Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक माँ अपने पूजा-पाठ से फुर्सत पाकर अपने विदेश में रहने वाले बेटे से विडियो चैट करते वक्त पूछ बैठी-

“बेटा! कुछ पूजा-पाठ भी करते हो या नहीं?”

बेटा बोला-

“माँ, मैं एक जीव वैज्ञानिक हूँ। मैं अमेरिका में मानव के विकास पर काम कर रहा हूँ। विकास का सिद्धांत, चार्ल्स डार्विन.. क्या आपने उसके बारे में सुना भी है?”

उसकी माँ मुस्कुरा कर बोली-
“मैं डार्विन के बारे में जानती हूँ बेटा.. उसने जो भी खोज की, वह वास्तव में सनातन-धर्म के लिए बहुत पुरानी खबर है।”
“हो सकता है माँ!” बेटे ने भी व्यंग्यपूर्वक कहा।
“यदि तुम कुछ होशियार हो, तो इसे सुनो..” उसकी माँ ने प्रतिकार किया। “क्या तुमने दशावतार के बारे में सुना है? विष्णु के दस अवतार?”
बेटे ने सहमति में कहा-
“हाँ! पर दशावतार का मेरी रिसर्च से क्या लेना-देना?”
माँ फिर बोली-
“लेना-देना है.. मैं तुम्हें बताती हूँ कि तुम और मि. डार्विन क्या नहीं जानते हैं?”
.
“पहला अवतार था ‘मत्स्य’, यानि मछली। ऐसा इसलिए कि जीवन पानी में आरम्भ हुआ। यह बात सही है या नहीं?”
बेटा अब ध्यानपूर्वक सुनने लगा..
“उसके बाद आया दूसरा अवतार ‘कूर्म’, अर्थात् कछुआ। क्योंकि जीवन पानी से जमीन की ओर चला गया.. ‘उभयचर (Amphibian)’, तो कछुए ने समुद्र से जमीन की ओर के विकास को दर्शाया।”
“तीसरा था ‘वराह’ अवतार, यानी सूअर। जिसका मतलब वे जंगली जानवर, जिनमें अधिक बुद्धि नहीं होती है। तुम उन्हें डायनासोर कहते हो।”
बेटे ने आंखें फैलाते हुए सहमति जताई..

“चौथा अवतार था ‘नृसिंह’, आधा मानव, आधा पशु। जिसने दर्शाया जंगली जानवरों से बुद्धिमान जीवों का विकास।”
“पांचवें ‘वामन’ हुए, बौना जो वास्तव में लंबा बढ़ सकता था। क्या तुम जानते हो ऐसा क्यों है? क्योंकि मनुष्य दो प्रकार के होते थे- होमो इरेक्टस(नरवानर) और होमो सेपिअंस (मानव), और होमो सेपिअंस ने विकास की लड़ाई जीत ली।”
बेटा दशावतार की प्रासंगिकता सुन के स्तब्ध रह गया..

माँ ने बोलना जारी रखा-
“छठा अवतार था ‘परशुराम’, जिनके पास शस्त्र (कुल्हाड़ी) की ताकत थी। वे दर्शाते हैं उस मानव को, जो गुफा और वन में रहा.. गुस्सैल और असामाजिक।”
“सातवां अवतार थे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम’, सोच युक्त प्रथम सामाजिक व्यक्ति। जिन्होंने समाज के नियम बनाए और समस्त रिश्तों का आधार।”
“आठवां अवतार थे ‘भगवान श्री कृष्ण’, राजनेता, राजनीतिज्ञ, प्रेमी। जिन्होंने समाज के नियमों का आनन्द लेते हुए यह सिखाया कि सामाजिक ढांचे में रहकर कैसे फला-फूला जा सकता है।”
बेटा सुनता रहा, चकित और विस्मित..

माँ ने ज्ञान की गंगा प्रवाहित रखी –
“नवां अवतार थे ‘महात्मा बुद्ध’, वे व्यक्ति जिन्होंने नृसिंह से उठे मानव के सही स्वभाव को खोजा। उन्होंने मानव द्वारा ज्ञान की अंतिम खोज की पहचान की।”
“..और अंत में दसवां अवतार ‘कल्कि’ आएगा। वह मानव जिस पर तुम काम कर रहे हो.. वह मानव, जो आनुवंशिक रूप से श्रेष्ठतम होगा।”
बेटा अपनी माँ को अवाक् होकर देखता रह गया..

अंत में वह बोल पड़ा-
“यह अद्भुत है माँ.. हिंदू दर्शन वास्तव में अर्थपूर्ण है!”

मित्रों..
वेद, पुराण, ग्रंथ, उपनिषद इत्यादि सब अर्थपूर्ण हैं। सिर्फ आपका देखने का नज़रिया होना चाहिए। फिर चाहे वह धार्मिक हो या वैज्ञ

नीतू ठाकुर

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

“स्त्री” क्यों पूजनीय है ?

एक बार सत्यभामाजी ने श्रीकृष्ण से पूछा, “मैं आप को कैसी लगती हूँ ?

” श्रीकृष्ण ने कहा, “तुम मुझे नमक जैसी लगती हो ।”

सत्यभामाजी इस तुलना को सुन कर क्रुद्ध हो गयी, तुलना भी की तो किस से । आपको इस संपूर्ण विश्व में मेरी तुलना करने के लिए और कोई पदार्थ नहीं मिला।

श्रीकृष्ण ने उस वक़्त तो किसी तरह सत्यभामाजी को मना लिया और उनका गुस्सा शांत कर दिया ।

कुछ दिन पश्चात श्रीकृष्ण ने अपने महल में एक भोज का आयोजन किया छप्पन भोग की व्यवस्था हुई।

सर्वप्रथम सत्यभामाजी से भोजन प्रारम्भ करने का आग्रह किया श्रीकृष्ण ने ।

सत्यभामाजी ने पहला कौर मुँह में डाला मगर यह क्या – सब्जी में नमक ही नहीं था । कौर को मुँह से निकाल दिया ।

फिर दूसरा कौर मावा-मिश्री का मुँह में डाला और फिर उसे चबाते-चबाते बुरा सा मुँह बनाया और फिर पानी की सहायता से किसी तरह मुँह से उतारा ।

अब तीसरा कौर फिर कचौरी का मुँह में डाला और फिर.. आक्..थू !

तब तक सत्यभामाजी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था । जोर से चीखीं.. किसने बनाई है यह रसोई ?

सत्यभामाजी की आवाज सुन कर श्रीकृष्ण दौड़ते हुए सत्यभामाजी के पास आये और पूछा क्या हुआ देवी ? कुछ गड़बड़ हो गयी क्या ? इतनी क्रोधित क्यों हो ? तुम्हारा चेहरा इतना तमतमा क्यूँ रहा है ? क्या हो गया ?

सत्यभामाजी ने कहा किसने कहा था आपको भोज का आयोजन करने को ?

इस तरह बिना नमक की कोई रसोई बनती है ? किसी वस्तु में नमक नहीं है। मीठे में शक्कर नहीं है। एक कौर नहीं खाया गया।

श्रीकृष्ण ने बड़े भोलेपन से पूछा, तो क्या हुआ बिना नमक के ही खा लेती ।

सत्यभामाजी फिर क्रुद्ध होकर बोली कि लगता है दिमाग फिर गया है आपका ? बिना शक्कर के मिठाई तो फिर भी खायी जा सकती है मगर बिना नमक के कोई भी नमकीन वस्तु नहीं खायी जा सकती है ।

तब श्रीकृष्ण ने कहा तब फिर उस दिन क्यों गुस्सा हो गयी थी जब मैंने तुम्हे यह कहा कि तुम मुझे नमक पर जितनी प्रिय हो ।

अब सत्यभामाजी को सारी बात समझ में आ गयी की यह सारा वाकया उसे सबक सिखाने के लिए था और उनकी गर्दन झुक गयी ।

कथा का मर्म :-
~~~~~~~~~

स्त्री जल की तरह होती है, जिसके साथ मिलती है उसका ही गुण अपना लेती है । स्त्री नमक की तरह होती है जो अपना अस्तित्व मिटा कर भी अपने प्रेम-प्यार तथा आदर-सत्कार से परिवार को ऐसा बना देती है ।

माला तो आप सबने देखी होगी। तरह-तरह के फूल पिरोये हुवे पर शायद ही कभी किसी ने अच्छी से अच्छी माला में अदृश्य उस “सूत” को देखा होगा जिसने उन सुन्दर सुन्दर फूलों को एक साथ बाँध कर रखा है ।

लोग तारीफ़ तो उस माला की करते हैं जो दिखाई देती है मगर तब उन्हें उस सूत की याद नहीं आती जो अगर टूट जाये तो सारे फूल इधर-उधर बिखर जाते है ।।

स्त्री उस सूत की तरह होती है जो बिना किसी चाह के , बिना किसी कामना के , बिना किसी पहचान के , अपना सर्वस्व खो कर भी किसी के जान-पहचान की मोहताज नहीं होती है और शायद इसीलिए दुनिया श्रीराम के पहले सीताजी को और कान्हाजी के पहले श्रीराधेजू को याद करती है ।

अपने को विलीन कर के पुरुषों को सम्पूर्ण करने की शक्ति भगवान् ने केवल स्त्रियों को ही दी है ।।

    सम्पूर्ण नारी शक्ति को नमन्

           राधे   राधे🌹

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

अधूरी भक्ति
एक छोटी सी कहानी

एक छोटे से गाँव में साधू रहता था, वहाँ हर वक्त कान्हा के स्मरण में लगा रहता था, वहाँ कान्हा के लिए रोज_ खीर_चावल बनाता था, और हर दिन उनकें इंतजार में आस लगाए बैठा रहता था, कि मेरे कान्हा कब आयेंगे,
उस साधू की एक बुरी आदत थी, वहाँ गाँव में रहने वाले नीची जाती के लोगो से दूर रहता था, उन्हें आश्रम में नही आने देता था, उसका मानना था, कान्हा इससे नाराज हो जाएंगे, वो तो स्वामी हैं, इन नीच छोटी जाति वालों के, आश्रम में प्रवेश करने से और मुजे दर्शन नही देंगे, इसलिए वहाँ कभी किसी से ठीक से बात नही करता था………..🌳

उसके आश्रम से थोड़ी दूर एक कोड़ी रहता था, वहाँ भी कान्हा का भक्त था, नित्य प्रतिदिन वहाँ उनकी उपासना करता था, और हर वक्त कान्हा की भक्ति में डूबा रहता था,
जब भी साधू, उसके घर के पास से गुजरता तो कोड़ी को कहता नीच तुज जैंसे कोड़ी से कान्हा क्या मिलने आयेंगे, वो तो स्वामी हैं, तुज जैंसे के घर में क्यूं आने लगें भला, और बोलते_बोलते वहाँ आश्रम चले जाता……….🌿

कुछ वर्ष व्यतित हुये, अब साधू को लगने लगा, कान्हा क्यूं मुजे दर्शन नही दे रहे, और साधू उसकी मूर्ति के सामने रोने लगा, और कहने लगा प्रभु एक बार तो मुजे दर्शन दें दो, मैं प्रतिदन आपके लिए खीर_चावल बनाता हूं, एक बार तो आ कर भोज लगा लें, और उदास होकर कान्हा के चरणों में सो गया………🌴

दूसरे दिन एक गरीब दरिद्र, छोटा सा बालक साधू के आश्रम आया, साधू उस वक्त कान्हा को भोग लगाने जा रहा था, उस बालक ने कहा, साधू महराज मुजे कुछ खाने दे दीजिए मुजे जोरो की भूख लगी हैं,
साधू गुस्सें से तिलमिला गया, एक तो दरिद्र और दूसरा कान्हा की भक्ति में विध्न, उसने आव देखा ना ताव, एक पत्थर उठाकर बच्चें को दे मारा, उस दरिद्र बच्चें के सर से खून निकलने लगा, साधू ने कहा भाग यहाँ सें, बच्चा उसके आश्रम से निकल गया,
और जाकर उस कोडी के घर में चला गया, कोड़ी ने उसके रक्त साफ किया पट्टी बाँधी और उस भूखें बच्चें को भोजन दिया, बच्चा भोजन कर के चला गया……….🌱

दूसरे दिन फिर वो बच्चा साधू के आश्रम आया, साधू ने फिर उसे मारा और भागा दिया, फिर वहाँ कोड़ी के घर चला गया, कोड़ी ने फिर उसकी पट्टी बाँधी और खाने को दिया, बच्चा खाना खाकर चला जाता……🌳

वो बच्चा रोज आता, साधू उसे मारता और वो कोड़ी के पास चला जाता,
एक दिन साधू स्नान के लिए जा रहा था, उसे रास्तें पर वही कोड़ी दिखा, साधू ने उसे देखा तो अश्चाचर्य से भर गया, उस कोड़ी का कोड़ गायब हो चुका था, वहाँ बहुत ही सुंदर पुरूष बन चुका था, साधू ने कोड़ी नाम लेकर कहा, तुम कैंसे ठीक हो गयें, कोड़ी ने कहा, मेरे कान्हा की मर्जी, पर साधू को रास नही आया, उसने मन ही मन फैसला किया, पता लगाना पड़ेगा………..🌾

दूसरे दिन फिर वहाँ दरिद्र बच्चा साधू के आश्रम आया, साधू ने फिर उसे मारा, बच्चा जाने लगा, तो साधू उठ खड़ा हुआ और मन ही मन सोचने लगा, मैं इस दरिद्र बच्चें को रोज मारता हूं, ये रोज उस कोड़ी के घर जाता हैं, आखिर चक्कर क्या हैं देखना पड़ेगा, साधू पीछे_पीछे जाने लगता हैं जैसें ही वहाँ कोड़ी की झोपड़ी में पहुंचता हैं, उसकी ऑखें फटी की फटी रह जाती हैं…………🌳

स्वंय तीनो लोक के स्वामी कान्हा बांके बिहारी कोड़ी के घर पर बैंठे हैं और कोड़ी उनकी चोट पर मलहम लगा रहा हैं, और कान्हा जी भिक्षा में मांगी ना जाने कितनो दिनों की भासी रोटी को बड़े चाव से खा रहें हैं,

साधू कान्हा चरणों गिरते कहने लगा, मेरे कान्हा मेरे स्वामी मेरे आराध्य आपने मुज भक्त को दर्शन नही दिये, और इस नीच को दर्शन दे दीये, मुजसे क्या गलती हो गयी, जो आप इस कोड़ी की झोपड़ी में आ गयें, भिख में मांगी भासी रोटी खा ली पर, मैं आपके नित्य प्रतिदिन खीर_चावल बनाता हूं उसे खाने नही खाए, बोलो कान्हा बोलो…….🌾

तब कान्हा जी ने कहा ये साधू, मैं तो रोज तेरे पास खाना मांगने आता था, पर तु ही रोज मुजे पत्थर से मारकर भागा देता था, मुजे भूख लगती थी, और मैं इतना भूखा रहता था, की इस मानव के घर चला आता था, वो जो मुजे प्यार से खिलाता मैं खाकर चला जाता, अब तु ही बता इसमें मेरी क्या गलती,,,,,,,,,,,,
साधू पैर पकड़ कान्हा के रोने लगता हैं और कहता हैं, मुजसे गलती हो गयी, मैं आपको पहचान नही पाया, मुजे माफ कर दिजिए, और फिर कहता हैं, तीनो लोक के स्वामी गरीब भिखारी दरिद्र बच्चा बनकर आप मेरे आश्रम क्यूं आते थे, मैं तो आपको दरिद्र समझकर मारता था, क्यूकि मेरे कान्हा तो स्वामी हैं वो दरिद्र कैसें हो सकते हैं………🌴

कान्हा जी ने कहा,
हे साधू, तुजे किसने कहा मैं सिर्फ महलों में रहता हूं,
तुजे किसने कहा, मैं सिर्फ 56 भोज खाता हूं,
तुजे किसने कहा मैं, नंगे पैर नही आता,
तुजे किसने कहा
मैं दरिद्र नही,
हे साधू, ये समस्त चरचरा मैं ही हूं, धरती आकाश पृथ्वी सब मैं ही हूं, मैं ही हूं महलों का स्वामी, तो मैं ही हूं झोपड़ी का दरिद्र भिखारी, मैं ही हूं जो प्यार और सच्ची श्राध्दा से खिलाने पर बासी रोटी खा लेता हैं और स्वार्थ से खिलाने पर 56 भोग को नही छूता, मैं हर जीव में बसा हूं, तु मुजे अमीर_गरीब में ढूंढता हैं……………🌴

तुजसे अच्छा तो ये कोड़ी हैं जो सिर्फ एक ही बात जानता हैं, ईश्वर हर किसी में निवास करते हैं ना की धनवान में,
कान्हा कहने लगे,
तुने मेरी भक्ति तो की पर अधूरी
और कान्हा अंन्तरधय्न हो जाते हैं…………🌳

साधू उनकी चरण बज्र पकड़ फूटफूटकर रोने लगता हैं और कहता हैं जिसका एक पल पाने के लिए लोग जन्मोंजन्म तप करते है वो मेरी कुटिया में भीख मांगने आता था और मैं मूर्ख दरिद्र समपन्न देखता था,,,,
और कोड़ी के पैर पकड़ कहता हैं,,,,,,
मैंने तो सारी जिंदगी अधूरी भक्ति की,,,,,,
आप मुजे सच्ची भक्ति के पथ पर ले आइयें, मुझे अपना शिष्य बना लीजिए, कोड़ी उसे गले लगा लेता हैं……… 🙏

 "🌾ईश्वर कण_कण में हैं वो भिखारी भी जो आपकी चौखट पर आता हैं ना, वो भी ईश्वर की मर्जी हैं

क्यूकि किसी ने कहा हैं वो भिख लेने बस नही, दुआ देने भी आता हैं, और किसी महान आदमी ने कहा हैं,,,,,
दानें_दानें पर लिखा हैं खाने वालें का नाम

इसलिए कभी किसी का अनादर मत कीजिए🌾”

       🌿 जय बाँकेबिहारी लाल की 🌿

         🙏राधें_राधें🙏

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

भक्ति मार्ग की कथा
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
एक बार लक्ष्मी और नारायण धरा पर घूमने आए,कुछ समय घूम कर वो विश्राम के लिए एक बगीचे में जाकर बैठ गए।नारायण आंख बंद कर लेट गए,लक्ष्मी जी बैठ नज़ारे देखने लगीं।
थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा एक आदमी शराब के नशे में धुत गाना गाते जा रहा था,उस आदमी को अचानक ठोकर लगी,
तो उस पत्थर को लात मारने और अपशब्द कहने लगा,लक्ष्मी जी को बुरा लगा, अचानक उसकी ठोकरों से पत्थर हट गया,वहां से एक पोटली निकली उसने उठा कर देखा तो उसमें हीरे जवाहरात भरे थे,वो खुशी से नाचने लगा और पोटली उठा चलता बना।
लक्ष्मी जी हैरान हुई,उन्होंने पाया ये इंसान बहुत झूठा,चोर और शराबी है।सारे ग़लत काम करता है,इसे भला ईश्वर ने कृपा के काबिल क्यों समझा,उन्होंने नारायण की तरफ देखा,मगर वो आंखें बंद किये मगन थे।
तभी लक्ष्मी जी ने एक और व्यक्ति को आते देखा,बहुत ग़रीब लगता था,मगर उसके चेहरे पे तेज़ और ख़ुशी थी,कपडे साफ़ मगर पुराने थे,तभी उससे व्यक्ति के पांव में एक बहुत बड़ा शूल यानि कांटा घुस गया,ख़ून के फव्वारे बह निकले, उसने हिम्मत कर उस कांटे को निकाला,पांव में गमछा बाँधा,प्रभु को हाथ जोड़ धन्यवाद दे लंगड़ाता हुआ चल दिया।इतने अच्छे व्यक्ति की ये दशा।उन्होंने पाया नारायण अब भी आँख बंद किये पड़े हैं मज़े से।
उन्हें अपने भक्त के साथ ये भेद भाव पसंद नहीं आया,उन्होंने नारायण जी को हिलाकर उठाया,नारायण आँखें खोल मुस्काये।लक्ष्मी जी ने उस घटना का राज़ पूछा।तो नारायण ने जवाब में कहा।

लोग मेरी कार्यशैली नहीं समझे।
मैं किसी को दुःख या सुख नहीं देता वो तो इंसान अपनी करनी से पाता है।
यूं समझ लो मैं एक accountant हूं।
सिर्फ ये हिसाब रखता हूं।
किसको किस कर्म के लिए कब या किस जन्म में अपने पाप या पुण्य अनुसार क्या फल मिलेगा।
जिस अधर्मी को सोने की पोटली मिली, दरअसल आज उसे उस वक़्त पूर्व जन्म के सुकर्मों के लिए,पूरा राज्य भाग मिलना था मगर उसने इससे जन्म में इतने विकर्म
किये कि पूरे राज्य का मिलने वाला खज़ाना घट कर एक पोटली सोना रह गया।
और उस भले व्यक्ति ने पूर्व जन्म में इतने पाप करके शरीर छोड़ा था कि आज उसे शूली यानि फांसी पर चढ़ाया जाना था मगर इस जन्म के पुण्य कर्मो की वजह से शूली एक शूल में बदल गई।

अर्थात
ज्ञानी को कांटा चुभे तो उसे कष्ट होता है, दर्द तो होता,मगर वो दुखी नहीं होता।दूसरों की तरह वो भगवान को नहीं कोसता, बल्कि हर तकलीफ को प्रभु इच्छा मान इसमें भी कोई भला होगा मानकर हर कष्ट सह कर भी प्रभु का धन्यवाद करता है।

तो आगे से आप भी किसी तकलीफ में हो तो विचारिये?
सिर्फ़ कष्ट में हैं या दुःखी हैं।

सच्चे दिल से प्रभु पर विश्वास से आपकी आधी सज़ा माफ़ हो जाती है और बाक़ी तकलीफ सहने के लिए परमात्मा आपको उसे ख़ुशी ख़ुशी झेलने की हिम्मत और मार्गदर्शन देते हैं।
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸

नीतू ठाकुर

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

सोच
‘‘तो कितने दिनों के लिए जा रही हो?’’ प्लेट से एक और समोसा उठाते हुए दीपाली ने पूछा.
‘‘यही कोई 8-10 दिनों के लिए,’’ सलोनी ने उकताए से स्वर में कहा.
औफिस के टी ब्रेक के दौरान दोनों सहेलियां कैंटीन में बैठी बतिया रही थीं.
सलोनी की कुछ महीने पहले ही दीपेन से नईनई शादी हुई थी. दोनों साथ काम करते थे. कब प्यार हुआ पता नहीं चला और फिर चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज पर अब दोनों शादी कर के एक ही औफिस में काम कर रहे थे, बस डिपार्टमैंट अलग था. सारा दिन एक ही जगह काम करने के बावजूद उन्हें एकदूसरे से मिलनेजुलने की फुरसत नहीं होती थी. आईटी क्षेत्र की नौकरी ही कुछ ऐसी होती है.
‘‘अच्छा एक बात बताओ कि तुम रह कैसे लेती हो उस जगह? तुम ने बताया था कि किसी देहात में है तुम्हारी ससुराल,’’ दीपाली आज पूरे मूड में थी सलोनी को चिढ़ाने के. वह जानती थी ससुराल के नाम से कैसे चिढ़ जाती है सलोनी.
‘‘जाना तो पड़ेगा ही… इकलौती ननद की शादी है. अब कुछ दिन झेल लूंगी,’’ कह सलोनी ने कंधे उचकाए.
‘‘और तुम्हारी जेठानी, क्या बुलाती हो तुम उसे? हां भारतीय नारी अबला बेचारी,’’ और दोनों फक्क से हंस पड़ीं.
‘‘यार मत पूछो… क्या बताऊं? उन्हें देख कर मुझे किसी पुरानी हिंदी फिल्म की हीरोइन याद आ जाती है… एकदम गंवार है गंवार. हाथ भरभर चूडि़यां, मांग सिंदूर से पुती और सिर पर हर वक्त पल्लू टिकाए घूमती है. कौन रहता है आज के जमाने में इस तरह. सच कहूं तो ऐसी पिछड़ी औरतों की वजह से ही मर्द हम औरतों को कमतर समझते हैं… पता नहीं कुछ पढ़ीलिखी है भी या नहीं.’’
‘‘खैर, मुझे क्या? काट लूंगी कुछ दिन किसी तरह. चल, टाइम हो गया है… बौस घूररहा है,’’ और फिर दोनों अपनीअपनी सीट पर लौट गईं.
सलोनी शहर में पलीबढ़ी आधुनिक लड़की थी. दीपेन से शादी के बाद जब उसे पहली बार अपनी ससुराल जाना पड़ा तो उसे वहां की कोई चीज पसंद नहीं आई. उसे पहले कभी किसी गांव में रहने का अवसर नहीं मिला था. 2 दिन में ही उस का जी ऊब गया. उस ठेठ परिवेश में 3-4 दिन रहने के लिए दीपेन ने उसे बड़ी मुश्किल से राजी किया था. शहर में जींसटौप पहन कर आजाद तितली की तरह घूमने वाली सलोनी को साड़ी पहन घूंघट निकाल छुईमुई बन कर बैठना कैसे रास आता… ससुराल वाले पारंपरिक विचारों के लोग थे. उसे ससुर, जेठ के सामने सिर पर पल्लू लेने की हिदायत मिली. सलोनी की सास पुरातनपंथी थीं, मगर जेठानी अवनि बहुत सुलझी हुई थी. छोटी ननद गौरी नई भाभी के आगेपीछे घूमती रहती थी. सलोनी गांव की औरतों की सरलता देख हैरान होती. वह खुद दिल की बुरी नहीं थी, मगर न जाने क्यों पारंपरिक औरतों के बारे में उस के विचार कुछ अलग थे. सिर्फ घरगृहस्थी तक सीमित रहने वाली ये औरतें उस की नजरों में एकदम गंवार थीं.
शहर में अपनी नई अलग गृहस्थी बसा कर सलोनी खुश थी. यहां सासननद का कोई झंझट नहीं था. जो जी में आता वह करती. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं था. दीपेन और सलोनी के दोस्त वक्तबेवक्त धमक जाते. घर पर आए दिन पार्टी होती. दिन मौजमस्ती में गुजर रहे थे.
कुछ दिन पहले ही दीपेन की छोटी बहन गौरी की शादी तय हुई थी. शादी का अवसर था. घर में मेहमानों की भीड़ जुटी थी.
गरमी का मौसम उस पर बिजली का कोई ठिकाना नहीं होता था. हाथपंखे से हवा करतेकरते सलोनी का दम निकला जा रहा था. एअरकंडीशन के वातावरण में रहने वाली सलोनी को सिर पर पल्लू रखना भारी लग रहा था. गांव के इन पुराने रीतिरिवाजों से उसे कोफ्त होने लगी.
एकांत मिलते ही सलोनी का गुस्सा फूट पड़ा, ‘‘कहां ले आए तुम मुझे दीपेन? मुझ से नहीं रहा जाता ऐसी बीहड़ जगह में… ऊपर से सिर पर हर वक्त यह पल्लू रखो. इस से तो अच्छा होता मैं यहां आती ही नहीं.’’
‘‘धीरे बोलो सलोनी… यार कुछ दिन ऐडजस्ट कर लो प्लीज. गौरी की शादी के दूसरे ही दिन हम चले जाएंगे,’’ दीपेन ने उसे आश्वस्त करने की कोशिश की.
सलोनी ने बुरा सा मुंह बनाया. बस किसी तरह शादी निबट जाए तो उस की जान छूटे. घर रिश्तेदारों से भरा था. इतने लोगों की जिम्मेदारी घर की बहुओं पर थी. सलोनी को रसोई के कामों का कोई तजरबा नहीं था. घर के काम करना उसे हमेशा हेय लगता था. अपने मायके में भी उस ने कभी मां का हाथ नहीं बंटाया था. ऐसे में ससुराल में जब उसे कोई काम सौंपा जाता तो उस के पसीने छूट जाते. जेठानी अवनि उम्र में कुछ ही साल बड़ी थी, मगर पूरे घर की जिम्मेदारी उस ने हंसीखुशी उठा रखी थी. घर के सब लोग हर काम के लिए अवनि पर निर्भर थे, हर वक्त सब की जबान पर अवनि का नाम होता. सलोनी भी उस घर की बहू थी, मगर उस का वजूद अवनि के सामने जैसे था ही नहीं और सलोनी भी यह बात जल्दी समझ गई थी.
घर के लोगों में अवनि के प्रति प्यारदुलार देख कर सलोनी के मन में जलन की भावना आने लगी कि आखिर वह भी तो उस घर की बहू है… तो फिर सब अवनि को इतना क्यों मानते.
‘‘भाभी, मेरी शर्ट का बटन टूट गया है, जरा टांक दो,’’ बाथरूम से नहा कर निकले दीपेन ने अवनि को आवाज दी.
सलोनी रसोई के पास बैठी मटर छील रही थी. वह तुरंत दीपेन के पास आई. बोली, ‘‘यह क्या, इतनी छोटी सी बात के लिए तुम अवनि भाभी को बुला रहे हो… मुझ से भी तो कह सकते थे?’’ और फिर उस ने दीपेन को गुस्से से घूरा.
‘‘मुझे लगा तुम्हें ये सब नहीं आता होगा,’’ सलोनी को गुस्से में देख दीपेन सकपका गया.
‘‘तुम क्या मुझे बिलकुल अनाड़ी समझते हो?’’ कह उस के हाथ से शर्ट ले कर सलोनी ने बटन टांक दिया.
धीरेधीरे सलोनी को समझ आने लगा कि कैसे अवनि सब की चहेती बनी हुई है. सुबह सब से पहले उठ कर नहाधो कर चौके में जा कर चायनाश्ता बना कर सब को खिलाना. बूढ़े ससुरजी को शुगर की समस्या है. अवनि उन की दवा और खानपान का पूरा ध्यान रखती. सासूमां भी अवनि से खुश रहतीं. उस पर पति और
2 छोटे बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाते हुए भी मजाल की बड़ों के सामने पल्लू सिर से खिसक जाए. सुबह से शाम तक एक पैर पर नाचती अवनि सब की जरूरतों का खयाल बड़े प्यार से रखती.
घर आए रिश्तेदार भी अवनि को ही तरजीह देते. सलोनी जैसे एक मेहमान की तरह थी उस घर में. अवनि का हर वक्त मुसकराते रहना सलोनी को दिखावा लगता. वह मन ही मन कुढ़ने लगी थी अवनि से.
घर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अब सलोनी हर काम में घुस जाती थी, चाहे वह काम करना उसे आता हो या नहीं और इस चक्कर में गड़बड़ कर बैठती, जिस से उस का मूड और बिगड़ जाता.
‘ठीक है मुझे क्या? यह चूल्हाचौका इन गंवार औरतों को ही शोभा देता है. कभी कालेज की शक्ल भी नहीं देखी होगी शायद… दो पैसे कमा कर दिखाएं तब पता चले,’ सलोनी मन ही मन खुद को तसल्ली देती. उसे अपनी काबिलीयत पर गुमान था.
सलोनी के हाथ से अचार का बरतन गिर कर टूट गया. रसोई की तरफ आती अवनि फिसल कर गिर पड़ी और उस के पैर में मोच आ गई. घर वाले दौड़े चले आए. अवनि को चारपाई पर लिटा दिया गया. सब उस की तीमारदारी में जुट गए. उसे आराम करने की सलाह दी गई. उस के बैठ जाने से सारे काम बेतरतीब होने लगे.
बड़ी बूआ ने सलोनी को रसोई के काम में लगा दिया. सलोनी इस मामले में कोरा घड़ा थी. खाने में कोई न कोई कमी रह जाती. सब नुक्स निकाल कर खाते.
अवनि सलोनी की स्थिति समझती थी. वह पूरी कोशिश रती उसे हर काम सिखाने की पर अभ्यास न होने से जिन कामों में अवनि माहिर थी उन्हें करने में सलोनी घंटों लगा देती.
मझली बूआ ने मीठे में फिरनी खाने की फरमाइश की तो सलोनी को फिरनी पकाने का हुक्म मिला. उस के पास इतना धैर्य कहां था कि खड़ेखड़े कलछी घुमाती, तेज आंच में पकती फिरनी पूरी तरह जल गई.
‘‘अरे, कुछ आता भी है क्या तुम्हें? पहले कभी घर का काम नहीं किया क्या?’’ सारे रिश्तेदारों के सामने मझली बूआ ने सलोनी को आड़े हाथों लिया.
मारे शर्म के सलोनी का मुंह लाल हो गया. उसे सच में नहीं आता था तो इस में उस का क्या दोष था.
‘‘बूआजी, सलोनी ने ये सब कभी किया ही नहीं है पहले. वैसे भी यह नौकरी करती है… समय ही कहां मिलता है ये सब सीखने का इसे… आप के लिए फिरनी मैं फिर कभी बना दूंगी,’’ अवनि ने सलोनी का रोंआसा चेहरा देखा तो उस का मन पसीज गया. ननद गौरी की शादी धूमधाम से निबट गई. रिश्तेदार भी 1-1 कर चले गए. अब सिर्फ घर के लोग रह गए थे.
अवनि के मधुर व्यवहार के कारण सलोनी उस से घुलमिल गई थी. अवनि उस के हर काम में मदद करती.
2 दिन बाद उन्हें लौटना था. दीपेन ने ट्रेन के टिकट बुक करा दिए. एक दिन दोपहर में सलोनी पुराना अलबम देख रही थी. एक फोटो में अवनि सिर पर काली टोपी लगाए काला चोगा पहने थी. फोटो शायद कालेज के दीक्षांत समारोह का था. उस फोटो को देख कर सलोनी ने दीपेन से पूछा, ‘‘ये अवनि भाभी हैं न?’’
‘‘हां, यह फोटो उन के कालेज का है. भैया के लिए जब उन का रिश्ता आया था तो यही फोटो भेजा था उन के घर वालों ने.’’
‘‘कितनी पढ़ीलिखी हैं अवनि भाभी?’’ सलोनी हैरान थी.
‘‘अवनि भाभी डबल एमए हैं. वे तो नौकरी भी करती थीं. उन्होंने पीएचडी भी की हुई है. शादी के कुछ समय बाद मां बहुत बीमार पड़ गई थीं. बेचारी भाभी ने कोई कसर नहीं रखी उन की तीमारदारी में. अपनी नौकरी तक छोड़ दी. अगर आज मां ठीक हैं तो सिर्फ भाभी की वजह से. तुम जानती नहीं सलोनी, भाभी ने इस घर के लिए बहुत कुछ किया है. वे चाहतीं तो आराम से अपनी नौकरी कर सकती थीं. मगर उन्होंने हमेशा अपने परिवार को प्राथमिकता दी.’’
सलोनी जिस अवनि भाभी को निपट अनपढ़ समझती रही वह इतनी काबिल होगी, इस का तो उसे अनुमान भी नहीं था. पूरे घर की धुरी बन कर परिवार संभाले हुए अवनि भाभी ने अपनी शिक्षा का घमंड दिखा कर कभी घरगृहस्थी के कामों को छोटा नहीं समझा था.
सलोनी को अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी. उस ने आधुनिक कपड़ों और रहनसहन को ही शिक्षा का पैमाना माना था.
‘‘अरे भई, कहां हो तुम लोग, बिट्टू के स्कूल के प्रोग्राम में चलना नहीं है क्या?’’ कहते हुए अवनि भाभी सलोनी के कमरे में आईं.
‘‘हां, भाभी बस अभी 2 मिनट में तैयार होते हैं,’’ सलोनी और दीपेन हड़बड़ाते हुए बोले.
बिट्टू को अपनी क्लास के बैस्ट स्टूडैंट का अवार्ड मिला. हर विषय में वह अव्वल रहा था. उसे प्राइज देने के बाद प्रिंसिपल ने जब मांबाप को स्टेज पर दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया तो सकुचाते हुए बड़े भैया बोले, ‘‘अवनि, तुम जाओ. मुझे समझ नहीं आता कि क्या बोलना है.’’
बड़े आत्मविश्वास के साथ माइक पकड़े अवनि भाभी ने अंगरेजी में अभिभावक की जिम्मेदारियों पर जब शानदार स्पीच दी, तो हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.
घर लौटने के बाद दीपेन से सलोनी ने कहा, ‘‘सुनो, कुछ दिन और रुक जाते हैं यहां.’’
‘‘लेकिन तुम्हारा तो मन नहीं लग रहा था… इसीलिए तो इतनी जल्दी वापस जा रहे हैं,’’ दीपेन हैरान होकर बोला.
‘‘नहीं, अब मुझे यहां अच्छा लग रहा है… मुझे अवनि भाभी से बहुत कुछ सीखना है,’’ सलोनी उस के कंधे पर सिर टिकाते हुए बोली.
‘‘वाह तो यह बात है. फिर तो ठीक है. कुछ सीख जाओगी तो कम से कम जला खाना तो नहीं खाना पड़ेगा,’’ दीपेन ने उसे छेड़ा और फिर दोनों हंस पड़े.

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

नमस्कार दोस्तों
आज मेरी कहानी का नाम है

(((( कलेजे का टुकड़ा ))))
.
एक दिन की बात है, लड़की की माँ खूब परेशान होकर अपने पति को बोली की..
.
एक तो हमारा एक समय का खाना पूरा नहीं होता और बेटी साँप की तरह बड़ी होती जा रही है .
.
गरीबी की हालत में इसकी शादी कैसे करेंगे ? बाप भी विचार में पड़ गया .
.
दोनों ने दिल पर पत्थर रख कर एक फैसला किया की कल बेटी को मार कर गाड़ देंगे.
.
दूसरे दिन का सूरज निकला, माँ ने लड़की को खूब लाड़ प्यार किया, अच्छे से नहलाया, बार – बार उसका सर चूमने लगी .
.
यह सब देख कर लड़की बोली : माँ मुझे कही दूर भेज रहे हो क्या ?
.
वर्ना आज तक आपने मुझे ऐसे कभी प्यार नहीं किया,
.
माँ केवल चुप रही और रोने लगी, तभी उसका बाप हाथ में फावड़ा और चाकू लेकर आया,
.
माँ ने लड़की को सीने से लगाकर बाप के साथ रवाना कर दिया .
.
रास्ते में चलते – चलते बाप के पैर में कांटा चुभ गया, बाप एक दम से नीचे बैठ गया ,
.
बेटी से देखा नहीं गया उसने तुरंत कांटा निकालकर फटी चुनरी का एक हिस्सा पैर‌ पर बांध दिया .
.
बाप बेटी दोनों एक जंगल में पहुचे, बाप ने फावड़ा लेकर एक गढ़ा खोदने लगा बेटी सामने बेठे – बेठे देख रही थी ,
.
थोड़ी देर बाद गर्मी के कारण बाप को पसीना आने लगा .
.
बेटी बाप के पास गयी और पसीना पोछने के लिए अपनी चुनरी दी .
.
बाप उसे धक्का देकर बोला तू दूर जाकर बेठ।
.
थोड़ी देर बाद जब बाप गढ़ा खोदते – खोदते थक गया ,
.
बेटी दूर से बैठे -बैठे देख रही थी,
.
जब उसको लगा की पिताजी शायद थक गये तो पास आकर बोली
.
पिताजी आप थक गये है . लाओ फावड़ा में खोद देती हु आप थोड़ा आराम कर लो. मुझसे आप की तकलीफ नहीं देखी जाती.
.
यह सुनकर बाप ने अपनी बेटी को गले लगा लिया,
.
उसकी आँखों में आंसू की नदिया बहने लगी, उसका दिल पसीज गया,
.
बाप बोला : बेटा मुझे माफ़ कर दे, यह गढ़ा में तेरे लिए ही खोद रहा था. और तू मेरी चिंता करती है,
.
अब जो होगा सो होगा तू हमेशा मेरे कलेजा का टुकड़ा बन कर रहेगी
.
में खूब मेहनत करूँगा और तेरी शादी धूम धाम से करूँगा…
.
मुसीबतो से भागना तो कायरता है सुख दुःख तो अपना साथी है संघर्ष ही जीवन है।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

🙏🏼राम तत्व की महिमा🙏🏼

ऐसी बात नहीं है कि अवधपुरी में राजा दशरथ के घर श्रीराम अवतरित हुए तब से ही लोग श्रीराम का भजन करते हैं। नहीं, नहीं, राजा दिलीप, राजा रघु एवं राजा दशरथ के पिता राजा अज भी श्रीराम का ही भजन करते थे क्योंकि श्रीराम केवल दशरथ के पुत्र ही नहीं हैं, बल्कि रोम-रोम में जो चेतना व्याप्त रही है, रोम-रोम में जो रम रहा है उसका ही नाम है ‘राम’। राम जी के अवतरण से हजारों-लाखों वर्ष पहले राम नाम की महिमा वेदों में पायी जाती है।
रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।
‘जिसमें योगी लोगों का मन रमण करता है उसी को कहते हैं ‘राम’।’

एक राम घट-घट में बोले,
दूजो राम दशरथ घर डोले।
तीसर राम का सकल पसारा,
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य ने कहाः “गुरुजी ! आपके कथनानुसार तो चार राम हुए। ऐसा कैसे ?”
गुरूः “थोड़ी साधना कर, जप-ध्यानादि कर, फिर समझ में आ जायेगा।” साधना करके शिष्य की बुद्धि सूक्ष्म हुई, तब गुरु ने कहाः

जीव राम घट-घट में बोले।
ईश राम दशरथ घर डोले।
बिंदु राम का सकल पसारा।
ब्रह्म राम है सबसे न्यारा।।

शिष्य बोलाः “गुरुदेव ! जीव, ईश, बिंदु व ब्रह्म इस प्रकार भी तो राम चार ही हुए न ?”
गुरु ने देखा कि साधना आदि करके इसकी मति थोड़ी सूक्ष्म तो हुई है। किंतु अभी तक चार राम दिख रहे हैं। गुरु ने करूणा करके समझाया कि “वत्स ! देख, घड़े में आया हुआ आकाश, मठ में आया हुआ आकाश, मेघ में आया हुआ आकाश और उससे अलग व्यापक आकाश, ये चार दिखते हैं। अगर तीनों उपाधियों – घट, मठ, और मेघ को हटा दो तो चारों में आकाश तो एक-का-एक ही है। इसी प्रकारः

वही राम घट-घट में बोले।
वही राम दशरथ घर डोले।
उसी राम का सकल पसारा।
वही राम है सबसे न्यारा।।

रोम-रोम में रमने वाला चैतन्यतत्त्व वही का वही है और उसी का नाम है चैतन्य राम”
वे ही श्रीराम जिस दिन दशरथ-कौशल्या के घर साकार रूप में अवतरित हुए, उस दिन को भारतवासी श्रीरामनवमी के पावन पर्व के रूप में मनाते हैं।
कैसे हैं वे श्रीराम ? भगवान श्रीराम नित्य कैवल्य ज्ञान में विचरण करते थे। वे आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र एवं आदर्श शत्रु थे। आदर्श शत्रु ! हाँ, आदर्श शत्रु थे, तभी तो शत्रु भी उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सके। कथा आती है कि लक्ष्मण जी के द्वारा मारे गये मेघनाद की दाहिनी भुजा सती सुलोचना के समीप जा गिरी। सुलोचना ने कहाः ‘अगर यह मेरे पति की भुजा है तो हस्ताक्षर करके इस बात को प्रमाणित कर दे।’ कटी भुजा ने हस्ताक्षर करके सच्चाई स्पष्ट कर दी। सुलोचना ने निश्चय किया कि ‘मुझे अब सती हो जाना चाहिए।’ किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती ! जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दियाः “देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी श्रीहनुमान, परम जितेन्द्रिय श्री लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।”
जब रावण सुलोचना से ये बातें कह रहा था, उस समय कुछ मंत्री भी उसके पास बैठे थे। उन लोगों ने कहाः “जिनकी पत्नी को आपने बंदिनी बनाकर अशोक वाटिका में रख छोड़ा है, उनके पास आपकी बहू का जाना कहाँ तक उचित है ? यदि यह गयी तो क्या सुरक्षित वापस लौट सकेगी ?”
यह सुनकर रावण बोलाः “मंत्रियो ! लगता है तुम्हारी बुद्धि विनष्ट हो गयी है। अरे ! यह तो रावण का काम है जो दूसरे की स्त्री को अपने घर में बंदिनी बनाकर रख सकता है, राम का नहीं।”

धन्य है श्रीराम का दिव्य चरित्र, जिसका विश्वास शत्रु भी करता है और प्रशंसा करते थकता नहीं ! प्रभु श्रीराम का पावन चरित्र दिव्य होते हुए भी इतना सहज सरल है कि मनुष्य चाहे तो अपने जीवन में भी उसका अनुसरण कर सकता है!
……………… जय सिया राम जी …………..

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

प्रेरक प्रसंग

विश्व प्रेम

  स्वामी दयानन्द सरस्वती ने फर्रुखाबाद में गंगा के किनारे एक झोपड़ी में अपना डेरा डाला था ।  कैलास नामक एक युवक की उन पर बड़ी श्रद्धा थी ।  एक दिन वह उनके पास आया और उसने अन्दर आने की अनुमति माँगी ।
  दयानन्द हँसते हुए बोले,  "यदि कैलास इस छोटे से झोंपड़े में प्रवेश कर सकता है, तो उसे अवश्य अन्दर आना चाहिए ।"
  अन्दर आते ही वह बोला,  "स्वामीजी !  आज मैं आपके पास किसी खास उद्देश्य से आया हूँ ।  बात यह है कि मेरे मन में रह - रहकर यह विचार उठता है कि इतनी साधना करने के बाद जब आप मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी हो गये हैं, तो फिर आप इस संसार की चिन्ता क्यों करते हैं ?"
  प्रश्न सुनकर स्वामीजी मुसकरा दिये, बोले,  "कैलास !  यह भी कोई प्रश्न है ? जब मुझे साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि संसार में जहाँ-तहाँ अशान्ति है, यह अश्रु-सागर में डूब रहा है, दुःखों की अग्नि में झुलस रहा है, अत्याचारों से त्रस्त है, तब भला ऐसी स्थिति में उसे नजरन्दाज कैसे कर सकता हूँ ?  मैं मोक्ष-प्राप्ति का इच्छुक नहीं हूँ, न ही शान्तिपूर्वक मुक्ति चाहता हूँ ।  मैं मुक्त होऊँगा, तो सबको साथ लेकर, अन्यथा मुझे मुक्ति नहीं चाहिए ।  कैलास !  इसे अच्छी तरह समझ लो कि जो सच्चे हृदय से जनार्दन से प्यार करना चाहता है, उसे चाहिए कि वह जनता से, जो कि जनार्दन की ही कृति है, पहले प्यार करे, तभी जनार्दन का प्यार उसे मिलेगा ।"

अनूप सिन्हा

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

सामर्थ्यशाली हिन्दू

कन्यादान (दस हजार गैर पारम्परिक विवाहों ) द्वारा राज्यों में एकता बढ़ा कर हराया था सिकन्दर को…

आज से दो हजार – तीन हजार वर्ष पहले, हिन्दू संगठित थे, समरस थे. और इसीलिए अत्यधिक सामर्थ्यशाली थे.

इसका उदहारण मिलता हैं, ग्रीक (यूनानी) सम्राट सिकंदर के आक्रमण के समय. पारसिक राष्ट्र के, अर्थात आज के ईरान के, शासकों का ग्रीक साम्राज्य से परंपरागत बैर था. विशाल पारसिक साम्राज्य के सामने, छोटे छोटे से यूनानी राजा कही न ठहरते थे. किन्तु सिकंदर के पिता, फिलिप ने, इन छोटे राज्यों को संगठित कर, यूनानियों का एक राज्य बनाया. ईसा पूर्व ३२९ में, फिलिप की मृत्यु के पश्चात, सिकंदर इस संगठित यूनानी राज्य की ताकत लेकर पारसिक साम्राज्य से भिड़ गया. और पहले ही झटके में उसने इस साम्राज्य को ध्वस्त किया. खुद को पारसिक का सम्राट घोषित कर वह आगे बढ़ा. रास्ते में बाबिलोनी साम्राज्य को भी उसने परास्त किया. वर्तमान के सीरिया, मिस्र, गाझा, तुर्की, ताजिकिस्तान को कुचलते हुए वह भारत की सीमा तक पहुंचा.

अन्य राष्ट्रों को उसने जैसा जीता, उसी आसानी से भारत को जितने की उसकी कल्पना थी. भारत के अत्यंत समृध्द ‘मगध साम्राज्य’ को उसे जीतना था.

लेकिन उसकी कल्पना और अपेक्षा के विपरीत, भारत में उसे कड़े विरोध का सामना करना पड़ा.
आज के हमारे पंजाब प्रान्त को तो उसने जीत लिया, पर एक एक इंच भूमि उसे जी जान से लड़कर जीतनी पड़ी. मानो काले कभिन्न चट्टानों पर उसकी सेना सर फोड़ रही हो..! मगध के दर्शन भी न करते हुए, रक्तरंजित अवस्था में, विकल और विकट परिस्थिति में उसे वापस लौटना पड़ा.

विश्वविजयी कहलाने वाले, ‘सिकंदर महान’ की भारत में ऐसी दुर्गत क्यूँ हुई..?

उन दिनों भारत की उत्तर – पश्चिमी सीमा पर, सिन्धु नदी के दोनों तटों पर सौभूती, कठ, मालव, क्षुद्रक, अग्रश्रेणी, पट्टनप्रस्थ ऐसे अनेक छोटे छोटे गणराज्य थे. तक्षशिला जैसा राज्य भी था. सिकंदर के विशाल सेनासागर के सामने वह टिक न सके. किन्तु सिकंदर को प्रत्येक विजय की भरपूर कीमत चुकानी पड़ी. उसके सैनिक इतने परेशान हो गए, डर गए और थक गए कि व्यास (बियास) नदी के उस पार, ‘यौधेय गणों की बड़ी मजबूत सेना खड़ी हैं’, यह सुनकर ही उनके छक्के छुट गए.

सिकंदर ने फिर भी आगे बढ़ने का निर्णय लिया तो मानो सेना में भूचाल आ गया. उसके सैनिक रोने लगे और उसे आगे जाने से रोकने लगे. यूनानी इतिहासकार प्लूटार्क लिखता हैं – ‘पोरस से युध्द करने के बाद सिकंदर की सेना का मनोबल पूरी तरह से टूट गया था. और इसीलिए सिकंदर को व्यास के उत्तर तट से ही वापस लौटना पड़ा.

यूनानी सेनानी और इतिहासकार डीयोडोरस ने भी भारतीय सैनिकों के वीरता एवम् एकजूटता के अनेक किस्से बयान किये हैं.

मालव और क्षुद्रक ये दो छोटे गणराज्य सिन्धु नदी के तट पर थे. दोनों में परंपरागत खानदानी दुश्मनी थी. लेकिन सिकंदर से युध्द करने के लिए उन्होंने अपना पिढीजात बैर भुला दिया. अब दोनों राज्यों के नागरिक इस बैर को कैसा भूलेंगे..? इसलिए दोनों गणराज्यों ने आपस में कन्यादान कर, दस हजार विवाह संपन्न किये. हिन्दुओं की एकजूटता का यह अनुपम उदहारण हैं…!

भारत से लौटते समय, सिकंदर की इतनी ज्यादा हानि हुई थी की दो वर्ष में ही, ईसा पूर्व ३२३ में उसकी मृत्यु हुई. सिकंदर के मरने के बाद, उसने जीता हुआ सारा पंजाब, पुनः स्वतंत्र हो गया. इस कालखंड में हिन्दू सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय यह भारतवर्ष को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण घटना थी. विदेशी आक्रान्ताओं का सशक्त प्रतिकार करने का यह क्रम अगले हजार – बारह सौ वर्ष निरंतर चलता रहा. भारतवर्ष का यह स्वर्णिम कालखंड था.

इस बीच दो तीन सौ वर्षों के बाद, सम्राट अशोक के अहिंसा तत्व के प्रचार – प्रसार के बाद, जब भारत की लड़ने की धार कुछ कम हुई तो डेमित्रीयस नामका सेनानी बेक्ट्रिया से जो निकला तो सीधे भारत के अयोध्या तक पहुचा. लेकिन कलिंग (उड़ीसा) के महाप्रतापी राजा खारवेल ने उसे इरान की सीमा तक खदेड़ दिया..!

शक और कुशाणों का आक्रमण तो यूनानियों से भी महाभयंकर था. ये लोग मतलब क्रूर कबाईली टोलियाँ थी. मारना, लूटना, तबाह करना इसी में इनको आनंद आता था. लेकिन भारतीय सेनानियों ने इस पाशविक आक्रमण को भी समाप्त किया. जब उत्तर के राजा निष्प्रभ होते थे, तब दक्षिण के राजा, भारतवर्ष को आक्रांताओं से बचाने सामने आते थे. सातवाहन साम्राज्य के गौतमीपुत्र सातकर्णी ने शकों से जबरदस्त युध्द कर उनके राजा नहमान को मार कर उनको खदेड़ दिया था.

कुशाणों के आक्रमण के समय सांस्कृतिक धरातल पर हिन्दू इतने मजबूत थे, की सारे कुशाण हिन्दू हो गए. वैदिक आचरण करने लगे. संस्कृत बोलने – लिखने लगे. उनके राजा कनिष्क ने बौध्द धर्म का स्वीकार किया.

जो हाल शक, कुशाणों का, वही हाल किया हूणों का भी. मध्य आशिया के ये सारे असंस्कृत, क्रूर कबाईली लोग. इनसे डरकर चीन ने अपनी ऐतिहासिक दीवार खड़ी की. लेकिन भारत के सेनानियों ने उनका भी निःपात किया. मालवा के राजा यशोवर्मा ने अन्य हिन्दू राजाओं को संगठित कर हूणों को परास्त किया.

यह पूरा विजय का इतिहास हैं. संगठित हिन्दू शक्ति के यशस्वी प्रकटीकरण का इतिहास हैं. यह हिन्दुओं की विजिगीषु वृत्ति का इतिहास हैं ।

निओ दिप