Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

ज्ञान मंथन

एक आदमी घोड़े पर कहीं जा रहा था, घोड़े को जोर की प्यास लगी थी।

कुछ दूर कुएं पर एक किसान बैलों से “रहट” चलाकर खेतों में पानी लगा रहा था।

मुसाफिर कुएं पर आया और घोड़े को “रहट” में से पानी पिलाने लगा।
पर जैसे ही घोड़ा झुककर पानी पीने की कोशिश करता, “रहट” की ठक-ठक की आवाज से डर कर पीछे हट जाता।
फिर आगे बढ़कर पानी पीने की कोशिश करता और फिर “रहट” की ठक-ठक से डरकर हट जाता।

मुसाफिर कुछ क्षण तो यह देखता रहा, फिर उसने किसान से कहा कि थोड़ी देर के लिए अपने बैलों को रोक ले ताकि रहट की ठक-ठक बन्द हो और घोड़ा पानी पी सके।

किसान ने कहा कि जैसे ही बैल रूकेंगे कुएँ में से पानी आना बन्द हो जायेगा, इसलिए पानी तो इसे ठक-ठक में ही पीना पड़ेगा।

ठीक ऐसे ही यदि हम सोचें कि जीवन की ठक-ठक (हलचल) बन्द हो तभी हम भजन, सन्ध्या, वन्दना आदि करेंगे तो यह हमारी भूल है।

हमें भी जीवन की इस ठक-ठक (हलचल) में से ही समय निकालना होगा, तभी हम अपने मन की तृप्ति कर सकेंगे, वरना उस घोड़े की तरह हमेशा प्यासा ही रहना होगा।

सब काम करते हुए, सब दायित्व निभाते हुए प्रभु सुमिरन में भी लगे रहना होगा, जीवन में ठक-ठक तो चलती ही रहेगी।

जय श्री राम

प्रताप राज

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ज्ञान मंथन

एक आदमी घोड़े पर कहीं जा रहा था, घोड़े को जोर की प्यास लगी थी।

कुछ दूर कुएं पर एक किसान बैलों से “रहट” चलाकर खेतों में पानी लगा रहा था।

मुसाफिर कुएं पर आया और घोड़े को “रहट” में से पानी पिलाने लगा।
पर जैसे ही घोड़ा झुककर पानी पीने की कोशिश करता, “रहट” की ठक-ठक की आवाज से डर कर पीछे हट जाता।
फिर आगे बढ़कर पानी पीने की कोशिश करता और फिर “रहट” की ठक-ठक से डरकर हट जाता।

मुसाफिर कुछ क्षण तो यह देखता रहा, फिर उसने किसान से कहा कि थोड़ी देर के लिए अपने बैलों को रोक ले ताकि रहट की ठक-ठक बन्द हो और घोड़ा पानी पी सके।

किसान ने कहा कि जैसे ही बैल रूकेंगे कुएँ में से पानी आना बन्द हो जायेगा, इसलिए पानी तो इसे ठक-ठक में ही पीना पड़ेगा।

ठीक ऐसे ही यदि हम सोचें कि जीवन की ठक-ठक (हलचल) बन्द हो तभी हम भजन, सन्ध्या, वन्दना आदि करेंगे तो यह हमारी भूल है।

हमें भी जीवन की इस ठक-ठक (हलचल) में से ही समय निकालना होगा, तभी हम अपने मन की तृप्ति कर सकेंगे, वरना उस घोड़े की तरह हमेशा प्यासा ही रहना होगा।

सब काम करते हुए, सब दायित्व निभाते हुए प्रभु सुमिरन में भी लगे रहना होगा, जीवन में ठक-ठक तो चलती ही रहेगी।

जय श्री राम

प्रताप राज

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नाम का आसरा
〰️〰️🔸〰️〰️
एक गांव में की एक ग्वालन रोज दूध दही बेचने शहर जाती थी,एक दिन व्रज में एक संत आये,गोपी भी कथा सुनने गई,संत कथा में कह रहे थे,भगवान के नाम की बड़ी महिमा है,नाम से बड़े बड़े संकट भी टल जाते है.नाम तो भव सागर से तारने वाला है,यदि भव सागर से पार होना है तो भगवान का नाम कभी मत छोडना।

“कथा समाप्त हुई ग्वालन अगले दिन फिर दूध दही बेचने चली, बीच में यमुना जी थी. गोपी को संत की बात याद आई,संत ने कहा था भगवान का नाम तो भवसागर से पार लगाने वाला है,जिस भगवान का नाम भवसागर से पार लगा सकता है तो क्या उन्ही भगवान का नाम मुझे इस साधारण सी नदी से पार नहीं लगा सकता? ऐसा सोचकर ग्वालन ने मन में भगवान के नाम का आश्रय लिया भोली भाली ग्वालन यमुना जी की ओर आगे बढ़ गई.

अब जैसे ही यमुना जी में पैर रखा तो लगा मानो जमीन पर चल रही है और ऐसे ही सारी नदी पार कर गई,पार पहुँचकर बड़ी प्रसन्न हुई,और मन में सोचने लगी कि संत ने तो ये तो बड़ा अच्छा तरीका बताया पार जाने का,रोज-रोज नाविक को भी पैसे नहीं देने पड़ेगे.

एक दिन ग्वालन ने सोचा कि संत ने मेरा इतना भला किया मुझे उन्हें खाने पर बुलाना चाहिये,अगले दिन ग्वालन जब दही बेचने गई,तब संत से घर में भोजन करने को कहा संत तैयार हो गए,अब बीच में फिर यमुना नदी आई.संत नाविक को बुलाने लगा तो ग्वालन बोली बाबा नाविक को क्यों बुला रहे है.हम ऐसे ही यमुना जी में चलेगे.

संत बोले -ग्वालन! कैसी बात करती हो,यमुना जी को ऐसे ही कैसे पार करेगे ?

ग्वालन बोली-बाबा! आप ने ही तो रास्ता बताया था,आपने कथा में कहा था कि भगवान के नाम का आश्रय लेकर भवसागर से पार हो सकते है. तो मैंने सोचा जब भव सागर से पार हो सकते है तो यमुना जी से पार क्यों नहीं हो सकते? और मै ऐसा ही करने लगी,इसलिए मुझे अब नाव की जरुरत नहीं पड़ती.

संत को विश्वास नहीं हुआ बोले ग्वालन तू ही पहले चल! मै तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ,ग्वालन ने भगवान के नाम का आश्रय लिया और जिस प्रकार रोज जाती थी वैसे ही यमुना जी को पार कर गई.

अब जैसे ही संत ने यमुना जी में पैर रखा तो झपाक से पानी में गिर गए,संत को बड़ा आश्चर्य,अब ग्वालन ने जब देखा तो कि संत तो पानी में गिर गए है तब ग्वालन वापस आई है और संत का हाथ पकड़कर जब चलि है तो संत भी ग्वालन की भांति ही ऐसे चले जैसे जमीन पर चल रहे हो.

संत तो ग्वालन के चरणों में गिर पड़े,और बोले – कि गोपी तू धन्य है! वास्तव में तो सही अर्थो में नाम का आश्रय तो तुमने लिया है और मै जिसने नाम की महिमा बताई तो सही पर स्वयं नाम का आश्रय नहीं लिया !!
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देव शर्मा

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नाम का आसरा
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एक गांव में की एक ग्वालन रोज दूध दही बेचने शहर जाती थी,एक दिन व्रज में एक संत आये,गोपी भी कथा सुनने गई,संत कथा में कह रहे थे,भगवान के नाम की बड़ी महिमा है,नाम से बड़े बड़े संकट भी टल जाते है.नाम तो भव सागर से तारने वाला है,यदि भव सागर से पार होना है तो भगवान का नाम कभी मत छोडना।

“कथा समाप्त हुई ग्वालन अगले दिन फिर दूध दही बेचने चली, बीच में यमुना जी थी. गोपी को संत की बात याद आई,संत ने कहा था भगवान का नाम तो भवसागर से पार लगाने वाला है,जिस भगवान का नाम भवसागर से पार लगा सकता है तो क्या उन्ही भगवान का नाम मुझे इस साधारण सी नदी से पार नहीं लगा सकता? ऐसा सोचकर ग्वालन ने मन में भगवान के नाम का आश्रय लिया भोली भाली ग्वालन यमुना जी की ओर आगे बढ़ गई.

अब जैसे ही यमुना जी में पैर रखा तो लगा मानो जमीन पर चल रही है और ऐसे ही सारी नदी पार कर गई,पार पहुँचकर बड़ी प्रसन्न हुई,और मन में सोचने लगी कि संत ने तो ये तो बड़ा अच्छा तरीका बताया पार जाने का,रोज-रोज नाविक को भी पैसे नहीं देने पड़ेगे.

एक दिन ग्वालन ने सोचा कि संत ने मेरा इतना भला किया मुझे उन्हें खाने पर बुलाना चाहिये,अगले दिन ग्वालन जब दही बेचने गई,तब संत से घर में भोजन करने को कहा संत तैयार हो गए,अब बीच में फिर यमुना नदी आई.संत नाविक को बुलाने लगा तो ग्वालन बोली बाबा नाविक को क्यों बुला रहे है.हम ऐसे ही यमुना जी में चलेगे.

संत बोले -ग्वालन! कैसी बात करती हो,यमुना जी को ऐसे ही कैसे पार करेगे ?

ग्वालन बोली-बाबा! आप ने ही तो रास्ता बताया था,आपने कथा में कहा था कि भगवान के नाम का आश्रय लेकर भवसागर से पार हो सकते है. तो मैंने सोचा जब भव सागर से पार हो सकते है तो यमुना जी से पार क्यों नहीं हो सकते? और मै ऐसा ही करने लगी,इसलिए मुझे अब नाव की जरुरत नहीं पड़ती.

संत को विश्वास नहीं हुआ बोले ग्वालन तू ही पहले चल! मै तुम्हारे पीछे पीछे आता हूँ,ग्वालन ने भगवान के नाम का आश्रय लिया और जिस प्रकार रोज जाती थी वैसे ही यमुना जी को पार कर गई.

अब जैसे ही संत ने यमुना जी में पैर रखा तो झपाक से पानी में गिर गए,संत को बड़ा आश्चर्य,अब ग्वालन ने जब देखा तो कि संत तो पानी में गिर गए है तब ग्वालन वापस आई है और संत का हाथ पकड़कर जब चलि है तो संत भी ग्वालन की भांति ही ऐसे चले जैसे जमीन पर चल रहे हो.

संत तो ग्वालन के चरणों में गिर पड़े,और बोले – कि गोपी तू धन्य है! वास्तव में तो सही अर्थो में नाम का आश्रय तो तुमने लिया है और मै जिसने नाम की महिमा बताई तो सही पर स्वयं नाम का आश्रय नहीं लिया !!
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प्रताप राज

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गुरु दक्षिणा

किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए

गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे-‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे

सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले-‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं , उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा

वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया, वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे

अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था

अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके

वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे।

लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी| पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी

अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये |गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा ?’तीनों ने सर झुका लिया

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये | हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले-‘निराश क्यों होते हो ? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये, वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला

‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं?

चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है, गुरु जी भी तुरंत ही बोले-‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके

दूसरे,यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’

अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था

ज्योति अग्रवाल

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भिखारी का आत्मसम्मान

• एक भिखारी किसी स्टेशन पर पेसिलो से भरा कटोरा लेकर बैठा हुआ था। एक युवा व्यवसायी उधर से गुजरा और उसने कटोरे मे ५० रूपये डाल दिया, लेकिन उसने कोई पेँसिल नही ली। उसके बाद वह ट्रेन मे बैठ गया। डिब्बे का दरवाजा बंद होने ही वाला था कि अधिकारी एकाएक ट्रेन से उतर कर भिखारी के पास लौटा और कुछ पेसिल उठा कर बोला, “मै कुछ पेसिल लूँगा। इन पेँसिलो की कीमत है, आखिरकार तुम एक व्यापारी हो और मै भी।” उसके बाद वह युवा तेजी से ट्रेन मे चढ़ गया।

• कुछ वर्षों बाद, वह व्यवसायी एक पार्टी मे गया। वह भिखारी भी वहाँ मौजूद था। भिखारी ने उस व्यवसायी को देखते ही पहचान लिया, वह उसके पास जाकर बोला-” आप शायद मुझे नही पहचान रहे है, लेकिन मै आपको पहचानता हूँ।”

• उसके बाद उसने उसके साथ घटी उस घटना का जिक्र किया। व्यवसायी ने कहा-” तुम्हारे याद दिलाने पर मुझे याद आ रहा है कि तुम भीख मांग रहे थे। लेकिन तुम यहाँ सूट और टाई मे क्या कर रहे हो?”

• भिखारी ने जवाब दिया, ” आपको शायद मालूम नही है कि आपने मेरे लिए उस दिन क्या किया। मुझे पर दया करने की बजाय मेरे साथ सम्मान के साथ पेश आये। आपने कटोरे से पेसिल उठाकर कहा, ‘इनकी कीमत है, आखिरकार तुम भी एक व्यापारी हो और मै भी।’

• आपके जाने के बाद मैँने बहूत सोचा, मै यहाँ क्या कर रहा हूँ? मै भीख क्योँ माँग रहा हूँ? मैने अपनी जिदगी को सँवारने के लिये कुछ अच्छा काम करने का फैसला लिया। मैने अपना थैला उठाया और घूम-घूम कर पेंसिल बेचने लगा । फिर धीरे -धीरे मेरा व्यापार बढ़ता गया, मैं कॉपी – किताब एवं अन्य चीजें भी बेचने लगा और आज पूरे शहर में मैं इन चीजों का सबसे बड़ा थोक विक्रेता हूँ।

• मुझे मेरा सम्मान लौटाने के लिये मै आपका तहेदिल से धन्यवाद देता हूँ क्योकि उस घटना ने आज मेरा जीवन ही बदल दिया।”

• मित्रो, आप अपने बारे मे क्या सोचते है? खुद के लिये आप क्या राय स्वयँ पर जाहिर करते है? क्या आप अपने आपको ठीक तरह से समझ पाते है? इन सारी चीजो को ही हम अप्रत्यक्ष रूप से आत्मसम्मान कहते है। दुसरे लोग हमारे बारे मे क्या सोचते है ये बाते उतनी मायने नहीँ रखती या कहे तो कुछ भी मायने नही रखती लेकिन आप अपने बारे मे क्या राय जाहिर करते है, क्या सोचते है ये बात बहूत ही ज्यादा मायने रखती है। लेकिन एक बात तय है कि हम अपने बारे मे जो भी सोचते हैँ, उसका एहसास जाने अनजाने मे दुसरो को भी करा ही देते है और इसमे कोई भी शक नही कि इसी कारण की वजह से दूसरे लोग भी हमारे साथ उसी ढंग से पेश आते है।

• याद रखे कि आत्म-सम्मान की वजह से ही हमारे अंदर प्रेरणा पैदा होती है या कहे तो हम आत्मप्रेरित होते है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने बारे मे एक श्रेष्ठ राय बनाएं और आत्मसम्मान से पूर्ण जीवन जीएं।

संतोष चतुर्वेदी

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गुरू महिमा
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एक बार एक सत्संगी सेवा करने के लिए आया हुआ था, दस दिन की सेवा ख़तम होने के बाद वो घर जाने वाला था कि एक दिन पहले उसकी टांग टूट गयी,
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वह काफी दुखी हुआ और उसके मन में ख्याल आया कि दस दिन सेवा की और उसके बदले में टांग टूट गयी.. मालिक तो सब जानते हैं,
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जब महाराज जी संगत को दर्शन देने के बाद अपनी कोठी जा रहे थे तो रस्ते में उस भाई से मिले, और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि आज रात को भजन पर जरूर बैठना
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जब वह रात को भजन करने के लिए बैठा तो महाराज जी उसकी सुरत ऊपर के मंडलों में ले गए और उसको दिखाया कि जिस बस में उसने वापिस जाना था उसका एक्सीडेंट हो गया था,
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और उस एक्सीडेंट में उसकी मौत हो गयी थी, महाराज जी ने उसकी सुरत को उसकी deadbody भी दिखाई, क्योंकि वह सतगुरु की शरण में आया हुआ था इसलिए महाराजजी ने उसके कर्म काटकर उसकी सिर्फ टांग ही टूटने दी
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जब उसकी सुरत नीचे सिमटी तो उसका रो रो कर बुरा हाल हुआ और उसने मालिक से अरदास की कि मालिक बक्श दो – बक्श दो
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सार – सतगुरु पर हमें पूरा विश्वास होना चाहिए, वो हमारा बाल भी बांका नहीं होने देते, और जो हमारे साथ होता है उसमें कहीं न कहीं हमारा अच्छा ही होता है….
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सत्संग में फ़रमाया गया- हम जो घड़ी, आधी घड़ी, घंटा दो घंटा भजन बैठते है वो उस तरह है जैसे हम कोई बिमा पालिसी में थोड़ी थोड़ी रकम installment के रूप में भरते है..
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फिर जब बिमा पालिसी पक जाती है तब एक बड़ा amount हमें इंटरेस्ट के साथ बोनस के साथ वापिस मिलता है।
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ठीक उसी तरह थोड़ा थोड़ा किया भजन एक दिन बहुत बड़ा interest और बोनस के साथ हमें सतगुरू एक साथ देता है।
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कतरे कतरे से तालाब और बूँद से सागर भरता है। हम जो डेरे में सेवा में मिट्टी की एक टोकरी उठाते है सतगुरू हमें उसकी भी मजदूरी देता है।
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आओ आज से हम भजन की बीमा policy में थोड़ा थोड़ा भजन का installment अदा करे ।
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फिर आगे की गुरु पर छोड़ दे। वो हमारे आधे अधुरे भजन की लाज रखेंगे।

ज्योति अग्रवाल

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प्रेरक प्रसंग

हरि सा हीरा छाड़ि के

सन्त अबू हफस हदाद बेनागा इबारत करते थे । एक दिन एक जादूगर के करतबों से आकर्षित हो उन्होंने उससे जादू सीखने की जिद की । जादूगर ने उनसे पूछा कि क्या वे अल्लाह की इबादत करते हैं ? उनके द्वारा ‘हाँ’ कहने पर जादूगर बोला, “देखो जी, जादू और इबादत का मेल नहीं बैठता । अगर जादू सीखना है तो इबादत बन्द करनी होगी। जादू सीखने का ही ठान लिया है, तो चालीस दिन तक इबादत मत करो और फिर मेरे पास आओ ।” सन्त अबू ने निश्चय कर लिया था कि जादू सीखना है, इसलिए जादूगर के कहे मुताबिक उन्होंने चालीस दिन तक इबारत बिलकुल नहीं की और जादूगर के पास गये । जादूगर उन्हें करतब सिखाने लगा, मगर वे कर नहीं पा रहे थे । तब जादूगर ने पूछा, “शायद तुमनें मेरा कहना नहीं माना और इस दौरान इबादत करते रहे ।” अबू हफस द्वारा इन्कार करने पर जादूगर बोला, “फिर तुमने जरूर कोई नेक काम किया होगा ।” सन्त तो पहले ना ही की, मगर फिर उन्हें याद आया और वे बोले, “हाँ, जब मैं इधर आ रहा था, तो रास्ते में मुझे बहुत से पत्थर पड़े मिले । मैंने सोचा कि किसी को ठोकर लग सकती है, इसलिए उन्हें उठाकर सड़क से एक तरफ कर दिया था । शायद यही नेक काम हो सकता है ।”
जादूगर ने सुना, तो हँसकर कहा, “तुम भी कितने मूरख हो कि जिस खुदा ने तुम्हें जन्म दिया, उसे ही तुम भूल गये । अरे, जिसने मेरे इस मामूली से कमाल को बेअसर कर दिया, उसे भी तुम भूला बैठे । जिसकी तुम रोज इबादत करते थे, केवल इल्म सीखने के लिए तुमनें उससे मुँह फेर लिया और अब भी वह हासिल करना चाहते हो !” इन शब्दों ने अबू पर असर किया । उन्हें खेद हुआ कि सचमुच उन्होंने तुच्छ जादू के लिए खुदा को भुलाने की चेष्टा की । उन्होंने कसम खायी कि अब उससे कभी मुँह नहीं मोड़ेंगे ।

अनूप सिन्हा