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एक बार एक भक्त धनी व्यक्ति मंदिर जाता है।
पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ?
यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा; सारा ध्यान् जूतों पर ही रहेगा।
उसे मंदिर के बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है। वह धनी व्यक्ति भिखारी से कहता है ” भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे? जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ” भिखारी हाँ कर देता है।
अंदर पूजा करते समय धनी व्यक्ति सोचता है कि ” हे प्रभु आपने यह कैसा असंतुलित संसार बनाया है?
किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख तक माँगनी पड़ती है!
कितना अच्छा हो कि सभी एक समान हो जायें!!
“वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर उस भिखारी को 100 का एक नोट देगा।
बाहर आकर वह धनी व्यक्ति देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते।
धनी व्यक्ति ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो, पर वह नहीं आया। धनी व्यक्ति दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है।
रास्ते में थोड़ी दूर फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है।
धनी व्यक्ति चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है, पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ बेचने के लिए रखे हैं।
तो वह अचरज में पड़ जाता है फिर वह उस फुटपाथ वाले पर दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता हो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है।
धनी व्यक्ति वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। उस दिन धनी व्यक्ति को उसके सवालों के जवाब मिल गये थे—-
समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती,
क्योंकि हमारे कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते।
और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन समाज-संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी।
ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और कितना मिलेगा, पर यह नहीं लिखा कि वह कैसे मिलेगा।
यह हमारे कर्म तय करते हैं।
जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे, पर कैसे मिलेंगे यह उस भिखारी ने तय किया।
हमारे कर्म ही हमारा भाग्य, यश, अपयश, लाभ, हानि, जय, पराजय, दुःख, शोक, लोक, परलोक तय करते हैं।
हम इसके लिये ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

Sanjay Gupta

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[31/12, 5:03 p.m.] संस्कृति ईबुक्स: न देवो विद्यते काष्ठे
न पाषाणे न मृण्मये।
भावेषु विद्यते देवः
तस्मात् भावो हि कारणम्॥(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०)

The Lord lives not in the wooden carving
Nor in the sculpture made of stone or clay;
The Lord lives in our thoughts,
And it is through our thoughts that we see him dwell in everything.

‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये ।’
[31/12, 6:20 p.m.] संस्कृति ईबुक्स: : नारायण हरि :

“तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
    किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
    स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥“

भगवान्‌ तो सभी कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसार में क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥

…..श्रीमद्भागवत ३.१३.४९

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એકવાર તો અચૂક વાંચજો 👇
…………..

એક નગરમાં રાજાએ ફરમાન કરેલું કે આ નગરના કોઈ પુરુષે કદી ખોંખારો ખાવો નહીં. ખોંખારો ખાવો એ મર્દનું કામ છે અને આપણા નગરમાં મર્દ એકમાત્ર રાજા છે. બીજો કોઈ પણ ખોંખારો ખાશે તો તેણે એક સોનાની ગીનિનો દંડ ભરવો પડશે. નગરમાં સૌએ ખોંખારો ખાવાનું બંધ કરી દીધું, પણ એક મર્દ બોલ્યો, ખોંખારો ખાવો એ તો મર્દનો જન્મસિદ્ધ હક છે. હું ખોંખારો ખાઈશ. તે મર્દ દરરોજ રાજમહેલ પાસેથી પસાર થાય, ખોંખારો ખાય અને એક ગીનિનો દંડ ચૂકવીને આગળ ચાલે. બે-ત્રણ વરસ વીત્યાં. એક વખત તે મર્દ ત્યાંથી ખોંખારો ખાધા વગર જ ચૂપચાપ ચાલવા માંડ્યો.
કોઈએ પૂછ્યું, ‘ભાઈ, શું થયું? રૂપિયા ખૂટી પડ્યા કે મર્દાનગી ઊતરી ગઈ? આજે તમારો ખોંખારો કેમ શાંત થઈ ગયો?’
પેલો મર્દ બોલ્યો, ‘આજે મારે ઘેર દીકરીનો જન્મ થયો છે. આપણા સમાજમાં દીકરીના બાપને મર્દાનગી બતાવવાનું નથી શોભતું. દુનિયાના વહેવારોમાં દીકરીના બાપે ખોંખારા નહીં, ખામોશી ખાવાની હોય છે. મારી પાસે રૂપિયાય નથી ખૂટયા કે મારી મર્દાનગી પણ નથી ઊતરી ગઈ, પણ દીકરીના બાપને ખોંખારા ન શોભે, ખાનદાની શોભે.
મારે ઘેર દીકરીએ જન્મ લઈને મારી ખુમારીના માથે ખાનદાનીનો મુગટ મૂક્યો છે.’
દીકરીના બાપ થવાનું સદભાગ્ય ભગવાન શંકર, રામ અને કૃષ્ણનેય નથી મળ્યું. કદાચ એટલે જ એમણે ત્રિશૂલ, ધનુષ્ય અને સુદર્શન ચક્ર જેવાં હથિયારો હાથમાં લેવાં પડ્યાં હશે.
શસ્ત્ર પણ શક્તિ છે. શક્તિ સ્ત્રીલિંગ છે. દીકરીની શક્તિ ન મળી હોય તેણે શસ્ત્રથી ચલાવી લેવું પડે છે. ભગવાન મહાવીરને દીકરી હતી.
એનું નામ પ્રિયદર્શના. મહાવીરે શસ્ત્ર હાથમાં ન લીધું. તેમણે જગતને કરુણાનું શાસ્ત્ર આપ્યું. સંસારને કાં તો શસ્ત્ર જોઈએ કાં તો શાસ્ત્ર જોઈએ.
દીકરી હોય ત્યાં શસ્ત્રની ગરજ ટળી જાય.

ગમ્યુ હોય તો અચૂક શું કરસો તે થોડુ કેવુ પડે……

😉😉😉

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#प्रसंगवश★

1970 के दशक में तिरुवनंतपुरम में समुद्र के पास एक बुजुर्ग भागवत गीता पढ़ रहे थे तभी एक नास्तिक और होनहार नौजवान उनके पास आकर बैठा।

उसने उन पर कटाक्ष किया कि लोग भी कितने मूर्ख है,विज्ञान के युग मे गीता जैसी ओल्ड फैशन्ड बुक पढ़ रहे है?

उसने उन सज्जन से कहा कि यदि आप यही समय विज्ञान को दे देते तो अब तक देश ना जाने कहाँ पहुँच चुका होता।

उन सज्जन ने उस नौजवान से परिचय पूछा तो उसने बताया कि वो कोलकाता से है और विज्ञान की पढ़ाई की है।

अब यहाँ भाभा परमाणु अनुसंधान में अपना कैरियर बनाने आया है।

आगे उसने कहा कि आप भी थोड़ा ध्यान वैज्ञानिक कार्यो में लगाये भागवत गीता पढ़ते रहने से आप कुछ हासिल नही कर सकोगे।

वे मुस्कुराते हुए जाने के लिये उठे, उनका उठना था की 4 सुरक्षाकर्मी वहाँ उनके आसपास आ गए।

आगे ड्राइवर ने कार लगा दी जिस पर लाल बत्ती लगी थी, लड़का घबराया और उसने उनसे पूछा आप कौन है?

उन सज्जन ने अपना नाम बताया ‘विक्रम साराभाई’
जिस भाभा परमाणु अनुसंधान में लड़का अपना कैरियर बनाने आया था उसके अध्यक्ष वही थे।

उस समय विक्रम साराभाई के नाम पर 13 अनुसंधान केंद्र थे।

साथ ही साराभाई को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने परमाणु योजना का अध्यक्ष भी नियुक्त किया था।

अब लड़का शर्मसार हो गया और वो साराभाई के चरणों मे रोते हुए गिर पड़ा।

तब साराभाई ने बहुत अच्छी बात कही।

★उन्होंने कहा कि “हर निर्माण के पीछे निर्माणकर्ता अवश्य है।★

★इसलिए फर्क नही
पड़ता ये महाभारत है या आज का भारत,ईश्वर को कभी मत भूलो!”★

आज नास्तिक गण विज्ञान का नाम लेकर कितना ही नाच ले मगर इतिहास गवाह है कि विज्ञान ईश्वर को मानने वाले आस्तिकों ने ही रचा है।

★ईश्वर शाश्वत सत्य है।

इसे झुठलाया कतई नही जा सकता।

इनकी आराधना करने मात्र
से संकट दूर हो सकता है।★
#समाधानblogspot★

विक्रम साराभाई की जन्म तिथि
12 अगस्त को पड़ती है।

सदा सर्वदा सुमङ्गल,
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्रीराम,
विजय कृष्ण पांडेय

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श्री रामचन्द्र जी के १४ वर्षों की वनवास यात्रा का प्रामाणिक विवरण…..

पुराने उपलब्ध प्रमाणों और राम अवतार जी के शोध और अनुशंधानों के अनुसार कुल १९५ स्थानों पर राम और सीता जी के पुख्ता प्रमाण मिले हैं जिन्हें ५ भागों में वर्णित कर रहा हूँ

१.वनवास का प्रथम चरण गंगा का अंचल ,,,सबसे पहले राम जी अयोध्या से चलकर तमसा नदी (गौराघाट,फैजाबाद,उत्तर प्रदेश) को पार किया जो अयोध्या से २० किमी की दूरी पर है।

आगे बढ़ते हुए राम जी ने गोमती नदी को पर किया और श्रिंगवेरपुर (वर्त्तमान सिंगरोर,जिला इलाहाबाद )पहुंचे …आगे 2 किलोमीटर पर गंगा जी थीं और यहाँ से सुमंत को राम जी ने वापस कर दिया ।
बस यही जगह केवट प्रसंग के लिए प्रसिद्ध है।

इसके बाद यमुना नदी को संगम के निकट पार कर के राम जी चित्रकूट में प्रवेश करते हैं|

वाल्मीकि आश्रम,मंडव्य आश्रम,भारत कूप आज भी इन प्रसंगों की गाथा का गान कर रहे हैं।

भारत मिलाप के बाद राम जी का चित्रकूट से प्रस्थान ,भारत चरण पादुका लेकर अयोध्या जी वापस |

अगला पड़ाव श्री अत्रि मुनि का आश्रम२.बनवास का द्वितीय चरण दंडक वन(दंडकारन्य) घने जंगलों और बरसात वाले जीवन को जीते हुए राम जी सीता और लक्षमण सहित सरभंग और सुतीक्षण मुनि के आश्रमों में पहुचते हैं।

नर्मदा और महानदी के अंचल में उन्होंने अपना ज्यादा जीवन बिताया ,पन्ना ,रायपुर,बस्तर और जगदलपुर में
तमाम जंगलों ,झीलों पहाड़ों और नदियों को पारकर राम जी अगस्त्य मुनि के आश्रम नाशिक पहुँचते हैं।
जहाँ उन्हें अगस्त्य मुनि, अग्निशाला में बनाये हुए अपने अशत्र शस्त्र प्रदान करते हैं।rpd

३.वनवास का तृतीय चरण गोदावरी अंचल ,,,,अगस्त्य मुनि से मिलन के पश्चात राम जी पंचवटी (पांच वट वृक्षों से घिरा क्षेत्र ) जो आज भी नाशिक में गोदावरी के तट पर है यहाँ अपना निवास स्थान बनाये |यहीं आपने तड़का ,खर और दूषण का वध किया।

यही वो “जनस्थान” है जो वाल्मीकि रामायण में कहा गया है …आज भी स्थित है नाशिक में जहाँ मारीच का वध हुआ वह स्थान मृग व्यघेश्वर और बानेश्वर नाम से आज भी मौजूद है नाशिक में |
इसके बाद ही सीता हरण हुआ ….जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पार हुई जो इगतपुरी तालुका नाशिक के ताकीद गाँव में मौजूद है।

दूरी ५६ किमी नाशिक से इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया क्यों की यहीं पर मरणसन्न जटायु ने बताया था की सम्राट दशरथ की मृत्यु हो गई है …और राम जी ने यहाँ जटायु का अंतिम संस्कार कर के पिता और जटायु का श्राद्ध तर्पण किया था।

यद्यपि भारत ने भी अयोध्या में किया था श्राद्ध ,मानस में प्रसंग है “भरत किन्ही दस्गात्र विधाना ”

४.वनवास का चतुर्थ चरण तुंगभद्रा और कावेरी के अंचल में सीता की तलाश में राम लक्षमण जटायु मिलन और कबंध बाहुछेद कर के ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढे ….
रास्ते में पंपा सरोवर के पास शबरी से मुलाकात हुई और नवधा भक्ति से शबरी को मुक्ति मिली |जो आज कल बेलगाँव का सुरेवन का इलाका है और आज भी ये बेर के कटीले वृक्षों के लिए ही प्रसिद्ध है।

चन्दन के जंगलों को पार कर राम जी ऋष्यमूक की ओर बढ़ते हुए हनुमान और सुग्रीव से मिले ,सीता के आभूषण प्राप्त हुए और बाली का वध हुआ ….ये स्थान आज भी कर्णाटक के बेल्लारी के हम्पी में स्थित है |

५.बनवास का पंचम चरण समुद्र का अंचल,,,,,कावेरी नदी के किनारे चलते ,चन्दन के वनों को पार करते कोड्डीकराई पहुचे पर पुनः पुल के निर्माण हेतु रामेश्वर आये जिसके हर प्रमाण छेदुकराई में उपलब्ध है।

सागर तट के तीन दिनों तक अन्वेषण और शोध के बाद राम जी ने कोड्डीकराई और छेदुकराई को छोड़ सागर पर पुल निर्माण की सबसे उत्तम स्थिति रामेश्वरम की पाई ….और चौथे दिन इंजिनियर नल और नील ने पुल बंधन का कार्य प्रारम्भ किया।

संजय गुप्ता

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चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

गोस्वामी तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के राजापुर गांव में सन् 1554 की श्रावण मास की अमावस्या के सातवें दिन हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम और माता का नाम हुलसी देवी था। कहा जाता है कि तुलसीदास का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था जिसकी वजह से वह काफी हृष्ट पुष्ट थे।

तुलसीदास ने जब पहला शब्द बोला वह राम था। इसलिए उनका घर का नाम ही रामबोला पड़ गया था। माँ तो जन्म देने के बाद दूसरे ही दिन चल बसीं, पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गए। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।

बचपन में इतनी परेशानियां और मुश्किलें झेलने के बाद भी तुलसीदास ने कभी भगवान का दामन नहीं छोडा और उनकी भक्ति में हमेशा लीन रहे। उसी समय रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी ने रामबोला के नाम से बहुचर्चित इस बालक को ढूंढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रख उन्हें शिक्षा दी।

21 वर्ष की आयु में तुलसीदास का विवाह यमुना के पार स्थित एक गांव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली से कर दी गई। एक रात अंधेरे में वह अपनी पत्नी के घर उससे मिलने तो पहुंच गए पर उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। जिसे देख रत्नावली ने एक दोहा कहा, जो इस प्रकार है…

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?

अर्थात जितना प्रेम मेरे इस हाड-मांस के बने शरीर से कर रहे हो, उतना स्नेह यदि प्रभु राम से करते, तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती।

यह सुनते ही तुलसीदास की चेतना जागी और उसी समय से वह प्रभु राम की वंदना में जुट गए। इसके बाद तुलसीराम को तुलसीदास के नाम से पुकारा जाने लगा।

कुछ समय बाद वो काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया. हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की. हनुमानजी ने कहा- “तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी के दर्शन होंगें.” इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए. उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी हनुमान्‌जी ने आकर उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे।

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुद्धवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-”बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?” हनुमान ‌जी ने सोचा,कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा…

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर.
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गए। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

सन् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया. वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी, वे उठकर बैठ गये। rpd

यह सुनकर सन् 1631 में तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ की रचना शुरु की। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत्‌ 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए।

इसके बाद तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान्‌ विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया- ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ जिसके नीचे भगवान्‌ शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ की आवाज भी कानों से सुनी।

सन 1680 में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने “राम-राम” कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

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संजय गुप्ता

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Happy 2⃣0⃣1⃣8⃣
मैंने  भगवान  से  कहा-  मेरे इस दोस्त को  खुश  रखना l
2⃣0⃣1⃣8⃣
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भगवान  बोले-  ठीक  है,  पर  सिर्फ  4  दिन  के  लिए……
वो  चार  दिन  तू  बता……
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मैंने  कहा  ठीक  है……
1)  Summer  Day
2)  Winter  Day
3)  Rainy  Day
4)  Spring  Day
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भगवान  confused  हो  गए  और  बोले-  नहीं  सिर्फ  3  दिन……
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मैंने  कहा  ठीक  है……
1)  Yesterday
2)  Today
3)  Tomorrow
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भगवान  फिर  confused  होकर  बोले-  सिर्फ  दो  दिन……
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मैंने  कहा  ठीक  है……
1)  Current Day
           और
2)  Next  Day
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भगवान्  फिर  confused  होकर  बोले-  नहीं  सिर्फ  1  दिन……
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मैंने  कहा
1)  Everyday
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भगवान  हंसने  लगे  और  बोले- अच्छा  बाबा  मेरा  पीछा  छोड़ो  तुम्हारा  दोस्त  सदा  खुश  रहेगा l
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…😋
…😋
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Miss  you  Dear……
ये  मैसेज  अपनी  लाईफ  के  Sweet  Friend /sis /bro को  send  करिए……
मुझे  भी  करिए  अगर  मैं  हूं  तो ?
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…😋
…😋
…😋
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अगर  आपको  6  लोगों  के  मैसेज  वापस  आये  तो……
You  are  so Lucky…

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💕💘एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद,💘💕
💘💕श्री कृष्ण को दूध पीने को दिया।💕💘

💘💕दूध ज्यदा गरम होने के कारण
श्री कृष्ण के हृदय में लगा💕💘
और
उनके श्रीमुख से निकला-
” हे राधे ! “😀💕💘

💕💘सुनते ही रुक्मणी बोली-
प्रभु !
ऐसा क्या है राधा जी में,
जो आपकी हर साँस पर उनका ही नाम होता है ?💕💘

💕💘मैं भी तो आपसे अपार प्रेम करती हूँ…
फिर भी,
आप हमें नहीं पुकारते !!💕💘

👩‍❤‍👩💘💕श्री कृष्ण ने कहा -देवी !
आप कभी राधा से मिली हैं ?
और मंद मंद मुस्काने लगे…💕💘

💕💘अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके महल में पहुंची ।💕💘

💕राधाजी के कक्ष के बाहर अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा…💘
और,
उनके मुख पर तेज होने कारण उसने सोचा कि-
💕💘ये ही राधाजी है और उनके चरण छुने लगी !💕💘

💕💘तभी वो बोली -आप कौन हैं ?💕💘

💕💘 रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण बताया…💕💘

💘💕तब वो बोली-
मैं तो राधा जी की दासी हूँ।💘💕

💘💕राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको मिलेंगी !!💘💕

💕💘रुक्मणी ने सातो द्वार पार किये…
और,💕💘
💕💘हर द्वार पर एक से एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही थी क़ि-💕💘
💕💘अगर उनकी दासियाँ इतनी रूपवान हैं…💕💘
तो,
राधारानी स्वयं कैसी होंगी ?💕💘

💕💘सोचते हुए राधाजी के कक्ष में पहुंची…💕💘

कक्ष👩 में राधा जी को देखा-
अत्यंत रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज चमक रहा था।💕💘
रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ी…💘

पर,
💕ये क्या राधा जी के पुरे शरीर पर तो छाले पड़े हुए है !👩

👩💕रुक्मणी ने पूछा-
देवी आपके  शरीर पे ये छाले कैसे ?💘

💘तब👩 राधा जी ने कहा-
देवी !💕
कल आपने कृष्णजी को जो दूध दिया…💕💘
वो ज्यदा गरम था !💘

💕💘जिससे उनके ह्रदय पर छाले पड गए…💘
और,
उनके💘 ह्रदय में तो सदैव मेरा ही वास होता है..!!👩

💕इसलिए कहा जाता है-💘

💕बसना हो तो…
‘ह्रदय’ में बसो किसी के..!👩

‘💕💘दिमाग’ में तो..
लोग खुद ही बसा लेते है..!!👩

              
❄❄❄❄❄❄❄
╔══════════════════╗
║    ❤💋प्रेम से कहिये जय श्री राधे  ║💋❤
╚══════════════════
💋💘💕ये sms अपने जीवन के अच्छे दोस्तों को भेजो, मुझे भी करना अगर मैं हूँ तो? अगर 6 sms आपको वापिस आये तो 💕💘💋
U r so lucky…👍💘👍👍👍👍……..

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गृहस्थी और महात्मा की सोच 

एक राजा की एक महात्मा पर बहुत श्रृद्धा थी । राजा संत सेवा के महत्व को जानता था । उस ने महात्मा जी के रहने के लिए अपने महल के समान एक बहुत बड़ा भवन बनवा दिया । उस भवन के सामने अपने उद्यान जैसा उद्यान बनवा दिया । हाथी घोड़े रथ आदि दे दिए । सेवा के लिए सेवक नियुक्त कर दिए । अपने समान अनेक सुख-सुविधाएं उस राजा ने महात्मा जी के लिए जुटा दीं । राजा महात्मा जी के पास जाता रहता था जिसकी वजह से वह महात्मा जी से काफी खुल गया था । वह कभी कभी उनसे हंसी मजाक भी कर दिया करता था ।

एक  दिन राजा ने महात्मा जी से पूछा कि हम दोनों के पास सुख-सुविधा कि सभी वस्तुएं मौजूद हैं अब आप में और मुझ में अंतर क्या रहा । महात्मा समझ गए कि राजा के हृदय में बाहरी जीवन का ही महत्व है । महात्मा जी राजा से बोले, राजन, इसका उत्तर कुछ समय बाद आपको मिल जाएगा ।

कुछ दिन बाद राजा महात्मा जी से मिलने गया तो महात्मा जी ने राजा से सैर पर चलने का आग्रह किया । महात्मा की बात पर राजा तुरंत तैयार हो गया । महाराज जी राजा के साथ वन की ओर चल दिए । जब दोनों काफी आगे निकल गए तब महात्मा राजा से बोला हे राजन, मेरी इच्छा इस नगर में लौटने की नहीं है । हम दोनों सुख-वैभव तो बहुत भोग चुके हैं । मेरी इच्छा है कि अब हम दोनों यही मन में रहकर भगवान का भजन करें । राजा तुरंत बोला,  भगवन ! मेरा राज्य है, मेरी पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, मैं वन में कैसे रह सकता हूं? महात्मा जी हंसकर बोले, राजन, मुझ में और आप में यही अंतर है । बाहर से एक जैसा व्यवहार होते हुए भी असली अंतर, मन की आसक्ति का होता है । भोगों में जो आसक्त  है, वह वन में रहकर भी संसारी है । जो भोगों में आसक्त नहीं है, वह घर में रहकर भी विरक्त  है ।

गृहस्थ को संत-महापुरूषों से अपनी तुलना कदापि नहीं करनी चाहिए। वे त्याग, वैराग्य, परहित, निस्वार्थ सेवा की पराकाष्ठा हैं।

त्राहि माम्‍-माम्‍ त्राहि माम्‍-माम्‍ त्राहि माम्‍-माम्‍
कोटि-कोटि वंदन श्री सदगुरू देव जी महाराज ।