काशी में एक जगह पर तुलसीदास रोज रामचरित मानस का पाठ करते थे ।
उनकी कथा को बहुत सारे भक्त सुनने आते थे !
तुलसीदास जी रोज जंगल में
शौच के लिए जाते थे एवं शौच के पश्चात्
वापिस नगर की ओर लौटते हुए
शौच से बचा हुआ लोटे का पानी
एक पेड़ की जड़ में डाल दिया करते थे ,
जिससे उस पेड़ पर रहने वाले
एक पेड़ की प्यास बुझती थी।
एक दिन वह प्रेत तुलसीदास के सामने
प्रकट हो गया और बोला कि
आपने शौच के बचे हुए जल से
जो सींचन किया है मैं उससे तृप्त हुआ हूँ
और मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ।
तुलसीदास बोले – मेरी केवल एक ही इच्छा है , प्रभु श्री राम के दर्शन।
राम जी की कथा तो मैंने लिखी भी
और गायी भी है परन्तु साक्षात् दर्शन
अभी तक नहीं हुए।
यदि दर्शन हो जाए तो बड़ी कृपा होगी!
उस प्रेत ने कहा कि महाराज!
आपको प्रभु श्री राम के दर्शन करवा सकूँ ,
ऐसी मेरी सामर्थ्य नहीं हैं और यदि मैं
दर्शन करवा सकता तो मैं अब तक
स्वयं इस प्रेत योनि से मुक्त हो चुका होता।
प्रेत की बात सुनकर तुलसीदास जी बोले – परन्तु इसके अतिरिक्त मुझे
और कुछ नहीं चाहिए।
तब उस प्रेत ने कहा – सुनिए श्रीमान !
मैं आपको दर्शन तो नहीं करवा सकता ,
लेकिन दर्शन कैसे होंगे उसका मार्ग
आपको अवश्य बता सकता हूँ।
तुलसीदास जी ने कोतुहल वश वह मार्ग पूछा।
प्रेत बोला आप जहाँ पर कथा सुनाते हो,
बहुत सारे भक्त सुनने आते हैं।
आपको तो मालूम नहीं लेकिन मैं जानता हूँ! आपकी कथा में रोज हनुमानजी भी
सुनने आते हैं।
वे आपको अवश्य ही श्री राम जी से
मिलवा सकते हैं।
तब तुलसीदास जी ने पूछा-
“पर मैं उनको कैसे पहचानूँगा ?”
तब प्रेत ने उन्हें बताया कि हनुमान जी कथा में सबसे पहले आते हैं और सबसे बाद में जाते हैं तथा वे सबसे पीछे कम्बल ओढ़कर,
एक दीन हीन एक कोढ़ी के रूप में बैठते हैं । उनके पैर पकड़ लेना वो हनुमान जी ही हैं।
तुलसीदास जी बड़े प्रसन्न हुए हैं।
आज जब कथा हुई ,
गोस्वामीजी की नजर उसी व्यक्ति पर थी और कथा के अंत में सबसे आखिर में जैसे ही वो व्यक्ति जाने लगा, तो तुलसीदास जी अपने आसन से कूद पड़े और दौड़ पड़े।
जाकर उस व्यक्ति के चरणों में गिर गए।
तुलसीदास जी बोले कि प्रभु आप सबसे छुप सकते हो मुझसे नहीं छुप सकते हो।
अब आपके चरण मैं तब तक नहीं छोडूंगा जब तक आप प्रभु राम जी से नहीं मिलवाओगे।
कृपा करके मुझे प्रभु राम जी के
दर्शन करा दीजिए ।
राम जी के साक्षात्कार के सिवा
अब और कोई जीवन की अभिलाषा
शेष नहीं बची। ।
हनुमानजी, आप तो राम जी से
मिलवा सकते हो। अगर आप नहीं मिलवाओगे तो कौन मिलवायेगा?
तुलसीदास जी का अनुनय विनय सुनकर हनुमानजी अपने दिव्य स्वरूप में
प्रकट हो गए।
हनुमानजी बोले कि आपको रामजी अवश्य मिलेंगे और मैं मिलवाऊँगा, लेकिन
उसके लिए आपको चित्रकूट जाना पड़ेगा,
वहाँ आपको श्री राम जी के
साक्षात् दर्शन होंगे।
तुलसीदास जी चित्रकूट पहुँचे ।
मन्दाकिनी जी में स्नान कर ,
कामदगिरि की परिक्रमा लगा रहे थे ,
तभी सामने से घोड़े पर सवार होकर
दो सुकुमार राजकुमार आते हुए दिखाई दिए । एक गौर वर्ण और एक श्याम वर्ण।
उनका रूप और तेज देखते ही बनता था ,
अद्भुत सौन्दर्य था उनका।
तुलसीदास जी उनकी छवि देख कर
मंत्रमुग्ध होकर उनको देखते रहे और सोचने लगे कि ये राजकुमार यहाँ क्या कर रहे हैं।
वे यह समझ ही नहीं पाए कि
वही श्री राम और लक्ष्मण हैं।
उन दिव्य राजकुमारों के जाने के बाद हनुमानजी प्रकट हुए और तुलसीदास जी पूछा कि क्या उनको श्री राम जी के दर्शन हुए।
तुलसीदास जी ने कहा – नहीं ?
तब हनुमान जी ने बताया कि अभी अभी घोड़े पर जो राजकुमार गए है ,
वे श्री राम और लक्षमण ही थे।
तुलसीदास जी बहुत दुखी हुए और उन्होंने हनुमान जी से एक बार फिर से
दर्शन कराने की प्रार्थना की
जिसे हनुमान जी ने स्वीकार कर लिया।
अगले ही दिन सुबह तुलसीदास जी मन्दाकिनी नदी में स्नान करने के पश्चात् घाट पर बैठ कर राम नाम का जप कर रहे थे और चन्दन घिस रहे थे और भगवान किस रूप में दुबारा दर्शन देंगे यह सोच रहे थे। तभी भगवान राम एक बालक के रूप में उनके समक्ष आये और कहा बाबा.. बाबा… चन्दन तो आपने बहुत प्यारा घिसा है। थोड़ा सा चन्दन हमें दे दो… लगा दो। गोस्वामीजी को लगा कि कोई बालक होगा। चन्दन घिसते देखा तो आ गया। तो तुरंत लेकर चन्दन बालक को देने लगे।
हनुमानजी समझ गए कि आज फिर तुलसीदास जी से चूक हो सकती है।
हनुमानजी तुरंत तोता बनकर आ गए
शुक रूप में और कहा कि –
हनुमानजी ने अत्यंत करुणरस में इशारा किया कि अब मत चूक जाना।
आज जो आपसे चन्दन ग्रहण कर रहे हैं ये साक्षात् रघुनाथ हैं।
तुलसीदास जी ने सिर उठाकर देखा तो
सामने दिव्य रूप में श्री राम जी खड़े थे। तुलसीदास जी उनको देखते ही रह गए।
प्रभु श्री राम ने फिर से उनसे चन्दन माँगा
पर तुलसीदास जी तो प्रभु श्रीराम जी का
रूप देखकर पूरी तरह स्थिर हो चुके थे ,
उनको तो जैसे कुछ सुनाई ही ना दिया हो।
वे तो बस प्रभु श्री राम जी को निहारते ही रहे। यह देखकर श्री राम ने स्वयं ही
चन्दन लिया और तुलसीदास जी के
माथे पर लगाकर अंतर्ध्यान हो गए…