Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

श्री गोबर गणेश निमाड़ मध्यप्रदेश
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मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में नर्मदा नदी के किनारे बसा माहेश्वर एक महत्वपूर्ण कस्बा है। इसी कस्बे के महावीर मार्ग पर एक अति प्राचीन मंदिर है, जिसका नाम है गोबर गणेश।

गोबर गणेश शब्द से हिन्दी में बुद्धूपने का संकेत मिलता है, इसलिए यह नाम इस कस्बे में आने वालों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। दूसरी बात स्थानीय लोग बताते हैं कि इस मन्दिर का प्रताप सबसे बढ़कर है। गोबर गणेश मन्दिर से कोई खाली हाथ नहीं जाता।

माहेश्वर नगर पंचायत में लिपिक के पद पर कार्यरतमंगेश जोशी के अनुसार यह मन्दिर गुप्त कालीन है। औरंगजेब के समय में इसे मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया था, जिसके प्रमाण इस मन्दिर का गुंबद है, जो मस्जिद की तरह है। बाद में श्रद्धालुओं ने यहां पुनः मूर्ति की स्थापना करके, वहां पूजा प्रारंभ की।

गोबर गणेश मंदिर में गणेश की जो प्रतिमा है, वह शुद्ध रूप से गोबर की बनी है। इस मूर्ति में 70 से 75 फीसदी हिस्सा गोबर है और इसका 20 से 25 फीसदी हिस्सा मिट्टी और दूसरी सामग्री है, इसीलिए इस मंदिर को गोबर गणेश मंदिर कहते हैं।

इस मंदिर की देखभाल का काम ‘श्री गोबर गणेश मंदिर जिर्णोद्धार समिति’ कर रही है। विद्वानों के अनुसार मिट्टी और गोबर की मूर्ति की पूजा पंचभूतात्मक होने तथा गोबर में लक्ष्मी का वास होने से ‘लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य’ की प्राप्ति‍ हेतु की जाती है।

मंदिर के पुजारी अस्सी वर्षिय दत्तात्रेय जोशी के अनुसार गणेश जी का स्वरूप भूतत्व रूपी है। ‘महोमूलाधारे’ इस प्रमाण से मूलाधार भूतत्व है। अर्थात् मूलाधार में भूतत्व रूपी गणेश विराजमान हैं।

और गणपति के ग्लोंबीज का विचार करने से पहले यह अवगत होता है कि ‘तस्मादा एतस्मा दात्मनआकाशः सम्भूतः आकाशादायुः वायोरग्निआग्नेरापः अभ्दयः; पृथ्वी’ इस सृष्टि के अनुसार‘गकार’, ‘खबीज’ और ‘लकार’, भूबीज इनके जोड़ सेपंचभूतात्मक गणेश हैं।’

माहेश्वर में बने गोबर के गणेश प्रतिमा की पूजा की सार्थकता बताते हुए पंडित श्री जोशी कहते हैं-भाद्रपक्ष शुक्ल चतुर्थी के पूजन के लिए हमारे पूर्वजगोबर या मिट्टी से ही गणपति का बिम्ब बनाकर पूजा करते थे।

आज भी यह प्रथा आचार में प्रचलित है। शोणभद्र शीला या अन्य सोने चांदी बने बिम्ब को पूजा में नहीं रखते क्योंकि ‘गोबर में लक्ष्मी का वास होता है।

इसी प्रकार गोबर एवं मिट्टी से बनी गणेशप्रतिमाओं को पूजा में ग्रहण करते हैं।

चूंकि माना गया है कि गणपति में भूतत्व है।’ श्री गणेश वही हैं, जिनकी पूजा हिन्दू रीति में हर शुभकार्य से पहले अनिवार्य मानी गई है, इसलिए श्रीगणेश करना हमारी परंपरा में किसी कार्य को प्रारंभ करने के पर्यायवाची के तौर पर लिया जाता है।

माहेश्वर का गोबर गणेश मंदिर पहली नजर में देशभर में स्थित अपनी ही तरह के हजारों गणेश मंदिरों की ही तरह है, लेकिन इस मंदिर में गोबर से निर्मित गणेश और इस मंदिर का गुंबद जो आम हिन्दू मंदिरों की तरह नहीं है, अपनी तरफ आकर्षित जरूर करता है।

एक खास बात और, स्थानीय लोगों की इस मंदिर में आस्था किसी का भी ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर सकती है, इसलिए नर्मदा के किनारे निमाड़ क्षेत्र में कभी जाएं तो माहेश्वर का गोबर गणेश मंदिर देखना ना भूलें
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देव शर्मा

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नमस्कार दोस्तों
आज मेरी कहानी का नाम है

((( एक नास्तिक की भक्ति ))))
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हरिराम नामक आदमी शहर के एक छोटी सी गली में रहता था।
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वह एक मेडिकल दुकान का मालिक था। सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी, दस साल का अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन सी दवाई कहाँ रखी है।
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वह इस पेशे को बड़े ही शौक से बहुत ही निष्ठा से करता था। दिन-ब-दिन उसके दुकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकों को वांछित दवाइयों को सावधानी और इत्मीनान होकर देता था।
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उसे भगवान पर कोई भरोसा नहीं था वह एक नास्तिक था,
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खाली वक्त मिलने पर वह अपने दोस्तों के संग मिलकर घर या दुकान में ताश खेलता था।
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एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने दुकान में आए और अचानक बहुत जोर से बारिश होने लगी, बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था।
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बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे।
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तभी एक छोटा लड़का उसके दूकान में दवाई लेने पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था।
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हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिश में आए हुए उस लड़के पर उसकी नजर नहीं पड़ी।
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ठंड़ से ठिठुरते हुए उस लड़के ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए कहा- “साहब जी मुझे ये दवाइयाँ चाहिए, मेरी माँ बहुत बीमार है, उनको बचा लीजिए.
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बाहर और सब दुकानें बारिश की वजह से बंद है। आपके दुकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जाएगी। यह दवाई उनके लिए बहुत जरूरी है।
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इस बीच लाइट भी चली गई और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी,
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उस लड़के की पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिराम ने दवाई के उस पर्चे को हाथ में लिया और दवाई लेने को उठा,
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ताश के खेल को पूरा न कर पाने के कारण अनमने से अपने अनुभव से अंधेरे में ही दवाई की उस शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया।
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उस लड़के ने दवाई का दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकी के पैसे भी अपनी जेब में रख लिया।
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लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकान को जल्दी बंद करने की सोच रहा था।
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थोड़ी देर बाद लाइट आ गई और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाई की शीशी समझकर उस लड़के को दिया था, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा है,
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जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था, और ताश खेलने की धुन में उसने अन्य दवाइयों के बीच यह सोच कर रख दिया था कि ताश की बाजी के बाद फिर उसे अपनी जगह वापस रख देगा।
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अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस साल की नेकी पर मानो जैसे ग्रहण लग गया।
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उस लड़के बारे में वह सोच कर तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई उसने अपनी बीमार माँ को देगा, तो वह अवश्य मर जाएगी।
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लड़का भी बहुत छोटा होने के कारण उस दवाई को तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा।
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एक पल वह अपनी इस भूल को कोसने लगा और ताश खेलने की अपनी आदत को छोड़ने का निश्चय कर लिया पर यह बात तो बाद के बाद देखी जाएगी। अब क्या किया जाए ?
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उस लड़के का पता ठिकाना भी तो वह नहीं जानता। कैसे उस बीमार माँ को बचाया जाए ?
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सच कितना विश्वास था उस लड़के की आंखों में। हरिराम को कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जाने की उसकी इच्छा अब ठंडी पड़ गई। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए था।
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घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा। पहली बार उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके पिता ने जिद्द करके भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर दुकान के उदघाटन के वक्त लगाई थी,
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पिता से हुई बहस में एक दिन उन्होंने हरिराम से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप मानने और पूजने की मिन्नत की थी।
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उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है।
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हरिराम को यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्ति को आज़माना चाहा।
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उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने कर जोड़कर, आंखें बंद करते हुए पूजते देखा था।
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उसने भी आज पहली बार कमरे के कोने में रखी उस धूल भरे कृष्ण की तस्वीर को देखा और आंखें बंद कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।
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थोड़ी देर बाद वह छोटा लड़का फिर दुकान में आया। हरिराम को पसीने छूटने लगे। वह बहुत अधीर हो उठा।
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पसीना पोंछते हुए उसने कहा- क्या बात है बेटा तुम्हें क्या चाहिए ?
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लड़के की आंखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- बाबूजी.. बाबूजी माँ को बचाने के लिए मैं दवाई की शीशी लिए भागे जा रहा था, घर के करीब पहुँच भी गया था,
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बारिश की वजह से ऑंगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिर कर टूट गई। क्या आप मुझे वही दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी ? लड़के ने उदास होकर पूछा।
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हाँ ! हाँ ! क्यों नहीं ? हरिराम ने राहत की साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई !
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पर उस लड़के ने दवाई की शीशी लेते हुए कहा, पर मेरे पास तो पैसे नहीं है, उस लड़के ने हिचकिचाते हुए बड़े भोलेपन से कहा।
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हरिराम को उस बिचारे पर दया आई। कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ। जाओ जल्दी करो, और हाँ अब की बार ज़रा संभल के जाना। लड़का, अच्छा बाबूजी कहता हुआ खुशी से चल पड़ा।
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अब हरिराम की जान में जान आई। भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरे तस्वीर को लेकर अपनी धोती से पोंछने लगा और अपने सीने से लगा लिया।
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अपने भीतर हुए इस परिवर्तन को वह पहले अपने घरवालों को सुनाना चाहता था।
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जल्दी से दुकान बंद करके वह घर को रवाना हुआ। उसकी नास्तिकता की घोर अंधेरी रात भी अब बीत गई थी और अगले दिन की नई सुबह एक नए हरिराम की प्रतीक्षा कर रही थी…

संजय गुप्ता

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🙏🐚🔔 ऊँ नारायण 🔔🐚🙏

भगवान रक्षा करते है पर कोई उनके चरणों में भरोसा तो रखे।बहुत ही आनंद दायक प्रसंग…….जरूर पढ़े ।
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🌿 चमत्कार उसी को दिखाई देंगे जिसका भरोसा बड़ा पक्का होगा , जिसकी आस्था में कमी नहीं होगी उसको चमत्कार दिखाई देंगे ।

🌿 आपने शायद कभी सुना होगा ये प्रसंग की जब महाभारत का युद्ध प्रारम्भ हो रहा था तो उस समय इधर से पांड़वो की सेना तैयार थी उधर से कौरवो की सेना तैयार थी । दोनों सेना आपस में टकराने के लिए बिल्कुल तैयार है तो उस युद्ध क्षेत्र में एक चिड़िया के अंडे पड़े हुए थे ।

🌿 उस चिड़िया ने अभी-अभी वो अंडे दिए थे और उसकी आँखों में आंसू थे वो रो रही थी की दोनों तरफ से सेनाए टकराएंगी आपस में और मेरे ये बच्चे तो दुनिया में आने से पहले ही समाप्त हो जाएंगे तो उसने भगवान से प्राथना करी की प्रभु जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी तो आप सुनते हो

“तुझसे ना सुलझे तेरे उलझे हुए धंधे
तो मेरे बांके बिहारी पे छोड़ दे बन्दे
वो ही तेरी मुश्किल आसान करेंगे
और जो तू ना कर सका वो मेरे भगवान करेंगे”

🌿 उस छोटी सी चिड़िया ने भगवान से प्रार्थना की है की प्रभु अब तो आप ही कुछ कर सकते हो और बस उसी समय युद्ध प्रारम्भ हुआ । दोनों सेनाए टकराई आपस में , भीषण युद्ध हुआ ।

🌿 महाभारत के उपरांत अर्जुन के रथ को लेकर श्री कृष्ण उस कुरक्षेत्र की भूमि से निकलकर जा रहे है , पांडव जीत चुके थे । भगवान अर्जुन के रथ को लेकर जा रहे है तो नीचे एक घंटा पड़ा हुआ है युद्ध क्षेत्र में और भगवान के हाथ में घोड़ो को हांकने वाला चाबुक है तो प्रभु ने उस पड़े हुए घंटे पे जोर से उस चाबुक को मारा तो वो घंटा पलट गया और जैसे ही वो घंटा पलटा तो उसके अंदर से चिड़िया के बच्चे फुदकते हुए निकले और उड़कर वहां से चले गए ।

ये सच्ची घटना है महाभारत में ये प्रसंग आया है

🌿 अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ और अर्जुन भगवान को बोला की केशव ये में क्या देख रहा हूँ इतना भीषण युद्ध जो न पहले हुआ ,न आगे शायद होगा ऐसा ये महाभारत युद्ध जिसमे भीष्म पितामह जैसे योद्धा नहीं बचे , जिस महाभारत में दुर्योधन जैसे बलशाली नहीं बचे , द्रोणाचार्य जैसे धनुर्धारी नहीं बचे इतना भीष्ण महाभारत ऐसे महाभारत में इन चिड़िया के बच्चों की रक्षा किसने की ? तो भगवान हसके बोले अर्जुन अभी भी नहीं समझा अरे पागल जिसने तुझे बचाया है उसने ही तो इनको बचाया है ।

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संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

पाषाण पिघला
मैं जब शादी होकर ससुराल आई , तो मैंने देखा वहां पर मेरी बड़ी ननद का राज चलता है । और हर कोई उन्हीं की बात मानता था , कोई उनके सामने किसी बात पर बहस नहीं करता था । मैंने अपने पति से बात करने की कोशिश की थी , उन्होंने यही कहा कि “वह जो बोले वह काम कर दो बाकी तुम्हें कुछ बोलने की जरूरत नहीं है अगर वह गलत भी बोलेगी तो हां कह देना” मुझे यह समझ में नहीं आता कि ऐसा क्या है कि हर कोई उनसे डरता है कोई भी उनको कोई बोल नही सकता वह रूठ जाती थी, यहां तक की मेरे सास ससुर भी उनकी बातें मानते थे । वह जॉब करती थी। मुझे वह पत्थर दिल लगती थी । वे मुुुझसे ज्यादा बात भी नहीं करती थी । उनका एक रूटिन बना था उसमें कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता था वह 6:00 बजे उठ कर घूमने जााती थी 8:00 बजे उन्हें नाश्ता चाहिए था पेपर के साथ चाय नाश्ता करनेे के बाद 10:00 बजे ऑफिस जाती थी ।ऑफिस से 4:00 बजे वापस आती थी । और आकर आराम कुर्सी पर आराम करती थी शाम को टहलने निकलती थी उसके बाद 9:00 बजे सो जाती थी उनका पूरा रूटीन था और सब काम टाइम टेेेेबल से ही करती थी ।मगर वह वह घर का कोई काम नही करती थी । वह मिजाज बड़ी सख्त थी मैंने बहुत कोशिश करी ऐसा क्या कारण है दीदी का ऐसा रूखा व्यवहार है और सभी लोग उनकी बात मानते हैं , मगर मुझेे समझ में नही आता था ।

मुझे उनसे नफरत होने लगी थी ।

एक दिन घर पर कोई नहीं था और मेरी मौसी सास आई । जब मैंने उनसे इस बारे में पूछा उन्होंने बताया राधिका (यह हमारी दीदी का नाम था) पहले ऐसी नहीं थी वह बहुत ही मिलनसार लड़की थी और सब से मिलजुल कर रहती थी सबका काम करती थी । फिर उसकी शादी की उम्र हुई तो अच्छा लड़का और परिवार देखकर उसकी शादी भी कर दी। दीदी का परिवार बहुत अच्छा था। वो लोग दीदी को भी बहुत मानते थे । मगर 2 साल तक होने बच्चे नहीं हुए दोनों ने डॉक्टर से जांच करवाई तब पता चला कि दीदी के गर्भाशय में बीमारी है जिस वजह से उन्हें बच्चे नहीं हो सकते । यह बात जाानकर उनके पति और ससुराल वालों ने,…. जो वह ससुराल वाले जो दीदी को बहुत प्यार करते थे दीदी के बिना उनका काम नहीं चलता था, उन्होंने उन्होंने दीदी को घर से निकाल दिया और उन से तलाक ले लिया इस दौरान उन्होंने इतना इतना कुछ सहा कि वह इतनी रूखी हो गई है और किसी से बात नहीं करती हमारी इतनी अच्छी राधिका मिलनसार राधिका की जगह इस रूखी राधिका की ने ले ली ।सभी लोग इसीलिए राधिका की बात मान लेते हैं क्योंकि वह अंदर से बहुत टूटी हुई है और आकाश भी उसको बहुत मानता है उसने इसीलिए तुम्हें नहीं बताया कि तुम उसे बेचारी न समझो , नौकरी भी राधिका इसीलिए करती है कि कोई उसको बेचारी कहकर नहीं पुकारे , मगर उसके व्यवहार के लिए क्या करें यह किसी को समझ में नहीं आता हम सब जानते हैं कि अंदर से वो बहुत ही मासूम है। मगर यह नही पता कि हमारी पहले वाली राधिका कैसे लाए ।

    मैंने जब यह बातें सुनी तुम हो मेरे मन में दीदी के लिए बहुत ही सम्मान पैदा हो गया , कि यह सब दीदी अपने स्वाभिमान के लिये करती है ताकि कोई भी उन्हें बेचारी ना कहें । और वह सर उठा कर रहे ।

   उसके बाद जब आकाश आये तो मैंने उनसे यह बात बताई कि, मुझे मौसी से सब बात पता चल गई है..........               उस समय बात करते-करते आकाश की आंखों से भी आंसू आ गए मैं समझ गई थी वह अपनी बहन से बहुत प्यार करते हैं । मगर मुझे समझ में नहीं आ रहा था हम क्या करें जिससे दीदी के व्यवहार में थोड़ी नरमी आए ।

अब मैं उनसे ज्यादा से ज्यादा बात करने लगी । पहले तो मैं खुद ही उन्हें पसंद नहीं करती थी इसलिए मैं ज्यादा बात नहीं करती थी मगर अब मैं खुद ही उनसे बात करने लगी हर काम के बारे में उनसे पूछने लगी , मगर उनका व्यवहार वैसा ही था वह हाँ ना के अलावा कोई जवाब नहीं देती थी वह ज्याद सजती संवरती भी नहीं थी। बिल्कुल सादी रहती थी मैं उन्हें कितनी बार बाजार जाने का भी कहती , घूमने का कहती मगर वह मेरे साथ कभी नहीं जाती मुझे समझ में नहीं आ रहा था किस तरह में उनका व्यवहार चेंज करु ।

  इसी बीच पता चला कि मैं गर्भवती हूं सभी लोग मेरा बहुत ख्याल रखने लगे मगर राधिका दीदी मुझसे दूर ही दूर रहती थी । एक दिन हम सब बैठे ऐसे ही बातें कर रहे थे आकाश कह रहे थे उन्हें बेटा चाहिए मम्मी जी पापा जी बातें कर रहे थे और इसी बीच मैंने कहा कि मुझे बेटी चाहिए बिल्कुल राधिका दीदी जैसी , इसके साथ ही मैंने राधिका दीदी की तरफ देखा , तो मैंने देखा कि उनके चेहरे पर भाव आ रहे हैं तुरंत उठ कर चली गई । सब ने समझा उसकी आदत है । पर मुझे रास्ता मिल गया कि मुझे क्या करना है।

 जब नौ महीने बाद मुझे प्यारी सी बिटिया हुई सब लोग बहुत खुश हो गए । राधिका दीदी भी मुझे हॉस्पिटल में देखने आयी उन्होंने कहा कुछ नहीं और बिटिया को देख कर जाने लगी मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, और कहाँ की

“दीदी यह नहीं चलेगा यह आपकी बिटिया है मैं आपको देती हूं ”

इतना कहकर मैंने दीदी के हाथ में मेरी गुड़िया देदी, दीदी की आंखों से आंसुओं की धारा की गिरने लगी , ऐसा लगा उनका इतने दिनों का जो अवसाद था वो सब बह गया । और उसी के साथ उनका रूखापन भी चला गया जब सब आये तो वह दीदी का बदला रूप देखकर बहुत खुश ही गये। उन्हें अपनी पुरानी राधिका मिल गयी थी । और आकाश गर्व भरी नजरो से मेरी तरफ देख रहे थे।

संजय गुप्ता

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संत सेवा…….

श्रीरामदास जी बूँदी नगर में रहते थे | नमक-मिर्च-गुड़ को पीठ पर लादकर फेरी लगाया करते थे | बदले में कुछ नगद पैसे और कुछ अनाज मिल जाता था | अपने काम के साथ-साथ ये राम-राम जपा करते थे और संतों की सेवा किया करते थे | एक दिन इनका सारा सामान बिक गया और बदले में अनाज ज्यादा मिला | वजन अधिक था जिस कारण इन्हें बहुत परेशानी हो रही थी |
तभी भक्तवत्सल प्रभु एक किसान का वेष धरकर आये और इनसे बोले कि वे बूँदी ही जा रहे हैं, उन्हें भार उठाने की आदत है, अतः ये उन्हें भार दे दें | सच में भार तो केवल प्रभु ही उठा सकते हैं | उन्हीं को सारा भार सौंप देना चाहिए | हम अपने मन से बहुत सारा भार उठाये फिर रहे हैं (अनेक प्रकार की चिंताएँ कर रहे हैं), उन्हें प्रभु को ही दे देना चाहिए | प्रभु ने इनसे अनाज की गठरी ली और बहुत तेज गति से चलते हुए इनकी आँखों से ओझल हो गए |
इनके मन में विचार आया कि इस व्यक्ति को तो ये जानते ही नहीं थे, कहीं वो सामान लेकर भाग न गया हो | तुरंत दूसरा विचार आया कि जो भी हो राम जी जानें, हम तो भार मुक्त हो गए, अब आराम से राम भजन करते हुए चलें | मार्ग में इन्हें विचार आया कि यदि स्नान को गरम पानी मिल जाए तो कितना अच्छा हो, साथ में कढ़ी-फुल्के का भोग लगे तो और भी आनन्द हो |
इधर किसान वेशधारी भगवान इनके घर पहुँचे | अनाज की बोरी रखी और आवाज़ लगाकर इनकी स्त्री से कहा कि भगत जी आ रहे हैं | उनके लिये पानी गरम कर दो और भोग के लिये कढ़ी-फुल्के तैयार कर दो, ऐसा उन्होंने कहलवाया है | जब श्रीरामदास जी घर पहुँचे तो देखा कि अनाज की बोरी रखी है | स्त्री ने कहा कि गरम पानी तैयार है | साथ में कढ़ी भी बन गयी है और जब तक प्रभु को भोग लगाने का अवसर आयेगा तबतक फुल्के भी तैयार हो जायेंगे |
इन्होंने पूछा कि पत्नी को यह सब कैसे पता चला तो उसने बताया कि जो व्यक्ति बोरी रख गया था, उसी ने बताया | इनको समझते देर नहीं लगी कि वो किसान और कोई नहीं स्वयं श्रीभगवान ही थे | इन्होंने ध्यान किया तो प्रभु ने कहा- ‘तुम नित्य संत-सेवा करते हो, बड़ी मेहनत करते हो, मैंने थोड़ी सी सहायता कर दी तो क्या हो गया |’ ये प्रभु के प्रेम में डूब गए
देखिये, संत-सेवा का कितना बड़ा फल है | हमसे जितना हो सके उतनी संत-सेवा करें | संत-सेवा करने से भगवंत पास आ जाते हैं |

संजय गुप्ता

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विश्वास
सुबह के सौ कामों के बीच मैं लगातार बजने वाली कॉलबेल को अनसुना कर रही थी, लेकिन जब किसी ने भी दरवाज़ा नहीं खोला, तो मुझे ही गैस बंद करके जाना पड़ा. वहां मैंने जिसे देखा, उसे देखकर तो जैसे मुझे सांप ही सूंघ गया. दरवाज़े से हटने की सामान्य औपचारिकता भी भूल गई मैं. वह सुगंधा थी, मेरी जेठानी की छोटी बहन. वर्षों बाद मैं उसे देख रही थी. वह पहले से अधिक ख़ूबसूरत और आकर्षक लग रही थी. टाइट जींस और शॉर्ट टॉप पहने उसने घने बालों का एक बेतरतीब जूड़ा बना रखा था, जो उसे और सुंदर बना रहा था.
“रीमाजी, मैं अंदर आ जाऊं?” उसने च्युइंगम चबाते हुए पूछा. वह शायद मेरी मनोदशा भांप रही थी.
“हां-हां, क्यों नहीं?” अंदर आते ही वह जेठानी की खुली बांहों में जा गिरी.
“ओह दीदी! एक अर्से बाद तुम्हें देख रही हूं.”
“तू तो यहां का रास्ता ही भूल गई?”
“याद तो सबकी आती थी, बस मौक़ा ही नहीं मिला. जीजाजी कहां हैं? हंसी और ख़ुशी किस कोने में छुपी हैं और आपके लाडले देवर?”
‘लाडले देवर’ की जिज्ञासा ने मेरा मूड चौपट कर दिया. मैं शंकित थी. कुछ ही देर में हंसी-ख़ुशी, रुचि, मॉन्टी सब उसे घेरकर बैठ गए. जेठजी सुगंधा की पसंद की दुकान से गरम कचौड़ी और गुलाब जामुन लाने चल दिए. मैं चाय बनाने लगी, बच्चे उससे चिपके बैठे थे. सुगंधा ने उनका स्कूल जाना कैंसल कर दिया. तभी मेरे पति प्रीतम वहां आए. सबने उनका स्वागत किया. सुगंधा बोली, “प्रीतम, तुम्हारी देर से सोकर उठने की आदत अब तक नहीं गई?”
“कुछ आदतें ज़िंदगीभर नहीं छूटतीं.” प्रीतम बोले.
“सचमुच?” वह रहस्यपूर्ण अंदाज़ में खिलखिलाई. बातें करते-करते बेख़्याली में सुगंधा ने बालों की क्लिप निकाल दी. झप् से ढेर सारे काले बाल उसके चेहरे, कंधों व पीठ पर गिर आए. बीच में उसका गौरवर्ण अंडाकार चेहरा बादलों के बीच चांद का भ्रम उत्पन्न करने लगा. प्रीतम ने उस पर एक भरपूर नज़र डाली. सुगंधा शायद यही चाहती थी. वह विजयी भाव से मुस्कुराने लगी.
मेरा दिल किसी अनहोनी की आशंका से कांपने लगा. मैं सबके बीच अनिच्छित रूप से खिसियानी मुस्कुराहट लिए बैठी थी. फिर उठकर रसोई में आ गई, जहां मेरा एकछत्र साम्राज्य था. जेठानी आकर सुगंधा की पसंद बता गई थीं. बच्चे तो स्कूल गए नहीं थे. सुगंधा, जेठजी और प्रीतम से भी न जाने का अनुरोध करने लगी, किंतु वे दोनों खा-पीकर क्षमायाचना करके ऑफ़िस चले गए.
उनके जाने के बाद मैंने राहत की सांस ली कि चलो अब प्रीतम सुगंधा के बाणों से घायल नहीं हो पाएंगे.
दोपहर में सब आराम करने चले गए. जेठानी ने मुझे रोक लिया, “छोटी, तेरी तबियत तो ठीक है?” जेठानी ने मेरा मलिन रूप देखकर पूछा.
“दीदी, सुगंधा क्यों आई है?” मैंने साफ़-साफ़ पूछा.
“अरे, हम सबसे मिलने आई है, यह भी कोई बात हुई पूछने की? तू निश्चिंत रह, वो बस घूमने-फिरने आई है. कोई ऐसी बात नहीं है, जैसा तू सोच रही है.” जेठानी मेरी मनोदशा समझ रही थीं.
मैं अपने कमरे में आ गई. सुगंधा अक्सर अपनी बहन और जीजाजी से मिलने पहुंच जाती थी. उसी दौरान उसे प्रीतम से प्यार हो गया. प्रीतम भी उस पर जान छिड़कने लगे थे. उनके प्यार को पूरे परिवार की स्वीकृति मिली, बस विवाह की मुहर लगनी बाकी थी. मगर इसी बीच उन दोनों में झगड़ा हो गया. कारण कोई अरबपति व्यवसायी था, जो न्यूयॉर्क में रहता था. झगड़े ने इतना तूल पकड़ा कि सुगंधा चट मंगनी पट ब्याह करके उस व्यवसायी के साथ न्यूयॉर्क चली गई.
प्रीतम सुगंधा की याद में पागल-से हो गए थे. अक्सर ऑफ़िस से छुट्टी लेकर निरुद्देश्य घर में पड़े रहते. इस बीच लंबी बीमारी के बाद पिता की मृत्यु ने उन्हें अंदर तक झिंझोड़ दिया. पिता की मृत्यु से बिस्तर पकड़ चुकी उनकी मां ने उनसे शादी का वचन लिया और बेमन से प्रीतम ने मुझसे शादी कर ली. मैंने भी धैर्य का परिचय दिया. प्यार व सहानुभूति का मरहम प्रीतम के दिल पर रखा. छोटे-छोटे वाक्यों से हमारी बोलचाल शुरू हुई. उनके सभी काम में उनकी मदद करते-करते मैंने उनके अभेद्य किले में सेंध लगानी शुरू की. फिर घर की छोटी-बड़ी हर चीज़ के लिए वे मुझ पर निर्भर हो गए.
तभी प्रीतम की माताजी गुज़र गईं और बुरी तरह से टूटे प्रीतम को मैंने संभाला. वे छोटे बालक की तरह मेरी बातें सुनते, समझते और धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को ज़िंदगी की लय में ढाल लिया.
प्रीतम मेरे धैर्य और समझदारी के कायल हो गए थे और शादी के दस महीने बाद आख़िरकार उन्होंने मुझे स्वीकारा. वे टूटकर चाहनेवाले पति और बहुत परवाह करनेवाले साथी सिद्ध हुए. उन्होंने मुझे रुचि और मॉन्टी के रूप में प्यार की दो सौग़ातें भी दीं.
सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था कि अचानक इस काली आंधी ने मेरे जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया. जो व्यक्ति सुगंधा की अनुपस्थिति में इतना दीवाना-सा घूमता रहता था, वह उसे अपने पास पाकर कितना मोहित हो जाएगा, क्या पता? इन संशयों के बीच हमारे प्रेम-विश्वास की एक क्षीण-सी प्रकाश रेखा भी थी.
शाम को देखा, तो सुगंधा आकर्षक साड़ी, ज़ेवर व मेकअप में थी. सामने प्रीतम और जेठजी बैठे थे. जेठानी चाय के साथ पकौड़े तलकर ला रही थी. ऑफ़िस से लौटे दोनों भाइयों को सुगंधा इसरार से पकौड़े खिला रही थी. एक की विगत प्रेमिका और एक की साली, भला महफ़िल में जान क्यों न पड़ती?
“अरे रीमा, तू उठ गई? आ, चाय पी.” जेठानी ने बुलाया, पर पता नहीं क्यों मुझे लगा कि सुगंधा को मेरा आना अच्छा नहीं लगा. बोली, “आप सो रही थीं, इसलिए हमने आपको जगाया नहीं.”
सुगंधा के पॉलिश्ड डायलॉग का छिपा अर्थ था, “तुम्हारी यहां कोई ज़रूरत ही नहीं थी.” सजी-धजी सुगंधा के सामने मैं फीकी लग रही थी. सिलवटग्रस्त साड़ी, बेतरतीब बाल और रंग उड़ा चेहरा.
घूमने का प्रोग्राम बना. मैं सिरदर्द का बहाना बनाकर कमरे में आ गई. अचानक हवा की तरह प्रीतम अंदर आए, “तुम्हें क्या हो गया है? सुबह से मुंह उतारे घूम रही हो? चलो तैयार हो जाओ.”
“मैं रंग में भंग डालना नहीं चाहती. आप लोग हो आइए.”
इस बीच प्रीतम-प्रीतम रट लगनी शुरू हो गई, जिसमें सबसे ऊंची आवाज़ सुगंधा की थी. प्रीतम मुझे ग़ुस्से में घूरते हुए चले गए. मुझे रोना आने लगा.
कई दिन बीत गए. रोज़ ही पिकनिक, शॉपिंग व मूवी देखने का कार्यक्रम बनता. सुगंधा पर मेरा संदेह बढ़ने लगा और एक दिन मेरा संदेह सच में बदल गया. शाम को मुझे याद आया कि छत पर सूखे कपड़े पड़े हैं. मैं छत पर पहुंची, उसके तुरंत बाद मैंने देखा, सुगंधा प्रीतम का हाथ पकड़कर लगभग उसे घसीटते हुए लेकर चली आ रही है. मैंने तुरंत स्वयं को तार पर फैली चादर की ओट में कर लिया.
“क्या बात है सुगंधा, यहां क्यों लेकर आई हो तुम मुझे?” यह प्रीतम थे.
“तुमसे कुछ व्यक्तिगत बातें करनी हैं.” सुगंधा ने कहा.
“व्यक्तिगत बातें?” प्रीतम के स्वर की उत्सुकता ने मेरे मन में शंकाओं के तूफ़ान खड़े कर दिए. रिश्तों की किरचियां मेरे अंग-प्रत्यंग में नश्तर चुभो रही थीं.
सुगंधा प्रीतम से कहने लगी, “प्रीतम, विवेक से शादी मेरे जीवन की बहुत बड़ी भूल थी. यह मुझे बाद में पता चला. सात वर्ष असफल वैवाहिक जीवन काटे हैं मैंने और तुमने भी तो मेरे बिना ये सात वर्ष अप्रिय वातावरण में ही बिताए हैं न? अब हम नए सिरे से जीवन शुरू करेंगे.” सुगंधा के स्वर में प्रीतम को तुरंत पा लेने की व्याकुलता थी.
“अप्रिय वातावरण? किसने कहा सुगंधा? मेरे दो प्यारे बच्चे हैं, पत्नी है और मैं उनके साथ बहुत ख़ुश हूं.”
“इस तरह झूठ बोलकर तुम स्वयं को धोखे में रख सकते हो, मुझे नहीं.”
“सुगंधा, मैं अपने संसार में सुखी और संतुष्ट हूं. तुम एक विवाहिता स्त्री हो मेरे लिए, उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं.”
“प्लीज़ प्रीतम, ऐसे मत कहो, मैं तुम्हारे बिना मर जाऊंगी. क्या तुम वो पल भूल गए, जब मुझसे एक मिनट की दूरी भी बर्दाश्त नहीं होती थी तुम्हें?”
“जब एक पल बर्दाश्त न होने जैसी बात थी, तब तो तुम विदेश में बसने और धन के लालच में किसी और से शादी करके चली गई थी.”
“तुम्हारा ग़ुस्सा जायज़ है, पर मैं नहीं समझ पा रही हूं कि एक लादे हुए रिश्ते को तुम क्यों ढो रहे हो? क्या मजबूरी है तुम्हारी? मैंने सोचा था कि मेरे प्रस्ताव पर तुम ख़ुशी से मुझे गले लगा लोगे.”
“यह ख़ुशफ़हमी है तुम्हारी, तुम अपने रूप का गर्व दिखा रही हो. इसके अलावा तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं. तुम दोनों की यदि तुलना की जाए, तो रीमा तुमसे बहुत आगे निकल जाएगी. तुम आत्मकेंद्रित, स्वार्थी व मौक़ापरस्त हो और वह त्याग, स्नेह व प्रेम की प्रतिमूर्ति है.”
“तुम मेरा अपमान कर रहे हो.”
“तुमने सम्मान की गुंजाइश ही कहां रखी. रीमा से मेरी शादी मेरी अनिच्छा से ज़रूर हुई, पर उसने अपने धैर्य, प्रेम और सहनशक्ति से मुझे जीत लिया. उसने मुझे अवसाद, निराशा से उबारा. मुझे जीवन की सौग़ात दी और तुम मेरे बसे-बसाए घर को उजाड़ने आई हो? मैं सोचता था कि तुम निश्छल मन से अपनी बहन के घर आई हो, किंतु उसके पीछे क्या उद्देश्य था, यह तो आज पता चला.”
सुगंधा के सारे अस्त्र नाकाम हो गए. वह फूट-फूटकर रोने लगी. प्रीतम आराम से नीचे आ गए.
मेरे विश्वास की जीत हुई. मेरे तो जैसे पंख निकल आए थे. बेवजह हंस और मुस्कुरा रही थी. अब मैं सजी-धजी थी और सुगंधा रंग उड़े चेहरे और बेतरतीब वस्त्रों में, अन्य सभी सामान्य थे.
अगले दिन अपने जाने की घोषणा करके सुगंधा ने सबको चकित कर दिया.
पूरे घटनाक्रम के बारे में प्रीतम ने मुझे कुछ बताया नहीं, न ही मैंने उनसे कुछ पूछा. घर के सदस्य भी सारी बातों से अनभिज्ञ थे कि किस तरह मेरी दुनिया बिखरने से बच गई. सब कुछ वैसे ही चलता रहा, प्रीतम के प्यार में दिनोंदिन बढ़ोतरी हुई, मेरा विश्वास और अधिक पुख्ता हो गया.

संजय गुप्ता

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स्वार्थी जीवन मृत्यु से बुरा है।

• यूनान के संत सुकरात कहा कहते थे कि “यह पेड़ और आरण्य मुझे कुछ नहीं सिखा सकते, असली शिक्षा तो मुझे सड़कों पर मिलती है।” उनका तात्पर्य यह था कि दुनिया से अलग होकर एकान्त जीवन बिताने से न तो परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और न आत्मोन्नति हो सकती है। अपनी और दूसरों की भलाई के लिए संत पुरुषों को समाज में भरे बुरे लोगों के बीच में अपना कार्य जारी रखना चाहिये।

• संत सुकरात जीवन भर ऐसी ही तपस्या करते रहे। वे गलियों में, चौराहों पर, हाट बाजारों में, दुकानों और उत्सवों में बिना बुलाये पहुँच जाते और बिना पूछे भीड़ को संबोधित करके अपना व्याख्यान शुरू कर देते। उनका प्रचार तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों और अनीतिपूर्ण शासन के विरुद्ध होता, उनके अन्तःकरण में सत्य था। सत्य में बड़ी प्रभावशाली शक्ति होती है। उससे अनायास ही लोग प्रभावित होते हैं।

• उस देश के नवयुवकों पर सुकरात का असाधारण असर पड़ा, जिससे प्राचीन पंथियों और अनीतिपोषक शासकों के दिल हिलने लगे, क्योंकि उनके चलते हुए व्यापार में बाधा आने की संभावना थी। सुकरात को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमा चला जिसमें दो इल्जाम लगाये गए। १. प्राचीन प्रथाओं का खंडन करना, २. नवयुवकों को बरगलाना। इन दोनों अपराधों में विचार करने के लिये न्याय सभा बैठी, सभासदों में से २२० की राय छोड़ देने की थी और २८१ की राय मृत्यु दंड देने की हुई। इस प्रकार बहुमत से मृत्यु का फैसला हुआ। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि वह देश छोड़ कर बाहर चले जायँ या व्याख्यान देना, विरोध करना बन्द कर दे तो मृत्यु की आज्ञा रद्द कर दी जायेगी।

• सुकरात ने मुकदमे की सफाई देते हुए कहा-”कानून मुझे दोषी ठहराता है। तो भी मैं अपने अन्तरात्मा के सामने निर्दोष हूँ। दोनों अपराध जो मेरे ऊपर लगाये गये हैं, मैं स्वीकार करता हूँ कि वे दोनों ही मैंने किये हैं और आगे भी करूंगा। एकान्त सेवन करके मुर्दे जैसा बन जाने का निन्दित कार्य कोई भी सच्चा संत नहीं कर सकता। यदि मैं घोर स्वार्थी या अकर्मण्य बन कर अपने को समाज से पृथक कर लूँ और संसार की भलाई की तीव्र भावनाएँ जो मेरे हृदय में उठ रही हैं, उन्हें कुचल डालूँ तो मैं ब्रह्म हत्यारा कहा जाऊंगा और नरक में भी मुझे स्थान न मिलेगा। मैं एकान्तवासी, अकर्मण्य और लोक सेवा से विमुख अनुदार जीवन को बिताना मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक समझूंगा। मैं लोक सेवा का कार्य बन्द नहीं कर सकता, न्याय सभा के सामने मैं मृत्यु को अपनाने के लिये निर्भयतापूर्वक खड़ा हुआ हूँ।”

• संसार का उज्ज्वल रत्न, महान दार्शनिक संत सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा। उसने खुशी से विष को होठों से लगाया और कहा-”स्वार्थी एवं अनुपयोगी जीवन बिताने की अपेक्षा यह प्याला मेरे लिये कम दुखदायी है।” आज उस महात्मा का शरीर इस लोक में नहीं है, पर लोक सेवा वर्ग का महान् उपदेश उसकी आत्मा सर्वत्र गुँजित कर रही है।

संतोष चतुर्वेदी

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🙏🙏 एक सत्संगी था, उसका भगवान पर बहुत विश्वास था वो बहुत साधना , सिमरन करता था | सत्संग पे जाता था, सेवा करता था, उस पर गुरु जी की इतनी कृपा थी कि उसको साधना पर बैठते ही ध्यान लग जाता था | 🙏🙏

🙏🙏 एक दिन उसके घर तीन डाकू आ गए और उसके घर का काफी सामान लूट लिया और जब जाने लगे तो सोचा कि मार देना चाहिए नहीं तो ये सबको हमारे बारे में बता देगा | ये सुनकर वो सत्संगी घबरा गया और बोला तुम मेरे घर का सारा सामान नकदी, जेवर, …सब कुछ ले जाओ लेकिन मुझे मत मारो, उन लूटेरो ने उसकी एक ना सुनी और बन्दूक उसके सर पर रख दी, सत्संगी बहुत रोया गिड़-गिड़ाया कि मुझे मत मारो, लेकिन लुटेरे नहीं मान रहे थे..🙏🙏

🙏🙏 तभी सत्संगी ने उनसे कहा कि मेरी आखिरी इच्छा पूरी कर दो, लुटेरो ने कहा ठीक है। सत्संगी फ़ौरन कुछ देर के लिए ध्यान पर बैठ गया..🙏🙏

🙏🙏 उसने अपने गुरु को याद किया और थोड़ी ही देर में गुरु जी ने उसे दर्शन दिए और दिखाया कि पिछले तीन जन्मो में तुमने इन लुटेरो को एक एक करके मारा था आज वो तीनो एक साथ तुम्हे मरने आये है और मैं चाहता हूँ कि तुम तीनो जन्मो का भुगतान इसी जन्म में कर दो
ये सुनकर सत्संगी उठ खड़ा हुआ और लुटेरो कि बन्दूक अपने सर पर रख के हस्ते हुए बोला कि अब मुझे मारदो, अब मुझे मरने कि कोई परवाह नहीं है। 🙏🙏

🙏🙏 ये सुन कर लुटेरे हैरान हो गए और सोचा कि अभी तो ये रो रहा था कि मुझे मत मारो और अब इसे २० मिनट में क्या हो गया तो उन्होंने उस सत्संगी से पूछा कि आखिर इतनी सी देर में ऐसा क्या हुआ कि तुम ख़ुशी से मरना चाह रहे हो तो उस सत्संगी ने सारी बात उन लुटेरो को बता दी..🙏🙏

🙏🙏 ये सुनकर लुटेरो ने अपने हथियार सत्संगी के पैरो में डाल दिए और हाथ जोड़ कर विनती करने लगे कि हम तुम्हे नहीं मरेंगे बस इतना बता दो कि तुम्हारे गुरु कौन है तो उसने अपने गुरु जी के बारे में बता दिया। उसके बाद वो लोग भी सब कुछ छोड़कर सत्संगी बन गए..🙏🙏

🙏🙏 इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि वह गुरु हर पल हमारी रक्षा करता है दुःख भी देता है तो हमारे भले के लिए
_ इसलिए हर पल उस गुरु का शुक्र करना चाहिए फिर चाहे वो_
_ परम पिता जिस हाल में भी रखे_
हर पल हर स्वांस शुकराना गुरु जी…..!! 🙏🙏

🙏🙏 सतनाम वाहेगुरु जी……🙏🙏

ज्योति अग्रवाल

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भाग्य

यात्रियों से भरी बस चली जा रहा थी, जब अचानक मौसम बदला और भारी बारिश चालू हो गयी और बिजली भी चारों तरफ चमकने लगी ।

सभी देख रहे थे कि बिजली कभी भी बस को चपेट में ले सकती है ।

रोशनी से बचने के 2 या 3 कठिन प्रयास के बाद, चालक ने पेड़ से पचास फुट की दूरी पर बस बंद कर कहा –

“हमारे पास बस में कोई है जिसकी मृत्यु आज निश्चित है।”

उस व्यक्ति की वजह से बाकी सब लोग आज भी मारे जाएंगे।

अब ध्यान से सुनिये जो मैं कह रहा हूं ..

मैं चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति बस से उतर एक एक कर बाहर जाकर पेड़ के तने को स्पर्श करे और वापस आ जाए।

“जिसकी मौत निश्चित है वह बिजली से पकड़ा जाएगा और मर जाएगा और बाकी सभी को बचा लिया जाएगा “।

उसने पहले व्यक्ति को जाने और पेड़ को छूने और वापस आने के लिये कहा ।

वह अनिच्छा से बस से उतर गया और पेड़ को छुआ।

उसका दिल प्रसन्न हो गया जब कुछ भी नहीं हुआ और वह अभी भी जीवित था।

यही क्रम बाकी यात्रियों के लिए जारी रहा और उन सभी को राहत मिली जब वे पेड़ को छु कर लौटे और कुछ भी नहीं हुआ।

लेकिन जब आखिरी यात्री की बारी आई, तो सभी उसे आँखों से घूरने लगे ।

वह यात्री बहुत डर गया और अनिच्छुक था क्योंकि वही केवल अकेला बचा था।

सभी ने उसे नीचे उतरने और जाने और पेड़ को छूने के लिए मजबूर किया।

मृत्यु के 100% भय के साथ, अंतिम यात्री पेड़ के पास गया और उसे छुआ।

उसी समय वहाँ गड़गड़ाहट की एक बड़ी आवाज़ गूँजी और बिजली ने बस को चपेट में ले लिया – हां, बिजली के चपेट में आने से बस के अंदर सभी मारे गये।

इस घटना से यह स्पष्ट हो गया ( मानना पडेगा ) कि पूरी बस इस आखिरी यात्री की उपस्थिति के कारण सुरक्षित थी ।

कई बार, हम अपनी वर्तमान उपलब्धियों के लिए स्वयं श्रेय लेने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि यह हमारे साथ जूडे एक व्यक्ति के कारण है।शायद उस व्यक्ति की वजह से हम अपनी वर्तमान खुशी, सम्मान, प्रेम, नाम, प्रसिद्धि, वित्तीय सहायता, शक्ति, स्थिति और क्या नहीं आनंद ले रहे हैं।

अपने चारों ओर देखिए – शायद आपके माता-पिता, आपके पति या पत्नी, आपके बच्चे, आपके भाई-बहन, आपके मित्र आदि के रूप में आपके आस-पास कोई है, जो आपको नुकसान से बचा रहे हैं ..!

इसके बारे में सोचिये .. और उस आत्मा को धन्यवाद दें…|
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

यह मेरा एक पुराना और बहुत विस्तृत लेख है। कल सम्भवतः थाईलैंड का एक वीडिओ शेयर किया जिस पर अनेक मित्रों ने विरोध किया और कहा कि यह भारत नहीं है अतः आवश्यक हो गया कि भारत क्या इसको दर्शाया जाये। आइये अपने परम प्रतापी पूर्वजों का स्मरण किया जाये

   राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसका समाधान

बंधुओ, राष्ट्र के रूप में हमारी समस्या और उसके समाधान पर बहुत कुछ लिखा गया है, लिखा जाता रहेगा। मेरी दृष्टि में सबसे पहले हमें समस्या के पूरे स्कैन, उसकी निष्पत्ति और कारण को भली प्रकार से ध्यान में रखना होगा। तभी इसका समाधान सम्भव होगा।

आपने पूजा, यज्ञ करते समय कभी संकल्प लिया होगा। उसके शब्द ध्यान कीजिये। ऊँ विष्णुर विष्णुर विष्णुर श्रीमद भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञा प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्री श्वेत वराहकलपे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे पुण्यप्रदेशे ……यह संकल्प भारत ही नहीं सारे विश्व भर के हिंदुओं में लिया जाता है और इसके शब्द लगभग यही हैं। आख़िर यह जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेशे है क्या ? धर्मबंधुओ! जम्बू द्वीप सम्पूर्ण पृथ्वी है। भारत वर्ष पूरा यूरेशिया है। भरत खंड एशिया है। आर्यावर्त वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान है। आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्त बचाखुचा वर्तमान भारत है। आसिंधु सिंधु पर्यन्ता की परिभाषा आज गढ़ी गयी है। यह परिभाषा मूल भरतवंशियों के देश की परिचायक नहीं है।

वस्तुतः जम्बू द्वीप यानी सम्पूर्ण पृथ्वी ही षड्दर्शन को मानने वाली थी और इस ज्ञान का केंद्र ब्रह्मावर्त अर्थात वर्तमान भारत था। काल का प्रवाह आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व ज्ञान और संस्कृति के केंद्र वर्तमान भारत में भयानक युद्ध हुआ। जिसे हम आज महाभारत के नाम से जानते हैं और उसके बाद सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गयीं। ज्ञानज्योति ऋषि वर्ग, पराक्रमी राजा कालकवलित हुए। परिणामतः ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास रुक गया। धीरे-धीरे संस्कृति की भित्तियां ढहने लगीं। चतुर्दिक धर्म ध्वज फहराने वाले लोग भृष्ट हो कर वृषल हो गए। परिणामस्वरूप इतने विशाल क्षेत्र में फैला षड्दर्शन की महान देशनाओं का धर्म नष्ट हो गया। अनेकानेक प्रकार के मत-मतान्तर फ़ैल गये। टूट-बिखर कर बचे केवल ब्रह्मावर्त का नाम भारत रह गया। कृपया सोचिये कि सम्पूर्ण योरोप, एशिया में भग्न मंदिर, यज्ञशालाएं क्यों मिलती हैं ? ईसाइयत और इस्लाम के अपने से पहले इतिहास को जी-जान से मिटाने की कोशिश के बावजूद ताशक़न्द के एक शहर का नाम चार्वाक क्यों है ? वहां की झील चार्वाक क्यों कहलाती है ?

इस टूटन-बिखराव में पीड़ित आर्यों { गुणवाचक संज्ञा } का अंतिम शरणस्थल सदैव से आर्यावर्त के अन्तर्गत आने वाला ब्रह्मावर्त यानी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान और अब वर्तमान भारत रहा है। इसी लिए इस क्षेत्र को पुण्यभूमि कहा जाता है। जिज्ञासु मित्रों को दिल्ली के हिंदूमहासभा भवन के हॉल को देखना चाहिये। उसमें राजा रवि वर्मा की बनायी हुई पेंटिंग लगी है जिसका विषय महाराज विक्रमादित्य के दरबार में यूनानियों का आना और आर्य धर्म स्वीकार करना { हिन्दू बनना } है। ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए ही नहीं अपितु विपत्ति में भी सदैव से भरतवंशी केंद्र की ओर लौटते रहे हैं।

बंधुओ ! सदैव स्मरण रखिये कि राष्ट्र, देश से धर्म बड़ा होता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद भारत के अंदर और बाहर 60-70 से अधिक देशों का हिन्दू राष्ट्र होना सम्भावित था। जिसकी केंद्र भूमि भारत को होना था। नेपाल के प्रधानमंत्री राणा शमशेर बहादुर जंग, महामना मदनमोहन मालवीय, लाल लाजपतराय, स्वातन्त्र्यवीर सावरकर इत्यादि ने इसके लिये प्राण-प्रण से प्रयास किया था। उस समय भारत के दो हिस्सों में बंटने की कल्पना नहीं थी बल्कि प्रिंसली स्टेटों के अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में होने की कल्पना थी। कल्पना कीजिये कि यह प्रयास साकार हो गया होता तो भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, सिंगापुर, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मॉरीशस, पाकिस्तान का वर्तमान उमरकोट और न जाने कितने हिन्दू राष्ट्र विश्व पटल पर जगमगा रहे होते।

कृपया नेट पर Yazidi डालिये। आपको ईराक़-सीरिया के बॉर्डर पर रहने वाली, मोर की पूजा करने वाली जाति के बचे-खुचे लोगों का पता चलेगा। कार्तिकेय के वाहन मोर की पूजा कौन करता है ? Kafiristan डालिये। आपको पता चलेगा कि इस क्षेत्र के हिंदुओं को 1895 में मुसलमान बना कर इसका नाम nuristan नूरिस्तान रख दिया गया है। kalash in pakistan देखिये। आप पाएंगे कि आज भी कलश जनजाति के लोग जो दरद मूल के हैं पाकिस्तान के चित्राल जनपद में रहते हैं। इस दरद समाज की चर्चा महाभारत, मनुस्मृति, पाणिनि की अष्टाध्यायी में है। जिस तरह लगातार किये गए इस्लामी धावों ने अफ़ग़ानिस्तान केवल 150 वर्ष पहले मुसलमान किया, हमें क्यों अपने ही लोगों को वापस नहीं लेना चाहिए ? एक-एक कर हमारी संस्कृति के क्षेत्र केवल 100 वर्ष में धर्मच्युत कर वृषल बना दिए गये। होना तो यह चाहिये था कि हम केंद्रीय भूमि से दूर बसे अपने समाज के लोगों को सबल कर धर्मभष्ट हो गए अपने लोगों को वापस लाने का प्रयास करते। भारत के टूटने का कारण सैन्य पराजय नहीं है बल्कि धर्मांतरण है। हमने अपने समाज की चिंता नहीं की। इसी पाप का दंड महाकाल ने हमारे दोनों हाथ काट कर दिया और हम भारत के दोनों हाथ पाकिस्तान, बांग्लादेश की शक्ल में गँवा बैठे।

जो वस्तु जहाँ खोयी हो वहीँ मिलती है। हमने अपने लोग, अपनी धरती धर्मांतरण के कारण खोयी थी। यह सब वहीँ से वापस मिलेगा जहाँ गंवाया था। इसके लिए अनिवार्य शर्त अपने समाज को समेटना, तेजस्वी बनाना और योद्धा बनाना है। यह सत्य है कि विगत 200 से भी कम वर्षों में इस्लाम की आक्रमकता के कारण राष्ट्र, देश सिकुड़ा है। इस कारण अनेकों भारतीयों को स्वयं को ऊँची दीवारों में सुरक्षित कर लेना एकमात्र उपाय लगता है। इस विचार पर सोचने वाली बात यह है कि इस्लाम की आक्रमकता ने भारत वर्ष जो पूरा यूरेशिया था, के केंद्रीय भाग यानी आर्यावर्त { वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान } से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं हड़पा बल्कि शेष बचे देश में हमारे करोड़ों बंधुओं को धर्मान्तरित कर लिया है। आख़िर हम कब तक और क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे ? पराक्रम ही एकमेव उपाय है और यही हमारे प्रतापी पूर्वज करते आये हैं। इस हेतु आवश्यक है कि वास्तविक इतिहास का सिंहावलोकन किया जाये। सिंहावलोकन अर्थात जिस तरह सिंह वीर भाव से गर्दन मोड़ कर पीछे देखता है।

महाभारत में तत्कालीन भारत वर्ष का विस्तृत वर्णन है। जिसमें आर्यावर्त के केंद्रीय राज्यों के साथ उत्तर में काश्मीर, काम्बोज, दरद, पारद, पह्लव, पारसीक { ईरान }, तुषार { तुर्कमेनिस्तान और तुर्की }, हूण { मंगोलिया } चीन, ऋचीक, हर हूण तथा उत्तर-पश्चिम में बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा }, शक, यवन { ग्रीस }, मत्स्य, खश, परम काम्बोज, काम्बोज, उत्तर कुरु, उत्तर मद्र { क़ज़्ज़ाक़िस्तान, उज़्बेकिस्तान } हैं। पूर्वोत्तर राज्य प्राग्ज्योतिषपुर, शोणित, लौहित्य, पुण्ड्र, सुहाय, कीकट पश्चिम में त्रिगर्त, साल्व, सिंधु, मद्र, कैकय, सौवीर, गांधार, शिवि, पह्लव, यौधेय, सारस्वत, आभीर, शूद्र, निषाद का वर्णन है। यह जनपद ढाई सौ से अधिक हैं और इनमें उपरोक्त के अतिरिक्त उत्सवसंकेत, त्रिगर्त, उत्तरम्लेच्छ, अपरम्लेच्छ, आदि हैं। {सन्दर्भ:-अध्याय 9 भीष्म पर्व जम्बू खंड विनिर्माण पर्व महाभारत }

भीष्म पर्व के 20वें अध्याय में कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वर्णन है। जिसमें कौरव सेना के वाम भाग में आचार्य कृपा के नेतृत्व में शक, पह्लव { ईरान } यवन { वर्तमान ग्रीस } की सेना, दुर्योधन के नियंत्रण में गांधार, भीष्म पितामह के नियंत्रण में सिंधु, पंचनद, सौवीर, बाह्लीक { वर्तमान बल्ख़-बुख़ारा } की सेना का वर्णन है। सोचने वाली बात यह है कि महाभारत तो चचेरे-तयेरे भाइयों की राज्य-सम्पत्ति की लड़ाई थी। उसमें यह सब सेनानी क्या करने आये थे ? वस्तुतः यह सब सम्बन्धी थे और इसी कारण सम्मिलित हुए थे। स्पष्ट है कि महाभारत काल में चीन, यवन, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, ईराक़, सम्पूर्ण रूस इत्यादि सभी भारतीय क्षेत्र थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चीन, त्रिविष्टप, यवन { ग्रीस / हेलेनिक रिपब्लिक } हूण, शक, बाह्लीक, किरात, दरद, पारद, आदि क्षेत्रों के राजा भेंट ले कर आये थे। महाभारत में यवन नरेश और यवन सेना के वर्णन दसियों जगह हैं।

पौराणिक इतिहास के अनुसार इला के वंशज ऐल कहलाये और उन्होंने यवन क्षेत्र पर राज्य किया। यवन या वर्तमान ग्रीस जन आज भी स्वयं को ग्रीस नहीं कहते। यह स्वयं को हेलें, ऐला या ऐलों कहते हैं। आज भी उनका नाम हेलेनिक रिपब्लिक है। महाकवि होमर ने अपने महाकाव्य इलियड में इन्हें हेलें या हेलेन कहा है और पास के पारसिक क्षेत्र को यवोन्स कहा है जो यवनों का पर्याय है { सन्दर्भ:-निकोलस ऑस्टर, एम्पायर्स ऑफ़ दि वर्ड, हार्पर, लन्दन 2006, पेज 231 } होमर ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के कवि हैं अतः उनका साक्ष्य प्रामाणिक है।

सम्राट अशोक के शिला लेख संख्या-8 में यवन राजाओं का उल्लेख है। वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार, जलालाबाद में सम्राट अशोक के शिलालेख मिले हैं जिनमें यावनी भाषा तथा आरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। इन शिलालेखों के अनुसार यवन सम्राट अशोक की प्रजा थे। यवन देवी-देवता और वैदिक देवी देवताओं में बहुत साम्य है। सम्राट अशोक के राज्य की सीमाएं वर्तमान भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, ग्रीस तक थीं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28 भारतीय इतिहास कोष सच्चिदानंद भट्टाचार्य } सम्राट अशोक के बाद सम्राट कनिष्क के शिलालेख अफ़ग़ानिस्तान में मिलते हैं जिनका सम्राज्य गांधार से तुर्किस्तान तक था और जिसकी राजधानी पेशावर थी। सम्राट कनिष्क के शिव, विष्णु, बुद्ध के साथ जरथुस्त्र और यवन देवी-देवताओं के सिक्के भी मिलते हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 26-28, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार, चंद्रगुप्त वेदालंकार, दूसरा संस्करण 1969 }

ज्योतिष ग्रन्थ ज्योतिर्विदाभरण { समय-ईसा पूर्व 24 } में उल्लिखित है कि विक्रमादित्य परम पराक्रमी, दानी और विशाल सेना के सेनापति थे जिन्होंने रूम देश { रोम } के शकाधिपति को जीत कर फिर उनके द्वारा विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करने के बाद उन्हें छोड़ दिया { सन्दर्भ:-पृष्ठ 8, डॉ भगवती लाल पुरोहित, आदि विक्रमादित्य स्वराज संस्थान 2008 }। 15वीं शताब्दी तक चीन को हिन्द, भारत वर्ष या इंडी ही कहा जाता रहा है। 1492 में चीन और भारत जाने के लिए निकले कोलम्बस के पास मार्गदर्शन के लिये मार्कोपोलो के संस्मरण थे। उनमें रानी ईसाबेल और फर्डिनांड के पत्र भी हैं। जिनमें उन्होंने साफ़-साफ़ सम्बोधन ” महान कुबलाई खान सहित भारत के सभी राजाओं और लॉर्ड्स के लिए ” लिखा है। {सन्दर्भ:-पृष्ठ 332-334 जॉन मेन, कुबलाई खान: दि किंग हू रिमेड चाइना, अध्याय-15, बैंटम लन्दन 2006 }15वीं शताब्दी में यूरोप से प्राप्त अधिकांश नक़्शों में चीन को भारत का अंग दिखाया गया है।

ऐसे हज़ारों वर्णन मिटाने की भरसक कोशिशों के बावजूद सम्पूर्ण विश्व में मिलते हैं। केंद्रीय भूमि के लोग सदैव से राज्य, ज्ञान, शौर्य और व्यापार के प्रसार के लिये सम्पूर्ण जम्बू द्वीप यानी पृथ्वी भर में जाते रहे हैं। अजन्ता की गुफाओं में बने चित्रों में सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की सभा में पारसिक नरेश खुसरू-द्वितीय और उनकी पत्नी शीरीं दर्शाये हैं { सन्दर्भ:- पृष्ठ 238, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार } इतिहासकार तबारी ने 9वीं शताब्दी में भारतीय नरेश के फ़िलिस्तीन पर आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है कि बसरा के शासक को सदैव तैयार रहना पड़ता है चूँकि भारतीय सैन्य कभी भी चढ़ आता है { सन्दर्भ:- पृष्ठ 639, वृहत्तर भारत चन्द्रकान्त वेदालंकार }

इतने बड़े क्षेत्र को सैन्य बल से प्रभावित करने वाले, विश्व भर में राज्य स्थापित करने वाले, ज्ञानसम्पन्न बनाने वाले, संस्कारित करने वाले लोग दैवयोग ही कहिये शिथिल होने लगे। मनुस्मृति के अनुसार पौंड्रक, औंड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पह्लव , चीन, किरात, दरद और खश इन देशों के निवासी क्रिया { यज्ञादि क्रिया } के लोप होने से धीरे-धीरे वृषल हो गए { मनुस्मृति अध्याय 10 श्लोक 43-44 } अर्थात जम्बूद्वीपे भारत वर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तेकदेश के ब्रह्मवर्त यानी तत्कालीन भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान के ब्राह्मणों, आचार्यों, ज्ञानियों का संस्कृति के केंद्र से सारी पृथ्वी का प्रवास थमने लगा। हज़ारों वर्षों से चली आ रही यह परम्परा मंद पड़ी फिर भी नष्ट नहीं हुई मगर लगातार सम्पर्क के अभाव में ज्ञान, धर्म, चिंतन की ऊष्मा कम होती चली गयी। सम्पूर्ण यूरेशिया में फैले आर्य वृषल होते गये।

इसी समय बुद्ध का अवतरण हुआ। महात्मा बुद्ध की देशना निजी मोक्ष, व्यक्तिगत उन्नति पर थी। स्पष्ट था कि यह व्यक्तिवादी कार्य था। समूह का मोक्ष सम्भव ही नहीं है। यह किसी भी स्थिति में राजधर्म नहीं हो सकता था मगर काल के प्रवाह में यही हुआ। शुद्धि-वापसी का कोई प्रयास करने वाला नहीं था। उधर एक अल्लाह के नाम पर हिंस्र दर्शन फैलना शुरू हो गया फिर भी इसकी गति धीमी ही थी। फ़रिश्ता के अनुसार 664 ईसवीं में गंधार क्षेत्र में पहली बार कुछ सौ लोग मुसलमान बने {सन्दर्भ:-पृष्ठ-16 तारीख़े-फ़रिश्ता भाग-1, हिंदी अनुवाद, नवल किशोर प्रेस }

अरब में शुरू हो गयी उथल-पुथल से आँखें खुल जानी चाहिए थीं मगर निजी मोक्ष के चिंतन, शांति, अहिंसा के प्रलाप ने चिंतकों, आचार्यों, राजाओं, सेनापतियों को मूढ़ बना दिया था।अफ़ग़ानिस्तान में परिवर्तन के समय तो निश्चित ही चेत जाना था कि अब घाव सिर पर लगने लगे थे। दुर्भाग्य, दुर्बुद्धि, काल का प्रवाह कि सम्पूर्ण पृथ्वी को ज्ञान-सम्पन्न बनाने वाला, संस्कार देने वाला प्रतापी समाज सिमट कर आत्मकेंद्रित हो गया। वेद का आदेश है “कृण्वन्तो विश्वमार्यम” अर्थात विश्व को आर्य बनाओ। आर्य एक गुणवाचक संज्ञा है। वेदों में अनेकों बार इसका प्रयोग हुआ है। पत्नी अपने पति को हे आर्य कह कर पुकारती थी। ब्रह्मवर्त अर्थात वर्तमान भारत के लोगों का दायित्व विश्व को आर्य बनाना, बनाये रखना था। इसका तात्पर्य उनमें ज्ञान का प्रसार, नैतिक मूल्यों की स्थापना, जीवन के शाश्वत नियमों का बीजारोपण, व्यक्तिनिरपेक्ष नीतिसंहिता के आधार पर समाज का संचालन था। स्पष्ट है यह समूहवाची काम थे। महात्मा बुद्ध के व्यक्तिवादी मोक्ष-प्रदायी, ध्यान के पथ पर चलने के कारण समाज शान्त, मौन और अयोद्धा होता चला गया।

मानव अपने मूल स्वभाव में उद्दंड, अधिकारवादी, वर्चस्व स्थापित करने वाला है। आप घर में बच्चों को देखिये, थोड़ा सा भी ताकतवर बच्चा कमजोर बच्चों को चिकोटी काटता, पैन चुभाता, बाल खींचता मिलेगा। कुत्ते, बिल्लियों को सताता, कीड़ों को मारता मिलेगा। माचिस की ख़ाली डिबिया, गुब्बारे, पेंसिल पर कभी बच्चों को लड़ते देखिये। ये वर्चस्वतावादी, अहमन्यतावादी सोच हम जन्म से ही ले कर पैदा होते हैं। इन्हीं गुणों और दुर्गुणों का समाज अपने नियमों से विकास और दमन करता है। यदि ये भेड़ियाधसान चलता रहे और इसकी अबाध छूट दे दी जाये तो स्वाभाविक परिणाम होगा कि सामाजिक जीवन संभव ही नहीं रह पायेगा। लोग अंगुलिमाल बन जायेंगे। समाज के नियम इस उत्पाती स्वभाव का दमन करने के लिए ही बने हैं। ब्रह्मवर्त के आचार्यों, राजाओं, ज्ञानियों का यही दायित्व था कि वह सम्पूर्ण समाज में न्याय का शासन स्थापित रखें। इसके लिए प्रबल राजदंड चाहिए और इसकी तिलांजलि बौद्ध मत के प्रभाव में ब्रह्मवर्त यानी वर्तमान भारत के लोगों ने दे दी।

महात्मा बुद्ध के जीवन में जेतवन का एक प्रसंग है। उसमें बुद्ध अपने 10 हज़ार शिष्यों के साथ विराजे हुए थे। एक राजा अपने मंत्रियों के साथ उनके दर्शन के लिये गये। वहां पसरी हुई शांति से उन्हें किसी अपघात-षड्यंत्र की शंका हुई। 10 हज़ार लोगों का निवास और सुई-पटक सन्नाटा ? उनके लिये यह सम्भव ही नहीं था। बुद्ध ही आर्यावर्त में अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके साथ 10 हज़ार शिष्य थे। केवल बिहार में महावीर स्वामी, अजित केशकम्बलिन, विट्ठलीपुत्त, मक्खली गोसाल इत्यादि जैसे 10 और महात्मा ऐसे थे जिनके साथ 10-10 हज़ार भिक्षु ध्यान करते थे। बुद्ध और इनके जैसे लोगों के प्रभाव में आ कर 1 लाख लोग घर-बार छोड़ कर व्यक्तिगत मोक्ष साधने में जुट गये। यह समूह तो आइसबर्ग की केवल टिप है। इससे उस काल के समाज में अकर्मण्यता का भयानक फैलाव समझ में आता है। व्यक्तिगत मोक्ष के चक्कर में समष्टि की चिंता, समाज के दायित्व गौण हो गए। शिक्षक, राजा, सेनापति, मंत्री, सैनिक, श्रेष्ठि, कृषक सभी में सिर घुटवा कर भंते-भंते पुकारने, बुद्धम शरणम गच्छामि जपने की होड़ लगेगी तो राष्ट्र, राज्य, धर्म की चिंता कौन करेगा ? परिणामतः राष्ट्र के हर अंग में शिथिलता आती चली गयी।

इसी काल से अरब सहित पूरा यूरेशिया जो अब तक केंद्रीय भाग की सहज पहुँच और सांस्कृतिक प्रभाव का क्षेत्र था, विस्मृत होने लगा। अरब में कुछ शताब्दी बाद मक्का के पुजारी परिवार में मुहम्मद का जन्म हुआ। उसने अपने पूर्वजों के धर्म से विरोध कर अपने मत की नींव डाली। भरतवंशियों के लिये यह कोई ख़ास बात नहीं थी। उनके लिये जैसे और पचीसों मत चल रहे थे, यह एक और मत की बढ़ोत्तरी थी। भरतवंशियों के स्वाभाविक चिंतन “सारे मार्ग उसी की ओर जाते हैं” के विपरीत मुहम्मद ने अपने मत को ही सत्य और अन्य सभी चिंतनों को झूट माना। अपनी दृष्टि में झूटे मत के लोगों को बरग़ला कर, डरा-धमका कर, पटा कर अपने मत इस्लाम में लाना जीवन का लक्ष्य माना। इस सतत संघर्ष को जिहाद का नाम दिया। जिहाद में मरने वाले लोगों को जन्नत में प्रचुर भोग, जो उन्हें अरब में उपलब्ध नहीं था, का आश्वासन दिया। 72 हूरें जो भोग के बाद पुनः कुंवारी होने की विचित्र क्षमता रखती थीं, 70 छरहरी देह वाले हर प्रकार की सेवा करने के लिये किशोर गिलमां (ग़ुलाम लड़के/लौंडे) शराब की नहरें जैसे लार-टपकाते, कमर लपलपाते वादों की आश्वस्ति, ज़िंदा बच कर जीतने पर माले-ग़नीमत के नाम पर लूट के माल के बंटवारे का प्रलोभन ने अरब की प्राचीन सभ्यता को बर्बर नियमों वाले समाज में बदला। यहाँ हस्तक्षेप होना चाहिये था। संस्कार-शुद्धि होनी चाहिये थी। आर्यों ने अपने सिद्धांतों के विपरीत चिन्तन का अध्ययन ही छोड़ दिया। परिणामतः बर्बरता नियम बन गयी। उसका शोधन नहीं हो सका।

यह विचार-समूह अपने मत को ले कर आगे बढ़ा। अज्ञानी लोग इन प्रलोभनों को स्वीकार कर इस्लाम में ढलते गये। इस्लामियों ने जिस-जिस क्षेत्र में वह गए, जहाँ-जहाँ धर्मांतरण करने में सफलता पायी, इसका सदैव प्रयास किया है कि वहां का इस्लाम से पहले का इतिहास नष्ट कर दिया जाये। कारण सम्भवतः यह डर रहा होगा कि धर्मान्तरित लोगों के रक्त में उबाल न आ जाये और वो इस्लामी पाले से उठ कर अपने पूर्वजों की पंक्ति में न जा बैठें। इसके लिये सबसे ज़ुरूरी यह था कि धर्मान्तरित समाज में अपने पूर्वजों, अपने पूर्व धर्म, समाज के प्रति उपेक्षा, घृणा का भाव उपजे। इसके लिए इतिहास को नष्ट करना, तोडना-मरोड़ना, उसका वीभत्सीकरण अनिवार्य था। आज यह जानने के कम ही सन्दर्भ मिलते हैं कि जिन क्षेत्रों को इस्लामी कहा जाता है वह सारे का सारा भरतवंशियों की भूमि है। फिर भी मिटाने के भरपूर प्रयासों के बाद ढेरों साक्ष्य उपलब्ध हैं। आइये कुछ सन्दर्भ देखे जायें।

7वीं शताब्दी के मध्य में तुर्क मुसलमानों की सेना ने बल्ख़ पर आक्रमण किया। वहां के प्रमुख नौबहार मंदिर को जिसमें वैदिक यज्ञ होते थे, को मस्जिद में बदल दिया। यहाँ के पुजारियों को बरमका { ब्राह्मक या ब्राह्मण का अपभ्रंश } कहा जाता था। इन्हें मुसलमान बनाया और बगदाद ले गये। वहां के ख़लीफ़ा ने इनसे भारतीय चिकित्सा शास्त्र, साहित्य, ज्योतिष, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि का अनुवाद करने को कहा। इसी क्रम में अहंब्रह्मास्मि से अनल हक़ आया। भारतीय अंकों के हिन्दसे बने, जिन्हें बाद में योरोप के लोग अरब से आया मान कर अरैबिक कहने लगे। पंचतन्त्र के कर्कट-दमनक से कलीला-दमना बना। आर्यभट्ट की पुस्तक आर्यभट्टीयम का अनुवाद अरजबंद, अरजबहर नाम से हुआ {सन्दर्भ:- सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 173-174, 167-168, 170-172 वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार }

9वीं शताब्दी में महान समन (श्रमण ) साम्राज्य जो बौद्ध था और सम्पूर्ण मध्य एशिया में फैला हुआ था, के राजवंश ने इस्लाम को अपना लिया { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 14-15, द न्यू पर्नेल इंग्लिश इनसाइक्लोपीडिया } बग़दाद, दमिश्क, पूरा सीरिया, ईराक़, और तुर्की 11वीं शताब्दी तक बहुत गहरे बौद्ध प्रभाव में थे। इस्लाम ने उनकी स्मृतियाँ नोच-पोंछ कर मिटाई हैं फिर भी 9वीं,10वीं शताब्दी के तुर्की भाषा के अनेकों ग्रन्थ मिले हैं जो बौद्ध ग्रन्थ हैं।{ सन्दर्भ:- पृष्ट संख्या 302-311, वृहत्तर भारत, राजधानी ग्रंथागार } सीरिया से हित्ती शासकों के { सम्भवतः यह क्षत्रिय से खत्रिय फिर खत्ती फिर हित्ती बना } के सिक्के मिले हैं जो भगवान शिव, जगदम्बा दुर्गा, कार्तिकेय के चित्र वाले हैं। { सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या 80-90, अरब और भारत के संबंध, रामचंद्र वर्मा, काशी 1954 }

आगे बढ़ते-बढ़ते यह लहर ब्रह्मवर्त के केंद्र की ओर बढ़ी। चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पश्चिमोत्तर कोने में तारीम घाटी के मैदानी भाग को खोतान कहा जाता है। 5वीं शताब्दी में फ़ाहियान खोतान भी गया था। उसने खोतान की समृद्धि का बयान करते हुए उसे भारतवर्ष के एक राज्य की तरह बताया है। वहां उसने जगन्नाथ जी की यात्रा की तरह की ही रथयात्रा उत्सव का वर्णन किया है। (सन्दर्भ:- पृष्ठ संख्या-5 तथा 51, चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, नेशनल बुक ट्रस्ट 1996 ) 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ तुर्की के मुसलमानों ने आक्रमण कर उन पर 25 वर्ष तक शासन किया। तब से यहाँ के लोग मुसलमान हो गये।

यह लहर चूँकि प्रारम्भ में ही रोकी न गयी अतः एक दिन इसे भारत के केंद्रीय भाग को स्पर्श करना ही था और यह तत्कालीन भारत के स्कंध यानी ख़ुरासान, अफ़ग़ानिस्तान पहुंची। ख़ुरासान शताब्दियों से भारतीय राज्य था। यहाँ के शासक बाह्लीक क्षत्रियों के वंशज थे। 9वीं शताब्दी में वह मुसलमान बन गए। इन्हीं के साथ धर्मभ्रष्ट हुए सेवकों में से एक अलप्तगीन गज़नी का शासक बना। गज़नी बाह्लीक राज्य का एक अंग थी। अलप्तगीन के बाद उसका दामाद सुबुक्तगीन यहाँ का शासक बना। इसने आस-पास के क्षेत्र में लूटमार की। यह क्षेत्र राजा जयपाल का था। उन्होंने सेना भेजी। लामघन नामक स्थान पर सुबुक्तगीन को पीटपाट कर भगा दिया गया। इसी सुबुक्तगीन का बेटा महमूद ग़ज़नवी था। इसकी मां क्षत्राणी थी। यह सारे धर्मभष्ट हुए क्षत्रिय थे। { सन्दर्भ:- पृष्ठ 36-37, 40-42, भाग-1, द हिस्ट्री ऑफ़ हिंदुस्तान, अलेक्ज़ेंडर दाऊ } इसी तरह मुहम्मद गोरी उत्तरी-पश्चिम हिंदुओं की एक जाति गौर से था। इसी जाति के धर्मभ्रष्ट लोगों में मुहम्मद ग़ौरी था। उसने अपने गांव ग़ौर के बाद सबसे पहले गज़नी की छोटी सी रियासत हथियाई। इसके बाद 1175 में इस्माइलियों के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया। इसके बाद इसने पड़ौस के भट्टी राजपूतों के ठिकाने उच्च पर आक्रमण किया। राजपूतों ने इसे पीट दिया। परिणामतः सन्धि में इसने अपनी बेटी ठिकानेदार को दी। इसने भट्टियों से सहायता ले कर गुजरात के अन्हिलवाड़े पर 1178 में हमला किया। वहां भी धुनाई हुई। भाग कर यह वापस आ गया { सन्दर्भ:- खंड-6, सावरकर समग्र, स्वतंत्रवीर विनायक दामोदर सावरकर }

हमें इतिहास में पढ़ाया जाता है कि 7वीं से 17वीं शताब्दी का काल भारत में मुस्लिम शासन का काल है। स्वाभाविक रूप से इसका अर्थ होना चाहिये कि इस काल में सम्पूर्ण वर्तमान भारत के अधिपति इस्लामी थे। वास्तविक स्थिति यह है कि उस काल-खंड में आर्यावर्त यानी वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान में बड़े-बड़े हिन्दू राज्य थे। केवल दिल्ली से आगरा के बीच और शेष भारत में ही छोटी-छोटी मुस्लिम जागीरें थीं। वर्तमान इतिहास में इन्हीं जागीरों को महान सल्तनत बताया जाता है।

विश्वविजय करने वाले सबसे बड़े हिंदू योद्धाओं में से एक पूज्य चंगेज़ ख़ान ने अपनी विश्व-विजय के लिए विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया था। वो जिस क्षेत्र को जीतते थे, वहां के पराधीन राजा की पुत्रियों से विवाह करते थे। इससे वह निश्चित कर लेते थे कि अब वह राजा उनके ख़िलाफ़ कभी सिर नहीं उठाएगा। उस राजा की सेना का बड़ा भाग वह अपनी सेना में भर्ती कर लेते थे। जो अगले सैन्य अभियान में उनका हरावल दस्ता होती थी। हरावल दस्ता यानी युद्ध में बिलकुल आगे और केंद्र में रहने वाले लोग। स्वभाविक है यह लोग अधिकाधिक घायल होते थे या मरते थे। मंगोल सेना अक्षुण्ण बचती थी और परकीय सेना के विरोध में कभी उठ खड़े होने का कांटा भी निकल जाता था। यह तकनीक इस्लामी शासकों ने चंगेज़ ख़ान और उनके प्रतापी वंशजों से सीखी थी चूँकि इन महान योद्धाओं ने ही इन मध्य एशिया के लोगों का कचूमर निकाला था। यही तकनीक मध्य एशिया के इस्लामी अपने साथ लाये। भारत के राजाओं से इसी प्रकार की सन्धियाँ की गयीं। उन्हें सेना का प्रमुख अंग बनाया गया। इस्लाम के धावे वस्तुतः एक हिन्दू शासक की सेनाओं की दूसरे हिन्दू शासक पर हुई विजय हैं। यह इस्लामी पराक्रम नहीं था।

13वीं शताब्दी में बख़्तियार ख़िलजी ने 10 हज़ार घुड़सवारों के साथ बंगाल के प्रसिद्द विद्याकेन्द्र नदिया पर आक्रमण कर 50 हज़ार बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला। पुस्तकालय जल डाला। हज़ारों लोग जान बचाने के लिये मुसलमान हो गए। { सन्दर्भ:- खंड-5, एन एडवांस हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, मैकमिलन, लन्दन, रमेश चंद्र मजूमदार } यह समाचार पा कर कामरूप नरेश सेना ले कर बख़्तियार पर टूट पड़े और उसकी सेना नष्ट कर दी केवल 100 घुड़सवार बचे। दो साल बाद बख़्तियार मर गया। इस मार-काट में बहुधा भरतवंशी विजयी होते रहे मगर एक बहुत चिंतायोग्य बात विस्मृत होती रही कि धर्मभ्रष्ट लोगों की संख्या बढ़ती रही। भरतवंशी समाज एवं देश अपने विद्वानों, आचार्यों, राजाओं के आर्य-नियमन के अभाव में उस रीति-नीति अपनाते गए जो उनकी मूल चिन्तन की घोरद्रोही थी और इस्लामी होते गये। इसे बदला जाना अनिवार्य था।

इसे इस तथ्य से समझ जा सकता है कि अपने वैभव के चरम शिखर पर सम्पूर्ण पंजाब, उसकी राजधानी लाहौर महाराजा रंजीत सिंह का राज्य, उनकी राजधानी थी। 1947 के देश के विभाजन के समय आधा पंजाब और लाहौर पाकिस्तान का हिस्सा बना। कल्पना कीजिये कि महाराजा रंजीत सिंह जी ने अपने राज्य के सभी मुसलमानों को इस्लाम की ही तरह धर्मपरिवर्तन करने के लिये बाध्य किया होता और हिन्दू बना दिया होता तो क्या यह क्षेत्र पाकिस्तान बनता ? इस संघर्ष में विजय के लिये अनिवार्य रूप से पौरुष चाहिये था। पौरुष की अभिव्यक्ति शस्त्रों के माध्यम से होती है। इस्लामियों को भरतवंशियों ने ढेर कर दिया। मराठे, सिक्ख, राजपूतों ने सत्ता वापस छीन ली।

दैवयोग तब कुटिल अंग्रेज़ आ गये। अंग्रेज़ों ने सचेत रूप से हमें निशस्त्र किया। उन्होंने समझ लिया कि भारत में राज्य चलाने के लिये अनिवार्य रूप से हिंदुओं को दुर्बल करना होगा। इसके लिये उन्होंने 1878 में आर्म्स एक्ट बनाया और हमारे हथियार छीन लिये। स्वयं कोंग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में निष्ट्रीकरण के विरोध में प्रस्ताव पारित किया था। यहाँ यह प्रश्न स्वयं से पूछने का है। अंग्रेज़ सिक्खों, गोरखों, पठानों से तो शस्त्र नहीं ले पाये। सिक्ख सार्वजनिक रूप से तलवार, भाले, कृपाण ले कर चलते हैं। गोरखे आज भी कमर में खुकरी बांधे रहते हैं। आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पठान के बिस्तर में बीबी हो या न हो राइफ़ल अवश्य होती है। इन पर निशस्त्रीकरण का क़ानून नहीं लग सका तो हमने शस्त्र क्यों छोड़ दिये ? धर्मबंधुओ, पौरुष का कोई विकल्प नहीं होता। हम सामाजिक, सामूहिक रूप से निर्बल, हततेज फलस्वरूप आत्मसम्मानहीन हो गए। इस हद तक कि कभी कोई न्याय की बात भी हो तो हमारी कोशिश झगड़ा शांत करने, बीचबचाव करने की होती है। हम शताब्दियों से अहिंसा के नाम पर कायर, नपुंसक बनने पर तुले हुए हैं। इस सोच, व्यवहार का कलंक व्यक्तिगत मोक्ष, अहिंसा, त्याग, शांति के दर्शन के माथे पर है। यह गुण व्यक्तिवाचक हो सकते थे मगर हमने इन्हें समाज का गुण बना दिया। परिणामतः गुण कलंक में बदल गये।

यही डरी हुई मासिकता हमारे लोगों को अपनी ज़िम्मेदारी से दूर कर रही है। हम परमप्रतापी योद्धाओं के वंशज, महान संस्कृति के लोग हैं। हमारा कर्तव्य विश्व को आर्य बनाना है। प्रत्ये हिन्दू की रक्षा ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के वृषल हो गए लोगों को शुद्ध कर उन्हें वापस आर्य बनाने का महती दायित्व वेद का आदेश है। इसके लिये साम, दाम, दंड, भेद जैसे हो काम करना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य को साधना हमारा कर्तव्य है। विजुगीष वृत्ति के लिये पौरुष आवश्यक है। शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ताम् प्रवर्तते। अपने ही एक शेर से बात समाप्त करता हूँ।

तेरी हालत बदल जायेगी तय है
अगर आँखों में सपना जाग जाये

तुफ़ैल चतुर्वेदी