जो बहुत तेज दौड़ता है। मैं सारे दिन इसी बरगद के पेड़ के नीचे खड़ी तेरा इन्तजार कर रही थी और मैं चिन्तित थी कि तू यहां तक आ भी पायेगा या नहीं क्योंकि फासला बहुत लंबा था। लेकिन तेरा घोड़ा भी वास्तव में कोई चीज है। तू ठीक उसी वक्त पर यहां आ पहुंचा है, जब तेरी जरूरत थी।’

तुम कहां जा रहे हो? तुम कहां पहुंचोगे? सारी भागदौड़ और पलायन आखिर तुम्हें बरगद के पेड़ तक ही ले जायेगी। और जैसे ही तुम अपने घोड़े या कार को धन्यवाद दे रहे होगे, तुम अपने कंधे पर मौत के हाथों का अनुभव करोगे। मौत कहेगी-‘मैं एक लम्बे समय से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी। अच्छा हुआ, तुम खुद आ गये।’

और प्रत्येक व्यक्ति ठीक समय पर ही आता है। वह एक क्षण भी नहीं खोता। प्रत्येक व्यक्ति ठीक वक्त पर ही पहुंचता है, कोई भी कभी देर लगाता ही नहीं। मैंने सुना है कि कुछ लोग वक्त से पहले ही पहुंच गये, लेकिन मैंने यह कभी नहीं सुना कि कोई देर से आया हो। कुछ लोग, जो समय से पहले पहुंचे थे, वह लोग अपने चिकित्सकों की मेहरबानी के कारण।
अपनी असफलता की वजह उसने यह ठहराई

कि वह काफी तेजी से नहीं दौड़ रहा था।

इसीलिए वह बिना रुके तेज और तेज दौड़ने लगा।

यहां तक कि अन्त में वह नीचे गिर पड़ा और मर गया।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी छाया बनती ही नहीं

और यदि वह उसके नीचे बैठकर स्थिर हो ठहर गया होता,

तो न पैरों के कदम उठते और उनकी ध्वनि होती।

यह बहुत आसान था-सबसे अधिक आसान।

यदि तुम ठीक छाया की ओर बढ़ो, जहां धूप न हो, तो परछाई गायब हो जायेगी क्योंकि परछाई धूप या रोशनी के कारण ही बनती है। वह सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति है। यदि तुम एक वृक्ष की छाया तले बैठ जाओ, तो परछाई लुप्त हो जायेगी।

वह यह समझने में असफल रहा

कि यदि उसने सिर्फ किसी पेड़ या किसी छांव की ओर कदम रखे होते,

तो उसकी परछाई बनती ही नहीं। वह गायब हो जाती।

इस छांव को कहते है–मौन। इस छांव को कहते हैं-आंतरिक शान्ति। मन की सुनो ही मत, बस केवल मौन की छांव में सरक जाओ, अपने अंदर गहरे में उतर जाओ, जहां सूर्य की कोई किरण प्रविष्ट नहीं हो सकती, जहां परम शान्ति है।

-ओशो
पुस्तकः सत्य-असत्य

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|| समुद्र मंथन की कहानी ||
.
, भगवान  शिव के अनेकों कथाओं में से समुद्र मंथन की कथा भी एक हैं, ये कथा शिव पुराण की कथाए हैं जो बहुत ही रोमांचक हैं  :  एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।

इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को श्री (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया।

तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले — देवेन्द्र , भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।

इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले— भगवान् , आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।

भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले— देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो।

क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे।

देवगण वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता। भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। Shiv Puran Dharmik Katha

समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया।

उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। Shiv Puran Dharmik Katha

उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।

विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पद्रुम निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया।

आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।

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Ek bodh katha..
ईश्वर बहुत दयालु है
🌹🌹🌹🌹🌹
एक राजा का एक विशाल फलों का बगीचा था. उसमें तरह-तरह के फल होते थे और उस बगीचा की सारी देखरेख एक किसान अपने परिवार के साथ करता था. वह किसान हर दिन बगीचे के ताज़े फल लेकर राजा के राजमहल में जाता था.
एक दिन किसान ने पेड़ों पे देखा नारियल अमरुद, बेर, और अंगूर पक कर तैयार हो रहे हैं, किसान सोचने लगा आज कौन सा फल महाराज को अर्पित करूँ, फिर उसे लगा अँगूर करने चाहिये क्योंकि वो तैयार हैं इसलिये उसने अंगूरों की टोकरी भर ली और राजा को देने चल पड़ा!  किसानब राजमहल में पहुचा, राजा किसी दूसरे ख्याल में खोया हुआ था और नाराज भी लग रहा था किसान रोज की तरह मीठे रसीले अंगूरों की टोकरी राजा के सामने रख दी और थोड़े दूर बेठ गया, अब राजा उसी खयालों-खयालों में टोकरी में से अंगूर उठाता एक खाता और एक खींच  कर किसान के माथे पे निशाना साधकर फेंक देता।
राजा का अंगूर जब भी किसान के माथे या शरीर  पर लगता था किसान कहता था, ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’ राजा फिर और जोर से अंगूर फेकता था किसान फिर वही कहता था ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’
थोड़ी देर बाद राजा को एहसास हुआ की वो क्या कर रहा है और प्रत्युत्तर क्या आ रहा है वो सम्भल कर बैठा , उसने किसान से कहा, मै तुझे बार-बार अंगूर मार रहा हूँ , और ये अंगूर तुंम्हे  लग भी रहे हैं, फिर भी तुम यह बार-बार क्यों कह रहे हो की ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’***
*किसान ने नम्रता से बोला, महाराज, बागान में आज नारियल, बेर और अमरुद भी तैयार थे पर मुझे भान हुआ क्यों न आज आपके लिये अंगूर् ले चलूं लाने को मैं अमरुद और बेर भी ला सकता था पर मैं अंगूर लाया। यदि अंगूर की जगह नारियल, बेर या बड़े बड़े अमरुद रखे होते तो आज मेरा हाल क्या होता ? इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि  ‘ईश्वर बड़ा दयालु है’!!

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कथा सार–
इसी प्रकार ईश्वर भी हमारी कई मुसीबतों को बहुत  हल्का कर के हमें उबार लेता है पर ये तो हम ही नाशुकरे हैं जो शुकर न करते हुए उसे ही गुनहगार ठहरा देते हैं, मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ , मेरा क्या कसूर, आज जो भी फसल हम काट रहे हैं ये दरअसल हमारी ही बोई हुई है, बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होये।। और बबुल से अगर आम न मिला तो  गुनहगार भी हम नहीं हैं , इसका भी दोष हम किसी और पर मढेंगे ,, कोई और न मिला तो ईश्वर तो है ही ।
                             🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
कृष्णा शर्मा

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🔴अष्‍टावक्र: महागीता–
ज्ञान मुक्‍ति हैं (पोस्ट 62)

संसार छूटता है तो जरूरी नहीं कि अज्ञान की पकड़ छूट जाए।

पुरानी सूफियों की एक कथा है। एक सम्राट जब छोटा बच्चा था, स्कूल में पढ़ता था, तो उसकी एक युवक से बड़ी मैत्री थी। फिर जीवन के रास्ते अलग— अलग हुए। सम्राट का बेटा तो सम्राट हो गया। वह जो उसका मित्र था, वह त्यागी हो गया, वह फकीर हो गया। उसकी दूर—दिगत तक प्रशंसा फैल गई—फकीर की। यात्री दूर—दूर से उसके चरणों में आने लगे। खोजी उसका सत्संग करने आने लगे। जैसे—जैसे खोजियों की भीड़ बढ़ती गई, उसका त्याग भी बढ़ता गया। अंतत: उसने वस्त्र भी छोड़ दिए, वह दिगंबर हो गया। फिर तो वह सूर्य की भांति चमकने लगा। और त्यागियों को उसने पीछे छोड़ दिया।

लेकिन सम्राट को सदा मन में यह होता था कि मैं उसे भलीभाति जानता हूं, वह बड़ा अहंकारी था स्कूल के दिनों में, कालेज के दिनों में—अचानक इतना महात्याग उसमें फलित हो गया! इस पर भरोसा सम्राट को न आता था। फिर यह जिज्ञासा उसकी बढ़ती गई। अंततः उसने अपने मित्र को निमंत्रण भेजा कि अब तुम महात्यागी हो गए हो, राजधानी आओ, मुझे भी सेवा का अवसर दो। मेरे प्रजाजनों को भी बोध दो, जगाओ!

निमंत्रण स्वीकार हुआ। वह फकीर राजधानी की तरफ आया। सम्राट ने उसके स्वागत के लिए बड़ा आयोजन किया। पुराना मित्र था। फिर इतना ख्यातिलब्ध, इतनी प्रशंसा को प्राप्त, इतना गौरवान्वित! तो उसने कुछ छोड़ा नहीं, सारी राजधानी को सजाया—फूलों से, दीपों से! रास्ते पर सुंदर कालीन बिछाए, बहुमूल्य कालीन बिछाए। जहां से उसका प्रवेश होना था, वहां से राजमहल तक दीवाली की स्थिति खड़ी कर दी।

फकीर आया, लेकिन सम्राट हैरान हुआ.. वह नगर के द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करता था अपने पूरे दरबारियों को लेकर, लेकिन चकित हुआ. वर्षा के दिन न थे, राहें सूखी पड़ी थीं, लोग पानी के लिए तडूफ रहे थे और फकीर घुटनों तक कीचड़ से भरा था। वह भरोसा न कर सका कि इतनी कीचड़ राह में कहां मिल गई, और घुटने तक कीचड़ से भरा हुआ है! पर सबके सामने कुछ कहना ठीक न था। दोनों राजमहल पहुंचे। जब दोनों एकांत में पहुंचे तो सम्राट ने पूछा कि मुझे कहें, यह अड़चन कहां आई? आपके पैर कीचड़ से भरे हैं!

उसने कहा, अड़चन का कोई सवाल नहीं। जब मैं आ रहा था तो लोगों ने मुझसे कहा कि तुम्हें पता है, तुम्हारा मित्र, सम्राट, अपना वैभव दिखाने के लिए राजधानी को सजा रहा है? वह तुम्हें झेंपाना चाहता है। तुम्हें कहना चाहता है, ‘तुमने क्या पाया? नंगे फकीर हो! देखो मुझे!’ उसने रास्ते पर बहुमूल्य कालीन बिछाए, लाखों रुपये खर्च किए गए हैं। राजधानी दुल्हन की तरह सजी है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है। वह तुम्हें फीका करना चाहता है।. तो मैंने कहा कि देख लिए ऐसा फीका करने वाले! अगर वह बहुमूल्य कालीन बिछा सकता है, तो मैं फकीर हूं मैं कीचड़ भरे पैरों से उन कालीनों पर चल सकता हूं। मैं दो कौड़ी का मूल्य नहीं मानता!

जब उसने ये बातें कहीं तो सम्राट ने कहा, अब मैं निश्चित हुआ। मेरी जिज्ञासा शांत हुई। आपने मुझे तृप्त कर दिया। यही मेरी जिज्ञासा थी।

फकीर ने पूछा, क्या जिज्ञासा थी?

‘यही जिज्ञासा थी कि आपको मैं सदा से जानता हूं। स्कूल में, कालेज में आपसे ज्यादा अहंकारी कोई भी न था। आप इतनी विनम्रता को उपलब्ध हो गए, यही मुझे संदेह होता था। अब मुझे कोई चिंता नहीं। आओ हम गले मिलें, हम एक ही जैसे हैं। तुम मुझ ही जैसे हो। कुछ फर्क नहीं हुआ है। मैंने एक तरह से अपने अहंकार को भरने की चेष्टा की है—सम्राट हो कर; तुम दूसरी तरह से उसी अहंकार को भरने की चेष्टा कर रहे हो। हमारी दिशाएं अलग हों, हमारे लक्ष्य अलग नहीं। और मैं तुमसे इतना कहना चाहता हूं मुझे तो पता है कि मैं अहंकारी हूं तुम्हें पता ही नहीं कि तुम अहंकारी हो। तो मैं तो किसी न किसी दिन इस अहंकार से ऊब ही जाऊंगा, तुम कैसे ऊबोगे? तुम पर मुझे बड़ी दया आती है। तुमने तो अहंकार को खूब सजा लिया। तुमने तो उसे त्याग के वस्त्र पहना दिए।’

जो व्यक्ति संसार से ऊबता है, उसके लिए त्याग का खतरा है।

दुनिया में दो तरह के संसारी हैं—एक, जो दुकानों में बैठे हैं; और एक, जो मंदिरों में बैठे हैं।

🌷🌷ओशो 🌷🌷♣️

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|| श्री रामचरित मानस
राम-कथा :- लंका काण्ड||
!! वानर सेना का प्रस्थान

हनुमान के मुख से लंका का यह विशद वर्णन सुन कर रामचन्द्र बोले, “हनुमान! तुमने भयानक राक्षस रावण की जिस लंकापुरी का वर्णन किया है, उसे मैं शीघ्र ही नष्ट कर डालूँगा। सुग्रीव! अभी विजय नामक मुहूर्त है और इस मुहूर्त में प्रस्थान करना अत्यन्त उपयुक्त है। अतः तुम तत्काल प्रस्थान की तैयारी करो। आज उत्तराफाल्गुनी नामक नक्षत्र है। कल चन्द्रमा का हस्त नक्षत्र से योग होगा। इसलिये हे सुग्रीव! हम लोगों का आज ही सारी सेनाओं के साथ यात्रा आरम्भ कर देना ही उचित है। इस समय जो शकुन प्रकट हो रहे हैं उन्हें देखकर यह विश्वास होता है कि मैं अवश्य ही रावण का वध कर के जनकनन्दिनी सीता को ले आऊँगा।”

रघुनाथ जी के वचन सुनकर महापराक्रमी वानरशिरोमणि सुग्रीव ने वानर सेनापतियों को यथोचित आज्ञा दी और समस्त महाबली वानरगण अपनी गुफाओं और शिखरों से शीघ्र ही निकल कर उछलते-कूदते हुए चलने लगे। उनमें से कुछ वानर उस सेना की रक्षा के लिये उछलते-कूदते चारों ओर चक्कर लगाते थे, कुछ मार्गशोधन के लिये कूदते-फाँदते आगे बढ़ते जाते थे, कुछ वानर मेघों के समान गर्जते, कुछ सिंहों के समान दहाड़ते और कुछ किलकारियाँ भरते हुए दक्षिण दिशा की ओर अग्रसर हो रहे थे। इस प्रकार से लाखों और करोड़ों वानर आगे-आगे श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण और सुग्रीव को ले कर जयजयकार करते हुये सागर तट की ओर चल पड़े। ‘श्री रामचन्द्र की जय’ और ‘रावण की क्षय’ की घोषणाओं से दसों दिशाएँ गूँजने लगीं। कुछ वानर बारी-बारी से दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर चढ़ाये लिये जा रहे थे। उनको अपनी-अपनी पीठ पर चढ़ाने के लिये वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने लगे। उनकी तीव्र गति के कारण समस्त वातावरण धूलि-धूसरित हो रहा था। अम्बर धूमिल हो गया था और आकाश में चमकता हुआ सूर्य भी फीका पड़ गया था। जब वह सेना नदी नालों को पार करती तो उनके प्रवाह भी उसके कारण परिवर्तित हो जाते थे। चारों ओर वानर ही वानर दिखाई देते थे। वे मार्ग में कहीं विश्राम लेने के लिये भी एक क्षण को नहीं ठहरते थे। उनके मन मस्तिष्क पर केवल रावण छाया हुआ था। वे सोचते थे कि कब लंका पहुँचें और कब राक्षसों का संहार करें। इस प्रकार राक्षसों के संहार की कल्पना में लीन यह विशाल वानर सेना समुद्र तट पर जा पहुँची। अब वे उस क्षण की कल्पना करने लगे जब वे समुद्र पार करके दुष्ट रावण की लंका में प्रवेश करके अपने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन करेंगे।

सागर के तट पर एक स्वच्छ शिला पर बैठ राम सुग्रीव से बोले, “हे सुग्रीव! हम सागर के तट तक तो पहुँच गये। अब यहाँ मन में फिर वही चिन्ता उत्पन्न हो गई कि इस विशाल सागर को कैसे पार किया जाय। अपनी सेना की छावनी यहीं डाल कर हमें इस समुद्र को पार करने का उपाय सोचना चाहिये। इधर जब तक हम इसका उपाय ढूँढें, तुम अपने गुप्तचरों को सावधान कर दो कि वे शत्रु की गतिविधियों के प्रति सचेष्ट रहें। कोई वानर अपने छावनी से अकारण बाहर भी न जाये क्योंकि इस क्षेत्रमें लंकेश के गुप्तचर अवश्य सक्रिय होंगे।

रामचन्द्र जी के निर्देशानुसार समुद्र तट पर छावनी डाल दी गई। समुद्र की उत्तुंग तरंगें आकाश का चुम्बन कर अपने विराट रूप का प्रदर्शन कर रहा था। सम्पूर्ण वातावरण जलमय प्रतीत होता था। आकाश में चमकने वाला नक्षत्र समुदाय सागर में प्रतिबिंबित होकर समुद्र को ही आकाश का प्रतिरूप बना रहा था। वानर समुदाय समुद्र की छवि को आश्चर्य, कौतुक और आशंका से देख रहा था।

!! ॐ हनुमते दुःखभंजन, अंजनिसुत केसरीनंदन
रामदूत संकटमोचन, शत शत वंदन कोटि नमन
¸.•“”•.¸
#शुभ    ¸.•“”•.¸प्रभात ¸.•“”•.¸
……….#हमेशा_मुस्कुराते____रहिये

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ईश्वर का वास कहाँ सम्भव होता है –
            ( लघु प्रसंग)
एक सन्यासी  एक दुकान पर आए , दुकानदार ने अनेक छोटे – बड़े डिब्बों में भिन्न-भिन्न वस्तुएं बेचने हेतु रखी थी। सन्यासी ने उससे पूछा, इनमें क्या-क्या है ?
इस प्रकार दुकानदार बतलाता रहा, अंत मे सबसे पीछे रखे डिब्बे की ओर इशारा कर सन्यासी ने पूछा  उस अंतिम डिब्बे मे क्या है ?

दुकानदार बोला, उसमे राम-राम है !
सन्यासी ने पूछा, यह ‘राम-राम’ किस वस्तु का नाम है !

दुकानदार ने कहा – महात्मन ! अन्य में तो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं, पर यह डिब्बा खाली है, हम खाली को खाली नहीं कहकर ‘राम-राम’ कहते हैं !
संन्यासी की आंखें खुल गई ! ओह,वास्तव में खाली में ही ” राम ” रहते है !
भरे हुए में तो राम हेतु स्थान है ही कहाँ ?
संतो ,….. इस प्रसंग से हमनें जाना कि –
काम, क्रोध, लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारों से जब तक हमारा दिलो -दिमाग भरा रहेगा तब तक हमारे अतःकरण में ईश्वर का वास कैसे सम्भव है ?
अतः प्रभु प्राप्ति हेतु तो हमें आतंरिक रूप से पवित्र होना ही होगा क्योंकि उनका वासस्थान तो निर्मल मन  ही हैं ।
तुलसीदास जी लिखते हैं….. निर्मल मन जन मोहे पावा, मोहे कपट छल छिद्र नहीं भावा ।………… 🙏    राम – राम  जी   🙏
Brijmohan oja

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सिकन्दर उस जल की तलाश में था, जिसे पीने से मानव अमर हो जाते हैं.!

दुनियाँ भर को जीतने के जो उसने आयोजन किए, वह अमृत की तलाश के लिए ही थे !

काफी दिनों तक देश दुनियाँ में भटकने के पश्चात आखिरकार सिकन्दर ने वह जगह पा ही ली, जहाँ उसे अमृत की प्राप्ति होती !

वह उस गुफा में प्रवेश कर गया, जहाँ अमृत का झरना था, वह आनन्दित हो गया !

जन्म-जन्म की आकांक्षा पूरी होने का क्षण आ गया, उसके सामने ही अमृत जल कल – कल करके बह रहा था, वह अंजलि में अमृत को लेकर पीने के लिए झुका ही था कि तभी एक कौआ🦅जो उस गुफा के भीतर बैठा था, जोर से बोला, ठहर, रुक जा, यह भूल मत करना…!’

सिकन्दर ने🦅कौवे की तरफ देखा!

बड़ी दुर्गति की अवस्था में था वह कौआ.!

पंख झड़ गए थे, पँजे गिर गए  थे, अंधा भी हो गया था, बस कंकाल मात्र ही शेष रह गया था !

सिकन्दर ने कहा, ‘तू रोकने वाला कौन…?’

कौवे ने उत्तर दिया, ‘मेरी कहानी सुन लो…मैं अमृत की तलाश में था और यह गुफा मुझे भी मिल गई थी !, मैंने यह अमृत पी लिया !

अब मैं मर नहीं सकता, पर मैं अब मरना चाहता हूँ… !
देख लो मेरी हालत…अंधा हो गया हूँ, पंख झड़ गए हैं, उड़ नहीं सकता, पैर गल गए हैं, एक बार मेरी ओर देख लो फिर उसके बाद यदि इच्छा हो तो अवश्य अमृत पी लेना!

🦅 देखो…अब मैं चिल्ला रहा हूँ…चीख रहा हूँ…कि कोई मुझे मार डाले, लेकिन मुझे मारा भी नहीं जा सकता !

अब प्रार्थना कर रहा हूँ  परमात्मा से कि प्रभु मुझे मार डालो !

मेरी एक ही आकांक्षा है कि किसी तरह मर जाऊँ !

इसलिए सोच लो एक बार, फिर जो इच्छा हो वो करना.’!

कहते हैं कि सिकन्दर  सोचता रहा….बड़ी देर तक…..!

आखिर उसकी उम्र भर की तलाश थी अमृत !

उसे भला ऐसे कैसे छोड़ देता !

सोचने के बाद फिर चुपचाप गुफा से बाहर वापस लौट आया, बिना अमृत पिए !

सिकन्दर समझ चुका था कि जीवन का आनन्द उस समय तक ही रहता है, जब तक हम उस आनन्द को भोगने की स्थिति में होते हैं!

इसलिए स्वास्थ्य की रक्षा कीजिये !
जितना जीवन मिला है,उस जीवन का भरपूर आनन्द लीजिये !
हमेशा खुश रहिये ?

दुनियां में सिकन्दर कोई नहीं, वक्त सिकन्दर होता है..
(वाट्स एप्प पर प्राप्त)🏼

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योग और भोग……..

(एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं )

एक बार एक राजा ने विद्वान ज्योतिषियों और ज्योतिष प्रेमियों की सभा सभा बुलाकर प्रश्न किया कि

“मेरी जन्म पत्रिका के अनुसार मेरा राजा बनने का योग था मैं राजा बना , किन्तु उसी घड़ी मुहूर्त में अनेक जातकों ने जन्म लिया होगा जो राजा नहीं बन सके क्यों ?

इसका क्या कारण है ?

राजा के इस प्रश्न से सब निरुत्तर होगये ..क्या जबाब दें कि एक ही घड़ी मुहूर्त में जन्म लेने पर भी सबके भाग्य अलग अलग क्यों हैं । सब सोच में पड़ गये कि अचानक एक वृद्ध खड़े हुये और बोले महाराज की जय हो !

आपके प्रश्न का उत्तर भला कौन दे सकता है , आप यहाँ से कुछ दूर घने जंगल में यदि जाएँ तो वहां पर आपको एक महात्मा मिलेंगे उनसे आपको उत्तर मिल सकता है ।

राजा की जिज्ञासा बढ़ी और घोर जंगल में जाकर देखा कि एक महात्मा आग के ढेर के पास बैठ कर अंगार (गरमा गरम कोयला ) खाने में व्यस्त हैं ,
सहमे हुए राजा ने महात्मा से जैसे ही प्रश्न पूछा महात्मा ने क्रोधित होकर कहा “तेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए मेरे पास समय नहीं है मैं भूख से पीड़ित हूँ ।

तेरे प्रश्न का उत्तर यहां से कुछ आगे पहाड़ियों के बीच एक और महात्मा हैं वे दे सकते हैं ।”

राजा की जिज्ञासा और बढ़ गयी, पुनः अंधकार और पहाड़ी मार्ग पार कर बड़ी कठिनाइयों से राजा दूसरे महात्मा के पास पहुंचा किन्तु यह क्या महात्मा को देखकर राजा हक्का बक्का रह गया ,दृश्य ही कुछ ऐसा

, वे महात्मा अपना ही माँस चिमटे से नोच नोच कर खा रहे थे । राजा को देखते ही महात्मा ने भी डांटते हुए कहा ” मैं भूख से बेचैन हूँ मेरे पास इतना समय नहीं है ,

आगे जाओ पहाड़ियों के उस पार एक आदिवासी गाँव में एक बालक जन्म लेने वाला है ,जो कुछ ही देर तक जिन्दा रहेगा सूर्योदय से पूर्व वहाँ पहुँचो वह बालक तेरे प्रश्न का उत्तर का दे सकता है ”

सुन कर राजा बड़ा बेचैन हुआ बड़ी अजब पहेली बन गया मेरा प्रश्न, उत्सुकता प्रबल थी कुछ भी हो यहाँ तक पहुँच चुका हूँ वहाँ भी जाकर देखता हूँ क्या होता है ।

राजा पुनः कठिन मार्ग पार कर किसी तरह प्रातः होने तक उस गाँव में पहुंचा, गाँव में पता किया और उस दंपति के घर पहुंचकर सारी बात कही और शीघ्रता से बच्चा लाने को कहा जैसे ही बच्चा हुआ दम्पत्ति ने नाल सहित बालक राजा के सम्मुख उपस्थित किया ।

राजा को देखते ही बालक ने हँसते हुए कहा राजन् ! मेरे पास भी समय नहीं है ,किन्तु अपना उत्तर सुनो लो

तुम, मैं और दोनों महात्मा सात जन्म पहले चारों भाई व राजकुमार थे । एक बार शिकार खेलते खेलते हम जंगल में भटक गए। तीन दिन तक भूखे प्यासे भटकते रहे ।

अचानक हम चारों भाइयों को आटे की एक पोटली मिली जैसे तैसे हमने चार बाटी सेकीं और अपनी अपनी बाटी लेकर खाने बैठे ही थे कि भूख प्यास से तड़पते हुए एक महात्मा आ गये ।

अंगार खाने वाले भइया से उन्होंने कहा –
“बेटा मैं दस दिन से भूखा हूँ अपनी बाटी में से मुझे भी कुछ दे दो , मुझ पर दया करो जिससे मेरा भी जीवन बच जाय, इस घोर जंगल से पार निकलने की मुझमें भी कुछ सामर्थ्य आ जायेगी ”

इतना सुनते ही भइया गुस्से से भड़क उठे और बोले “तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या आग खाऊंगा ? चलो भागो यहां से ….।

वे महात्मा जी फिर मांस खाने वाले भइया के निकट आये उनसे भी अपनी बात कही किन्तु उन भइया ने भी महात्मा से गुस्से में आकर कहा कि “बड़ी मुश्किल से प्राप्त ये बाटी तुम्हें दे दूंगा तो मैं क्या अपना मांस नोचकर खाऊंगा ? ”

भूख से लाचार वे महात्मा मेरे पास भी आये , मुझे भी बाटी मांगी… तथा दया करने को कहा किन्तु मैंने भी भूख में धैर्य खोकर कह दिया कि ” चलो आगे बढ़ो मैं क्या भूखा मरुँ …?”।

बालक बोला “अंतिम आशा लिये वो महात्मा

” हे राजन !आपके पास आये , आपसे भी दया की याचना की, सुनते ही आपने उनकी दशा पर दया करते हुये ख़ुशी से अपनी बाटी में से आधी बाटी आदर सहित उन महात्मा को दे दी ।

बाटी पाकर महात्मा बड़े खुश हुए और जाते हुए बोले “तुम्हारा भविष्य तुम्हारे कर्म और व्यवहार से फलेगा ”

बालक ने कहा “इस प्रकार हे राजन ! उस घटना के आधार पर हम अपना भोग, भोग रहे हैं ,धरती पर एक समय में अनेकों फूल खिलते हैं, किन्तु सबके फल रूप, गुण, आकार-प्रकार, स्वाद में भिन्न होते हैं ” ..।

इतना कहकर वह बालक मर गया । राजा अपने महल में पहुंचा और माना कि ज्योतिष शास्त्र, कर्तव्य शास्त्र और व्यवहार शास्त्र है ।

एक ही मुहूर्त में अनेकों जातक. जन्मते हैं किन्तु सब अपना किया, दिया, लिया ही पाते हैं ।

जैसा भोग भोगना होगा वैसे ही योग बनेंगे । जैसा योग होगा वैसा ही भोग भोगना पड़ेगा यही जीवन चक्र ज्योतिष शास्त्र समझाता है।

जय श्री राधे
Dev krishna

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🔴भगवान बुद्ध की एक भिक्षुणी शिष्या थी । उसका नाम था ” पटाचारा ” । त्रिपिटक ग्रंथ में उसकी कथा आती है । पटाचारा कुँआरी थी । किसी युवा से उसका मन लग गया । माँ-बाप के न चाहने पर भी उसने उसके साथ शादी कर ली । श्रावस्ती नगरी से बहुत दूर देश में वह अपने पति के साथ रहने लगी । कालचक्र घुमता गया । वह दो बच्चों की माता हुई । काफी वर्ष गुजरने पर पटाचारा के मन में हुआ कि कुछ भी हो, आखिर माँ-बाप बूढे हो गये होंगे, अब मैं अपने परिवार के जनों से मिलूं । उन माँ-बाप को रिझा लूं……..मना लूं। पटाचारा अपने पति और दो बेटों के साथ चली श्रावस्ती नगरी की ओर । यह आज से कोई 2500 साल पहले की बात है । गाड़ी मोटरों की सुविधा भी न थी । लोग पैदल चलते थे । यात्रा करते करते ये लोग घने जंगल से गुजर रहे थे । रात्रि में पति ने शयन किया और एक साँप ने उसे काट लिया । पति मर गया । पटाचारा के सिर पर मानो एक दुःख का पहाड़ टूट पड़ा । इतना ही नहीं, रात्रि को तो पति की मृत्यु देख रही है और प्रभात में पुत्र को किसी हिंसक प्राणी ने झपट लिया । वह भी मौत के घाट उतर गया । अब वह एकलौते बेटे को देख कर मुश्किल से संभल रही है । प्यास के मारे दूसरा बेटा पानी खोजने गया । वह झाड़ियों में उलझ गया और कहते हैं की उसकी भी मृत्यु हो गयी …… अब अकेली नारी पटाचारा अपने को जैसे तैसे संभालती हुई, रास्ता काटती हुई, कंकडों पत्थरों पर पैर जमाती हुई, दिल को थामती हुई , मन को समझाती हुई मांँ-बाप के दीदार के लिए भागी जा रही है । वह अबला श्रावस्ती नगरी में पहुँचती है तो खबर सुनती है कि जोरों की आँधी चली उसमें उसका मकान गिर गया और बूढे माँ-बाप उसके नीचे दबकर मर गये । पटाचारा के पैरों तले से मानो धरती खिसक रही है । है तो बडी दुःखद घटना मगर ईश्वर न जाने इस दुःख के पीछे कितना सुख देना चाहता है यह पटाचारा को पता न था । संसार का मोह छुडाकर शाश्वत की ओर ले जाने वाली ईश्वर-कृपा न जाने किस व्यक्ति को किस ढंग की व्यवस्था करके उसे उन्नत करना चाहती है । पटाचारा के मन में हुआ कि : ‘आखिर यह क्या ? जिस पति के लिये माँ-बाप छोडे उस पति को साँप ने डस लिया , उसकी मृत्यु हो गई। बेटों को सम्भाला ….. पाला-पोसा …..बडे होंगे तो सुख देंगे यह अरमान किये …..। एक बेटे को हिंसक पशु उठाकर ले गया । दूसरा बेटा गायब हो गया । इतना सब दुःख सहते सहते माँ-बाप के लिए आयी, वहाँ के झोंके ने मकान गिरा दिया और वे माँ-बाप दब मरे । क्या यही है जीवन ? क्या यही है हमारे मानव जन्म की उपलब्धि ? पटाचारा की अशांति और मीमांसा दोनों शुरू हुई । वह बुद्ध के पास पहुँची । पटाचारा से बुद्ध ने कहा : ‘‘पटाचारा ! जो कुछ होता है, जीव की उन्नति के लिए, विकास के लिए होता है । तेरे दो पुत्र इस जन्म में तेरे पुत्र थे परंतु न जाने कितनी बार और कितनों के पुत्र हुये और अभी न जाने वे किसकी कोख में होंगे तुझे क्या पता ? तेरा पति इस जन्म में तेरा पति था परंतु करोडों बार न जाने कितनों का पति बना होगा ? पटाचारा ! तू इस जन्म में इस माँ-बाप की बेटी थी, परंतु अगले जन्म के तेरे कौन माँ-बाप हुये होंगे ? कितने माँ-बाप बदल गये होंगे यह तुझे पता नहीं । शायद वह पता दिलाने के लिए परमात्मा ने यह व्यवस्था की हो ।
जगत की नश्वरता समझाते हुये बुद्ध ने पटाचारा को उपदेश दिया । पटाचारा ऐसी भिक्षुणी बनी कि उसने एक बार महिलाओं के बीच प्रवचन किया और उसी एक प्रवचन से प्रभावित होकर पाँच सौ महिलाएं साध्वी हो गयीं । कहाँ तो जीवन की इतनी भीषण दुःखद अवस्था और कहाँ बुद्ध का मिलना और वह ऐसी भिक्षुणी हो गयी कि पाँच सौ महिलाएं एक साथ भिक्षुणी बन पडी । अभी भी बुद्धों के सत्संग में उसकी चर्चा होती है । मित्रों अगर हम ध्यान से समीक्षा करेंगे तो पता चलेगा कि हर दुःख के पीछे कोई नया सुख छिपा है और सुख के पीछे दुःख छिपा है । हम इतने अनजान हैं कि दुःख के भय से दुःखी होते रहते हैं और सुख में लेपायमान होते रहते हैं । सुख और दुःख की अगर ठीक से समीक्षा करेंगे तो ये सुख और दुःख दोनों हमें जगाने का काम करेंगे …..
    ओशो अजय ।♣️