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श्रीमद्भागवतपुराण विद्या का अक्षय भण्डार है।


श्रीमद्भागवतपुराण विद्या का अक्षय भण्डार है। यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक, आधिदैविक और आधिदैहिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का यह महान ग्रन्थ है।

आज किसी मित्र के आग्रह पर उसी भागवत् कथा के एक प्रसंग का रसास्वादन करेंगे, जिसे आप मेरे द्वारा प्रस्तुत श्रीमद्भागवत कथा में पढ़ चुके है, कैसे भगवान् भोलेनाथ ने माता पार्वतीजी को भागवत् कथा का अमृत पान कराया? कैसे शुकदेवजी महाराज का प्रादुर्भाव हुआ? उसी भागवतजी के अलौकिक प्रसंग का एक बार फिर से हम सभी रसास्वादन करेंगे।

सज्जनों! एक बार भगवान् भोलेनाथ कहीं भ्रमण को चले गयें, भगवान् शिवजी की अनुपस्थिति में श्री नारदजी कैलाश पधारे और कुछ गड़बड़ करके चले गये, यानी माता से झगड़ा लगवाकर भगवान् के आते ही चले गये, भगवान् भोलेनाथ के आगमन पर प्रभु को कुछ शंका हुई, भगवान् ने कहा- क्या बात है? आज कैलाश पर सन्नाटा क्यों है?

पार्वतीजी ने सुन्दर वस्त्र उतार कर मलीन वस्त्र धारण कर लिये, आभूषण उतार दिये और अंधेरे में विराजमान है, पुराने जमाने में जब मकान बनवाते थे तो राजा-महाराजाओं के घर पर एक अलग से रूठने के लिये कमरा बनाया जाता था, जिसे कोप भवन कहते थे, लेकिन देवीयों के लिये ऐसी सुविधा होती थी या नहीं मुझे नहीं मालूम?

यानी स्त्रियों के रूठने का कमरा अलग से बनता था, अगर कोई उसमें चली गयी तो समझो वो रूठ गयी हैं, और पतिदेव बड़ी मनुहार से मनाया करते थे, माता पार्वती भी ऐसे ही भगवान् भोलेनाथ से रूठकर भवन में चली गयी, शंकरजी ने देखा, मेरे आश्रम से नारदजी निकलकर जा रहे हैं, और जाते-जाते शंकरजी से कहते गये, आश्रम में जल्दी पधारना प्रभु, माताजी ने याद किया है।

शंकरजी ने मन में सोचा, आप घर पधारकर आये है तो जरूर याद करती होंगी, जहाँ आपके चरण पडे वहाँ तो कल्याण ही होगा, शिवजी ने कहा क्या बात है देवी! आप इतनी उदास क्यों हैं? पार्वतीजी ने कहा रहने दीजिये, मैं तो आपको पति परमेश्वर मानती हूँ, आपकी सेवा करती हूंँ, पर आप अन्दर से भी काले और ऊपर से भी काले हैं।

शिवजी ने कहा, अन्दर से काला तो वो होता है जो कपट करता है और मैंने तो जीवन में कोई कपट नहीं किया आपसे, आप मुझे कपटी बोलती है, पार्वतीजी ने कहा, चौबीस घण्टे मुंडो की माला पहनते है, उसमें किसके मुंड लगे है, ये बात मुझे कभी बतायी? भगवान शिव ने कहा, आप ने कभी अवसर नहीं दिया, लेकिन मैं आपसे कितना प्रेम करता हूँ इसका यदि वास्तव में कोई प्रमाण है तो ये मुंडो की माला है।

मुंडमाला में किसी और के सिर नहीं लगे, आपके ही सिर है देवी, वैसे तो आप पराम्बा हैं, जगदम्बा है लेकिन लीला की सिद्धी के लिए जब-जब अपने जीवन में तुम परिवर्तन लाती हो, चरित्र में परिवर्तन लाती हो, तुम्हारी याद मुझे बनी रहे इसके लिए तुम्हारे ही सिर अपनी माला में पिरो लेता हूँ, मेरे जीवन में इतनी बार तुमने देह का परित्याग किया है, ये तुम्हारे ही सिर लगे है किसी और के नहीं।

हम तो मरने के बाद भी तुम्हारे सिर को माला में लटकाये घूमते हैं, तुम कहती हो, हम कपटी हैं, पार्वतीजी बोली, हे भगवान! तब तो आप महाकपटी निकले, शिवजी बोले वो कैसे? ऐसी कौन सी दवाई पी रखी है, जो आप तो कभी मरते नहीं और मुझे बार-बार मरना पड़ता है, वास्तव में प्रेम किये होते तो वो औषधि आप मुझे भी पिलाते, जिसे पीने से मैं भी अमर हो जाती।

भगवान् शंकरजी गंभीर हो गये, उनके नेत्र सजल हो गये और पराम्बा पार्वतीजी से बोले, देवी मैंने एक अद्भुत कथामृत का पान किया है और वो अमृत है, श्रीमद्भागवत कथामृत (अमर कथा) उस अमर कथा का पान करने के की वजह से मेरा कभी जन्म नहीं होता, कभी मृत्यु नहीं होती, माता पार्वतीजी चरणों में गिरकर बोलीं, वो अमृत आप मुझे भी पिलाओ भगवन! शिवजी राजी हो गयें।

शिवजी ने कहा, भागवत् की कथा सुनने के तीन विधान है, भागवत की कथा सन्मुख बैठकर सुननी चाहिये, एकदम व्यास मंच के पीछे के पीछे बैठकर भागवत सुनना शास्त्रों में निषेध है, भागवत की कथा में बीच में उठना नहीं चाहिये, व्यर्थ की बात बीच में नहीं बोलनी चाहिये, बोलना है तो कीर्तन बोलो या भगवान् की जय बोले।

भागवतजी की कथा में सोना नहीं चाहिये, एकाग्र होकर तन्मय होकर सुननी चाहिये, देवी! मैं तो जब कथा सुनाता हूँ, नेत्र बन्द करके सुनाता हूँ, आप सुन रही हो कि नहीं, यह मैं कैसे जान पाऊँगा, इसलिये जब तक कथा चलेगी, आप बीच-बीच में ओउम्, ओउम् का हुँकारा देती रहना, या हरे हरे का हुँकारा देती रहना, माता पार्वतीजी बोली ठीक है।

शिवजी ने जब कथा का आरम्भ किया, कैलाश पर्वत पर कोई नहीं था, श्रोता माता पार्वतीजी, और वक्ता भगवान शिवजी, शिवजी के पीछे फूटा हुआ अंडा जरूर पड़ा है, वो ही तोते का अंडा था, भगवान् भोलेनाथ भागवत् कथा सुनाने लगे, माता पार्वती ॐ, ॐ, ॐ कहकर सुन रही है, पहले दिन की कथा का जैसे ही विश्राम हुआ, पीछे पड़ा तोते का अण्डा साबुत हो गया, उस अंडे में जीव का प्रादुर्भाव हो गया।

दूसरे दिन की कथा के प्रभाव से अंडा फूट गया, उसमें से सुन्दर सा पक्षी निकला, पड़ा हुआ पक्षी तीसरे दिन की कथा को सुन रहा है, गद् गद् हो रहा है, अमृत वचन है ना भागवतजी में तो, भागवतजी में चौथे दिन तो आनन्द की कथा है, श्रीकृष्ण जन्म-महोत्सव, उनको सुनकर पक्षी गद् गद् हो गया, माता पार्वती ध्यान लगाये बैठी है।

सज्जनों! शिवजी ने माता पार्वती को जो कथा सुनायी, वो मेरी आपकी तरह थोड़े ही सुनायी थी, तीन घंटे सुबह सुनी, तीन घंटे शाम को सुनी, तीनघंटे में पैर कभी ऐसे कर लिया, मौका लगा तो व्यासजी की ओर पांव फैलाकर ही बैठ गये, ऐसे ही थोड़े हुई थी कथा, वो तो एक ही आसन से बैठे रहे और देखो, पहले दिन की कथा शाम को छः बजे पूरी हुई, उसी समय दूसरे दिन की कथा छः बजकर एक मिनट पर शुरू हो गयी।

सात दिन तक अविश्राम गति से कथा चलती रही, ऐसे ही कथा चल रही है, पांच दिन से कथा सुन रही है माता, श्रीकृष्ण की कथा बता रहे हैं भगवान् शिव, पक्षी बड़े प्रेम से सुन रहा हैं, भगवान् शंकरजी ने कहा, देवी पार्वती, जब उद्धवजी को पता चला, प्रभु श्रीकृष्ण अपनी लीला को समाप्त कर जाना चाहते है, तो उद्धव ने आकर कृष्ण चरणों में प्रणाम किया।

“योगेश योग विन्यासः” आप योग के स्वामी हैं, योग के अधीश्वर हैं, बताइये त्याग क्या है, वैराग्य क्या है, सन्यास क्या है? ये ज्ञानमय प्रसंग जब श्री उद्धव ने पूछा, इसको सुनते-सुनते माता पार्वती को निद्रा ने घेर लिया, पाँच दिन से अविरल सुन रही थी, शरीर में कभी-कभी थकान हो ही जाती है, तो पार्वतीजी माँ को झपकी लग गयी, झपकी लग गयी और वो सो गयीं।

लेकिन शिवजी तो नेत्र बन्द कर कथा सुना रहे है, उन्हें नहीं पता कौन सोया? पक्षी ने देखा, माँ सो गयी, हाजी, हाजी बंद हो गयी, और कहीं कथा विराम न ले लेवे, इसलिये पक्षी ने पार्वतीजी जैसे स्वर में ॐ-ॐ-ॐ कहना शुरू कर दिया, भागवतजी की कथा जब पूरी हो गयी, भगवान् शिव ने जोर से जयकार लगायी, बोलिये कृष्ण कन्हैया लाल की जय।

जैसे ही जोर से जयकारा लगाया, पार्वतीजी की नींद टूट गयी और कहने लगी, हाँ भगवान् फिर श्रीकृष्ण ने उद्धव से क्या कहा? शंकरजी ने कहा- क्या कहा का क्या मतलब? ये कथा तो पूरी भी हो गयी, पार्वतीजी बोली माफ करना प्रभु मेरे को थोड़ी निंद आ गयी, शिवजी ने कहा आप सो गई थी तो हूँकारा कौन भर रहा था? हूँकारे तो मुझे पुरे सुनाई दे रहे थे

भगवान् शिवजी ने इधर-उधर देखा कोई नहीं पर जैसे ही पिछे मुड के देखा तो वो ही शुक पक्षी दिखाई दिया, शिवजी ने कहा, इसने कथा सुनी, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु कथा बिना विधि के सुनी इसमें आपत्ति है, सामने बैठकर सुन लेता, परन्तु इसने तो पिछे बैठ कर कथा सुनी है, इसने तो अमर कथा की चोरी की हैं।

त्रिशूल लेकर भोलेनाथ उस शुक पक्षी को मारने के लिए दौड़े, कैलाश पर्वत से उडता-उडता पक्षी दौड लगाता है, कैलाश से नीचे उतरकर आयेंगे तो नीचे पड़ता है बद्रीनाथ धाम, बद्रीनाथ धाम में भगवान् वेदव्यासजी वास करते हैं, उनकी कुटिया का नाम है सम्याप्रास, वहीं उनकी पत्नी श्रीमती पिंगला देवी बैठी थी।

अपने पति से बोलीं, बुढापा तो आ गया, बेटा तो हुआ नहीं, व्यासजी बोले, भगवान् सब कल्याण करेंगे चिन्ता मत करो, ऐसा व्यास पत्नी सोच रही थीं कि उन्हें जोर से उबासी आ गयी, उसी समय उडता हुआ वो नन्हा सा शुक पक्षी पिंगलाजी के मुँह से होकर गर्भ में चला गया, भाई-बहनों वह शुक बारह वर्ष तक माँ पिंगलाजी के गर्भ में रहा।

आखिर भगवान् श्री हरि को आकर उन्हें आश्वासन देना पड़ा कि मेरी माया को तुम पर कोई असर नहीं होगा, तब कहीं जाकर शुकदेवजी महाराज का जन्म हुआ, भाई-बहनों, आप सभी ने भगवान् शिवजी द्वारा माँ पार्वतीजी को सुनाई गई अमरकथा के एक घूंट का श्रवण किया, भगवान् भोलेनाथ आपका कल्याण करें।

Sanjay gupta

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એક મહાત્મા રાજ્યગુરૂ હતા.અવારનવાર તે રાજમહેલમાં રાજાને ઉ૫દેશ આ૫વા માટે જતા હતા


એક મહાત્મા રાજ્યગુરૂ હતા.અવારનવાર તે રાજમહેલમાં રાજાને ઉ૫દેશ આ૫વા માટે જતા હતા.એક દિવસ તે રાજમહેલમાં ગયા અને ત્યાં જ ભોજન ૫ણ લીધું.બપોરના સમયે તેઓ એકલા આરામ કરી રહ્યા હતા.નજીકમાં જ ખીટીં ઉ૫ર રાણીનો કિંમતી હાર ભરાવેલ હતો. મહાત્માની નજર હાર ઉ૫ર ૫ડતાં જ તેમના મનમાં લોભ જાગી ઉઠ્યો.મહાત્માજીએ હાર ઉતારીને પોતાની ઝોળીમાં નાખી દીધો અને સમય થતાં પોતાની કુટીયા ઉ૫ર આવી ગયા.આ બાજું રાજમહેલમાં હાર ન મળતાં તેની શોધખોળ શરૂ કરવામાં આવી.નોકરોની પૂછ૫રછ શરૂ કરવામાં આવી.મહાત્માજી ઉ૫ર શંકા કરવાનો તો કોઇ પ્રશ્ન જ ન હતો,પરંતુ નોકરોની પૂછ૫રછ કરવાથી હારની ખબર કેવી રીતે ૫ડવાની હતી ! કારણ કે તેઓ તો બિચારા નિર્દોષ હતા.પૂરા ચોવીસ કલાક વિતિ ગયા છતાં હારનો પત્તો ના મળ્યો.બીજી તરફ મહાત્માનો મનોવિકાર દૂર થયો,તેમને પોતાના કૃત્ય ૫ર ઘણો જ ૫શ્ચાતા૫ થયો.તે તુરંત જ રાજદરબારમાં ૫હોચ્યા અને રાજાની સામે જ હાર મુકીને બોલ્યા કે ગઇકાલે હું જ આ હારને ચોરી લઇ ગયો હતો.મારી બુદ્ધિ બગડી ગઇ હતી..મારા મનમાં લોભ આવી ગયો હતો.આજે જ્યારે મને પોતાની ભુલની ખબર ૫ડી હો હાર લઇને દોડતો આવ્યો છું,૫રંતુ મને સૌથી વધુ દુઃખ એ વાતનું છે કે ચોર હું હતો અને અહી બિચારા નિર્દોષ નોકરોની દશા ખરાબ કરવામાં આવી રહી છે.
રાજાએ હસીને કહ્યું કેઃ મહારાજ ! આ૫ હાર લઇ જાઓ ! એ તો અસંભવ વાત છે.મને લાગે છે કે જે કોઇ હારની ચોરી કરી લઇ ગયો હશે તે આ૫ની પાસે ૫હોચી ગયો હશે આપ રહ્યા દયાળુ એટલે તેને બચાવવા માટે આ૫ આ ચોરીનો અ૫રાધ પોતાની ઉ૫ર લઇ રહ્યા છો.
મહાત્માજીએ ઘણી જ સમજાવીને રાજાજીને કહ્યું કેઃ હે રાજન ! હું જુઠું બોલતો નથી.ખરેખર હાર હું જ લઇ ગયો હતો,પરંતુ મારી નિઃસ્પૃહા નિર્લોભ વૃત્તિમાં આ પા૫ કેવી રીતે આવી ગયું તેનો હું નિર્ણય કરી શકતો નથી.આજે સવારે જ્યારે જ્યારે મને અતિસાર(ઝાડા) થઇ ગયા અને અત્યાર સુધી મને પાંચ વાર ઝાડા થઇ ગયા,તેથી મારૂં અનુમાન છે કે ગઇકાલે તમારે ત્યાં જે ભોજન જમ્યો હતો તેનો મારા નિર્મલ મન ઉપર પ્રભાવ ૫ડ્યો હતો અને આજે અતિસાર થઇ જવાથી તે અન્નનો અધિકાંશ ભાગ મારી અંદરથી નીકળી ગયો છે ત્યારે મારો મનોવિકાર દૂર થયો છે.તમે શોધખોળ કરીને મને બતાવો કે ગઇકાલે મને જે ભોજન પીરસવામાં આવ્યું હતું તે કેવું હતું અને ક્યાંથી આવ્યું હતું ?
રાજાએ તપાસ કરાવી તો ભંડારીએ બતાવ્યું કેઃ એક ચોરે ખુબ જ સારી જાતના ચોખાની ચોરી કરી હતી.ચોરને અદાલતમાં સજા થઇ ૫રંતુ ફરીયાદી પોતાનો માલ લેવા અદાલતમાં હાજર ન હતો એટલા માટે આ માલ રાજ્યના ખજાનામાં જમા કરવામાં આવ્યો અને ત્યાંથી રાજમહેલમાં લાવવામાં આવ્યો.ચોખા ખુબ જ સારી જાતના અને કિંમતી હતા એટલે મહાત્માજીના ભોજન માટે ચોખાની ખીર બનાવવામાં આવી હતી.મહાત્માજીએ કહ્યું કે એટલા માટે જ રાજ્યના અન્નનો નિષેધ કરવામાં આવ્યો છે.જેમ શારીરીક રોગના સુક્ષ્‍મ માનસિક ૫રમાણુ ફેલાઇને રોગનો વિસ્તાર કરે છે તેવી જ રીતે સુક્ષ્‍મ માનસિક ૫રમાણુ ૫ણ પોતાનો પ્રભાવ ફેલાવે છે.ચોરીના પરમાણુ ચોખામાં હતા તેનાથી જ મારૂં મન ચંચળ બન્યું અને ભગવાનની કૃપાથી અતિસાર(ઝાડા) થવાથી જ્યારે તેનો અધિકાંશ ભાગ મળ દ્વારા નીકળી ગયો ત્યારે મારી બુદ્ધિ શુદ્ધ થઇ ગઇ,એટલા માટે આહાર શુદ્ધિની આવશ્યકતા છે. કેમકે…

અન્નથી મન અને પાણીથી વાણી નિર્માણ થાય છે..!
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जब मृत्यु का भय सताये तब इस कथा को पढ़ें एवं भविष्य में सदैव स्मरण रखें


इस कहानी को समय देकर अवश्य पढें-जब मृत्यु का भय सताये तब इस कथा को पढ़ें एवं भविष्य में सदैव स्मरण रखें÷ (“मृत्यु से भय कैसा ??”)…. ।।सुन्दर दृष्टान्त ।।

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था।तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।राजन !

बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी।

जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा।रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया।

वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था।अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था।बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी।उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर जाने देने के लिए प्रार्थना की।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं।

इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं।ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।

इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता।
मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।

राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है।

बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी l बहेलिये ने सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिय। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

सोने पर झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा।अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वह वहीं निवास करने की बात सोचने लगा।वह बहेलिये से अपने और ठहरने की प्रार्थना करने लगा।

इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा।राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर विवाद खड़ा हो गया । कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा,”परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा रहने के लिए झंझट करना उचित था ?”

परीक्षित ने उत्तर दिया,” भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ?

वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।

“श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा,” हे राजा परीक्षित !
वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं।

इस मल-मूल की गठरी देह (शरीर) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते।

क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?

राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।

भाई – बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा।

और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो (उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया ( और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ की खुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता ।

अतः संसार में आने के अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचाने और उसको प्राप्त करें ऐसा कर लेने पर आपको मृत्यु का भय नहीं सताएगा।।

Sajay gupta

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युधिष्ठिर की भूल


🍁 🍁 🍁युधिष्ठिर की भूल 🍁 🍁 🍁

महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर हस्तिनापुर के राजा बने। चारों छोटे भाई सदा उनकी सेवा में लगे रहते थे। युधिष्ठिर का नियम था कि प्रतिदिन वह द्रौपदी के साथ राजमहल के मुख्य द्वार पर खड़े होते और आने वाले याचकों को उनकी अपेक्षा के अनुरूप सामग्री भेंट करते। सुबह से लेकर दोपहर तक धर्मराज का यह दान चलता था। एक दिन धर्मराज सभी को दान देकर राजमहल लौट आए। वह आसन पर बैठने को ही थे कि भीम ने आकर सूचना दी, दो याचक और आए है। वे बड़ी दूर से पहुंचे हैं और दर्शन तथा अपेक्षानुरूप सामग्री की कामना से भरे हैं। युधिष्ठिर उस दिन कुछ थके थे। उन्होंने भीम से कहा, ‘याचकों से कहो कि अब कल भेंट होगी।’ यह सुनकर भीम बाहर आए और राजमहल की सीढ़ियों पर खड़े होकर जोर-जोर से कहना शुरु किया, ‘हमारे महाराज अब तक धर्मराज थे। अब यमराज भी हो गए हैं।’ भीम का शोर सुन युधिष्ठिर आखिरकार बाहर आए और उनकी बात का अर्थ पूछा। भीम ने विनम्रता से कहा, ‘महाराज, आपने ही कहा था कि याचकों को कल बुलाऊं। आपकी बात और आने वाले कल पर आपका इतना विश्वास देख मुझे लगा कि आप तो यमराज ही हो गए हैं जो इतने विश्वास से कह सकते हैं कि कल आना। आपको इतना विश्वास है कि कल आप जीवित रहेंगे। मैंने तो सुना था कि जीवन का भरोसा एक पल भी नहीं। तब आप कैसे कह सकते है कि कल आना?’ युधिष्ठिर को तत्क्षण अपनी भूल का भान हुआ और उन्होंने उसी समय विलंब से पहुंचे दोनों याचकों को दान देकर विदा किया। युधिष्ठिर ने स्वीकारा कि अपने कार्य को कल पर लंबित नहीं करना चाहिए। ‘काल करे सो आज कर’ की प्रसिद्ध पंक्ति का यही आशय है कि अपने काम को कभी भी दूसरे दिन पर नहीं टालना चाहिए, उसे तुरंत करना चाहिए।
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Sanjay gupta

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#हमारी_कहानी

      कॉलबेल की आवाज़ सुनकर जैसे ही सुबह सुबह शांतनु ने दरवाजा खोला सामने एक पुराना से ब्रीफकेस लिए गांव के मास्टर जी और उनकी बीमार पत्नी खड़ी  थीं। मास्टर जी ने चेहरे के हाव भाव से पता लगा लिया कि उन्हें सामने देख शांतनु को जरा भी खुशी का अहसास न हुआ है।जबरदस्ती चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हुए बोला "अरे सर आप दोनों बिना कुछ बताए अचानक से चले आये!अंदर आइये।"

    मास्टर साहब ब्रीफकेस उठाये अंदर आते हुए बोले" हाँ बेटा, अचानक से ही आना पड़ा मास्टरनी साहब बीमार हैं पिछले कुछ दिनों से तेज फीवर उतर ही नहीं रहा ,काफी कमजोर भी हो गई है।गाँव के डॉक्टर ने AIIMS दिल्ली में अविलंब दिखाने की सलाह दी।अगर तुम आज आफिस से छुट्टी लेकर जरा वहाँ नंबर लगाने में मदद कर सको तो..."
        "नहीं नहीं ,छुट्टी तो आफिस से मिलना असंभव सा है "बात काटते हुए शांतनु ने कहा ।थोड़ी देर में प्रिया ने भी अनमने ढंग से से दो कप चाय और कुछ बिस्किट उन दोनों बुजुर्गों के सामने टेबल पर रख दिये। सान्या सोकर उठी तो मास्टर जी और उनकी पत्नी को देखकर खूब खुशी से चहकते हुए "दादू दादी"बोलकर उनसे लिपट गयी दरअसल छः महीने पहले जब शांतनु एक सप्ताह के लिए गाँव गया था तो सान्या ज्यादातर मास्टर जी के घर पर ही खेला करती थी।मास्टर जी निःसंतान थे और उनका छोटा सा घर शांतनु के गाँव वाले घर से बिल्कुल सटा था।बूढ़े मास्टर साहब खूब सान्या के साथ खेलते और  मास्टरनी साहिबा बूढ़ी होने के बाबजूद दिन भर कुछ न कुछ बनाकर सान्या को खिलातीं रहतीं थीं।बच्चे के साथ वो दोनों भी बच्चे बन गए थे।
        गाँव से दिल्ली वापस लौटते वक्त सान्या खूब रोई उसके अपने दादा दादी तो थे नहीं मास्टर जी और मास्टरनी जी में ही सान्या दादा दादी देखती थी।जाते वक्त शांतनु ने घर का पता देते हुए कहा कि "कभी भी दिल्ली आएं तो हमारे घर जरूर आएं बहुत अच्छा लगेगा।" दोनों बुजुर्गों की आँखों से सान्या को जाते देख आँसू गिर रहे थे और जी भर भर आशीर्वाद दे रहे थे।
      कुल्ला करने जैसे ही मास्टर जी बेसिन के पास आये प्रिया की आवाज़ सुनाई दी "क्या जरूरत थी तुम्हें इनको अपना पता देने की दोपहर को मेरी सहेलियाँ आती हैं उन्हें क्या जबाब दूँगी और सान्या को अंदर ले आओ कहीं बीमार बुढ़िया मास्टरनी की गोद मे बीमार न पड़ जाए"

शांतनु ने कहा “मुझे क्या पता था कि सच में आ जाएँगे रुको किसी तरह इन्हें यहाँ से टरकाता हूँ”
दोनों बुजर्ग यात्रा से थके हारे और भूखे आये थे सोचा था बड़े इत्मीनान से शांतनु के घर चलकर सबके साथ आराम से नाश्ता करेंगे।इस कारण उन्होंने कुछ खाया पिया भी न था। आखिर बचपन में कितनी बार शांतनु ने भी तो हमारे घर खाना खाया है। उन्होंने जैसे अधिकार से उसे उसकी पसंद के घी के आलू पराठे खिलाते थे इतना बड़ा आदमी बन जाने के बाद भी शांतनु उन्हें वैसे ही पराठे खिलायेगा।
” सान्या!!” मम्मी की तेज आवाज सुनकर डरते हुए सान्या अंदर कमरे में चली गयी।थोड़ी देर बाद जैसे ही शांतनु हॉल में उनसे मिलने आया तो देखा चाय बिस्कुट वैसे ही पड़े हैं और वो दोनों जा चुके हैं।
पहली बार दिल्ली आए दोनों बुजुर्ग किसी तरह टैक्सी से AIIMS पहुँचे और भारी भीड़ के बीच थोड़ा सुस्ताने एक जगह जमीन पर बैठ गए ।तभी उनके पास एक काला सा आदमी आया और उनके गाँव का नाम बताते हुए पूछा” आप मास्टर जी और मास्टरनी जी हैं ना।मुझे नहीं पहचाना मैं कल्लू ।आपने मुझे पढ़ाया है।”
मास्टर जी को याद आया “ये बटेसर हरिजन का लड़का कल्लू है बटेसर नाली और मैला साफ करने का काम करता था।कल्लू को हरिजन होने के कारण स्कूल में आने पर गांववालो को ऐतराज था इसलिए मास्टर साहब शाम में एक घंटे कल्लू को चुपचाप उसके घर पढ़ा आया करते थे।”
” मैं इस अस्पताल में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हूँ।साफ सफाई से लेकर पोस्टमार्टम रूम की सारी जिम्मेवारी मेरी है।”
फिर तुरंत उनका ब्रीफकेस सर पर उठाकर अपने एक रूम वाले छोटे से क्वार्टर में ले गया।रास्ते में अपने साथ काम करने वाले लोगों को खुशी खुशी बता रहा था मेरे रिश्तेदार आये हैं मैं इन्हें घर पहुँचाकर अभी आता हूँ घर पहुँचते ही पत्नी को सारी बात बताई पत्नी ने भी खुशी खुशी तुरंत दोनों के पैर छुए फिर सब मिलकर एक साथ गर्मा गर्म नाश्ता किए।फिर कल्लू की छोटी सी बेटी उन बुजुर्गों के साथ खेलने लगी।
कल्लू बोला “आपलोग आराम करें आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी बदौलत ही हूँ फिर कल्लू अस्पताल में नंबर लगा आया। “कल्लू की माँ नहीं थी बचपन से ही।
मास्टरनी साहब का नंबर आते ही कल्लू हाथ जोड़कर डॉक्टर से बोला “जरा अच्छे से इनका इलाज़ करना डॉक्टर साहब ये मेरी बूढ़ी माई है “सुनकर बूढ़ी माँ ने आशीर्वाद की झड़ियां लगाते हुए अपने काँपते हाथ कल्लू के सर पर रख दिए। वो बांझ औरत आज सचमुच माँ बन गयी थी उसे आज बेटा मिल गया था और उस बिन माँ के कल्लू को भी माँ मिल गयी थी…… Sanjay

Gupta

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भक्त और भगवान का युद्ध,मित्रो आज हम आपको,अर्जुन-कृष्ण युद्ध की एक रोचक कथा बतायेगें।

एक बार महर्षि गालव जब प्रात: सूर्यार्घ्य प्रदान कर रहे थे, उनकी अंजलि में आकाश मार्ग में जाते हुए चित्रसेन गंधर्व की थूकी हुई पीक गिर गई| मुनि को इससे बड़ा क्रोध आया| वे उए शाप देना ही चाहते थे कि उन्हें अपने तपोनाश का ध्यान आ गया और वे रुक गए|

उन्होंने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से फरियाद की,श्याम सुंदर तो ब्रह्मण्यदेव ठहरे ही, झट प्रतिज्ञा कर ली – चौबीस घण्टे के भीतर चित्रसेन का वध कर देने की। ऋषि को पूर्ण संतुष्ट करने के लिए उन्होंने माता देवकी तथा महर्षि के चरणों की शपथ ले ली।

गालव जी अभी लौटे ही थे कि देवर्षि नारद वीणा झंकारते पहुंच गए।भगवान ने उनका स्वागत-आतिथ्य किया।शांत होने पर नारद जी ने कहा, प्रभो !

आप तो परमानंद कंद कहे जाते हैं, आपके दर्शन से लोग विषादमुक्त हो जाते हैं, पर पता नहीं क्यों आज आपके मुख कमल पर विषाद की रेखा दिख रही है। इस पर श्याम सुंदर ने गालव जी के सारे प्रसंग को सुनाकर अपनी प्रतिज्ञा सुनाई। अब नारद जी को कैसा चैन?

आनंद आ गया| झटपट चले और पहुंचे चित्रसेन के पास, चित्रसेन भी उनके चरणों में गिर अपनी कुण्डली आदि लाकर ग्रह दशा पूछने लगे| नारद जी ने कहा, अरे तुम अब यह सब क्या पूछ रहे हो? तुम्हारा अंतकाल निकट आ पहुंचा है। अपना कल्याण चाहते हो तो बस, कुछ दान-पुण्य कर लो।चौबीस घण्टों में श्रीकृष्ण ने तुम्हें मार डालने की प्रतिज्ञा कर ली है।

अब तो बेचारा गंधर्व घबराया, वह इधर-उधर दौड़ने लगा,वह ब्रह्मधाम, शिवपुरी, इंद्र-यम-वरुण सभी के लोकों में दौड़ता फिरा, पर किसी ने उसे अपने यहां ठहरने तक नहीं दिया।

श्रीकृष्ण से शत्रुता कौन उधार ले।अब बेचारा गंधर्वराज अपनी रोती-पीटती स्त्रियों के साथ नारद जी की ही शरण में आया।नारद जी दयालु तो ठहरे ही, बोले, अच्छा यमुना तट पर चलो।

वहां जाकर एक स्थान को दिखाकर कहा, आज, आधी रात को यहां एक स्त्री आएगी। उस समय तुम ऊंचे स्वर में विलाप करते रहना। वह स्त्री तुम्हें बचा लेगी। पर ध्यान रखना, जब तक वह तुम्हारे कष्ट दूर कर देने की प्रतिज्ञा न कर ले, तब तक तुम अपने कष्ट का कारण भूलकर भी मत बताना।

नारद जी भी विचित्र ठहरे,एक ओर तो चित्रसेन को यह समझाया, दूसरी ओर पहुंच गए अर्जुन के महल में सुभद्रा के पास| उससे बोले, सुभद्रे ! आज का पर्व बड़ा ही महत्वपूर्ण है।आज आधी रात को यमुना स्नान करने तथा दीन की रक्षा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्त होगी।

आधी रात को सुभद्रा अपनी एक-दो सहेलियों के साथ यमुना-स्नान को पहुंची| वहां उन्हें रोने की आवाज सुनाई पड़ी| नारद जी ने दीनोद्धार का माहात्म्य बतला ही रखा था।सुभद्रा ने सोचा, चलो, अक्षय पुण्य लूट ही लूं।

वे तुरंत उधर गईं तो चित्रसेन रोता मिला।उन्होंने लाख पूछा, पर वह बिना प्रतिज्ञा के बतलाए ही नहीं। अंत में इनके प्रतिज्ञाबद्ध होने पर उसने स्थिति स्पष्ट की,अब तो यह सुनकर सुभद्रा बड़े धर्म-संकट और असमंजस में पड़ गईं।

एक ओर श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा – वह भी ब्राह्मण के ही के लिए, दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा| अंत में शरणागत त्राण का निश्चय करके वे उसे अपने साथ ले गईं| घर जाकर उन्होंने सारी परिस्थिति अर्जुन के सामने रखी (अर्जुन का चित्रसेन मित्र भी था) अर्जुन ने सुभद्रा को सांत्वना दी और कहा कि तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी।

नारद जी ने इधर जब यह सब ठीक कर लिया, तब द्वारका पहुंचे और श्रीकृष्ण से कह दिया कि, ‘महाराज ! अर्जुन ने चित्रसेन को आश्रय दे रखा है, इसलिए आप सोच-विचारकर ही युद्ध के लिए चलें|’ भगवान ने कहा, ‘नारद जी ! एक बार आप मेरी ओर से अर्जुन को समझाकर लौटाने की चेष्टा करके तो देखिए|’ अब देवर्षि पुन: दौड़े हुए द्वारका से इंद्रप्रस्थ पहुंचे।

अर्जुन ने सब सुनकर साफ कह दिया – ‘यद्यपि मैं सब प्रकार से श्रीकृष्ण की ही शरण हूं और मेरे पास केवल उन्हीं का बल है, तथापि अब तो उनके दिए हुए उपदेश – क्षात्र – धर्म से कभी विमुख न होने की बात पर ही दृढ़ हूं| मैं उनके बल पर ही अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करूंगा| प्रतिज्ञा छोड़ने में तो वे ही समर्थ हैं| दौड़कर देवर्षि अब द्वारका आए और ज्यों का त्यों अर्जुन का वृत्तांत कह सुनाया, अब क्या हो?

युद्ध की तैयारी हुई| सभी यादव और पाण्डव रणक्षेत्र में पूरी सेना के साथ उपस्थित हुए| तुमुल युद्ध छिड़ गया| बड़ी घमासान लड़ाई हुई| पर कोई जीत नहीं सका| अंत में श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र छोड़ा| अर्जुन ने पाशुपतास्त्र छोड़ दिया| प्रलय के लक्षण देखकर अर्जुन ने भगवान शंकर को स्मरण किया| उन्होंने दोनों शस्त्रों को मनाया।

फिर वे भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे और कहने लगे, प्रभो ! राम सदा सेवक रुचि राखी| वेद, पुरान, लोक सब राखी| भक्तों की बात के आगे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाना तो आपका सहज स्वभाव है| इसकी तो असंख्य आवृत्तियां हुई होंगी| अब तो इस लीला को यहीं समाप्त कीजिए|

बाण समाप्त हो गए| प्रभु युद्ध से विरत हो गए| अर्जुन को गले लगाकर उन्होंने युद्धश्रम से मुक्त किया, चित्रसेन को अभय किया| सब लोग धन्य-धन्य कह उठे| पर गालव को यह बात अच्छी नहीं लगी| उन्होंने कहा, यह तो अच्छा मजाक रहा| स्वच्छ हृदय के ऋषि बोल उठे, लो मैं अपनी शक्ति प्रकट करता हूं| मैं कृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा समेत चित्रसेन को जला डालता हूं।

पर बेचारे साधु ने ज्यों ही जल हाथ में लिया, सुभद्रा बोल उठी, मैं यदि कृष्ण की भक्त होऊं और अर्जुन के प्रति मेरा प्रतिव्रत्य पूर्ण हो तो यह जल ऋषि के हाथ से पृथ्वी पर न गिरे| ऐसा ही हुआ| गालव बड़े लज्जित हुए| उन्होंने प्रभु को नमस्कार किया और वे अपने स्थान पर लौट गए| तदनंतर सभो अपने-अपने स्थान को पधारे।

Sanjay gupta

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मित्रो बहुत जिज्ञासा होती है, चंदन के बारे में जानने की ,क्योंकि हिन्दूधर्म में इसे बहुत पवित्र मानते हैं, पढ़े एक ज्ञानवर्धक प्रस्तुति चंदन के बारे में,,,,,

भारतीय चंदन का संसार में सर्वोच्च स्थान है। इसका आर्थिक महत्व भी है। यह पेड़ मुख्यत: कर्नाटक के जंगलों में मिलता है तथा देश के अन्य भागों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है। भारत के 600 से लेकर 900 मीटर तक कुछ ऊँचे स्थल और मलयद्वीप इसके मूल स्थान हैं।

तने की नरम लकड़ी तथा जड़ को जड़, कुंदा, बुरादा, तथा छिलका और छीलन में विभक्त करके बेचा जाता है। इसकी लकड़ी का उपयोग मूर्तिकला, तथा साजसज्जा के सामान बनाने में, और अन्य उत्पादनों का अगरबत्ती, हवन सामग्री, तथा सौगंधिक तेज के निर्माण में होता है।

आसवन द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग 3,000 मीटरी टन चंदन की लकड़ी से तेल निकाला जाता है। एक मीटरी टन लकड़ी से 47 से लेकर 50 किलोग्राम तक चंदन का तेल प्राप्त होता है। रसायनज्ञ इस तेल के सौगंधिक तत्व को सांश्लेषिक रीति से प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।

चन्दन के अनेक प्रकार है पर लाल और सफ़ेद चन्दन ही प्रयोग में लाये जाते है जिसमे से लाल चन्दन अधिक गुणकारी है।

एसिडिटीके उपचार के लिए चन्दन द्वारा चिकित्सा युगों से चली आ रही चिकित्सा प्रणाली है। चन्दन गैस से संबधित परेशानियों को ठंडक प्रदान करता है।

इसका लेप त्वचा के लिए बहुत लाभकारी है , विशेषतः गर्मी की समस्याओं में . विभिन्न फेस पैक में चन्दन पावडर मिला कर लगाने से त्वचा सुन्दर बनती है. कील मुंहासे रूखापन दूर हो कर रंग निखरता है।

पूजन में भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है।

चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।

मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है।

इसे प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है हमारे ऋषिगण इस बात को भलीभाँति जानते थे पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शुभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन से बार-बार उस के उद्दीपन से हमारे शरीर में स्थूल-सूक्ष्म अवयन जागृत हो सकें।

चन्दन का तिलक हमें शीतलता प्रदान करता है और गर्म मौसम में भी कार्य करने की सहक्ति और ऊर्जा देता है. इससे दिमाग भी तेज होता है।

गर्मियों में ठंडक के लिए चन्दन का शरबत –
सामग्री : चंदन = 30 ग्राम मिश्री = 1 किलो
केवड़ा जल = 1 चम्मच
विधि :
सफेद चन्दन को महीन पीसकर कपड़े से छान कर लें। चूर्ण को पानी में भिगो दें। दूसरे दिन उसे कपड़े में से छानकर मिश्री के घोल में मिलाकर आग पर रख दें। जब पक कर आधा रह जाये तो उतार लें और उसमें स्वादानुसार केवड़ा डालकर मिलाएँ। शर्बत तैयार है। ठंडा करके बोतल में भर लें और जब चाहे उपयोग में लाएँ।

गंधोदक स्नान ,देवताओं को स्नान कराने की प्रक्रिया बाहरी तौर पर तो तन को स्वच्छ और ठंडा करने वाली दिखाई देती है। किंतु असल में यह मानसिक शांति और प्रसन्नता भी देती है।

स्नान का संबंध पवित्रता से भी है। स्वच्छता या पवित्रता चाहे वह शरीर, कर्म, विचार, व्यवहार या आचरण की हो, हमेशा कलह को दूर रखती है। धर्मशास्त्र भी सुखी जीवन के लिए यही सीख देते हैं।

असल में इंसान के कर्म ही सुख-दु:ख का कारण होतें हैं। चूंकि कर्म तो इंसान के हाथों में होते हैं, किंतु इंसान सहित संपूर्ण जगत काल के अधीन है, जिसके नियंत्रण परब्रह्म या ईश्वर को माना गया है, जो हिन्दू धर्म में पंचदेवों के रूप में पूजनीय है।

आस्था के साथ कण-कण में बसे ईश्वर की प्रसन्नता के लिए इंसान उन क्रियाओं द्वारा खुद को जोड़ता और शांति पाता है, जिसे वह भी दैनिक जीवन में महसूस करता और अपनाता है। देव स्नान द्वारा भी यही कामना होती है कि दु:ख और अशांति रूपी ताप से रक्षा हो और सुख और शांति रूपी शीतलता जीवन में बनी रहे। सार यही है कि इंसान अच्छे कर्म व ईश्वर का स्मरण न भूले।

देवस्नान के लिए मंत्र विशेष का महत्व बताया गया है, जो यथासंभव देवता को स्नान कराते वक्त बोलना शुभ फलदायी और सुखदायी माना गया है –

मलयाचलसम्भूतचन्दनेन विमिश्रितम्।
इदं गन्धोदकं स्नानं कुङ्कुमाक्तं नु गृह्यताम्।।

भारतीय प्राचीनतम परम्परा में शिष्य और गुरु परम्परा साधना में अपनी एक अलग जगह रखती है। माथे पर लगाया हुआ चन्दन यह बताता है कि यह व्यक्ति किस गुरू का शिष्य है? दूसरी बात जो माथे का चन्दन बताता है की यह ब्यक्ति की साधना में कौन सी स्थिति में है?

माथे का चन्दन चन्दन लगानें वाले का ध्यान अपनें ऊपर रहता है अर्थात ध्यान तीसरी आँख पर हर पल रखना अपनें में स्वयं ही एक सहज ध्यान है|चन्दन जैसे-जैसे सूखता जाता है वैसे-वैसे यह वहाँ की त्वचा को सिकोड़ता रहता है और यह चन्दन लगानें वाले के ध्यान को अपनी ओर खीचता रहता है।

माथे पर लगा चन्दन अपनी ओर अर्थात तीसरी आँख पर ध्यान को खीच कर मन को विचार शून्यता की स्थिति में रखनें का प्रयाश करता है और मन की विचार शून्यता परम् ध्यान की स्थिति होती है। चन्दन चक्रों की ऊर्जा को गति देता है और ऊर्जा को निर्विकार भी बनाता है।

चन्दन लगाने के निम्न स्थान हैं और चन्दन लगानें के ढंग भी अलग,अलग हैं,ललाट का मध्य भाग,सर में जहां चोटी रखते हैं [सहस्त्रार चक्र]

दोनों आँखों की पलकों के ऊपर,दोनों कानों पर,नाक,गला ,दोनों भुजाओं का,मध्य,भाग,ह्रदय,गर्दन,नाभि,रीढ़ की हड्डी का नीचला भाग नाभि के ठीक पीछे लगभग एक इंच नीचे की ओर। इन अंगों को ठीक से देखें और इनको साधना की दृष्टि से समझें।

न्यूरोलोजी की दृष्टि से यदि इन स्थानों को देखते हैं तो चन्दन का सीधा सम्बन्ध इस तंत्र के उन भागों से हैं जो या तो सूचनाओं को एकत्रित करते हैं या उन सूचनाओं की एनेलिसिस करते हैं. विज्ञान अभीं तक यह समझता रहा है कि स्पाइनल कार्ड मात्र सूचनाओं को एकत्रित करनें के तंत्र का एक प्रमुख भाग है लेकिन अभीं हाल में पता चला है कि यह सूचनाओं की
एनेलिसिस भी कर्ता है जैसे ब्रेन करता है।

शरीर के किसी भाग पर खुजली होने पर चंदन पाउडर में हल्दी और 1 चम्मच नींबू का रस मिलाकर लगाने से खुजली तो दूर हो जाएगी साथ में लालपन भी कम होता है। चंदन में कीटाणुनाशक विशेषता होने की वजह से यह हर्बल एंटीसेप्टिक है, इसलिए किसी भी प्रकार के छोटे घाव और खरोंच को ठीक करता है।

यह जलने से हुए घाव को भी ठीक कर सकता है। शादी से पहले जब नववधू उबटन लगाए तो हल्दी में चंदन मिला कर लगाने से स्किन में निखार आएगा। मच्छर या खटमल के काटे पर सूजन और खुजली हो जाती है तो चंदन का लेप लगाया जा सकता है। चंदन का तेल सूखी स्किन के लिए गुणकारी होता है यह सूखी स्किन को नमी प्रदान करता है।

शरीर के किसी भाग का रंग काला पड गया हो तो 2 चम्मच बादाम का तेल, 5 चम्मच नारियल का तेल और 4 चम्मच चंदन पाउडर मिलाकर उस खुले भाग पर लगाएं। इससे कालापन तो जाएगा ही, फिर से स्किन काली नहीं होगी। किसी को अधिक पसीना आता है, तो चंदन पाउडर में पानी मिला कर बदन पर लगाने से पसीना कम होगा ।

चंदन पाचन क्रिया को ठीक करता है। चंदन का किसी भी रूप में प्रयोग गुणकारी होता है। चाहे आप इसको तेल, पाउडर, साबुन आदि किसी भी रूप में हो, चंदन शरीरिक प्रक्रिया का संतुलन बनाता है। साथ में स्त्रायुतंत्र और श्वास प्रक्रिया को मजबूत बनाता है।

चन्दन का काढा पिने से बुखार , खुनी दस्त में लाभ होता है।

यह मानसिक उन्माद को समाप्त कर देता है।
गाय के गोबर से बने कंडे या उपले को जलाएं। अब थोड़ा लोबान, कपूर, गुगल, देशी घी और चंदन उस पर रख दें। जब धुआं होने लगे तब इस धुएं को पूरे घर में फैलाएं।

इस धुएं के प्रभाव से घर के वातावरण में मौजूद सभी सुक्ष्म कीटाणु नष्ट हो जाएंगे, हवा में पवित्र सुगंध फैल जाएगी। इसके अलावा घर की सभी नेगेटिव एनर्जी निष्क्रीय हो जाएगी और सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव बढ़ जाएगा।

Sajay gupta

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एक गिद्ध का बच्चा अपने माता-पिता के साथ रहता था। एक दिन गिद्ध का बच्चा अपने पिता से बोला- “पिताजी, मुझे भूख लगी है।” “ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर। मैं अभी भोजन लेकर आता हूूं।” कहते हुए गिद्ध उड़ने को उद्धत होने लगा। तभी उसके बच्चे ने उसे टोक दिया, “रूकिए पिताजी, आज मेरा मन इन्सान का गोश्त खाने का कर रहा है।” “ठीक है, मैं देखता हूं।” कहते हुए गिद्ध ने चोंच से अपने पुत्र का सिर सहलाया और बस्ती की ओर उड़ गया।

बस्ती के पास पहुंच कर गिद्ध काफी देर तक इधर-उधर मंडराता रहा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली। थक-हार का वह सुअर का गोश्त लेकर अपने घोंसले में पहुंचा। उसे देख कर गिद्ध का बच्चा बोला, “पिताजी, मैं तो आपसे इन्सान का गोश्त लाने को कहा था, और आप तो सुअर का गोश्त ले आए?” पुत्र की बात सुनकर गिद्ध झेंप गया। वह बोला, “ठीक है, तू थोड़ी देर प्रतीक्षा कर।” कहते हुए गिद्ध पुन: उड़ गया। उसने इधर-उधर बहुत खोजा, पर उसे कामयाबी नहीं मिली।

अपने घोंसले की ओर लौटते समय उसकी नजर एक मरी हुई गाय पर पड़ी। उसने अपनी पैनी चोंच से गाय के मांस का एक टुकड़ा तोड़ा और उसे लेकर घोंसले पर जा पहुंचा। यह देखकर गिद्ध का बच्च एकदम से बिगड़ उठा, “पिताजी, ये तो गाय का गोश्त है। मुझे तो इन्सान का गोश्त खाना है। क्या आप मेरी इतनी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकते?” यह सुनकर गिद्ध बहुत शर्मिंदा हुआ। उसने मन ही मन एक योजना बनाई और अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए निकल पड़ा।

गिद्ध ने सुअर के गोश्त एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और उसे मस्जिद की बाउंड्रीवाल के अंदर डाल दिया। उसके बाद उसने गाय का गोश्त उठाया और उसे मंदिर के पास फेंक दिया। मांस के छोटे-छोटे टुकड़ों ने अपना काम किया और देखते ही पूरे शहर में आग लग गयी। रात होते-होते चारों ओर इंसानों की लाशें बिछ गयी। यह देखकर गिद्ध बहुत प्रसन्न हुआ। उसने एक इन्सान के शरीर से गोश्त का बड़ा का टुकड़ा काटा और उसे लेकर अपने घोंसले में जा पहुंचा।

यह देखकर गिद्ध का पुत्र बहुत प्रसन्न हुआ। वह बोला, “पापा ये कैसे हुआ? इन्सानों का इतना ढेर सारा गोश्त आपको कहां से मिला?” गिद्ध बोला, “बेटा ये इन्सान कहने को तो खुद को बुद्धि के मामले में सबसे श्रेष्ठ समझता है, पर जरा-जरा सी बात पर ‘जानवर’ से भी बदतर बन जाता है और बिना सोचे-समझे मरने- मारने पर उतारू हो जाता है। इन्सानों के वेश में बैठे हुए अनेक गिद्ध ये काम सदियों से कर रहे हैं। मैंने उसी का लाभ उठाया और इन्सान को जानवर के गोश्त से जानवर से भी बद्तर बना दियाा।”

साथियो, क्या हमारे बीच बैठे हुए गिद्ध हमें कब तक अपनी उंगली पर नचाते रहेंगे? और कब तक हम जरा-जरा सी बात पर अपनी इन्सानियत भूल कर मानवता का खून बहाते रहेंगे? अगर आपको यह कहानी सोचने के लिए विवश कर दे, तो प्लीज़ इसे दूसरों तक भी पहुंचाए। क्या पता आपका यह छोटा सा प्रयास इंसानों के बीच छिपे हुए किसी गिद्ध को इन्सान बनाने का कारण बन जाए।

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🔴विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशीर्वाद मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं— धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।

शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच-विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।

विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।

उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।

विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश।

वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ।

सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?

शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी।

आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद।

शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।

इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ?

शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्म-रक्षा सहज मालूम होती है।

मैत्री आत्म-रक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है : मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब-कुछ जो है।

ओशो – प्रभु की पगडंडियां, प्रवचन~४
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Sanjeev sukla

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भक्तों की दरिद्रता


जगत−जननी पार्वती ने एक भूखे भक्त को श्मशान में चिता के अंगारों पर रोटी सेंकते देखा तो उनका कलेजा मुँह को आ गया।
वह दौड़ी−दौड़ी ओघड़दानी शंकर के पास गयीं और कहने लगीं−”भगवन्! मुझे ऐसा लगता है कि आपका कठोर हृदय अपने अनन्य भक्तों की दुर्दशा देखकर भी नहीं पसीजता। कम−से−कम उनके लिए भोजन की उचित व्यवस्था तो कर ही देनी चाहिए। देखते नहीं वह बेचारा भर्तृहरि अपनी कई दिन की भूख मृतक को पिण्ड के दिये गये आटे की रोटियाँ बनाकर शान्त कर रहा है।”
महादेव ने हँसते हुए कहा- “शुभे! ऐसे भक्तों के लिए मेरा द्वार सदैव खुला रहता है। पर वह आना ही कहाँ चाहते हैं यदि कोई वस्तु दी भी जाये तो उसे स्वीकार नहीं करते। कष्ट उठाते रहते हैं फिर ऐसी स्थिति में तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं?”
माँ भवानी अचरज से बोलीं- “तो क्या आपके भक्तों को उद्रपूर्ति के लिए भोजन को आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती?”
श्री शिव जी ने कहा- “परीक्षा लेने की तो तुम्हारी पुरानी आदत है यदि विश्वास न हो तो तुम स्वयं ही जाकर क्यों न पूछ लो। परन्तु परीक्षा में सावधानी रखने की आवश्यकता है।”
भगवान शंकर के आदेश को देर थी कि माँ पार्वती भिखारिन का छद्मवेश बनाकर भर्तृहरि के पास पहुँचीं और बोली- ”बेटा! मैं पिछले कई दिन से भूखी हूँ। क्या मुझे भी कुछ खाने को देगा?”
“अवश्य” भर्तृहरि ने केवल चार रोटियाँ सेंकी थीं उनमें से दो बुढ़िया माता के हाथ पर रख दीं। शेष दो रोटियों को खाने के लिए आसन लगा कर उपक्रम करने लगे।
भिखारिन ने दीन भाव से निवेदन किया- “बेटा! इन दो रोटियों से कैसे काम चलेगा? मैं अपने परिवार में अकेली नहीं हूँ एक बुड्ढा पति भी है उसे भी कई दिन से खाने को नहीं मिला है।”
भर्तृहरि ने वे दोनों रोटियाँ भी भिखारिन के हाथ पर रख दीं। उन्हें बड़ा सन्तोष था कि इस भोजन से मुझसे से भी अधिक भूखे प्राणियों का निर्वाह हो सकेगा। उन्होंने कमण्डल उठाकर पानी पिया। सन्तोष की साँस ली और वहाँ से उठकर जाने लगे।
तभी आवाज सुनाई दी- “वत्स! तुम कहाँ जा रहे हो?”
भर्तृहरि ने पीछे मुड़ कर देखा। माता पार्वती दर्शन देने के लिए पधारी हैं।
माता बोलीं- “मैं तुम्हारी साधना से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें जो वरदान माँगना हो माँगो।”
प्रणाम करते हुए भर्तृहरि ने कहा- “अभी तो अपनी और अपने पति की क्षुधा शाँत करने हेतु मुझसे रोटियाँ माँगकर ले गई थीं। जो स्वयं दूसरों के सम्मुख हाथ फैला कर अपना पेट भरता है वह क्या दे सकेगा। ऐसे भिखारी से मैं क्या माँगू।”
पार्वती जी ने अपना असली स्वरूप दिखाया और कहा- “मैं सर्वशक्ति मान हूँ। तुम्हारी परदुःख कातरता से बहुत प्रसन्न हूँ जो चाहो सो वर माँगो।”
भर्तृहरि ने श्रद्धा पूर्वक जगदम्बा के चरणों में शिर झुकाया और कहा- “यदि आप प्रसन्न हैं तो यह वर दें कि जो कुछ मुझे मिले उसे दीन−दुखियों के लिए लगाता रहे और अभावग्रस्त स्थिति में बिना मन को विचलित किये शान्त पूर्वक रह सकूँ।”
पार्वती जी ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान् शिव के पास लौट गई।
त्रिकालदर्शी शम्भु यह सब देख रहे थे उन्होंने मुसकराते हुए कहा- “भद्रे, मेरे भक्त इसलिए दरिद्र नहीं रहते कि उन्हें कुछ मिलता नहीं है। परंतु भक्ति के साथ जुड़ी उदारता उनसे अधिकाधिक दान कराती रहती हैं और वे खाली हाथ रहकर भी विपुल सम्पत्तिवानों से अधिक सन्तुष्ट बने रहते है।”
बाबा विश्वनाथ की कृपा आप सब पर बनी रहे..!
ॐ नमः शिवाय!! श्री शिवाय नमस्तुभ्यं!!
हर-हर महादेव..!! Hi

Dev krishna