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निओ दिप

“अरण्य में राम”


[ यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण और दूरगामी मंतव्यों वाला लेख है। सुधी पाठकों से आग्रह होगा कि इसके एक-एक शब्द को मननपूर्वक पढ़ें और इसे अधिकाधिक पाठकों तक प्रसारित करें ]

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“वाल्मीकि रामायण” के “अरण्यकांड” में श्रीराम के वनगमन का वर्णन है।

अयोध्या से चलकर श्रीराम ने तमसा नदी लांघी थी और सिंगरौर में “केवट-प्रसंग” हुआ था। कुरई गांव होते हुए वे प्रयाग पहुंचे थे। फिर वे चित्रकूट पहुंचे, जहां “भरत-मिलाप” हुआ। सतना में अत्रि ऋषि के आश्रम के समीप “रामवन” में ठहरे। फिर “दंडक वन” चले गए, जो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलकर बना था। भद्राचलम से वे नासिक में “पंचवटी” पहुंचे। यहीं सर्वतीर्थ में खर-दूषण का वध किया। यहीं “सीता-हरण” हुआ। यहीं पर जटायु का अंतिम संस्कार किया गया था। यहां से सीता-शोध में पर्णशाला गए, तुंगभद्रा और कावेरी नदी घाटी में शबरी के जूठे बेर खाए, ऋष्यमूक पर्वत पर बाली का वध किया, हनुमान और सुग्रीव के साथ मिलकर “वानर-सेना” बनाई और रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने के बाद “धनुषकोटि” से लंका की ओर प्रस्थान कर गए।

यह समूचा राम गमन पथ है।

श्रीराम एक पौराणिक चरित्र हैं या ऐतिहासिक व्यक्तित्व, इसके पक्ष-विपक्ष में तर्क-वितर्कों की एक लम्बी शृंखला प्रवाहित होती रही है।

1990 के दशक में सीताराम गोयल और रामस्वरूप की अगुवाई में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए हिंदू मंदिरों पर शोध किया गया था। दो खंडों में प्रकाशित उस शोध में एक विशेष अध्याय रामजन्मभूमि पर भी था, जिसमें ठोस साक्ष्यों के साथ यह सिद्ध किया गया था कि प्रभु श्रीराम का जन्म उसी स्थल पर हुआ था, जहां रामलला विराजित हैं।

लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में चलाए गए “रामजन्मभूमि आंदोलन” के पीछे सीताराम गोयल और रामस्वरूप के द्वारा दिए गए तर्कों का अत्यंत महत्व था, क्योंकि रोमिला थापर जैसी धुरंधर मार्क्सवादी इतिहासकार भी इनके द्वारा दिए गए तर्कों के सम्मुख निरुत्तर हो गई थीं और दो खंडों में प्रकाशित उस पुस्तक में उस प्रश्नोत्तरी को भी सम्मिलित किया गया है।

जब श्री अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो यह विचार उनके मन में आया कि “रामजन्मभूमि” की तरह वह समस्त भूभाग भी भारतवासियों के लिए आस्था का केंद्र है, जहां-जहां वनगमन के दौरान प्रभु श्रीराम के चरण पड़े।

यह प्रस्ताव रखा गया कि देश के समस्य राज्य अपने-अपने क्षेत्रों में पड़ने वाले “राम वनगमन पथ” की शोध करें और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें।

इसके बाद केंद्र में सरकार बदल गई और अटलजी विस्मृति के अंतरालों में खो गए।

जिन-जिन राज्यों में भाजपा सरकार नहीं थी, वहां पर इस प्रस्ताव की अनदेखी कर दी गई। किंतु भाजपा सरकारों वाले राज्यों ने अटलजी के इस प्रस्ताव को उनके प्रधानमंत्री नहीं रहने के बावजूद स्वीकार किया और इस प्रकार “राम वनगमन पथ” के शोध का यज्ञ आरम्भ हुआ।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने वर्ष 2007 में चित्रकूट से “राम वनगमन पथ” में पड़ने वाली मध्यप्रदेश की भूमि के शोध की घोषणा की। यह शोध चित्रकूट से लेकर अमरकंटक तक दंडकारण्य वनक्षेत्र में निष्पादित होना था।

ऐसा माना जाता है कि अपनी वनगमन यात्रा के दौरान प्रभु श्रीराम मध्यप्रदेश के सतना, रीवा, पन्ना, छतरपुर, शहडोल और अनूपपुर ज़िलों से होकर गुज़रे थे। शोधदल का ध्यान इन्हीं ज़िलों पर केंद्रित था।

वर्ष 2008 में संस्कृति विभाग ने एक बैठक बुलाई, जिसमें 11 विद्वानों की समिति बनाकर “राम वनगमन पथ” योजना पर शोध का काम आरम्भ किया गया। तत्कालीन धर्मस्व न्यास मंत्री श्री लक्ष्मीकांत शर्मा को इस योजना का प्रभार सौंपा गया।

दो चरणों में चले सर्वेक्षण के तहत इतिहास, पुरातत्व और रामकथा के इन 11 विद्वानों ने मार्च 2009 से दिसंबर 2010 तक “राम वनगमन पथ” का शोध किया।

इस दल में नर्मदायात्री अमृतलाल वेगड़ सहित अवधेश प्रताप पांडे, भोपाल के रामचंद्र तिवारी, उज्जैन के बालकृष्ण शर्मा, रामसुमन पांडे, ग्वालियर के आर. सी. शर्मा प्रभृति विद्वान सम्मिलित थे।

भोपाल के ही प्रो. आनंद कुमार सिंह भी उस 11 सदस्यीय दल में सम्मिलित थे। वे तंत्र, ज्योतिष और साहित्य के गहन अध्येता हैं। वे अपने साथ “वाल्मीकि रामायण” की प्रति ले गए थे और वाल्मीकि द्वारा वर्णित भूक्षेत्र का मिलान करते जा रहे थे।

उन्होंने आश्चर्यजनक समानताएं पाईं। कई स्थानों पर तो हूबहू वही दृश्यचित्र, जो कि वाल्मीकि द्वारा वर्णित था।

मई 2018 में प्रकाशित प्रो. आनंद कुमार सिंह के एक लेख में यह पंक्तियां आती हैं-

“वाल्मीकि ने यद्यपि उत्तम पुरुष में यात्राओं का वर्णन नहीं किया, परंतु क्या राम का वनपथ आदि कवि ने घूमा न होगा? राम की यात्रा भारतीय मानस की यात्रा है। लोक-मानस से जुड़ाव और लोक-संवेदना की पहचान इस लोक-गाथा में यों ही नहीं समाहित हो सकी है। आज से नौ-दस साल पहले “राम वनगमन पथ” की खोज करते समय मैं वाल्मीकि के रामायण वर्णनों का मिलान करते हुए सतना जिले में शरभंग मुनि के आश्रम की खोज में भटक रहा था। तब मुझे लगा कि बिना इन दिशाओं में पैर पटके कोई इन बातों को हूबहू कैसे लिख सकता है! वाल्मीकि का “अरण्यकांड” आदिकवि का निजी वनपथ ही है, जो राम के माध्यम से जी उठा है।”

वाल्मीकि के अनुसार भगवान राम ने मध्यप्रदेश में सतना के जंगलों में बहुत समय बिताया था। लगभग दस-ग्यारह सालों का प्रवास। शरभंग ऋषि के आश्रम में ही उन्हें सुतीक्ष्ण मुनि के बारे में पता चला, जो उनके आगमन की बाट ही जोह रहे थे।

वर्ष 2010 में दूसरी सर्वेक्षण यात्रा के बाद शोधदल ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सबमिट कर दी।

दुर्योग ही रहा कि उसके बाद किन्हीं कारणों से श्री लक्ष्मीकांत शर्मा अपने पद पर नहीं रहे और वह रिपोर्ट धर्मस्व मंत्रालय की फ़ाइलों में कहीं खोकर रह गई, उस शोध पर फिर कोई कार्य नहीं किया जा सका।

मेरी निजी राय में “राम वनगमन पथ” के शोध सम्बंधी वह फ़ाइल एक अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।

उसका महत्व सीताराम गोयल और रामस्वरूप द्वारा 1990 के दशक में दो खंडों में लिखे गए उस ग्रंथ से कम नहीं है, जिसमें हिंदू धर्मस्थलों और विशेषकर रामजन्मभूमि के सम्बंध में प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत किए गए थे।

मैं केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार से अनुरोध करूंगा कि उस रिपोर्ट को प्रकाश में लाकर शोध में प्राप्त हुई निष्पत्तियों पर आगे काम किया जाए और लोकवृत्त में श्रीराम के यात्रापथ के सम्बंध में सुस्पष्ट साक्ष्यों की स्थापना की जाए।

वामपंथी बंधुओं द्वारा इस प्रकार के किसी भी कार्य को “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” कहकर पुकारा जाएगा, किंतु स्मरण रहे कि यूनान में ज़ीयस देवता के गुह्यस्थल की खोज करने वाले विद्वान “आर्कियोलॉजिस्ट” कहलाकर समादृत होते हैं। यह पुरातत्व का विषय है। भारत-भावना और लोकमानस से इसका गहरा सम्बंध है। इसे प्रकाश में आना ही चाहिए। प्रो. आनंद कुमार सिंह तो अपने अनुभवों के आधार पर पृथक से एक पुस्तक इस विषय पर लिख ही रहे हैं।

किंतु कौन जाने, राज्यसत्ता को यह अवसर फिर मिले ना मिले। उस तक यह संदेश पहुंचाया जाना आवश्यक है।

श्रीरामजानकी की मंगलमूर्ति समस्त चराचर विश्व पर अनुकम्पा करे, यही मंगलकामना। 🙏 अस्तु!

सुशोभित

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ज्योति अग्रवाल

भाईदूज
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‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.
‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.
‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’
‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’
‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया. राधा अभी राखी बांध कर गई ही थी कि उसे याद आया कि वह मोहन बाबू को मिठाई खिलाना भूल गई थी. अपने घर से मिठाई ला कर वे खुशीखुशी मोहन बाबू के घर आ रही थी, मगर मोहन बाबू और उन की बीवी मालती की आपस में हो रही बहस सुन कर उस के पैर ठिठक कर आंगन में ही रुक गए. जब राधा ने उन की पूरी बात सुनी, तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. वह चुपचाप उलटे पैर लौट गई. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.
मोहन बाबू सरकारी स्कूल में टीचर थे. तकरीबन 6 महीने पहले ही वे इस गांव में तबादला हो कर आए थे. यह गांव शहर से काफी दूर था, इसलिए मजबूरन उन्होंने यहीं पर मकान किराए पर ले लिया. मोहन बाबू बहुत ही मिलनसार और अच्छे इनसान थे. वे बहुत जल्द ही गांव वालों से घुलमिल गए. गांव का हर आदमी उन की इज्जत करता था, क्योंकि वे छुआछूत, जातपांत वगैरह दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे. मोहन बाबू के मकान से कुछ ही दूरी पर राधा एक झोंपड़ीनुमा मकान में रहती थी. उस का लड़का मोहन बाबू के स्कूल में पढ़ता था. राधा थी तो विधवा, मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी. उसी पर उस की जिंदगी की सारी उम्मीदें टिकी हुई थीं, इसलिए वह समयसमय पर स्कूल आ कर उस की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछती रहती. उस के बेटे के चलते ही मोहन बाबू की उस से जानपहचान थी.
मोहन बाबू भी राधा के बेटे को चाहते थे, क्योंकि वह पढ़नेलिखने में तेज था, इसलिए वे खुद उस के बेटे पर ज्यादा ध्यान देते थे. राधा जब भी स्कूल आती, उन से ही मिलती और अपने बेटे के बारे में ढेर बातें करती. मोहन बाबू राधा को राधा बहन कह कर ही बात करते थे. उन के लिए तो यह केवल संबोधन ही था, मगर राधा तो सचमुच ही उन्हें अपना भाई समझने लगी थी. तभी तो रक्षाबंधन के दिन बिना कुछ सोचेसमझे उस ने उन्हें राखी बांध दी थी. राधा को अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब उस ने उन की और मालती की आपस में हो रही बातें सुनीं. उस के बाद उस ने मोहन बाबू के घर जाना ही बंद कर दिया. एक बार 2-3 दिन तक मोहन बाबू स्कूल नहीं आए, तो राधा को चिंता होने लगी. मोहन बाबू ने चाहे उसे ऊपरी तौर पर बहन माना था, मगर उस के लिए तो वह रिश्ता दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था. लगातार 2-3 दिनों तक उन का स्कूल न आना राधा के लिए चिंता की बात बन गया.
आखिरकार दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची. घर का दरवाजा खुला हुआ था. उस ने बाहर से ही दोचार बार आवाज लगाई, मगर जब काफी देर तक अंदर से कोई जवाब न आया, तो वह किसी डर से सिहर उठी.
मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. राधा ने पलंग के पास जा कर आवाज लगाई, ‘‘भैया… भैया…’’ मगर उन्होंने कोई जवाब न दिया. वह घबरा गई और उस ने उन्हें झकझोर दिया. मगर उन्होंने तब भी कोई जवाब नहीं दिया.
उस ने मालती को ढूंढ़ा, मगर वह वहां नहीं थी. अस्पताल वहां से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था, इसलिए आननफानन उस ने किसी तरह एक ट्रैक्टर वाले को और कुछ गांव वालों को तैयार किया, फिर वह उन्हें अस्पताल ले गई.
डाक्टर ने मोहन बाबू को चैक कर तुरंत भरती करते हुए कहा, ‘‘अच्छा हुआ, आप लोग इन्हें समय पर ले आए, वरना हम कुछ नहीं कर पाते. यह बुखार बहुत जल्दी कंट्रोल से बाहर हो जाता है.’’
‘‘अब तो मोहन भैया ठीक हो जाएंगे न?’’ राधा ने आंखों में आंसू लाते हुए डाक्टर से पूछा.
‘‘जब तक इन्हें होश नहीं आ जाता, हम कुछ नहीं कह सकते. मगर मेरा मन इतना जरूर कहता है कि आप जैसी बहन के होते हुए इन्हें कुछ नहीं हो सकता,’’ डाक्टर ने मुसकराते हुए कहा. मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. उन की दवादारू लगातार चल रही थी, मगर अभी तक उन्हें होश नहीं आया था. राधा उन के पलंग के पास चुपचाप बैठी थी. रहरह कर न जाने क्यों उस की आंखों से आंसू छलक जाते थे. तकरीबन 12 घंटे बाद मोहन बाबू को होश आया और उन्होंने आंखें खोलीं. मोहन बाबू को होश में आया देख राधा की आंखें खुशी से चमक उठीं. बाकी सभी गांव वाले तो उन्हें भरती करवा कर चले गए थे. बस, राधा ही अकेली उन के पास देखरेख के लिए थी. हां, कुछ लोग उन का हालचाल पूछने के लिए जरूर आतेजाते थे, मगर काफी कम, क्योंकि लोगों को राधा का वहां होना खलता था. दवाएं देने व मोहन बाबू की देखरेख की जिम्मेदारी राधा बखूबी निभा रही थी. समय पर दवाएं देना वह कभी नहीं चूकती थी.
मोहन बाबू के मैले पसीने से सने कपड़े धोने में राधा को जरा भी संकोच न होता. उसे खुद के भोजन का तो ध्यान न रहता, मगर उन्हें डाक्टर की सलाह के मुताबिक भोजन ला कर जरूर खिलाती. मालती मायके गई हुई थी. उसे टैलीग्राम तो कर दिया था, लेकिन उसे आने में 3 दिन लग गए. तीसरे दिन वह घर आ पहुंची. जब मालती अस्पताल आई, तो राधा मोहन बाबू के पलंग के पास बैठी थी. मोहन बाबू खाना खा रहे थे. उसे देखते ही उन के हाथ मानो थम से गए.
मालती को देखते ही राधा उठ खड़ी हुई और उस के पास आ कर बोली, ‘‘भाभी, अब आप अपनी जिम्मेदारी निभाइए.’’
राधा जाने के लिए पलटी, मगर फिर वह एक पल के लिए रुक कर बोली, ‘‘और हां, मैं ने इन्हें अपने घर का खाना नहीं खिलाया है. होटल से ला कर खिलाना तो मेरी मजबूरी थी. हो सके, तो इस के लिए मुझे माफ कर देना.’’ मालती बस हैरान सी खड़ी हो कर उसे जाते हुए देखती रह गई, मगर कुछ बोल नहीं पाई. राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती समझ चुकी थी कि शायद राधा रक्षाबंधन पर उस के और मोहन बाबू के बीच हुए झगड़े को सुन चुकी है. कुछ ही दिनों में मोहन बाबू ठीक हो गए और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. मगर राधा उन के घर नहीं आई. बस, वह लोगों से ही उन का हालचाल मालूम कर लिया करती थी. एक दिन अचानक मालती राधा के घर जा पहुंची. राधा कुछ चौंक सी गई.
‘‘बैठने के लिए नहीं कहोगी राधा बहन?’’ मालती ने ही चुप्पी तोड़ी.
‘‘हांहां, बैठो भाभी,’’ राधा ने हिचकिचाते हुए कहा और चारपाई बिछा दी.
‘‘कल भाईदूज है. हमारे यहां तो बहनें इस दिन अपने घर भैयाभाभी को भोजन के लिए बुलाती हैं, क्या तुम्हारे यहां ऐसा रिवाज नहीं है?’’
‘‘है तो, मगर…?’’
‘‘अगरमगर कुछ नहीं. हमें और शर्मिंदा मत करो. हम दोनों कल तुम्हारे यहां खाना खाने आएंगे,’’ मालती ने कुछ शर्मिंदा हो कर कहा.
राधा की आंखें खुशी से नम हो गईं. उसे आज लग रहा था कि मोहन बाबू को भाई बना कर उस ने कोई गलती नहीं की.
विधु

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प्रेरक प्रसंग

निज प्रभुमय देखहिं जगत

 श्री व्यासराम स्वामी के अनेक शिष्य थे, जिनमें कनकदास भी एक थे ।  निम्न जाति के होकर भी उनके प्रति गुरु का अपार प्रेम देख अन्य शिष्य उससे जला करते ।  एक बार स्वामीजी ने एकादशी- व्रत के दिन सारे शिष्यों को एक-एक केला देते हुए कहा कि वे उसे ऐसी जगह खाएँ, जहाँ कोई देख न सके ।  सभी ने निर्जन स्थान में बैठकर केला खाया ।
  एक घन्टे बाद स्वामीजी ने शिष्यों को बुलाकर पूछा कि सबने केला खा लिया है या कोई भूखा भी है ।  प्रत्येक ने कहा कि उसने एकान्त स्थान को ढूँढ़कर खाया है और उसे किसी ने भी खाते नहीं देखा है ।  कनकदास के पूछने पर उसने डरते, शरमाते उत्तर दिया,  "गुरूजी, मुझे ऐसी कोई जगह नहीं दिखाई दी, जहाँ कोई न हो ।  हर जगह मुझे भगवान् का वास होने के कारण ऐसा लगता कि वे देख रहे हैं, इस कारण मैं खा नहीं पाया ।"
  स्वामीजी खुश हुए, क्योंकि उन्होंने ही कुछ दिनों पूर्व बताया था कि भगवान् सर्वत्र विद्यमान हैं एवं सबके अच्छे-बुरे कर्मों की ओर उनकी दृष्टि रहती है ।  उन्होंने शिष्यों से कहा,  "कनक तुम सब में इसी कारण अलग है कि वह दिये हुए उपदेशों को आचरण में लाता है ।  इसलिए अब कभी भी उसके प्रति द्वेष भाव न रखे ।"

अनूप सिन्हा

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ઘોડો અને મચ્છર


ઘોડો અને મચ્છર

 

ચોમાસું હતું. એક ઘોડો ચરોમાં ઘાસ ચરતો હતો. એક મચ્છર ઉડીને તેના પર બેઠો.

ઘોડા એ જોયું પણ નહી, તે મચ્છરને ગમ્યું નહી. “ઘોડા, મને જોયો ?” તે બોલ્યો, “હા, હવે ખબર પડી” ઘોડાએ કહ્યું.

મચ્છરે ઘોડાના શરીર પર આંખો ફેરવી. તેણે તેની પીઠ જોઈ, પૂછડી જોઈ અને પગની ખરીઓં જોઈ. તેણે તેનું ગળું અને બે કાન પણ જોયા. એક પછી એક- બધુંજ જોયું . બધું બરાબર જોઇને તેણે માથું હલાવ્યું.

“તું બહુ મોટો છે, મિત્ર, ખરુંને?”  તે બોલ્યો ” હા, તું કહે એવો નાનો તો નથી જ” માથું હલાવીને ઘોડાએ  કહ્યું.

“હું તો તારાથી બહુ નાનો છું”

“હા, તું નાનો તો ખરો”

“તું બળવાન હોઈશ, બરાબરને ?”

“હા, બળવાન, પૂરતો”

“માખી તને પહોચે નહિ, ખરું ને?”

“હા, ચોક્કસ, નહિ જ.”

“અને મધમાખી પણ નહિ ?”

“ના, મધમાખી પણ નહિ.”

“શું ભમરી પણ નહિ?”

“ના, ભમરી પણ નહિ.”

“શું માંકડ પણ નહિ?”

“ના, માંકડ પણ નહિ.”

મચ્છર રાજી થયો. ઘોડો છે તો તાકાતવાળો, પણ મારા જેવો તો નહિ જ.” હું તો બહુ બળવાન, એવું વિચારીને તેણે છાતી ફુલાવી.”

“ઘોડા, તું કદાચ મોટો અને તાકાત વાળો હોઈશ, પણ અમે મચ્છરો તો તારાથી પણ વધારે તાકાતવાળા છીએ. અમારે માત્ર તારા પર બેસવું પડે. એટલામાં તને પૂરો કરી નાખીએ. અમને ભલભલાને પછાડી નાખવાનું આવડે.

“જવાદે, તારાથી ન થાય”

“હા, અમે કરી શકીએ”

“ના”

“હા”

બંને વચ્ચે એક કલાક સુધી ચડસાચડસી થઇ. કોઈ એક બીજાને બોલતા બંધ કરી શક્યું નહિ.

“દલીલમાં પડવા જેવું નથી, ઘોડાએ કંટાળીને છેવટે કહ્યું. આપણા બેની વચ્ચે લડાઈ થઇ જાય. જોઈએ કોણ જીતે છે?”

“હા, ભલે થઇ જાય” મચ્છર માની ગયો.

 

તે ઘોડાની પીઠ પરથી ઊઠ્યો.

તેણે તીણા અવાજે બધા મચ્છરોને બૂમ પડીને બોલાવ્યા. “મિત્રો, ઉડીને અહી આવો, ભેગા થાવ. ઘેરી વળો.”

આપણને કલ્પનામાં ન આવે એટલા ઢગલાબંધ મચ્છરો ઊડીને ઘોડા પર બેઠા. કોઈ ઘાંસના મેદાનમાંથી આવ્યા, તો કોઈ ખાબોચિયાનાં પાણી પરથી આવ્યાં, તો કોઈ તળાવ કે નદીના પાણી પરથી આવ્યા. તો કોઈ ખૂણે ખાંચરેથી આવ્યાં. બધા ટોળા બંધ ઘોડાના શરીર પર ગોઠવાઈ ગયા. જરા પણ જગ્યા રહેવા દીધી નહિ. બધા પગ અને સૂંઢ ઘોડાના શરીરમાં ખુંપવીને બેઠા.

“બધા આવી ગયા ને?” ઘોડાએ પૂછ્યું

“હા, બધાજ” બડાઈખોર મચ્છર બોલ્યો.

“દરેકને પુરતી જગ્યા મળીને?”

“હા”

“તો બરાબર ચોંટી રહેજો. પકડ ઢીલી પડવા દેતા નહિ” ઘોડાએ કહ્યું.

ઘોડાએ પોતાનું શરીર ઉછાળીને ફેક્યું. તેની ખરીયો હવામાં અટવાઈ.

તે એક પડખેથી બીજે પડખે આળોટવા લાગ્યો અને એક મિનીટ પૂરી થઇ તે પહેલા બધાજ મચ્છરોને ચગદી નાખ્યા. મચ્છરોની ફોજમાંથી માત્ર એક મચ્છર બચ્યો હતો. જો કે તેની પાંખો અને પગ તો ખોખરા થઇ ગયા હતા. તે માંડ માંડ ઊડી શકે એમ હતું.

બડાઈખોર મચ્છર બદમાશ હતો. તે ગુંડો દાદો હતો. તે નબળાઓને ચડાવીને કે બીવડાવીને લડાવતો. તે પોતે દૂર ભાગીને મજા લૂટતો.

હવે પેલો ખોખરો થઈને માંડ માંડ બચેલો મચ્છર ઊડીને મચ્છર દાદા પાસે ગયો અને ફોજનો ઉપરી હોય તેમ બડાઈ મારવા લાગ્યો.

“ઘોડો મરી ગયો. તેને બેસતાની સાથે જ અમે નીચે પાડી દીધો. તે કવું આળોટ્યો! આપણી ફોજમાં ચારેક સૈનિકો વધારે હોત તો તેની ખરીઓં પકડીને, તેને આકાશમાં લટકાવ્યો હોત!”

“વાહ – વાહ, બહુ સરસ” ગુંડો મચ્છરદાદો બોલીને, ઉડયો. તેને માંકડને અને કીડીઓને આ ખબર આપવાની હતી. મચ્છરે ઘોડાને પછાડી દીધો. આખી દુનિયામાં મચ્છર જેવો કોઈ બળીયો નહિ.

જીતેન્દ્ર દેસાઈ

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કાગડો અને કોયલ


કાગડો અને કોયલ

ઘણાં વરસ પહેલાંની વાત છે. એક કાગડો અને એક હતી કોયલ. બંનેનો રંગ સરખો હતો. બંનેનો  રંગ સરખો હતો. ફેર માત્ર એટલો કે કાગડો ભરાવદાર હતો અને કોયલ નાજુક હતી. કાગડાને કોયલ બહુ ગમતી હતી. તે તેને પરણવા માંગતો હતો. કોયલને પણ કાગડો બહુ ગમતો હતો. આથી તેણે તેને પોતાના માળામાં બોલાવ્યો અને મનગમતું ખાવા – પીવાનું આપીને કાગડાને રાજી કર્યો.

“તું બહુ નાજુક કેમ છે ?” કાગડાએ પૂછ્યું.

“હજી હું પૂરી યુવાન થઇ નથી” કોયલે જવાબ આપ્યો.

“ના. તું યુવાન તો નથી જ” એવું બોલીને કાગડો ખુશ થયો. તો તું હજી પણ વધવાની ને? ખરુંને? ”

“હા . . .હા, જરૂર!” કોયલ બોલી, “તેનાથી જુદું તો થાય કેવી રીતે?”

બંનેએ ખુબ ખાધું – પીધું અને લહેર કરી, તેથી કોયલને મોઢું ઉઘાડવાના પણ હોશકોશ રહ્યા નહિ. તે ખુબ કંટાળી ગઈ.

“મને મજા પડે એવું કહેને” તેણે કાગડાને કહ્યું, “તું કહીશ નહિ તો હું ઊંઘી જઈશ.”

“તને ગમે એવું હું ઘણું જાણું છું”

કાગડો બોલ્યો. આ જંગલની પાછળ એક નાનું ગામડું છે. એક વાર મારા કાકા ત્યાં ઊડીને ગયેલા. તેમણે ત્યાં એક વાંસનું રડું જોયેલું. તે ખૂબ ઊંચું હતું. ગોકળગાય પેટ ઘસડતી ઘસડતી તેના પર ચઢી ગઈ. તે વાસના ટોચે પહોંચીને વાદળમાં સંતાઈ ગઈ. સૂરજદાદાનો તડકો તેને આડકી શક્યો નહિ.

“એમાં ખાસ દમ નથી” કોયલ બોલી.

એક વરસ પહેલાં મેં એવો ઊંચો વાંસ જોયેલો કે કામાંચીડિયું તેને વળગીને સરકતું સરકતું આકાશમાં પહોચી ગયેલું અને સૂરજદાદાની ભઠીથી તેણે હોકલી સળગાવેલી.

કાગડાએ માથું ખંજવાળ્યું. તેણે કંઈક મજા પડે એવું કહેવા મગજ પીખ્યું.

“મને કંઈક યાદ આવ્યું” તે બોલ્યો.

“ત્રણેક વરસ પહેલાં જંગલની પાછળ એ જ ગામમાં ભારે પવન ફુંકાયો હતો કે લોકોને ચાર પગે ગોકળગાય ની જેમ ધીમે ધીમે ચાલવું પડેલું. બે હાથનાં તેઓએ બે પગ બનાવી દીધેલાં. છ મહિના વીતી ગયા પછી તેઓ પહેલાંની જેમ ચાલતા થયેલા.”

“અહો, એમાં કઈ ખાસ નથી.” કોયલ બોલી.

“પાંચ વરસ પહેલાં તો પવન એનાથી પણ તાકાતવાળો હતો. અરે, તેનાથી પવનચક્કીઓ જાતેજ ગોળ ગોળ ફરવા લાગી હતી. તેની ફરવાની ઝડપમાં પાંખીયા પણ દેખાતા નહતા.”

કાગડાએ ફરીવાર માથું ઘસ્યું. તેણે ઊંડું વિચાર્યું. તે ગમે એવું અને રસ પડે તેવું કહેવા ઈચ્છતો હતો.

“મને હમણાંજ યાદ આવ્યું” તે બોલ્યો, “દસ વરસ પહેલાં આ જંગલ એટલું ઝનૂની બન્યું હતું કે બધા વાંસના શડા મૂળથી ટોચ સુધી ઉખડીને, જમીન પર લાંબા થઈને સૂઈ ગયા હતા.

“આમાં કઈ ચમક – દમક નથી” કોયલ બોલી.

તેણે છાતી ફુલાવીને કહ્યું, “બાર વરસ પહેલાં મારા ત્રીજા વેતરના બચ્ચાને પંખો ફૂટેલી. હું તેમણે આવજો કહેતી હતી તે વેળાએ જંગલ ખૂબ ઝનૂની બનેલું. સ્ત્રીઓના હાથ થીજી ગયેલા અને તેમણે ગુદેલા લોટ – કણક – પર બરફ જામી ગયેલો.

અરે, સગડી પર મુકેલું પાણી ભરેલું વાસણ એક તરફ ઉકળતું હતું અને બીજી તરફ બરફ થઇ જતો હતો.”

“જૂના વખતમાં તો ગમે તેમ બની શકતું હતું!” કાગડાએ નિસાસો નાખી વાત ટૂંકાવી. ફરીવાર મળવાનું કહીને, તે માળો છોડી ઉડી ગયો.

કોયલના કહ્યાં મુજબનો ઊંચો વાંસ હતો કે નહિ, તેની કાગડાને ખબર નહતી. જંગલ ઝનૂની થયું હતું તે પણ તેની જણમાં ના હતું. પણ તેણે પરણવાની ઇચ્ચાવાળી કન્યા કોયલબાઈ તેનાથી જરૂર ઘરડી હતી એ વાત તેના ખ્યાલમાં આવી ગઈ.

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બે ઘોડા


બે ઘોડા

 

કોશાંબી નગરીમાં બે ઘોડા રહેતાં હતા. એક હતો રજાનો ઘોડો અને બીજો ખેડૂતનો. બંને પાકા ગોઠિયા. બંને જયારે ભેગા થાય ત્યારે ગપસપ કરે. તેમની વાતો ખૂટે નહિ. પણ એક દિવસ રજાનો ઘોડો એવું કંઈક બોલ્યો કે ખેડૂતના ઘોડા ને દુઃખ થયું. તેની લાગણી દુભાઈ.
“તું હલકી જાતનો છે. મારા જેવો કુળવાન નથી.”
રજાનો ઘોડો બોલ્યો, મને કાયમ સાંજ માંડીને, તાલીમ આપનાર કૂદવા માટે પલાણે છે અને તને ચાર પૈડાવાળું ગળું ખેચવા કે ખેતરમાં રાપડી ફેરવવા જોતરવામાં આવે છે. મને જાવ ખાવા મળે છે અને તેને ઘાસ. મારી સામે જો મારા પગ કેવા પાતળાં અને નમણાં છે, અને પગ ની ખરીઓં કેવી ડાઘા વગર ની છે!
તારું તો બધું કાદવથી ખરડાયેલું છે. મારી ડોક તો હંસના જેવી વળાંકવાળી અને સુંદર છે. તારી ગળચી તો જાડી અને બરડ છે. મારી ચામડી ચાંદીની જેમ ચમકે છે. અને તારી ચામડી પરસેવે તરબોળ છે. મારા કપાળમાં સફેદ તારો છે અને તારું કપાળ કોરું છે. આપણે બેમાં કોણ સોહામણું? તું કે હું?
“તું જ. ખરેખર!” ખેડૂતનાં ઘોડાએ કહ્યું.
પોતાનું માથું અહંકારથી ઊચું કરીને રજાનો ઘોડો બોલ્યો, હવે બરાબર સમજાયું ને? મને દોડતા જોવો એ લ્હાવો છે. મારો પવન વેગ તાલીમ આપનારને પણ રઘવાટમાં પાછળ પડી દે છે અને ધરતી પણ મારા પગતળે પસાર થઇ જાય છે. તારાથી આવું જન્મારામાંપણ નહિ દોડય.”
“ના, ખરેખર નહિ”
ખેડૂતનાં ઘોડાએ કહ્યું, હું તારો સમોવડ ન થઇ શકું”
“તું ખરેખર બરાબરીયો ન થઇ શકે”
રજાનો ઘોડો બોલ્યો, “તેને વિશે વાત કરવી, એ પણ બકવાસ છે. તું ગોકળગાય ને પણ પાછળ ન પાડી શકે. પાડી શકે ખરો?”
“ના, ગોકળગાયને પણ નહિ જ”
ખેડૂતનો ઘોડો બોલ્યો, “હવે તારામાં ફેરફાર થયો છે. તેથી તને હું સહેલાઈથી પાછળ પાડી દઈ શકું.”
આ સંભાળીને રાજાનો ઘોડો ધુઆપુઆ થયો. તે હણહણાટ કરીને પોતાની કેશવાળી હલાવવા લાગ્યો.
“તો થઇ જાય” તેણે કહ્યું “આપણાં બેમાં કોણ કોને પાછળ પડી દે છે તે જોઈ નાખીએ.”
ત્યાંને ત્યાં જ બેનેએ રેસનું નક્કી કરી નાખ્યું. જયાં સુધી બેમાંથી એક ન દોડી શકવાનું કબૂલે નહિ ત્યાં સુધી બેનેએ ઘાસના બીડના ગોળાકારમાં થોભ્યા વગર દોડતા રહેવાનું.
શરત પ્રમાણે પોતાની ગરદન પાછળ ઝુક્વીને રાજાના ઘોડાએ પૂરપાટ દોડવાનું ચાલુ કર્યું. તેણે દોડમાં ખેડૂતના ઘોડાને એક ગોળાકાર પાછળ પડી દીધો. બીજા ગોળાકારમાં તે તેની લગોલગ આવી ગયો અને તેને પાછળ પડી દીધો. તેણે ખુશાલીનો હણહણાટ કરીને કહૂયું, તારે હવે આરામનો વખત થયો છે. તું થાકી જઈશ.”
“હું નહિ થાકું. ગભરાતો નહિ” ખેડૂતના ઘોડાએ કહ્યું.
ત્રીજા ગોળાકારમાં રજાનો ઘોડો કેદુતના ઘોડાને આંબી ગયો. તેણે તેને પાછળ પડી દીધો. તેણે રાજીપાનો હણહણાટ કરીને કહ્યું, “તારે હવે આરામનો વખત થયો છે. તું થાકી જઈશ.”
“હું નહિ થાકું. મુંઝાતો નહિ.” ખેડૂતના ઘોડાએ કહ્યું.
ચોથા ગોળાકારમાં રજાનો ઘોડો ખેડૂતના ઘોડાથી આગળ નીકળી ગયો. પણ હવે તેના હણહણાટનો આત્મવિશ્વાસ તેના બોલવામાં ટક્યો નહતો.
“તારે…આરામનો…સમય…થયો લાગે છે. તું…તું થાકવાનો છે.”
“ના, હું થાકવાનો નહિ જ. ઘભરાતો નહિ.” ખેડૂતના ઘોડાએ જવાબ આપ્યો. “પણ તારો શ્વાસ ભરાઈ ગયો હોય એવું લાગે છે.”
“મેં પગે વગાડ્યું છે, તેને લીધે” જુક્રું બોલીને રજાનો ઘોડો દોડવા લાગ્યો.
પાંચમાં ગોળાકારમાં તે ફરીવાર ખેડૂતના ઘોડાથી આગળ નીકળી ગયો. પણ આ વખતે તેણે હણહણાટ ન કર્યો કે સલાહ પણ ન આપી.
“મિત્ર, તું ઊહ્કારો શા માટે કરે છે? ખેડૂતના ઘોડાએ પૂછ્યું.
“ઠેસ વાગવાથી હું ભાઠામાં લથડી ગયો” રાજાના ઘોડાએ જવાબ આપ્યો.
છઠા અને સાતમાં ગોળાકારમાં રજાનો ઘોડો ખેડૂતના ઘોડાથી આગળ નીકળી ન શક્યો. આઠમા ગોળાકારમાં ખેડૂતનો ઘોડો રાજાના ઘોડાની લગોલગ આવીને આગળ નીકળી ગયો.
“મિત્ર, તું પાચળ કેમ રહી ગયો? મિત્ર, થાક્યોને ? તેણે પૂછ્યું.
“ના, હું વિચારવા માટે થોભ્યો” રાજાન ઘોડાએ જવાબ આપ્યો.
“ચોતરફથી વિચારોએ મારા પર ઘેરો ઘાલ્યો છે.”
નાવમાં ગોળાકારમાં રાજાના ઘોડાએ દોડવાનું જ અટકાવી દીધું. તે જમણી પર ફસડાઈ પડ્યો. અને તેને પગવડે લાતો મારવા લાગ્યો.
“શું બાબત છે? તારી તબિયત સારી નથી?” ખેડૂતના ઘોડાએ તેને પૂછ્યું.
“ના, આ બાગી મને હેરાન-પરેશાન કરી રહી છે. તે મનેચારે બાજુએ કરડી રહી છે. હું તેને ભગાડી મુકીશ અને ફરીવાર દોડીશ. આપણી પાસે સમય ઘણો છે.”
“હા…સમય ઘણો છે” ખેડૂતના ઘોડાએ કહ્યું અને અટકયા વગર તે દોડવા લાગ્યો.
દસમાં ગોળાકારે રજાનો ઘોડો પોતાના પગ પર ઊભો થયો. તે લંગડાતો ઝાડી-ઝાંખરા પાછળ ગયો અને ઘાંસની પત્તિઓ કોતરી ખાવા લાગ્યો. તેણે ખેડૂતના ઘોડાની સામે જોવાનું ટાળ્યું.
“હવે ભોજનવેળા થઇ, શ્રીમાનજી” ખેડૂતના ઘોડાએ તેને બોલાવ્યો.
“વાળુવેળા થઇ” રાજાના ઘોડાએ ચિડાઈને જવાબ આપ્યો. “ભાળતો નથી આ ધુમ્મસ સપાટી પર તરે છે. તું પણ આરામ કર તો સારું. સવાર પહેલા અહી ગોળાકાર ફરવા માટે આપણી પાસે ઘણો જ વખત છે.”
“મારે આરામની જરૂર નથી” ખેડૂતના ઘોડાએ કહ્યું.” હું તો ગરમ થવા માટે દોડતો હતો.
હું બીજા દસ ગોળાકાર દોડીશ અને પછી બીજા. ત્યારબાદ આપણે જોઈશું.”
તે દિવસ પછી ખેડૂતના ઘોડાથી રજાનો ઘોડો એટલો શરમાયો કે તેણે ક્યારેય કોઈ સામે પોતાનું માથું ઉચક્યું નહિ.
પ્રોફેસર જીતેન્દ્ર દેસાઈ.