एक संन्यासी को दिखाई बिलकुल देना बंद हो गया था। एक दिन वह कहीं जा रहा था। मार्ग में उसे पता लगा कि राजा की सवारी आने वाली है। थोड़ी देर में ही रास्ते के दोनों ओर लोग फूल मालाएं लेकर खड़े होने लगे। संन्यासी की इच्छा भी इस दृश्य का अनुभव करने की हुई। वह देख भले ही नहीं सकता था, लेकिन सबसे आगे निकलकर खड़ा हो गया। राजा के रथ के आगे सिपाही, मंत्री और दरबारी चल रहे थे। सबसे आगे बाजा बजाते हुए एक दल था। कुछ देर में ही शाही सवारी एकदम करीब आ पहुंची। तभी एक सिपाही ने डपट कर सभी से कहा-‘दूर हटो।’ जवाब में निडर संन्यासी ने कहा- ‘समझ गया।’
मंत्रिमंडल के सदस्यों का समूह सामने आया तो उनमें से एक ने आगे आकर कहा-‘संन्यासी जी, जरा संभल कर! कहीं भीड़ में आप गिर न जाएं?’ संन्यासी ने जोर से कहा, ‘समझ गया।’ तभी राजा की शाही सवारी आ पहुंची। राजा ने देखा कि एक तेजस्वी संन्यासी राह में खड़ा है। उन्होंने रथ रुकवाया और उतरकर संन्यासी के चरण स्पर्श कर विनम्रता से कहा, ‘महाराज! आपको इस भीड़ में आने की क्या आवश्यकता थी। आदेश दे दिया होता मैं ही आपके दर्शन के लिए चला आता।’
संन्यासी ने इस बार भी जोर से कहा- ‘समझ गया, समझ गया।’ राजा यह सुनकर हैरान रह गया। उसने पूछ ही लिया, ‘आप क्या समझ गए महाराज?’ संन्यासी ने कहा, ‘राजन, हर व्यक्ति की आवाज में भी उसके व्यक्तित्व व गरिमा की झलक होती है। मैं देख तो नहीं सकता, लेकिन तीनों बार आवाज सुनकर ही समझ गया था कि पहला व्यक्ति आपका सिपाही था, दूसरा आपका मंत्री और तीसरी बार आप स्वयं।