Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

जो कुछ संतो के मुँह से सुना है, वह आपको बता रहा हूँ,हमारे पास कोई शास्त्र प्रमाण नही है।

आखिर क्यों राजा दशरथ को नहीं भेजा गया आमंत्रण सीता स्वयंवर के लिए ?

ऐसा क्या हुआ की राजा जनक ने दूर-दूर तक के राज्यों में अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर का आमंत्रण भेजा परन्तु अयोध्या नरेश महाराजा दशरथ को इस स्वयंवर का न्योता नहीं भेजा गया?

राजा जनक के शासनकाल में एक व्यक्ति का विवाह हुआ। जब वह पहली बार ससुराल जा रहा था तब वहां उसे दल-दल दिखा| उसने देखा की दल-दल में एक गाय फंसी हुई है तथा मरने ही वाली है और उसे बचाया नहीं जा सकता| तब वह गाय के ऊपर पैर रखकर आगे बढ़ गया।

जैसे ही वह आगे बढ़ा, गाय ने तुरन्त दम तोड़ दिया तथा शाप दिया कि जिसके लिए तू जा रहा है, उसे देख नहीं पाएगा, यदि देखेगा तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी। वह व्यक्ति घबरा गया और एक उपाय निकाला| ससुराल पहुँचकर वह दरवाजे के बाहर घर की ओर पीठ करके बैठ गया| सबके बुलाने पर भी वह अंदर नहीं आया तथा पीठ कर के ही बैठा रहा|

उसकी पत्नी को जब इस बात का पता चला तो उसने अपने पति से अनुरोध किया| पत्नी के बार बार कहने पर उसने सारी घटना के बारे में बताया| उसकी पत्नी ने उससे कहा कि मैं पतिव्रता स्त्री हूँ, ऐसा कुछ नहीं होगा| उस व्यक्ति ने अपनी पत्नी की ओर देखा तो उसकी आँखों की रोशनी चली गयी| अतः गौहत्या का श्राप सच हो गया|

वे दोनों अपनी समस्या लेकर राजा जनक के पास पहुंचे| राजा जनक के विद्वानों का कहना यह था कि अगर कोई पतिव्रता स्त्री छलनी में गंगाजल लाकर इस व्यक्ति की दोनों आँखों में छींटे लगाए तो इसकी आँखों की रोशनी आ सकती है|

राजा जनक ने पहले अपने राज्य में पतिव्रता स्त्री की खोज की फिर अन्य राज्यों में भी सुचना भेजी कि उनके राज्य में यदि कोई पतिव्रता स्त्री है, तो उसे सम्मान सहित राजा जनक के दरबार में भेजा जाए।

जब यह सूचना अयोध्या नरेश राजा दशरथ को मिली, तो उसने पहले अपनी सभी रानियों से पूछा। प्रत्येक रानी का यही उत्तर था कि राजमहल तो क्या आप राज्य की किसी भी महिला यहाँ तक कि झाडू लगाने वाली, जो कि उस समय अपने कार्यों के कारण सबसे निम्न श्रेणि की मानी जाती थी, से भी पूछेंगे, तो उसे भी पतिव्रता पाएँगे।

उन्होंने राज्य की सबसे निम्न मानी जाने वाली सफाई वाली को बुला भेजा और उसके पतिव्रता होने के बारे में पूछा। उस महिला ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी। तब राजा ने यह दिखाने के लिए कि अयोध्या का राज्य सबसे उत्तम है, उस महिला को ही राज-सम्मान के साथ जनकपुर को भेज दिया।

राजा जनक ने उस महिला का सम्मान किया और उसे समस्या बताई। उस महिला ने वह कार्य करने के लिए हाँ कह दी। महिला छलनी लेकर गंगा किनारे गई और प्रार्थना की कि, ‘हे गंगा माता! यदि मैं पूर्ण पतिव्रता हूँ, तो गंगाजल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए।’ प्रार्थना करके उसने गंगाजल को छलनी में भर लिया और पाया कि जल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरी।

राजा और दरबार में उपस्थित सभी यह दृश्य देख हैरान रह गए तथा उस महिला को ही उस व्यक्ति की आँखों पर छींटे मारने का अनुरोध किया| उस व्यक्ति की आँखों की रोशनी लौट आई| जब उस महिला ने अपने राज्य को वापस जाने की अनुमति माँगी, तो राजा जनक ने अनुमति देते हुए जिज्ञासावश उस महिला से उसकी जाति के बारे में पूछा। महिला द्वारा बताए जाने पर, राजा आश्चर्यचकित रह गए।

अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर के समय उन्होंने सोचा कि जिस राज्य की सफाई करने वाली इतनी पतिव्रता हो सकती है, तो उसका पति कितना शक्तिशाली होगा? अगर राजा दशरथ ने उसी प्रकार के किसी व्यक्ति को भेज दिया तो कहीं राजकुमारी सीता का विवाह किसी निम्न श्रेणी के व्यक्ति के साथ न हो जाए इस विचार से उन्होंने अयोध्या स्वयंवर का आमंत्रण नहीं भेजा|

परन्तु विधाता ने सीता के लिए अयोध्या के राजकुमार राम को चुना था| जाने-अनजाने श्री राम अपने गुरु के साथ जनकपुर पहुंच गए और धनुष तोड़कर सीता के साथ विवाह बंधन में बंध गए।

संजय गुप्ता

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केसर और चंदन की बारिश में यहां झूमते हैं भक्त


हम ऐसी जगह की बात करने जा रहें है, जहां पर चंदन की बारिश होती है। जी हां, आपको जानकर हैरानी होगी लेकिन यह सच है। यह जगह मालवा क्षेत्र में स्थित मुक्तागिरी नाम से जानी जाती है। यह शहर अपनी सुंदरता, रमणीयता और धार्मिक प्रभाव के कारण लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस स्थान पर दिगंबर जैन संप्रदाय के कुल 52 मंदिर हैं।
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यहां मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की सप्तफणिक प्रतिमा स्थापित है जो शिल्पकला का बेजोड़ नमूना है। इस क्षेत्र में स्थित मानस्तंभ, मन को शांति और सुख प्रदान करने वाला है। निर्वाण क्षेत्र में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यहां आकर सुकून मिलता है। यही कारण है कि देश में कोने-कोने से जैन धर्मावलंबी ही नहीं दूसरे धर्मों को मानने वाले लोग भी यहां आते हैं।
लोक मान्यता के अनुसार 1000 वर्ष पहले मुनिराज ध्यान में मग्न थे और उनके सामने एक मेंढक पहाड़ की चोटी से नीचे गिर गया। उस मुनिराज ने मेंढक के कानों में णमोकार मंत्र का उच्चारण किया।
जिसके कारण यह मेंढक मरने के बाद स्वर्ग में देवगति को प्राप्त हुआ। इसी कहानी के अनुसार ही तब से हर अष्टमी और चौदस को इस पहाड़ पर केसर और चंदन की वर्षा होती है। मेढ़क की इसी कहानी के कारण इस पहाड़ी का नाम मेढ़ागिरी पड़ गया। इन कहानियों के अनुसार इस जगह की बहुत मान्यता है। दूर-दूर से लोग चन्दन और मोतियों की बारिश देखने के लिए यहा आते हैं। इस जगह के इतिहास में मेढ़ागिरी पर्वत को बहुत पवित्र माना गया है।

संजय गुप्ता

Posted in ज्योतिष - Astrology

वास्तु अनुसार गणपति स्थापन
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कहां किस तरह के गणेश स्थापित करना चाहिए और गणेश जी कैसे आपके घर का वास्तु सुधार सकते हैं जानिए।

👉 सुख, शांति, समृद्धि की चाह रखने वालों को सफेद रंग के विनायक की मूर्ति लाना चाहिए।साथ ही, घर में इनका एक स्थाई चित्र भी लगाना चाहिए।

👉 सर्व मंगल की कामना करने वालों के लिए सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। – घर में पूजा के लिए गणेश जी की शयन या बैठी मुद्रा में हो तो अधिक शुभ होती है। यदि कला या अन्य शिक्षा के प्रयोजन से पूजन करना हो तो नृत्य गणेश की प्रतिमा या तस्वीर का पूजन लाभकारी है।

👉 घर में बैठे हुए और बाएं हाथ के गणेश जी विराजित करना चाहिए। दाएं हाथ की ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी हठी होते हैं और उनकी साधना-आराधना कठीन होती है। वे देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।

👉 कार्यस्थल पर गणेश जी की मूर्ति विराजित कर रहे हों तो खड़े हुए गणेश जी की मूर्ति लगाएं। इससे कार्यस्थल पर स्फूर्ति और काम करने की उमंग हमेशा बनी रहती है।

👉 कार्य क्षेत्र पर किसी भी भाग में वक्रतुण्ड की प्रतिमा या चित्र लगाए जा सकते हैं, लेकिन यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह दक्षिण दिशा या नैऋय कोण में नहीं होना चाहिए।

👉 मंगल मूर्ति को मोदक और उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। इसलिए मूर्ति स्थापित करने से पहले ध्यान रखें कि मूर्ति या चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा जरूर होना चाहिए।

👉 गणेश जी की मूर्ति स्थापना भवन या वर्किंग प्लेस के ब्रह्म स्थान यानी केंद्र में करें। ईशान कोण और पूर्व दिशा में सुखकर्ता की मूर्ति या चित्र लगाना शुभ रहता है।

👉 यदि घर के मुख्य द्वार पर एकदंत की प्रतिमा या चित्र लगाया गया हो तो उसके दूसरी तरफ ठीक उसी जगह पर दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे इस प्रकार से दूसरी प्रतिमा या चित्र लगाने से वास्तु दोषों का शमन होता है।

👉 यदि भवन में द्वारवेध हो यानी दरवाजे से जुड़ा किसी भी तरह का वास्तुदोष हो(भवन के द्वार के सामने वृक्ष, मंदिर, स्तंभ आदि के होने पर द्वारवेध माना जाता है)। ऐसे में घर के मुख्य द्वार पर गणेश जी की बैठी हुई प्रतिमा लगानी चाहिए लेकिन उसका आकार 11 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए।

👉 भवन के जिस भाग में वास्तु दोष हो उस स्थान पर घी मिश्रित सिन्दूर से स्वस्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।

👉 स्वस्तिक को गणेश जी का रूप माना जाता है। वास्तु शास्त्र भी दोष निवारण के लिए स्वास्तिक को उपयोगी मानता है। स्वास्तिक वास्तु दोष दूर करने का महामंत्र है। यह ग्रह शान्ति में लाभदायक है। इसलिए घर में किसी भी तरह का वास्तुदोष होने पर अष्टधातु से बना पिरामिड यंत्र पूर्व की तरफ वाली दीवार पर लगाना चाहिए।

👉 रविवार को पुष्य नक्षत्र पड़े, तब श्वेतार्क या सफेद मंदार की जड़ के गणेश की स्थापना करनी चाहिए। इसे सर्वार्थ सिद्धिकारक कहा गया है। इससे पूर्व ही गणेश को अपने यहां रिद्धि-सिद्धि सहित पदार्पण के लिए निमंत्रण दे आना चाहिए और दूसरे दिन, रवि-पुष्य योग में लाकर घर के ईशान कोण में स्थापना करनी चाहिए।

👉 श्वेतार्क गणेश की प्रतिमा का मुख नैऋत्य में हो तो इष्टलाभ देती है। वायव्य मुखी होने पर संपदा का क्षरण, ईशान मुखी हो तो ध्यान भंग और आग्नेय मुखी होने पर आहार का संकट खड़ा कर सकती है।

👉 पूजा के लिए गणेश जी की एक ही प्रतिमा हो। गणेश प्रतिमा के पास अन्य कोई गणेश प्रतिमा नहीं रखें। एक साथ दो गणेश जी रखने पर रिद्धि और सिद्धि नाराज हो जाती हैं।

👉 गणेश को रोजाना दूर्वा दल अर्पित करने से इष्टलाभ की प्राप्ति होती है। दूर्वा चढ़ाकर समृद्धि की कामना से ऊं गं गणपतये नम: का पाठ लाभकारी माना जाता है। वैसे भी गणपति विघ्ननाशक तो माने ही गए हैं।
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देव शर्मा

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“हमेशा अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें- स्वामी विवेकानंद”

एक बार स्वामी विवेकानंद जी अपने आश्रम में टेहल रहे थे की एक व्यक्ति उनके पास आया जो की बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानंद जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज मै अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूं हर काम खूब मन लगाकर भी करता हूं फिर भी आजतक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति की बाते सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा ठीक है आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ा देर तक घुमाकर लाए तबतक आपके समस्या का समाधान ढूढ़ता हूं इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को घुमाने चला गया और फिर कुछ समय बीतने के बाद यह व्यक्ति स्वामी विवेकानंद के पास वापस लौट आया। तो स्वामी विवेकानंद ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कुत्ता इतना हाफ क्यूं रहा है जबकी तुम थोड़े से भी थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ। इसपर उस व्यक्ति ने कहा की मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर-उधर रास्ते भर भागता रहा और कुछ भी देखता तो उधर ही दौड़ जाता था जिसके कारण यह इतना थक गया है। इसपर स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराते हुए कहते है बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारें सामने ही होती है लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाए। यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था की यदि सफल होना है तो हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए।

संतोष चतुर्वेदी

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“हमेशा अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें- स्वामी विवेकानंद”

एक बार स्वामी विवेकानंद जी अपने आश्रम में टेहल रहे थे की एक व्यक्ति उनके पास आया जो की बहुत दुखी था और आते ही स्वामी विवेकानंद जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला महाराज मै अपने जीवन में खूब मेहनत करता हूं हर काम खूब मन लगाकर भी करता हूं फिर भी आजतक मैं कभी सफल व्यक्ति नहीं बन पाया। उस व्यक्ति की बाते सुनकर स्वामी विवेकानंद ने कहा ठीक है आप मेरे इस पालतू कुत्ते को थोड़ा देर तक घुमाकर लाए तबतक आपके समस्या का समाधान ढूढ़ता हूं इतना कहने के बाद वह व्यक्ति कुत्ते को घुमाने चला गया और फिर कुछ समय बीतने के बाद यह व्यक्ति स्वामी विवेकानंद के पास वापस लौट आया। तो स्वामी विवेकानंद ने उस व्यक्ति से पूछा की यह कुत्ता इतना हाफ क्यूं रहा है जबकी तुम थोड़े से भी थके हुए नहीं लग रहे हो आखिर ऐसा क्या हुआ। इसपर उस व्यक्ति ने कहा की मैं तो सीधा अपने रास्ते पर चल रहा था जबकि यह कुत्ता इधर-उधर रास्ते भर भागता रहा और कुछ भी देखता तो उधर ही दौड़ जाता था जिसके कारण यह इतना थक गया है। इसपर स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराते हुए कहते है बस यही तुम्हारे प्रश्नों का जवाब है तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारें सामने ही होती है लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो पाए। यह बात सुनकर उस व्यक्ति को समझ में आ गया था की यदि सफल होना है तो हमे अपने मंजिल पर ध्यान देना चाहिए।

संतोष चतुर्वेदी

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प्रेरक प्रसंग

नकलचियों की दशा

  स्वामी दयानन्द के पाखंड-खंडन से चिढ़कर पूना के पोंगापंथी पाखंडियों ने उन्हें अपमानित करने तथा चिढ़ाने के लिए एक जुलूस निकाला ।  उन्होंने एक नकली दयानन्द बनाकर चूना और कालिख से उसका मुँह रँगकर गधे पर बिठाकर जुलूस के आगे कर रखा था और लोग पीछे-पीछे उस पर दयानन्द के नाम से तरह-तरह के व्यंग्य बौछार करते तथा तालियाँ बजाते चल रहे थे ।
  दयानन्द के शिष्यों से रहा न गया ।  वे स्वामीजी के पास गये और कहने लगे कि यदि अनुमति मिले, तो इन पाखंडियों को वे उचित सजा दे सकते हैं ।
  इस पर स्वामीजी बड़े ही सहज भाव से समझाते हुए बोले,  "इसमें सजा देने की क्या बात ?  दूसरे की नकल करने वालों की जो दशा होती है, वह बेचारे नकली दयानन्द की हो रही है ।  यह क्रोध करने का नहीं; शिक्षा लेने का विषय है ।"

संजय गुप्ता

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खोखली होती जड़ें


खोखली होती जड़ें
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अमेरिका से हमारे बेटे सत्यम का फोन था. फोन सुन कर सौरभ बालकनी की तरफ चले गए. क्या कहा होगा सत्यम ने फोन पर…मैं दुविधा में थी…फिर थोड़ी देर तक सौरभ के वापस आने का इंतजार कर मैं भी बालकनी में चली गई. सौरभ खोएखोए से बालकनी में खड़े बाहर बारिश को देख रहे थे. मैं भी चुपचाप जा कर सौरभ की बगल में खड़ी हो गई. जरूर कोई खास बात होगी क्योंकि सत्यम के फोन अब कम ही आते थे. वह पिछले 5 साल से अमेरिका में था. इस से पहले वह मुंबई में नियुक्त था. अमेरिका से वह इन 5 सालों में एक बार भी भारत नहीं आया था.
सत्यम उन संतानों में था जो मातापिता के कंधों पर पैर रख कर सफलता की छलांग तो लगा लेते हैं लेकिन छलांग लगाते समय मातापिता के कंधों को कितना झटका लगा, यह देखने की जहमत नहीं उठाते. थोड़ी देर मैं सौरभ के कुछ बोलने की प्रतीक्षा करती रही फिर धीरे से बोली, ‘‘क्या कहा सत्यम ने?’’
‘‘सत्यम की नौकरी छूट गई है,’’ सौरभ निर्विकार भाव से बोले.
नौकरी छूट जाने की खबर सुन कर मैं सिहर गई. यह खयाल हमें काफी समय से अमेरिकी अर्थव्यवस्था के हालात के चलते आ रहा था. आज हमारा वही डर सच हो गया था. हमारे लिए हमारा बेटा जैसा भी था लेकिन अपने परिवार के साथ खुश है, सोच कर हम शांत थे.
‘‘अब क्या होगा?’’
‘‘होगा क्या…वह वापस आ रहा है,’’ सौरभ की नजरें अभी भी बारिश पर टिकी हुई थीं. शायद वह बाहर की बरसात के पीछे अपने अंदर की बरसात को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहे थे.
‘‘और कहां जाएगा…’’ सौरभ के दिल के भावों को समझते हुए भी मैं ने अनजान ही बने रहना चाहा.
‘‘क्यों…अगर हम मर गए होते तो किस के पास आता वह…उस की बीवी के भाईबहन हैं, मायके वाले हैं, रिश्तेदार हैं, उन से सहायता मांगे…यहां हमारे पास क्या करने आ रहा है…’’ बोलतेबोलते सौरभ का स्वर कटु हो गया था. हालांकि सत्यम के प्रति मेरा दिल भी फिलहाल भावनाओं से उतना ही रिक्त था लेकिन मां होने के नाते मेरे दिल की मुसीबत के समय में सौरभ का उस के प्रति इतना कटु होना थोड़ा खल गया.
‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो. आखिर मुसीबत के वक्त वह अपने घर नहीं आएगा तो कहां जाएगा.’’
‘‘घर…कौन सा घर…उस ने इस घर को कभी घर समझा भी है…तुम फिर उस के लिए सोचने लगीं…तुम्हारी ममता ने बारबार मजबूर किया है मुझे…इस बार मैं मजबूर नहीं होऊंगा…जिस दिन वह आएगा…घर से भगा दूंगा…कह दूंगा कि इस घर में उस के लिए अब कोई जगह नहीं है.’’
सौरभ मेरी तरफ मुंह कर के बोले. उन की आंखों के बादल भी बरसने को थे. चेहरे पर बेचैनी, उद्विग्नता, बेटे के द्वारा अनदेखा किया जाना, लेकिन उस के दुख से दुखी भी…गुस्सा आदि सबकुछ… एकसाथ परिलक्षित हो रहा था.
‘‘सौरभ…’’ रेलिंग पर रखे उन के हाथ को धीरे से मैं ने अपने हाथ में लिया तो सुहाने मौसम में भी उन की हथेली पसीने से तर थी. सौरभ की हिम्मत के कारण मैं इस उम्र में भी निश्ंिचत रहती थी लेकिन उन को कातर, बेचैन या कमजोर देख कर मुझे असुरक्षा का एहसास होता था.
‘‘सौरभ, शांत हो जाओ…सब ठीक हो जाएगा. चलो, चल कर सो जाओ, कल सोचेंगे कि क्या करना है.’’
मैं उन को सांत्वना देती हुई अंदर ले आई. मुझे सौरभ के स्वास्थ्य की चिंता हो जाती थी, क्योंकि उन को एक बार दिल का दौरा पड़ चुका था. सौरभ चुपचाप बिस्तर पर लेट गए. मैं भी जीरो पावर का बल्ब जला कर उन की बगल में लेट गई. दोनों चुपचाप अपनेअपने विचारों में खोए हुए न जाने कब तक छत को घूरते रहे. थोड़ी देर बाद सौरभ के खर्राटों की आवाज आने लगी. सौरभ के सो जाने से मुझे चैन मिला, लेकिन मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.
आज सत्यम को हमारी जरूरत पड़ी तो उस ने बेधड़क फोन कर दिया कि वह हमारे पास आ रहा है और क्यों न आए…बेटा होने के नाते उस का पूरा अधिकार है, लेकिन जरूरत पड़ने पर इसी तरह बेधड़क बेटे के पास जाने का हमारा अधिकार क्यों नहीं है. क्यों संकोच व झिझक हमारे कदम रोक लेती है कि कहीं बेटे की गृहस्थी में हम अनचाहे से न हो जाएं. कहीं बहू हमारा यों लंबे समय के लिए आना पसंद न करे.
सत्यम व नीमा ने अपने व्यवहार से जानेअनजाने हमेशा ही हमें चोट पहुंचाई है. मातापिता की बढ़ती उम्र से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहा. हमें कभी लगा ही नहीं कि हमारा बेटा अब बड़ा हो गया है और अब हम अपनी शारीरिक व मानसिक जरूरतों के लिए उस पर निर्भर हो सकते हैं.
जबजब सहारे के लिए बेटेबहू की तरफ हाथ बढ़ाया तबतब उन्हें अपने से दूर ही पाया. कई बार मैं ने सौरभ व अपना दोनों का विश्लेषण किया कि क्या हम में ही कुछ कमी है, क्यों नहीं सामंजस्य बन पाता है हमारे बीच में…लगा कि एक पीढ़ी का अंतर तो पहले होता था, इस नई पीढ़ी के साथ तो जैसे पीढि़यों का अंतराल हो गया. इसी तरह के खयालों में डूबी मैं अतीत में विचरण करने लगी.
सत्यम अपने पापा की तरह पढ़ने में होशियार था. पापा के समय में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए जो कुछ भी हासिल हुआ, धीरेधीरे व लंबे समय के बाद हुआ लेकिन सत्यम को उन्होंने अपनी क्षमता से बढ़ कर सुविधाएं दीं, उस की पढ़ाई पर क्षमता से बढ़ कर खर्च किया. सत्यम मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े ओहदे पर था, शादी भी उसी हिसाब से बड़े घर में हुई. नीमा भी नौकरी करती थी. अपने छोटे से साधारण फ्लैट, जिस में सत्यम को पहले सभी कुछ दिखता था, नौकरी व शादी के बाद कमियां ही कमियां दिखाई देने लगीं. जबजब छुट्टी पर आता कुछ न कुछ कह देता :
‘कैसे रहते हो आप लोग इस छोटे से फ्लैट में. ढंग का ड्राइंगरूम भी नहीं है. मम्मी, मुझे तो शर्म आती है यहां किसी अपने जानने वाले को बुलाते हुए. यह किचन भी कोई किचन है…नीमा तो इस में चाय भी नहीं बना सकती.’
पहले साफसुथरा लगने वाला फ्लैट अब गंदगी का ढेर लगता.
फिर सप्लाई का पानी पीने से उन का पेट खराब होने लगा तो जब भी सत्यम या उस का परिवार आता तो मैं बाजार से पानी की बोतल मंगा कर रखने लगी, लेकिन लाइट चली जाती तो उन्हें इनवर्टर की कमी खलती…गरमी में ए.सी. व कूलर की कमी अखरती, तो सर्दी में एक अच्छे ब्लोवर की कमी…मतलब कि कमी ही कमी…नाश्ते में सबकुछ चाहिए. पर सत्यम व नीमा कभी यह नहीं सोचते कि जिन सुविधाओं के बिना उन्हें दोचार दिन भी बिताने भारी पड़ जाते हैं उन्हीं सुविधाओं के बिना मातापिता ने पूरी जिंदगी कैसे गुजारी होगी और अब बुढ़ापा कैसे गुजार रहे होंगे. सत्यम पर क्षमता से अधिक खर्च न कर क्या वे अपने लिए छोटीछोटी मूलभूत सुविधाएं नहीं जुटा सकते थे? पर उस समय तो लगता था कि हमारा बेटा लायक बन जाएगा तो हमें क्या कमी है. सौ सुविधाएं जुटा देगा वह हमारे लिए.
सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह जूस पी रहा है तो मातापिता को बुढ़ापे में एक कप दूध भी है या नहीं…जरूरी दवाओं के लिए पैसे हैं या नहीं. उन का तो यही एहसान बड़ा था कि वे दोनों इतने व्यस्त रहते हैं…इस के बावजूद जब छुट्टी मिलती है, तो वे उन के पास चले आते हैं, नहीं तो किसी अच्छी जगह घूमने भी जा सकते थे.
सत्यम का परिवार जब भी आता, उन को सुविधाएं देने के चक्कर में मैं अपना महीनों का बजट बिगाड़ देती. उन के जाते ही फिर उन के अगले दौरे के लिए संचय करना शुरू कर देती.
सौरभ की जानकारी में जब यदाकदा ये बातें आतीं तो उन का पारा चढ़ जाता पर मां होने के नाते मैं उन को शांत कर देती. लगभग 5 साल पहले सत्यम मुंबई में नियुक्त था. उसी दौरान सौरभ को हार्ट अटैक पड़ा. डाक्टर ने एंजियोग्राफी कराने के लिए कहा. पूरी प्रक्रिया व इलाज पर आने वाले खर्चे को सुन कर मैं सन्न रह गई. ऐसे समय तो सत्यम जरूर आगे बढ़ कर अपने पिता का इलाज कराएगा. यह सोच कर मैं ने सत्यम को फोन किया. मेरे साथ तो कोई था भी नहीं, जो भागदौड़ कर पाता. खर्चे की तो बात ही अलग थी, लेकिन सत्यम की बात सुन कर मैं हक्कीबक्की रह गई थी :
‘मम्मी, एक दूसरी कंपनी में मुझे बाहर जाने का मौका मिल रहा है, इस समय तो मैं बिलकुल भी नहीं आ सकता. मुझे जल्दी ही अमेरिका जाना पड़ेगा. रही खर्चे की बात, तो थोड़ाबहुत तो भेज सकता हूं पर इतना रुपया मेरे पास कहां.’
बेटे की आधी बात सुन कर ही मैं ने फोन रख दिया. अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रहे उस इनसान के जीवन के प्रति सत्यम के हृदय में जरा भी मोह नहीं जो उस का जन्मदाता है, जो जीवन भर नौकरी कर के अपने लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं जुटा पाया, इसलिए कि बेटे के सफलता की तरफ बढ़ते कदमों पर रंचमात्र भी रुकावट न आए. आज उसी पिता के जीवन के लिए कोई चिंता नहीं. जिए तो जिए और मरे तो मरे…न आवाज में कंपन और न यह चिंता कि कहीं पिता दुनिया से न चले जाएं.
जिस बेटे को उन के जीवन का मोह नहीं, उस से रुपएपैसे की सहायता भी क्यों लेनी है…लेकिन इलाज के लिए रुपए तो चाहिए ही थे. सौरभ ने एक छोटा सा प्लाट सस्ते दामों में शहर के बाहर खरीदा हुआ था. अब वह अच्छी कीमत में बिक सकता था, लेकिन सौरभ यह सोच कर कि सत्यम उस पर अच्छा सा सुख- सुविधापूर्ण घर बनाएगा, नहीं बेचना चाह रहे थे. फिर उस समय उन्होंने अपने एक परिचित से कहा कि वह उस जमीन को खरीद ले और उसे इस समय रुपए दे दे. उस परिचित ने भी जमीन सस्ती मिलती देख उन्हें रुपए दे दिए. उस समय उन्हें लगा, बेटे के बजाय जमीन खरीदना शायद ज्यादा हितकर रहा, जो इस मुसीबत में उन के काम आई.
इधर सौरभ के आपरेशन का दिन फिक्स हुआ, उधर सत्यम अमेरिका के लिए उड़ गया. वहां से पिता का हालचाल जानने के लिए फोन आया तो उस की आवाज में इस बात का कोई मलाल नहीं था कि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया. तब से 5 साल हो गए. सत्यम और उन का संपर्क लगभग खत्म सा हो गया था. उस के फोन यदाकदा ही आते जो नितांत औपचारिक होते.
और अब जब मंदी की चपेट में आ कर सत्यम की नौकरी छूट गई तो वह उन के पास आ रहा है. मुसीबत में इस असुविधापूर्ण, गंदे, छोटे से फ्लैट की याद उसे अमेरिका जैसे शानोशौकत वाले देश में भी आखिर आ ही गई, जहां वह लौट कर जा सकता है. अब कैसे रहेंगे सत्यम, नीमा व उन के बच्चे यहां…कैसे बनाएगी नीमा इस किचन में चाय…जहां पानी जब आए तब काम करना पड़ता है.
मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.
सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा दी. जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया रहता है कि कहीं सौरभ मुझे छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.
मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई. सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सांझ में कैसे पतिपत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार, कम होते बच्चे…पीढ़ी दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है. हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई- लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता.
मन में बेटे के परिवार के आने का कोई उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी, उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6 लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.
रात को सत्यम का फोन आया कि वह परसों की फ्लाइट से आ रहा है. फोन मैं ने ही उठाया. मैं ने निर्विकार भाव से उस की बात सुन कर फोन रख दिया. दूसरे दिन मैं ने सौरभ से बैंक से कुछ रुपए लाने के लिए कहा.
‘‘नहीं हैं मेरे पास रुपए…’’ सौरभ बिफर गए.
‘‘सौरभ प्लीज, अभी तो थोड़ाबहुत दे दो…सत्यम भी यहां आ कर चुप तो नहीं बैठेगा. कुछ तो करेगा,’’ मैं अनुनय करने लगी.
सौरभ चुप हो गए. मेरी कातरता, व्याकुलता सौरभ कभी नहीं देख पाते. हमेशा भरापूरा ही देखना चाहते हैं. उन्होंने बैंक से रुपए ला कर मेरे हाथ में रख दिए.
‘‘सौरभ, तुम फिक्र मत करो, मैं थोड़े ही दिन में सत्यम को बता दूंगी कि हम उस के परिवार का खर्च नहीं उठा सकते. घर है…जब तक चाहे बसेरा कर ले लेकिन अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाए. हम से कोई उम्मीद न रखे,’’ मेरे स्वर की दृढ़ता से सौरभ थोड़ाबहुत आश्वस्त हो गए.
अगले दिन सत्यम को आना था. फ्लाइट के आने का समय हो गया था. हम एअरपोर्ट नहीं गए. अटैचियों से लदाफंदा सत्यम परिवार सहित टैक्सी से खुद ही घर आ गया. सत्यम व बच्चे जब आंखों के सामने आए तो पलभर के लिए मेरे ही नहीं, सौरभ की आंखों में भी ममता की चमक आ गई. 5 साल बाद देख रहे थे सब को. सत्यम व नीमा के मुरझाए चेहरे देख कर दिल को धक्का सा लगा. सत्यम ने पापा के पैर छुए और फिर मेरे पैर छू कर मेरे गले लग गया. साफ लगा, मेरे गले लगते हुए जैसे उस की आंखों से आंसू बहना ही चाहते हैं, आखिर राजपाट गंवा कर आ रहा था.
मां सिर्फ हाड़मांस का बना हुआ शरीर ही तो नहीं है…मां भावनाओं का असीम समंदर भी है…एक महीन सा अदृश्य धागा मां से संतान का कहां और कैसे बंधा रहता है, कोई नहीं समझ सकता…एक शीतल छाया जो तुम से कोई भी सवालजवाब नहीं करती…तुम्हारी कमियों के बारे में बात नहीं करती… हमेशा तुम्हारी खूबियां ही गिनाती है और कमियों को अपने अंदर आत्मसात कर लेती है…अपने किए का बदला नहीं चाहती…हर कष्ट के क्षण में मुंह से मां का नाम निकलता है और दिमाग में मां के होने का एहसास होता है…कष्ट के समय कहीं और आसरा मिले न मिले पर वह शीतल छाया तुम्हें आसरा जरूर देती है… सुख में कैसे भूल जाते हो उस को. लेकिन जड़ें ही खोखली हों तो हलके आंधीतूफान में भी बड़ेबड़े दरख्त उखड़ जाते हैं.
मेरे गले से लगा हुआ सत्यम शायद यही सबकुछ सोचता, अपने आंसुओं को अंदर ही अंदर पीने की कोशिश कर रहा था, लेकिन मैं ने अपना संतुलन डगमगाने नहीं दिया. सत्यम को भी एहसास होना चाहिए कि जब गहन दुख व परेशानी के क्षणों में ‘अपने’ हाथ खींचते हैं तो जिंदगी कितनी बेगानी लगती है. विश्वास नाम की चीज कैसे चूरचूर हो जाती है.
‘‘बैठो सत्यम…’’ उसे धीरे से अपने से अलग करती हुई मैं बोली, ‘‘अपना सामान कमरे में रख दो…मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अपने मनोभावों को छिपाते हुए मैं किचन में चली गई. बच्चों ने प्रणाम किया तो मैं ने उन के गाल थपथपा दिए. दिल छाती से लगाने को कर रहा था पर चाहते हुए भी कौन सी अदृश्य शक्ति मुझे रोक रही थी. चाय बना कर लाई तो सत्यम व नीमा सामान कमरे में रख चुके थे. नीमा ने मेरे हाथ से टे्र ले ली…शायद पहली बार.
वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर सब ने चाय खत्म की. इतनी देर बैठ कर सौरभ ने जैसे मेजबान होने की औपचारिकता निभा ली थी, इसलिए उठ कर अपने कमरे में चले गए. दोनों बच्चे भी थके थे, सो वे भी कमरे में जा कर सो गए.
‘‘तुम दोनों भी आराम कर लो, खाना बन जाएगा तो उठा दूंगी…क्या खाओगे…’’
‘‘कुछ भी खा लेंगे…और ऐसे भी थके नहीं हैं…नीमा खुद बना लेगी…आप बैठो.’’
मैं ने चौंक कर नीमा को देखा, उस के चेहरे पर सत्यम की कही बात से सहमति का भाव दिखा. यह वही नीमा है जो मेरे इतने असुविधापूर्ण किचन में चाय तक भी नहीं बना पाती थी, खाना बनाना तो दूर की बात थी.
कहते हैं प्यार में बड़ी शक्ति होती है पर शायद मेरे प्यार में इतनी शक्ति नहीं थी, तभी तो नीमा को नहीं बदल पाई, लेकिन आर्थिक मंदी ने उसे बदलने पर मजबूर कर दिया था. मेरे मना करने पर भी नीमा किचन में चली गई. वह भी उस किचन में जिस में पहले कभी नीमा ने पैर भी न धरा था, उस का भूगोल भला उसे क्या पता था. इसलिए मुझे किचन में जाना ही पड़ा.
सत्यम को आए हुए 2 दिन हो गए थे. हमारे बीच छिटपुट बातें ही हो पाती थीं. हम दोनों का उन दोनों से बातें करने का उत्साह मर गया था और वे दोनों भी शायद पहले के अपने बनाए गए घेरे में कैद कसमसा रहे थे. सौरभ तो सामने ही बहुत कम पड़ते थे. पढ़ने के शौकीन सौरभ अकसर अपनी किताबों में डूबे रहते. अलबत्ता बच्चे जरूर हमारे साथ जल्दी ही घुलमिल गए और हमें भी उन का साथ अच्छा लगने लगा.
सत्यम बच्चों के दाखिले व अपनी नौकरी के लिए लगातार कोशिश कर रहा था. अच्छे स्कूल में इस समय बच्चों का दाखिला मुश्किल हो रहा था. अच्छे स्कूल में 2 बच्चों के खर्चे सत्यम कैसे उठा पाएगा, मैं समझ नहीं पा रही थी. उस का परिवार अगर यहां रहता है तो ज्यादा से ज्यादा उसे किराया ही तो नहीं देना पड़ेगा. नीमा उसी किचन में खाना बनाने की कोशिश कर रही थी, उसी बदरंग से बाथरूम में कपड़े धो रही थी. हालांकि सुविधाओं की आदत होने के कारण सब के चेहरे मुरझाए हुए थे.
सत्यम रोज ही अपना रिज्यूम ले कर किसी न किसी कंपनी में जाता रहता. आखिर उसे एक कंपनी में नौकरी मिल गई. कंपनियों को भी इस समय कुशल कर्मचारी कम तनख्वाह में हासिल हो रहे थे तो वे क्यों न इस का फायदा उठाते. तनख्वाह बहुत ही कम थी.
‘‘सोचा भी न था मम्मी, ऐसी बाबू जैसी तनख्वाह में कभी गुजारा करना पड़ेगा,’’ सत्यम बोला.
दिल हुआ कहूं कि तेरे पिता ने तो ऐसी ही तनख्वाह में गुजारा कर के तुझे इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया…तब तू ने कभी नहीं सोचा…लेकिन उस के स्वर में उस के दिल की निराशा साफ झलक रही थी. मां होने के नाते दिल में कसक हो आई.
‘‘ठीक हो जाएगा सबकुछ, परेशान मत हो, सत्यम…मंदी कोई हमेशा थोड़े ही रहने वाली है…एक न एक दिन तुम दोबारा अमेरिका चले जाओगे…उसी तरह बड़ी कंपनी में नौकरी करोगे.’’
मेरी बात में सांत्वना तो थी ही पर उन की स्वार्थपरता पर करारी चोट भी थी. मैं ने जता दिया था, जिस दिन सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम पहले की ही तरह हमें हमारे हाल पर छोड़ कर चले जाओगे. सत्यम कुछ नहीं बोला, निरीह नजरों से मुझे देखने लगा. मानो कह रहा हो, कब तक नाराज रहोगी. बच्चों का दाखिला भी उस ने दौड़भाग कर अच्छे स्कूल में करा दिया.
‘‘इस स्कूल की फीस तो काफी ज्यादा है सत्यम…इस नौकरी में तू कैसे कर पाएगा?’’
‘‘बच्चों की पढ़ाई तो सब से ज्यादा जरूरी है मम्मी…उन की पढ़ाई में विघ्न नहीं आना चाहिए. बच्चे पढ़ जाएंगे… अच्छे निकल जाएंगे तो बाकी सबकुछ तो हो ही जाएगा.’’
वह आश्वस्त था…लगा सौरभ ही जैसे बोल रहे हैं. हर पिता बच्चों का पालनपोषण करते हुए शायद यही भाषा बोलता है…पर हर संतान यह भाषा नहीं बोलती, जो इतने कठिन समय में सत्यम ने हम से बोली थी. मेरा मन एकाएक कसैला हो गया. मैं उठ कर बालकनी में जा कर कुरसी पर बैठ गई. भीषण गरमी के बाद बरसात होने को थी. कई दिनों से बादल आसमान में चहलकदमी कर रहे थे, लेकिन बरस नहीं रहे थे. लेकिन आज तो जैसे कमर कस कर बरसने को तैयार थे. मेरा मन भी पिछले कुछ दिनों से उमड़घुमड़ रहा था, पर बदरी थी कि बरसती नहीं थी.
मन की कड़वाहट एकाएक बढ़ गई थी. 5 साल पुराना बहुत कुछ याद आ रहा था. सत्यम के आने से पहले सोचा था कि उस को यह ताना दूंगी…वह ताना दूंगी… सौरभ ने भी बहुत कुछ कहने को सोच रखा था पर क्या कर सकते हैं मातापिता ऐसा…वह भी जब बेटा अपनी जिंदगी के सब से कठिन दौर से गुजर रहा हो.
एकाएक बाहर बूंदाबांदी शुरू हो गई. मैं ने अपनी आंखों को छुआ तो वहां भी गीलापन था. बारिश हलकीहलकी हो कर तेज होने लगी और मेरे आंसू भी बेबाक हो कर बहने लगे. मैं चुपचाप बरसते पानी पर निगाहें टिकाए अपने आंसुओं को बहते हुए महसूस करती रही.
तभी अपने कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो सत्यम खड़ा था… चेहरे पर कई भाव लिए हुए… जिन को शब्द दें तो शायद कई पन्ने भर जाएं. मैं ने चुपचाप वहां से नजरें हटा दीं. वह पास पड़े छोटे से मूढ़े को खिसका कर मेरे पैरों के पास बैठ गया. कुछ देर तक हम दोनों ही चुप बैठे रहे. मैं ने अपने आंसुओं को रोकने का प्रयास नहीं किया.
‘‘मम्मी, क्या मुझे इस समय बच्चों को इतने बड़े स्कूल में नहीं डालना चाहिए था…मैं ने सोचा जो भी थोड़ीबहुत बचत है, उन की पढ़ाई का तब तक का खर्चा निकल जाएगा…हम तो जैसेतैसे गुजरबसर कर ही लेंगे, जब तक मंदी का समय निकलता है…क्या मैं ने ठीक नहीं किया, मम्मी?’’
सत्यम ने शायद बातचीत का सूत्र यहीं से थामना चाहा, ‘‘आखिर, पापा ने भी तो हमेशा मेरी पढ़ाईलिखाई पर अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च किया.’’
सत्यम के इन शब्दों में बहुत कुछ था. लज्जा, अफसोस…पिता के साथ किए व्यवहार से…व पिता के अथक प्रयासों व त्याग को महसूस करना आदि.
‘‘तुम ने ठीक किया सत्यम, आखिर सभी पिता यही तो करते हैं, लेकिन अपने बच्चों को पालते हुए अपने बुढ़ापे को नहीं भूलना चाहिए. वह तो सभी पर आएगा. संतान बुढ़ापे में तुम्हारा साथ दे न दे पर तुम्हारा बचाया पैसा ही तुम्हारे काम आएगा. संतान जब दगा दे जाएगी… मंझधार में छोड़ कर नया आसमान तलाशने के लिए उड़ जाएगी…तब कैसे लड़ोगे बुढ़ापे के अकेलेपन से. बीमारियों से, कदम दर कदम, नजदीक आती मृत्यु की आहट से…कैसे? सत्यम…आखिर कैसे…’’ बोलतेबोलते मेरा स्वर व मेरी आंखें दोनों ही आद्र हो गए थे.
मेरे इतना बोलने में कई सालों का मानसिक संघर्ष था. पति की बीमारी के समय जीवन से लड़ने की उन की बेचारगी की कशमकश थी. अपनी दोनों की बिलकुल अकेली सी बीती जा रही जिंदगी का अवसाद था और शायद वह सबकुछ भी जो मैं सत्यम को जताना चाहती थी…कि जो कुछ उस ने हमारे साथ किया अगर इन क्षणों में हम उस के साथ करें…हर मातापिता अपनी संतान से कहना चाहते हैं कि जो हमारा आज है वही उन का कल है…लेकिन आज को देख कर कोई कल के बारे में कहां सोचता है, बल्कि कल के आने पर आज को याद करता है.
सत्यम थोड़ी देर तक विचारशून्य सा बैठा रहा, फिर एकाएक प्रायश्चित करते हुए स्वर में बोला, ‘‘मम्मी, मुझे माफ नहीं करोगी क्या?’’
मैं ने सत्यम की तरफ देखा, वह हक से माफी भी नहीं मांग पा रहा था क्योंकि वह समझ रहा था कि वह माफी का भी हकदार नहीं है.
सत्यम ने मेरे घुटनों पर सिर रख दिया, ‘‘मम्मी, मेरे किए की सजा मुझे मिल रही है. मैं जानता हूं कि मुझे माफ करना आप के व पापा के लिए इतना सरल नहीं है फिर भी धीरेधीरे कोशिश करो मम्मी…अपने बेटे को माफ कर दो. अब कभी आप दोनों को छोड़ कर नहीं जाऊंगा…मुझे यहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी…आप दोनों का बुढ़ापा अब अकेले नहीं बीतेगा…मैं हूं आप का सहारा…अपनी जड़ों को अब और खोखला नहीं होने दूंगा. जो बीत गया मैं उसे वापस तो नहीं लौटा सकता पर अब अपनी गलतियों को सुधारूंगा,’’ कह कर सत्यम ने अपनी बांहें मेरे इर्दगिर्द लपेट लीं जैसे वह बचपन में करता था.
‘‘मुझे भी माफ कर दो, मम्मी,’’ नीमा भी सत्यम की बगल में बैठती हुई बोली, ‘‘हमें अपने किए पर बहुत पछतावा है…पापा से भी कहिए कि वह हम दोनों को माफ कर दें. हमारा कृत्य माफी के लायक तो नहीं पर फिर भी हमें अपनी गलतियां सुधारने का मौका दीजिए,’’ कह कर नीमा ने मेरे पैर पकड़ लिए.
दोनों बच्चे इस तरह से मेरे पैरों के पास बैठे थे. सोचा था अब तो जीवन यों ही अकेला व बेगाना सा निकल जाएगा… बच्चे हमें कभी नहीं समझ पाएंगे पर हमारा प्यार जो उन्हें नहीं समझा पाया वह कठिन परिस्थितियां समझा गईं.
‘‘बस करो सत्यम, जो हो गया उसे हम तो भूल भी चुके थे. जब तुम सामने आए तो सबकुछ याद आ गया. पर माफी मुझ से नहीं अपने पापा से मांगो, बेटा… मां का हृदय तो बच्चों के गलती करने से पहले ही उन्हें क्षमा कर देता है,’’ कह कर मैं स्नेह से दोनों का सिर सहलाने लगी.
सत्यम अपनी भूल सुधारने के लिए मेरे पैरों से लिपटा हुआ था.
‘‘जाओ सत्यम, पापा अपने कमरे में हैं. दोनों उन के दोबारा खुरचे घावों पर मरहम लगा आओ…मुझे विश्वास है कि उन की नाराजगी भी अधिक नहीं टिक पाएगी.’’
सत्यम व नीमा हमारे कमरे की तरफ चले गए. अकस्मात मेरा मन जैसे परम संतोष से भर गया था. बाहर बारिश पूरी तरह रुक गई थी, हलकी शीतल लालिमा चारों तरफ फैल गई थी जिस में सबकुछ प्रकाशमय हो रहा था.

संजय गुप्ता

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स्त्री तब तक ‘चरित्रहीन’ नहीं हो सकती….जब तक पुरुष चरित्रहीन न हो”. ….गौतम बुद्ध संन्यास लेने के बाद गौतमबुद्ध ने अनेक क्षेत्रों की यात्रा की…एक बार वह एक गांव में गए।वहां एक स्त्री उनके पास आई और बोली आप तो कोई राजकुमार लगते हैं। …क्या मैं जान सकती हूं कि इस युवावस्था में गेरुआ वस्त्र पहनने का क्या कारण है ? …

बुद्ध ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि…”तीन प्रश्नों” के हल ढूंढने के लिए उन्होंने संन्यास लिया..बुद्ध ने कहा.. हमारा यह शरीर जो युवा व आकर्षक है, पर जल्दी ही यह “वृद्ध” होगा, फिर”बीमार” व अंत में “मृत्यु” के मुंह में चला जाएगा। मुझे ‘वृद्धावस्था’, ‘बीमारी’ व ‘मृत्यु’ के कारण का ज्ञान प्राप्त करना है …..बुद्ध के विचारो से प्रभावित होकर उस स्त्री ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया….शीघ्र ही यह बात पूरे गांव में फैल गई। गांव वासी बुद्ध के पास आए व आग्रह किया कि वे इस स्त्री के घर भोजन करने न जाएं….क्योंकि वह “चरित्रहीन” है…..बुद्ध ने गांव के मुखिया से पूछा?क्या आप भी मानते हैं कि वह स्त्री चरित्रहीन है…?मुखिया ने कहा कि मैं शपथ लेकर कहता हूं कि वह बुरे चरित्र वाली स्त्री है….।आप उसके घर न जाएं।बुद्ध ने मुखिया का दायां हाथ पकड़ा… और उसे ताली बजाने को कहा…मुखिया ने कहा मैं एक हाथ से तालीनहीं बजा सकता…क्योंकि मेरा दूसरा हाथ आपने पकड़ा हुआ है …बुद्ध बोले इसी प्रकार यह स्वयं चरित्रहीन कैसे हो सकती है…?जब तक इस गांव के पुरुष चरित्रहीन न हो..!
अगर गांव के सभी पुरुष अच्छे होते तो यह औरत ऐसी न होती इसलिए इसके चरित्र के लिए यहा के पुरुष जिम्मेदार है l
यह सुनकर सभी “लज्जित” हो गये ।
लेकिन आजकल हमारे समाज के पुरूष “लज्जित” नही “गौर्वान्वित” महसूस करते है..क्योकि यही हमारे “पुरूष प्रधान” समाज की रीति एवं नीति है l

#बुद्ध जी के विचारों पर चलो न की इनके नाम का सहारा लेकर #राजनीति करने वालो के इशारों पर।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

इसे शांत चित्त से पढिए।
हर लडकी के लिए प्रेरक कहानी… और लड़कों के लिए अनुकरणीय शिक्षा…,कोई भी लडकी की सुदंरता उसके चेहरे से ज्यादा दिल की होती है।अशोक भाई ने घर मेँ पैर रखा….‘अरी सुनती हो !’

आवाज सुनते ही अशोक भाई की पत्नी हाथ मेँ पानी का गिलास लेकर बाहर आयी और बोली

“अपनी beti का रिश्ता आया है,

अच्छा भला इज्जतदार सुखी परिवार है,
लडके का नाम युवराज है ।
बैँक मे काम करता है।
बस beti हाँ कह दे तो सगाई कर देते है.”

Beti उनकी एकमात्र लडकी थी..

घर मेँ हमेशा आनंद का वातावरण रहता था ।

कभी कभार अशोक भाई सिगरेट व पान मसाले के कारण उनकी पत्नी और beti के साथ कहा सुनी हो जाती लेकिन
अशोक भाई मजाक मेँ निकाल देते ।

Beti खूब समझदार और संस्कारी थी ।

S.S.C पास करके टयुशन, सिलाई काम करके पिता की मदद करने की कोशिश करती ।

अब तो beti ग्रज्येएट हो गई थी और नोकरी भी करती थी
लेकिन अशोक भाई उसकी पगार मेँ से एक रुपया भी नही लेते थे…

और रोज कहते ‘बेटी यह पगार तेरे पास रख तेरे भविष्य मेँ तेरे काम आयेगी ।’

दोनो घरो की सहमति से beti और
युवराज की सगाई कर दी गई और शादी का मुहूर्त भी निकलवा दिया.

अब शादी के 15 दिन और बाकी थे.

अशोक भाई ने beti को पास मेँ बिठाया और कहा-

” बेटा तेरे ससुर से मेरी बात हुई…उन्होने कहा दहेज मेँ कुछ नही लेँगे, ना रुपये, ना गहने और ना ही कोई चीज ।

तो बेटा तेरे शादी के लिए मेँने कुछ रुपये जमा किए है।

यह दो लाख रुपये मैँ तुझे देता हूँ।.. तेरे भविष्य मेँ काम आयेगे, तू तेरे खाते मे जमा करवा देना.’

“OK PAPA” – beti ने छोटा सा जवाब देकर अपने रुम मेँ चली गई.

समय को जाते कहाँ देर लगती है ?

शुभ दिन बारात आंगन में आयी,

पंडितजी ने चंवरी मेँ विवाह विधि शुरु की।
फेरे फिरने का समय आया….

कोयल जैसे कुहुकी हो ऐसे beti दो शब्दो मेँ बोली

“रुको पडिण्त जी ।
मुझे आप सब की उपस्तिथि मेँ मेरे पापा के साथ बात करनी है,”

“पापा आप ने मुझे लाड प्यार से बडा किया, पढाया, लिखाया खूब प्रेम दिया इसका कर्ज तो चुका सकती नही…

लेकिन युवराज और मेरे ससुर जी की सहमति से आपने दिया दो लाख रुपये का चेक मैँ वापस देती हूँ।

इन रुपयों से मेरी शादी के लिए लिये हुए उधार वापस दे देना
और दूसरा चेक तीन लाख जो मेने अपनी पगार मेँ से बचत की है…

जब आप रिटायर होगेँ तब आपके काम आयेगेँ,
मैँ नही चाहती कि आप को बुढापे मेँ आपको किसी के आगे हाथ फैलाना पडे !

अगर मैँ आपका लडका होता तब भी इतना तो करता ना ? !!! ”

वहाँ पर सभी की नजर beti पर थी…

“पापा अब मैं आपसे जो दहेज मेँ मांगू वो दोगे ?”

अशोक भाई भारी आवाज मेँ -“हां बेटा”, इतना ही बोल सके ।

“तो पापा मुझे वचन दो”
आज के बाद सिगरेट के हाथ नही लगाओगे….

तबांकु, पान-मसाले का व्यसन आज से छोड दोगे।

सब की मोजुदगी मेँ दहेज मेँ बस इतना ही मांगती हूँ ।.”

लडकी का बाप मना कैसे करता ?

शादी मे लडकी की विदाई समय कन्या पक्ष को रोते देखा होगा लेकिन

आज तो बारातियो कि आँखो मेँ आँसुओ कि धारा निकल चुकी थी।

मैँ दूर se us beti को लक्ष्मी रुप मे देख रहा था….

रुपये का लिफाफा मैं अपनी जेब से नही निकाल पा रहा था….

साक्षात लक्ष्मी को मैं कैसे लक्ष्मी दूं ??

लेकिन एक सवाल मेरे मन मेँ जरुर उठा,

“भ्रूण हत्या करने वाले लोगो को is जैसी लक्ष्मी मिलेगी क्या” ???

कृपया रोईए नही, आंसू पोछिए और प्रेरणा लीजिये।
Please save girls….
पूरा पढ़ने के लिए आपका हार्दिक आभारी हु. अगर आपको यह कहानी अच्छी लगी है तो बेटी बचाओ बेटी पढाओ .
🙏🙏®♈🙏🙏

संजय गुप्ता

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

आजाद हिन्द फौज की स्थापना

4 जुलाई/स्थापना-दिवस

आजाद हिन्द फौज की स्थापना

सामान्य धारणा यह है कि आजाद हिन्द फौज और आजाद हिन्द सरकार की स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने जापान में की थी; पर इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान में महान क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने आजाद हिन्द सरकार और फौज बनायी थी। इसमें 6,000 सैनिक थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली में क्रान्तिकारी सरदार अजीत सिंह ने ‘आजाद हिन्द लश्कर’ बनाई तथा ‘आजाद हिन्द रेडियो’ का संचालन किया। जापान में रासबिहारी बोस ने भी आजाद हिन्द फौज बनाकर उसका जनरल कैप्टेन मोहन सिंह को बनाया। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से सैन्य बल द्वारा मुक्त कराना ही इस फौज का उद्देश्य था।

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस 5 दिसम्बर, 1940 को जेल से मुक्त हो गये; पर उन्हें कोलकाता में अपने घर पर ही नजरबन्द कर दिया गया। 18 जनवरी, 1941 को नेताजी गायब होकर काबुल होते हुए जर्मनी जा पहुँचे और हिटलर से भेंट की। वहीं सरदार अजीत सिंह ने उन्हें आजाद हिन्द लश्कर के बारे में बताकर इसे और व्यापक रूप देने को कहा। जर्मनी में बन्दी ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों से सुभाष बाबू ने भेंट की। जब उनके सामने ऐसी सेना की बात रखी गयी, तो उन सबने इस योजना का स्वागत किया।

जापान में रासबिहारी बसु द्वारा निर्मित ‘इण्डिया इण्डिपेण्डेस लीग’ (आजाद हिन्द संघ) का जून 1942 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें अनेक देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। इसके बाद रासबिहारी बसु ने जापान शासन की सहमति से नेताजी को आमन्त्रित किया। मई 1943 में जापान आकर नेताजी ने प्रधानमन्त्री जनरल तोजो से भेंट कर अंग्रेजों से युद्ध की अपनी योजना पर चर्चा की। 16 जून को जापानी संसद में नेताजी को सम्मानित किया गया।

नेताजी 4 जुलाई, 1943 को आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति बने। जापान में कैद ब्रिटिश सेना के 32,000 भारतीय तथा 50,000 अन्य सैनिक भी इस फौज में सम्मिलित हो गये। इस सेना की कई टुकड़ियाँ गठित की गयीं। वायुसेना, तोपखाना, अभियन्ता, सिग्नल, चिकित्सा दल के साथ गान्धी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड तथा रानी झाँसी ब्रिगेड बनायी गयी। इसका गुप्तचर विभाग और अपना रेडियो स्टेशन भी था।

9 जुलाई को नेताजी ने एक समारोह में 60,000 लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा – यह सेना न केवल भारत को स्वतन्त्रता प्रदान करेगी, अपितु स्वतन्त्र भारत की सेना का भी निर्माण करेगी। हमारी विजय तब पूर्ण होगी, जब हम ब्रिटिश साम्राज्य को दिल्ली के लाल किले में दफना देंगे। आज से हमारा परस्पर अभिवादन ‘जय हिन्द’ और हमारा नारा ‘दिल्ली चलो’ होगा।

नेताजी ने 4 जुलाई, 1943 को ही ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ का उद्घोष किया। कैप्टेन शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने रंगून से दिल्ली प्रस्थान किया और अनेक महत्वपूर्ण स्थानों पर विजय पाई; पर अमरीका द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम डालने से युद्ध का पासा पलट गया और जापान को आत्मसमर्पण करना पड़ा।

भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में आजाद हिन्द फौज का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि नेहरू जी के सुभाषचन्द्र बोस से गहरे मतभेद थे। इसलिए आजाद भारत में नेताजी, आजाद हिन्द फौज और उसके सैनिकों को समुचित सम्मान नहीं मिला। यहाँ तक कि नेताजी का देहान्त किन परिस्थितियों में हुआ, इस रहस्य से आज तक पर्दा उठने नहीं दिया गया।

शमीर शर्मा