मम्मी फटक लूं खिचड़ी को लाली निकल गई’, ‘नहीं अभी नहीं निकली और चोट मार।’ इन दिनों की यादों में शामिल है भाभी का बार-बार फटकने पर ज़ोर देना और मम्मी का चोट मारने के लिए कहना। मेरी मां बाजरे की खिचड़ी को कुटवा-कुटवा कर सफ़ेद करवा देती, कहती – ‘खिचड़ी धौली पड़क कुटनी चाहिए, जितनी मेहनत लगेगी उतनी ही स्वादिष्ट बनेगी।’ बचपन से मैं सर्दियों में मम्मी का ये खिचड़ी बनाओ का लंबा कार्यक्रम देखती आई हूं। अब सभी गांव में एक साथ नहीं रहते, तो जो जहां भी जा बसा, मां वहीं खिचड़ी कुटवाकर भिजवाने की कोशिश करती हैं।
मधुरिमा
बाजरे की खिचड़ी का शौक़ मेरे घर में सभी को है। हमारे गांव में शाम के वक़्त खिचड़ी बनती है जिसे रात को गर्मा-गर्म घी, गुड़, शक्कर के बूरे आदि के साथ खाई जाती है और सुबह बची हुई खिचड़ी दही के साथ खाई जाती है।
शाम को तीन-चार बजे मां खिचड़ी कूटना शुरू करती। पहले बाजरे में थोड़ा पानी का छिड़का देती, फिर कूटना शुरू करती। ऊखल (ओखली) में मूसल से चोट मारते जाओ, एक व्यक्ति तो कूटेगा ही।
कई बार मम्मी भाभी या बड़ी बहन के साथ कूटतीं, शानदार नज़ारा होता, दो जन मूसल से बारी-बारी चोट मारते। बच्चों को पीछे की तरफ़ जाने की मनाही थी क्योंकि मूसल से चोट लग सकती थी। मैं हमेशा सोचा करती कि इनके मूसल आपस में टकराते क्यों नहीं हैं। और तो और मम्मी दो मूसलों की चोट के बीच खिचड़ी को ऊपर नीचे भी करती जाती, बाजरे का छिलका बाहर आता जाता, उसे मां लाली कहतीं। शुरुआत में एकदम काले रंग की लाली निकलती, मां छाजले (छाज) से फटककर सारी लाली बाहर करतीं। खिचड़ी दोबारा ऊखल में जाती, फिर से कूटी जाती, दूसरी बार की लाली का रंग थोड़ा भूरा होता।
मां बाजरे को मसलकर देखतीं छिलका पूरी तरह उतर गया या नहीं। साथ कूटने वाली चोट मारती थक चुकी होती सो कह देती निकल गया सारा छिलका फटक लो अब। पर मां थोड़ा और कूटने का आदेश दे देती। कूटते-कूटते मां को भी समझ आ जाता कि थोड़ी छूट दे दी जाए, तो कहतीं, ‘चल जा चूल्हा जलाकर पानी चढ़ा आ खिचड़ी के लिए, इतने में मैं कूटती हूं।’ दो बार छिलके को फटककर निकाल देने के बाद बाजरे को महीन कूटा जाता। आख़िर में मां जब संतुष्ट हो जाती तो कहतीं, ‘जा थाली ले आ कुट गई खिचड़ी।’
खिचड़ी कूटने के बाद हम सारे बच्चे मां के साथ चूल्हे के पास पहुंच जाते, बड़े से बर्तन में उबलते पानी में मां धीरे-धीरे खिचड़ी डालतीं। उस वक़्त ध्यान से काम करना होता नहीं तो खिचड़ी में गुठली पड़ने का डर रहता। खिचड़ी डालने के बाद मां चने की दाल और चावल मंगवाती, दोनों की एक-एक मुट्ठी डाल देतीं और नमक डालकर चाटू (लकड़ी का चम्मच) से चलाती रहतीं। खिचड़ी जैसे ही खदकने लगती मां कहती, ‘बच्चों दूर हट जाओ खिचड़ी लात मारेगी।’ उबलती हुई खिचड़ी में से गरमा-गरम खिचड़ी उछलकर किसी के हाथ या पांव पर गिर जाना किसी लात से कम न होता था। हम बार-बार पूछते कितनी देर में बनेगी, मां कहती ‘अभी कसर है।’ थाली में थोड़ी-सी खिचड़ी डालकर चने की दाल को दबाकर देखती थीं मां कि बनी या नहीं। हम कई बार थोड़ी-थोड़ी खिचड़ी डलवाकर चाटते पर मां थोड़ी-सी ही डालतीं। कहतीं, ‘कच्ची है पेट दर्द हो जाएगा।’ खिचड़ी बनते ही हम बच्चे घी या मक्खन के साथ खाते।
मेरे बड़े पापा का खिचड़ी खाने का अंदाज़ सबसे अलग था। वे अपनी थाली में खिचड़ी के बीच जगह बनाते उसमें तिल का तेल डलवाते। मां लोहे की फूंकनी या चिमटे को चूल्हे में डाल देती थी, जब वो एकदम गर्म हो जाता तो खिचड़ी में डले तेल को उससे छुआया जाता, चड़ाचड़ की आवाज़ आती और हल्का धुंआ भी उठता। इसे तेल को पकाना कहा जाता है, खिचड़ी में तेल को मिलाकर बड़े पापा खाते। कई बार मैंने भी ये अनोखा स्वाद चखा था। गुड़, लाल वाली शक्कर, बूरा के साथ भी ये खिचड़ी मज़ेदार लगती। पापा तो थाली में थोड़ी-सी खिचड़ी बचती तब कहते- ‘जा थोड़ा दूध डलवा ला इसमें।’ सच कहूं तो रात के समय खिचड़ी तो एक थी लेकिन उसके स्वाद अनेक थे। हम बच्चों का छोटा-सा पेट किस-किस स्वाद को समेटे इसलिए कुछ स्वाद अगली बारी के लिए छोड़ दिए जाते। सुबह खिचड़ी ठंडी होती तो दही के साथ ही खाई जाती। अब जब मैं ख़ुद खिचड़ी बनाती हूं तो मां के जितनी स्वादिष्ट नहीं बन पाती।
फोन पर कूटने संबंधी बारीकियां मां से पूछती हूं तो कहती हैं- ‘इमामदस्ते में बाजरे का दाना फूट जाता है इसलिए छिलका पूरा नहीं निकल पाता और थोड़ी कड़वी बनती है।’ मेरी समस्या के समाधान के लिए मां ने मेरे लिए ऊखल ख़रीद लिया है और कह रही थी, ‘तेरे लिए एक हल्का मूसल बनवाऊंगी।’ मैंने कहा, ‘ज़रूर बनवा देना।’ मैं कल्पना करने लगी ऊखल में खिचड़ी कूटती मैं, आस-पास मंडराते बच्चे। हम फिर से जिएंंगे बचपन को। विरासत में मिला यह ‘खिचड़ी दर्शन’ तो रहेगा भले ही वो मिट्टी के चूल्हे पर न बनकर गैस के चूल्हे पर बनेगी पर बनेगी ज़रूर, वादा रहा।