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लक्ष्मण गीता


अयोध्याकाण्ड का एक बहुत ही सुन्दर प्रसंग है -लक्ष्मण गीता !

यहाँ पहली बार रामायण में लक्ष्मणजी एक अलग से व्यक्तित्व में आते हैं -एक उपदेष्टा के रूप में ! तब हमें पता चलता है कि लक्ष्मणजी का ज्ञान, उनकी समझ कैसी थी ! लक्ष्मण गीता में जो उपदेश आरम्भ होता है, वह निषादराज के विषाद से ही होता है !

विषाद का मूल कारण, मूल प्रश्न क्या है ?
भ्रम यह है कि निषादराज के सामने एक परिस्थिति है ? -कुश की शैय्या पर जानकीजी और प्रभु श्रीराम सो रहे हैं ! इस दुखद परिस्थितिका कारण कौन है ? निषादराज की व्याख्या क्या है ?

कोई एक निश्चित व्याख्या नहीं है ! पहले वे ब्रह्माजी को दोषी ठहराते है ! फिर कर्म को दोष देते हैं और फिर कैकई को ! असल में देखें तो निषादराज हम लोगों के ही प्रतिनिधि हैं ! हमलोग भी मन:स्थिति के अनुसार कारण बदलते रहते हैं !

लक्ष्मणजी बोले कि यह भगवान का भक्त भ्रमित हो रहा है, इसे भ्रम में नहीं होना चाहिए ! भ्रम का निवारण के लिए-लक्ष्मण गीता लक्ष्मणजी के मुख से निकली है !

लक्ष्मणजी कहते हैं कि निषादराज, अपनी दृष्टि को सही करो और किसी को दोष मत दो ! कर्मवाद को स्वीकार करते हो तो किसी दूसरे को दोष नहीं दिया जा सकता !

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥
भावार्थ:- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥

पूरी कर्म मीमांसा इस एक चौपाई में लक्ष्मणजी ने बता दी ! इसे पूर्व मीमांसा भी कहते हैं ! अब आगे की पाँच चौपाइयों तथा दोहे में उत्तर मीमांसा की विवेचना करते हैं ! उत्तर मीमांसा ही वेदान्त है ! यदि आपने इसका अच्छी तरह से अध्ययन किया है तो अगली पाँच चौपाइयों तथा दोहे में वेदान्त का पूरा विवेचन आपको मिल जायगा !

श्री लक्ष्मणजी के उपदेश में पहली बात तो यह कही गई कि मनुष्य को व्यक्तिवाद या परिस्थितिवाद से उठकर कर्मवाद पर आना चाहिए ! परिस्थितिवाद, माने जब हम अपने सुख दुःख का कारण केवल व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति को मानें !

आप जब कर्मवादी हो जाते हैं, तो आपके मन में एक क्रन्तिकारी परिवर्त्तन आ जाता है ! फिर ऐसा व्यक्ति, परिस्थिति नहीं, अपना कर्म बदलता है ! अब उसके मन में यह दृढ़ धारणा बन जाती है कि यदि मैं अपना कर्म ठीक लूँ तो मेरी परिस्थिति अपने आप ठीक हो जाएगी, इसे होना ही है !

जब आपकी बुद्धि में ऐसा पक्की तरह बैठ जाय, तो फिर आप व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति बदलने में रुचि नहीं रखेंगे ! क्योकि आप जानते हैं कि इनके बदलने से कुछ विशेष परिवर्त्तन नहीं होने वाला है ! फिर आप उस व्यक्ति या वस्तु या परिस्थिति से विशेष राग नहीं करेंगे और जब राग नहीं तो फिर द्वेष भी नहीं ! इस तरह हमारा राग द्वेष शिथिल हो जाता है ! यह एक कर्मवादी का सच्चा लक्षण है !

कर्मवादी होने से जीवन में और भी कई लाभ होते हैं, जैसे कर्मवादी होने से जीवन में सदाचार आता है, दुष्कर्म से डरना शुरू करे तो दुष्कर्म छूटता है ! यदि हमारी धारणा बिलकुल पक्की है कि हमारे सत्कर्म हमें सुखी करेंगे और दुष्कर्म हमें दुःख अवश्य देंगे,तो फिर हम सत्कर्म करने का कोई अवसर नहीं छोड़ेंगे ! ऐसा व्यक्ति हर प्रकार से पुण्य की पूंजी कमाने का प्रयत्न करता है !

कर्म सुख दुख का हेतु है यह ठीक है, परन्तु इतने से ही काम चलता नहीं है क्योकि सत्कर्म निरन्तर नहीं होता है ! बीच-बीच में गड़बड़ भी होती रहती है ! पहली कठिनाई तो यही आती है कि हर समय सत्कर्म ही होए, ऐसा बहुत कठिन है ! कई बार अनजाने में गलत कर्म हो जाते हैं ! दूसरी कठिनाई यह है कि सत्कर्म करने से भी अभिमान तो नहीं जाता है, बल्कि कई बार सत्कर्म करने वाले का अभिमान बढ़ जाता है !

अभिमान से मद चढ़ता है और विवेक कुंठित होता है ! कई बार मद के प्रभाव में जो गलत है, वह भी सही लगने लगता है इसलिए यदि केवल कर्म हमारे जीवन का नियामक तत्त्व रहे तो बहुत सुरक्षित स्थान नहीं है ! परिस्थितिवाद से कर्मवाद बेहतर ज़रूर है, परन्तु उससे भी ऊँची सोच और समझ होना चाहिए, दर्शन होना चाहिए !

जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥

दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥

लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं कि हे निषादराज, जीवन में जो बहुत सारी घटनाएँ होती है, उसके बारे में एक दूसरी दृष्टि से भी सोचो ! क्या क्या हैं वे ?

जोग बियोग – यह जीवन में होता रहता है ! कभी संयोग होता है, कभी वियोग होता है ! और तीसरी घटना है भोग ! और ये तीनों कैसी होती है – भल मंदा, कभी अच्छी और कभी बुरी ! कभी जोग हो गया किसी अच्छे व्यक्ति से, कभी बुरे व्यक्ति से ! कभी अच्छे व्यक्ति से वियोग हुआ, कभी बुरे व्यक्ति से ! कभी अच्छा भोग आया, कभी बुरा भोग आया – जोग बियोग भोग भल मंदा।

लोग कैसे होते हैं ?-हित अनहित मध्यम – ये तीन तरह के लोग होते हैं जिनके साथ हम व्यवहार करते हैं ! कोई हमारा हितैषी है,कोई बुरा चाहने वाला है और कोई उदासीन है !

लक्ष्मणजी बोलते हैं कि ये छह के छह मनुष्य के लिए भ्रम के बड़े-बड़े फंदे हैं, जिनमे सारा संसार फँसा हुआ रहता है ! कैसे फँसते है ? ये हमें संलग्न करते है, जोड़ लेते हैं ! जोग, वियोग, भोग तो आता जाता रहता है, लेकिन इन सबमें हम लिप्त हो जाते हैं ! हित, अनहित, मध्यम के साथ संलग्न हो जाते हैं ! जो हम इनमें संलग्न हो जाते हैं, वही फंदा है, हमें फँसाने का,उलझाये रखने का !

यह एक बहुत बड़ा जाल है, जन्म से मरण होने तक ! जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू- जन्म से मरण होने तक फैला हुआ जाल है ! प्राणी बचकर कहाँ जायगा ! ये जाल में ये छह फन्दे घूमते रहते हैं – जोग, बियोग, भोग, हित, अनहित, मध्यम !

लक्ष्मणजी बोलते है, हे निषादराज, इस जाल से बचकर जाने की बात आप छोड़ दो! संपति बिपति करमु अरु कालू – इस जाल में अभी और भी कई फंदे हैं, रंगीन फंदे हैं ! संपत्ति है, विपत्ति है, काल है, कर्म है, ये सब आपको बांधने वाले फंदे हैं ! जगत के लिए जालू शब्द कहा !

और इस जगत का विस्तार कितना है ? बोले- स्वर्ग, नरक, संपत्ति, विपत्ति, काल, कर्म, जोग, बियोग, भोग, हित, अनहित, मध्यम ऐसा ये जाल फैला हुआ है और यही सब इसके फंदे हैं ! संपत्ति, विपत्ति, काल, कर्म, जोग, बियोग, भोग फँसा लेते हैं !

परन्तु फिर इससे निकलने का रास्ता क्या है ? लक्ष्मणजी कहते हैं कि निकलने का रास्ता यह है कि यह पूरा प्रपंच जिसे मैंने एक जाल के जैसा कहा, वास्तव में केवल मोह का परिणाम है ! अगर इस बात को समझ लिया जाय तो न तो कोई जाल है और न ही कोई फंदा है !

आप कर्म करते हो, तदनुसार परिस्थिति बनती है, उसे भोगना पड़ता है ! उस भोग से सुख दुःख निकलता है, यही हमारा रोज का जीवन है ! यह कार्यक्रम कब तक चलता रहेगा ? तब तक, जब तक आप परम-तत्त्व को जान नहीं लेते हैं ! यह दूसरी दृष्टि है-परमार्थ दृष्टि !

दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं ॥

भावार्थ:-धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं !!

कितना बड़ा प्रपंच है ! प्रमाणत्रय से प्रतीयमान होता है ! देखिअ, सुनिअ, गुनिअ-प्रत्यक्ष,अनुमान और शब्द- यही तीन प्रमाण हैं, जिनसे प्रमेय का ज्ञान होता है ! इन तीनों प्रमाणों से उपलब्धमान जो यह प्रपंच है, यह मोह मूल है- सच नहीं है -परमारथ नाही !

आप कहेंगे कि यह भ्रम कैसे हुआ ? हमें यह सुख देता है, दुःख देता है ! तो बोले कि सुख -दुःख तो सपने में भी होता है ! तो क्या जो सपने में हम अनुभव करते हैं, वह यथार्थ है ? यह केवल प्रतीति है !

विचारक लोग इस जगत को इतना ठोस नहीं मानते हैं, जितना यह आपको लगता है ! हमारे विज्ञानिक बंधुओ ने तो वेदान्तियों की बड़ी मदद करी है ! उन्होंने प्रत्यक्ष प्रमाण की तो धज्जियां उड़ा है !

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥

भावार्थ:-ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोह रूपी रात्रि में सोने वाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं॥

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥

भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥

जगत की हमारी अनुभूति है, सुखात्मक या दुखात्मक ! उसका कारण बनती है परिस्थिति और परिस्थिति का कारण है कर्म ! कर्म होता है कर्ता भाव से ! कर्ता कौन है ? बोले – मैं हूँ ! वेदान्त कहता है कि आप इस बात पर विचार करो कि क्या यह बात सच है कि आप कर्ता हो ? क्या कर्तृत्व आपका स्वरूप है ?

हमारे भीतर अपने को लेकर भावनाएँ उठती हैं ! एक है – भोक्तृत्व दूसरी है – कर्तृत्व, भोक्ताभाव और कर्ताभाव ! जब हम अपनी बुद्धि (ज्ञानेन्द्रियों) से तादात्म्य करते हैं, तब भोक्ताभाव उत्पन्न होता है और कर्मेन्द्रियों से तादात्म्य करते हैं, तब कर्ताभाव होता है !

यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व ही मेरी पहचान है ! जिसे मैं ‘मैं’ बोल रहा हूँ, उसमे ये दो चीजे ही तो है ! इस भोक्ता में ही इच्छा उत्पन्न होती है और यह इच्छा ही हमें कर्म करने की प्रेरणा देती है ! यही पूरी समस्या का मूल कारण है ! भोक्तृत्व के कारण इच्छा पैदा होती है ! फिर उस इच्छा से कर्तृत्व प्रेरित होता है !

कर्तृत्व से कर्म होता है ! कर्म से कर्मफल बनता है ! वह फल परिस्थिति बनकर हमारे सामने आता है, सुख दुःख देने के लिए ! उस फल को हम भोगते हैं ! उस फल को भोगने से संस्कार बनता है ! उस संस्कार से भोक्ता में भोगने की इच्छा पैदा होती है ! इस तरह से यह चक्कर चालू रहता है ! इसी को भवसागर भी बोलते हैं !

लक्ष्मणजी कहते है कि यह कर्ता – भोक्ता भाव जो हमारे भीतर बना रहता है, वह अत्यन्त प्रबल है, परन्तु है बिलकुल मिथ्या ! कर्ताभाव हमारे मन बुद्धि में इतना दृढ़ इसलिए हो गया है क्योकि प्रबल अभ्यास पड़ा हुआ है ! कोई चीज अभ्यासवश प्रबल हो जाय तो ऐसा नहीं है कि वह सच है ! मैं इस कर्ता भोक्ता भाव को छोड़ नहीं पाता इसलिए वह मेरा अपना स्वरूप है, ऐसा नहीं है !

स्वरूप की परिभाषा क्या है ? अहेयम् अनुपादेयं यत तत स्वरूपम् -जिस चीज को आप छोड़ न सकें और जिसे बाहर से लाया न गया हो, वह आपका स्वरूप है ! इस परिभाषा के अनुसार आप विचार करके देखें कि क्या कर्तृत्व हमारा स्वरूप हो सकता है ?

एक बात तो आपको अनुभव में सिद्ध है कि कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, मुझमे एक रस नहीं रहता, वह घटता बढ़ता रहता है, कभी तीव्र, कभी मध्यम और कभी मंद ! इसमें हमेशा विकार होता रहता है ! इसलिए कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व, अपना स्वरूप नहीं हो सकता !

असली सिद्धि तो यही है कि हमें अपना असली चिन्मय आनंद स्वरूप मालूम पड़े जो कर्ता और भोक्ता नहीं हैं ! इस स्वरूप के प्रति जो निरन्तर जाग्रत रहता है वह सिद्ध है और जो इस स्वरूप के प्रति जाग्रत नहीं है वह सो रहा है ! उसके लिए लक्ष्मणजी कहते है –

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। जो इस स्वरूप के प्रति अज्ञानी बना हुआ है, वह व्यक्ति – देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥ जो नाना प्रकार का प्रपंच हमारे सामने दिखाई देता है, वह सारा का सारा प्रपंच स्वप्नवत है ! हमने इस प्रपंच को इतना महत्व दे दिया है कि अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान को ही भूल गए हैं और भवसागर में फंसे हैं ! !

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥

भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥

मोहरूपी रात्रि में सब लोग सो रहे हैं ! अनेक प्रकार से स्वप्न माने प्रपंच को देख रहे हैं और भोग रहे हैं ! अपने स्वरूप का अविवेक ही रात्रि है !

क्या सभी लोग सोये रहते हैं ? तो बोले कि नहीं, जो योगी हैं, परम को चाहते हैं, तत्त्व के अनुसन्धानी हैं, स्वरूप ध्यानी हैं, वे ही जागते रहते हैं ! यह अपने आप खुलने वाली नींद नहीं है ! और स्वाभाविक है जिसे परम ही चाहिए, वह प्रपंच बियोगी होगा ! उसने परम का वरण कर लिया! वरण ही एक व्यक्ति को साधक बनता है !

जागने की निशानी क्या है ? बोले – जब सब बिषय बिलास बिरागा-जब सारे विषयों से, उनके विलास से वैराग्य हो जाय ! जब विषय से सुख लेने की पराधीनता छूट जाए !

आगे लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं –
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है !!

जैसे ही यह ज्ञान होता है, मोह दूर हो जाता है और साथ ही सारा प्रपंच भी मिटता है ! मोह ही सारे उपद्रव की जड़ है और उसका निराकरण केवल विवेक से ही हो सकता है ! उसके फलस्वरूप भगवान राम में अनुराग सिद्ध हो जाता है ! मेरे भाई, परम परमार्थ क्या है जिसको आप चाहते हो ? रघुनाथजी तो हमारी अंतरात्मा ही है ! राम ही परम ब्रह्म हैं ! जीव जिसे सबसे ज्यादा चाहता है वही राम हैं ! स्वाधीन, अव्यय, आनन्द, निरूपद्रव,बस !

राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥

भावार्थ:-श्री रामजी परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं॥

  • भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
    करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥

भावार्थ:-वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गो और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥

तो रामजी कौन हैं ? बोले- राम ही ब्रह्म हैं ! जीव जिसे सबसे ज्यादा चाहता है, वही राम हैं ! श्रीराम प्रभु में कोई विकार नहीं है और कोई भेद नहीं है ! इसलिए राम तत्त्व का कोई निरूपण नहीं हो सकता – कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥

रामजी वहाँ सोये हुए हैं और लक्ष्मणजी कहते हैं अबिगत, अलख !जिनको लखा नहीं जा सकता है ! तो वहाँ सोया हुआ कौन है ? वह उनका लीला विग्रह है ! जो परमार्थ सत्ता है, वही अपेक्षा से देहधारी बनती है और वही इस समय हमारे सम्मुख अवतार लेकर उपस्थित है !

ये तो थोड़े समय के लिए चरित्र करने के लिए उसी परमार्थ तत्त्व ने मनुष्य का शरीर कर लिया है ! क्यों धारण किया है ? एक कारण तो यह है कि धर्म की संस्थापन के लिए और दूसरा कारण बताते है कि जब मनुष्य का शरीर धारण करके भगवान एक आदर्श चरित्र स्थापित करते हैं ताकि प्रभु का चरित्र प्रगट हो !

चरित्र प्रगट होगा तभी तो गाया जायगा ! निष्प्रपंच ब्रह्म का कोई चरित्र ही नहीं होता तो गाओगे क्या ! अनुकरण करने के लिए कोई चरित्र तो चाहिए ही ! हर मनुष्य अपने को किसी आदर्श के सामने समर्पित करना चाहता है ! बस, आप भगवान का चरित्र खूब सुनिए, सुनने मात्र से आपके सारे बन्धन कट जाएंगे ! यहाँ लक्ष्मण गीता पूरी होती है।
संजय गुप्ता

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“भगवत्कृपाका  अनुभव”

एक भक्त थे, उनके एक ही पुत्र था, जो सौन्दर्यसम्पन्न, सुशील एवं धर्मात्मा था । सांसारिक कष्टोंमें ही भक्तकी परीक्षा होती है । कालदेवको भक्तका पुत्र-सुख अच्छा न लगा, इसलिये वे उसे छीन ले गए; किंतु भक्त-प्रवरने इसे भी भगवत्कृपा मानकर मृत्युका उपकार ही समझा । भक्तको किञ्चित् भी शोक-दुःख नहीं हुआ । लोगोंने उनसे इस विचित्र व्यवहारपर आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा – ‘तुम्हारा इकलौता पुत्र संसारसे उठ गया और तुम प्रसन्न हो रहे हो, उन्माद हो गया है क्या ?’ भक्तजी मन्द हँसीके साथ बोले – ‘माली स्वामीके उपवनका प्रफुल्लित सुन्दर पुष्प अपने स्वामीको देकर प्रसन्न होता है या रोता है ? कुछ समयके लिये प्रभुकी इस संसार-वाटिकाका पुष्प (पुत्ररूपमें) मेरी सँभालमें था, अतः यह मेरा कर्त्तव्य था की मैं तन-मन-प्राणसे उसकी देख-भाल करूँ । अब समय पूरा होनेपर प्रभुने उसे स्वीकार कर लिया, इस कारण मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है । प्रभुका उपकार तो इसलिये मानता हूँ कि उनकी वस्तुके प्रति न जाने कितनी बार मेरे मनमें (ममता रूप) कुटिलता आयी, उसकी सुरक्षामें भी मुझसे अनेक त्रुटियाँ हुईं ; परन्तु प्रभुने मेरी इन भूलोंकी ओर कुछ ध्यान न दिया, मुझे कभी उलाहना नहीं दिया । भगवान् की इस कृपाका अनुभव कर यदि मैं प्रसन्न होता हूँ  तो इसमें क्या आश्चर्य है ?’
(कल्याण – भगवत्कृपा अंक’से)

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श्री अयोध्या जी में एक उच्च कोटि के संत रहते थे। इन्हें रामायण का श्रवण करने का व्यसन था । जहां भी कथा चलती वहाँ बड़े प्रेम से कथा सुनते , कभी किसी प्रेमी अथवा संत से कथा कहने की विनती करते ।

एक दिन राम कथा सुनाने वाला कोई मिला नहीं । वही पास से एक पंडित जी रामायण की पोथी लेकर जा रहे थे । पंडित जी ने संत को प्रणाम् किया और पूछा की महाराज ! क्या सेवा करे ? संत ने कहा – पंडित जी , रामायण की कथा सुना दो परंतु हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रुपया नहीं है ,हम तो फक्कड़ साधु है । माला ,लंगोटी और कमंडल के अलावा कुछ है नहीं और कथा भी एकांत में सुनने का मन है हमारा । पंडित जी ने कहा – ठीक है महाराज , संत और कथा सुनाने वाले पंडित जी दोनों सरयू जी के किनारे कुंजो में जा बैठे ।

पंडित जी और संत रोज सही समय पर आकर वहाँ विराजते और कथा चलती रहती । संत बड़े प्रेम से कथा श्रवण करते थे और भाव विभोर होकर कभी नृत्य करने लगते तो कभी रोने लगते। जब कथा समाप्त हुई तब संत में पंडित जी से कहा – पंडित जी ,आपने बहुत अच्छी कथा सुनायी । हम बहुत प्रसन्न है ,हमारे पास दक्षिणा देने के लिए रूपया तो नहीं है परंतु आज आपको जो चाहिए वह आप मांगो । संत सिद्ध कोटि के प्रेमी थे , श्री सीताराम जी उनसे संवाद भी किया करते थे ।

पंडित जी बोले – महाराज हम बहुत गरीब है ,हमें बहुत सारा धन मिल जाये । संत बोले – संत ने प्रार्थना की की प्रभु इसे कृपा कर के धन दे दीजिये । भगवान् ने मुस्कुरा दिया , संत बोले – तथास्तु । फिर संत ने पूछा – मांगो और क्या चाहते हो ? पंडित जी बोले – हमारे घर पुत्र का जन्म हो जाए । संत ने पुनः प्रार्थना की और श्रीराम जी मुस्कुरा दिए । संत बोले – तथास्तु ,तुम्हे बहुत अच्छा ज्ञानी पुत्र होगा ।

फिर संत बोले और कुछ माँगना है तो मांग लो । पंडित जी बोले – श्री सीताराम जी की अखंड भक्ति ,प्रेम हमें प्राप्त हो । संत बोले – नहीं ! यह नहीं मिलेगा । पंडित जी आश्चर्य में पड़ गए की महात्मा क्या बोल गए । पंडित जी ने पूछा – संत भगवान् ! यह बात समझ नहीं आयी । संत बोले – तुम्हारे मन में प्रथम प्राथमिकता धन ,सम्मान ,घर की है । दूसरी प्राथमिकता पुत्र की है और अंतिम प्राथमिकता भगवान् के भक्ति की है । जब तक हम संसार को , परिवार ,धन ,पुत्र आदि को प्राथमिकता देते है तब तक भक्ति नहीं मिलती । भगवान् ने जब केवट से पूछा की तुम्हे क्या चाहिए ? केवट ने कुछ नहीं माँगा ।

प्रभु ने पूछा – तुम्हे बहुत सा धन देते है , केवट बोला नहीं । प्रभु ने कहा – ध्रुव पद लेलो ,केवट बोला – नहीं । इंद्र पद, पृथ्वी का राजा , और मोक्ष तक देने की बात की परंतु केवट ने कुछ नहीं लिया तब जाकर प्रभु ने उसे भक्ति प्रदान की । हनुमान जी को जानकी माता ने अनेको वरदान दिए – बल, बुद्धि , सिद्धि ,अमरत्व आदि परंतु उन्होंने कुछ प्रसन्नता नहीं दिखाई । अंत में जानकी जी ने श्री राम जी का प्रेम, अखंड भक्ति का वर दिया । प्रह्लाद जी ने भी कहा की हमांरे मन में मांगने की कभी कोई इच्छा ही न उत्पन्न हो तब भगवान् ने अखंड भक्ति प्रदान की ।
संजय गुप्ता

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#इनपरबनाओफ़िल्म
#ताज
बेगम प्रसिद्ध मुग़ल बादशाह #औरंगज़ेब की भतीजी थी। औरंगज़ेब की पुत्री जैबुन्निसा बेगम और ताज बेगम ने ‘#कृष्ण-भक्ति’ की दीक्षा ले ली थी।
ताज़ बेगम के कृष्ण-भक्ति के पदों ने तो मुस्लिम समाज को सोचने पर विवश कर दिया था, जिसके कारण #मुग़लियासल्तनत में हलचल मच गई। ताज़ बेगम जिस तरह से कृष्ण-भक्ति के पद गाती थीं, उससे कट्टर मुस्लिमों को बहुत कष्ट होता था।
औरंगज़ेब की भतीजी ताज बेगम का एक #प्रसिद्ध पद निम्नलिखित है-
“सुनो #दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम
दस्त ही बिकानी #बदनामी भी सहूंगी मैं ||
#देवपूजा ठानी मैं #निवाजहू भुलानी,
तजे #कलमा कुरान साडे गुननि गहूंगी मैं ||
सांवला सिलोना #सिरताज सिर कुल्ले दिए
तेरे नेह दाग में निदाघ ह्वै रहूंगी मैं ||
#नंद के कुमार, #क़ुर्बान, तेरी सूरत पे
हौं तो #मुगलानी #हिंदुवानी ह्वै रहूंगी मैं ||”
#भक्तिमति
ताज
(निवाजहू-नमाज़
  तजे-छोडे़)
राहुल शर्मा.

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वृंदावन में बाँकेबिहारी जी मंदिर में बिहारी जी की काले रंग
की प्रतिमा है। इस प्रतिमा के विषय में मान्यता है कि इस
प्रतिमा में साक्षात् श्रीकृष्ण और राधाजी समाहित हैं , इसलिए
इनके दर्शन मात्र से राधा-कृष्ण के दर्शन के फल की प्राप्ति होती है ।
इस प्रतिमा के प्रकट होने की कथा और लीला बड़ी ही रोचक और
अद्भुत है, इसलिए हर वर्ष मार्गशीर्ष मास
की पंचमी तिथि को बाँकेबिहारी मंदिर में
बाँकेबिहारी प्रकटोत्सव मनाया जाता है।
बाँकेबिहारी जी के प्रकट होने की कथा-संगीत सम्राट तानसेन के गुरु
स्वामी हरिदास जी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे। वृंदावन में
स्थित श्रीकृष्ण की रास-स्थली निधिवन में बैठकर भगवान को अपने
संगीत से रिझाया करते थे। भगवान की भक्ति में डूबकर हरिदास
जी जब भी गाने बैठते तो प्रभु में ही लीन हो जाते। इनकी भक्ति और
गायन से रीझकर भगवान श्रीकृष्ण इनके सामने आ गये। हरिदास
जी मंत्रमुग्ध होकर श्रीकृष्ण को दुलार करने लगे। एक दिन इनके एक
शिष्य ने कहा कि आप अकेले ही श्रीकृष्ण का दर्शन लाभ पाते हैं, हमें
भी साँवरे सलोने का दर्शन करवाइये। इसके बाद हरिदास
जी श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबकर भजन गाने लगे। राधा-कृष्ण की युगल
जोड़ी प्रकट हुई और अचानक हरिदास के स्वर में बदलाव आ गया और
गाने लगे-
भाई री सहज जोरी प्रकट भई,
जुरंग की गौर स्याम घन दामिनी जैसे।
प्रथम है हुती अब हूँ आगे हूँ रहि है न टरि है तैसे।
अंग-अंग की उजकाई सुघराई चतुराई सुंदरता ऐसे।
श्री हरिदास के स्वामी श्यामा पुंज बिहारी सम वैसे वैसे।
श्रीकृष्ण और राधाजी ने हरिदास के पास रहने की इच्छा प्रकट की।
हरिदास जी ने कृष्णजी से कहा कि प्रभु मैं तो संत हूँ। आपको लंगोट
पहना दूँगा लेकिन माता को नित्य आभूषण कहाँ से लाकर दूँगा। भक्त
की बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कराए और राधा-कृष्ण की युगल
जोड़ी एकाकार होकर एक विग्रह के रूप में प्रकट हुई। हरिदास जी ने
इस विग्रह को ‘बाँकेबिहारी’ नाम दिया। बाँके बिहारी मंदिर में
इसी विग्रह के दर्शन होते हैं। बाँके बिहारी के विग्रह में राधा-कृष्ण
दोनों ही समाए हुए हैं, जो भी श्रीकृष्ण के इस विग्रह का दर्शन
करता है, उसकी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
कुंजबिहारी…
श्री हरिदास…

Navendu Trivedi

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****** #तुम #कहां #हो #कृष्ण ********

कृष्ण पर जब भी चिंतन करता हूँ मैं भ्रमित हो जाता हूँ कि मैं उनके किस रूप पर मोहित हूँ ?

— एक ओर वह कृष्ण जो  गोपियों को छेड़ता है तो दूसरी ओर रास नृत्य में ही ” एक और मार्शल आर्ट स्कूल ” की नींव रख देता है ।

— एक ओर माखन चोरी करता है और दूसरी ओर इन्हीं ग्वाल बालों से अजेय ” नारायणी सेना ” खड़ी कर देता  है

— एक ओर अपनी बांसुरी से पाषाणों को पिघला देता है तो दूसरी ओर पाञ्चजन्य से धर्म का उद्घोष करता है ।

— एक ओर मुँह पर माखन लपेटे हुए भी मैया से माखन ना खाने की झूठी सौगंध खाता है तो दूसरी ओर कुरुक्षेत्र में समस्त ब्रह्मांड की व्याख्या ” गीता ” के रूप में करता है

— एक ओर राधा के साथ प्रेम में डूबकर  सामाजिक मान्यताओं को नकार देता है तो दूसरी ओर नरकासुर के ‘ हरम ‘ में बंदिनी  16000 स्त्रियों और उनकी अवैध संतानों को सामाजिक स्वीकृति दिलवाने के लिये स्वयं विवाह कर उन्हें पत्नियों का सम्मान व उनके बच्चों को पिता के रूप में अपना नाम देता है ।

— एक ओर आठ विवाह करता है तो दूसरी ओर अपने अखंड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा की साक्षी में मृत बालक परीक्षित को जीवित कर देता है ।

— एक ओर स्वयं राजसिंहासन अस्वीकार कर ” गणतंत्र पद्धति ” की श्रेष्ठता स्थापित करता है तो दूसरी ओर स्वयं युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ के लिये प्रेरित कर भारत को साम्राज्य के रूप में एकसूत्र में बांध देता है ।

— एक ओर खुद जरासंध को बलराम के हाथों मरने से बचा लेता है  और फिर खुद ही भीम के हाथों उसे मरवा देता है ।

— एक ओर शस्त्र ना उठाने की प्रतिज्ञा करता है और दूसरी ओर खुद दारुक से समस्त अस्त्र शस्त्रों सहित रथ तैयार रखने को कहता है ।

— एक ओर इंद्र जैसे भ्रष्ट सत्ताधारियों का विरोध करता है तो दूसरी ओर खोखले और जनशोषक कर्मकांडी ब्राह्मणों  का तिरस्कार कर गोवर्धनपूजन के रूप पुनःप्रकृतिपूजन की परंपरा स्थापित करता है ।

— एक ओर राजसूय यज्ञ में ऋषियों के चरण पखारता है तो दूसरी ओर काशी के ब्राह्मणों के पाखंड पर क्रुद्ध होकर काशी को जलाकर राख कर देता है ।

इनमें कौन सा है कृष्ण का रूप , उनका वास्तविक स्वरूप ?

और फिर खुद ही अपनी मूर्खता पर हँस पड़ता हूँ  कि  कृष्ण के भाई , सखा , शिष्य उद्धव व नरावतार  अर्जुन ,  साक्षात नारायणावतार वेदव्यास , साक्षात शिव के अंश जगद्गुरु शंकराचार्य और ज्ञानशिरोमणि नवद्वीप विजेता निमाई भी नहीं समझ सके कि वे किस कृष्ण पर मुग्ध हैं तो मैं फिर हूँ भी क्या ? 

बस इतना ज्ञान हो सका है मुझे कि उसे ज्ञान और तर्क से तो नहीं ही जाना जा सकता है ।

उसे समझा जा सकता है तो सिर्फ यशोदा बनकर और तब वो ‘ लल्ला ‘ बनकर कर्माबाई का बासी खीचड़ा जीमने आ जाता है ।

उसे समझा जा सकता है सिर्फ नंदबाबा बनकर , और तब वो पुत्र बनकर  सूरदास की लाठी पकड़ने और उनका भजन सुनने आ जाता है ।

उसे समझा जा सकता है सिर्फ श्रीदामा बनकर और फिर वो गोविंद जैसे बालक के साथ सखा बनकर गिल्ली डंडा खेलने ही नहीं आ जाता बल्कि उसकी मार भी खाता है ।

उसे समझा जा सकता है तो सुदामा बनकर और तब वो सांवलदास बनकर नरसी का भात दे जाता है ।

उसे समझा जा सकता है तो सिर्फ एक गोपी बनकर और तब वो ‘ बांकेबिहारी ‘ के विग्रह स्वरूप में प्रकट हो  जाता है ।

उसे समझा जा सकता है सिर्फ राधा बनकर और तब वो मीरा का सांवरा  बनकर आ जाता है ।

बस इतना ही जान पाया हूँ मैं ।
Pramod Kumar

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प्रभु श्री राम एवं जगत जननी माता
सीता के पाणिग्रहण के शुभ अवसर
पर समस्त राम भक्तों एवं राष्ट्रवासियों
को अनंत शुभकामनाएं,,,,

मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि
को भगवान श्री राम और माता सीता
का विवाह हुआ था।

इसलिए इस तिथि को विवाह पंचमी के
नाम से जाना जाता है।

राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इस
लिए था कि वे जनक को हल कर्षित रेखा
भूमि से प्राप्त हुई थीं।

बाद में उनका विवाह भगवान राम से हुआ।

वाल्मीकि रामायण में जनक जी सीता
की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं:-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं
लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा
नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु
व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या
स्थापितेयमयोनिजा॥

राम जन्म के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण
घटना है वह है राम की शिक्षा और राजा
जनक के दरबार में भगवान शिव के धनुष
को तोड़कर सीता से विवाह करना।

सीता से विवाह करने की इच्छा से एक से
एक बलवान और पराक्रमी राजे महाराजे
जनक के दरबार में आए थे।
इनमें रावण भी उपस्थित था।

सभी ने ऎड़ी चोटी का जोर लगाया लेकिन
कोई भी शिव के धनुष को उठाने में सफल
नहीं हुआ।

अंत में ऋषि विश्वामित्र की आज्ञा से स्वयंवर
देखने आए श्रीराम ने धनुष को खिलौने की
तरह उठा लिया और सहज भाव से तोड़ दिया।

यह तो मूल घटना है लेकिन सवाल उठता
है कि राम आखिर धनुष तोड़ने में कैसे
सफल हुए।

इसका उत्तर जानने के लिए सीता के
बचपन की एक घटना को जानना होगा।

एक बार सीता पूजा घर की साफ-सफाई
कर रही थी।

जहां शिव का धनुष रखा था वहां काफी
गंदगी हो गई थी सीता ने इसे साफ करने
के लिए एक हाथ से धनुष उठा लिया और
दूसरा से सफाई करने लगी।

अचानक राजा जनक पूजा घर में आ गए
और सीता को शिव का धनुष उठाए देखकर
हैरान रह गए।

राजा जनक ने पूछा तुमने इस भारी धनुष
को कैसे उठा लिया।

सीता ने सहज भाव से उत्तर दिया,
यह धनुष तो बहुत ही हल्का है,
मैंने तो इसे एक हाथ से उठा लिया।

माता सीता स्वयं माँ शक्ति का अवतार थीं,
उनके लिए यह अत्यंत सहज था।

इसी समय राजा जनक ने कहा कि जो
कोई इस धनुष को भंग कर देगा वही सीता
का पति होगा।

सीता से विवाह के इच्छुक बलशाली व्यक्ति
बल के अहंकार में डूबे थे।

वह धनुष उठाते समय शरीर का पूरा बल
धनुष पर लगा देते थे जिससे धनुष उठने
की बजाय और बैठ जाता था।

यह उसी प्रकार होता था जैसे किसी डब्बे
के उपर लगा हुआ ढ़क्कन खोलते समय
आप जोर लगाएं तो वह और बैठ जाता
है लेकिन आराम से खोलें तो तुरंत खुल
जाता है।

राम ने इस चीज को गौर से देखा कि सभी
धनुष के साथ बल प्रयोग कर रहे हैं इसलिए
धनुष उठ नहीं रहा है।

इसलिए जब राम धनुष उठाने गए तो जिस
प्रकार सीता सहज भाव से बिना बल लगाए
धनुष उठा लेती थी उसी प्रकार राम ने भी
धनुष को उठाने का प्रयास किया और
सफल हुए।

सीता राम की हो गई।
राम ने यहां संसार को ज्ञान दिया कि
बल की बजाय हमेशा बुद्धि से काम
लेना चाहिए।

प्रभु श्री राम के धनुष भंग करने के बाद
माता सीता की सखियाँ माता सीता को
बताती हैं कि प्रभु श्री राम ने धनुष तोड़
दिया है।
अब श्रृंगार कर विवाह के लिए तैयार
हो जाएँ।
भोजपुरी भाषा में बड़ा ही श्रृंगारिक
वर्णन है:-

तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।
शिव धनुष रामजी तोडले हा,
सीता से नाता जोड़ले हा।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।

शीश सिया के चुनर सोहे,
नथिया में रूप मनोहर बा।
सुन्दर सुघर का कहि,
रघुवर-जानकी के जोड़ी बा।

हाथ सिया के चूड़ी सोहे,
कंगन दम-दम दमकेला।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।

कमर सिया के करधनी लटके,
झुमका कान में सोहेला।
पांव सिया के पायल सोहे,
बिछिया अंगूरी में चमकेला।

सुन्दर सुघर का कहि,
जानकी के छटा मनमोहत बा।
तु उठ सिया सिंगार कर,
शिव धनुष रामजी तोडले हा।

राम विवाह का जो प्रसंग तुलसीदास
जी ने रामचरित मानस में वर्णित किया
है उससे ज्ञात होता है कि भगवान श्रीराम
और सीता जी विवाह से पहले जनकपुर
के पुष्प वाटिका में मिल चुके थे।

जनकपुर वर्तमान में नेपाल में स्थित है।
भगवान श्री राम और गुरू विशिष्ठ की
आज्ञा से पूजा हेतु वाटिका से फूल लाने
गये थे।
माता सीता भी उस समय वाटिका में
मौजूद थीं।

जब राम और सीता ने एक दूसरे को देखा
तो एक दूसरे के प्रति मोहित हो गये।
सीता ने उसी क्षण राम को पति रूप में
स्वीकार कर लिया।

सीता इस बात से चिंतित थीं कि पिता द्वारा
रखी गयी शिव धनुष भंग की शर्त को किसी
और ने पूरा कर दिया तो राम उन्हें पति रूप
में नहीं प्राप्त होंगे।

अपने मन की चिंता को दूर करने के लिए
सीता अपनी अराध्य देवी मां पार्वती की
शरण में गयी।

तुलसीदास जी ने लिखा है कि सीता की
मनोदशा को समझकर माता पार्वती उन्हें
समझाती हैं कि राम साक्षत परमेश्वर हैं।
यह सब की मनोदशा को समझते हैं।

भगवान श्री राम ने ही शिव को मुझ से
विवाह के लिए प्रेरित कर मेरी तपस्या
को सफल किया इसलिए तुम भी मन
से चिंता निकाल दो।

राम ही तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे।

तुलसीदास जी ने इस संदर्भ को इस
प्रकार दोहे में स्पष्ट किया है।

‘करूणानिधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो।’

पार्वती ने सीता को समझाया कि श्रीराम करूणानिधान और शीलवान और सर्वज्ञ हैं।
वह सब जानते हैं।

ऊपर से मेरा आशीर्वाद है कि ‘पूजहि मन
कामना तुम्हारी’
‘सो बरू मिलिहि जाहिं मनु राचा’।
पार्वती जी कहती हैं कि तुमने मन में जिसे बिठाकर पूजा की है वही सहज,सुन्दर,
सांवरा वर तुम्हें प्राप्त होगा।

पार्वती जी द्वारा कहे गये शब्दों को ध्यान
में रखकर सीता ने तय किया कि वह श्री
राम को करूणानिधान के नाम से ही पुकारेंगी।

करुणानिधानः केवल सीता ही राम को इस
नाम से पुकारती थी,मां सीता प्रभु श्री राम
को इसी नाम से बुलाती थीं।

कथा है कि सीता की ख़बर लेने के लिए
जब हनुमान जी लंका जाने लगे तब श्री
राम ने हनुमान को अपने पास बुलाकर
कहा कि मेरी मुद्रिका सीता को देना इससे
वह तुम्हें मेरा दूत मान लेगी।

तब हनुमान ने शंका जताई कि अगर इससे
भी न मानी सीता माता तो क्या करूं।

इस पर श्री राम ने हनुमान जी से कहा
कि सीता मुझे करूणानिधान के नाम से
बुलाती है,यह बात सिर्फ मुझे मालूम हैं।

यह बात तुम सीता को कहना की आप
के करूणानिधान ने यह मुद्रिका दी है तो
सीता पूर्ण विश्वास कर लेगी और तुम्हें
मेरा दूत मान लेगी।
और ऐसा ही हुआ,,,,

“राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य शपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्ही राम तुम कहँ सहिदानी।।

माँ सीता प्रिय प्रभु श्री राम की वंदना:-

नमामि भक्त-वत्सलं,
कृपालु-शील-कोमलम्।
भजामि ते पदाम्बुजं,
अकामिनां स्व-धामदम्।।

निकाम-श्याम-सुन्दरं,
भवाम्बु-नाथ मन्दरम्।
प्रफुल्ल-कंज-लोचनं,
मदादि-दोष-मोचनम्।।

प्रलम्ब-बाहु-विक्रमं,
प्रभो·प्रमेय-वैभवम्।
निषंग-चाप-सायकं,
धरं त्रिलोक-नायक…म्।।

दिनेश-वंश-मण्डनम्,
महेश-चाप-खण्डनम्।
मुनीन्द्र-सन्त-रंजनम्,
सुरारि-वृन्द-भंजनम्।।

मनोज-वैरि-वन्दितं,
अजादि-देव-सेवितम्।
विशुद्ध-बोध-विग्रहं,
समस्त-दूषणापहम्।।

नमामि इन्दिरा-पतिं,
सुखाकरं सतां गतिम्।
भजे स-शक्ति सानुजं,
शची-पति-प्रियानुजम्।।

त्वदंघ्रि-मूलं ये नरा:,
भजन्ति हीन-मत्सरा:।
पतन्ति नो भवार्णवे,
वितर्क-वीचि-संकुले।।

विविक्त-वासिन: सदा,
भजन्ति मुक्तये मुदा।
निरस्य इन्द्रियादिकं,
प्रयान्ति ते गतिं स्वकम्।।

तमेकमद्भुतं प्रभुं,
निरीहमीश्वरं विभुम्।
जगद्-गुरूं च शाश्वतं,
तुरीयमेव केवलम्।।

भजामि भाव-वल्लभं,
कु-योगिनां सु-दुलर्भम्।
स्वभक्त-कल्प-पादपं,
समं सु-सेव्यमन्हवम्।।

अनूप-रूप-भूपतिं,
नतोऽहमुर्विजा-पतिम्।
प्रसीद मे नमामि ते,
पदाब्ज-भक्तिं देहि मे।।

पठन्ति से स्तवं इदं,
नराऽऽदरेण ते पदम्।
व्रजन्ति नात्र संशयं,
त्वदीय-भक्ति-संयुता:।।

तात् राम नहीं नर भोपाला।
भुवनेश्वर कालहू कर काला।।

समस्त चराचर प्राणियों एवं
सकल विश्व का कल्याण करो प्रभु !!

जगतजननी माता सीता की कृपा
सदा बरसती रहे,,,

जयति पुण्य सनातन संस्कृति,,,
जयति पुण्य भूमि भारत,,,

सदा सर्वदा सुमंगल,,,,
हर हर महादेव,
जय भवानी,,,
जय सीता(श्री) राम,,,
जय सिया(श्री) राम,,,
जय श्री राम~

Vijay Krishna Pandey

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​ओ३म्​

​🌷वेद के 120 अनमोल रत्न(सूक्तियाँ)🌷​

​1) न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन ।। ऋ०१०/१५२/१​
ईश्वर के भक्त को न कोई नष्ट कर सकता है न जीत सकता है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​2) तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ।। अ० ६/७९/३​
हे प्रभो हम तेरे भक्त हो।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​3) स नः पर्षद् अतिद्विषः ।। अ० ६/३४/१​
ईश्वर हमें द्वेषों से पृथक कर दे।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​4) न विन्धेऽस्य सुष्टुतिम् ।। ऋ० १/७/७​
मैं परमात्मा की स्तुति का पार नहीं पाता।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​5) यत्र सोमः सदमित् तत्र भद्रम् ।। अ० ७/१८/२​
जहां परमेश्वर की ज्योति है वहां सदा ही कल्याण है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​6) महे चन त्वामद्रिवः परा शुक्लाय देयाम् ।। ऋ० ८/१/५​
हे ईश्वर ! मैं तुझे किसी कीमत पर भी न छोडूँ।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​7) स एष एक एकवृदेक एव ।। अ० १३/४/२०​
वह ईश्वर एक और सचमुच एक ही है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​8) न रिष्यते त्वावतः सखा ।। ऋ०१/९१/८​
ईश्वर ! आपका मित्र कभी नष्ट नहीं होता।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​9) ओ३म् क्रतो स्मर ।। य० ४०/१५​
हे कर्मशील मनुष्य!तू ओ३म् का स्मरण कर।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​10) एको विश्वस्य भुवनस्य राजा ।। ऋ०६/३६/४​
वह सब लोकों का एक ही स्वामी है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​11) ईशावास्यमिदं सर्वम् ।। य०। ४०/१​
इस सारे जगत में ईश्वर व्याप्त है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​12) त्वमस्माकं तव स्मसि ।। ऋ०८/९२/३२​
प्रभु ! तू हमारा है, हम तेरे हैं।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​13) अधा म इन्द्र श्रृणवो हवेमा ।।ऋ०७/२९/३​
हे प्रभु !अब तो मेरी इन प्रार्थनाओं को सुन लो।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​14) तमेव विद्वान् न बिभाय मृत्योः ।। अ० १०/८/४४​
आत्मा को जानने पर मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​15) यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।। ऋ०१/१६४/३९​
जो उस ब्रह्म को नहीं जानता वह वेद से क्या करेगा।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​16) तवेद्धि सख्यम स्तृतम्।। ऋ० १/१५/५​
प्रभो! तेरी मैत्री ही सच्ची है।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​17) स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरूषेभ्यः ।। अ० १/३१/४​
सब पशु पक्षी और प्राणीमात्र का भला हो।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​18) स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु ।।अ० १/३१/४​
हमारे माता और पिता सुखी रहें।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​19) रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्याः पापीस्ताऽनीनशम् । अ०७/११५/४​
पुण्य की कमाई मेरे घर की शोभा बढावे और पाप की कमाई को मैं नष्ट कर देता हूं।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

​20) मा जीवेभ्यः प्रमदः ।।। अ०८/१/७​
प्राणियों की और से बेपरवाह मत हो।
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿… Read more