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दो हजार वर्ष पहले की बात।
शत्रुओं ने यूनान के एक नगर पर विजय पायी और निवासियों को नगर छोड़ने की आज्ञा दी। यद्यपि उनकी वीरता से वे प्रभावित थे, बहुत प्रभावित थे। और इसी कारण उन्होंने इतनी सुविधा दी कि वे अपने साथ जो भी और जितना भी ले जा सकें, ले जाएं।
पूरा नगर अपना—अपना सामान अपनी पीठ पर लादकर—और उसके लिए रोता हुआ जो नहीं लादा जा सका—दूसरे नगर की ओर चलने लगा। बोझ से सभी की कमर झुकी जा रही थी, पांव लडखडा रहे थे, प्यास से सूखे कंठ थे, लेकिन प्रत्येक ने अपनी सामर्थ्य से अधिक बोझ लादा हुआ था।
स्वभावत:, तुम्हारे गाव पर शत्रुओं का हमला हो जाए और फिर शत्रु कहें कि जितना तुम अपनी पीठ पर लादकर ले जा सकते हो, बस उतना ले जाओ, तो क्या तुम ऐसा आदमी पा सकोगे जो अपने योग्य लादे?
प्रत्येक अपने से ज्यादा लाद लेगा। जिन्होंने कभी सामान नहीं ढोया था, वे भी भारी गट्ठर लादे हुए चल रहे थे। सोना था, चांदी थी, रुपये थे, आभूषण थे, हीरे—जवाहरात थे और हजार तरह की बहुमूल्य चीजें थीं। और रो भी रहे थे, क्योंकि बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। अपना पूरा घर तो लाद नहीं सकते।
बहुत कुछ छोड़ आना पड़ा था। जो छोड़ आए, उसके लिए रो रहे थे; और जो ले आए, उससे दबे जा रहे थे। दोनों में मौत थी। छोड़ आए उसके लिए दुख था, ले आए उससे दुखी हो रहे थे।
उस पूरे यात्री—दल में केवल एक ही पुरुष ऐसा था जिसके पास ले जाने को कोई सामान न था। वह खाली हाथ, सिर ऊपर उठाए छाती सीधी ताने बड़ी शांति से चल रहा था। इतना ही नहीं, उस रोती भीड़ में वह अकेला आदमी था जो गीत गुनगुना रहा था। यह था दार्शनिक बायस।
एक स्त्री ने बड़े करुणापूर्ण स्वर में कहा, ओह! बेचारा कितना गरीब है। इसके पास ले जाने को भी कुछ नहीं?
क्योंकि भिखारी भी लादे हुए थे अपना— अपना गट्ठर। भिखारी भी इतना भिखारी थोड़े ही है कि कुछ भी लादने को न हो। कम होगा लादने को, बहुत कम होगा, लेकिन होगा तो। भिखारियों ने भी अपनी गड़ी संपत्ति खोद ली थी।
वे भी उसे लादकर चल रहे थे। यह बायस अकेला आदमी था जिसके पास कुछ भी नहीं था, जो खाली हाथ था, जो मुक्तमना।
जो पीछे लौटकर भी नहीं देख रहा था। पीछे कुछ था ही नहीं तो लौटकर क्या देखना। और जिस पर कोई बोझ भी न था।
एक स्त्री दया से बोली, आह, बेचारा कितना गरीब है! इसके पास ले जाने को कुछ भी नहीं? रहस्यवादी बायस बोला, अपने साथ अपनी सारी पूंजी ले चल रहा हूं।
मुझ पर दया मत करो, दया योग्य तुम हो।
स्त्री चौंकी, उसने कहा, मुझे कोई पूंजी दिखायी नहीं पड़ती। कैसी पूंजी? किस पूंजी की बात कर रहे हो? होश में हो? कि निर्धन हो और पागल भी हो? बायस खिलखिलाकर हंसने लगा, उसने कहा, मेरा ध्यान मेरी पूंजी है, मेरा आचरण मेरी पूंजी है, मेरी आत्मा की पवित्रता मेरी पूंजी है। उसे शत्रु छीन नहीं सकते हैं। उसे कोई मुझसे अलग नहीं कर सकता। मैंने वही कमाया है जो मुझसे अलग न किया जा सके। तुमने वह कमाया है जो तुमसे कभी भी अलग किया जा सकता है। और जो अलग किया जा सकता है वह मौत के क्षण में यहीं पड़ रह जाएगा। जो अलग किया जा सकता है, उससे शांति नहीं मिलती, सुख नहीं मिलता। जो अलग नहीं किया जा सकता, वही अदृश्य शांति लाता है, सुख लाता है। यह अदृश्य पूंजी ही ऐसी पूंजी है जिसका कोई बोझ नहीं होता। शरीर की पूंजी बोझ देती है, आत्मा की पूंजी कोई बोझ नहीं देती।
तो तुम कहते हो, ‘मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। ‘
जिसको तुम सब कह रहे हो, इसके कारण ही अशांति है। शांति तो दूर, इसके कारण ही अशांति है। और जिसको तुम पूंजी कहते, पद कहते, प्रतिष्ठा कहते, इसी के कारण तुम दुखी हो।
सुख तो बहुत दूर, सुख की तो बात ही छोड़ो, इससे तो दुख ही दुख पैदा हुआ है।
कांटे ही कांटे पैदा हुए हैं। संताप और चिंताएं।

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बुद्ध ने कहा है, एक गांव से मैं गुजरता था।
नदी के किनारे बहुत से बच्चे रेत के घर बना रहे थे। बुद्ध रुक गए। वे देखते रहे। बड़ी लड़ाई-झगड़ा।
बड़ा तूलत्तबाद।
क्योंकि किसी का घर किसी के पैर की चोट से गिर जाता। घर ही! या कोई जानकर भी किसी के घर को धक्का मार देता और तोड़ने का मजा ले लेता।
अकड़, अहंकार! और बच्चे लड़ते और जूझ जाते। एक-दूसरे के कपड़े फाड़ दिए, मार-पीट हो गयी।
रेत के घर!
पर जब आदमी खेल खेलता है तो रेत के घर भी असली हो जाते हैं। शतरंज के हाथी-घोड़े असली हो जाते हैं। तलवारें खिंच जाती हैं। बड़े-बूढ़ों में खिंच जाती हैं। तो ये तो छोटे-छोटे बच्चे थे।
फिर बुद्ध ने कहा, मैंने देखा कि कोई स्त्री किनारे पर आयी, उसने जोर से आवाज दी और कहा कि बच्चो, तुम्हारी मां घर पर राह देख रही हैं, जाओ, सांझ होने लगी, सूरज ढल गया। बच्चों ने देखा, सूरज ढल गया है, रात होने लगी, भागने लगे–अपने ही घरों को अपने ही पैरों से रौंदते हुए।
फिर न कोई झगड़ा, फिर न कोई फसाद।
घर का आमंत्रण आ गया। और फिर सांझ हो गयी, सूरज ढलने लगा, रात उतरने लगी। यही घर क्षणभर पहले झगड़े का कारण बने थे।
कोर्ट-कचहरी हो रही थी। यही घर क्षणभर बाद अपने ही पैरों से रौंद दिए गए।
एक बार तुम्हें जगत माया है, ऐसा दिखायी पड़ जाए, तो फिर जो सत्य है, जो ब्रह्म है, उसकी संभावना का द्वार खुलता है।
एस धम्मो सनंतनो।

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समर्पण ( एक छोटी सी कहानी )

एक बुढ़िया जो कुछ उसके पास होता सभी परमात्मा पर चढ़ा देती। यहां तक कि सुबह वह जो घर का कचरा वगैरह फेंकती, वह भी घूरे पर जाकर कहती: तुझको ही समर्पित। लोगों ने जब यह सुना तो उन्होंने कहा, यह तो हद हो गई ! फूल चढ़ाओ, मिष्ठान चढ़ाओ…कचरा ?

एक फकीर गुजर रहा था, उसने एक दिन सुना कि वह बुढ़िया गई घूरे पर, उसने जाकर सारा कचरा फेंका और कहा: हे प्रभु, तुझको ही समर्पित! उस फकीर ने कहा कि बाई, ठहर ! मैंने बड़े—बड़े संत देखे…….तू यह क्या कह रही है ?
उसने कहा, मुझसे मत पूछो; उससे ही पूछो। जब सब दे दिया तो कचरा क्या मैं बचाऊं ? मैं ऐसी नासमझ नहीं।

उस फकीर ने उस रात एक स्वप्न देखा कि वह स्वर्ग ले जाया गया है। परमात्मा के सामने खड़ा है। स्वर्ण—सिंहासन पर परमात्मा विराजमान है। सुबह हो रही है, सूरज ऊग रहा है, पक्षी गीत गाने लगे—सपना देख रहा है—और तभी अचानक एक टोकरी भर कचरा आ कर परमात्मा के सिर पर पड़ा और उसने कहा कि यह बाई भी एक दिन नहीं चूकती! फकीर ने कहा कि मैं जानता हूं इस बाई को। कल ही तो मैंने इसे देखा था और कल ही मैंने उससे कहा था कि यह तू क्या करती है?
लेकिन घंटे भर वहां रहा फकीर, बहुत—से लोगों को जानता था जो फूल चढ़ाते हैं, मिष्ठान्न चढ़ाते हैं, वे तो कोई नहीं आए। उसने पूछा परमात्मा को कि फूल चढ़ाने वाले लोग भी हैं…सुबह ही से तोड़ते हैं, पड़ोसियों के वृक्षों में से तोड़ते हैं। अपने वृक्षों के फूल कौन चढ़ाता है! आसपास से फूल तोड़कर चढ़ाते हैं……उनके फूल तो कोई गिरते नहीं दिखते ?

परमात्मा ने उस फकीर को कहा, जो आधा—आधा चढ़ाता है, उसका पहुंचता नहीं। इस स्त्री ने सब कुछ चढ़ा दिया है, कुछ नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा दिया है। समग्र जो चढ़ाता है, उसका ही पहुंचता है।
घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। पसीने—पसीने हो रहा था, छाती धड़क रही थी। क्योंकि अब तक की मेहनत, उसे याद आया कि व्यर्थ गई। मैं भी तो छांट—छांट कर चढ़ाता रहा।

!!समर्पण समग्र ही हो सकता है!!
🌹🌹👁🌞👁🌹🌹💲
-ओशो-
#ध्यान_meditation #ओशो #महावीर

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एक आदमी की एक नन्हीं बिटिया थी—इकलौती, अत्यंत लाडली।
वह उसी के लिए जीता था, वही उसका  जीवन थी।
सो जब वह बीमार पड़ी और अच्छे से अच्छे वैद्य—हकीम भी उसे अच्छा न कर सके, तो वह करीब—करीब बावला सा हौ गया और उसे अच्छा करने के लिए उसने आकाश—पाताल एक कर दिया।
मगर सारे प्रयत्न व्यर्थ गए, बच्ची अंतत: मर गयी।
पिता की मानसिक स्वस्थता नष्ट हो गयी।
उसके मन में तीव्र कटुता भर गयी।
उसने स्वजन, मित्र, सबसे काटकर अपने को अलग कर लिया। उसने द्वार—दरवाजे बंद कर दिए।
जिन—जिन बातों में उसे रस था, उसने सब बातें छोड़ दीं। जीवन का सारा क्रम अस्तव्यस्त हो गया।
मित्रों से मिलना बंद कर दिया, कामधाम बंद कर दिया, वह अपने घर में करीब—करीब कब की तरह घर को बना लिया, उसी में पड़ा रह गया।
एक रात उसे सपना आया। वह स्वर्ग में पहुंच गया था। वहां उसे छोटे—छोटे बाल देवदूतों का एक जुलूस दिखायी दिया। एक श्वेत सिंहासन के पास से उनकी अंतहीन पंक्ति चलती जा रही थी।
सफेद चोला पहने हुए हर एक बाल देवदूत के पास जलती हुई मोमबत्ती थी।
परंतु उसने देखा कि एक बच्चे के हाथ की मोमबत्ती बिना जलायी हुई है—हर एक बाल देवदूत एक मोमबत्ती को हाथ में लिए चल रहा है, सफेद वस्त्र पहने एक अंतहीन पंक्ति गुजर रही है—लेकिन एक देवदूत के हाथ में बत्ती बुझी हुई है। फिर उसने देखा कि प्रकाशहीन मोमबत्ती वाली वह बालिका तो उसी की बिटिया है। वह उसकी ओर लपका।
जुलूस थम गया, उसने बालिका को बाहों में भर लिया, प्यार से उसको सहलाया और पूछा, बेटी, सिर्फ तुम्हारी ही मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है? पिताजी ये लोग तो इसे बार—बार जलाते हैं, पर आपके आसू इसे बार—बार बुझा देते हैं।
और तभी आदमी की नींद टूट गयी।
संदेश स्पष्ट था, उसका उस पर गहरा प्रभाव पड़ा।
उस दिन से वह स्वात की कैद से निकलकर, फिर से आनंदपूर्वक पहले की तरह अपने पुराने मित्रों, संबंधियों से मिलने—जुलने लगा।
अब उसकी लाडली बिटिया की मोमबत्ती उसके व्यर्थ आसुओ से बुझती नहीं थी।
सपना है। सपना तुम्हारा है। सपना इशारा देता है। सपना तुम्हारे अचेतन से उठता है।
इस आदमी ने यह सपना देखा। ऐसा नहीं है कि यह कहीं कोई सच में स्वर्ग पहुंच गया, कि वहां इसकी बिटिया इसको दिखायी पड़ गयी बुझी मोमबत्ती ले जाती’ हुई। लेकिन इसके अचेतन ने इसे खबर दी कि तुम मूढ़ता कर रहे हो, तुम व्यर्थ की मूढ़ता कर रहे हो, इसमें कुछ सार नही है। ये आसू अब कब तक रोते रहोगे? इसके अचेतन ने एक संकेत भेजा। यह सपना इसी का संकेत है कि तुम्हारे आसू गिर रहे तुम्हारी लड़की की मोमबत्ती पर, उसकी रोशनी बुझ—बुझ जाती है, अब यह बंद करो। क्योंकि तुम दुखी हो, तो तुमने जिससे प्रेम किया है वह दुखी होगा। तुम दुखी हो तो तुम सारे जगत को दुख में उतार रहे हो। तुम दुख की सीढ़ी बन रहे हो।
इसको बात खयाल में आ गयी। फिर जीना उसने शुरू किया, फिर अपने को फैलाया, फिर रोशनी में आया, फिर फूल देखे, फिर चांद—तारे देखे, फिर नाचा होगा, फिर गीत गाया होगा, फिर मित्रों से मिला, फिर संबंध—सेतु बनाए, फिर जीने प्नगा। वह जो कब्र थी, उसके बाहर आ गया। इशारा काम कर गया। तुम्हारे स्वप्न पम्हारे अचेतन में चलती हुई उधेड़बुन की खबरें हैं।

कविता मिश्रा

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एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा –

“बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई ।
एक पलक के कारने, ना कलंक लग जाए ।”

अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला ।

जब यह बात गुरु जी ने सुनी । गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा – “बस कर, एक दोहे से तुमने वेश्या होकर सबको लूट लिया है ।”

जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे – “राजा ! इसको तू वेश्या मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।” यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

राजा की लड़की ने कहा – “पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?”

युवराज ने कहा – “पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।”

जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया – “क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।” फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा – “पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।” राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा – “मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?” उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि “हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।”

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है ।
केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

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अष्ट सिद्धियाँ

१ अणिमा :- अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता

२ महिमा :- अपने को बड़ा बना लेने की क्षमता

३ लघिमा :- अपने को हल्का बना लेने की क्षमता

४ ईशित्व :- हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना

५ वैशित्व:- जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता

६ प्रकाम्य:- कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता

७ प्राप्ति :- कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता

८ अंतर्मितत्व:- किसी भी वस्तु या जीव के अंतर्तत्व तथा

उसके स्वाभाव को जान लेने की क्षमता

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पोस्ट पढ़ने से पहले जान लेना पोस्ट की जाती नही होती और पोस्ट का किसी जाति से कोई लेना देना नही है

कुछ दिन पहले गाँव जाना हुआ, घर के पास एक “दलित बस्ती” है, जिसमें “हनुमान जी” का एक मंदिर बना हुआ है। बस्ती में मीटिंग हुयी कि मंदिर पर पाठ, हवन और भंडारा करवाया जाए। बस्ती के लोगों ने आपसी सहयोग से सब इंतजाम कर लिया, बस एक कमी रह गयी थी कि पाठ व हवन करवाने के लिए एक पंडिज्जी की जरुरत थी। बस्ती के कुछ लोग इकठ्ठा होकर पहुंचे गाँव के मिशिर जी के यहां। मिशिर जी, ने फरियाद सुनी और व्यस्तता का कारण बताकर आने में असमर्थता जताई। लोग दूसरे पंडिज्जी के पास पहुंचे, उन्होंने भी वही कारण बताकर लोगों को टरका दिया। लोग तीसरे फिर चौथे पंडिज्जी के पास पहुंचे, सबने कुछ न कुछ कारण बताकर पाठ व हवन करने से मना कर दिया।

शाम को हमारे अनुरोध पर मिशिर जी, के घर के बाहर स्वघोषित सवर्णों की चौपाल लगी। मुद्दा जो उठाया गया वो था दलित बस्ती के, हनुमान मन्दिर पर होने वाले हवन व पाठ का। हम चाहते थे कि गाँव के ही कोई पंडिज्जी ही दलित बस्ती के हनुमान मन्दिर में हवन व पाठ का कार्य संपन्न करवाये।
“कौन जाए दलितों की बस्ती में, राम राम राम”, एक पंडिज्जी जी ने दोनों कानों पर उँगलियाँ लगाते हुए बोले।
“देखो भाई जाने में कोई बुराई नहीं, हवन पाठ कराना पडेगा तो, फिर जिमना भी पड़ेगा, दलितों के यहां खाना न भाई न, ये पाप न हो पायेगा हमसे”, मिशिर जी बोले।
“लेकिन मिशिर जी भंडारे का भोज तो प्रसाद होता है जिसे हलवाई बनाएंगे, जब भगवान का भोग लग गया तो पवित्र हो गया फिर जाने में क्या दिक्कत”, हमने याचना भरे स्वर में कहा।
एक पंडिज्जी गरमाये स्वर में बोले, “अरे दिक्कत कैसे नहीं है, अब हम इनके यहाँ खाये, ये दिन आ गए क्या अब हमारे, ऐसों का छुआ पाणी नहीं पीते हम जिमना तो दूर की बात है, कोई ब्राह्मण नहीं जाएगा इनकी बस्ती में”
सब पंडिज्जी लोगों ने इस बात पर सहमति से सर हिला कर एकता का परिचय दिया, चौपाल खत्म हो गयी।

हम उठकर घर की ओर चल दिये, घर न जाकर सीधा “दलित बस्ती” में पहुंचे, वहां भी चौपाल जमी थी। राम~राम श्याम~श्याम के बाद हमने बस्ती के मुखिया से पूछा “क्या दद्दा किसी पंडिज्जी की व्यवस्था हुयी”। मुखिया परेशान होकर बोले, “न हुई, आस-पास के गाँवों के पंडिज्जीयों से भी बात किये पर बात न बनी, हम ठहरे दलित मालिक साब, हमरे यहां कौन आएगा पाठ करवाने के लिए। अब कार्यक्रम की तैयारी रद्द करवानी पड़ेंगी”। बड़ा गुस्सा आ रहा था हमें इन पंडिज्जीयों पर, लेकिन गुस्से से समस्या का हल नहीं निकलेगा। ठन्डे दिमाग से विचार किया, कुछ देर बाद हमने मुखिया और बस्ती के लोगों को कहा “कार्यक्रम की तैयारी नहीं रुकनी चाहिए, कल हवन पाठ होगा हर हाल में होगा, सुबह आपकी बस्ती में एक पंड़ित होगा हवन पाठ करवाने को, तैयारी जारी रखो, ये हमरा वचन है आप लोगों से”।

घर आकर फोन चार्जिंग से निकाला। एक मित्र का नंबर लगाया , “हेल्लो भारद्वाज… हां… हम बोल रहे हैं बे, हाँ यार गाँव से ही बोल रहे हैं, सुन एक काम है तुमसे, कल तड़के सुबह तुमको हमरे गाँव आना है, एक हवन और पाठ करवाना है।” एक साँस में हमने उसे पूरी समस्या कह डाली।
उसने पूछा “दलित बस्ती में?”
“हां यार दलित बस्ती में, सारे पंडिज्जीयों ने तो मना कर दिया, तू बता क्या बोलता है”।
“दलित बस्ती में है तो क्या हुआ आ जाऊंगा यार”।
“देख ले खाना पडेगा”।
“भगवान का प्रसाद है ख़ुशी खुशी खा लेंगे”।
“ठीक है तो आजा तड़के, तू हिंदूवादी है इसलिए तुझे बड़ी उम्मीद से फोन किया है, देख रह मत जइयो, तेरे दोस्त की नाक का सवाल है”।
“अबे चिंता न कर यार पौ फटते ही तेरे दरवाजे पर दिखूंगा”।

अपने वायदे के मुताबिक सुबह की लालिमा में भारद्वाज, धोती-कुरता पहने मोटरसाइकिल पर सवार घर के दरवाजे पर खड़ा था। हम भी नहा धो कर तैयार ही खड़े थे। उसे लेकर फटाफट से दलित बस्ती के हनुमान मन्दिर पहुँच गये। पंडिज्जी देखकर लोगों का उत्साह दूना हो गया। बुझे बुझे से चेहरे अब खिलने लगे और लोग दुगनी रफ़्तार से भंडारे के काम में जुट गए। भारद्वाज ने गद्दी संभाल ली, पूजा हवन की सामग्री जमा ली। कुछ देर बाद बस्ती के सेकड़ों लोग सुन्दरकाण्ड का पाठ बड़े चाव से सुन रहे थे।

उसके बाद हवन हुआ, लोगों ने बढ़ चढ़ कर अग्नि में होम किया। बारह बजते बजते भंडारे का समय हो गया। धर्मानुसार, पहले हनुमानजी को भोग लगाया गया। उसके बाद “भारद्वाज” को भोजन कराया गया। भारद्वाज ने भी छक कर भोजन किया। दक्षिणा के 501 रुपयों में भारद्वाज ने सिर्फ 1 रुपया ग्रहण कर प्रेम से 500 रूपये मन्दिर कमेटी को ही लौटा दिए। यहां तक की मोटरसाइकिल के पेट्रोल के लिए अतिरिक्त पैसा भी स्वीकार नहीं किया और ख़ुशी खुशी शहर को रवाना हो गया। सेकड़ों लोग भारद्वाज को गाँव के बाहर तक छोड़ने गये और जय श्री राम व हनुमान जी की जयजयकार के साथ भारद्वाज को विदा किया गया।

मोरल ऑफ़ द ट्रू स्टोरी ~ आखिर कोई अपना धर्म क्यों बदलता है? धर्म से उपेक्षित होने की वजह से simple है ना?

जिनका धर्म से कोई जुड़ाव ही नहीं हो उनको कोई भी आसानी से निशाना बना सकता है। जो धर्म, से गहरे तक जुड़े हैं, उनका धर्म परिवर्तन करवाने का माद्दा किसी में नहीं.  चाहे कोई जितना जोर लगा ले लेकिन जो उपेक्षित हैं, हाशिये पर धकेल दिए गए हैं ईसाई मिशनरी और मुस्लिम धर्म प्रचारक ऐसे ही उपेक्षित व धकेले गए लोगों को आसानी से अपना शिकार बना लेते है।

पहले धार्मिक रूप, से इन्हें सशक्त बनाने कोई आगे नहीं आएगा, इन पर कोई ध्यान नहीं रखेगा पर जब यही धार्मिक रूप से पिछड़े, उपेक्षित और अपमानित हिन्दू, धर्म बदलकर ईसाई या मुसलमान बनेंगे तो हिंदूवादी संगठन बुरी तरह से हाय-तौबा मचाएंगे।

जब यही लोग, आरिफ या जोनी बनकर हमारे यहां आएंगे जाएंगे तब हमें कोई दिक्कत नहीं। इन्हें आने वाले समय में आरिफ भाई, जोनी “ब्रो” कहकर होली, दिवाली, गले लगाएंगे पर आज इनसे दूर भागेंगे। फिर यही “आरिफ” और “जॉनी” जब तादात में होंगे, तो हिंदुओं का बैंड बजायेंगे।

याद रखिये, पेड़ आसानी से वही उखड़ते हैं जिनकी जड़ें गहरी नहीं होती और जिनकी जड़ें गहरी होती हैं, उन पेड़ों को आसानी से कोई उखाड़ भी नहीं पाता।

आज हमारी उपेक्षा से ये हालात पैदा हो गए हैं कि देश से पहले धर्म बचाना जरुरी बन पड़ा है। अगर हिन्दू घटा तो इस देश को मुगलिस्तान बनने से कोई नहीं रोक पायेगा। दुनिया में “हिंदुओं” का सिर्फ यही तो एकमात्र देश है। यहां भी सिमटकर रह गए तो ऐसे में सिर्फ दो रास्ते होंगे आपके सामने:

या तो आपको “अल्पसंख्यक” होकर पाकिस्तान जैसे हालातों का सामना करना पडेगा, या हिन्द महासागर में डूब कर जल समाधी लेनी पड़ेगी।

अपनी जड़ें गहरी कीजिये, ये दलित और पिछड़े हिन्दू आपकी जड़ें हैं, ये जितनी गहरी होंगी आप उतनी ही मजबूती से खड़े मिलोगे।
और जड़ें गहरी नहीं हुयी तो ये “जिहादीज” और “मिशनरीज” आपको उखाड़ के दम लेंगे।
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             भक्त मुनि उतंक
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(गत पोस्ट का शेष)
          सत्संग की महिमा अपार है ।व्याध पर महात्मा उतंक की वाणी का प्रभाव इतना अधिक पड़ा कि उसका हृदय पूर्णतया बदल गया ।वह पश्चाताप से व्याकुल होकर उन महात्मा के चरणों में गिर पड़ा।अपने घोर कर्मों का स्मरण करके फूट फूट कर रोने लगा ।वह कहने लगा—– ‘हाय ! मैं बड़ा अधम हूँ ।मैंने बड़े बड़े पाप किये हैं ।मेरी क्या गति होगी?  हे भगवान ! हे अधमों  को तारने वाले हरि! हे नारायण ! मुझ पर दया करो।तुमको छोड़ कर अब मुझे कौन सहारा दे सकता है ।’
           मारे दुःख के व्याध धड़ाम से गिर पड़ा और उसी समय उसकी मृत्यु हो गयी।दयालु उतंक जी ने व्याध के मृत शरीर पर भगवान का चरणोदक छिड़क दिया ।व्याध ने मरते समय पापों के लिये पश्चात्ताप किया था, भगवान का स्मरण किया था और उसके शरीर पर भगवान का चरणोदक पड़ा था, अतः  सभी पापों से छूटकर भगवान के परम धाम का अधिकारी हो गया ।भगवान के पार्षद विमान ले आये।दिव्य देह धारण करके विमान पर बैठकर भगवान के धाम को जाते समय उसने बार बार उतंक मुनि की स्तुति की।उनसे क्षमा माँगकर वह दिव्य धाम चला गया ।
            व्याध की यह सद्गति देखकर उतंक मुनि चकित हो गये ।भगवान की महिमा एवं उन दयामय की असीम दया का स्मरण करके उनका शरीर पुलकित हो गया ।गद्गद कंठ से वे भगवान की स्तुति करने लगे ।उन विद्वान महात्मा ने वेदविहित तत्त्वों से, भक्तिपूर्ण हृदय से भगवान की स्तुति बहुत देर तक की।उनके स्तवन से प्रभु प्रसन्न हो गये ।वे दयामय अपने परमभक्त उतंक के सामने प्रकट हो गये ।उतंक मुनि ने शोभासिंधु प्रभु के दर्शन किये ।भगवान के तेजोमय अद्भुत लावण्यधाम स्वरूप को देखकर मुनि के नेत्रों से आँसुओं की धारा चलने लगी ।उनकी वाणी बंद हो गयी।’मुरारि ! रक्षा करो, रक्षा करो।’ इतना ही वे कह सके और भगवान के चरणों पर गिर पड़े ।
          गरुणध्वज श्री हरि ने अपनी विशाल भुजाओं से मुनि को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ।भगवान ने कहा — ‘वत्स ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ ।तुम्हारे लिए अब कुछ भी असाध्य नहीं है।तुम जो चाहो,  वह माँग  लो।’
            मुनि ने बड़ी नम्रता से  कहा —

किं मां मोहयसीश त्वं किमन्यैर्दैव मे वरैः।
त्वयि भक्तिर्दृढा मेऽस्तु जन्मजन्मान्तरेष्वपि।।

कीटेषु पक्षिषु मृगेषु सरीसृपेषु,
रक्षःपिशाचमनुजेष्वपि यत्र यत्र।
जातस्य मे भवतु केशव ते प्रसादात्,
त्वय्येव भक्तिरचलाव्यभिचारिणी च।।
           (बृहन्नारदीयपु○ 38।48-49)

           ‘प्रभो ! आप मुझे मोहित क्यों करते हैं? मुझे कोई वरदान नहीं चाहिए ।जन्म – जन्मान्तर में मेरी आपके चरणों में अविचल भक्ति सदा बनी रहे ।मैं कीट-पतंग, पशु-पक्षी, सर्प–अजगर, राक्षस–पिशाच या मनुष्य — किसी भी योनि में रहूँ, हे केशव ! आपकी कृपा से आपमें मेरी सदा–सर्वदा अव्यभिचारिणी भक्ति बनी रहे ।’
            भगवान बहुत ही प्रसन्न हुए ।अपना दिव्य शंख मुनि के शरीर से स्पर्श कराके भगवान ने मुनि को भक्ति के वरदान के साथ परम दुर्लभ ज्ञान भी प्रदान किया ।मुनि की पूजा स्वीकार करके भगवान अन्तर्हित हो गये ।भक्तश्रेष्ठ उतंक मुनि शेष जीवन भगवान की सेवा में व्यतीत करके अन्त में भगवद्धाम पधार गये।
             (भक्त चरितांक)
              (कल्याण -40)

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एक दिन थॉमस एल्वा एडिसन जो कि प्रायमरी स्कूल का विद्यार्थी था, अपने घर आया और एक कागज अपनी माताजी को दिया और बताया:-
” मेरे शिक्षक ने इसे दिया है और कहा है कि इसे अपनी
माताजी को ही देना..!”
उक्त कागज को देखकर माँ की आँखों में आँसू आ गये और वो जोर-जोर से पड़ीं।
जब एडीसन ने पूछा कि
“इसमें क्या लिखा है..?”
तो सुबकते हुए आँसू पोंछ कर बोलीं:-
इसमें लिखा है..
“आपका बच्चा जीनियस है हमारा स्कूल छोटे स्तर का है और शिक्षक बहुत प्रशिक्षित नहीं है, इसे आप स्वयं शिक्षा दें ।
कई वर्षों के बाद उसकी माँ का स्वर्गवास हो गया।
थॉमस एल्वा एडिसन जग प्रसिद्ध वैज्ञानिक बन गये।
उसने कई महान अविष्कार किये,
एक दिन वह अपने पारिवारिक वस्तुओं को देख रहे थे।
आलमारी के एक कोने में उसने कागज का एक टुकड़ा पाया उत्सुकतावश उसे खोलकर देखा और पढ़ने लगा।
वो वही काग़ज़ था.. उस काग़ज़ में लिखा था-
“आपका बच्चा बौद्धिक तौर पर कमजोर है और उसे अब और इस स्कूल में नहीं आना है।
एडिसन आवाक रह गये और घण्टों रोते रहे,
फिर अपनी डायरी में लिखा
***
एक महान माँ ने बौद्धिक तौर पर कमजोर बच्चे को सदी का महान वैज्ञानिक बना दिया।
***
यही सकारात्मकता और सकारात्मक पालक (माता-
पिता) की शक्ति है ।