रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में महर्षि वाल्मीकि और श्री राम मिलन (कथा),,,,,,,,
भगवान ने भारद्वाज मुनि और वनवासियों पर कृपा की। अब भगवान सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है।
महर्षि वाल्मीकि जी को खबर मिली है की राम आये हैं। महर्षि वाल्मीकि जी जानते हैं की ये साक्षात भगवान हैं। क्योंकि उन्होंने पहले से रामायण लिख दी है। आज सोच रहे हैं जैसे ही प्रभु आएंगे मैं उनके चरणों में नतमस्तक होकर वंदन करूँगा।
लेकिन भगवान भी जानते हैं ये मुझे जरूर वंदन करेंगे। क्योंकि ये मुझे अच्छी तरह से जानते हैं। और अगर इन्होने मुझे प्रणाम कर दिया तो भेद खुल जायेगा। चारों और हल्ला हो जायेगा की ये राम साक्षात भगवान है। क्योंकि जिनको इतना बड़ा महात्मा प्रणाम करे वो तो बस भगवान ही हो सकते हैं।
जैसे ही प्रभु पधारे हैं इन्होने वाल्मीकि जी को दंडवत प्रणाम दिया है। मुनि कहुँ राम दंडवत कीन्हा। भगवान जी लेट गए हैं इनके चरणों में। वाल्मीकि जी सोचते हैं मैं तो इन्हें लेट कर प्रणाम करने वाला था लेकिन इन्होने ही मुझे कर दिया।
अब महर्षि ने उठाया है और प्रभु को ह्रदय से लगाया है। कंद-मूल, फल खाने को दिए हैं। लेकिन कहीं वर्णन नही आया की 14 वर्षो में सबने एक साथ बैठ कर फल खाए हों। यहीं पर तीनों ने(सीता-राम और लक्ष्मण जी ) एकसाथ बैठकर फल खाए हैं। तब मुनि ने उनको विश्राम करने के लिए सुंदर स्थान बतला दिए।
इसके बाद सुंदर वार्तालाप हुआ है- भगवान जी वाल्मीकि जी से पूछते हैं- क्या आप मुझे पहचानते हो की मैं कौन हूँ?
वाल्मीकि जी मुस्कुराने लगे- हे राम! जगत दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है? लेकिन मैं सब जानता हूँ की आप कौन है, और लक्ष्मण जी कौन है और तो और मैं जानकी जी के स्वरूप को भी जानता हूँ। लेकिन प्रभु एक बात कहूँ।
रामजी कहते हैं- जी गुरुदेव कहिये।
वाल्मीकि जी बोले की मैं ये सब जानता हूँ पर अपनी साधना के बल पर नही जानता। आपकी कृपा के बल पर जानता हूँ।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥ महर्षि बोले की आपको जाना सरल नही है। वही आपको जान सकता है जिसे आप जनाना चाहो। जिस पर तुम कृपा कर दो।
भगवान ने वाल्मीकि जी से पूछा की हे गुरुदेव कोई ऐसी जगह बताइये जहाँ हम रह सकें?
ये बात सुनकर महर्षि बहुत मुस्कुराये हैं- वाल्मीकि जी कहते है प्रभु आप मुझसे पूछ रहे हो की मैं कहाँ रहूँ? पहले ये बताओ की आप कहाँ नही रुके हुए हो। हर जगह तो आप ही रुके हुए हो।
भगवान भी ये बात सुनकर मुस्कुराये हैं। भगवान कहते हैं, नहीं-नहीं, फिर भी आप रहने के लिए कोई जगह बताइये।
भगवान कहाँ रहते हैं?
तब वाल्मीकि जी ने भगवान को रहने के 14 स्थान बताये हैं। इन स्थानों पर आपको रहना ही चाहिए प्रभु।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना॥ जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी तृप्त नहीं होते आप वहां रहिये।
जिनके नेत्र चातक की भांति आपके लिए तड़पते हैं आप उनके ह्रदय में रहो।
जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुण समूह रूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी! आप उसके हृदय में बसिए॥
जिसकी नासिका प्रभु (आप) के पवित्र और सुगंधित (पुष्पादि) सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती (सूँघती) है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं आप उनके ह्रदय में रहो।
जिसका मस्तक आपके चरणों में झुका हुआ रहता है आप वहां रहिये।
जिनके चरण श्री रामचन्द्रजी (आप) के तीर्थों में चलकर जाते हैं, हे रामजी! आप उनके मन में निवास कीजिए।
जो अनेक प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, दान और सेवा करते हैं आप उनके ह्रदय में रहिये।
जिनके मन में न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए।
जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो जागते सोते आपको ही याद करते हैं आप उनके ह्रदय में रहिये।
जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! आप उनके मन में रहना।
जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं, उनके मन रूपी मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिए॥
जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गो के लिए संकट सहते हैं, नीति-निपुणता में जिनकी जगत में मर्यादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है॥ जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, उनके ह्रदय में रहिये।
जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए॥
स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं आप उनके ह्रदय में रहिये।
अंत में कहते हैं- जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु॥
जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है॥
फिर वाल्मीकि जी ने राम जी को कहा की आप चित्रकूट में जाकर निवास कीजिये। अब भगवान चित्रकूट गए हैं।
बोलिए श्री राम चन्द्र महाराज की जय!!
संजय गुप्ता
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