Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

प्रेरक प्रसंग

स्पष्टवादिता

  एक बार स्वामी दयानन्द सरस्वती नवाब नवाजिश अलीखाँ की कोठी पर उतरे हुए थे ।  उनसे चर्चा करने के लिए सभी प्रकार के लोग आया करते थे ।  एक दिन इस्लाम धर्म पर चर्चा चली और स्वामीजी ने उसका खण्डन शुरू कर दिया ।  नवाब भी वहाँ उपस्थित थे और दूर से उनकी बातें सुन रहे थे ।  थोड़ी देर तक तो वह चुप रहे और जब उनसे रहा न गया, तो स्वामीजी के पास आये और बोले,  "मैंने आपको ठहरने के लिए कोठी दी और आप हैं कि हमारे इस्लाम का खण्डन करते हैं !  यदि आपका इसी प्रकार का रवैया रहा, तो मैं नहीं सोचता कि आपके ठहरने के लिए कोई हिन्दू, मुसलमान या ईसाई स्थान देगा ।"  इस पर स्वामीजी ने उत्तर दिया,  "आपने अपनी कोठी में ठहरने के लिए स्थान दिया है, इसका यह अर्थ नहीं कि मैंने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अपना धर्म बेच डाला है।   मैं सत्य बात हमेशा कहूँगा ।  मुझे किसी प्रकार की भय या एहसान की भावना अपने विचारों को व्यक्त करने से नहीं रोक सकती, फिर चाहे ऐसा करने में मुझे क्लेश भी क्यों न हो !"

अनूप सिन्हा

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक दिन पंडित को प्यास लगी, संयोगवश घर में पानी नही था इसलिए उसकी पत्नी पडोस से पानी ले आई I पानी पीकर पंडित ने पूछा….

पंडित – कहाँ से लायी हो बहुत ठंडा पानी है I

पत्नी – पडोस के कुम्हार के घर से I (पंडित ने यह सुनकर लोटा फैंक दिया और उसके तेवर चढ़ गए वह जोर जोर से चीखने लगा )

पंडित – अरी तूने तो मेरा धर्म भ्रष्ट कर दिया, कुंभार ( शुद्र ) के घर का पानी पिला दिया। पत्नी भय से थर-थर कांपने लगी, उसने पण्डित से माफ़ी मांग ली I
पत्नी – अब ऐसी भूल नही होगी। शाम को पण्डित जब खाना खाने बैठा तो घरमे खानेके लिए
कुछ नहीं था.

पंडित – रोटी नहीं बनाई. भाजी
नहीं बनाई.

पत्नी – बनायी तो थी लेकिन अनाज पैदा करनेवाला कुणबी(शुद्र) था.
और जिस कढ़ाई में बनाया था वो लोहार (शुद्र) के घर से आई थी। सब फेक दिया.

पण्डित – तू पगली है क्या कही अनाज और कढ़ाई में भी छुत होती है? यह कह कर पण्डित बोला की पानी तो ले आओ I

पत्नी – पानी तो नही है जीI

पण्डित – घड़े कहाँ गए हैI

पत्नी – वो तो मेने फैंक दिए क्योंकि कुम्हार के हाथ से बने थेI पंडित बोला दूध ही ले आओ वही पीलूँगा I
पत्नी – दूध भी फैंक दिया जी क्योंकि गाय को जिस नौकर ने दुहा था वो तो नीची (शुद्र) जाति से था न I

पंडित- हद कर दी तूने तो यह भी नही जानती की दूध में छूत नही लगती है I

पत्नी-यह कैसी छूत है जी जो पानी में तो लगती है, परन्तु दूध में नही लगती। पंडित के मन में आया कि दीवार से सर फोड़ ले। गुर्रा कर बोला – तूने मुझे चौपट कर दिया है जा अब आंगन में खाट डाल दे मुझे अब नींद आ रही है I

पत्नी- खाट! उसे तो मैने तोड़ कर फैंक दिया है क्योंकि उसे शुद्र (सुतार ) जात वाले ने बनाया था.

पंडित चीखा – ओ फुलो का हार लाओ भगवन को चढ़ाऊंगा ताकि तेरी अक्ल ठिकाने आये.

पत्नी- फेक दिया उसे माली(शुद्र)
जाती ने बनाया था.
पंडित चीखा- सब में आग लगा दो, घर में कुछ बचा भी हैं या नहीं.
पत्नी – हाँ यह घर बचा है, इसे अभी तोडना बाकी है क्योंकि इसे भी तो पिछड़ी जाति के मजदूरों ने बनाया है I पंडित के पास कोई जबाब नही था .उसकी अक्ल तो ठिकाने आयी
बाकी लोगोकी भी आ जायेगी सिर्फ
इस कहानी आगे फॉरवर्ड करो हो सके देश मे जाती वाद खत्म हो जाये

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

बहुत बड़ा यहूदी धनपति हुआ: रथचाइल्ड। वह कभी विज्ञापन नहीं देता था। पुराने ढंग का धनपति था। नई हवा न लगी थी। एक विज्ञापन-विशेषज्ञ उसके पीछे पड़ा था। वह विज्ञापन मांगने वाले लोगों को धक्के देकर निकलवा देता था अपने दफ़तर से। वह कहता था: मेरा काम बिना विज्ञापन के ही अच्छा चल रहा है। मैं क्यों फिक्र करूं? लेकिन इस विशेषज्ञ ने भी तय कर लिया था कि अगर इस आदमी को विज्ञापन में नहीं उलझाया तो हमारी विशेषज्ञ होने की बात ही बेकार है। वह एक दिन सुबह-सुबह ही पहुंच गया। ऐसे नहीं पहुंचा जैसे कि विज्ञापन लेने गया हो। ऐसे पहुंचा कि जैसे किसी और काम से आया है। दफ़तर में नहीं गया, घर गया। रथचाइल्ड बगीचे में टहल रहा था। वह अंदर गया, उसके फूलों की प्रशंसा की, उसके बगीचे की प्रशंसा की। रथचाइल्ड भी उत्सुक हो गया। उसे साथ लेकर अपना बगीचा दिखाया, यह भूल ही गया कि यह आदमी कौन है। पूछा: कैसे आए?
उसने कहा: आपके पड़ोस में नया-नया आया हूं, सोचा आपसे परिचय कर लूं। और इससे शुभ घड़ी क्या होगी, सुबह-सुबह आप बगीचे में थे तो मैं चला आया!
पूछा: काम क्या करते हो ?
तो उसने कहा कि विज्ञापन-विशेषज्ञ हूं। रथचाइल्ड थोड़ा चौंका। लेकिन अब देर हो चुकी थी। और यह कोई वक्त भी नहीं था इसे धक्के देकर निकलवाने का। यह विज्ञापन लेने आया भी नहीं था। तो उसने पूछा–रथचाइल्ड ने–कि ये विज्ञापन मांगने वाले मेरे पीछे पड़े रहते हैं, इसमें कुछ सार है कि यह बकवास है? क्योंकि मैं तो बिना विज्ञापन के खूब कमाया हूं, क्या जरूरत? आप तो विशेषज्ञ हैं, आप क्या कहते हैं? आपकी क्या राय है?
तभी पास की पहाड़ी पर खड़े हुए चर्च की घंटियां बजने लगीं। उस विज्ञापन-विशेषज्ञ ने कहा कि सुनिए, यह चर्च कितना पुराना है?
रथचाइल्ड ने कहा: होगा कम से कम डेढ़ सौ वर्ष पुराना।
उस विज्ञापन-विशेषज्ञ ने कहा: लेकिन अभी भी यह रोज घंटी बजाता है, कि लोग भूल न जाएं। रोज सुबह घंटी बजाता है, ताकि गांव में लोगों को याद रहे कि अभी चर्च है। स्मरण दिलाता है। यही तो विज्ञापन का राज है कि लोगों को याद दिलाते रहो, लोग भूल न जाएं। जब आपने बिना विज्ञापन के इतना कमाया, तो जरा सोचिए तो कि विज्ञापन से कितना न कमाया होता!
रथचाइल्ड ने पहली दफा विज्ञापन देना शुरू किया। इस आदमी ने उसका दिल जीत लिया। और उसने जो तरकीब बताई, वह बताई: चर्च भी, ईश्वर का घर भी, बिना विज्ञापन के नहीं जीता। वह जो मंदिर में झांझ बजती है, आरती होती है, चर्च में घंटी बजती है, मंत्रोच्चार होता, अखंडपाठ होता, कीर्तन होता, भजन होता–वे सब पुराने ढंग हैं खबरें पहुंचाने के गांव में, कि भूल मत जाना, हम हैं! और अगर सतत इस तरह की बात तुम्हारे ऊपर पड़ती रहे, पड़ती रहे, पड़ती रहे, तो कभी न कभी तुम्हारे मन में भी सवाल उठेगा: इतने लोग खोजे हैं, हम भी खोजें! लेकिन जिस खोज का जन्म तुम्हारी अंतरात्मा से न हुआ हो, उस खोज में सफलता नहीं मिलेगी। परमात्मा की अभीप्सा है या बस एक उधार आकांक्षा पैदा हो गई है? लोग नकलची हैं। और लोग खोज रहे हैं तो हमें भी खोजना चाहिए। परमात्मा इस तरह नहीं खोजा जा सकता।

ओशो, रहिमन धागा प्रेम का(प्रवचन-3)

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

*एक मोटे आदमी
ने न्यूज पेपर में विज्ञापन देखा ” एक सप्ताह में 5 किलो
वजन कम कीजिये। ”

उसने उस विज्ञापन वाली कम्पनी में
फोन किया तो एक महिला ने जवाब दिया और कहा : ” कल
सुबह 6 बजे तैयार रहिए। ”

अगली सुबह उस मोटे ने दरवाजा खोला तो देखा कि एक
खूबसूरत युवती जागिंग
सूट और शूज पहने बाहर तैयार खड़ी है।

युवती बोली :- मुझे पकड़ो और मुझे किस कर लो ये कह कर
युवती दौड़ पड़ी।

मोटू भी पीछे दौड़ा मगर उसे पकड़ नहीं पाया।
पूरे हफ्ते रोज मोटू ने उसे पकड़ने का प्रयास किया लेकिन उस
युवती को पकड़ नही पाया। और उसका 5 किलो वजन कम
हो गया।

फिर मोटू ने 10 किलो वजन कम करने वाले प्रोग्राम की
बात की।
अगली सुबह 6 बजे उसने दरवाजा खोला तो देखा कि: पहले
वाली से भी खूबसूरत
युवती जागिंग सूट और शूज में खड़ी है।

युवती बोली :- मुझे
पकड़ो और मुझे किस करलो और इस हफ्ते मोटू का 10 किलो
वजन घट गया।

मोटू ने सोचा वाह क्या बढ़िया प्रोग्राम है। क्यूँ ना 25
किलो वाला प्रोग्राम आजमाया जाए। उसने 25 किलो वाले
प्रोग्राम के लिए फोन किया। तो महिला ने जवाब दिया और
कहा कि :

” क्या आपका इरादा पक्का है.?” क्योंकि ये
प्रोग्राम थोड़ा कठिन है। ”
मोटू बोला :- ” हाँ। ”
अगली सुबह 6 बजे मोटू ने दरवाजा खोला तो देखा कि
दरवाजे पर जागिंग सूट और शूज पहने एक काली भुजंग maya लड़की
खडी है ……

लड़की बोली : मैंने तुम्हे पकड़ लिया तो मैं तुम्हें
किस करूँगी,

बस तो फिर क्या अब तो भाग मिल्खा भाग…!!!*
😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

श्रीमद्भागवत से ली गई,राजा परीक्षित और कलयुग कथा ,,,,,

परीक्षित( जी महाराज अर्जुन के पौत्र और वीर अभिमन्यु के पुत्र है। पाण्डवों के स्वर्ग जाने के पश्चात राजा परीक्षित ऋषि-मुनियों के आदेशानुसार धर्मपूर्वक शासन करने लगे।

उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया था, वे समस्त गुण उनमें विद्यमान थे। उनका विवाह राजा उत्तर की कन्या इरावती से हुआ। उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र प्राप्त हुए। इस प्रकार वे समस्त ऐश्वर्य भोग रहे थे।

आचार्य कृप को गुरु बना कर उन्होंने जाह्नवी के तट पर तीन अश्वमेघ यज्ञ किये। उन यज्ञों में अनन्त धन राशि ब्रह्मणों को दान में दी और दिग्विजय हेतु निकल गये। दिग्विजय करते हुए परीक्षित सरस्वती नदी के तट पर पहुंचे।

वहां पर राजा ने एक बैल और गऊ को पुरुष भाषा में बात करते हुए सुना। वो बैल केवल एक पैर पर खड़ा था जबकि गाय की दशा जीर्ण-शीर्ण थी और आँखों में आंसू थे। ये बैल साक्षात् धर्म है और गऊ धरती माता है। बैल केवल एक पाँव पर खड़ा है। जो सत्य है। बैल के तीन पाँव नही है दया, तप और पवित्रता। बैल केवल एक पाँव पर खड़ा है कलयुग में ना दया होगी, ना तप होगा, ना पवित्रता होगी केवल सत्य होगा।

बैल गाय से पूछता है की – “हे देवि पृथ्वी! तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो रहा है? किस बात की तुम्हें चिन्ता है? कहीं तुम मेरी चिन्ता तो नहीं कर रही हो कि अब मेरा केवल एक पैर ही रह गया है या फिर तुम्हें इस बात की चिन्ता है कि अब तुम पर शूद्र राज्य करेंगे?”

पृथ्वी बोली – “हे धर्म! तुम सब कुछ जानकार भी मुझ से मेरे दुःख का कारण पूछते हो! सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, सन्तोष, त्याग, शम, दम, तप, सरलता, क्षमता, शास्त्र विचार, उपरति, तितिक्षा, ज्ञान, वैराग्य, शौर्य, तेज, ऐश्वर्य, बल, स्मृति, कान्ति, कौशल, स्वतन्त्रता, निर्भीकता, कोमलता, धैर्य, साहस, शील, विनय, सौभाग्य, उत्साह, गम्भीरता, कीर्ति, आस्तिकता, स्थिरता, गौरव, अहंकारहीनता आदि गुणों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के अपने धाम चले जाना के कारण मुझे पर घोर कलियुग गया है।

मुझे तुम्हारे साथ ही साथ देव, पितृगण, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि सभी के लिये महान शोक है। भगवान श्रीकृष्ण के जिन चरणों की सेवा लक्ष्मी जी करती हैं उनमें कमल, वज्र, अंकुश, ध्वजा आदि के चिह्न विराजमान हैं और वे ही चरण मुझ पर पड़ते थे जिससे मैं सौभाग्यवती थी। अब मेरा सौभाग्य समाप्त हो गया है।”

जब धर्म और पृथ्वी आपस में बात कर रहे थे तभी एक काला-काला व्यक्ति आया और गऊ को लात मारी बैल को डंडे से मारा।

महाराज परीक्षित अपने धनुषवाण को चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी में ललकारे – “रे दुष्ट! पापी! नराधम! तू कौन है? इन निरीह गाय तथा बैल को क्यों सता रहा है? तू महान अपराधी है। तेरे अपराध का उचित दण्ड तेरा वध ही है।” मैं तुझे जीवित नही छोड़ूंगा। इतना कह कर राजा परीक्षीत ने उस पापी को मारने के लिये अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार निकाली।

वो व्यक्ति डर गया और परीक्षित जी महाराज के चरणो में गिर गया और क्षमा मांगने लगा।

वो बोला की मैं कलयुग हूँ। श्री कृष्ण के जाने के बाद अब द्वापर युग खत्म हो गया है और कलयुग का आगमन हो गया है। अब मेरा राज चलेगा।

राजा परीक्षित बोले की अधर्म, पाप, झूठ, चोरी, कपट, दरिद्रता आदि अनेक उपद्रवों का मूल कारण केवल तू ही है। अतः तू मेरे राज्य से तुरन्त निकल जा और लौट कर फिर कभी मत आना।”

इस पर कलयुग बोला की मैं कहाँ जाऊं? जहाँ तक सूर्य और चन्द्रमा का प्रकाश है मुझे आप धनुष बाण लिए दिखाई देते हो? अब मुझ पर दया करके मेरे लिए कोई तो स्थान बताइये ना?

परीक्षित बोले की आपके अंदर केवल और केवल अवगुण है अगर एक भी गुण तेरे अंदर है तो बता? मैं फिर तुझे कोई स्थान अवश्य दूंगा।

इस पर कलयुग थोड़ा खुश हुआ और बोला हे महात्मन! आप बड़े दयालु है। माना की मेरे अंदर अवगुण ही अवगुण है लेकिन एक सबसे बड़ा गुण है।

कलयुग में केवल भगवान नाम, हरी नाम से ही मुक्ति संभव है। भगवान को पाने के लिए कोई लम्बे चौड़े यज्ञ, हवन, पूजा और विधि विधान की जरुरत नही पड़ेगी। मानो रामचरिमानस की यह चौपाई यहाँ सार्थक हो रही है-कलियुग केवल नाम अधारा , सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा

कलियुग इस तरह कहने पर राजा परीक्षित सोच में पड़ गये। फिर विचार कर के उन्होंने कहा – “हे कलियुग! द्यूत(जुआखाना), मद्यपान(मदिरालय), परस्त्रीगमन(वैश्यालय) और हिंसा(कसाईखाना) इन चार स्थानों में असत्य, मद, काम और क्रोध का निवास होता है। इन चार स्थानों में निवास करने की मैं तुझे छूट देता हूँ।”
यदि व्यक्ति अपना भला चाहे तो इन चारों से दूर रहना चाहिए।

कलयुग ने राजा का बहुत धन्यवाद किया और बोला- हे राजन आपने चारों स्थान अपनी मर्जी से दिए है एक स्थान में भी आपसे मांगता हूँ, आप देने की कृपा करे। कृपा करके मुझे स्वर्ण(सोने) में भी स्थान दे दें।
तब परीक्षित जी महाराज ने उसे सोने में भी स्थान दें दिया।

गुरुदेव बताते है की सोने का मतलब यह नही जो आप सोना पहनते हो उसमे कलयुग है। क्योंकि भगवान कृष्णा ने खुद बोला है धातुओं में स्वर्ण मेरा स्वरूप है। कहने का मतलब ये है जो भी पैसा अनीति से, गलत तरीके से, हिंसा से आये और उससे सोना लिया जाये उसमे कलयुग का वास है।

कलयुग को वचन देकर जब राजा परीक्षित अपने महल में लौटे तो अचानक अपने कोषागार में चले गए। जहां एक संदूक देखकर ठिठक गए। संदूक खोला तो उसमें चमचमाता हुआ सोने का मुकुट देखा। इतना सुंदर मुकुट देखकर राजा की आंखें चुंधिया गई और उस मुकुट को सिर पर धारण किया मुकुट राजा परीक्षित ने अपने सिर पर धारण किया, वह मुकुट पांडव जरासंघ को मार कर लाए थे और कोषागार में जमा कर दिया। किसी भी पांडव ने उसे धारण नहीं किया। कलयुग के प्रभाव से ही राजा परीक्षित ने मुकुट सिर पर धारण किया। क्योंकि सोने में कलयुग को स्थान दे दिया। इस कारण राजा परीक्षित की बुद्धि फिर गई और आज ये 45 वर्ष के हुए तो इनका मन शिकार करने के लिए कहता है। परीक्षित जी महाराज ने अपने धनुष बाण उठे और वन में शिकार करने के लिए चल दिए। आज तक इन्होने कभी भी आखेट(शिकार) का नही सोचा पर आज मन हुआ है।

वन में शिकार करते करते बहुत आगे निकल गए। इनका सैनिक समुदाय काफी पीछे रह गया। काफी आगे जाने के बाद इन्हे प्यास लगी है। थोड़ी दूर पर इन्हे एक कुटिया दिखाई दी। जिसमे एक संत शमीक ऋषि जी आँखे बंद करके भगवान का ध्यान कर रहा था। इसने सोचा की ये संत ढोंग कर रहा है। नाटक कर रहा है। इसने संत से पानी माँगा। लेकिन संत की समाधि सच्ची थी। जब संत ने इसे पानी नही दिया तो इसे गुस्सा आया वहां एक मारा हुआ सर्प पड़ा हुआ था। वो सर्प उठाया और संत के गले में डाल दिया। इस तरह इन्होने संत का अपमान किया और अपने महल में चले आये।

शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे। उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है लेकिन उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया।

ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा।

डारि नाग ऋषि कंठ में, नृप ने कीन्हों पाप।
होनहार हो कर हुतो, ऋंगी दीन्हों शाप॥

जब शमीक ऋषि समाधि से उठे तो उनके पुत्र श्रृंगी ने सभी बातें अपने पिता को बताई। ऋषि बोले की बेटा तूने यह अच्छा नही किया। वो एक राजा है। और राजा में रजो गुण आ सकता है पर तू एक संत का बेटा है। तेरे अंदर क्रोध क्यू आया जो तूने श्राप दे दिया। कलयुग के प्रभाव के कारण उस राजा को क्रोध आ गया और उसने सर्प डाल दिया। राजा ने जान बूझ कर नहीं किया है। संत बोले बेटा अब तो श्राप वापिस हो नही सकता। तुम राजा के पास जाओ और इस बात की खबर दो की सातवें दिन तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।

ऋषि शमीक को अपने पुत्र के इस अपराध के कारण अत्यन्त पश्चाताप होने लगा।

जब परीक्षित महाराज अपने महल में पहुंचे और वो सोने का मुकुट उतारा तो कलयुग का प्रभाव समाप्त हो गया। अब परीक्षित जी महाराज सोच रहे है ये मैंने क्या कर दिया। एक संत के ब्राह्मण के, ऋषि के गले में सर्प डाल दिया। मैंने तो महापाप कर दिया। बहुत दुखी हो रहे है।

उसी समय ऋषि शमीक का भेजा हुआ एक गौरमुख नाम के शिष्य ने आकर उन्हें बताया कि ऋषिकुमार ने आपको श्राप दिया है कि आज से सातवें दिन तक्षक सर्प आपको डस लेगा। राजा परीक्षित ने शिष्य को प्रसन्नतापूर्वक आसन दिया और बोले – “ऋषिकुमार ने श्राप देकर मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरी भी यही इच्छा है कि मुझ जैसे पापी को मेरे पाप के लिय दण्ड मिलना ही चाहिये। आप ऋषिकुमार को मेरा यह संदेश पहुँचा दीजिये कि मैं उनके इस कृपा के लिये उनका अत्यंत आभारी हूँ।” उस शिष्य का यथोचित सम्मान कर के और क्षमायाचना कर के राजा परीक्षित ने विदा किया।

अब परीक्षित जी महाराज ने तुरंत अपने पुत्रो जनमेजय आदि को बुलाया और राज काज का भार उनको सौंप दिया। और खुद सब कुछ छोड़ कर केवल एक लंगोटी में निकल गए है। और संकल्प ले लिया की अब ये जीवन भगवान की भक्ति में ही बीतेगा। अब तक मैंने भगवान को याद नही किया लेकिन अब और इस संसार में नही रहना है। वैराग्य हो गया।

परीक्षित जी महाराज गंगा नदी के तट पर पहुंचे है। जहाँ पर अत्रि, वशिष्ठ, च्यवन, अरिष्टनेमि, शारद्वान, पाराशर, अंगिरा, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, इन्द्रमद, उतथ्य, मेधातिथि, देवल, मैत्रेय, पिप्पलाद, गौतम, भारद्वाज, और्व, कण्डव, अगस्त्य, नारद, वेदव्यास आदि ऋषि, महर्षि और देवर्षि अपने अपने शिष्यों के साथ पहले से ही बैठे है।

राजा परीक्षित ने उन सभी का यथोचित समयानुकूल सत्कार करके उन्हें आसन दिया, उनके चरणों की वन्दना की और कहा – “यह मेरा परम सौभाग्य है कि आप जैस देवता तुल्य ऋषियों के दर्शन प्राप्त हुये। मैंने सत्ता के मद में चूर होकर परम तेजस्वी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है फिर भी आप लोगों ने मुझे दर्शन देने के लिये यहाँ तक आने का कष्ट किया यह आप लोगों की महानता है।

मेरी इच्छा है कि मैं अपने जीवन के शेष सात दिनों का सदुपयोग ज्ञान प्राप्ति और भगवत्भक्ति में करूँ। अतः आप सब लोगों से मेरा निवेदन है कि आप लोग वह सुगम मार्ग बताइये जिस पर चल कर मैं भगवान को प्राप्त कर सकूँ?” परीक्षित जी महाराज पूछते है जिसकी मृत्यु निकट है ऐसे जीव को क्या करना चाहिए?

उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया।

उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी मे कहा – “हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं।

आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है।

आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये?

गुरुदेव कहते है की ये प्रश्न केवल परीक्षित का नही है प्रत्येक जीव का है। क्योंकि हम सब मृत्य के निकट है। हमारी मृत्यु कभी ही हो सकती है। राजा को तो 7 दिन का समय भी मिल गया लेकिन हमें तो ये भी नही पता की हम किस दिन मरेंगे।

तो जवाब में गुरुदेव कहते है जीवन के सात ही दिन है भैया! सोमवार से लेकर रविवार तक। और इन्ही सात दिनों में एक दिन हमारा दिन भी निश्चित है। इसलिए प्रत्येक दिन भगवान का स्मरण, कीर्तन और भजन करो।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

विदाई

ज्यों ज्यों शादी के दिन नजदीक आ रहे थे। मीठी गुमसुम होती जा रही थी। अब सिर्फ सात दिन रह गए थे। सारे घर वाले शादी की तैयारियों में बिजी थे। घर मे खुशी और उल्लास का माहौल था।
मग़र मीठी के दिल का हाल कोई नही जानना चाहता। उस पर क्या गुजर रही है किसी को खबर नही। वो घर के जिस कमरे में जाती उसकी दीवारों को टकटकी लगाकर देखने लगती।
जी भरकर देखने की लालसा में सुन्न सी पड़ जाती।

बाहर बरामदे में बारिश को इतनी टकटकी लगाकर देखने लगती जैसे हर एक बूंद को आंखों में समा लेना चाहती हो।
बाबुल के घर के इस अद्वित्य नजारे को जीवन भर के लिए हृदय में संजो लेना चाहती हो।
सब कुछ छूट जाएगा यहीं। अपना घर, अपनी गलियाँ, उसकी जरा सी आह पर उसके लिए फिक्र करने वाला परिवार, भाई, बहिन, मम्मी-पापा सब!!
लड़का अच्छा है। सरकारी नौकरी है। इकलौता है। “मीठी राज करेगी” सब यही कहते हैं।
मग़र मीठी को उसके लिए यह घर छोडना होगा?
क्यूँ??
क्या इतना आसान है अपना घर छोड़ना?
मीठी का दिल विद्रोह सा करने लगता।
वह बारिश की फुंहारो में खोई थी कि छोटा भाई आकर बोला
“दीदी”
मीठी बेखर थी।
उसने बांह पकड़ कर हिलाया” दीदी”
मीठी की तन्द्रा टूटी बोली ” हाँ क्या चाहिए”
“दीदी तेरे पेन मैँ ले लूँ क्या?? तू तो ससुराल चली जाएगी। पेन तो खराब हो जाएंगे”
“”जा ले ले”” पेन को हाथ तक नही लगाने देने वाली मीठी के मुँह से इतना सुनकर भाई सरपट उसके कमरे में दौड़ गया कि कहीं दीदी अपना निर्णय न बदल दे।
मीठी भी उसके पीछे गई।
भाई सैंकड़ो की संख्या में इकठ्ठे किए गए पैनो पर हाथ साफ कर रहा था।
मीठी बोल पड़ी “सुन, वो लाल वाला मुझे देदे, पापा ने जन्म दिन पर गिफ्ट दिया था”।
“ये टूटा हुआ है दीदी”
“टूटा हुआ ही दे दे” पापा की याद तो दिलाएगा”
कहते कहते मीठी का गला भर आया।
इतने में छोटी बहन भी आ गई। भाई को इतने सारे पेन पर हाथ साफ करते देख कर वह भी झपटा मारने लगी।
फिर दोनों लड़ने लगे।
मीठी ने दोनो को अलग किया फिर बहन से बोली।
“”पेन इसे ले लेने दे। तू ये सब ले ले”
“”ये रबड़, ये घड़ी, ये कड़ा, ये जीन्स भी ले ले। देख कितनी प्यारी गुड़िया है ये भी आज से तेरी हो गई” ये स्कूल कॉलेज में मीले सारे गिफ्ट -ट्रॉफियां, सारे कपड़े, सब आज से तेरे हुए।”
फिर मीठी अपने आंसुओं को दबा कर फिर बाहर खुले आसमान के नीचे बैठ गई। बारिश अब थम चुकी थी। मगर मीठी के दिल के भीतर एक बाढ़ सी आई हुई थी। जो किसी को भी नही दिख रही थी।
अगले छः दिन भी रस्मो और खयालो में गुजर गए। इन छः दिनों में मीठी ने बस इतना जाना कि हर कोई उसको विदा करने में लगा है। हर कोई उसे घर से निकाल देना चाहता है
उसके दिल का हाल कोई नही जानता।
हाँ अब घर की निर्जीव चीजें बोलने लगी थी। कमरे की दीवारें, ऊपर घूमता पंखा, कुर्सी, बेड, सोफा सब एक ही बात कहते ” जा रही हो मीठी?”
और मीठी उन को छू कर बस इतना ही कहती “हाँ, इन रस्मो-रिवाजों की भेंट हर लड़की चढ़ती है। मैं भी चढ़ रही हूँ। वरना कौन अपना आशियाना छोड़ना चाहता है।
फेरों वाले दिन मीठी पर संवेग इतने हावी थे कि वो सुन्न सी पड़ गई। एक मशीन की तरह।
फेरे पूरे हुए।
दूल्हा दुल्हन का हाथ थामे बैठा था। कि अचानक मीठी लुढ़क गई। अचानक हाहाकार मच गया। नब्ज देखी गई। सब कुछ बन्द। मीठी दुनिया छोड़ गई।
धड़कन ठहर गई उसकी। पिया से ज्यादा घर मे मोह था।ले डूबा। दिल इतना बड़ा नही था उसका कि डोली में विदा होने की जुर्रत कर पाता। इस लिए उसकी विदाई बाबुल के घर से अर्थी में ही

हुई।
D. R. Saini

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

ब्रह्म बल ,,,,,,,,,,,,

,,,,, एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता!
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
एक दिन राजा विश्वामित्र अपनी सेना को लेकर वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये। विश्वामित्र जी उन्हें प्रणाम करके वहीं बैठ गये। वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र जी का यथोचित आदर सत्कार किया और उनसे कुछ दिन आश्रम में ही रह कर आतिथ्य ग्रहण करने का अनुरोध किया। इस पर यह विचार करके कि मेरे साथ विशाल सेना है और सेना सहित मेरा आतिथ्य करने में वशिष्ठ जी को कष्ट होगा, विश्वामित्र जी ने नम्रतापूर्वक अपने जाने की अनुमति माँगी किन्तु वशिष्ठ जी के अत्यधिक अनुरोध करने पर थोड़े दिनों के लिये उनका आतिथ्य स्वीकार कर लिया।
वशिष्ठ जी ने नंदिनी गौ का आह्वान करके विश्वामित्र तथा उनकी सेना के लिये छः प्रकार के व्यंजन तथा समस्त प्रकार के सुख सुविधा की व्यवस्था कर दिया। वशिष्ठ जी के आतिथ्य से विश्वामित्र और उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये।
नंदिनी गौ का चमत्कार देखकर विश्वामित्र ने उस गौ को वशिष्ठ जी माँगा पर वशिष्ठ जी बोले राजन! यह गौ मेरा जीवन है और इसे मैं किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता।
वशिष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर विश्वामित्र ने बलात् उस गौ को पकड़ लेने का आदेश दे दिया और उसके सैनिक उस गौ को डण्डे से मार मार कर हाँकने लगे। नंदिनी गौ क्रोधित होकर उन सैनिकों से अपना बन्धन छुड़ा लिया और वशिष्ठ जी के पास आकर विलाप करने लगी। वशिष्ठ जी बोले कि हे नंदिनी! यह राजा मेरा अतिथि है इसलिये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास विशाल सेना होने के कारण इससे युद्ध में भी विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्वयं को विवश अनुभव कर रहा हूँ। उनके इन वचनों को सुन कर नंदिनी ने कहा कि,,,,,,,,,,,, हे ब्रह्मर्षि! एक ब्राह्मण के बल के सामने क्षत्रिय का बल कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता।,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, आप मुझे आज्ञा दीजिये, मैं एक क्षण में इस क्षत्रिय राजा को उसकी विशाल सेनासहित नष्ट कर दूँगी। और कोई उपाय न देख कर वशिष्ठ जी ने नंदिनी को अनुमति दे दी।
आज्ञा पाते ही नंदिनी ने योगबल से अत्यंत पराक्रमी मारक शस्त्रास्त्रों से युक्त पराक्रमी योद्धाओं को उत्पन्न किया जिन्होंने शीघ्र ही शत्रु सेना को गाजर मूली की भाँति काटना आरम्भ कर दिया। अपनी सेना का नाश होते देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त कुपित हो वशिष्ठ जी को मारने दौड़े। वशिष्ठ जी ने उनमें से एक पुत्र को छोड़ कर शेष सभी को भस्म कर दिया।
अपनी सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र को राज सिंहासन सौंप कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके विश्वामित्र जी ने महादेव जी को प्रसन्न कर लिया ओर उनसे दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
गुढार्थ ———
१, ब्रह्म बल ,,,,, शिक्षा + बौद्धिक बल एवं परोपकार की भावना
२, क्षत्रिय बल ,,,,,, सत्ता एवं सैन्य बल
३, गोमाता द्वारा राजा विश्वामित्र की सेना को समाप्त करना —- इस का तात्पर्य है की ,,,,,
गाय के दूध ,दही एवं मखन खाने से सकारात्मक ऊर्जा का उत्पत्ति होती है , ब्रह्म बल एवं ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति बढ़ती है एवं शरीर निरोग रहता है ! जब किसी मनुष्य में सकारात्मक ऊर्जा का नाश हो जाता है तो उसका पराक्रम समाप्त हो जाता है ! बुद्धि बल ही मनुष्य को पराक्रमी बनाता है !

Jai jai shri krishna

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक बहुत सुदंर कथा

#राधारानीजीकीपोशाक

बहुत समय पहले की बात है, बरसाने में एक संत जी हुआ करते थे। वे हर पल राधा रानी जी का भजन, नाम समिरन किया करते थे। वह रोज राधा रानी के दर्शन करने बरसाने महल में जाया करते, यह एक प्रकार की उनकी दिनचर्या बन गई थी। तो एक बार हुआ कि वे जब राधा रानी के महल में दर्शन करने पहुचे तो उन्होंने देखा कि एक भक्त श्री राधा रानी के लिए पोशाक लेकर आया है, और वह श्री जू को पोशाक अर्पित कर रहें है। यह देख संत सोचने लगे यहाँ सभी राधा रानी के लिए कुछ न कुछ लेकर आते है, कोई पोशाक लेकर आता है, कोई फूल आता है, सभी अपने भाव के अनुसार राधा रानी को कुछ न कुछ अवश्य अर्पित करते है। और एक मैं अभागा हूॅ जो मैंने आज तक राधा रानी जी को कुछ भी अर्पित नहीं किया है। संत के मन एक भाव आया, उन्हें भी जिज्ञासा हुई कि वे भी श्री राधा रानी जी को कुछ अर्पित करे।

इस प्रकार उस संत के मन में भाव आया और उन्होंने निर्णय किया कि वे भी राधा रानी के लिए एक पोशाक अर्पित करेंगे, वह भी स्वयं अपने हाथों से बना कर। संत पोशाक बनाने की तैयारी में जूट गये, वें पूरे दिन सच्ची श्रद्धा व भाव से पोशाक बनाने में लगे रहते और इसी तरह वे कुछ ही दिन में एक बहुत ही सुन्दर सी पोशाक बना डाले।

जब पोशाक तैयार हो गई तो वे पोशाक को ले श्री राधा रानी के दर्शन कर उन्हें अर्पित करने महल की ओर जाने लगे। जैस ही वे महल की सीढी चढनें लगे, सीढियों के बीच में ही एक एक छोटी सी बच्ची नें संत से कहने लगी। बाबा ज्यों ले कहाॅ लेकर जा रहे हो?

बच्ची की बात सुन संत कहते है, लाली ये राधा रानी के लिए मैंने पोशाक बनायी है, जो उनको ही देने जा रहा हूँ। संत के इतना कहने पर लाली ने कहाॅ बाबा राधा रानी के पास तो बहुत सारी पोशाक है, तो बाबा यू पोशाक माकू देदे।

संत कहते है – बेटी तोकू मैं बाजार से दूसरी दिलवा दूंगा। ये तो मैं अपने हाथों से बना राधा रानी के लिए आया हूॅ।

छोटी सी लाली भी नहीं मानी उसने संत के कपड़े पकड़ बोली – बाबा यो मोकूं देदे। संत भी जिद में ये नहीं दूंगा। संत के इतना कहते ही बच्ची से संत के हाथे से पोशाक छुड़ाकर भाग गई। पोशाक ले जाने से संत बहुत दुःखी हो गए, और सोचने लगे इस बुढापे में बच्ची को कहाॅ ढूंढे। यह सोच – सोच कर सीढियों में बैठ रोने लगे, तभी एक पास से गुजर रहे संत ने पूछ लिया क्यों रो रहें हो?

तब वे दूसरे संत को अपनी सारी बात बताये इतने परिश्रम से मैंने राधा रानी के लिए एक पोशाक बनाई थी, उसे एक छोटी सी बच्ची लेकर भाग गई। अब क्या करू कहाॅ जाऊ उस बच्ची को ढूढंने।

यह सुन दूसरे संत ने कहाॅ अब हो गया, रोने से क्या होगा । आप चलों ऊपर चल दर्शन कर लो। संत दुःखी मन से दर्शन करने जाते सोचने लगे शायद राधा रानी जी को मेरे हाथ की बनी पोशाक पसंद नहीं थी, इसलिए वह बच्ची पोशाक लेकर चली गई| संत यह सोचते दुःखी मन से ऊपर जा रहे थे, जैसे ही वे मंदिर पर पँहुचे और श्रृंगार के बाद श्री जी के दर्शन के लिये पट खोले गये तो संत ने देखा की यह तो वही पोशाक है, जिसे मैंने अपने हाथ से बनाया था, और जिसे वह छोटी सी बच्ची लेकर भाग गई थी|

संत यह देख अचंभित रह गये कि वही राधा रानी के पोशाक धारण कर विराजमान है, यह देख संत के अश्रु बहने लगे और मन ही मन राधा रानी से कहने लगे हे राधा रानी मैं तो यह पोशाक आपके लिये ही लाया था, लेकिन आपने तो इंतजार भी नही किया, श्री राधा रानी जी ने कहाँ बाबा वह केवल पोशाक नही था, उस पोशाक में तुम्हारा प्रेम छुपा था, और मुझे जो भी प्रेम से अर्पण करना चाहता है न तो मैं स्वयं उसे लेने आ जाती हूँ | भगवान भी प्रेम, भाव, श्रध्दा के प्यासे है, यदि आप पूरी निष्ठा से उन्हें कुछ भी अर्पण करेंगे तो उन्हें सब स्वीकार है

राधे राधे बोलना पडे़गा

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

(कर्ज)

“कहाँ जा रही है ,बहू ?”..स्कूटर की चाबी उठाती हुई पृथा से सास ने पूछा.
“मम्मी की तरफ जा रही थी अम्माजी”
“अभी परसों ही तो गई थी”
“हाँ पर आज पापा की तबियत ठीक नही है, उन्हें डॉ को दिखाने ले जाना है”
“ऊहं!” “ये तो रोज का हो गया है” ,”एक फोन आया और ये चल दी”, “बहाना चाहिए पीहर जाने का “सास ने जाते जाते पृथा को सुनाते हुए कहा..”हम तो पछता गए भई ” “बिना भाई की बहन से शादी करके” “सोचा था ,चलो बिना भाई की बहन है ,तो क्या हुआ कोई तो इसे भी ब्याहेगा”

“अरे !” “जब लड़की के बिना काम ही नही चल रहा,तो ब्याह ही क्यूं किया”..ये सुनकर पृथा के तन बदन में आग लग गई ,दरवाज़े से ही लौट आई ओर बोली ,”ये सब तो आप लोगो को पहले ही से पता था ना आम्मा जी ,कि मेरे भाई नही है” “और माफ करना” “इसमें एहसान की क्या बात हुई ,आपको भी तो पढ़ी लिखी कमाऊ बहु मिली है।”

“लो !” “अब तो ये अपनी नोकरी औऱ पैसों की भी धौंस दिखाने लगी।”
“अजी सुनते हैं ,देवू के पिताजी” सास बहू की खटपट सुनकर बाहर से आते हुए ससुर जी को देखकर सास बोली।
“पिताजी मेरा ये मतलब नही था “,”अम्माजी ने बात ही ऐसी की, कि मेरेे भी मुँह से भी निकल गया ” पृथा ने स्पष्ट किया।
ससुर जी ने कुछ नहीं कहा और अखबार पढ़ने लगे
“लो!”” कुछ नहीं कहा ” “लड़के को पैदा करो ” “रात रात भर जागो ” ” टट्टी पेशाब करो” “पोतड़े धोओ” “पढ़ाओ लिखाओ” “शादी करो ” “और बहुओं से ये सब सुनो ”

“कोई लिहाज ही नही रहा छोटे बड़े का “,सास ने आखिरी अस्त्र फेंका ओर पल्लू से आंखे पोछने लगी बात बढ़ती देख देवाशीष बाहर आ गया,” ये सब क्या हो रहा है अम्मा।”

“अपनी चहेती से ही पूछ ले।”
“तुम अंदर चलो” लगभग खीचते हुए वह पृथा को कमरे में ले गया
“ये सब क्या है! पृथा..अब ये रोज की बात हो गई है।”
“मैने क्या किया है देव बात अम्मा जी ने ही शुरू की है ”
“क्या उन्हें नही पता था कि मेरे कोई भाई नही है?” “इसलिए मुझे तो अपने मम्मी पापा को संभालना ही पड़ेगा ,”पृथा ने रूआंसी होकर कहा..!

“वो सब ठीक है ” “पर वो मेरी मां हैं” “बड़ी मुश्किल से पाला है उन्होंने मुझे” ” माता पिता का कर्ज उनकी सेवा से ही उतारा जा सकता है ” “सेवा न सही ,तुम उनसे जरा अदब से बात किया करो।”

“अच्छा !” “बाहर हुई सारी कन्वर्सेशन में तुम्हें मेरी बेअदबी कहाँ नजर आई..तुम्हें ये नौकरी वाली बात नहीं कहनी चाहिए थी..हो सकता है मेरे बात करने का तरीका गलत हो पर बात सही है देव और माफ करना..ये सब त्याग उन्होंने तुम्हारे लिए किया है मेरे लिए नहीं ..अगर उन्हें मेरा सम्मान ओर समर्पण चाहिए तो मुझे भी थोड़ी इज्जत देनी होगी..स्कूटर की चाबी ओर पर्स उठाते हुए वो बोली।

“अब कहाँ जा रही हो “,कमरे से बाहर जाती हुई पृथा से देवाशीष ने पूछा..जिन्होंने मेरे पोतड़े धोए हैं ,उनका कर्ज उतारने ” पृथा ने व्यंग्य मिश्रित गर्व से ऊँची आवाज में कहा और स्कूटर स्टार्ट कर चल दी..!!

संजय गुप्ता

Posted in ज्योतिष - Astrology

।। क्या है पंचक और क्या है ज्योतिष में इस का महत्व आए जाने इस पोस्ट के द्वारा ।।

हिंदू संस्कृति में प्रत्येक कार्य मुहूर्त देखकर करने का विधान है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है पंचक। जब भी कोई कार्य प्रारंभ किया जाता है तो उसमें शुभ मुहूर्त के साथ पंचक का भी विचार किया जाता है। आखिर यह पंचक होता क्या है और इसको लेकर लोगों के मन में संशय, भय और भ्रम की स्थिति क्यों रहती है। खासकर किसी अशुभ कार्य के समय पंचक होने या न होने का इतना विचार क्यों किया जाता है। दरअसल नक्षत्र चक्र में कुल 27 नक्षत्र होते हैं। इनमें अंतिम के पांच नक्षत्र दूषित माने गए हैं, ये नक्षत्र धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र चार चरणों में विभाजित रहता है। पंचक धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से प्रारंभ होकर रेवती नक्षत्र के अंतिम चरण तक रहता है। हर दिन एक नक्षत्र होता है इस लिहाज से धनिष्ठा से रेवती तक पांच दिन हुए। ये पांच दिन पंचक लगा रहता है।
पंचक से ज्ञात होता है संख्या पांच।
जैसा कि शब्द पंचक से ज्ञात होता है संख्या पांच। यानी पंचक के दौरान यदि कोई अशुभ कार्य हो तो उनकी पांच बार आवृत्ति होती है। इसलिए उसका निवारण करना आवश्यक होता है। पंचक का विचार खासतौर पर किसी की मृत्यु के समय किया जाता है। माना जाता है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु पंचक के दौरान हो तो घर-परिवार में पांच लोगों पर संकट रहता है। इसलिए जिस व्यक्ति की मृत्यु पंचक में होती है उसके दाह संस्कार के समय आटे-चावल के पांच पुतले बनाकर साथ में उनका भी दाह कर दिया जाता है। इससे परिवार पर से पंचक दोष समाप्त हो जाता है।
पंचक में यह कार्य नहीं करना चाहिए

धनिष्ठा पंचकं त्याज्यं तृणकाष्ठादिसंग्रहे।
त्याज्या दक्षिणदिग्यात्रा गृहाणां छादनं तथा।।

आए जाने इस का अर्थ …
शास्त्रों में वर्णित है कि पंचक सर्वाधिक दूषित दिन होते हैं इसलिए पंचक के दौरान दक्षिण दिशा की ओर यात्रा नहीं करना चाहिए। घर का निर्माण हो रहा है तो पंचक में छत नहीं डालना चाहिए। घास, लकड़ी, कंडे या अन्य प्रकार के ईंधन का भंडारण पंचक के समय नहीं किया जाता है। शय्या निर्माण यानी पलंग बनवाना, पलंग खरीदना, बिस्तर खरीदना, बिस्तर का दान करना पंचक के दौरान वर्जित रहता है। इनके अतिरिक्त किसी भी प्रकार के कार्य वर्जित नहीं है।

संजय गुप्ता