Posted in सुभाषित - Subhasit

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સૌને આજે શાંતિ કેમ નથી ?*

આજથી 25 વર્ષ પહેલાં,

(1) બાળકો નાં શિક્ષણખર્ચ સામાન્ય હતા. આજે બાલમંદિર ની વાર્ષીક ફી જ 60 હજાર થી વધુ છે.

(2) ટીવી ખરીદી ને 15 વર્ષો વાપરતા. આજે ચેનલ ના ખર્ચ વધ્યા તથા HD ટીવી, સ્માર્ટ ટીવી ના ખર્ચ વધ્યા. 4 – 5 વર્ષ ટીવી વાપરતા નવું ટીવી લેવાની માનસિક જરૂર વરતાય છે.

(3) બાઇક ન હતા. વિમાનો નો ખર્ચ ન હતો. પેટ્રોલ ખર્ચ ન હતા. મેન્ટેનન્સ ખર્ચ ન હતા.
8 – 10 આઠ વર્ષ બાદ ઘરમાં એક બાઈક લેવા ની ઇચ્છા થતી .. એવામાં બાળકો માટે તો અલગ બાઈક લેવાની તો કલ્પના જ ન થાય.

(4) ફોર વ્હીલર ગાડી તો ગામ માં સૌથી પૈસાદાર પાસે માંડ હોય. આજે 10 લાખ ની ગાડી માં 15 વર્ષ સુધી મા પેટ્રોલ + વિમો + સવિઁસ + એકસીડન્ટ કોસ્ટ નો બીજો ખર્ચ 5 -7 લાખ થાય.

(5) વાહનો વધવાથી ચાલવાનું ઘટી જતાં બધા ના શરીર ભારે થયા.
પગ ના , ઘુંટણ ના ઘસારા ના તથા મેડિકલ ના ખર્ચ ખુબ વધ્યા .. પરંપરાગત યોગાસન ને બદલે જીમ માં જવાની ફેશન આવી..

(6) નિતનવા લેટેસ્ટ મોબાઇલ નાં ખર્ચ + રીચાર્જ + ઇન્ટરનેટ ના ખર્ચ વધ્યા. દર વર્ષે નવો મોબાઇલ લેવાની ની જરૂરીયાત લાગે. બાળકો નાં મોબાઇલ નાં ખર્ચ તો ખુબ જ ભારે

(7) મકાન જરૂરીયાત માટે હતાં . જ્યારે આજે મોટા મકાન દેખાદેખી કરવા માટે જરૂરી થઇ ગયા હોય એવું લાગે છે.
4 જણ ઘરમાં
5 બેડરૂમ નો ફ્લેટ…
અને 6 કામવાળા…

(8) લગ્ન પ્રસંગે ધુમ ખર્ચ કરવા નો એટલે કરવાનો જ
ભલે ને પછી દેવું થાય….
પાછું લગ્ન ટકશે કે નહીં એ તો રામ જાણે..
શું આ બધા ભપકા અને આડંબર વિના બાળકો ના સબંધ ન થાય ?

વર્ષો પહેલાં નોકરી કરવા ગયેલો માણસ સાંજે પરત ફરતો ત્યારે ઘરમાં આનંદદાયી વાતાવરણ મળતું.

આજે રાત્રે પરત આવે છે ત્યારે ??? બધા પોતાનામાં જ મસ્ત…

ફકત બે વિનંતી કરું છું.

(1) કમાઈ ને ઘેર આવેલા વ્યક્તિ ને શાંતિ ની ખુબ જરૂર હોય છે. તો ઘર નો માહોલ શાંત રાખજો ..

(2) અને આપણી આસપાસ જો કોઇ વ્યક્તિ ઉપર દર્શાવેલા મુજબ ની ચીજ વસ્તુ વિના સાદગીભર્યું જીવન જીવતો હોય તો તેને ઉતરતી કક્ષાનો ન ગણતા સંત ગણજો.

“તમે આજૈ પૈસા બચાવશો તો આજ પૈસો તમને
કાલે અચાનક આવનાર મુશ્કેલી થી બચાવશે”.

બીજા ના ભપકા જોઈને પોતાના પરીવાર ની જીવનશૈલી નક્કી ન કરો

આવક કરતાં વધુ ખર્ચ કરનાર સમાજ માં ક્યારેય સન્માન પામતો જ નથી !!!

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देव शर्मा

ककोर्टकेश्वर महादेव
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कर्कोटकेश्वर- संज्ञं च दशमं विद्धि पार्वती।
यस्य दर्शन मात्रेण विषैर्नैवाभिभूयते। ।

परिचय:
श्री कर्कोटकेश्वर महादेव की स्थापना की कथा कर्कोटक नामक सर्प और उसकी शिव आराधना से जुड़ी हुई है। श्री कर्कोटकेश्वर महादेव की कथा में धर्म आचरण की महत्ता दर्शाई गई है।

पौराणिक आधार एवं महत्व:
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार सर्पों की माता ने सर्पों के द्वारा अपना वचन भंग करने की दशा में श्राप दिया कि सारे सर्प जनमेजय के यज्ञ में जलकर भस्म हो जायेंगे। श्राप से भयभीत होकर कुछ सर्प हिमालय पर्वत पर तपस्या करने चले गए, कंबल नामक एक सर्प ब्रम्हाजी की शरण में गया और सर्प शंखचूड़ मणिपुर में गया। इसके साथ ही कालिया नामक सर्प यमुना में रहने चला गया, सर्प धृतराष्ट्र प्रयाग में, सर्प एलापत्रक ब्रम्ह्लोक में और अन्य सर्प कुरुक्षेत्र में जाकर तप करने लगे।

फिर सर्प एलापत्रक ने ब्रम्हाजी से कहा कि ‘प्रभु कृपया कोई उपाय बताइये जिससे हमें माता के श्राप से मुक्ति मिले और हमारा उद्धार हो। तब ब्रम्हाजी ने कहा आप महाकाल वन में जाकर महामाया के समीप स्थित देवताओं के स्वामी महादेव के दिव्य लिंग की आराधना करो। तब कर्कोटक नामक सर्प अपनी ही इच्छा से महामाया के पास स्थित दिव्य लिंग के सम्मुख बैठ शिव की स्तुति करने लगा। शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि जो नाग धर्म का आचरण करेंगे उनका विनाश नहीं होगा। तभी से उस लिंग को कर्कोटकेश्वर के नाम से जाना जाता है।

दर्शन लाभ:
माना जाता है कि श्री कर्कोटकेश्वर महादेव के दर्शन करने से कुल में सर्पों की पीड़ा नहीं होती है और वंश में वृद्धि होती है। यहाँ बारह मास ही दर्शन का महत्व है लेकिन पंचमी, चतुर्दशी, रविवार और श्रावण मास में दर्शन का विशेष महत्व माना गया है।

कहाँ स्थित है?
श्री कर्कोटकेश्वर महादेव उज्जयिनी के प्रसिद्ध श्री हरसिद्धि मंदिर प्रांगण में स्थित है। हरसिद्धि दर्शन करने वाले लगभग सभी भक्तगण श्री कर्कोटकेश्वर महादेव की आराधना कर दर्शन लाभ लेते हैं।

हर हर महादेव
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संजय गुप्ता

(((( भगवद्भक्त कूबा जी ))))
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राज पूताना के किसी गांव में कुम्हार जाति के एक कूबा जी नाम के भगवद्भक्त रहते थे।
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ये अपनी पत्नी पुरी के साथ महीने भर में मिट्टी के तीस बर्तन बना लेते और उन्हीं को बेचकर पति पत्नी जीवन निर्वाह करते थे।
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धन का लोभ था नहीं भगवान् के भजन में अधिक से अधिक समय लगना चाहिये, इस विचार से कूबा जी अधिक बर्तन नहीं बनाते थे।
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घर पर आये हुए अतिथियों की सेवा और भगवान् का भजन, बस इन्ही दो कामों में उनकी रुचि थी। उनका सुन्दर नाम केवल राम था।
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आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से अपने कुल का ही नहीं, संसार का भी उद्धार किया। आप साधू संतो की बडी अच्छी सेवा करते थे।
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एक बार कूबा जी के गांव में दो सौ साधू पधारे। किसी ने साधुओं का सत्कार नहीं किया सबने कूबा जी का नाम बताया।
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आपके घर मे सब संत पधारे। उनका सप्रेम स्वागत-सत्कार किया। परंतु उस दिन घर मे अन्न धन कुछ भी न था। बड़ी भारी आवश्यकता थी, अत: आप कर्ज लेने के लिये चले परंतु किसी महाज़न ने कर्ज नहीं दिया।
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एक महाजन ने कहा, यदि मेरा कुआँ खोदने का काम कर दो तो मैं तुम्हारे लिये आवश्यक सारा सामान उधार दे सकता हूँ।
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इस बात को स्वीकार कर आपने प्रतिज्ञा की और आवश्यक अन्न-धन लाये।
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एकमात्र श्याम सुंदर जिन्हें प्रिय हैं, ऐसे संतों को आपने बड़े प्रेम से भोजन कराया। संतो की सेवा के लिए कुंआ खोदने का कार्य भी प्रसन्नता से मान्य कर लिया।
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अब साधु संतों की सेवा से अवकाश पाकर श्री केवल राम जी महाज़न का कुंआ खोदने लगे।
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खोदते समय आप तोते की तरह भगवान् के नामों का उच्चारण कर रहे थे। कुंआ खुद गया यह जान कर महाजन को और कूबा जी को बडी प्रसन्नता हुई।
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खोदते-खोदते रेतीली जमीन आ गयी और चारों ओर से कईं हजार मन मिट्टी खिसक कर गिर पड़ी। उसमें श्री केवल रामजी दब गये।
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लोगों ने सोचा कि अब इतनी मिट्टी को कैसे हटाया जाय। केवल रामजी तो मर ही गये होगे, अब मिट्टी को हटाने से भी क्या लाभ ! इस प्रकार शोक करतें हुए लोग अपने-अपने घरों को चले गये ।
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इसके कुछ दिन बाद कुछ यात्री उधर से जा रहे थे। रात्रि मे उन्होंने उस कुएं वाले स्थान पर ही डेरा डाला। उन्हें भूमि के भीतर से करताल, मृदङ्ग आदि के साथ कीर्तन की ध्वनि सुनायी पडी।
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उनको बडा आश्चर्य हुआ। रात भर वे उस ध्वनि को सुनते रहे। सवेरा होने पर उन्होंने गांव वालों को रात की घटना बतायी। अब वहाँ जो जाता, जमीन में कान लगाने पर उसी को वह शब्द सुनायी पड़ता ।
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वहां दूर दूर से लोग आने लगे। समाचार पाकर स्वयं राजा अपने मंत्रियो के साथ आये।
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भजन की ध्वनि सुन कर और गांव वालों से पूरा इतिहास जान कर उन्होंने धीरे धीरे मिट्टी हटवाना प्रारम्भ किया।
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बहुत से लोग लग गये, कुछ घंटों में कुआं साफ हो गया। लोगों ने देखा कि नीचे निर्मल जल की धारा बह रही है।
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जब लोग आपके पास पहुंचे तो इनको भगवान् का नाम “हरे राम, हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे” उच्चारण करते सुना ।
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एक ओर आसन पर शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् विराजमान हैं और उनके सम्मुख हाथ में करताल लिये कूबा जी कीर्तन करते, नेत्रों से अश्रुधारा बहाते तन मन की सुधि भूले नाच रहे हैं।
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राजा ने यह दिव्य दृश्य देखकर अपना जीवन कृतार्थ माना। अचानक वह भगवान् की मूर्ति अदृश्य हो गयी।
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राजा ने कूबा जी को कुएं से बाहर निकलवाया। सब ने उन महा भागवत की चरण धूलि मस्तक पर चढायी।
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कूबा जी घर आये। दूर दूर से अब लोग कूबा जी के दर्शन करने और उनके उपदेश से लाभ उठाने आने लगें।
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जहां आप बैठा करते थे, वहां भगवत्कृपा से एक गोल मिहराब सी जगह बन गयी थी, जिसके कारण आप का शरीर सुरक्षित था।
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लोगों ने देखा कि अधिक दिनों तक झुक कर बैठे रहने से आपकी पीठ में कूबढ़ निकल आया है।
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आपके समीप एक जल से भरा हुआ स्वर्णपात्र रखा था। उसे देखकर लोगों ने श्री केवल राम जी को भगवान् का महान् कृपापात्र समझा ।
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आपकी भक्ति और महिमा को जान कर लोगों ने बहुत सी सम्पत्ति आपको भेंट की तथा दीन दुःखीयों को बांटी ।

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संजय गुप्ता

सर आए हैं

“मम्मी, जल्दी करो। बस के हॉर्न की आवाज आयी थी, शायद सर आ गए हैं”, आप सोच रहे होंगे मैं ये क्या लिख रहा हूँ! सर स्कूल में पढ़ाते हैं और बस लेकर ड्राइवर आते हैं। बस आयी है तो सर कैसे आए हैं! बिल्कुल सही सोच रहे हैं आप लेकिन मैं भी ठीक लिख रहा हूँ। ये सर है राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, बारली के राजाराम जी जो स्कूल बस लेकर बच्चों को लेने-छोड़ने भी आते हैं, स्कूल में बच्चों को गणित और विज्ञान भी पढ़ाते हैं और वे ही उनके पी.टी. सर भी है।

है ना हैरत! पर हुआ यूँ कि पिछले चार-पाँच सालों सर देख रहे थे कि हर सप्ताह एक-दो, एक-दो बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। माजरा कुछ समझ नहीं आ रहा था! नए सेशन के शुरू होते-होते तो कुल जमा 60 बच्चे ही रह गए थे। आखिर उन्होंने घर-घर जाकर बच्चों के अभिभावकों से मिलने की सोची। और बात समझ में आयी,- उन्हें चिन्ता थी बच्चों के सुरक्षित स्कूल पहुँचने की। असल में स्कूल गाँव से 6 कि.मी. दूर थी जिसे जंगल से गुजरता कच्चा रास्ता जोड़ता था। माता-पिताओं की चिन्ता वाजिब थी खासकर लड़कियों को लेकर।

अब एक ही समाधान था कि स्कूल के पास अपनी बस हो, लेकिन ऐसा कोई सरकारी प्रावधान तो था नहीं।

बच्चों के बारे में ही सोच रहे थे, ऐसे ही सोचते-सोचते उन्हें अपने ही पढ़ाये वे कुछ बच्चे याद आने लगे जो आज अच्छे पदों पर थे। बस उन्हें सिरा मिल गया, उन्होंने सम्पर्क साधना शुरू किया। उनमें से एक विजय ने 3 लाख की हामी भरी, और भी कईयों ने अपने हिसाब से मदद की, कुछ ने डीजल का खर्चा उठाने की कही तो कुछ ने रिपेयरिंग का और इस तरह 16-सीटर की एक मिनी बस का जुगाड़ हो गया।

अब सवाल था, ड्राइवर का। महीने की कम से कम 7-8 हजार की तनख्वाह के बिना यह सम्भव नहीं था। और हर महीने इसकी व्यवस्था करना बहुत मुश्किल था। पर ऐसे हमारे राजाराम सर भी कहाँ छोड़ने वाले थे!

आगे तो आप समझ ही गए।
वे सुबह बच्चों को लाने के चार-पाँच चक्कर लगाते हैं और इतने ही उनको छोड़ने के। बच्चे 60 से 90 तो हो ही गए हैं और लगता है जल्दी ही ये आँकड़ा 100 को पार कर जाएगा।

मैं इस कहानी को पढ़ते वक्त सोचने लगा था, हम सब राजाराम की ही तरह अपने काम से प्यार करने लगें, उसे अपना पूरा मन देने लगें तो उसी के सहारे हम अपने और समाज के लिए वो कर सकते हैं जो न जाने कितने ही साधनों और अवसरों से सम्भव नहीं।

Posted in ज्योतिष - Astrology

संजय गुप्ता

दिशा शूल – क्या है ? क्या करें जब यात्रा करनी हो ? – हर दिशा के लिए किस दिन होता है दिशाशूल और उसके लिए उपाय – DISHA SHOOL, FOR ALL DIRECTIONS – REMEDY &

क्या है दिशा शूल ? :

“दिशा शूल ले जाओ बामे, राहु योगिनी पूठ।
सम्मुख लेवे चंद्रमा, लावे लक्ष्मी लूट।”

यात्रा सभी को करनी पड़ती है, चाहे व्यापार के लिए, धार्मिक कार्य, मांगलिक कार्य अथवा कारोबार के सिलसिले में. कभी-कभी यात्रा सुखमय होती है, तो कभी यह कष्टमय या असफलता से भरी होती है। इस यात्रा के विषय में दिशा शूल का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। किन्हीं कारणों से दिशा शूल के दौरान उक्त दिशा की यात्रा नहीं टाली जा सकती, तो उससे बचने के उपाय करने चाहिए। प्रति दिन किसी, या किन्हीं दिशाओं के लिए शूल माना जाता है, जिस दिशा की यात्रा अच्छी नहीं मानी जाती, जैसे आज पूर्व दिशा का शूल है.

अगर यात्रा करनी पड़े, तो क्या है, इसका हल ?
वैसे तो जिस दिशा का शूल हो, उधर की यात्रा नहीं करनी चाहिए. फिर भी अगर आवश्यक हो, तो पहले जिस दिशा का शूल हो, उसके उलटी तरफ, कुछ कदम (वैसे कदम की सलाह दी जाती है) चल कर, फिर जिधर काम है, उधर बढ़ जाएं. या फिर जो उस दिन की शुभ दिशा हो, उधर कदम चल कर, जिधर जाना हो, चले जाएं.

हर दिशा के लिए किस दिन होता है दिशाशूल और उसके लिए उपाय :
पूर्व दिशा :
सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन पूर्व दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : सोमवार को दर्पण देखकर या पुष्प खाकर और शनिवार को अदरक, उड़द या तिल खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम उल्टे पैर चलें।
पश्चिम दिशा- रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन पश्‍चिम दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : रविवार को दलिया, घी या पान खाकर और शुक्रवार को जौ या राईं खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
पश्चिम दिशा- रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन पश्‍चिम दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : रविवार को दलिया, घी या पान खाकर और शुक्रवार को जौ या राईं खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।

उत्तर दिशा- मंगलवर और बुधवार को उत्तर दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन उत्तर दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : मंगलवार को गुड़ खाकर और बुधवार को तिल, धनिया खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
दक्षिण दिशा- गुरुवार को दक्षिण दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन दक्षिण दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : गुरुवार को दहीं या जीरा खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
दक्षिण-पूर्व दिशा- सोमवार और गुरुवार को दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन इस दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : सोमवार को दर्पण देखकर, गुरुवार को दहीं या जीरा खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
नैऋत्य दिशा- रविवार और शुक्रवार को दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन इस दिशा में दिशा शूल रहता है।
वायव्य दिशा- मंगलवार को उत्तर-पश्चिम (वायव्य) दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन इस दिशा में दिशा शूल रहता है।
बचाव : मंगलवार को गुड़ खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
ईशान दिशा- बुधवार और शनिवार को उत्तर-पूर्व (ईशान) दिशा की यात्रा वर्जित मानी गई है। इस दिन इस दिशा में दिशाशूल रहता है।
बचाव : बुधवार को तिल या धनिया खाकर और शनिवार को अदरक, उड़द की दाल या तिल खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।
बचाव : रविवार को दलिया और घी खाकर और शुक्रवार को जौ खाकर घर से बाहर निकलें। इससे पहले पांच कदम पीछे चलें।नोट : नासिका का जो स्वर चलता हो उसी तरफ का पैर आगे बढ़ाकर यात्रा शुरू करनी चाहिए। कदम बढ़ाने से पहले पांच कदम उल्टे पीछे चलें। दिशा शूल पीठ का व बायां लेना ठीक रहता है। सम्मुख और दाहिना वर्जित रहता है।

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संजय गुप्ता

यहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राजा राम को दिन में पांच बार दिया जाता है गार्ड ऑफ ऑनर!!!!!!!!

आपको हम आपको बताने जा रहे है मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के बारे में , जिन्हें दिन में 5 बार दिया जाता है गार्ड ऑफ ऑनर !

जी हाँ , वैसे तो एक ओर अयोध्या में जहां प्रभु श्री राम की जन्म भूमि को लेकर विवाद चल रहा है वही दूसरी ओर एक ऐसा भी मंदिर है जहां भगवान को राजा के रूप में पूजा जाता है और उन्हें पूरे दिनभर में 4 बार गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है।

इसके लिए पुलिसकर्मी की तैनाती की जाती है। पिछले 400 सालों से यह प्रथा चली आ रही है। लोगों का मानना है कि भगवान उनके यहां आज भी राज करते हैं।

भगवान श्रीराम का बुंदेलखंड की राजधानी के रूप में पहचाने जाने वाले ओरछा में 400 साल पहले राज्याभिषेक हुआ था। उसके बाद से आज तक यहां भगवान श्रीराम को राजा के रुप में पूजा जाता हैं।

उन्हें इस नगर के राजा के रूप में स्वीकारा गया हैं। और रोजाना पांचों पहर उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है। यह पूरी दुनिया का एकमात्र ऐसा मंदिर है। जहां भगवान राम को राजा के रूप में पूजा जाता है। किसी राजा जैसा दिन में पांच बार पुलिस के जवान सलामी शस्त्र भी देते हैं।

हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित ओरछा के राजा राम मंदिर की। यहां राजा राम को सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। इस सलामी के लिए मध्य प्रदेश पुलिस के जवान तैनात होते हैं।

राजा राम का मंदिर देखने में किसी राज महल सा प्रतीत होता है। मंदिर की वास्तुकला बुंदेला स्थापत्य का सुंदर नमूना नजर आता है। कहा जाता है कि राजा राम की मूर्ति स्थापना के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया जा रहा ता। पर मंदिर बनने से पहले इसे कुछ समय के लिए महल में स्थापित किया गया।

लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया। इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर। आज इस महल के चारों ओर शहर बसा है।

हर रोज आते हैं राजा राम यहां पर कहा जाता है कि यहां राजा राम हर रोज अयोध्या से अदृश्य रूप में आते हैं। ओरछा शहर के मुख्य चौराहा के एक तरफ राजा राम का मंदिर है तो दूसरी तरफ ओरछा का प्रसिद्ध किला। मंदिर में राजा राम, लक्ष्मण और माता जानकी की मूर्तियां स्थापित हैं।

इनका श्रंगार अद्भुत होता है। मंदिर का प्रांगण काफी विशाल है। चूंकि ये राजा का मंदिर है इसलिए इसके खुलने और बंद होने का समय भी तय है।

सुबह में मंदिर आठ बजे से साढ़े दस बजे तक आम लोगों के दर्शन के लिए खुलता है। इसके बाद शाम को मंदिर आठ बजे दुबारा खुलता है। रात को साढ़े दस बजे राजा शयन के लिए चले जाते हैं। मंदिर में प्रातःकालीन और सांयकालीन आरती होती है जिसे आप देख सकते हैं। देश में अयोध्या के कनक मंदिर के बाद ये राम का दूसरा भव्य मंदिर है।

मंदिर परिसर में फोटोग्राफी निषेध है। मंदिर का प्रबंधन मध्य प्रदेश शासन के हवाले है। पर लोकतांत्रिक सरकार भी ओरछा में राजाराम की हूकुमत को सलाम करती है। ओरछा शहर को कई तरह के करों से छूट मिली हुई है। यहां पर लोग राजा राम के डर से रिश्वत नहीं लेते और भ्रष्टाचार करने से डरते हैं।

महारानी लाई थीं राजा राम को – कहा जाता है कि संवत 1600 में तत्कालीन बुंदेला शासक महाराजा मधुकर शाह की पत्नी महारानी कुअंरि गणेश राजा राम को अयोध्या से ओरछा लाई थीं। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा।

लेकिन रानी तो राम की भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। गुस्से में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की।

इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना और दृढ़ होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक राजा राम के दर्शन नहीं हुए। वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पड़ी। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें राजा राम के दर्शन हुए। रानी ने उनसे ओरछा चलने का आग्रह किया।

उस समय मर्यादा पुरुशोत्तम श्रीराम ने शर्त रखी थी कि वे ओरछा तभी जाएंगे जब इलाके में उन्हीं की सत्ता रहे और राजशाही पूरी तरह से खत्म हो जाए। तब महाराजा शाह ने ओरछा में ‘रामराज’ की स्थापना की थी, जो आज भी कायम है। मंदिर के प्रसाद में पान का बीड़ा – राजा राम मंदिर में प्रशासन की ओर से प्रसाद का काउंटर है।

यहां 22 रुपये का प्रसाद मिलता है। प्रसाद में लड्डू और पान का बीड़ा दिया जाता है। हालांकि मंदिर के बाहर भी प्रसाद की तमाम दुकाने हैं जहां से आप फूल प्रसाद आदि लेकर मंदिर में जा सकते हैं। मंदिर के बाहर जूते रखने के लिए निःशुल्क काउंटर बना है। राजा राम मंदिर में रामनवमी बड़ा त्योहार होता है।

बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते- आप राजा राम के मंदिर के अंदर बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते हैं। इसके पीछे बड़ा रोचक तर्क ये दिया जाता है कि राजा के दरबार में कमर कस कर नहीं जाया जा सकता है। यहां सिर्फ राजा राम की सेवा में तैनात सिपाही ही कमरबंद लगा सकते हैं। आप जूता घर में अपना बेल्ट जमा करके फिर मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।

राजा राम के मंदिर की मूर्तियों के बारे में कहा जाता है कि ये अयोध्या से लाई गई हैं। महारानी की कहानी के मुताबिक उनकी तपस्या के कारण राजा राम अयोध्या से ओरछा चले आए थे।

पर स्थानीय बुद्धिजीवी मानते हैं कि बाबर के आदेश पर अयोध्या में राम मंदिर तोड़े जाने के बाद अयोध्या के बाकी मंदिरों की सुरक्षा कासवाल उठने लगा। ऐसी स्थित में कई मंदिरों की बेशकीमती मूर्तियों को ओरछा में लाकर सुरक्षित किया गया। ऐसा कहा जाता है कि ओरछा के ज्यादातर मंदिरों में जो मूर्तियां हैं वे अयोध्या से लाई गई हैं।

यह मंदिर एक प्राचीन महल में आधुनिक वास्तुकला का एक रोचक मिश्रण है जिसमें चारों ओर बिखरे हुए तीर्थस्थान हैं। यह धर्म और विरासत के देश भारत के दिल मध्य प्रदेश में स्थित है।

राजा राम की सूर्यास्त के बाद की बंदूक की सलामी देखते बनती है। यह मंदिर संवत 1600 में तत्कालीन बुंदेला शासक महाराजा मधुकर शाह की पत्नी महारानी कुअंरि गणेश की इच्छा अनुरूप बनाया गया था। इसे बुंदेलखंड की अयोध्या के रूप में भी जाना जाता है।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

संजय गुप्ता

बहुत ही सुंदर कथा
(एक बार अवश्य पढें)


🙏 जय श्री कृष्ण 🙏

एक बार की बात है महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन द्वारिका गये पर इस बार रथ अर्जुन चला कर के ले गये।

द्वारिका पहुँचकर अर्जुन बहुत थक गये इसलिए विश्राम करने के लिए अतिथि भवन में चले गये।

शाम के समय रूक्मणी जी ने कृष्ण को भोजन परोसा तो कृष्ण बोले, “घर में अतिथि आये हुए हैं। हम उनके बिना भोजन कैसे कर लें।”

रूक्मणी जी ने कहा,”भगवन! आप आरंभ करिये मैं अर्जुन को बुलाकर लाती हूँ।”

जैसे ही रूक्मणी जी वहाँ पहुँची तो उन्होंने देखा, कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनके रोम रोम से “कृष्ण” नाम की ध्वनि प्रस्फुटित हो रही है। तो ये जगाना तो भूल गयीं और मन्द मन्द स्वर में ताली बजाने लगीं।

इधर नारद जी ने कृष्ण से कहा,”भगवान भोग ठण्डा हो रहा है।”

कृष्ण बोले, “अतिथि के बिना हम भोजन नहीं करेंगे।”

नारद जी बोले,”मैं बुलाकर लाता हूँ।”

नारद जी ने वहां का नजारा देखा, तो ये भी जगाना भूल गये और इन्होंने वीणा बजाना शुरू कर दिया।

इधर सत्यभामा जी बोलीं, “प्रभु! भोग ठण्डा हो रहा है आप प्रारंभ तो करिये।”

भगवान बोले,”हम अतिथि के बिना नहीं कर सकते।”

सत्यभामाजी बोली,” मैं बुलाकर लाती हूँ।”

ये वहाँ पहुँची तो इन्होंने देखा कि अर्जुन सोये हुए हैं और उनका रोम रोम कृष्ण नाम का कीर्तन कर रहा है और रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं। नारदजी वीणा बजा रहे हैं। तो ये भी जगाना भूल गयीं और इन्होंने नाचना शुरू कर दिया।

इधर भगवान बोले “सब बोल के जाते हैं। भोग ठण्डा हो रहा है पर हमारी चिन्ता किसी को नहीं है। चलकर देखता हूँ वहाँ ऐसा क्या हो रहा है जो सब हमको ही भूल गये।”

प्रभु ने वहाँ जाकर के देखा तो वहाँ तो स्वर लहरी चल रही है। अर्जुन सोते सोते कीर्तन कर रहे हैं, रूक्मनी जी ताली बजा रही हैं। नारद जी वीणा बजा रहे हैं और सत्यभामा जी नृत्य कर रही हैं।

ये देखकर भगवान के नेत्र सजल हो गये और प्रभु ने अर्जुन के चरण दबाना शुरू कर दिया। जैसे ही प्रभु के नेत्रों से प्रेमाश्रुओ की बूँदें अर्जुन के चरणों पर पड़ी तो अर्जून छटपटा के उठे और बोले “प्रभु! ये क्या हो रहा है।”

भगवान बोले, “हे अर्जुन! तुमने मुझे रोम रोम में बसा रखा है। इसीलिए तो तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय हो।”

और गोविन्द ने अर्जून को गले से लगा लिया।

लीलाधारी तेरी लीला

भक्त भी तू
भगवान भी तू
करने वाला भी तू
कराने वाला भी तू
बोलिये भक्त और भगवान की जय।।

प्यार से बोलो जय श्री कृष्ण।

🙏 जय श्री कृष्ण 🙏जय श्री कृष्ण

जो छू ले तेरे चरणो की धूल कान्हा,
वो मिट्टी से सोना बन जाये,
तेरी इक नज़र जिस पर पड़ जाये,
वो कंकर भी कोहिनूर कहलाये !

💚 जय श्री राधे कृष्णा 💚

Posted in जीवन चरित्र

चंद्रशेखर आज़ाद

मुछों पर ताव,
कमर में पिस्टल,
कांधे पर जनेऊ,
शेर सी शख्सियत.......

वो याद थे, वो याद हैं, वो याद ही रहेंगे,
वो आज़ाद थे, आज़ाद है, आज़ाद ही रहेंगे...

पंडित चंद्रशेखर आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध और महान क्रांतिकारी थे। 17 वर्ष के चंद्रशेखर आज़ाद क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सम्मिलित हो गए। दल में उनका नाम ‘क्विक सिल्वर’ (पारा) तय पाया गया। पार्टी की ओर से धन एकत्र करने के लिए जितने भी कार्य हुए, चंद्रशेखर उन सबमें आगे रहे। सांडर्स वध, सेण्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह द्वारा बम फेंकना, वाइसराय को ट्रेन बम से उड़ाने की चेष्टा, सबके नेता वही थे। इससे पूर्व उन्होंने प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए। एक बार दल के लिये धन प्राप्त करने के उद्देश्य से वे गाजीपुर के एक महंत के शिष्य भी बने। इरादा था कि महंत के मरने के बाद मरु की सारी संपत्ति दल को दे देंगे।

जीवन परिचय
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पूरा नाम : पंडित चंद्रशेखर तिवारी
अन्य नाम : आज़ाद
जन्म : 23 जुलाई, 1906
जन्म भूमि : आदिवासी गाँव भावरा, मध्य प्रदेश
मृत्यु : 27 फ़रवरी, 1931
मृत्यु स्थान : इलाहाबाद
अभिभावक : पंडित सीताराम तिवारी
नागरिकता : भारतीय
धर्म : हिन्दू
आंदोलन : भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
विद्यालय : संस्कृत विद्यापीठ
प्रमुख संगठन : नौज़वान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी एवं हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ

व्यक्तिगत जीवन :

चंद्रशेखर आज़ाद को वेष बदलना बहुत अच्छी तरह आता था।वह रूसी क्रान्तिकारी की कहानियों से बहुत प्रभावित थे। उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी पुस्तक भी थी। किंतु उनको स्वयं पढ़ने से अधिक दूसरों को पढ़कर सुनाने में अधिक आनंद आता था। चंद्रशेखर आज़ाद सदैव सत्य बोलते थे। चंद्रशेखर आज़ाद ने साहस की नई कहानी लिखी। उनके बलिदान से स्वतंत्रता के लिए आंदोलन तेज़ हो गया। हज़ारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।आज़ाद के शहीद होने के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्त सन् 1947 को भारत की आज़ादी का उनका सपना पूरा हुआ।

पंडित चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म एक आदिवासी ग्राम भावरा में 23 जुलाई, 1906 को हुआ था। उनके पितापंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गाँव के रहने वाले थे। भीषण अकाल पड़ने के कारण वे अपने एक रिश्तेदार का सहारा लेकर 'अलीराजपुर रियासत' के ग्राम भावरा में जा बसे थे। इस समय भावरा मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले का एक गाँव है। चन्द्रशेखर जब बड़े हुए तो वह अपने माता–पिता को छोड़कर भाग गये और बनारस जा पहुँचे। उनके फूफा जी पंडित शिवविनायक मिश्र बनारस में ही रहते थे। कुछ उनका सहारा लिया और कुछ खुद भी जुगाड़ बिठाया तथा 'संस्कृत विद्यापीठ' में भर्ती होकर संस्कृत का अध्ययन करने लगे। उन दिनों बनारस में असहयोग आंदोलन की लहर चल रही थी। विदेशी माल न बेचा जाए, इसके लिए लोग दुकानों के सामने लेटकर धरना देते थे। 1919 में हुए जलियाँवाला बाग़ नरसंहार ने उन्हें काफ़ी व्यथित किया।

बचपन का दृढ़निश्चय
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एक आदिवासी ग्राम भावरा के अधनंगे आदिवासी बालक मिलकर दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे। किसी बालक के पास फुलझड़ियाँ थीं, किसी के पास पटाखे थे और किसी के पास मेहताब की माचिस। बालक चन्द्रशेखर के पास इनमें से कुछ भी नहीं था। वह खड़ा–खड़ा अपने साथियों को खुशियाँ मनाते हुए देख रहा था। जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, वह उसमें से एक तीली निकालता और उसके छोर को पकड़कर डरते–डरते उसे माचिस से रगड़ता और जब रंगीन रौशनी निकलती तो डरकर उस तीली को ज़मीन पर फेंक देता था।
बालक चन्द्रशेखर से यह देखा नहीं गया, वह बोले-
“तुम डर के मारे एक तीली जलाकर भी अपने हाथ में पकड़े नहीं रह सकते। मैं सारी तीलियाँ एक साथ जलाकर उन्हें हाथ में पकड़े रह सकता हूँ।”
जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, उसने वह चन्द्रशेखर के हाथ में दे दी और कहा-
“जो कुछ भी कहा है, वह करके दिखाओ तब जानूँ।”
बालक चन्द्रशेखर ने माचिस की सारी तीलियाँ निकालकर अपने हाथ में ले लीं। वे तीलियाँ उल्टी–सीधी रखी हुई थीं, अर्थात् कुछ तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की तरफ़ भी था। उसने तीलियों की गड्डी माचिस से रगड़ दी। भक्क करके सारी तीलियाँ जल उठीं। जिन तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की ओर था, वे भी जलकर चन्द्रशेखर की हथेली को जलाने लगीं। असह्य जलन होने पर भी चन्द्रशेखर ने तीलियों को उस समय तक नहीं छोड़ा, जब तक की उनकी रंगीन रौशनी समाप्त नहीं हो गई। जब उन्होंने तीलियाँ फेंक दीं तो साथियों से बोले-
“देखो हथेली जल जाने पर भी मैंने तीलियाँ नहीं छोड़ीं।”
उनके साथियों ने देखा कि चन्द्रशेखर की हथेली काफ़ी जल गई थी और बड़े–बड़े फफोले उठ आए थे। कुछ लड़के दौड़ते हुए उनकी माँ के पास घटना की ख़बर देने के लिए जा पहुँचे। उनकी माँ घर के अन्दर कुछ काम कर रही थीं। चन्द्रशेखर के पिता पंडित सीताराम तिवारी बाहर के कमरे में थे। उन्होंने बालकों से घटना का ब्योरा सुना और वे घटनास्थल की ओर लपके। बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिताजी को आते हुए देखा तो वह जंगल की तरफ़ भाग गये। सोचा कि पिताजी अब उनकी पिटाई करेंगे। तीन दिन तक वह जंगल में ही रहे। एक दिन खोजती हुई उनकी माँ उन्हें घर ले आईं। उन्होंने यह आश्वासन दिया था कि तेरे पिताजी तेरे से कुछ भी नहीं कहेंगे।

1921 में जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलनप्रारंभ किया तो उन्होंने उसमे सक्रिय योगदान किया। चन्द्रशेखर भी एक दिन धरना देते हुए पकड़े गये। उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट के अदालत में पेश किया गया। मि. खरेघाट बहुत कड़ी सजाएँ देते थे। उन्होंने बालक चन्द्रशेखर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया –

“तुम्हारा नाम क्या है?”….
“मेरा नाम आज़ाद है।”
“तुम्हारे पिता का क्या नाम है?”….
“मेरे पिता का नाम स्वाधीन है।”
“तुम्हारा घर कहाँ पर है?”….
“मेरा घर जेलखाना है।”

मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए। उन्होंने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सज़ा सुना दी। उस समय चन्द्रशेखर की उम्र केवल चौदह वर्ष की थी। जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए। प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी। पीड़ा सहन कर लेने का अभ्यास चन्द्रशेखर को बचपन से ही था। वह हर बेंत के साथ “भारत माता की जय” बोलते जाते थे। जब पूरे बेंत लगाए जा चुके तो जेल के नियमानुसार जेलर ने उसकी हथेली पर तीन आने पैसे रख दिए। बालक चन्द्रशेखर ने वे पैसे जेलर के मुँह पर दे मारे और भागकर जेल के बाहर हो गया। इस पहली अग्नि परीक्षा में सम्मानरहित उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनन्दन किया गया। अब वह चन्द्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा। बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल “हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ” के नाम से जाना जाता था।

काकोरी काण्ड
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किसी बड़े अभियान में चन्द्रशेखर आज़ाद सबसे पहले "काकोरी डक़ैती" में सम्मिलित हुए। इस अभियान के नेता रामप्रसाद बिस्मिल थे। उस समय चन्द्रशेखर आज़ाद की आयु कम थी और उनका स्वभाव भी बहुत चंचल था। इसलिए रामप्रसाद बिस्मिल उसे क्विक सिल्वर (पारा) कहकर पुकारते थे। 9 अगस्त, 1925को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर सहारनपुर – लखनऊ सवारी गाड़ी को रोककर उसमें रखा अंगेज़ी ख़ज़ाना लूट लिया। बाद में एक–एक करके सभी क्रान्तिकारी पकड़े गए; पर चन्द्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ में नहीं आए। यद्यपि वे झाँसी में पुलिस थाने पर जाकर पुलिस वालों से गपशप लड़ाते थे, पर पुलिस वालों को कभी भी उन पर संदेह नहीं हुआ कि वह व्यक्ति महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हो सकता है। काकोरी कांड के बाद उन्होंने दल का नये सिरे से संगठन किया। अब उसका नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन एण्ड आर्मी’ रखा गया। चंद्रशेखर इस नये दल के कमांडर थे। वे घूम-घूम कर गुप्त रूप से दल का कार्य बढ़ाते रहे। फरारी के दिनों में झाँसी के पास एक नदी के किनारे साधु के रूप में भी उन्होंने कुछ समय बिताया।

झांसी प्रवास

काकोरी काण्ड के कई क्रान्तिकारियों को फाँसी के दंड और कई को लम्बे–लम्बे कारावास की सज़ाएँ मिलीं। चन्द्रशेखर आज़ाद ने खिसककर झाँसी में अपना अड्डा जमा लिया। झाँसी में चन्द्रशेखर आज़ाद को एक क्रान्तिकारी साथी मास्टर रुद्रनारायण सिंह का अच्छा संरक्षण मिला। झाँसी में ही सदाशिव राव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर और विश्वनाथ वैशंपायन के रूप में उन्हें अच्छे साथी मिल गए। झाँसी की 'बुंदेलखण्ड मोटर कम्पनी' में कुछ दिन उन्होंने मोटर मैकेनिक के रूप में काम किया, मोटर चलाना सीखा और पुलिस अधीक्षक की कार चलाकर उनसे मोटर चलाने का लाइसेंस भी ले आए। बुंदेलखण्ड मोटर कम्पनी के एक ड्राइवर रामानन्द ने चन्द्रशेखर आज़ाद के रहने के लिए अपने ही मोहल्ले में एक कोठरी किराए पर दिला दी। सब काम ठीक–ठीक चल रहा था; पर कभी–कभी कुछ घटनाएँ मोहल्ले की शान्ति भंग कर देती थीं। आज़ाद की कोठरी के पास रामदयाल नाम का एक अन्य ड्राइवर सपरिवार रहता था। वैसे तो रामदयाल भला आदमी था, पर रात को जब वह शराब पीकर पहुँचता तो बहुत हंगामा करता और अपनी पत्नी को बहुत पीटता था। उस महिला का रुदन सुनकर मोहल्ले वालों को बहुत ही बुरा लगता था; पर वे किसी के घरेलू मामले में दख़ल देना उचित नहीं समझते थे। एक दिन सुबह–सुबह चन्द्रशेखर आज़ाद कारख़ाने जाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकले तो रामदयाल से उनकी भेंट हो गई। रामदयाल ने ही बात छेड़ी-

"क्यों हरीशंकर जी ! (आज़ाद ने अपना नाम हरिशंकर घोषित कर रखा था) आजकल आप बहुत रात जागकर कुछ ठोंका–पीटी किया करते हैं। आपकी ठुक–ठुक से हमारी नींद हराम हो जाती है। 
वैसे तो आज़ाद स्थिति को टाल देना चाहते थे, पर रामदयाल ने जिस ढंग से बात कही थी, वह उत्तर देने के लिए बहुत अच्छी लगी और आज़ाद ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया -
"रामदयाल भाई! मैं तो कल–पुरज़ों की ही ठोंका–पीटी करता हूँ, पर तुम तो शराब के नशे में अपनी गऊ जैसी पत्नी की ही ठोंका–पीटी करके मोहल्ले भर की नींद हराम करते रहते हो।" 
यह उत्तर रामदयाल को बहुत ही तीखा लगा। उसे इस बात का बुरा लगा कि कोई उसके घरेलू मामले में क्यों हस्तक्षेप करे। उसका मनुष्यत्व तिरोहित हो गया और पशुत्व ऊपर आ गया। क्रोध से भनभनाता हुआ वह उबल पड़ा .....
"क्यों बे! मेरी पत्नी का तू कौन होता है, जो तू उसका इस तरह से पक्ष ले रहा है? मैं उसे मारूँगा और खूब मारूँगा। देखता हूँ, कौन साला उसे बचाता है।"
आज़ाद ने शान्त भाव से उसे उत्तर दिया -
"जब तुमने मुझे साला कहा है, तो तुमने यह स्वीकार कर ही लिया है कि मैं तुम्हारी पत्नी का भाई हूँ। एक भाई अपनी बहन को पिटते हुए नहीं देख सकता है। अब कभी शराब के नशे में रात को मारा तो ठीक नहीं होगा।"
रामदयाल को चुनौती असह्य हो गई। वह आपा खोकर चिल्ला उठा -
"ऐसी की तैसी रात की और नशे की। मैं बिना नशा किए ही उसे दिन के उजाले में सड़क पर लाकर मारता हूँ। देखें, कौन साला आगे आता है उसे बचाने को।"

यह कहता हुआ रामदयाल आवेश के साथ अपने मकान में घुसा और अपनी पत्नी की चोटी पकड़कर घसीटता हुआ उसे बाहर ले आया और मारने के लिए हाथ उठाया। वह अपनी पत्नी पर हाथ का प्रहार कर भी नहीं पाया था कि आज़ाद ने उसका हाथ थाम लिया और झटका देकर उसे अपनी ओर खींचा। इस झटके के कारण उसके हाथ से पत्नी के बाल छूट गए और वह मुक्त हो गई। अब आज़ाद ने एक भरपूर हाथ उसके गाल पर दे मारा। रामदयाल के गाल पर इतने ज़ोर का तमाचा पड़ा कि उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और वह अपने दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बैठ गया। इस बीच आसपास के लोग दौड़े और कुछ लोग आज़ाद को समझाते हुए उसे कोठरी के अन्दर ले गए। इस घटना के बाद कुछ दिन तक आज़ाद और रामदयाल की बोलचाल बन्द हो गई, पर आज़ाद ने स्वयं ही पहल करके उससे अपने सम्बन्ध मधुर बना लिए तथा अब उसे "जीजा जी" कहकर पुकारने लगे। रामदयाल ने अपनी पत्नी को फिर कभी नहीं पीटा। आज़ाद की धाक पूरे मोहल्ले में जम गई। इसी से मिलती–जुलती एक अन्य घटना भी थोड़े ही अन्तराल से हो गई। जिसने पूरे झाँसी में आज़ाद की धाक जमा दी।

ओरछा प्रवास

जब झाँसी में पुलिस की हलचल बढ़ने लगी तो चन्द्रशेखर आज़ाद ओरछा राज्य में खिसक गए और सातार नदी के किनारे एक कुटिया बनाकर ब्रह्मचारी के रूप में रहने लगे। आज़ाद के न पकड़े जाने का एक रहस्य यह भी था कि संकट के समय वे शहर छोड़कर गाँवों की ओर खिसक जाते थे और स्वयं को सुरक्षित कर लेते थे।

हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना
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क्रान्ति सूत्रों को जोड़कर चन्द्रशेखर आज़ाद ने अब एक सुदृढ़ क्रान्तिकारी संगठन बना डाला। अब उनकी पार्टी का नाम “हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना” था। उनके साथियों ने उनको ही इस सेना का “कमाण्डर आफ चीफ” बनाया। अब भगतसिंह जैसा क्रान्तिकारी भी उनका साथी था। उत्तर प्रदेश और पंजाब तक इस पार्टी का कार्यक्षेत्र बढ़ गया।

साइमन कमीशन का विरोध
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उन दिनों भारतवर्ष को कुछ राजनीतिक अधिकार देने की पुष्टि से अंग्रेज़ी हुकूमत ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग की नियुक्ति की, जो "साइमन कमीशन" कहलाया। समस्त भारत में साइनमन कमीशन का ज़ोरदार विरोध हुआ और स्थान–स्थान पर उसे काले झण्डे दिखाए गए। जब लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध किया गया तो पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाईं। पंजाब के लोकप्रिय नेता लाला लाजपतराय को इतनी लाठियाँ लगीं की कुछ दिन के बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और पार्टी के अन्य सदस्यों ने लाला जी पर लाठियाँ चलाने वाले पुलिस अधीक्षक सांडर्स को मृत्युदण्ड देने का निश्चय कर लिया।

लाला लाजपतराय का बदला
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17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह और राजगुरु ने संध्या के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को जा घेरा। ज्यों ही जे. पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग़ दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा। भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार–छह गोलियाँ और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आज़ाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। लाहौर नगर में जगह–जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया। समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस क़दम को सराहा गया।

केन्द्रीय असेंबली में बम

चन्द्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंहऔर बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। विस्फोट अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात् भगतिसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार–मंच बनाना चाहते थे।

अल्फ़्रेड पार्क की घटना

चन्द्रशेखर आज़ाद घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे। आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को यह सूचना दी कि चन्द्रशेखर आज़ाद ‘अल्फ़्रेड पार्क’ में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं। वह 27 फ़रवरी, 1931 का दिन था। चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे। मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक ‘नाटबाबर’ ने आज़ाद को इलाहाबादके अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया। “तुम कौन हो” कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आज़ाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आज़ाद की जाँघ में जा लगी। आज़ाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग़ दी। आज़ाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाड़ी के पीछे सी.आई.डी. इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आज़ाद को एक गाली दे दी। गाली को सुनकर आज़ाद को क्रोध आया। जिस दिशा से गाली की आवाज़ आई थी, उस दिशा में आज़ाद ने अपनी गोली छोड़ दी। निशाना इतना सही लगा कि आज़ाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया।

शहादत
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बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था। आख़िर पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं। उनके माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी। गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया। इस घटना में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु हो गई और उन्हें पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया। उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उन्हें तीन या चार गोलियाँ लगी थीं।

"तू शहीद हुआ …..
ना जाने कैसे तेरी माँ सोयी होगी,
पर ये तो तय हैं ……
तुझे लगने वाली वो गोली भी,
सौ बार रोई होगी।"

अल्फ़्रेड पार्क में आज़ाद के बलिदान का समाचार जब देशभक्तों को पता चला तो उन्होंने श्मशान घाट से आज़ाद की अस्थियाँ लेकर एक जुलूस निकला। इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं, ऐसा लग रहा था मानो सारा देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है। जलूस के बाद एक सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सन्बोधित करते हुए कहा –

"जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया, वैसे ही आज़ाद को भी ये सम्मान मिलेगा।"

श्रद्धांजलि :
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27 फ़रवरी, 1931 को चन्द्रशेखर आज़ाद के रूप में देश का एक महान् क्रान्तिकारी योद्धा देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान दे गया, शहीद हो गया। देश के “स्वतंत्रता आंदोलन” में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले “चंद्रशेखर आज़ाद जी” का “त्याग”और “बलिदान” हम सभी देशवासियों को “देशसेवा” की हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।

“भारत के देशभक्तों को सदा याद रहूँगा…..
मैं आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा ।।”

अमर शहीद, महान क्रांतिकारी “चंद्रशेखर आज़ाद जी” की जयन्ती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन करती हूँ मैं ……..
…………. विजेता मलिक

via MyNt

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

संजय गुप्ता

अधूरी भक्ति
एक छोटी सी कहानी

एक छोटे से गाँव में साधू रहता था, वहाँ हर वक्त कान्हा के स्मरण में लगा रहता था, वहाँ कान्हा के लिए रोज_ खीर_चावल बनाता था, और हर दिन उनकें इंतजार में आस लगाए बैठा रहता था, कि मेरे कान्हा कब आयेंगे,
उस साधू की एक बुरी आदत थी, वहाँ गाँव में रहने वाले नीची जाती के लोगो से दूर रहता था, उन्हें आश्रम में नही आने देता था, उसका मानना था, कान्हा इससे नाराज हो जाएंगे, वो तो स्वामी हैं, इन नीच छोटी जाति वालों के, आश्रम में प्रवेश करने से और मुजे दर्शन नही देंगे, इसलिए वहाँ कभी किसी से ठीक से बात नही करता था………..🌳

उसके आश्रम से थोड़ी दूर एक कोड़ी रहता था, वहाँ भी कान्हा का भक्त था, नित्य प्रतिदिन वहाँ उनकी उपासना करता था, और हर वक्त कान्हा की भक्ति में डूबा रहता था,
जब भी साधू, उसके घर के पास से गुजरता तो कोड़ी को कहता नीच तुज जैंसे कोड़ी से कान्हा क्या मिलने आयेंगे, वो तो स्वामी हैं, तुज जैंसे के घर में क्यूं आने लगें भला, और बोलते_बोलते वहाँ आश्रम चले जाता……….🌿

कुछ वर्ष व्यतित हुये, अब साधू को लगने लगा, कान्हा क्यूं मुजे दर्शन नही दे रहे, और साधू उसकी मूर्ति के सामने रोने लगा, और कहने लगा प्रभु एक बार तो मुजे दर्शन दें दो, मैं प्रतिदन आपके लिए खीर_चावल बनाता हूं, एक बार तो आ कर भोज लगा लें, और उदास होकर कान्हा के चरणों में सो गया………🌴

दूसरे दिन एक गरीब दरिद्र, छोटा सा बालक साधू के आश्रम आया, साधू उस वक्त कान्हा को भोग लगाने जा रहा था, उस बालक ने कहा, साधू महराज मुजे कुछ खाने दे दीजिए मुजे जोरो की भूख लगी हैं,
साधू गुस्सें से तिलमिला गया, एक तो दरिद्र और दूसरा कान्हा की भक्ति में विध्न, उसने आव देखा ना ताव, एक पत्थर उठाकर बच्चें को दे मारा, उस दरिद्र बच्चें के सर से खून निकलने लगा, साधू ने कहा भाग यहाँ सें, बच्चा उसके आश्रम से निकल गया,
और जाकर उस कोडी के घर में चला गया, कोड़ी ने उसके रक्त साफ किया पट्टी बाँधी और उस भूखें बच्चें को भोजन दिया, बच्चा भोजन कर के चला गया……….🌱

दूसरे दिन फिर वो बच्चा साधू के आश्रम आया, साधू ने फिर उसे मारा और भागा दिया, फिर वहाँ कोड़ी के घर चला गया, कोड़ी ने फिर उसकी पट्टी बाँधी और खाने को दिया, बच्चा खाना खाकर चला जाता……🌳

वो बच्चा रोज आता, साधू उसे मारता और वो कोड़ी के पास चला जाता,
एक दिन साधू स्नान के लिए जा रहा था, उसे रास्तें पर वही कोड़ी दिखा, साधू ने उसे देखा तो अश्चाचर्य से भर गया, उस कोड़ी का कोड़ गायब हो चुका था, वहाँ बहुत ही सुंदर पुरूष बन चुका था, साधू ने कोड़ी नाम लेकर कहा, तुम कैंसे ठीक हो गयें, कोड़ी ने कहा, मेरे कान्हा की मर्जी, पर साधू को रास नही आया, उसने मन ही मन फैसला किया, पता लगाना पड़ेगा………..🌾

दूसरे दिन फिर वहाँ दरिद्र बच्चा साधू के आश्रम आया, साधू ने फिर उसे मारा, बच्चा जाने लगा, तो साधू उठ खड़ा हुआ और मन ही मन सोचने लगा, मैं इस दरिद्र बच्चें को रोज मारता हूं, ये रोज उस कोड़ी के घर जाता हैं, आखिर चक्कर क्या हैं देखना पड़ेगा, साधू पीछे_पीछे जाने लगता हैं जैसें ही वहाँ कोड़ी की झोपड़ी में पहुंचता हैं, उसकी ऑखें फटी की फटी रह जाती हैं…………🌳

स्वंय तीनो लोक के स्वामी कान्हा बांके बिहारी कोड़ी के घर पर बैंठे हैं और कोड़ी उनकी चोट पर मलहम लगा रहा हैं, और कान्हा जी भिक्षा में मांगी ना जाने कितनो दिनों की भासी रोटी को बड़े चाव से खा रहें हैं,

साधू कान्हा चरणों गिरते कहने लगा, मेरे कान्हा मेरे स्वामी मेरे आराध्य आपने मुज भक्त को दर्शन नही दिये, और इस नीच को दर्शन दे दीये, मुजसे क्या गलती हो गयी, जो आप इस कोड़ी की झोपड़ी में आ गयें, भिख में मांगी भासी रोटी खा ली पर, मैं आपके नित्य प्रतिदिन खीर_चावल बनाता हूं उसे खाने नही खाए, बोलो कान्हा बोलो…….🌾

तब कान्हा जी ने कहा ये साधू, मैं तो रोज तेरे पास खाना मांगने आता था, पर तु ही रोज मुजे पत्थर से मारकर भागा देता था, मुजे भूख लगती थी, और मैं इतना भूखा रहता था, की इस मानव के घर चला आता था, वो जो मुजे प्यार से खिलाता मैं खाकर चला जाता, अब तु ही बता इसमें मेरी क्या गलती,,,,,,,,,,,,
साधू पैर पकड़ कान्हा के रोने लगता हैं और कहता हैं, मुजसे गलती हो गयी, मैं आपको पहचान नही पाया, मुजे माफ कर दिजिए, और फिर कहता हैं, तीनो लोक के स्वामी गरीब भिखारी दरिद्र बच्चा बनकर आप मेरे आश्रम क्यूं आते थे, मैं तो आपको दरिद्र समझकर मारता था, क्यूकि मेरे कान्हा तो स्वामी हैं वो दरिद्र कैसें हो सकते हैं………🌴

कान्हा जी ने कहा,
हे साधू, तुजे किसने कहा मैं सिर्फ महलों में रहता हूं,
तुजे किसने कहा, मैं सिर्फ 56 भोज खाता हूं,
तुजे किसने कहा मैं, नंगे पैर नही आता,
तुजे किसने कहा
मैं दरिद्र नही,
हे साधू, ये समस्त चरचरा मैं ही हूं, धरती आकाश पृथ्वी सब मैं ही हूं, मैं ही हूं महलों का स्वामी, तो मैं ही हूं झोपड़ी का दरिद्र भिखारी, मैं ही हूं जो प्यार और सच्ची श्राध्दा से खिलाने पर बासी रोटी खा लेता हैं और स्वार्थ से खिलाने पर 56 भोग को नही छूता, मैं हर जीव में बसा हूं, तु मुजे अमीर_गरीब में ढूंढता हैं……………🌴

तुजसे अच्छा तो ये कोड़ी हैं जो सिर्फ एक ही बात जानता हैं, ईश्वर हर किसी में निवास करते हैं ना की धनवान में,
कान्हा कहने लगे,
तुने मेरी भक्ति तो की पर अधूरी
और कान्हा अंन्तरधय्न हो जाते हैं…………🌳

साधू उनकी चरण बज्र पकड़ फूटफूटकर रोने लगता हैं और कहता हैं जिसका एक पल पाने के लिए लोग जन्मोंजन्म तप करते है वो मेरी कुटिया में भीख मांगने आता था और मैं मूर्ख दरिद्र समपन्न देखता था,,,,
और कोड़ी के पैर पकड़ कहता हैं,,,,,,
मैंने तो सारी जिंदगी अधूरी भक्ति की,,,,,,
आप मुजे सच्ची भक्ति के पथ पर ले आइयें, मुझे अपना शिष्य बना लीजिए, कोड़ी उसे गले लगा लेता हैं……… 🙏

 "🌾ईश्वर कण_कण में हैं वो भिखारी भी जो आपकी चौखट पर आता हैं ना, वो भी ईश्वर की मर्जी हैं

क्यूकि किसी ने कहा हैं वो भिख लेने बस नही, दुआ देने भी आता हैं, और किसी महान आदमी ने कहा हैं,,,,,
दानें_दानें पर लिखा हैं खाने वालें का नाम

इसलिए कभी किसी का अनादर मत कीजिए🌾”

       🌿 जय बाँकेबिहारी लाल की 🌿

         🙏राधें_राधें🙏
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अनूप सिन्हा

                              प्रेरक   प्रसंग

पषाण गढ़ि कै मूरति कीनी

  सन्त गाडगे महाराज जब महाराष्ट्र के एक ग्राम में पहुँचे, तो उन्हें वहाँ नदी के किनारे सैकड़ों शिवालय दिखाई दिखे और यह देख उन्हें मन ही मन हँसी आ गयी ।
  रात्रि को एक मंदिर में उनके कीर्तन का आयोजन किया गया, किन्तु उन्हें यह देख दुःख हुआ कि श्रोताओं की उपस्थिति बहुत कम है ।  दूसरे दिन सुबह जब लोग उनसे मिलने आये, तो उन्होंने कहा,  "यहाँ जितने मन्दिर हैं, उतने लोग भी कल के कीर्तन में नहीं आये थे ।"  यह सुन कुछ लोगों को हँसी आ गयी ।  तब वे बोले,  "हँसते क्यों हो, बाबा ! क्या तुम्हें नदी के किनारे जहाँ -तहाँ मन्दिर ही मन्दिर नहीं दिखायी देते ?  मगर क्या उनकी देखभाल ठीक तरीके से हो रही है ?  कहीं नंदी का पता नहीं है, तो कहीं भगवान् के दर्शन ही दुर्लभ हैं ।  ऐसे मन्दिर बाँधना न बाँधने जैसा ही है ।"
  इतने में एक व्यक्ति ने जवाब दिया,  "यह सब धर्म-श्रद्धा मिटने का परिणाम है ।"  तब बाबा बोले,  "ठीक-ठीक क्यों नहीं कहता कि भावना नहीं रही ?  संस्कृत में काहे को बोलता है ?  इन मन्दिरों का निर्माण करनेवालों को सपना ही आया होता कि मन्दिरों की यह हालत होनेवाली है, तो शायद वे मन्दिर न बाँधते ।  वह देखो, सामने एक कुत्ता मन्दिर मैं जा रहा है, क्या वह उसे अपवित्र नहीं करेगा ?"  तब एक व्यक्ति ने कुत्ते पर पत्थर फेंकना चाहा, तो बाबा ने उससे कहा,  "किसको मार रहे हो ?  कुत्ते को ? गुस्सा आ ही रहा है, तो कुत्ते पर क्यों निकाल रहे हो, मन्दिर बनानेवाले पर क्यों नहीं उतारते, जिन्होंने यहाँ इतने ढेर सारे मन्दिर बना रखे हैं ।  अच्छा तो यही होता कि एक ही मन्दिर बाँधते और मन्दिर का और देवता का ठीक से इन्तजाम करते ।  मगर ऐसा हो रहा है क्या ?  तुकोबाराया ने ठीक ही कहा है ___ तीर्थी धोंडा पाणीगा, देव रोकडा सज्जनी ( नदी के किनारे का पत्थर भी सज्जन लोगों के लिए देवता बन जाता है ) !