Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

नमस्कार दोस्तों
आज मेरी कहानी का नाम है

(((( जैसा बोओगे वैसा काटोगे ))))
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सुनो.. कल मम्मी पापा आ रहे हैं दस दिन रूकेंगे.. एडजस्ट कर लेना.. मयंक ने स्वाति को बैड पर लेटते हुए कहा।
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कोई बात नही आने दीजिए आपको शिकायत का कोई मौका नही मिलेगा..
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स्वाति ने भी प्रति उत्तर में कहा और स्वाति ने लाइट बन्द कर दी और दोनो सो गए।
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सुबह जब मयंक की आंख खुली तो स्वाति बिस्तर छोड़ चुकी थी।
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चाय ले लो.. स्वाति ने मयंक की तरफ चाय की प्याली को बढाते हुए कहा..
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अरे तुम आज इतनी जल्दी नहा ली..
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हां तुमने रात को बताया था कि आज मम्मी पापा आने वाले हैं तो सोचा घर को कुछ व्यवस्थित कर लूं..
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स्वाति ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा.. वैसे.. किस वक्त तक आ जाएंगे वो लोग..
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दोपहर वाली गाड़ी से पहुंचेंगे चार तो बज ही जाऐंगे.. मयंक ने चाय का कप खत्म करते हुए जवाब दिया..
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स्वाति.. देखना कभी पिछली बार की तरह..
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नही नही.. पिछली बार जैसा कुछ भी नही होगा.. स्वाति ने भी कप खत्म करते हुए मयंक को कहा और उठकर रसोई की तरफ बढ गई।
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मयंक भी आफिस जाने के लिए तैयार होने के लिए बाथरूम की तरफ बढ गया।
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नाश्ता करने के बाद मयंक ने स्वाति से पूछा.. तुम तैयार नही हुई.. क्या बात.. आज स्कूल की छुट्टी है..??
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नही.. आज तुम निकलो मैं आटो से पहुंच जाऊंगी.. थोड़ा लेट निकलूंगी.. स्वाति ने लंच बाक्स थमाते हुए मयंक को कहा।
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बाय बाय.. कहकर मयंक बाइक से आफिस के लिए निकल गया, और स्वाति घर के काम में लग गई..
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मुझे तो बहुत डर लग रहा है मैं तुम्हारे कहने से वहां चल तो रहा हूं लेकिन पिछली बार बहू से जिस तरह खटपट हुई थी मेरा तो मन ही भर गया था।
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ना जाने ये दस दिन कैसे जाने वाले हैं.. मयंक के पिता जी मयंक की मम्मी से कह रहे थे।
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अजी.. भूल भी जाइये.. बच्ची है.. कुछ हमारी भी तो गलती थी।
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हम भी तो उससे कुछ ज्यादा ही उम्मीद लगाए बैठे थे। उन बातों को सालभर बीत गया है.. क्या पता कुछ बदलाव आ गया हो।
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इंसान हर पल कुछ नया सीखता है.. क्या पता कौन सी ठोकर किस को क्या सिखा दे..
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मयंक की मां ने पिता जी को हौंसला देते हुए कहा..
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मयंक की मां यह कहकर चुप हो गई और याद करने लगी..
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दो भाइयों में मयंक बड़ा था और विवेक छोटा।
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मयंक गांव से दसवीं करके शहर आ गया.. आगे पढने और विवेक पढाई में कमजोर था, इसलिए गांव में ही पिता जी का खेती बाड़ी में हाथ बंटाने लगा।
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मयंक बी टेक करके शहर में ही बीस हजार रू की नौकरी करने लगा।
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स्वाति से कोचिंग सेन्टर में ही मयंक की जान पहचान हुई थी यह बात मयंक ने स्वाति से शादी के कुछ दिन पहले बताई।
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पिता जी कितने दिन तक नही माने थे इस रिश्ते के लिए..
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वो तो मैने ही समझा बुझाकर रिश्ते के लिए मनाया था वरना ये तो पड़ौस के गांव के अपने दोस्त की बेटी माला से ही रिश्ता करने की जिद लगाए बैठे थे।
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गांव आकर स्वाति के घर वालों ने शादी की थी.. दो साल होने को आए उस दिन को भी।
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शादी करके दोनो शहर में ही रहने लगे। स्वाति भी प्राइवेट स्कूल में टीचर की जाॅब करने लगी।
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पिछली बार जब गांव से आए थे तो मन में बड़ी उमंगे थी पर सात आठ दिन में ही बहू के तेवर और बेटे की बेबसी के चलते वापस गांव की तरफ हो लिए।
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कई बार मयंक को फोन करकर बोला भी की बेटा गांव आ जा.. पर वो हर बार कह देता..
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मां छुट्टी ही नही मिलती कैसे आऊं..
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लेकिन मैं ठहरी एक मां.. आखिर मां का तो मन करता है ना अपने बच्चे से मिलने का.. बहू चाहे कैसा भी बर्ताव करे..
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काट लेंगे किसी तरह ये दस दिन.. पर बच्चे को जी भरकर देख तो लेंगे..
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अरे भागवान.. उठ जाओ.. स्टेशन आ गया उतरना नही है क्या.. मयंक के पिता जी की आवाज मयंक की मां को यादों की दुनियां से वापस खींच लाई..
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सामान उठाकर दोनो स्टेशन से बाहर आ गए और आटो में बैठकर दोनो मयंक के घर के लिए रवाना हो गए..
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घर पहुंचे तो बहू घर पर ही थी। जाते ही बहू ने दोनो के पैर छुए..
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हम दोनो को ड्राइंगरूम में बिठाकर हम दोनो के लिए ठण्डा ठण्डा शरबत लाई..
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हम लोगों ने जैसे ही शरबत खत्म किया बहू ने कहा, पिता जी… आप सफर से थक गए होंगे.. नहा लिजिए..
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सफर की थकान उतर जाएगी फिर मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।
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पिता जी नहाने चले गए। बहू रसोई में घुसकर खाना बनाने लगी।
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थोड़ी देर में मयंक भी आ गया। फिर बैठकर सबने थोड़ी देर बातें की और फिर सबने खाना खाया। मयंक और बहू सोने चले गए और हम भी सो गए।
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सुबह पांच बजे पिता जी उठे तो तो बहू उठ चुकी थी..
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पिता जी को उठते ही गरम पानी पीने की आदत थी बहू ने पहले से ही पिता जी के लिए पानी गरम कर रखा था..
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नहा धोकर पिता जी को मंदिर जाने की आदत थी.. बहू ने उनको जल से भरकर लौटा दे दिया..
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नाश्ता भी पिता जी की पसंद का तैयार था..
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सबको नाश्ता करवा कर बहू मयंक के साथ चली गई पिताजी ने भी चैन की सांस ली..
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चलो अब चार पांच घण्टे तो सूकून से निकलेंगे।
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दिन के खाने की तैयारी बहू करकर गई थी सो मैने चार पांच रोटियां हम दोनो की बनाई और खा ली।
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स्कूल से आते ही बहू फिर से रसोई में घुस गई और हम दोनों के लिए चाय बना लाई..
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शाम को हम दोनों को लेकर बहू पास के पार्क में गई वहां उसने हमारा परिचय वहां बैठे बुजुर्गों से करवाया..
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वो अपनी सहेलियों से बात करने लगी और हम अपने नए परिचितों से परिचय में व्यस्त हो गए।
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शाम के सात बज चुके थे.. हम घर वापस आ गए। मयंक भी थोड़ी देर में घर आ गया।
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बैठकर खूब सारी बातें हुई। बहू भी हमारी बातों में खूब दिलचस्पी ले रही थी थोड़ी देर बाद सब सोने चले गए।
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अगले दिन सण्डे था बहू, मयंक और हम दोनो चिड़ियाघर देखने गए..
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हमारे लिए ताज्जुब की बात ये थी की प्रोग्राम बहू ने बनाया था.. बहू ने खूब अच्छे से चिड़ियाघर दिखाया और शाम को इण्डिया गेट की सैर भी करवाई..
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खाना पीना भी हम सबने बाहर ही किया.. फिर हम सब घर आ गए और सो गए..
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इस खुशमिजाज रूटीन से पता ही नही चला वक्त कब पंख लगाकर उड़ गया..
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कहां तो हम सोच रहे थे कि दस दिन कैसे गुजरेंगे और कहां पन्द्रह दिन बीत चुके थे।
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आखिर कल जब विवेक का फोन आया कि फसल तैयार हो गई है और काटने के लिए तैयार है तो हमें अगले ही दिन गांव वापसी का प्रोग्राम बनाना पड़ा।
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रात का खाना खाने के बाद हम कमरे में सोने चले गए तो बहू हमारे कमरे में आ गई बहू की आंखों से आंसू बह रहे थे।
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मैने पूछा.. क्या बात है बहू.. रो क्यों रही हो.?
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तो बहू ने पूछा.. पिताजी, मां जी.. पहले आप लोग एक बात बताइये..
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पिछले पन्द्रह दिनों में कभी आपको यह महसूस हुआ की आप अपनी बहू के पास है या बेटी के पास..
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नही बेटा सच कहूं तो तुमने हमारा मन जीत लिया.. हमें किसी भी पल यह नही लगा की हम अपनी बहू के पास रह रहें हैं
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तुमने हमारा बहुत ख्याल रखा, लेकिन एक बात बताओ बेटा.. तुम्हारे अंदर इतना बदलाव आया कैसे..??
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पिताजी.. पिछले साल मेरे भाई की शादी हुई थी। मेरे मायके की माली हालात बहुत ज्यादा बढिया नही है।
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इन छुट्टियों में जब मैं वहां रहने गई तो मैने अपने माता पिता को एक एक चीज के लिए तरसते देखा..
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बात बात पर भाभी के हाथों तिरस्कृत होते देखा.. मेरा भाई चाहकर भी कुछ नही कर सकता था।
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मैं वहां उनके साथ हो रहे बर्ताव से बहुत दुखी थी।
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उस वक्त मुझे अपनी करनी याद आ रही थी.. कि किस तरह का सलूक मैंने आप दोनो के साथ किया था।
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किसी ने यह बात सच ही कही है कि “जैसा बोओगे वैसा काटोगे”।
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मैं अपने मां बाप का भविष्य तो नही बदल सकती लेकिन खुद को बदल कर मैं ये उम्मीद तो अपने आप में जगा ही सकती हूं..
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कि कभी मेरी भाभी में भी बदलाव आएगा और मेरे मां बाप भी सुखी होंगे…
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बहू की बात सुनकर मेरी आंखे भर आई। मैने बहू को खींचकर गले से लगा लिया.. हां बेटा अवश्य एक दिन अवश्य ऐसा होगा…
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ठोकर सबको लगती है लेकिन सम्भलता कोई कोई ही है, लेकिन हम दुआ करेंगे कि तुम्हारी भाभी भी सम्भल जाए..
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बहू अब भी रोए जा रही थी उसकी आंखों से जो आंसू गिर रहे थे वो शायद उसके पिछली गलतियों के प्रायश्चित

संजय गुप्ता

Posted in संस्कृत साहित्य

#जंकफ़ूड #नेगेटिवएनर्जी का #स्रोत:
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“अहमन्नमहमन्नम” मैं अन्न हूँ । ( तै. उपनिषद)
अन्न ब्रम्ह है। अर्थात अन्न ही एनर्जी है। अन्न ही प्राणरस है। अन्न न मिलने की स्थिति में प्राण पखेरू इस काया को त्याग देते हैं।
रहीम ने लिखा:
“रहिमन रहिला की भली जो परसत चित लाय।
परसत मन मैला करै सो मैदा जरि। जाय ।।”

चित लगाकर बनाये और परोसे गए भोजन में प्राण होता है। प्राण यानी सात्विक या पॉजिटिव एनर्जी। मां के हाँथ का बनाया गया रूखा सूखा भी दुनिया का स्वादिष्ट व्यंजन लगता है। क्योंकि उसमें मां के मन का भाव भी भोजन में ट्रांसफर हो जाता है। और उस भोजन से सात्विक ऊर्जा या पॉजिटिव एनर्जी मिलती है।

इसीलिए कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी आतिथ्य का त्यागकर विदुर के घर साग रोटी खाया था। इसीलिए भोजन वही करना चाहिए जो प्रेम से पकाया और परोसा गया हो। ये भोजन का मनोवैज्ञानिक पक्ष है ।

ताजे भोजन में भी सात्विक या पॉजिटिव एनर्जी मिलती है। भागवत गीता के अनुसार एक प्रहर यानी 3 घण्टे से ज्यादा बासी भोजन तामसी हो जाता है। तामसी अर्थात नेगेटिव एनर्जी।

“यातयामम् गतरसम् पूति पर्युषितं च यत।
उच्छिष्टमपि चामेध्यम् भोजनं तामसप्रियम्।।”
( भाग गीता 17.10)
अर्थात ” खाने से तीन घण्टे पूर्व पकाया गया, रसहीन, बिगड़ा एवं दुर्गन्धयुक्त जूठा एवं अश्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन तामसी लोगो को प्रिय होते हैं। ”
तामसी अर्थात नेगेटिव एनर्जी से युक्त पर्सनालिटी।
जितने भी जंक फूड हैं वे नेगेटिव एनर्जी के स्रोत होते हैं। यदि उनमे presrvative न मिलाया जाय तो वे सड़ जायँ।
( आजकल ऑर्गनिक का बड़ा जोर है। भारत मे सिरका अचार आदि जो भी बनते थे वे बिना preservative के बनते थे।
अब मॉडर्न युग के लोगों को वो सब उपलब्ध नहीं है। )
नेगेटिव एनर्जी स्ट्रेस का प्रबल स्रोत होता है और स्ट्रेस से आप जानते है कि मॉनसिक अवसाद होता है उससे – डायबिटीज ब्लड प्रेशर आदि होता है।
सात्विक भोजन से आयु, सत्व ( अस्तित्व), बल, आरोग्य, सुख और संतोष बढ़ता है। यानी स्ट्रेस कम होता है।

पश्चिमी जीवन पद्धति नेगेटिव एनर्जी का संचय करती है और मन मे असंतोष, भय, संशय और कुंठा पैदा करती है क्योंकि उनका भोज्य प्रायः नेगेटिव एनर्जी वाला ही होता है।

पैक्ड फ़ूड = जंक फूड = स्ट्रेस युक्त जीवन = ब्लड प्रेशर डायबिटीज, मॉनसिक अवसाद।

#जैसाखायअन्न #वैसाबनेमन्न।

यह नेगेटिव एनर्जी पर लिखा गया था, पूर्व में।

निओ दीप

Posted in रामायण - Ramayan

चौदह वर्ष के वनवास में राम कहां-कहां रहे?

प्रभु श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।

रामायण में उल्लेखित और अनेक
अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में…

1.केवट प्रसंग :राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

‘सिंगरौर’ : इलाहाबाद से 22 मील (लगभग 35.2 किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है।

‘कुरई’ :इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

इस ग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहां गंगा को पार करने के पश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछ देर विश्राम किया था।

2.चित्रकूट के घाट पर :कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थल है। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

चित्रकूट में श्रीराम के दुर्लभ प्रमाण,,चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

3.अत्रि ऋषि का आश्रम :चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी।

अत्रि पत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु व महेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपने तपोबल से बालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद ही तीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओं के वरदान से उन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरे पुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासा ऋषि को कौन नहीं जानता?

अत्रि के आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माता अनुसूइया उन राक्षसों से भयभीत रहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों का वध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।’

राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।

4.दंडकारण्य :अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है। छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों से भी अधिक समय तक रहे थे।

‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों में नर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षों तक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतना के आगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्ण आश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तर और जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमान हैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि।

राम वहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर की ओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एक पर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट की ऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाता है। यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओर बिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है।

वर्तमान में करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर है।

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण के सहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसका इन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक समृद्ध नगर की नींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था। यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापना की। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है।

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

दंडकारण्य क्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र की उत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है। यहीं पर उनका महाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था।

5.पंचवटी में राम :दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

उस काल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक से गोदावरी का उद्गम स्थान त्र्यंम्बकेश्वर लगभग 20 मील (लगभग 32 किमी) दूर है। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है।

अगस्त्य मुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक में श्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी के तट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक में गोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्ष थे- पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था।

यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। यहां पर मारीच वध स्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है। नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप में विद्यमान है।

मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

6.सीताहरण का स्थान ‘सर्वतीर्थ’ :नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है। इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

पर्णशाला : पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था।

इस स्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी ने धरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

7.सीता की खोज : सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसके बाद श्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

8.शबरी का आश्रम :तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है।

पम्पा नदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भी जाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौर रजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यह स्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है।

9.हनुमान से भेंट :मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया।

ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था।

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था।

10.कोडीकरई :हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

11.रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

12.धनुषकोडी :वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया।

छेदुकराई तथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भी मौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम में धनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों को रामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं।

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटाने के कई प्रयास किए गए। अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगों में भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल को क्षतिग्रस्त नहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बाद में बंदरगाह बनाने के चलते इस पुल को क्षतिग्रस्त किया गया।

30मील लंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है। श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग का निर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहती है। इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंका के ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुए रामसेतु पर भारत और श्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था।

तेरहवांपड़ाव ‘नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला : – वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू के आसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं।

रामायण की कहानी के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)
  • बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)

  • कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)

  • नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)

  • नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)

  • श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना ‘जानकी हरण’ (सातवीं शताब्दी)

संदर्भ ग्रंथ :
1.वाल्मीकि रामायण
2.वैदिक युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता (सरोज बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्रा

संजय गुप्ता

Posted in रामायण - Ramayan

श्रीरामकथा के अल्‍पज्ञात दुर्लभ प्रसंग :- त्रिभुवन में मेघनाद (इन्‍द्रजित्‌) का वध कौन कर सकता था ?

हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।
रामचन्‍द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लागि जाहिं न गाए॥

श्रीरामजी की अनंत श्रीरामकथाओं में मेघनाद वध की कथा विभिन्‍न रामायणों में एक जैसी वर्णित है। मेघनाद वध लक्ष्‍मणजी द्वारा हुआ ऐसा क्‍यों ? इसके क्‍या कारण थे ? श्रीलक्ष्‍मण द्वारा ही मेघनाद का वध किस प्रकार किया गया आदि इस कथा प्रसंग में वर्णित है।

महर्षि विश्‍वामित्रजी ने ताड़का वध के उपरांत श्रीराम-लक्ष्‍मण को एक विशेष मंत्र द्वारा दीक्षित किया। क्‍योंकि ये दोनों भाई अत्‍यन्‍त ही छोटे बालक थे। इस मंत्र को देने से इन्‍हें वन में क्षुधा व प्‍यास से मुक्ति मिल गई तथा मंत्र के प्रभाव से शक्ति एवं तेज प्राप्‍त हुआ।

तब रिषि निज नाथहिं जियँ चीन्‍ही। बिद्या निधि कहुँ बिद्या दीन्‍ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
श्रीरामचरितमानस बालकाण्‍ड 208 (ख) 4

महर्षि विश्‍वामित्र ने प्रभु (श्रीराम-लक्ष्‍मण को विद्या का भंण्‍डार समझते हुए भी (नर लीला को पूर्ण करने के लिये ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्‍यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।

इसी प्रकार का वर्णन वाल्‍मीकीय रामायण में भी वर्णित है।
क्षुत्‍पिपासे न ते राम भविष्‍येते नरोत्तम।
बला मतिबलां चैव पठतस्‍तात राधव॥
गृहाण सर्वलोकस्‍य गुप्‍तये रधुनंदन । वा.रा.बाल सर्ग 22-8

हे नरश्रेष्‍ठ श्रीराम लक्ष्‍मण सहित तात रघुनंदन! बला और अतिबला का अभ्‍यास कर लेने पर तुम्‍हें भूख प्‍यास का भी कष्‍ट नहीं होगा। अतः रधुकुल को आनन्‍दित करने वाले राम! तुम सम्‍पूर्ण जगत्‌ की रक्षा के लिये इन दोनो विद्याओं को ग्रहण करों। ये दोनों शक्‍तियाँ अयोध्‍यानगरी से डेढ़ योजन दूर जाकर पवित्र पावन सरयूनदी के दक्षिण तट पर महर्षि विश्‍वामित्र ने श्रीराम लक्ष्‍मण को दी थी। ये शक्तियाँ ब्रह्मा जी की पुत्रियाँ थी। इनके प्राप्‍त होने पर श्रीराम लक्ष्‍मण को राक्षसों के वध तथा 14 वर्ष के बनवास में भूख प्‍यास का कष्‍ट नहीं हुआ ।

इन कथाओं का मेघनाद वध से अत्‍यन्‍त ही निकट का संबंध है। पौराणिक कथानकों के अनुसार मेघनाद को माता दुर्गा ने वरदान दिया था कि तुझे वही व्‍यक्‍ति मारेगा जिसने 12 वर्षों तक नींद-नारी और अन्‍न का त्‍याग कर रखा हो।

आनन्‍द रामायण में मेघनाद को ब्रह्माजी के वरदान तथा मृत्‍यु के संबंध में उल्‍लेख है –

यस्‍तु द्वादश वर्षाणि निद्राहारविवर्जितः।
तनैव मृत्‍युर्निर्दिष्‍टा ब्रह्मणाऽस्‍य दुरात्‍मनः॥
आ. रा.-सारकाण्‍ड 11-176

लगभग ऐसा ही वर्णन नेपाली भानुभक्‍त रामायण में भी वर्णित हैं –

येती बिन्‍ति सुनी हुकूम हन गयो, जान्‍छू म मार्छू भनी॥
फेरी बिन्‍ति विभीषणै सरि गन्‍या,यस्‍तोछ यो वीर भनी।
खाँदै कत्ति नखाइ कृति नसुती, रात दिन्‌ नियम्‌ खुप गरी।
जस्‍को वर्त छ बाहृ वर्ष ज पुरूष, तेरा अगाड़ी सटी॥
भानुभक्‍त रामायण 19 वी शती युद्धकाण्‍ड 193

मेघनाद वध के प्रसंग में विभीषण ने श्रीराम से मार्ग रोककर कहा कि लक्ष्‍मण ऐसा वीर है जिसने बिना खाये पीये निरन्‍तर बारह वर्ष तक एक व्रत किया है। इद्रजित्‌ (मेघनाद)एक मात्र लक्ष्‍मण के हाथों ही मारा जायेगा। ऐसा ही वरदान है। अतः श्रीराम लक्ष्‍मण को मेघनाद वध करने की आज्ञा दे।

गोस्‍वामी तुलसीदासजी कृत रामायण वेंकटेश्‍वर स्‍टीम प्रेस बम्‍बई टीकाकार पं. ज्‍वालाप्रसादजी मिश्र कृत टीका में लंकाकाण्‍ड में भी मेघनाद को देवी भगवती द्वारा 20 वर्ष की अवस्‍था में कठोर तप उपरांत वर दिया। वरदान में एक अद्‌भुत रथ उसे दे दिया जो किसी को युद्ध में मेघनाद को बैठा देख नहीं सकता था। उसे उसकी मृत्‍यु का भी कारण बताया गया था –

दोहा- जो त्‍यागे द्वादश नींद अन्न अरू नारि।
तासो मत करिये समर, सो तोहि डारै मारि॥
रामायण-वेकटेश्‍वर प्रेस बुम्‍बई लंकाकाण्‍ड दो-106

मेघनाद जिसने बारह वर्ष तक अन्‍न, नींद एवं स्‍त्री (नींद एवं नारी) का त्‍याग किया हो उससे युद्ध मत करना। जो इन तीनों को त्‍याग देगा वही तेरा काल बनकर वध करेगा।

एक समय श्रीराम अपनी सभा में विराजित होकर मुनियों के आगमन पर उनसे अनेेक कथाएँ सुन रहे थे। उस समय उन्‍होंने दक्षिण में निवास करने वाले अगस्‍त्‍य ऋषि से राक्षसों के इतिहास को बताने का आग्रह किया। ’’बँगला कृत्तिवास रामायण’’ में मेघनाद वध अगस्‍त्‍य ऋषि ने बड़ा ही रोचक प्रसंग का वर्णन किया है। मुनि ने कहा -रामचन्‍द्र तुमसे कहता हूँ कि इन्‍द्रजित्‌ (मेघनाद) जैसा वीर त्रिभुवन में नहीं है। जो व्‍यक्‍ति चौदह वर्ष निंद्रित नहीं हुआ, चौदह वर्ष जिसने स्‍त्री सुख नहीं देखा, जो वीर चौदह वर्ष अनाहारी रहा, वहीं व्‍यक्‍ति मेघनाद का वध कर सकता था।

चौद्द वर्ष येर वीर थाके अनाहारे। इन्‍द्रजिते बधिकारे सेइ जन पारे।
श्रीराम वलेन मुनि, कि कहिले मुनि। चौद्द वर्ष लक्ष्‍मणेरे फल दिछि आमि॥
बँगला कृत्तिवास रामायण उत्तकाण्‍ड 30

श्रीराम ने कहा-मुनि आप क्‍या कह रहे है ? हम चौदह वर्ष तक लक्ष्‍मण का फल देते रहे है। सीता सहित वह चौदह वर्ष भ्रमण करता रहा है, तो कैसे लक्ष्‍मण ने सीता मुख नहीं देखा ? हम सीता के साथ रहा करते थे। लक्ष्‍मण दूसरी कुटिया में रहते थे फिर वह चौदह वर्ष तक कैसे निद्रित नहीं रहे ? हम कैसे इस बात पर विश्‍वास करें।

अगस्‍त्‍य ने कहा-हे राम तुम लक्ष्‍मण को सभा में ले आओ तब इस बात की सत्‍यता की परीक्षा हो जावेगी। यह बात सत्‍य है या असत्‍य श्रीराम ने मंत्री सुमन्‍त्रजी कहा -शीघ्र जाकर लक्ष्‍मण को सभा में उपस्‍थित करो। सुमन्‍त्रजी जब लक्ष्‍मण जी के पास गये तब लक्ष्‍मण जी माता सुमित्रा की गोद में बैठे थे । सुमन्‍त्रजी ने श्रीरघुनाथ का सभा में पहुँचने हेतु सन्‍देश सुनाया।

लक्ष्‍मणजी ने मन में यह विचार आया कि श्रीराम संभवतः मेरे वन में हुए दुःखों के बारे में पूछेंगे। श्रीराम के समक्ष सुमन्‍त्रजी सहित लक्ष्‍मण सभा में जाकर उन्‍हें प्रणाम किया। श्रीरामचन्‍द्रजी ने लक्ष्‍मणजी से कहा- मेरी शपथ है ,मैं जो बात पूछूँ उसे सभा के समक्ष बताओ। हम तीनों चौदह वर्ष बनवास में एक साथ रहे। हे लक्ष्‍मण तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ? मुझे कुटिया में छोड़कर तुम रोज फल लाया करते थे। हमें फल देकर तुम कैसे अनाहारी रहते थे ? वन में तुम्‍हारी दूसरी कुटिया में रहते हुए, चौदह वर्ष तुम कैसे सोये नहीं, निंद्रित नहीं हुए ?

इन सब बातों को सुनकर लक्ष्‍मण जी ने श्रीराम से कहा-हे राजीव लोचन!सुनिए, जब पापी, दुष्‍ट राक्षस रावण ने सीताजी का हरण किया। हम दोनों रोते-रोते वन में भ्रमण करते थे। उस समय ऋष्‍यमूक पर्वत पर माता सीता के आभूषण पाकर जब आपने सुग्रीव के समक्ष पूछा था। लक्ष्‍मण ये सीता के आभूषण है या नहीं ? तब हे प्रभु मैं हार या केयूर को पहचान नहीं पाया। केवल चरणों में नूपुरों को पहचान सका था। यही बात वाल्‍मीकीजी द्वारा रामायण में वर्णित की गई है

एवं मुक्तस्‍तु रामेण लक्ष्‍मणो वाक्‍यमब्रवीत्‌
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्‍डले॥
नुपुरे त्‍वभिजानामि नित्‍यं पादाभिवन्‍दनात्‌॥
वा.रा.किष्‍किन्‍धाकाण्‍ड , सर्ग 6-22

श्रीराम ने सुग्रीव द्वारा वस्‍त्र में रखे सीताजी के आभूषणों को पहचानने को कहा गया तब लक्ष्‍मण बोले-भैया मैं इन बाजूबन्‍दों को नहीं जानता और नहीं कुण्‍डलों को ही समझ पाता हूँ कि किसके है? किन्‍तु प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करने के कारण मैं इन दोनों नुपुरों को अवश्‍य पहचानता हूँ।

प्रभु यह सत्‍य है कि हम तीनों एक साथ वन में रहते थे किन्‍तु मैंने माता सीता के श्री चरणों को छोड़कर उनके वदन को न देखा।

मैं चौदह वर्ष कैसे निद्रित नहीं हुआ, हे रघुनाथ सुनिये आपको बताता हूँ। आप और जानकीजी कुटिया में रहते, मैं हाथ में धनुष बाण लेकर द्वार पर रखवाली करता था। मेरे नयनों को जब निद्रा ने आच्‍छान्‍न कर लिया तो मैंने क्रोधित होकर निद्रा को एक बाण से भेद दिया। मैंने कहा-निद्रा देवी मेरा उत्‍तर सुनो, यह चौदह वर्ष तुम मेरे समीप न आना।

जब रामचन्‍द्रजी अयोध्‍यापुरी में राजा होगे माता जानकी श्रीरामचन्‍द्र के बाँये आसीन होगी मैं छत्रदण्‍ड हाथ में लेकर दाहिनी ओर खड़ा रहूँ। हे निद्रा देवी उसी समय तुम मेरे नयनों में आना। हे प्रभु आपसे कहता हूँ, जब आपके बाँये माता जानकीजी सिंहासन पर विराजमान थी तो मैं छत्र धारण कर खड़ा हुआ था तो मेरे हाथ से छत्र फिर गिर पड़ा था। मैं उस व्‍याप्‍त निद्रा पर हँसा तथा लज्‍जित भी हुआ।

मैं चौदह वर्ष अनाहारी था प्रभु उसका प्रमाण आपसे निवेदन करता हूँ मैं जंगल में जाकर फल लाया करता था। प्रभु आप उनके तीन भाग करते थे। हे राजीवलोचन! आपको स्‍मरण होगा या नहीं, आप मुझसे कहते-लक्ष्‍मण फल रख लो ? मैं उसे अपनी कुटिया में लाकर रख देता।

हे प्रभु आपने मुझे कभी भी खाने के लिये नहीं कहा। बिना आपकी आज्ञा के मैं कैसे आहार करता। चौदह वर्षों से वहीं फल ऐसे ही पड़े रहे। श्रीराम ने लक्ष्‍मण से कहा कि फल कैसे रखे है ? तुम इस सभा में ला दो ? लक्ष्‍मणजी ने श्रीहनुमान्‌ से वन में जाकर फल लाने को कहा।

हनुमान्‌जी ने एक तूण में फल भरे हुए देखा। हनुमान्‌ ने मन मे विचार किया कि यह कार्य तो कोई भी साधारण वानर जाकर फल लाकर सभा में दे सकता था। प्रभु ने हमें इस तुच्‍छ कार्य हेतु भेजा। जब हनुमान्‌जी को जरा सा अहंकार हुआ तो फल का वह तूण कई लाख गुना भारी हो गया। हनुमान्‌जी उठाना तो दूर हिला भी नहीं सके। इसके पश्‍चात्‌ श्रीराम ने लक्ष्‍मण को तूण सहित फल लाने को कहा। लक्ष्‍मण जी पलभर में बाँये हाथ से तूण फल सहित उठाकर सभा में ले आये।

श्रीराम ने लक्ष्‍मण से कहा चौदह वर्ष के फलों की गणना करो। लक्ष्‍मणजी ने एक-एक कर सारे फलों की गिनती की। केवल सात दिनों के फल नहीं मिले। श्रीराम ने कहा-प्राणप्रिय लक्ष्‍मण तुमने सात दिन तो फल खाये। लक्ष्‍मण ने कहा-हे प्रभु सुनिये उन सात दिनों का संग्रह किसने किया था?

जिस दिन पिता के वियोग के समाचार से हम विश्‍वामित्र के आश्रम में निराहार रहे थे। उस दिन फल संग्रह नहीं किया था । शेष छः दिन के बारे में सुनिए। जिस दिन पापी रावण ने सीताजी का हरण किया, उस दिन अत्‍यन्‍त दुःखी होने के कारण फल कौन लाता ? जिस दिन इन्‍द्रजित ने नागपाश में बाँधा था। उस दिन भर अचेत रहे इससे उस दिन फल नहीं ला सका।

चौथे दिन की बात आपके चरणों में निवेदन करता हूँ चौथे दिन इन्‍द्रजित ने माया सीता को काटा था उस दिन शोक रूपी अग्‍नि में दोनों भाई दग्‍ध होने के कारण हम फल नहीं ला सके। हे प्रभु स्‍मरण कर विचार करे। प्रभु और एक दिन की बात स्‍मरण है अथवा नहीं आप और मैं दोनों पाताल में महिरावण के यहाँ बंदी थे। इस बात के साक्षी पवननन्‍दन है। उस दिन फलों का संग्रह नहीं किया था। जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी थी प्रभु आप उस दिन मेरे शोक से अधीर हो उठे थे।

प्रभु मैं नित्‍य ही फल लाता था किन्‍तु यह दास मूर्छित पड़ा था अर्थात फल नहीं लाये गये सातवें दिन की बात क्‍या कहूँ जिस दिन रावण के वध के कारण अपार आनन्‍द था सभी लोग आनन्‍द उत्‍सव में चँचल हो उठे थे उसी हर्ष के परिणामस्‍वरूप फल लाना चूक गया। हे नारायण आप विचार कर देखें, ये चौदह वर्ष हमने कुछ नहीं खाया। आपके मन में यहीं धारणा थी कि लक्ष्‍मण नित्‍य फल खाता है।

आपको हमारी पूर्व कथा विस्‍मृत हो गई कि हम दोनों को विश्‍वामित्र ने मंत्र दिया था जिससे भूख-प्‍यास नहीं लगती थी। महर्षि विश्‍वामित्र की दी गई मंत्रशक्‍ति से ही चौदह वर्ष उपवासी रहा। इसी कारण इन्‍द्रजित्‌ मेरे बाणों से मारा गया। यह सुनकर श्रीराम के नेत्रकमलों से आसुओं की धारा बह निकली तथा उन्‍होंने भाई लक्ष्‍मण को गोद में बैठा लिया।

तीनों लोक जानते हैं कि इन्‍द्रजित्‌ दुर्जेय था। लक्ष्‍मणजी ने उसका वध किया,यह अपूर्व कथा है।

इस कथा द्वारा हम सभी पाठकों को संदेश मिलता है कि मानव जीवन में नींद-नारी-आहार की अति सर्वदा सर्वनाश का कारण है। सदा जागने वाला सजग अल्‍प आहारी तथा माया से दूर रहकर ही निर्धारित लक्ष्‍य पर पहुँचा जा सकता है। कुम्‍भकरण नींद लेने वाला तथा अति आहारी था ।इसलिये ही उसकी मृत्‍यु हुई।

लक्ष्‍मण की कथा जीवन में सजगता कर्मठता-आज्ञाकारिता-भ्रातृप्रेम की अनूठी मिसाल है। आधुनिक काल में ऐसे भाई की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती है क्‍योंकि वे ईश्‍वर के वरदान से ही जन्‍म लेते हैं। हर युग में राम जन्‍म लेते हैं परंतु लक्ष्‍मण जैसे परमवीर वीर योद्धा – कर्तव्‍यनिष्‍ठ पैदा ही नहीं होते हैं । ऐसे विरले महापुरूष वरदान स्‍वरूप ही पृथ्‍वी पर अवतरित होते हैं ।

संजय गुप्ता

Posted in संस्कृत साहित्य

ऐसे ज्ञानी थे हमारे पूर्वज।इस लेख को जरूर पढ़िए ।

अद्भुत लेखन तकनीक

#अग्रभागवत

प्राचीन भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं. रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए “अग्र-भागवत” का यह रहस्य आज भी अनसुलझा ही है.
जानिये इसके बारे में कि आखिर यह “अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है? अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं.
आमगांव… यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘असम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना है. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. असम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है.
‘ब्रम्ह्कुंड’ नामक स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल माना जाता है. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है. हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४–५ मित्र–सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..! दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये, तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.” वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१.
आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी “कहानी” और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढ़िए तो सही… असल में दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर, रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़–सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया.
कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.
रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं. रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले.
यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय अगर ना भी मानें… तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं. जैसे, कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र… आदि लेखन में उपयोगी साधन थे.
मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – “भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे. भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है. परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.
मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..’ भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है. आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘विज्ञान, या यूं कहे, “आजकल का शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ” इस मिथक को मानने वालों के लिए, ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय है. स्वाभाविक है कि किसी प्राचीन समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था, और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका है..! दुर्भाग्य यह है कि अब यह ज्ञान लुप्त हो चुका है. यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन की लाईब्रेरियों की ख़ाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके.
Written by :- प्रशांत पोळ Taken from Desi CNN by Suresh Chiplunkar

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ओशो का वह प्रवचन, जि‍सपर ति‍लमि‍ला उठी थी अमेरि‍की सरकार और दे दि‍या जहर

ओशो का वह प्रवचन, जिससे ईसायत तिलमिला उठी थी और अमेरिका की रोनाल्‍ड रीगन सरकार ने उन्‍हें हाथ-पैर में बेडि़यां डालकर गिरफ्तार किया और फिर मरने के लिए थेलियम नामक धीमा जहर दे दिया था। इतना ही नहीं, वहां बसे रजनीशपुरम को तबाह कर दिया गया था और पूरी दुनिया को यह निर्देश भी दे दिया था कि न तो ओशो को कोई देश आश्रय देगा और न ही उनके विमान को ही लैंडिंग की इजाजत दी जाएगी। ओशो से प्रवचनों की वह श्रृंखला आज भी मार्केट से गायब हैं। पढिए वह चौंकाने वाला सच

ओशो:

जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे।

ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है।

पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बारा-बार कहते हैं- ‘ अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।’ यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था।

जीसस कहते हैं कि अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था। कौन हैं ये पुराने पैगंबर? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं। पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं।

और ईसा मसीह कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है। यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है। उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे।

न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं। तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !

सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं।

चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था।

यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है।

यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया।

यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।

जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए। कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, जोशुआ- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है।

जीसस जोशुआ का ग्रीक रुपांतरण है। जोशुआ यहां आए- समय, तारीख वगैरह सब दी है। एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे। इसी वजह से वह स्‍थान भेड़ों के चरवाहे का गांव कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-पहलगाम, उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है- गड़रिए का गांव जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें।

एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी थी | इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया?

मूसा ईश्‍वर के देश इजराइल की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!

मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब ककी पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे।

उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए। यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।

संजय गुप्ता

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प्रेरक प्रसंग

गुरु ही सूँ सब होत है

  महात्मा रज्जब और वषना दोनों सन्त दादू के शिष्य थे ।  एक बार रज्जब वषना जी के घर गये ।  रज्जब जी के शरीर - सौष्ठव और वेषभूषा से उनकी सम्पन्न अवस्था की झलक साफ दिखाई दे रही थी ।  वषनाजी की पत्नी ने अपने पति से कहा,  "दादू के एक ये शिष्य हैं, जिनकी सम्पन्न अवस्था स्पष्ट दिखाई दे रही हैं और एक आप हैं कि घर में खाने को भोजन भी रोज नसीब नहीं होता ।"  इस पर वषनाजी ने कहा,  "अरी, तुम भी क्या घर का दुखड़ा रोने लगीं ।  यह सब गुरुदेव की कृपा है ।  गुरु की कृपा होने पर किसी बात की कमी नहीं रहती ।"  और उनके मुख से यह दोहा निकला ___

           रज्जब  को  था  सम्पदा,  गुरु  दादू  दीनी  आप ।
           वषना  को  था  आपदा,   था   चरणारो   प्रताप ।।

  पति-पत्नी का वार्तालाप सुन रज्जब मन ही मन मुसकरा रहे थे ।  थोड़ी देर बाद वे वहाँ से चले गये ।  मगर गुरु दादू से यह बात कैसे छिपी रहती ?  दूसरे ही दिन से वषनाजी के घर की आर्थिक स्थिति बदल गयी।  उनकी पत्नी को अपनी विपन्नावस्था का रोना रोने का फिर कभी मौका नहीं आया ।

अनूप सिन्हा

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

इक्यावन शक्तिपीठों में एक अनन्त ब्रह्माण्ड अधीश्वरी का धाम : श्री विन्ध्याचल धाम!!!!!

देवी भक्तों का विश्व प्रसिद्ध धाम है उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में विन्ध्य पहाड़ियों पर स्थित आदि शक्ति श्री दुर्गा जी का मन्दिर, जिसे दुनिया विन्ध्याचल मंदिर के नाम से पुकारती है !

यह आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी का धाम अनादी काल से ही साधकों के भी लिए प्रिय सिद्धपीठ रहा है। विंध्याचल मंदिर पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है।

देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है विंध्याचल। सबसे खास बात यह है कि यहां तीन किलोमीटर के दायरे में तीन प्रमुख देवियां विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि तीनों देवियों के दर्शन किए बिना विंध्याचल की यात्रा अधूरी मानी जाती है।

तीनों के केन्द्र में हैं मां विंध्यवासिनी। यहां निकट ही कालीखोह पहाड़ी पर महाकाली तथा अष्टभुजा पहाड़ी पर अष्टभुजी देवी विराजमान हैं।

माता के दरबार में तंत्र-मंत्र के साधक भी आकर साधना में लीन होकर माता रानी की कृपा पाते हैं। नवरात्र में प्रतिदिन विश्व के कोने-कोने से भक्तों का तांता जगत जननी के दरबार में लगता है।

त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद भी समाप्त नहीं होता, क्योंकि यहां महालक्ष्मी, महाकाली व महासरस्वती स्वरूपा आद्यशक्ति मां विंध्यवासिनी स्वयं विराजमान हैं। यहां सबसे पहले गंगा स्नान किया जाता है और फिर ‘जय माता दी का उद्घोष करते हुए मां विंध्यवासिनी का दर्शन किया जाता है।

इस पुण्य स्थल का वर्णन पुराणों में तपोभूमि के रूप में किया गया है। यहां सिंह पर आरूढ़ देवी का विग्रह ढाई हाथ लंबा है। इस बारे में अनेक मान्यताएं हैं।

कहा जाता है कि देवी भागवत के दसवें स्कंध में सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सबसे पहले श्री मनु तथा श्री शतरूपा को प्रकट किया।

श्री मनु ने देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षों तक कठोर तप किया, जिससे प्रसन्न हो भगवती ने उन्हें निष्कंटक राज्य, वंश-वृद्धि, परमपद का आशीर्वाद दिया। वर देकर महादेवी विंध्याचल पर्वत पर चलीं गईं, तभी से ही मां विंध्यवासिनी के रूप में आदि शक्ति की पूजा वहां होती आ रही है।

शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को माता सती का रूप माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं।

विंध्यवासिनी देवी का वर्णन कुछ इस तरह आया है – नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भ संभव: तत्सवै नास्यामि विंध्याचलवासिनी – अर्थात जब कंस ने माँ यशोदा की संतान जिसे वह माँ देवकी की आखिरी संतान समझ रहा था, को मारने के लिए उसे हवा में उछाला तो वही देवी योग माया ही थी जो इस स्थान पर बाद में स्थित हो गर्इं।

शास्त्र बताते हैं कि महान ऋषि कात्यायन ने मां जगदम्बा को प्रसन्न किया था। इस वजह से मां का नाम कात्यायनी भी है। नील तंत्र में इस बात का उल्लेख है कि जहां विंध्याचल पर्वत को पतित पावनी गंगा स्पर्श करती हैं वहीं मां विंध्यवासिनी का वास है।

नीलतंत्र में यह भी उल्लेख है कि मां गंगा पूरे भारतवर्ष में कहीं भी पहाड़ों को छूकर नहीं गुजरतीं, बस विंध्याचल ही एक ऐसा स्थान है जहां विंध्य पर्वत श्रृंखला को छूते हुए गंगा जी का प्रवाह है।

इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से भी पूजन होता है। शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। विंध्य महात्म्य में इस बात का उल्लेख है कि मां विंध्यवासिनी पूर्णपीठ है।

दो शक्ति पीठ स्थल देश से बाहर हैं। एक है नेपाल का गोहेश्वरी पीठ तथा दूसरा है पाकिस्तान का हिंगलाज पीठ। अनेक विद्वान इस पीठ को सृष्टि के उदयकाल से अवतरित बताते हैं तो कुछ द्वापर काल में इसके अवतरित होने का प्रमाण देते हैं।

वैसे इस पीठ में मां के दर्शन तो साल के बारहों महीने अनवरत होते हैं, लेकिन यहां नवरात्र का विशेष महत्व है। यहां शारदीय तथा बासंतिक नवरात्र में लगातार चौबीस घंटे मां के दर्शन होते हैं। नवरात्र के दिनों में मां के विशेष श्रृंगार के लिए मंदिर के कपाट दिन में चार बार बंद किए जाते हैं। सामान्य दिनों में मंदिर के कपाट रात 12 बजे से भोर 4 बजे तक बंद रहते हैं।

नवरात्र में महानिशा पूजन का भी अपना महत्व है। यहां अष्टमी तिथि पर वाममार्गी तथा दक्षिण मार्गी तांत्रिकों का जमावड़ा रहता है। ऐसा कहा जाता है कि मां के हर श्रृंगार के बाद उनके अलग रूप के दर्शन होते हैं। मां का सबसे सुन्दर श्रृंगार रात्रि के दर्शनों में होता है।

यह भी कहा जाता है कि नवरात्र के दिनों में मां मन्दिर की पताका पर वास करती हैं ताकि किसी वजह से मंदिर के गर्भ गृह स्थित मूर्ती तक न पहुंच पाने वाले भक्तों को भी मां के सूक्ष्म रूप के दर्शन हो जाएं।

नवरात्र के दिनों में इतनी भीड़ होती है कि अधिसंख्य लोग मां के पताका के दर्शन करके ही खुद को धन्य मानते हैं। हालांकि मां की चौखट तक जाए बिना कोई नहीं लौटता, लेकिन ऐसी मान्यता है कि पताका के भी दर्शन हो गए तो यात्रा पूरी हो जाती है।

कहते हैं कि सच्चे दिल से यहां की गई मां की पूजा कभी बेकार नहीं जाती। हर रोज यहां हजारों लोग मत्था टेकते हैं और देवी मां का पूजन करते हैं। विंध्य पर्वत श्रृंखला के नीचे मां विंध्यवासिनी के दर्शन होंते हैं तो अष्टभुजी मंदिर के निकट सीताकुंड, तारादेवी, भैरवकुंड के दर्शन किए जा सकते हैं।

त्रेतायुग में श्रीराम ने यहीं पर देवी पूजा कर रामेश्वर महादेव की स्थापना की, जबकि द्वापर में श्री वसुदेव के कुल पुरोहित श्री गर्ग ऋषि ने कंस वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचंडी का अनुष्ठान किया था।

मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय के 41-42 श्लोकों में मां भगवती कहती हैं ‘वैवस्वत मन्वंतर के 28वें युग में शुंभ-निशुंभ नामक महादैत्य उत्पन्न होंगे, तब मैं नंदगोप के घर उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ में आकर विंध्याचल जाऊंगी और महादैत्यों का संहार करूंगी।

श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध में श्रीकृष्ण जन्माख्यान में वर्णित है कि श्री देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजी ने कंस के भय से रातों रात यमुना नदी पार कर श्री नंद के घर पहुंचाया तथा वहां से श्री यशोदा नंदिनी के रूप में जन्मी देवी योग माया को मथुरा ले आए।

आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिलते ही कंस कारागार पहुंचा। उसने जैसे ही उन्हें पत्थर पर पटकना चाहा। वह उसके हाथों से छूट देवी आकाश में पहुंची और अपने दिव्य स्वरूप को दर्शाते हुए कंस वध की भविष्य वाणी कर विंध्याचल लौट गई।

माता विंध्यवासिनी विंध्य पर्वत पर मधु और कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री हैं। यहां संकल्प मात्र से उपासकों को सिद्धि प्राप्त हो जाती है, यही कारण है कि इन्हें माँ सिद्धिदात्री भी कहा जाता हैं।

देवी के ध्यान में स्वर्णकमल पर विराजती, त्रिनेत्रा, कांतिमयी, चारों हाथों में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धात्री, पूर्णचंद्र की सोलह कलाओं से परिपूर्ण, गले में वैजयंती माला, बाहों में बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुंडल धात्री, इंद्रादि देवताओं द्वारा पूजित चंद्रमुखी परांबा विंध्यवासिनी का स्मरण होना चाहिए, जिनके सिंहासन के बगल में ही उनका वाहन स्वरूप महासिंह है।

त्रिकोण यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की तरफ मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को पूरा करती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठ भुजाओं से रक्षा करती हैं।

कहा जाता है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह, फिर चौबीस दल हैं, बीच में एक बिंदु है, जिसके अंदर ब्रह्मरूप में महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं।

यहां से मात्र तीन किलोमीटर दूर ‘काली खोह नामक स्थान पर महाकाली स्वरूपा चामुंडा देवी का मंदिर है, जहां देवी का विग्रह बहुत छोटा लेकिन मुख विशाल है। इनके पास भैरवजी का स्थान है। ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि में विंध्यवासिनी के दर्शन और पूजन का अतिशय माहात्म्य माना गया है।

इस कलियुग में आदमी के जीवन का कोई भरोसा नहीं होता है इसलिए जल्द से जल्द मौका निकाल कर माँ विंध्यवासिनी के दर्शन का महा सौभाग्य जरूर अर्जित करना चाहिए !

संजय गुप्ता

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तीन मूर्तियाँ

• एक राजा था। एक दिन वह अपने दरबार में मंत्रियों के साथ कुछ सलाह–मश्वरा कर रहा था। तभी एक चोबदार ने आकर कहा कि.. पडोसी राज्य से एक मूर्तिकार आया है और महाराज से मिलने की आज्ञा चाहता है। राजा ने आज्ञा दे दी।

• थोडी देर में मूर्तिकार दरबार में हाजिर किया गया। वह अपने साथ तीन मूर्तियाँ लाया था, जिन्हें उसने दरबार में रख दिया। उन मूर्तियों की विशेषता थी कि तीनो अत्यंत सुंदर और कलात्मक तो थीं ही, पर एक जैसी दिखती थीं और बनी भी एक ही धातु से थीं। मामूली सवाल-जवाब के बाद राजा ने उससे दरबार में प्रस्तुत होने का कारण पूछा।

• जवाब में मूर्तिकार बोला.. “राजन! मै आपके दरबार में इन मूर्तियों के रूप में एक प्रश्न लेकर उपस्थित हुआ हूँ, और उत्तर चाहता हूँ। मैने आपके मंत्रियों की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रसंशा सुनी है। अगर ये सच है तो मुझे उत्तर अवश्य मिलेगा।“

• राजा ने प्रश्न पूछने की आज्ञा दे दी। तो मूर्तिकार ने कहा.. “राजन! आप और आपके मंत्रीगण मूर्तियों को गौर से देखकर ये तो जान ही गये होंगे कि ये एक सी और एक ही धातु से बनी हैं। परंतु इसके बावजूद इनका मुल्य अलग-अलग है। मै जानना चाहता हूँ कि कौन सी मूर्ति का मूल्य सबसे अधिक है, कौन सी मूर्ति सबसे सस्ती है, और क्यों?”

• मूर्तिकार के सवाल से एकबारगी तो दरबार में सन्नाटा छा गया। फिर राजा के इशारे पर दरबारी उठ-उठ कर पास से मूर्तियों को देखने लगे। काफी देर तक किसी को कुछ समझ न आया। फिर एक मंत्री जो औरों से चतुर था, और काफी देर से मूर्तियों को गौर से देख रहा था, उसने एक सिपाही को पास बुलाया और कुछ तिनके लाने को कह कर भेज दिया। थोडी ही देर में सिपाही कुछ बडे और मजबूत तिनके लेकर वापस आया और तिनके मंत्री के हाथ में दे दिये। सभी हैरत से मंत्री की कार्यवाही देख रहे थे।

• तिनके लेकर मंत्री पहली मूर्ति के पास गये और एक तिनके को मूर्ति के कान में दिखते एक छेद में डाल दिया। तिनका एक कान से अंदर गया और दूसरे कान से बाहर आ गया, फिर मंत्री दूसरी मूर्ति के पास गये और पिछली बार की तरह एक तिनका लिया और उसे मूर्ति के कान में दिखते छेद में डालना शुरू किया.. इस बार तिनका एक कान से घुसा तो दूसरे कान की बजाय मूर्ति के मुँह के छेद से बाहर आया, फिर मंत्री ने यही क्रिया तीसरी मूर्ति के साथ भी आजमाई इस बार तिनका कान के छेद से मूर्ति के अंदर तो चला गया पर किसी भी तरह बाहर नहीं आया। अब मंत्री ने राजा और अन्य दरबारियों पर नजर डाली तो देखा राजा समेत सब बडी उत्सुकता से उसी ओर देख रहे थे।

• फिर मंत्री ने राजा को सम्बोधित कर के कहना शुरू किया और बोले… “महाराज! मैने मूर्ति का उचित मुल्य पता कर लिया है।“ राजा ने कहा… “तो फिर बताओ। जिससे सभी जान सकें।“

• मंत्री ने कहा… “महाराज! पहली मूर्ति जिसके एक कान से गया तिनका दूसरे कान से निकल आया उस मूर्ति का मुल्य औसत है। दूसरी मूर्ति जिसके एक कान से गया तिनका मुँह के रास्ते बाहर आया वह सबसे सस्ती है। और जिस मूर्ति के कान से गया तिनका उसके पेट में समा गया और किसी भी तरह बाहर नहीं आया वह मूर्ति सर्वाधिक मुल्यवान बल्कि बेशकीमती है।“

• राजा नें कहा… “ किंतु तुमने कैसे और किस आधार पर मूर्तियों का मुल्य तय किया है यह भी बताओ।“

• मंत्री बोले… “महाराज! वास्तव में ये मूर्तियाँ तीन तरह के मानवी स्वभाव की प्रतीक है। जिसके आधार पर मानव का मुल्याँकन किया जाता है। पहली मूर्ति के कान से गया तिनका दूसरे कान से बाहर आया; ये उन लोगों की तरफ इशारा करता है जिनसे कोई बात कही जाय तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देते हैं, ये किसी काम के नही होते, किंतु यद्यपि ये किसी बात को गंभीरता से नहीं लेते पर इनमें इधर की बात उधर करने का अवगुण भी नहीं होता सो इनका मूल्य औसत है।

• दूसरी मूर्ति जिसके कान से डाला गया तिनका मुँह के रास्ते बाहर आया; वह उन लोगों का प्रतीक है जो कोई बात पचा या छिपा नहीं सकते, चुगलखोरी, दूसरों की गुप्त बातों को इधर-उधर कहते रहने के कारण ये सर्वथा त्याज्य होते हैं, ऐसे लोगों को निकृष्ट और सबसे सस्ता कह सकते हैं। अतः दूसरी मूर्ति सबसे सस्ती है।

• अब रही तीसरी मूर्ति जिसके कान में डाला गया तिनका पेट में जाकर गायब हो गया ये उन लोगों का प्रतीक है, जो दूसरों की कही बात पर ध्यान तो देते ही हैं साथ ही दूसरों के राज को राज बनाये रखते हैं। ऐसे लोग समाज में दुर्लभ और बेशकीमती होते हैं। सो तीसरी मूर्ति सबसे मुल्यवान है।“

• राजा नें मूर्तिकार की ओर देखा। मूर्तिकार बोला… “महाराज! मै मंत्री महोदय के उत्तर से संतुष्ट हूँ.. और स्वीकार करता हूँ कि आपके मंत्री सचमुच बुद्धिमान हैं। उनका उत्तर सत्य और उचित है। ये मूर्तियाँ मेरी ओर से आपको भेंट हैं। इन्हें स्वीकार करें। और अब मुझे अपने राज्य जाने की आज्ञा दें।“

• राजा ने मूर्तिकार को सम्मान सहित अपने राज्य जाने की आज्ञा दे दी और अपने मंत्री को भी इनाम देकर सम्मानित किया।

संतोष चतुर्वेदी

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वाह, कलेक्टर साहब, वाह

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काश ! देश को ऐसे कलेक्टर मिलते !

80 साल की बूढ़ी माता। घर में बिल्कुल अकेली। कई दिनों से भूखी। बीमार अवस्था में पड़ी हुई। खाना-पीना और ठीक से उठना-बैठना भी दूभर। हर पल भगवान से उठा लेने की फरियाद करती हुई। खबर तमिलनाडु के करूर जिले के कलेक्टर टी अंबाजगेन के कानों में पहुंचती है। दरियादिल यह आइएएस अफसर पत्नी से खाना बनवाता है। फिर टिफिन में लेकर निकल पड़ता है वृद्धा के चिन्नमालनिकिकेन पट्टी स्थित झोपड़ी में।

जिस बूढ़ी माता से पास-पड़ोस के लोग आंखें फेरे हुए थे, कुछ ही पल में उनकी झोपड़ी के सामने जिले का सबसे रसूखदार अफसर मेहमान के तौर पर खड़ा नजर आता है। वृद्धा समझ नहीं पातीं क्या माजरा है। डीएम कहते हैं-माता जी आपके लिए घर से खाना लाया हूं, चलिए खाते हैं।

वृद्धा के घर ठीक से बर्तन भी नहीं होते तो वह कहतीं हैं साहब हम तो केले के पत्ते पर ही खाते हैं। डीएम कहते हैं-अति उत्तम। आज मैं भी केले के पत्ते पर खाऊंगा। किस्सा यही खत्म नहीं होता। चलते-चलते डीएम वृद्धावस्था की पेंशन के कागजात सौंपते हैं। कहते हैं कि आपको बैंक तक आने की जरूरत नहीं होगी, घर पर ही पेंशन मिलेगी। डीएम गाड़ी में बैठकर चले जाते हैं, आंखों में आंसू लिए वृद्धा अवाक रहकर देखती रह जातीं हैं

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देश को आज इस तरह के अधिकारियों की दरकार है। आशा की जानी चाहिए कि इस पोस्ट को पढ़ने वाले अपने आचरण में परिवर्तन लाकर कलेक्टर टी अंबाजगेन जैसे आचरण करने का प्रयास करेंगे। पद और स्थान महत्त्व नहीं रखता। महत्त्व रखता है कुछ कर गुजरने का माद्दा ,जोश 👇

संजय गुप्ता