Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

कैसे बने भगवान विष्णु तिरुपति बालाजी?????

एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया । यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गयी । तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई । ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष्य तो देवगण ग्रहण करते थे । लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी ? यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरुरी था, जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करे ।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश परम् अात्मा हैं । इनमें से श्रेष्ठ कौन है ? इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे ? भृगु ने इसका दायित्व सम्भाला । वह देवों की परीक्षा लेने चले । ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुँचे ।

ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया । इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया । भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं । पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ? भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी । ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे । भृगु किसी तरह वहाँ से जान बचाकर भाग चले आए ।

इसके बाद वह शिव जी के लोक कैलाश गए । भृगु ने फिर से धृष्टता की । बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाए या शिव गणों से आज्ञा लिए सीधे वहाँ पहुँच गए, जहाँ शिव जी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे । आए तो आए, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया । शिव जी शांत रहे, पर भृगु न समझे । शिव जी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया। भृगु वहाँ से भागे।

अन्त में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे । श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं । महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गए थे । उनका मन बहुत दुखी था । विष्णु जी को सोता देख । उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी ।

विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले “हे ब्राह्मण देवता ! मेरी छाती वज्र समान कठोर है और आपका शरीर तप के कारण दुर्बल है, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आयी ? आपने मुझे सावधान करके कृपा की है । आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा ।”

भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने तो भगवान की परीक्षा लेने के लिए यह अपराध किया था । परन्तु भगवान तो दण्ड देने के बदले मुस्करा रहे थे । उन्होंने निश्चय किया कि श्रीहरि जैसी विनम्रता किसी में नहीं । वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं । लौट करके उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनायी । सभी ने एक मत से यह निर्णय किया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझकर मुख्य भाग दिया जाएगा ।

लेकिन लक्ष्मी जी ने भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया । परन्तु उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्रीहरि ने उद्दण्ड को दण्ड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और उल्टे क्षमा मांगने लगे ! क्रोध से तमतमाई महालक्ष्मी को लगा कि वह जिस पति को संसार का सबसे शक्तिशाली समझती है, वह तो निर्बल हैं । यह धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश कैसे करते होंगे ?

महालक्ष्मी ग्लानि में भर गई और मन श्रीहरि से उचाटन हो गया । उन्होंने श्रीहरि और बैकुण्ठ लोक दोनों के त्याग का निश्चय कर लिया । स्त्री का स्वाभिमान उसके स्वामी के साथ बंधा होता है । उनके समक्ष कोई स्वामी पर प्रहार कर गया और स्वामी ने प्रतिकार भी न किया, यह बात मन में कौंधती रही । यह स्थान वास के योग्य नहीं । पर, त्याग कैसे करें ? श्रीहरि से ओझल होकर रहना कैसे होगा ? वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं ।

श्रीहरि ने हिरण्याक्ष के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए वराह अवतार लिया और दुष्टों का संहार करने लगे । महालक्ष्मी के लिए यह समय उचित लगा । उन्होंने बैकुण्ठ का त्याग कर दिया और पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं ।

तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया । विष्णु जी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्ण कर वैकुण्ठ लौटे तो महालक्ष्मी नहीं मिलीं । वह उन्हें खोजने लगे ।

श्रीहरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किन्तु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी । उसी शक्ति से उन्होंने श्री हरि को भ्रमित रखा । आख़िर श्रीहरि को पता लग ही गया । लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थीं । दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है । श्रीहरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है, इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे ।

महालक्ष्मी ने मानव रुप धरा है तो अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करने के लिए वह भी साधारण मानवों के समान व्यवहार करेंगे और महालक्ष्मी जी का हृदय और विश्वास जीतेंगे । भगवान ने श्रीनिवास का रुप धरा और पृथ्वी लोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महालक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे ।

राजा आकाशराज निःसंतान थे । उन्होंने शुकदेव जी की आज्ञा से सन्तान प्राप्ति यज्ञ किया । यज्ञ के बाद यज्ञशाला में ऋषियों ने राजा को हल जोतने को कहा गया । राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया । राजा ने उस स्थान को खोदा तो एक पेटी के अन्दर सहस्रदल कमल पर एक छोटी-सी कन्या विराजमान थी । वह महालक्ष्मी ही थीं । राजा के मन की मुराद पूरी हो गई थी । चूंकि कन्या कमल के फूल में मिली थी, इसलिए उसका नाम रखा गया “पदमावती” ।

पदमावती नाम के अनुरुप ही रुपवती और गुणवती थी। साक्षात लक्ष्मी का अवतार । पद्मावती विवाह के योग्य हुई। एक दिन वह बाग में फूल चुन रही थी । उस वन में श्रीनिवास (बालाजी) आखेट के लिए गए थे । उन्होंने देखा कि एक हाथी एक युवती के पीछे पड़ा है और डरा रहा है । राजकुमारी के सेवक भाग खड़े हुए । श्रीनिवास ने तीर चलाकर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की । श्रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा और रीझ गए । दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ। लेकिन दोनों बिना कुछ कहे अपने-अपने घर लौट गए ।

श्रीनिवास घर तो लौट आए, लेकिन मन पदमावती में ही बस गया । वह पदमावती का पता लगाने के लिए उपाय सोचने लगे । उन्होंने ज्योतिषी का रुप धरा और भविष्य बांचने के बहाने पदमावती को ढूंढने निकल पड़े । धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गयी ।

पदमावती के मन में श्रीनिवास के लिए प्रेम जागृत हुआ। वह भी उनसे मिलने को व्याकुल थीं । किन्तु कोई पता-ठिकाना न होने के कारण उनका मन चिंतित था । इस चिन्ता और प्रेम विरह में उन्होंने भोजन-श्रृंगार आदि का त्याग कर दिया । इसके कारण उसका शरीर कृशकाय होता चला गया । राजा से पुत्री की यह दशा देखी नहीं जा रही थी, वह चिंतित थे । ज्योतिषी की प्रसिद्धि की सूचना राजा को हुई ।

राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और सारी बात बताकर अपनी कन्या की दशा का कारण बताने को कहा। श्रीनिवास राजकुमारी का हाल समझने पहुंचे तो पदमावती को देखकर प्रसन्न हो गए । उनका उपक्रम सफल हुआ । उन्होंने परदमावती का हाथ अपने हाथ में लिया । कुछ देर तक पढने का स्वांग करने के बाद बोले – “महाराज ! आपकी पुत्री प्रेम के विरह में जल रही है । आप इनका शीघ्र विवाह कर दें तो ये स्वस्थ हो जायेंगी ।”

पदमावती ने अब श्रीनिवास की ओर देखा । देखते ही पहचान लिया । उनके मुख पर प्रसन्नता के भाव आए और वह हँसीं । काफी दिनों बाद पुत्री को प्रसन्न देख राजा को लगा कि ज्योतिषी का अनुमान सही है । राजा ने श्रीनिवास से पूछा – “ज्योतिषी महाराज ! यदि आपको यह पता है कि मेरी पुत्री प्रेम के विरह में पीड़ित है तो आपको यह भी सूचना होगी कि मेरी पुत्री को किससे प्रेम है ? उसका विवाह करने को तैयार हूँ, आप उसका परिचय दें ?

श्रीनिवास ने कहा – “महाराज ! आपकी पुत्री एक दिन वन में फूल चुनने गई थी । एक हाथी ने उन पर हमला किया तो आपके सैनिक और दासियां भाग खड़ी हुईं । राजकुमारी के प्राण एक धनुर्धर ने बचाए थे ।”

राजा ने कहा – “हाँ, मेरे सैनिकों ने बताया था कि एक दिन ऐसी घटना हुई थी । एक वीर पुरुष ने उसके प्राण बचाए थे । लेकिन मेरी पुत्री के प्रेम से उस घटना का क्या तात्पर्य है ?”

श्रीनिवास ने बताया – “महाराज ! आपकी पुत्री को अपनी जान बचाने वाले उसी युवक से प्रेम हुआ है ।” राजा के पूछने पर श्रीनिवास ने कहा – “वह कोई साधारण युवक नहीं, बल्कि शंख चक्रधारी स्वयं भगवान विष्णु ही हैं । इस समय बैकुण्ठ को छोड़कर मानव रुप में श्रीनिवास के नाम से पृथ्वी पर वास कर रहे हैं । आप अपनी पुत्री का विवाह उनसे करें । मैं इसकी सारी व्यवस्था करा दूंगा ।” यह बात सुनकर राजा प्रसन्न हो गए कि स्वयं विष्णु उनके जमाई बनेंगे ।

श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गया । श्रीनिवास रुप में श्रीहरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी । शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए।देवी-देवता श्रीनिवास जी से मिलने औऱ बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे ।

परन्तु श्रीनिवास जी को खुशी के बीच एक चिंता भी होने लगी । देवताओं ने पूछा – “भगवन ! संसार की चिंता हरने वाले आप इस उत्सव के मौके पर इतने चिंतातुर क्यों हैं ?”

श्रीनिवास जी ने कहा – “चिंता की बात तो है ही, धन का अभाव । महालक्ष्मी ने मुझे त्याग दिया, इस कारण धनहीन हो चुका हूँ । स्वयं महालक्ष्मी ने तप से शरीर त्याग मानव रुप लिया है और पिछली स्मृतियों को गुप्त कर लिया है । इस कारण उन्हें यह सूचना नहीं है कि वह महालक्ष्मी का स्वरुप हैं ।

वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं । मैंने निर्णय किया है कि जब तक उनका प्रेम पुनः प्राप्त नहीं करता, अपनी माया का उन्हें आभास नहीं कराउंगा । इस कारण मैं एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। और वह हैं, राजकुमारी । राजा की पुत्री से शादी करने और घर बसाने के लिए धन, वैभव और ऐश्वर्य की जरुरत है । वह मैं कहां से लाऊं ?”

स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी । मानव रुप में आए प्रभु को भी विवाह के लिए धन की आवश्यकता हुई । यही तो ईश्वर की लीला है । जिस रुप में रहते हैं, उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं । श्रीहरि विवाह के लिए धन का प्रबंध कैसे हो ? इस बात से चिंतित हैं । देवताओं ने जब यह सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ । देवताओं ने कहा – “कुबेर, आवश्यकता के बराबर धन की व्यवस्था कर देंगे ।”

देवताओं ने कुबेर का आह्वान किया तो कुबेर प्रकट हुए। कुबेर ने कहा – “यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि आपके लिए कुछ कर सकूं । प्रभु ! आपके लिए धन का तत्काल प्रबंध करता हूँ । कुबेर का कोष आपकी कृपा से ही रक्षित है ।”

श्रीहरि ने कुबेर से कहा – “यक्षराज कुबेर ! आपको भगवान भोलेनाथ ने जगत और देवताओं के धन की रक्षा का दायित्व सौंपा है । उसमें से धन मैं अपनी आवश्यकता के हिसाब से लूंगा अवश्य, पर मेरी एक शर्त भी होगी ।”

श्रीहरि कुबेर से धन प्राप्ति की शर्त रख रहे हैं, यह सुनकर सभी देवता आश्चर्य में पड़ गए । श्रीहरि ने कहा – “ब्रह्मा जी और शिव जी साक्षी रहें । कुबेर से धन ऋण के रुप में लूंगा, जिसे भविष्य में ब्याज सहित चुकाऊंगा ।”

श्रीहरि की बात से कुबेर समेत सभी देवता विस्मय में एक-दूसरे को देखने लगे । कुबेर बोले – “भगवन ! मुझसे कोई अपराध हुआ तो उसके लिए क्षमा कर दें । पर, ऐसी बात न कहें । आपकी कृपा से विहीन होकर मेरा सारा कोष नष्ट हो जाएगा ।”

श्रीहरि ने कुबेर को निश्चिंत करते हुए कहा – “आपसे कोई अपराध नहीं हुआ । मैं मानव की कठिनाई का अनुभव करना चाहता हूँ । मानव रुप में उन कठिनाइयों का सामना करुँगा, जो मानव को आती हैं । धन की कमी और ऋण का बोझ सबसे बड़ा होता है ।”

कुबेर ने कहा – “प्रभु ! यदि आप मानव की तरह ऋण पर धन लेने की बात कर रहे हैं तो फिर आपको मानव की तरह यह भी बताना होगा कि ऋण चुकाएंगे कैसे ? मानव को ऋण प्राप्त करने के लिए कई शर्तें झेलनी पड़ती हैं ।”

श्रीनिवास ने कहा – “कुबेर ! यह ऋण मैं नहीं, मेरे भक्त चुकाएंगे । लेकिन मैं उनसे भी कोई उपकार नहीं लूंगा । मैं अपनी कृपा से उन्हें धनवान बनाऊंगा । कलियुग में पृथ्वी पर मेरी पूजा धन, ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण देवता के रुप में होगी । मेरे भक्त मुझसे धन, वैभव और ऐश्वर्य की मांग करने आएंगे । मेरी कृपा से उन्हें यह प्राप्त होगा, बदले में भक्तों से मैं दान प्राप्त करूंगा जो चढ़ावे के रुप में होगा । मैं इस तरह आपका ऋण चुकाता रहूंगा ।”

कुबेर ने कहा – “भगवन ! कलियुग में मानव जाति धन के विषय में बहुत विश्वास के योग्य नहीं रहेगी । उन पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करना क्या उचित होगा ?”

श्रीनिवास जी बोले – “शरीर त्यागने के बाद तिरुपति के तिरुमाला पर्वत पर बाला जी के नाम से लोग मेरी पूजा करेंगे । मेरे भक्तों की अटूट श्रद्धा होगी । वह मेरे आशीर्वाद से प्राप्त धन में मेरा हिस्सा रखेंगे । इस रिश्ते में न कोई दाता है और न कोई याचक।

हे कुबेर ! कलियुग के आखिरी तक भगवान बाला जी धन, ऐश्वर्य और वैभव के देवता बने रहेंगे । मैं अपने भक्तों को धन से परिपूर्ण करूंगा तो मेरे भक्त दान से न केवल मेरे प्रति अपना ऋण उतारेंगे, बल्कि मेरा ऋण उतारने में भी मदद करेंगे । इस तरह कलियुग की समाप्ति के बाद मैं आपका मूलधन लौटा दूंगा ।”

कुबेर ने श्रीहरि द्वारा भक्त और भगवान के बीच एक ऐसे रिश्ते की बात सुनकर उन्हें प्रणाम किया और धन का प्रबंध कर दिया । भगवान श्रीनिवास और कुबेर के बीच हुए समझौते के साक्षी स्वयं ब्रह्मा और शिव जी हैं । दोनों वृक्ष रुप में साक्षी बन गए । आज भी पुष्करणी तीर्थ के किनारे ब्रह्मा और शिव जी बरगद के पेड़ के रुप में साक्षी बनकर खड़े हैं ।

ऐसा कहा जाता है कि निर्माण कार्य के लिए स्थान बनाने के लिए इन दोनों पेड़ों को जब काटा जाने लगा तो उनमें से खून की धारा फूट पड़ी । पेड़ काटना बन्द करके उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी ।

इस तरह भगवान श्रीनिवास (बाला जी) और पदमावती (महालक्ष्मी) का विवाह पूरे धूमधाम से हुआ । जिसमें सभी देवगण पधारे । भक्त मन्दिर में दान देकर भगवान पर चढ़ा ऋण उतार रहे हैं, जो कलियुग के अन्त तक जारी रहेगा ।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

मित्रोआज बुधवार है, आज हम आपको मुम्बई स्थिति सिद्धविनायक (गणेशजी) मंदिर के बारे बतायेगें!!!!!!!

सिद्घिविनायक गणेश जी का सबसे लोकप्रिय रूप है। गणेश जी जिन प्रतिमाओं की सूड़ दाईं तरह मुड़ी होती है, वे सिद्घपीठ से जुड़ी होती हैं और उनके मंदिर सिद्घिविनायक मंदिर कहलाते हैं। कहते हैं कि सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरंत पूरा करते हैं। मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।

सिद्धि विनायक की दूसरी विशेषता यह है कि वह चतुर्भुजी विग्रह है। उनके ऊपरी दाएं हाथ में कमल और बाएं हाथ में अंकुश है और नीचे के दाहिने हाथ में मोतियों की माला और बाएं हाथ में मोदक (लड्डुओं) भरा कटोरा है। गणपति के दोनों ओर उनकी दोनो पत्नियां रिद्धि और सिद्धि मौजूद हैं जो धन, ऐश्वर्य, सफलता और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने का प्रतीक है। मस्तक पर अपने पिता शिव के समान एक तीसरा नेत्र और गले में एक सर्प हार के स्थान पर लिपटा है। सिद्धि विनायक का विग्रह ढाई फीट ऊंचा होता है और यह दो फीट चौड़े एक ही काले शिलाखंड से बना होता है।

यूं तो सिद्घिविनायक के भक्त दुनिया के हर कोने में हैं लेकिन महाराष्ट्र में इनके भक्त सबसे ज्यादा हैं। समृद्धि की नगरी मुंबई के प्रभा देवी इलाके का सिद्धिविनायक मंदिर उन गणेश मंदिरों में से एक है, जहां सिर्फ हिंदू ही नहीं, बल्कि हर धर्म के लोग दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। हालांकि इस मंदिर की न तो महाराष्ट्र के ‘अष्टविनायकों ’ में गिनती होती है और न ही ‘सिद्ध टेक ’ से इसका कोई संबंध है, फिर भी यहां गणपति पूजा का खास महत्व है।

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के सिद्ध टेक के गणपति भी सिद्धिविनायक के नाम से जाने जाते हैं और उनकी गिनती अष्टविनायकों में की जाती है। महाराष्ट्र में गणेश दर्शन के आठ सिद्ध ऐतिहासिक और पौराणिक स्थल हैं, जो अष्टविनायक के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन अष्टविनायकों से अलग होते हुए भी इसकी महत्ता किसी सिद्ध-पीठ से कम नहीं।

आमतौर पर भक्तगण बाईं तरफ मुड़ी सूड़ वाली गणेश प्रतिमा की ही प्रतिष्ठापना और पूजा-अर्चना किया करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि दाहिनी ओर मुड़ी गणेश प्रतिमाएं सिद्ध पीठ की होती हैं और मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर में गणेश जी की जो प्रतिमा है, वह दाईं ओर मुड़े सूड़ वाली है। यानी यह मंदिर भी सिद्ध पीठ है।

किंवदंती है कि इस मंदिर का निर्माण संवत् १६९२ में हुआ था। मगर सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक इस मंदिर का १९ नवंबर १८०१ में पहली बार निर्माण हुआ था। सिद्धि विनायक का यह पहला मंदिर बहुत छोटा था। पिछले दो दशकों में इस मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण हो चुका है। हाल ही में एक दशक पहले १९९१ में महाराष्ट्र सरकार ने इस मंदिर के भव्य निर्माण के लिए २० हजार वर्गफीट की जमीन प्रदान की।

वर्तमान में सिद्धि विनायक मंदिर की इमारत पांच मंजिला है और यहां प्रवचन ग्रह, गणेश संग्रहालय व गणेश विद्यापीठ के अलावा दूसरी मंजिल पर अस्पताल भी है, जहां रोगियों की मुफ्त चिकित्सा की जाती है। इसी मंजिल पर रसोईघर है, जहां से एक लिफ्ट सीधे गर्भग्रह में आती है। पुजारी गणपति के लिए निर्मित प्रसाद व लड्डू इसी रास्ते से लाते हैं।

नवनिर्मित मंदिर के ‘गभारा ’ यानी गर्भग्रह को इस तरह बनाया गया है ताकि अधिक से अधिक भक्त गणपति का सभामंडप से सीधे दर्शन कर सकें। पहले मंजिल की गैलरियां भी इस तरह बनाई गई हैं कि भक्त वहां से भी सीधे दर्शन कर सकते हैं। अष्टभुजी गर्भग्रह तकरीबन १० फीट चौड़ा और १३ फीट ऊंचा है। गर्भग्रह के चबूतरे पर स्वर्ण शिखर वाला चांदी का सुंदर मंडप है, जिसमें सिद्धि विनायक विराजते हैं। गर्भग्रह में भक्तों के जाने के लिए तीन दरवाजे हैं, जिन पर अष्टविनायक, अष्टलक्ष्मी और दशावतार की आकृतियां चित्रित हैं।

वैसे भी सिद्धिविनायक मंदिर में हर बुधवार को भारी संख्या में भक्तगण गणपति बप्पा के दर्शन कर अपनी अभिलाषा पूरी करते हैं। बुधवार को यहां इतनी भीड़ होती है कि लाइन में चार-पांच घंटे खड़े होने के बाद दर्शन हो पाते हैं। हर साल गणपति पूजा महोत्सव यहां भाद्रपद की चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक विशेष समारोह पूर्वक मनाया जाता है।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

(((( हरि का भोग ))))
.
श्रीयशोदाजी के मायके से एक ब्राह्मण गोकुल आये।
.
नंदरायजी के घर बालक का जन्म हुआ है, यह सुनकर आशीर्वाद देने आये थे।
.
मायके से आये ब्राह्मण को देखकर यशोदाजी को बड़ा अानंद हुआ। पंडितजी के चरण धोकर, आदर सहित उनको घर में बिठाया और उनके भोजन के लिये योग्य स्थान गोबर से लिपवा दिया।
.
पंडितजी से बोली, देव आपकी जो इच्छा हो भोजन बना लें। यह सुनकर विप्र का मन अत्यन्त हर्षित हुआ।
.
विप्र ने कहा बहुत अवस्था बीत जाने पर विधाता अनुकूल हुए, यशोदाजी ! तुम धन्य हो जो ऐसा सुन्दर बालक का जन्म तुम्हारे घर हुआ।
.
यशोदाजी गाय दुहवाकर दूध ले आईं, ब्राह्मण ने बड़ी प्रसन्नता से घी मिश्री मिलाकर खीर बनायी। खीर परोसकर वो भगवान हरी को भोग लगाने के लिये ध्यान करने लगे।
.
जैसे ही आँखे खोली तो विप्र देव ने देखा कन्हाई खीर का भोग लगा रहे हैं।
.
वे बोले यशोदाजी ! आकर अपने पुत्र की करतूत तो देखो, इसने सारा भोजन जूठा कर दिया।
.
ब्रजरानी दोनो हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी, विप्रदेव बालक को क्षमा करें और कृपया फिर से भोजन बना लें।
.
व्रजरानी दुबारा दूध घी मिश्री तथा चावल ले आयीं और कन्हाई को घर के भीतर ले गयीं ताकि वो कोई गलती न करें।
.
विप्र अब पुन: खीर बनाकर अपने अराध्य को अर्पित कर ध्यान करने लगे, कन्हाई फिर वहाँ आकर खीर का भोग लगाने लगे।
.
विप्रदेव परेशान हो गये। मैया मोहन को गुस्से से कहती हैं – कान्हा लड़कपन क्यों करते हो ? तुमने ब्राह्मण को बार-बार खिजाया ( तंग किया ) है।
.
इस तरह बिप्रदेव जब-जब भोग लगाते हैं, कन्हाई आकर तभी जूठा कर देते हैं।
.
अब माता परेशान होकर कहने लगी ‘कन्हाई मैंने बड़ी उमंग से ब्राह्मणदेव को न्योता दिया था और तू उन्हें चिढ़ाता है ?
.
जब वो अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही भागकर चला जाता है और भोग जूठा कर देता है’।
.
यह सुनकर कन्हाई बोले- मैया तू मुझे क्यों दोष देती है, विप्रदेव स्वयं ही विधि विधान से मेरा ध्यान कर हाथ जोड़कर मुझे भोग लगाने के लिये बुलाते हैं, हरी आओ, भोग स्वीकार करो। मैं कैसे न जाऊँ।
.
ब्राह्मण की समझ में बात आ गयी। अब वे व्याकुल होकर कहने लगे, प्रभो ! अज्ञानवश मैंने जो अपराध किया है, मुझे क्षमा करें।
.
यह गोकुल धन्य है, श्रीनन्दजी और यशोदाजी धन्य हैं, जिनके यहाँ साक्षात् श्रीहरि ने अवतार लिया है। मेरे समस्त पुन्यों एवं उत्तम कर्मों का फल आज मुझे मिल गया, जो दीनबन्धु प्रभु ने मुझे साक्षात दर्शन दिया।
.
सूरदासजी कहते हैं कि विप्रदेव बार बार हे अन्तर्यामी ! हे दयासागर ! मुझ पर कृपा कीजिये, भव से पार कीजिये, और यशोदाजी के आँगन मे लोटने लगे।

((((((( जय जय श्री राधे ))))

जयल्टी अग्रवाल

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

गौरी रोटी बनाते बनाते “ॐ नमः शिवाय” का जाप कर रही थी, अलग से पूजा का समय कहाँ निकाल पाती थी बेचारी, तो बस काम करते करते ही…।

एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ मे दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर झांकी। आठ साल का चुन्नू चित्त पड़ा था खून से लथपथ। मन हुआ दहाड़ मार कर रोये। परंतु घर मे उसके अलावा कोई था नही, रोकर भी किसे बुलाती, फिर चुन्नू को संभालना भी तो था। दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में माँ माँ की रट लगाए हुए है।

अंदर की ममता ने आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि चुन्नू को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी।

रास्ते भर भगवान को कोसती रही, जी भर कर, बड़बड़ाती रही, हे भोलेनाथ क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..।

खैर डॉक्टर मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया। चोटें गहरी नही थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई। रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब गौरी का मन बेचैन था। भगवान से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता प्रभुसत्ता को चुनौती दे रही थी। उसके दिमाग मे दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे चुन्नू आंगन में गिरा की एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने चापाकल का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..?

उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के चुन्नू को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती।

फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था।

उसका सर प्रभु चरणों मे श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन प्रभु से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी। टीवी पर प्रवचन आ रहा था; प्रभु कहते हैं..

“मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता, लेकिन तुम्हे इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।”

गौरी ने घर के मंदिर में झांक कर देखा,

शिव मुस्कुरा रहे थे

🙏🙏🙏🙏🍆🍇