Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

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शयन के नियम*
1. सूने घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। (मनुस्मृति)
2. किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। (विष्णुस्मृति)
3. विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। (चाणक्यनीति)
4. स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत)
बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। (पद्मपुराण)
5. भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति)
टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। (महाभारत)
6. नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। (गौतमधर्मसूत्र)
7. पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु, तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। (आचारमय़ूख)
8. दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)
9. दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
10. सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
11. बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।
12. दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नही सोना चाहिए। यम और दुष्टदेवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
13. ह्रदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
14. शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
15. सोते सोते पढना नही चाहिए।
16. ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक हटा दें।
🌸🌺Jay SIYARAM🌺🌸

Posted in मंत्र और स्तोत्र

मुकेश अग्नि

कैसे बना शिव तांडव स्‍त्रोत?शिवतांडवस्त्रोत भावार्थ सहित? शिवतांडव स्त्रोत का महत्व?

कुबेर व रावण दोनों ऋषि विश्रवा की संतान थे और दोनों सौतेले भाई थे। ऋषि विश्रवा ने सोने की लंका का राज्‍य कुबेर को दिया था लेकिन किसी कारणवश अपने पिता के कहने पर वे लंका का त्याग कर हिमाचल चले गए।

कुबेर के चले जाने के बाद इससे दशानन बहुत प्रसन्न हुआ। वह लंका का राजा बन गया और लंका का राज्‍य प्राप्‍त करते ही धीरे-धीरे वह इतना अहंकारी होगया कि उसने साधुजनों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिए।

जब दशानन के इन अत्‍याचारों की ख़बर कुबेर को लगी तो उन्होंने अपने भाई को समझाने के लिए एक दूत भेजा, जिसने कुबेर के कहे अनुसार दशानन को सत्य पथ पर चलने की सलाह दी। कुबेर की सलाह सुन दशानन को इतना क्रोध आया कि उसने उस दूत को बंदी बना लिया व क्रोध के मारे तुरन्‍त अपनी तलवार से उसकी हत्‍या कर दी।

कुबरे की सलाह से दशानन इतना क्रोधित हुआ कि दूत की हत्‍या के साथ ही अपनी सेना लेकर कुबेर की नगरी अलकापुरी को जीतने निकल पड़ा और कुबेर की नगरी को तहस-नहस करने के बाद अपने भाई कुबेर पर गदा का प्रहार कर उसे भी घायल कर दिया लेकिन कुबेर के सेनापतियों ने किसी तरह से कुबेर को नंदनवन पहुँचा दिया जहाँ वैद्यों ने उसका इलाज कर उसे ठीक किया।

चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्‍पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्‍पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के पास से गुजरते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई।

चूंकि पुष्‍पक विमान की ये विशेषता थी कि वह चालक की इच्‍छानुसार चलता था तथा उसकी गति मन की गति से भी तेज थी, इसलिए जब पुष्‍पक विमान की गति मंद हो गर्इ तो दशानन को बडा आश्‍चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि सामने खडे विशाल और काले शरीर वाले नंदीश्वर पर पडी। नंदीश्वर ने दशानन को चेताया कि-

यहाँ भगवान शंकर क्रीड़ा में मग्न हैं इसलिए तुम लौट जाओ। लेकिन दशानन कुबेर पर विजय पाकर इतना दंभी होगया था कि वह किसी कि सुनने तक को तैयार नहीं था। उसे उसने कहा कि-

कौन है ये शंकर और किस अधिकार से वह यहाँ क्रीड़ा करता है? मैं उस पर्वत का नामो-निशान ही मिटा दूँगा, जिसने मेरे विमान की गति अवरूद्ध की है।

इतना कहते हुए उसने पर्वत की नींव पर हाथ लगाकर उसे उठाना चाहा। अचानक इस विघ्न से शंकर भगवान विचलित हुए और वहीं बैठे-बैठे अपने पाँव के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया ताकि वह स्थिर हो जाए।

लेकिन भगवान शंकर के ऐसा करने से दशानन की बाँहें उस पर्वत के नीचे दब गई। फलस्‍वरूप क्रोध और जबरदस्‍त पीडा के कारण दशानन ने भीषण चीत्‍कार कर उठा, जिससे ऐसा लगने लगा कि मानो प्रलय हो जाएगा। तब दशानन के मंत्रियों ने उसे शिव स्तुति करने की सलाह दी ताकि उसका हाथ उस पर्वत से मुक्‍त हो सके।

दशानन ने बिना देरी किए हुए सामवेद में उल्लेखित शिव के सभी स्तोत्रों का गान करना शुरू कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दशानन को क्षमा करते हुए उसकी बाँहों को मुक्त किया।

दशानन द्वारा भगवान शिव की स्‍तुति के लिए किए जो स्‍त्रोत गाया गया था, वह दशानन ने भयंकर दर्द व क्रोध के कारण भीषण चीत्‍कार से गाया था और इसी भीषण चीत्‍कार को संस्‍कृत भाषा में राव: सुशरूण: कहा जाता है।

इसलिए जब भगवान शिव, रावण की स्‍तुति से प्रसन्‍न हुए और उसके हाथों को पर्वत के नीचे से मुक्‍त किया, तो उसी प्रसन्‍नता में उन्‍होंने दशानन का नाम रावण यानी ‘भीषण चीत्कार करने पर विवश शत्रु’ रखा क्‍योंकि भगवान शिव ने रावण को भीषण चीत्‍कार करने पर विवश कर दिया था और तभी से दशानन काे रावण कहा जाने लगा।

शिव की स्तुति के लिए रचा गया वह सामवेद का वह स्त्रोत, जिसे रावण ने गाया था, को आज भी रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्‍त्रोत के नाम से जाना जाता है, जो कि निम्‍नानुसार है-

शिव तांडव स्‍त्रोत

जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥

सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी ।
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥

अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।

धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे ।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥

पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।

जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥

जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।

सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥

इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥

इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥

जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥

नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।

प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥

फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥

कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥

अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥

कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥

कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥

देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥

प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥

इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥

शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।

॥ इति श्री रावणकृतम् शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥

भगवान शिव की आराधना व उपासना के लिए रचे गए सभी अन्‍य स्‍तोत्रों में रावण रचित या रावण द्वारा गया गया शिवतांडव स्तोत्र भगवान शिव को अत्‍यधिक प्रिय है, ऐसी हिन्‍दु धर्म की मान्‍यता है और माना जाता है कि शिवतांडव स्तोत्र द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने से व्यक्ति को कभी भी धन-सम्पति की कमी नहीं होती, साथ ही व्‍यक्ति को उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है। यानी व्‍यक्ति का चेहरा तेजस्‍वी बनता है तथा उसके आत्‍मविश्‍वास में भी वृद्धि होती है।

इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से व्‍यक्ति को जिस किसी भी सिद्धि की महत्वकांक्षा होती है, भगवान शिव की कृपा से वह आसानी से पूर्ण हो जाती है। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है।

यानी व्‍यक्ति जो भी कहता है, वह वैसा ही घटित होने लगता है। नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी आदि सिद्धियां भगवान शिव से ही सम्‍बंधित हैं, इसलिए शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने वाले को इन विषयों से सम्‍बंधित सफलता सहज ही प्राप्‍त होने लगती हैं।

इतना ही नहीं, शनि को काल माना जाता है जबकि शिव महाकाल हैं, अत: शनि से पीड़ित व्‍यक्ति को इसके पाठ से बहुत लाभ प्राप्‍त है। साथ ही जिन लोगों की जन्‍म-कुण्‍डली में सर्प योग, कालसर्प योग या पितृ दोष होता है, उन लोगों के लिए भी शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करना काफी उपयोगी होता है क्‍योंकि हिन्‍दु धर्म में भगवान शिव को ही आयु, मृत्‍यु और सर्प का स्‍वामी माना गया है।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

संजय गुप्ता

मित्रो, मीराबाई भक्तिकाल की एक ऐसी संत हैं, जिनका सब कुछ भगवान् श्री कृष्ण के लिये समर्पित था, यहां तक कि श्रीकृष्ण को ही वह अपना पति मान बैठी थीं, भक्ति की ऐसी चरम अवस्था कम ही देखने को मिलती है, सज्जनों! आज हम श्रीकृष्ण की दीवानी मीराबाई के जीवन की कुछ रोचक बातों को भक्ति के साथ आत्मसात करने की कोशिश करेंगे।

मीराबाई के बालमन में श्रीकृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि किशोरावस्था से लेकर मृत्यु तक उन्होंने भगवान् कृष्णजी को ही अपना सब कुछ माना, जोधपुर के राठौड़ रतनसिंह जी की इकलौती पुत्री मीराबाई का जन्म सोलहवीं शताब्दी में हुआ था, बचपन से ही वह कृष्ण-भक्ति में रम गई थीं।

मीराबाई के बचपन में हुई एक घटना की वजह से उनका कृष्ण-प्रेम अपनी चरम अवस्था तक पहुँचा, सज्जनों! हुआ यू की एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहाँ बारात आई, सभी औरतें छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थीं, मीरा भी बारात देखने लगीं, बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है?

इस पर उनकी माता ने कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर के कह दिया कि यही तुम्हारे दूल्हा हैं। बस यह बात मीरा के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई, बाद में मीराबाई की शादी महाराणा सांगा के पुत्र भोजराजजी से हुआ जो आगे चलकर महाराणा कुंभा कहलायें, शादी के बाद विदाई के समय वे श्री कृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गयीं जिसे उनकी माता ने उनका दूल्हा बताया था।

ससुराल में अपने घरेलू कामकाज निबटाने के बाद मीराबाई रोज भगवान् श्रीकृष्णजी के मंदिर चली जातीं और श्रीकृष्ण की पूजा करतीं, उनकी मूर्ति के सामने गातीं और नृत्य करतीं, ससुराल के परिवार वालों ने उनकी श्रद्धा-भक्ति को मंजूरी नहीं दी, मीराबाई की एक ननद थी उदाबाई, उन्होंने मीराबाई को बदनाम करने के लिये उनके खिलाफ एक साजिश रची।

उदाबाई ने राणा से कहा कि मीरा का किसी के साथ गुप्त प्रेम है और उसने मीरा को मंदिर में अपने प्रेमी से बात करते देखा है, राणा कुंभा अपनी बहन के साथ आधी रात को मंदिर गया और देखा कि मीराबा अकेले ही कृष्णजी की मूर्ति के सामने परम आनंद की अवस्था में बैठी मूर्ति से बातें कर रही थीं और मस्ती में गा रही थीं।

राणा मीरा पर चिल्लाया- मीरा! तुम जिस प्रेमी से अभी बातें कर रही हो, उसे मेरे सामने लाओ, मीराबाई ने जवाब दिया- वह सामने बैठा है मेरा स्वामी जिसने मेरा दिल चुराया है, और वह समाधि में चली गयीं, घटना से राणा कुंभा का दिल टूट गया लेकिन फिर भी उसने एक अच्छे पति की भूमिका निभाई और मरते दम तक मीराबाई का साथ दिया।

हालाँकि मीराबाई को राजगद्दी की कोई चाह नहीं थी फिर भी राणा के संबंधी मीराबाई को कई तरीकों से सताने लगे, कृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम शुरुआत में बेहद निजी था, लेकिन बाद में कभी-कभी मीरा के मन में प्रेमानंद इतना उमड़ पड़ता था कि वह आम लोगों के सामने और धार्मिक उत्सवों में नाचने-गाने लगती थीं।

मीराबाई रात में चुपचाप चित्तौड़ के किले से निकल जाती थीं और नगर में चल रहे सत्संग में हिस्सा लेती थीं, मीराबाई का देवर विक्रमादित्य जो चित्तौड़गढ़ का नया राजा बना, मीराबाई की भक्ति, उनका आम लोगों के साथ घुलना-मिलना और नारी-मर्यादा के प्रति उनकी लापरवाही का उसने कड़ा विरोध किया, उसने मीराबाई को मारने की कई बार कोशिश की।

यहां तक कि एक बार उसने मीराबाई के पास फूलों की टोकरी में एक जहरीला साँप रखकर भेजा और मीराबाई को संदेश भिजवाया कि टोकरी में फूलों के हार हैं, ध्यान से उठने के बाद जब मीराबाई ने टोकरी खोली तो उसमें से फूलों के हार के साथ भगवान् श्री कृष्णजी की एक सुंदर मूर्ति निकली, राणा के द्वारा तैयार किया हुआ कांटो का बिस्तर भी मीराबाई के लिये फूलों का सेज बन गया जब मीरा उस पर सोने चलीं।

जब यातनायें बरदाश्त से बाहर हो गयीं तो मीराबाई ने चित्तौड़ छोड़ दिया, वे पहले मेड़ता गईं, लेकिन जब उन्हें वहां भी संतोष नहीं मिला तो कुछ समय के बाद उन्होने वृंदावन का रुख कर लिया, मीराबाई मानती थीं कि वह गोपी ललिता ही हैं, जिन्होने फिर से जन्म लिया है, ललिता कृष्ण के प्रेम में दीवानी थीं।

मीराबाई ने अपनी तीर्थयात्रा जारी रखी, वे एक गांव से दूसरे गांव नाचती-गाती पूरे उत्तर भारत में घूमती रहीं, माना जाता है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ साल गुजरात के द्वारका में गुजारे, ऐसा कहा जाता है कि दर्शकों की पूरी भीड़ के सामने मीरा द्वारकाधीश की मूर्ति में समा गईं।

सज्जनों! इंसान आमतौर पर शरीर, मन और बहुत सारी भावनाओं से बना है, यही वजह है कि ज्यादातर लोग अपने शरीर, मन और भावनाओं को समर्पित किए बिना किसी चीज के प्रति खुद को समर्पित नहीं कर सकते, विवाह का मतलब यही है कि आप एक इंसान के लिए अपनी हर चीज समर्पित कर दें, अपना शरीर, अपना मन और अपनी भावनायें।

मीराबाई के लिए यह समर्पण, शरीर, मन और भावनाओं के परे, एक ऐसे धरातल पर पहुंच गयी जो बिलकुल अलग था, जहां यह उनके लिए परम सत्य बन गया था, मीराबाई जो कृष्ण को अपना पति मानती थीं, कृष्णजी को लेकर मीराबाई इतनी दीवानी थीं कि महज आठ साल की उम्र में मन ही मन उन्होंने श्रीकृष्ण से विवाह कर लिया, उनके भावों की तीव्रता इतनी गहन थी कि कृष्ण उनके लिए सच्चाई बन गयें।

यह मीराबाई के लिये कोई मतिभ्रम नहीं एक सच्चाई थी कि श्रीकृष्ण उनके साथ उठते-बैठते थे, घूमते थे, ऐसे में मीराबाई के पति को उनके साथ दिक्कत होने लगी, क्योंकि वह हमेशा अपने दिव्य प्रेमी श्रीकृष्ण के साथ रहतीं, उनके पति ने हर संभव समझाने की, क्योंकि वह मीराबाई को वाकई प्यार करता था, लेकिन वह नहीं जान सका कि आखिर मीरा के साथ हो क्या रहा है।

दरअसल, मीरा जिस स्थिति से गुजर रही थीं और उनके साथ जो भी हो रहा था, वह बहुत वास्तविक लगता था, लेकिन उनके पति को कुछ भी नजर नहीं आता था और वह बहुत निराश हो गया, मीराबाई के इर्द गिर्द के लोग शुरुआत में बड़े चकराये कि आखिर मीराबाई का क्या करें, बाद में जब भगवान् श्री कृष्ण के प्रति मीराबाई का प्रेम अपनी चरम ऊँचाइयों तक पहुँच गया तब लोगों को यह समझ आया कि वे कोई असाधारण औरत हैं।

फिर तो लोग उनका आदर करने लगे और उनके आस-पास भीड़ इकट्ठी होने लगी, पति के मरने के बाद मीराबाई पर व्यभिचार का आरोप लगा, उन दिनों व्यभिचार के लिए मत्यु दंड दिया जाता था, इसलिये शाही दरबार में उन्हें जहर पीने को दिया गया, उन्होंने भगवान् श्री कृष्णजी को याद किया और जहर पीकर वहां से चल दीं, लोग उनके मरने का इंतजार कर रहे थे, लेकिन वह स्वस्थ्य और प्रसन्न बनी रहीं।

इस तरह की कई घटनाएं हुयीं, दरअसल भक्ति ऐसी चीज है जो व्यक्ति को खुद से भी खाली कर देती है, जब मैं भक्ति कहता हूंँ तो मैं किसी मत या धारणा में विश्वास की बात नहीं कर रहा हूंँ, मेरा मतलब पूरे भरोसे और आस्था के साथ आगे बढ़ने से है, तो सवाल उठता है, कि मैं भरोसा कैसे करूं? भक्ति कोई मत या मान्यता नहीं है, भक्ति इस अस्तित्व में होने का सबसे खूबसूरत तरीका है।

सज्जनों! जीव गोसांई वृंदावन में वैष्णव-संप्रदाय के बड़े संत थे, मीराबाई जीव गोसांई के दर्शन करना चाहती थीं, लेकिन उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया, उन्होंने मीरा को संदेशा भिजवाया कि वह किसी औरत को अपने सामने आने की इजाजत नहीं देंगे, मीराबाई ने इसके जवाब में अपना संदेश भिजवाया कि वृँदावन में हर कोई औरत है।

अगर यहां कोई पुरुष है तो केवल गिरिधर गोपाल, आज मुझे पता चला कि वृंदावन में कृष्ण के अलावा कोई और पुरुष भी है, इस जबाब से जीव गोसाईं बहुत शर्मिंदा हुयें और तत्काल मीराबाई से मिलने गये और मीराबाई को भरपूर सम्मान दिया, मीराबाई ने गुरु के बारे में कहा है कि बिना गुरु धारण किये भक्ति नहीं होती।

भक्तिपूर्ण इंसान ही प्रभु प्राप्ति का भेद बता सकता है, वही सच्चा गुरु है, स्वयं मीराबाई के पद से पता चलता है कि उनके गुरु रैदासजी थे, मीरा के पदों में भावनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रेम की ओजस्वी प्रवाह-धारा और प्रीतम से वियोग की पीड़ा का मर्मभेदी वर्णन मिलता है, भाई-बहनों! आज मीराबाई की भक्ति के साथ आज का पावन दिवस आप सभी के लिये मंगलमय् हो।

जय श्री कृष्ण!
जय श्री भक्त सिरोमणी मीराबाई!

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संजय गुप्ता

प्राचीन भारत के पांच महान ‘बाहुबली’!!!!!!!

भारतवर्ष में पहले देव, असुर, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, मानव, नाग आदि जातियां निवास करती थीं। कुरु, पांचाल, पुण्ड्र, कलिंग, मगध, दक्षिणात्य, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव, पारियात्र, सौवीर, संधव, हूण, शाल्व, कोशल, मद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसी गण रहते थे।

भारत के पूर्वी भाग में किरात (चीनी) और पश्चिमी भाग में यवन (अरबी) बसे हुए थे। उस काल में एक से बढ़कर एक बाहुबली होते थे, लेकिन हम उन असुरों की बात नहीं कर रहे जो अपनी मायावी शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकते थे हम बात कर रहे हैं ऐसे लोगों की जिनकी भुजाओं में अपार बल था।

बाहुबली का अर्थ होता है जिसकी भुजाओं में अपार बल है। बलवान, शक्तिमान और ताकतवर। दुनिया में आज भी ऐसे कई व्यक्ति है जिनकी भुजाओं में इतना बल है जितना कि किसी सामान्य इंसान या किसी कसरत करने वाले ताकतवर व्यक्ति की भुजाओं में भी नहीं होगा।

आज हम आपको बताएंगे भारत के प्राचीनकाल में ऐसे कौन-कौन से व्यक्ति थे जिनकी भुजाओं में आम इंसान की अपेक्षा कहीं ज्यादा बल था।

पहले बाहुबली श्रीहनुमानजी : – जब ताकत की, बल की या शक्ति की बात हो तो हनुमानजी का नाम सबसे पहले रखा जाता है। श्रीरामदूत हनुमानजी की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने संजीवनी बूटी का एक पहाड़ उठा लिया था।

श्रीरामदूत हनुमानजी के बारे में क्या कहें? उनके पराक्रम और बाहुबल के बारे में रामायण सहित दुनिया के हजारों ग्रंथों में लिखा हुआ है। केसरीनंदन पवनपुत्र श्रीहनुमानजी को भगवान शंकर का अंशशवतार माना जाता है।

दूसरे बाहुबली कुंति पुत्र भीम : – पांडु के पांच में से दूसरे पुत्र का नाम भीम था जिन्हें भीमसेन भी कहते थे। कहते हैं कि भीम में दस हजार हाथियों का बल था और वह गदा युद्ध में पारंगत था। एक बार उन्होंने अपनी भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था। लेकिन वे हनुमानजी की पूंछ को नहीं उठा पाए थे।

भीम को पवनपुत्र भी कहा जाता है। पवनपुत्र इसलिए कि पांडु तो पुत्र पैदा कर नहीं सकते थे। इसीलिए कुंति ने पवनदेव का आह्‍वान किया था। भीम के पुत्र घटोत्कच तो भीम से भी कहीं ज्यादा शक्तिशाली था। युद्ध में भीम से ज्यादा शक्तिशाली सिर्फ उनका पुत्र ही था।

यह सभी जानते हैं कि गांधारी का बड़ा पु‍त्र दुर्योधन और गांधारी का भाई शकुनि, कुंती के पुत्रों को मारने के लिए नई-नई योजनाएं बनाते थे। कहते हैं कि इसी योजना के तहत एक बार दुष्ट दुर्योधन ने धोखे से भीम को विष पिलाकर उसे गंगा नदी में फेंक दिया। मूर्छित अवस्था में भीम बहते हुए नागों के लोक पहुंच गए। वहां विषैले नागों ने उन्हें खूब डंसा जिससे भीम के शरीर का जहर कम होने लगा यानी जहर से जहर की काट होने लगी।

जब भीम की मूर्छा टूटी, तब उन्होंने नागों को मारना शुरू कर दिया। यह खबर नागराज वासुकि के पास पहुंची, तब वे स्वयं भीम के पास आए। वासुकि के साथी आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना के नाना थे। भीम ने उन्हें अपने गंगा में धोखे से बहा देने का किस्सा सुनाया। यह सुनकर आर्यक नाग ने भीम को हजारों हाथियों का बल प्रदान करने वाले कुंडों का रस पिलाया जिससे भीम और भी शक्तिशाली हो गए।

तीसरे बाहुबली महाबली बली : – महाबली बली या बाली अजर-अमर है। कहते हैं कि वो आज भी धरती पर रहकर देवताओं के विरुद्ध कार्य में लिप्त है। पहले उसका स्थान दक्षिण भारत के महाबलीपुरम में था लेकिन मान्यता अनुसार अब मरुभूमि अरब में है जिसे प्राचीनकाल में पाताल लोक कहा जाता था। अहिरावण भी ‍वहीं रहता था। समुद्र मंथन में उसे घोड़ा प्राप्त हुआ था जबकि इंद्र को हाथी। उल्लेखनीय है कि अरब में घोड़ों की तादाद ज्यादा थी और भारत में हाथियों की।

शिवभक्त असुरों के राजा बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। वह मानता था कि देवताओं और विष्णु ने उसके साथ छल किया। हालांकि बाली विष्णु का भी भक्त था। भगवान विष्णु ने उसे अजर-अमर होने का वरदान दिया था।

हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बाली का जन्म हुआ। बाली जानता था कि मेरे पूर्वज विष्णु भक्त थे, लेकिन वह यह भी जानता था कि मेरे पूर्वजों को विष्णु ने ही मारा था इसलिए बाली के मन में देवताओं के प्रति द्वेष था। उसने शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं को खदेड़ दिया था। वह ‍तीनों लोक का स्वामी बन बैठा था।

देवताओं के कहने पर वामन रूप विष्णु ने दानवीर बाली के समक्ष ब्राह्मण रूप में उपस्थित होकर उससे तीन पग भूमि मांग ली थी। वामन ने दो पग में तीनों लोक नापकर पूछा, अब तीसरा पग कहां रखूं तो बाली ने कहा कि प्रभु अब मेरा सिर ही बचा है आप इस पर पग रख दें। बाली के इस वचन को सुनकर और उसकी दानवीरता को देखते हुए भगवान वामन ने उनको पाताल लोक का राजा बनाकर अमरता का वरदान ‍दे दिया। इस तरह इंद्र और अन्य देवताओं को फिर से स्वर्ग का साम्राज्य मिल गया था।

चौथे बाहुबली वानर राज बालि : – वानर राज बालि किष्किंधा का राजा और सुग्रीव का बड़ा भाई था। बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ संपन्न हुआ था। तारा एक अप्सरा थी। बालि को तारा किस्मत से ही मिली थी। बालि के आगे रावण की एक नहीं चली थी, तब रावण ने क्या किया था यह अगले पन्ने पर पढ़ें।

रामायण के अनुसार बालि को उसके धर्मपिता इन्द्र से एक स्वर्ण हार प्राप्त हुआ था। इस हार की शक्ति अजीब थी। इस हार को ब्रह्मा ने मंत्रयुक्त करके यह वरदान दिया था कि इसको पहनकर बालि जब भी रणभूमि में अपने दुश्मन का सामना करेगा तो उसके दुश्मन की आधी शक्ति क्षीण हो जाएगी और यह आधी शक्ति बालि को प्राप्त हो जाएगी। इस कारण से बालि बाहुबली बाहुबली बनकर लगभग अजेय था।

अत्यधिक ताकतवर होने के बावजूद जब रावण पाताल लोक के राजा बालि के साथ युद्ध करने गया तो राजा बालि के भवन में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था। बड़ी मुश्किल से उनसे छुटकर जब वह संध्यावंदन कर रहे बालि की ओर बढ़ा तो बालि के मंत्री ने उसको बहुत समझाया कि आप उन्हें संध्यावंदन कर लेने दें अन्यथा आप मुसीबत में पड़ जाएंगे, लेकिन रावण नहीं माना।

रावण संध्या में लीन बालि को पीछे से जाकर उसको पकड़ने की इच्छा से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। बालि ने उसे देख लिया था किंतु उसने ऐसा नहीं जताया तथा संध्यावंदन करता रहा। रावण की पदचाप से जब उसने जान लिया कि वह निकट है तो तुरंत उसने रावण को पकड़कर बगल में दबा लिया और आकाश में उड़ने लगा। राजा बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबाकर 4 समुद्रों की परिक्रमा की।

बारी-बारी में उसने सब समुद्रों के किनारे संध्या की। राक्षसों ने भी उसका पीछा किया। रावण ने स्थान-स्थान पर नोचा और काटा किंतु बालि ने उसे नहीं छोड़ा। संध्या समाप्त करके किष्किंधा के उपवन में उसने रावण को छोड़ा तथा उसके आने का प्रयोजन पूछा। रावण बहुत थक गया था किंतु उसे उठाने वाला बालि तनिक भी शिथिल नहीं था। रावण समझ गया था कि बालि से लड़ना उसके बस की बात नहीं है तो उससे प्रभावित होकर रावण ने अग्नि कोसाक्षी बनाकर उससे मित्रता कर ली।

पांचवें बाहुबली भगवान बाहुबली : – जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के दो पुत्र भरत और बाहुबली थे। भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत रखा गया था। ऋषभदेव के जंगल चले जाने के बाद राज्याधिकार के लिए बाहुबली और भरत में युद्ध हुआ। बाहुबली ने युद्ध में भरत को परास्त कर दिया।

लेकिन इस घटना के बाद उनके मन में भी विरक्ति भाव जाग्रत हुआ और उन्होंने भरत को राजपाट ले लेने को कहा, तब वे खुद घोर तपश्चरण में लीन हो गए। तपस्या के पश्चात उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। भरत ने बाहुबली के सम्मान में पोदनपुर में 525 धनुष की बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठित की। प्रथम सबसे विशाल प्रतिमा का यह उल्लेख है।

भारतीय राज्य कर्नाटक के मड्या जिले में श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर स्थान पर स्थित महाबली बाहुबली की विशालकाय प्रतीमा जिसे देखने के लिए विश्‍व के कोने-कोने से लोग आते हैं। बाहुबली की विशालकाय प्रतिमा पूर्णत: एक ही पत्थर से निर्मित है। इस मूर्ति को बनाने में मूर्तिकार को लगभग 12 वर्ष लगे। बाहुबली को गोमटेश्वर भी कहा जाता था।

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संजय गुप्ता

महाबली महादानी राजा बलि के दस रहस्य !!!!!

असुरों के राजा बलि या बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। दान-पुण्य करने में वह कभी पीछे नहीं रहता था। उसकी सबसे बड़ी खामी यह थी कि उसे अपनी शक्तियों पर घमंड था और वह खुद को ईश्वर के समकक्ष मानता था और वह देवताओं का घोर विरोधी था।भारतीय और हिन्दू इतिहास में राजा बलि की कहानी सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है।

ऐसा माना जाता है कि प्राचीनकाल में देवी और देवता हिमालय क्षेत्र में रहते थे। हिमालय में ही देवराज इंद्र का एक क्षेत्र था जिसमें नंदन कानन वन था। इंद्र के इस क्षेत्र के पास ही गंधर्वों का क्षेत्र था। यहीं पर कैलाश पर्वत पर भगवान शिव का निवास था। पहले धरती पर बर्फ की अधिकता थी और अधिकतर हिस्सा जलमग्न था।

मानव गुफाओं में रहता था और सुर और असुर अपनी शक्तियों के बल पर संपूर्ण धरती पर विचरण करते थे। नागलोक का विस्तार दूर-दूर तक था और समुद्र में विचित्र-विचित्र किस्म के प्राणियों का जन्म हो चुका था।

धनतेरस और ओणम पर्व राजा बालि की याद में मनाया जाता है। प्रारंभिक जातियां- सुर और असुर कौन थे?
आप किसकी तरफ हैं : सुर या असुर?

प्राचीनकाल में सुर और असुरों का ही राज्य था। सुर को देवता और असुरों को दैत्य कहा जाता था। दानवों और राक्षसों की प्रजाति अलग होती थी। गंधर्व, यक्ष और किन्नर भी होते थे। असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य भगवान शिव के भक्त और सुरों के पुरोहित बृहस्पति भगवान विष्णु के भक्त थे। इससे पहले भृगु और अंगिरा ऋषि असुर और देव के पुरोहित पद पर थे। सुर और असुरों में साम्राज्य, शक्ति, प्रतिष्ठा और सम्मान की लड़ाई चलती रहती थी।

दुनिया में दो ही तरह के धर्मों में प्राचीनकाल से झगड़ा होता आया है। एक वे लोग जो देवताओं के गुरु बृहस्पति के धर्म को मानते हैं और दूसरे वे लोग जो दैत्यों (असुरों) के गुरु शुक्राचार्य के धर्म को मानते आए हैं।
अगले पन्ने पर जानिए पहला रहस्य…

राजा बलि के पूर्व जन्म की कथा : पौराणिक कथाओं अनुसार राजा बलि अपने पूर्व जन्म में एक जुआरी थे। एक जुए से उन्हें कुछ धन मिला। उस धन से इन्होंने अपनी प्रिय वेश्या के लिए एक हार खरीदा। बहुत खुशी-खुशी ये हार लेकर वेश्या के घर जाने लगा। लेकिन रास्ते में ही इनको मृत्यु ने घेर लिया। यह मरने ही वाला था कि इसने सोचा कि अब ये हार वेश्या तक तो पहुंचा नहीं पाऊंगा, चलो इसे शिव को ही अर्पण कर दूं। ऐसा सोचकर उसने हार शिव को अर्पण कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हुआ।

मरकर वह यमराज के समक्ष उपस्‍थित हुआ। चित्रगुप्त ने उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखकर कहा कि इसने तो पाप ही पाप किए हैं, लेकिन मरते-समय इसने जुए के पैसे से वेश्या के लिए खरीदा हार ‘शिवार्पण’ कर दिया है। ये ही एकमात्र इसका पुण्य है। चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने उससे (जुआरी बलि से) पूछा- रे पापी, तू ही बता पहले पाप का फल भोगोगे कि पुण्य का। जुआरी ने कहा कि पाप तो बहुत हैं, पहले पुण्य का फल दे दो। उस पुण्य के बदले उसे दो घड़ी के लिए इंद्र बनाया गया।

इंद्र बनने पर वह अप्सराओं के नृत्य और सुरापान का आनंद लेने लगा। तभी नारदजी आते हैं, उसे देखकर हंसते हैं और एक बात बोलते हैं कि अगर इस बात में संदेह हो कि स्वर्ग-नर्क हैं तब भी सत्कर्म तो कर ही लेना चाहिए वर्ना अगर ये नहीं हुए तो आस्तिक का कुछ नहीं बिगड़ेगा, पर हुए तो नास्तिक जरूर मारा जाएगा। यह बात सुनते ही उस जुआरी को होश आ गया। उसने दो घड़ी में ऐरावत, नंदन वन समेत पूरा इन्द्रलोक दान कर दिया। इसके प्रताप से वह पापों से मुक्त हो इंद्र बना और बाद में राजा बलि हुआ।

दूसरा रहस्य =====ऐसे हुई बलि की उत्पत्ति :कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष थे। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बलि का जन्म हुआ।

जब हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष का जन्म हुआ था, तब धरती पर अंधकार छा गया था। देवी और देवताओं के साथ ही ऋषियों ने घोषणा की थी कि धरती पर अब शैतानी शक्ति का उदय हो गया है। सभी ने इसके प्रति चिंता व्यक्ति की थी।

तीसरा रहस्य =====दक्षिण भारत में था राजा बलि का राज्य :राजा बलि का राज्य संपूर्ण दक्षिण भारत में था। उन्होंने महाबलीपुरम को अपनी राजधानी बनाया था। आज भी केरल में ओणम का पर्व राजा बलि की याद में ही मनाया जाता है। राजा बली को केरल में ‘मावेली’ कहा जाता है। यह संस्कृत शब्द ‘महाबली’ का तद्भव रूप है। इसे कालांतर में ‘बलि’ लिखा गया जिसकी वर्तनी सही नहीं जान पड़ती।

देश भर में कई ऐसे समुदाय हैं जो राजा बली के राज्य में प्रजाओं की सुख-समृद्धि को स्मरण करते हैं और राजा बली के लौटने की कामना करते हैं। केरल में मनाया जाने वाला विश्वप्रसिद्ध ओणम त्योहार महाबली की स्मृति में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध पौराणिक पात्र वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद था। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबली था।

माना जाता है कि मोटे तौर पर वृत्र या मेघ ऋषि के वंशजों को मेघवंशी कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं में जिन मानव समूहों को असुर, दैत्य, राक्षस, नाग, आदि कहा गया वे सिंधु घाटी सभ्यता के मूल निवासी थे और मेघवंशी थे। आर्यों और अन्य के साथ पृथ्वी (भूमि) पर अधिकार हेतु संघर्ष में वे पराजित हुए।

चौथा रहस्य =====अश्वमेध यज्ञ :राजा बलि ने विश्वविजय की सोचकर अश्वमेध यज्ञ किया और इस यज्ञ के चलते उसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लगी। अग्निहोत्र सहित उसने 98 यज्ञ संपन्न कराए थे और इस तरह उसके राज्य और शक्ति का विस्तार होता ही जा रहा था, तब उसने इंद्र के राज्य पर चढ़ाई करने की सोची।

इस तरह राजा बलि ने 99वें यज्ञ की घोषणा की और सभी राज्यों और नगरवासियों को निमंत्रण भेजा।

माना जाता है कि देवता और असुरों की लड़ाई जम्बूद्वीप के इलावर्त क्षे‍त्र में 12 बार हुई। देवताओं की ओर गंधर्व और यक्ष होते थे, तो दैत्यों की ओर दानव और राक्षस। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद और उनके पुत्र राजा बलि के साथ इन्द्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए, तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया।

पांचवां रहस्य. ====समुद्र मंथन :जब इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए, तब हताश और निराश हुए देवता ब्रह्माजी को साथ लेकर श्रीहरि विष्णु के आश्रय में गए और उनसे अपना स्वर्गलोक वापस पाने के लिए प्रार्थना करने लगे।

श्रीहरि ने कहा कि आप सभी देवतागण दैत्यों से सुलह कर लें और उनका सहयोग पाकर मदरांचल को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र मंथन से जो अमृत प्राप्त होगा उसे पिलाकर मैं आप सभी देवताओं को अजर-अमर कर दूंगा तत्पश्चात ही देवता, दैत्यों का विनाश करके पुनः स्वर्ग का आधिपत्य पा सकेंगे।

देवताओं के राजा इन्द्र दैत्यों के राजा बलि के पास गए और उनके समक्ष समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखा और अमृत की बात बताई। अमृत के लालच में आकर दैत्य ने देवताओं का साथ देने का वचन दिया। देवताओं और दैत्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर मदरांचल पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर लेकर जाने की चेष्टा की लेकिन नहीं उठा पाए तब श्रीहरि ने उसे उठाकर समुद्र में रख दिया।

मदरांचल को मथानी एवं वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन का शुभ कार्य आरंभ हुआ। श्रीविष्णु की नजर मथानी पर पड़ी, जो कि अंदर की ओर धंसती चली जा रही थी। यह देखकर उन्होंने स्वयं कच्छप बनाकर अपनी पीठ पर मदरांचल पर्वत को रख लिया।

तत्पश्चात समुद्र मंथन से लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पाञ्चजन्य, शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैःश्रवा और अंत में अमृत कुंभ निकला जिसे लेकर धन्वन्तरिजी आए। उनके हाथों से अमृत कलश छीनकर दैत्य भागने लगे ताकि देवताओं से पूर्व अमृतपान करके वे अमर हो जाएं। दैत्यों के बीच कलश के लिए झगड़ा शुरू हो गया और देवता हताश खड़े थे।

श्रीविष्णु अति सुंदर नारी का रूप धारण करके देवता और दैत्यों के बीच पहुंच गए और उन्होंने अमृत को समान रूप से बांटने का प्रस्ताव रखा। दैत्यों ने मोहित होकर अमृत का कलश श्रीविष्णु को सौंप दिया। मोहिनी रूपधारी विष्णु ने कहा कि मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित, तुम लोग बीच में बाधा उत्पन्न न करने का वचन दो तभी मैं इस काम को करूंगी।

सभी ने मोहिनी रूपी भगवान की बात मान ली। देवता और दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी रूप धारण करके विष्णु ने छल से सारा अमृत देवताओं को पिला दिया, लेकिन इससे दैत्यों में भारी आक्रोश फैल गया।

छठा रहस्य =====इंद्र-बलि युद्ध :समुद्र मंथन से प्राप्त जब अमृत पीकर देवता अमर हो गए, तब फिर से देवासुर संग्राम छिड़ा और इंद्र द्वारा वज्राहत होने पर बलि की मृत्यु हो गई। ऐसे में तुरंत ही शुक्राचार्य के मंत्रबल से वह पुन: जीवित हो गया। लेकिन उसके हाथ से इंद्रलोक का बहुत बड़ा क्षेत्र जाता रहा और फिर से देवताओं का साम्राज्य स्थापित हो गया।

सातवां रहस्य. ====पुन: देवताओं को हराया :राजा बलि ने देवताओं द्वारा हार जाने के बाद अपनी शक्ति एकत्रित की और तपस्या के बदल पर वह फिर से शक्तिशाली बना। तब उसने देवताओं से बदला लेने की ठानी। इसके लिए उसने एक बार फिर अश्वमेध यज्ञ किया। यह उसका सौवां यज्ञ था। उसने अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ एक बार फिर इंद्र के राज्य पर कब्जा कर लिया।

एक बार फिर देवताओं पर संकट आ गया था। बगैर अमृत पीकर भी राजा बलि इतना मायावी बन बैठा था कि उसको मारने की किसी में शक्ति नहीं थी।

आठवां रहस्य. =====वामन अवतार :वामन ॠषि कश्यप तथा उनकी पत्नी अदिति के पुत्र थे। वे आदित्यों में बारहवें थे। ऐसी मान्यता है कि वह इन्द्र के छोटे भाई थे और राजा बलि के सौतेले भाई। विष्णु ने इसी रूप में जन्म लिया था।

देवता बलि को नष्ट करने में असमर्थ थे। बलि ने देवताओं को यज्ञ करने जितनी भूमि ही दे रखी थी। सभी देवता अमर होने के बावजूद उसके खौफ के चलते छिपते रहते थे। तब सभी देवता विष्णु की शरण में गए। विष्णु ने कहा कि वह भी (बलि भी) उनका भक्त है, फिर भी वे कोई युक्ति सोचेंगे।

तब विष्णु ने अदिति के यहां जन्म लिया और एक दिन जब बलि यज्ञ की योजना बना रहा था तब वे ब्राह्मण-वेश में वहां दान लेने पहुंच गए। उन्हें देखते ही शुक्राचार्य उन्हें पहचान गए। शुक्र ने उन्हें देखते ही बलि से कहा कि वे विष्णु हैं। मुझसे पूछे बिना कोई भी वस्तु उन्हें दान मत करना। लेकिन बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं सुनी और वामन के दान मांगने पर उनको तीन पग भूमि दान में दे दी। जब जल छोड़कर सब दान कर दिया गया, तब ब्राह्मण वेश में वामन भगवान ने अपना विराट रूप दिखा दिया।

एक पग में भूमंडल नाप लिया। दूसरे में स्वर्ग और तीसरे के लिए बलि से पूछा कि तीसरा पग कहां रखूं? पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- इसमें तो कमी आपके ही संसार बनाने की हुई, मैं क्या करूं भगवान? अब तो मेरा सिर ही बचा है। इस प्रकार विष्णु ने उसके सिर पर तीसरा पैर रख दिया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर विष्णु ने उस पाताल में रसातल का कलयुग के अंत तक राजा बने रहने का वरदान दे दिया। तब बलि ने विष्णु से एक और वरदान मांगा…

नौवां रहस्य === विष्णु को बनाया रक्षक :राजा बलि ने कहा कि भगवान यदि आप मुझे पाताल लोक का राजा बना ही रहे हैं तो मुझे वरदान ‍दीजिए कि मेरा साम्राज्य शत्रुओं के प्रपंचों से बचा रहे और आप मेरे साथ रहें। अपने भक्त के अनुरोध पर भगवान विष्णु ने राजा बलि के निवास में रहने का संकल्प लिया।

पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर भगवान विष्णु सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे और इस तरह बलि निश्चिंत होकर सोता था और संपूर्ण पातालपुरी में शुक्राचार्य के साथ रहकर एक नए धर्म राज्य की व्यवस्था संचालित करता था।

दसवां रहस्य ,बलि फिर छला गया: – इधर वैकुण्ठ में सभी देवी-देवता समेत लक्ष्मीजी अत्यंत चिंतित हो गईं। तब इस कठिन काल में नारदजी ने माता लक्ष्मी को एक युक्ति बताई। उन्होंने कहा कि एक रक्षासूत्र लेकर वे राजा बलि के पास अपरिचित रूप में दीन-हीन दुखियारी बनकर जाएं और राजा बलि को भाई बनाकर दान में प्रभु को मांग लाएं।

लक्ष्मीजी राजा बलि के दरबार में उपस्थित हुईं और उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें भाई बनाना चाहती हैं। राजन ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनसे रक्षासूत्र बंधवा लिया और कहा‍ कि अपनी इच्छा के अनुरूप कुछ भी उनसे मांग लें। लक्ष्मीजी इसी हेतु तो वहां आई थीं।

उन्होंने राजा से कहा कि आप मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दें। राजन घबरा गए। उन्होंने कहा मेरा सर्वाधिक प्रिय तो मेरा यह प्रहरी है, परंतु इसे देने से पूर्व तो मैं प्राण त्यागना अधिक पसंद करूंगा।

तब लक्ष्मीजी ने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि मैं आपके उसी प्रहरी की पत्नी हूं जिन्हें उन्होंने बहन माना था। उसके सुख-सौभाग्य और गृहस्थी की रक्षा करना भी उन्हीं का दायित्व था और यदि बहन की ओर देखते तो उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय अपने इष्ट का साथ छोडऩा पड़ता, पर राजन भक्त, संत और दानवीर यूं ही तो न थे।

उन्होंने अपने स्वार्थ से बहुत ऊपर बहन के सुख को माना और प्रभु को मुक्त कर उनके साथ वैकुण्ठ वास की सहमति दे दी, परंतु इसके साथ ही उन्होंने लक्ष्मीजी से आग्रह किया कि जब बहन-बहनोई उनके घर आ ही गए हैं तो कुछ मास और वहीं ठहर जाएं और उन्हें आतिथ्य का सुअवसर दें।

लक्ष्मीजी ने उनका आग्रह मान लिया और श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबंधन) से कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि (धनतेरस) तक विष्णु और लक्ष्मीजी वहीं पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहे। धनतेरस के बाद प्रभु जब लौटकर वैकुण्ठ को गए तो अगले दिन पूरे लोक में दीप-पर्व मनाया गया।

माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन से धनतेरस तक विष्णु लक्ष्मी संग राजा बलि के यहां रहते हैं और दीपोत्सव के अन्य कई कारणों संग एक कारण यह भी है।

अंत में एक महत्वपूर्ण रहस्य…

मान्यता है कि प्राचीन काल में जब धरती का अधिकतर हिस्सा बर्फ से ढंका था तब आज के मिश्र, साऊदी अरब, सीरिया, इराक, तुर्की, तुर्कमेनिस्तान, इसराइल आदि को पातालपुरी कहा जाता था। यहीं कहीं रसातल भी होता था। दलजा, फरात और नील नदियों के आसपास ही सभ्यताएं बसती थी।

इसी पातालपुरी में राम के काल में अहिरावण का राज था। राम से पूर्व रसातल का क्षेत्र राजा बलि को सौंप दिया गया था। 4000 साल पुराने यहूदी धर्म का आधिपत्य मिस्र, इराक, इजराइल सहित अरब के अधिकांश हिस्सों पर राज था। उससे भी पूर्व यहां पर हिन्दुओं की कई जातियां निवास करती थी जिनका प्रमुख तीर्थ मक्का होता था।

मान्यता अनुसार उस दौर में मक्का में एक ज्योतिर्लिंग था जिसे राजा बलि और शुक्राचार्य ने स्थापित किया था। यहीं पर राजा बलि की एक प्राचीन मूर्ति रखी थी और साथ ही कई देवी-देवताओं की मूर्तियां भी शिवलिंग के साथ स्थापित थी।

यहां के लोग इस काबा मंदिर की सात परिक्रमा करते थे। आज भी काबा से हटाई गई मूर्तियां इस्तांबूल के एक म्यूजियम में रखी है। पहले मक्का को मखा कहते थे जिसका संस्कृत में अर्थ होता है अग्नि।

मक्का के काबा के पास ही जम जम का एक कुआं है जिससे जल लेकर लोग शिवलिंग पर चढ़ाते थे। कुछ विद्वान मानते हैं कि मक्का के इस काबा मंदिर का पुन: निर्माण राजा विक्रमादित्य ने करवाया था। शुक्राचार्य का एक नाम काव्या भी था यही काव्या बिगड़कर काबा हो गया। राजा बलि ने यहां कई वर्षों तक शासन किया। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई यह हम नहीं जानते क्योंकि यह शोध का विषय है।

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संजय गुप्ता

इन्द्र के आठ कारनामे जिससे वे हो गए बदनाम !!!!!!

हिन्दू धर्म में मूलत: 33 प्रमुख देवताओं का उल्लेख मिलता है। सभी देवताओं के कार्य और उनका चरित्र भिन्न-भिन्न है। हिन्दू देवताओं में इन्द्र बहुत बदनाम हैं। इन्द्र के किस्से रोचक हैं। इन्द्र के जीवन से मनुष्यों को शिक्षा मिलती है कि भोग से योग की ओर कैसे चलें। आर्यों के प्रारंभिक काल में इन्द्र को आर्यों का रक्षक माना जाता था।

वैसे इन्द्र तो कई हुए लेकिन कहते हैं कि शचीपति इन्द्र एक मन्वन्तर तक स्वर्ग के अधिपति थे। उन्हें इकहत्तर दिव्य युगों तक दिव्य लोकों का साम्राज्य प्राप्त रहा।

उस काल में देवताओं के अधिपति शचीपति इन्द्र थे। गुरु बृहस्पति और विष्णु परम ईष्ट थे। दूसरी ओर दैत्यों के अधिपति हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप के बाद विरोचन अधिपति थे। गुरु शुक्राचार्य और शिव परम ईष्ट थे। एक ओर जहां देवताओं के भवन, अस्त्र आदि के निर्माणकर्ता विश्‍वकर्मा थे तो दूसरी ओर असुरों के मय दानव। इन्द्र के भ्राताश्री वरुणदेव देवता और असुर दोनों को प्रिय हैं।

कहां था इन्द्रलोक :जब संपूर्ण धरती बर्फ से ढंकी हुई थी और बस कुछ ही जगहें रहने लायक बची थीं। उसमें से एक था देवलोक जिसे इन्द्रलोक और स्वर्गलोक भी कहते थे। यह लोक हिमालय के उत्तर में था। सभी देवता, गंधर्व, यक्ष और अप्सरा आदि देव या देव समर्थक जातियां हिमालय के उत्तर में ही रहती थीं। उपयुक्त जलवायु होने से युद्ध कर इस क्षे‍त्र पर सभी अपना अधिकार चाहते थे और यहां रहने के लिए सभी प्रयत्नशील थे। इन्द्र यहां का राजा था और उसने अपने साम्राज्य का विस्तार हिमालय के दक्षिण में भी सभी हिमालयवर्ती राज्य पर जमा रखा था।

इन्द्र का चरित्र और कार्य :इन्द्र को सभी देवताओं का राजा माना जाता है। वही वर्षा पैदा करता है और वही स्वर्ग पर शासन करता है। वह बादलों और विद्युत का देवता है। सफेद हाथी पर सवार इन्द्र का अस्त्र वज्र है, जो दधीचि ऋषि की हड्डियों से बना है। इस वज्र के माध्यम से इन्द्र मेघ और बिजली को अपने तरीके से संचालित कर अपने शत्रुओं पर प्रहार करने की क्षमता रखता था।

इन्द्र किसी भी साधु और राजा को अपने से शक्तिशाली नहीं बनने देता था इसलिए वह कभी तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट कर देता है, तो कभी राजाओं के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े चुरा लेता है। साम, दाम, दंड और भेद सभी तरीके से वह अपने सिंहासन को बचाने का प्रयास तो करता ही है, साथ ही वह इस प्रयास के दौरान कभी-कभी ऐसा भी कार्य कर जाता है, जो देवताओं को शोभा नहीं देता जिसके कारण देवताओं को बहुत बदनामी झेलना पड़ी। हालांकि इन्द्र जैसे और भी देवता थे जिनके कृत्यों के कारण उनको स्वर्ग से निकाला दे दिया गया और फिर उन्होंने पाताल लोक में जाकर अपनी एक अलग ही सत्ता कायम कर ली।

आओ जानते हैं देवता इन्द्र द्वारा किए गए ऐसे 8 कार्य जिनके कारण उन्हें छली और पापी तक कहा जाता है। इन कार्यों में जरूरी नहीं कि उनके द्वारा किए गए छल ही हो। उनके द्वारा ऐसे भी कार्य शामिल हैं जिसके कारण सभी देवताओं को शर्मसार होना पड़ा था।

पहला कारनामा : – असुरों से छल :संभवत: यह 9078 ईसा पूर्व की बात है, जब असुरों के राजा बलि ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी थी और इन्द्र सहित सभी देवताओं को वहां से भगा दिया था। उल्लेखनीय है कि वृत्र (प्रथम मेघ) के वंशज हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद था। प्रहलाद के पुत्र विरोचन का पुत्र महाबलि था। राजा बलि की सहायता से ही देवराज इन्द्र नेसमुद्र मंथनकिया था।

समुद्र मंथन के दौरान इन्द्र ने असुरों के साथ हर जगह छल किया। जो 14 रत्न प्राप्त हुए उनका बंटवारा भी छलपूर्ण तरीके से ही संपन्न हुआ। हालांकि असुर यह सोचकर संतुष्ट हो जाते थे कि अपने को इन वस्तुओं से क्या लेना-देना? अपने को तो बस अमृत ही चखकर अजर-अमर हो जाना है। लेकिन जब अंत में अमृत निकला तो वहां भी उनके साथ छल हो गया।

देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत बंटवारे को लेकर जब झगड़ा हो रहा था, तब देवराज इन्द्र के संकेत पर उनका पुत्र जयंत अमृत कुंभ को लेकर भाग गया। तब कुछ दानवों ने उसका पीछा किया। अंत में विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर अमृत बांटने का कार्य किया। इस दौरान विष्णु अपनी मायावी शक्ति से अमृत का कुंभ तब बदल देते थे, जब दानवों को बांटने की बारी आती।

भगवान की इस चाल को राहु नामक दैत्य समझ गया। वह देवता का रूप बनाकर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कंठ में पहुंच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकारकर कहा कि ये राहु दैत्य है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। फिर भी अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ अलग-अलग रहकर भी अजर-अमर हो गए। उसके सिर का नाम तो राहु ही है, लेकिन उसके धड़ को केतु कहते हैं।

दूसरा कारनामा : – बलि से छल :इन्द्र ने राजा बलि के साथ कई बार छल किए। एक बार इन्द्र और सभी देवताओं को बचाने के लिए इन्द्र के निवेदन पर भगवान विष्णु ने वामन बनकर राजा बलि से छलपूर्वक तीन पग भूमि मांग ली थी। दानवीर राजा बलि ने भी दान दे दिया। उसे नहीं मालूम था कि मैं जिसे दान दे रहा हूं वे विष्णु हैं।

अंत में विष्णु ने अपना आकार बढ़ाया और दो पग में ही तीनों लोकों को नाप दिया, तब उन्होंने बलि से कहा कि अब तीसरा पग कहां रखूं? राजा बलि ने कहा कि अब तो भगवन् मेरा सिर ही बचा है। विष्णु ने उसकी दानवीरता और सत्यवादिता के चलते उसके सिर पर पैर रखा और उसे पाताल लोक पहुंचा दिया और वरदान दिया कि तू भी देवताओं की तरह अजर-अमर रहेगा और आज से तू हमेशा के लिए पाताल लोक का राजा बना रहेगा।

तीसरा कारनामा : – अहिल्या के साथ छल :देवी अहिल्या की कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकांड में मिलता है। अहिल्या अत्यंत ही सुंदर, सुशील और पतिव्रता नारी थीं। उनका विवाह ऋषि गौतम से हुआ था। दोनों ही वन में रहकर तपस्या और ध्यान करते थे। ऋषि गौतम ही न्यायसूत्र के रचयिता हैं। शास्त्रों के अनुसार शचिपति इन्द्र ने गौतम की पत्नी अहिल्या के साथ छल से सहवास किया था।

अहिल्या की सुंदरता के कारण सभी ऋषि-मुनि, देव और असुर उन पर मोहित थे। देवताओं के राजा इन्द्र तो कुछ ज्यादा ही मोहित हो चले थे। इन्द्र के मन में अहिल्या को पाने का लोभ हो आया। बस फिर क्या था। एक दिन ऋषि के आश्रम के बाहर देवराज इन्द्र रात्रि के समय मुर्गा बनकर बांग देने लगे। गौतम मुनि को लगा कि सुबह हो गई है। मुनि उसी समय उठकर प्रात: स्नान के लिए आश्रम से निकल गए। इन्द्र ने मौका देखकर गौतम मुनि का वेश धारण कर लिया और देवी अहिल्या के पास आ गया।

इधर, जब गौतम मुनि को अनुभव हुआ कि अभी रात्रि शेष है और सुबह होने में समय है, तब वे वापस आश्रम की तरफ लौट चले। मुनि जब आश्रम के पास पहुंचे तब इन्द्र उनके आश्रम से बाहर निकल रहा थे। इन्होंने इन्द्र को पहचान लिया। इन्द्र द्वारा किए गए इस कुकृत्य को जानकर मुनि क्रोधित हो उठे और इन्द्र तथा देवी अहिल्या को शाप दे दिया। देवी अहिल्या द्वारा बार-बार क्षमा-याचना करने और यह कहने पर कि ‘इसमें मेरा कोई दोष नहीं है’, पर गौतम मुनि ने कहा कि तुम शिला बनकर यहां निवास करोगी। त्रेतायुग में जब भगवान विष्णु राम के रूप में अवतार लेंगे, तब उनके चरण रज से तुम्हारा उद्धार होगा।

चौथा कारनामा : – कर्ण के साथ छल :भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदाइशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा।

तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं?

विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है, तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो में खाली हाथ चला जाता हूं?

तब ब्राह्मण के भेष में इन्द्र ने और भी विनम्रतापूर्वक कहा- नहीं-नहीं राजन! आपके प्राण की कामना हम नहीं करते। बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए, तो हमें आत्मशांति मिले। पहले आप प्रण कर लें तो ही मैं आपसे दान मांगू?

कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए।

तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।

एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।

इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए इसलिए क‍ि कहीं उनका राज ‍खुलने के बाद कर्ण बदल न जाए। कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, ‘देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।’

तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है?

तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी।

इन्द्र क्या करते, उन्होंने यह मंजूर कर लिया। तब वे फिर से कर्ण के पास गए। लेकिन इस बार ब्राह्मण के वेश में नहीं। कर्ण ने उन्हें आता देखकर कहा- देवराज आदेश की‍जिए और क्या चाहिए?

इन्द्र ने झेंपते हुए कहा, हे दानवीर कर्ण, अब मैं याचक नहीं हूं बल्कि आपको कुछ देना चाहता हूं। कवच-कुंडल को छोड़कर मांग लीजिए, आपको जो कुछ भी मांगना हो।

कर्ण ने कहा- देवराज, मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नहीं मांगा और न ही मुझे कुछ चाहिए। कर्ण सिर्फ दान देना जानता है, लेना नहीं।

तब इन्द्र ने विनम्रतापूर्वक कहा- महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पड़ेगा अन्यथा मेरा रथ और मैं यहां से नहीं जा सकता हूं। आप कुछ मांगेंगे तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी। आप जो भी मांगेंगे, मैं देने को तैयार हूं।

कर्ण ने कहा- देवराज, आप कितना ही प्रयत्न कीजिए लेकिन मैं सिर्फ दान देना जानता हूं, लेना नहीं। मैंने जीवन में कभी कोई दान नहीं लिया।

तब लाचार इन्द्र ने कहा- मैं यह वज्ररूपी शक्ति आपको बदले में देकर जा रहा हूं। तुम इसको जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।

कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वह वज्र शक्ति वहां रखकर तुरंत भाग लिए। कर्ण के आवाज देने पर भी वे रुके नहीं। बाद में कर्ण को उस वज्र शक्ति को अपने पास मजबूरन रखना पड़ा। लेकिन जैसे ही दुर्योधन को मालूम पड़ा कि कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए हैं, तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए। उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से जाता लगने लगा। लेकिन जब उसने सुना कि उसके बदले वज्र शक्ति मिल गई है तो फिर से उसकी जान में जान आई।

अब इसे भी कर्ण की गलती नहीं मान सकते। यह उसकी मजबूरी थी। लेकिन उसने यहां गलती यह की कि वह इन्द्र से कुछ मांग ही लेता। नहीं मांगने की गलती तो गलती ही है। अरे, वज्र शक्ति को तीन बार प्रयोग करने की इच्छा ही व्यक्त कर देता।

पांचवां कारनामा : – विश्वामित्र के साथ छल :सप्तर्षियों में से एक विश्‍वामित्र रामायण काल के ऋषि हैं। उनके काल में ही ऋषि वशिष्ठ थे और दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी। ऋषि वशिष्ठ को देवताओं का साथ था। प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे।

विश्वामित्र ऋषि बनने से पहले एक प्रतापी राजा थे। उनके मन में ऋषि बनकर ब्राह्मणत्व प्राप्त‍ करने की इच्छा हुई। इस इच्छा के चलते वे एक जगह पर तपस्यारत हो गए। उनकी तपस्या से घबराकर इन्द्र ने तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा मेनका को भेजा।

मेनका ने कई तरह के उपक्रम करने के बाद विश्वामित्र की तपस्या भंग कर उनके मन में काम उत्पन्न कर दिया। विश्‍वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गए। जब इन्हें होश आया तो इनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ। ये पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गए। सिद्ध होने के बाद काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित कर दिया था, जब त्रिशंकु ने उनके समक्ष सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा प्रकट की थी।

इक्क्षवाकु वंश के राजा त्रिशंकु एक बार सशरीर ही स्वर्ग जाने की इच्छा लेकर अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ के पास गए लेकिन वशिष्ठ के मना करने पर वे उनको भला-बुरा कहने लगे। वशिष्ठजी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चांडाल हो जाने का शाप दे दिया। तब त्रिशंकु विश्‍वामित्र के पास गए। विश्‍वामित्र ने कहा ‍कि मेरी शरण में आए व्यक्ति की मैं अवश्य ही मदद करता हूं। तब विश्‍वामित्र उन्हें स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ की तैयारी करने लगे।

यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं का नाम ले-लेकर उनसे अपने यज्ञ भाग को ग्रहण करने के लिए आह्वान किया किंतु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूं। इतना कहकर विश्वामित्र ने जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुए स्वर्ग जा पहुंचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिए तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गए।

तब विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नए तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मंडल बना दिए। इसके बाद उन्होंने नए इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय-विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिए लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे। इन्द्र की बात सुनकर विश्वामित्रजी बोले कि ठीक है और यह स्वर्ग मंडल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मंडल में अमर होकर राज्य करेगा। इस मंडल का कोई इन्द्र नहीं होगा। इससे संतुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने-अपने स्थानों को वापस चले गए।

छठा कारनामा : – मार्कंडेय ऋषि के साथ नहीं कर पाया छल : इन्द्र-मार्कंडेय ऋषि संवाद :मार्कंडेय ऋषि की तपस्या से घबराकर इन्द्र ने उर्वशी को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। कहते हैं कि इन्द्र का शासनकाल 72 चैकड़ी (चतुर्युगी) युग का होता है और वह तब तक अपने पद की रक्षा के लिए कुछ भी करता है।

इसी उद्देश्य से इन्द्र ने मार्कंडेय ऋषि के पास एक उर्वशी स्वर्ग से भेजी गई। उर्वशी ने अपनी सिद्धि शक्ति से सुहावना मौसम बनाया तथा खूब नृत्य और गान किया और अंत में निर्वस्त्र हो गई। तब मार्कंडेय ऋषि ने कहा कि हे देवी! आप यहां किसलिए आई?

इस पर उर्वशी ने कहा कि हे ऋषि। आप जीत गए मैं हार गई। आप टस से मस नहीं हुए। आप सचमुच ब्रह्मज्ञानी हैं। लेकिन यदि में आपसे हारकर स्वर्ग गई तो मेरा मजाक उड़ाया जाएगा। इन्द्र की उलाहना का सामना करना होगा। उर्वशी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी मैं ही हूं।

इस पर मार्कंडेय ऋषि ने कहा कि जब इन्द्र मरेगा तब क्या करेगी? उर्वशी बोली मैं 14 इन्द्र तक बनी रहूंगी। मेरे सामने 14 इन्द्र अपनी-अपनी इन्द्र पदवी भोगकर मर जाएंगे। मेरी आयु स्वर्ग की पटरानी के रूप में है। इसी तरह एक ब्रह्मा के दिन (एक कल्प) की आयु एक इन्द्र की पटरानी शचि की है।

अंत में इस संवाद के बीच ही फिर इन्द्र आया तथा कहने लगा कि हे ऋषि, आप जीत गए, हम हार गए। चलो आप अब इन्द्र के सिंहासन पर विराजमान होओ। इस पर मार्कंडेय ऋषि बोले- रे इन्द्र, क्या कह रहा है? इन्द्र का राज मेरे किस काम का। मैं तो ब्रह्मज्ञान की साधना कर रहा हूं। वहां पर तेरे जैसे लाखों इन्द्र हैं। तू भी अनन्य मन से (नीचे की साधना- ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा देवी-देवताओं का त्याग करने को अनन्य मन कहते हैं) ब्रह्म की साधना कर ले। ब्रह्मलोक में साधक कल्पों तक मुक्त हो जाता है।

इस पर इन्द्र ने कहा कि ऋषिजी, फिर कभी देखेंगे। अभी तो मौज करने दो। यदि आप मेरे सिंहासन पर नहीं बैठना चाहते तो ठीक है यह अच्‍छी बात है। आप साधना करते रहें। अब यह तो कम से कम स्पष्ट हो गया कि आप इन्द्र पद के लिए साधना नहीं कर रहे हैं तो मैं नि‍श्चिंत हूं।

सातवां कारनामा : – कृष्‍ण के साथ भी किया था युद्ध :भगवान कृष्ण के पहले ‘इन्द्रोत्सव’ नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार होता था। भगवान कृष्ण ने इन्द्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होलिका का आयोजन करना शुरू किया।

श्रीकृष्ण का मानना था कि हमारे आस-पास जो भी चीजें हैं उनसे हम बहुत ही प्रेम करते हैं, जैसे गायें, पेड़, गोवर्धन पर्वत (तब गोवर्धन पर्वत सालभर हरी घास, फल-फूल एवं शीतल जल को प्रवाहित करता था)।

श्रीकृष्ण के शब्दों में ‘ये सब हमारी जिंदगी हैं। यही लोग, यही पेड़, यही जानवर, यही पर्वत तो हैं, जो हमेशा हमारे साथ हैं और हमारा पालन-पोषण करते हैं। इन्हीं की वजह से हमारी जिंदगी है। ऐसे में हम किसी ऐसे देवता की पूजा क्यों करें, जो हमें भय दिखाता है। मुझे किसी देवता का डर नहीं है। अगर हमें चढ़ावे और पूजा का आयोजन करना ही है तो अब हम गोपोत्सव मनाएंगे, इन्द्रोत्सव नहीं।’

इन्द्र को आया तब क्रोध :श्रीकृष्ण के निवेदन पर स्वर्ग के सभी देवी और देवताओं की पूजा बंद हो गई। धूमधाम से गोवर्धन पूजा शुरू हो गई। जब इन्द्र को इस बारे में पता चला तो उन्होंने प्रलयकालीन बादलों को आदेश दिया कि ऐसी वर्षा करो कि सारे ब्रजवासी डूब जाएं और मेरे पास क्षमा मांगने पर विवश हो जाएं। जब वर्षा नहीं थमी और ब्रजवासी कराहने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर उसके नीचे ब्रजवासियों को बुला लिया। गोवर्धन पर्वत के नीचे आने पर ब्रजवासियों पर वर्षा और गर्जन का कोई असर नहीं हो रहा। इससे इन्द्र का अभिमान चूर हो गया। बाद में श्रीकृष्ण का इन्द्र से युद्ध भी हुआ और इन्द्र हार गए।

आठवां छल : – बाल हनुमान की तोड़ दी थी ठुड्डी :एक बार रामदूत हनुमान अपने बालपन में सूर्य को आकाशफल समझकर खाने के लिए दौड़े तो रास्ते में उनको रोकने के लिए वरुणदेव और अग्निदेव ने उनको सूर्य के समीप जाने से रोका लेकिन हनुमानजी उनको परास्त कर आगे बढ़ गए। तब एक-एक करके सभी देवता उन्हें रोकने के लिए उपस्थित हुए लेकिन वे उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। इस दौरान राहु ने भी हनुमानजी को रोकने का भरपूर प्रयास किया, क्योंकि उस दिन अमावस्या थी और राहु सूर्य को ग्रसने वाला था लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी। अंत में उन्होंने सूर्य को निगल ही लिया।

राहु दौड़ता हुआ इन्द्र के पास गया और उनसे कहा, ‘देवराज! आपने मुझे अपनी क्षुधा शांत करने के साधन के रूप में सूर्य और चन्द्र दिए थे। आज अमावस्या के दिन जब मैं सूर्य को ग्रस्त करने गया तब देखा कि दूसरा राहु सूर्य को पकड़कर निगल गया।’

राहु की बात सुनकर इन्द्र घबरा गए और उसे साथ लेकर सूर्य की ओर चल पड़े। राहु को देखकर हनुमानजी सूर्य को छोड़ राहु पर झपटे। राहु ने इन्द्र को रक्षा के लिए पुकारा तो उन्होंने हनुमानजी पर अपने व्रज से प्रहार कर दिया जिससे वे एक पर्वत पर गिरे और उनकी बाईं ठुड्डी टूट गई। हनुमानजी की यह दशा देखकर पवनदेव को क्रोध आ गया और उन्होंने संसार की वायु गति रोक दी। इससे संसार के सभी प्राणी सांस न ले सके और एक-एक कर सभी मरने लगे।

तब ब्रह्मा ने मूर्छित हनुमान को गोद में लिए उदास बैठे पवनदेव को समझाया और हनुमानजी को पुन: होश में लाए। वायुदेव ने फिर से गति शुरू कर दी। ब्रह्माजी ने कहा कि आज के बाद कोई भी अस्त्र या शस्त्र इसके अंग को हानि नहीं पहुंचा सकेगा।

सूर्यदेव ने कहा कि वे उसे अपने तेज का शतांश प्रदान करेंगे तथा शास्त्र मर्मज्ञ होने का भी आशीर्वाद दिया। वरुण ने कहा कि मेरे पाश और जल से यह बालक सदा सुरक्षित रहेगा। यमदेव ने अवध्य और निरोग रहने का आशीर्वाद दिया। यक्षराज कुबेर, विश्वकर्मा आदि देवों ने भी अमोघ वरदान दिए।

तब इन्द्र ने क्षमा मांगते हुए कहा कि इसका शरीर वज्र से भी कठोर होगा। इन्द्र द्वारा उनकी ठुड्डी अर्थात हनु टूटने के कारण उनका नाम ‘हनुमान’ और वज्र के समान कठोर शरीर हो जाने के कारण ‘वज्रंगबली’ हो गया।

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नयी पड़ोसन और नीला दुपट्टा !!!

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मोहल्ले में नयी बहुत ही खूबसूरत और जवान पड़ोसन आकर आबाद हुई, उसके दो छोटे बच्चे थे, उसका शौहर शक्ल से ही खुर्रांट और बदमिज़ाज लगता था, पड़ोसन की ख़ूबसूरती देखकर ही मोहल्ले के तमाम मर्दों की हमदर्दियां उसके साथ हो गयीं !

पड़ोसन ने धीरे धीरे मोहल्ले के घरों में आना जाना शुरू किया, मिर्ज़ा साहब और शेख साहब को अपनी अपनी बेगमों से पता चला कि उस खूबसूरत पड़ोसन का शौहर बहुत ही शक्की और खब्ती था ! वो पड़ोसन अपने शौहर से बहुत खौफ खाती थी, ये सुन कर दोनों मर्द हज़रात की निगाहें आसमान की ओर उठ गयीं, दिल ही दिल में शिकवा कर डाला कि या अल्लाह कैसे कैसे हीरे नाक़द्रों को दे दिए हैं !

एक दिन वो खूबसूरत पड़ोसन सब्ज़ी वाले की दुकान पर शेख साहब को मिली, उसने खुद आगे बढ़कर शेख साहब को सलाम किया, शेख साहब को अपनी क़िस्मत पर नाज़ हुआ, पड़ोसन बोली शेख साहब बुरा न माने तो आपसे कुछ मश्वरा करना था ? शेख साहब ख़ुशी से बावले हो गए, वजह ये भी थी कि उस पड़ोसन ने आम अनजान औरतों की तरह भाई नहीं कहा था, बल्कि शेख साहब कहा था !

शेख साहब ने बड़ी मुश्किल से अपनी ख़ुशी छुपाते हुए मोतबर अंदाज़ में जवाब दिया ” जी फरमाइए !” पड़ोसन ने कहा कि मेरे शौहर अक्सर काम के सिलसिले में बाहर रहते हैं, मैं इतनी पढ़ी लिखी नहीं हूँ, बच्चों के एडमिशन के लिए आपकी रहनुमाई की ज़रुरत थी !

वो आगे बोली कि यूं सड़क पर खड़े होकर बातें करना ठीक नहीं है, आपके पास वक़्त हो तो मेरे घर चल कर कुछ मिनट मुझे समझा दें, ताकि मैं कल ही बच्चों का एडमिशन करा दूँ ! ख़ुशी से बावले हुए शेख साहब चंद मिनट तो क्या सदियां बिताने को तैयार थे, उन्होंने फ़ौरन कहा कि जी ज़रूर चलिए !

शेख साहब पड़ोसन के साथ घर में दाखिल हुए, अभी सोफे पर बैठे ही थे कि बाहर स्कूटर के रुकने की आवाज़ सी आयी, पड़ोसन ने घबराकर कहा कि या अल्लाह लगता है मेरे शौहर आ गए, उन्होंने यहाँ आपको देख लिया तो वो मेरा और आपका दोनों का क़त्ल ही कर डालेंगे, कुछ भी नहीं सुनेंगे, आप एक काम कीजिये वो सामने कपड़ों का ढेर है, आप ये नीला दुपट्टा सर पर डाल लें और उन कपड़ों पर इस्त्री करना शुरू कर दें, मैं उनसे कह दूँगी कि इस्त्री वाली मौसी काम कर रही है !

शेख साहब ने जल्दी से नीला दुपट्टा ओढ़कर शानदार घूंघट निकाला और उस कपडे के ढेर से कपडे लेकर इस्त्री करने लगे, तीन घंटे तक शेख साहब ने ढेर लगे सभी कपड़ों पर इस्त्री कर डाली थी, आखरी कपडे पर इस्त्री पूरी हुई तब तक पड़ोसन का खुर्रांट शौहर भी वापस चला गया !

पसीने से लथपथ और थकान से निढाल शेख साहब दुपट्टा फेंक कर घर से निकले, जैसे ही वो निकल कर चार क़दम चले सामने से उनके पडोसी मिर्ज़ा साहब आते दिखाई दिए, शेख साहब की हालत देख कर मिर्ज़ा साहब ने पूछा “कितनी देर से अंदर थे ?” शेख साहब ने कहा “तीन घंटों से, क्योंकि उसका शौहर आ गया था, इसलिए तीन घंटों से कपड़ों पर इस्त्री कर रहा था !”

मिर्ज़ा साहब ने आह भर कर कहा “जिन कपड़ों पर तुमने तीन घंटे घूंघट निकाल कर इस्त्री की है उस कपड़ों के ढेर को कल मैंने चार घंटे बैठ कर धोया है, क्या तुमने भी नीला दुपट्टा ओढ़ा था ?”
🤣😂😛

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ज्योति अग्रवाल

संदीपन मुनि की गुरु भक्ति …

पुराणों में एक कथा आती है कि प्राचीनकाल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया। सद्शिष्याें में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है। कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है।

वेदधर्म मुनि ने शिष्यों से कहा- “हे शिष्यो ! अब प्रारब्धवश मुझे कोढ़ निकलेगा, मैं अंधा हो जाऊँगा इसलिए काशी में जाकर रहूँगा। है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहकर सेवा करने के लिए तैयार हो ?”

शिष्य पहले तो कहा करते थे गुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाये मेरे प्रभु ! अब सब चुप हो गये। उनमें संदीपन नाम का शिष्य खूब गुरु-सेवापरायण, गुरुभक्त था। उसने कहा- “गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।”

गुरुदेव – “इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।”
संदीपन – “इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।”

वेदधर्म मुनि एवं संदीपन काशी में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे। कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और अंधत्व भी आ गया। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। संदीपन के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन रात गुरु जी की सेवा में तत्पर रहने लगा। वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता। गुरुजी गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते किंतु संदीपन की गुरुसेवा में तत्परता व गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया।

काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ संदीपन के समक्ष प्रकट हो गये और बोले – “तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है। बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।”

संदीपन गुरु से आज्ञा लेने गया और बोला – “शिवजी वरदान देना चाहते हैं आप आज्ञा दें तो वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाय।”

गुरु ने डाँटा – “वरदान इसलिए माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे । अरे मूर्ख ! मेरा कर्म कभी-न-कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।”
संदीपन ने शिवजी को वरदान के लिए मना कर दिया। शिवजी आश्चर्यचकित हो गये कि कैसा निष्ठावान शिष्य है । शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृतान्त कहा। विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपन के पास वरदान देने प्रकटे।

संदीपन ने कहा – “प्रभु ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।” भगवान ने आग्रह किया तो बोला – “आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे।” भगवान विष्णु ने संदीपन को गले लगा लिया।

संदीपन ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अँधापन । शिवस्वरूप सदगुरु ने संदीपन को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। वे बोले – “वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा …

गुरु के संतोष से संदीपन गुरु-तत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया। अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में सदगुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए। वे परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। गुरु आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं। जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो, उऩ महापुरुषों का नाम सदगुरु है।

सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट।
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाये।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।

आगे चलकर जब भगवन ने कृष्णा अवतार लिया तो संदीपन मुनि को गुरु के रूप में धारण कर उनकी चरण सेवा की और ज्ञान प्राप्त किया ।
।।ॐ।।

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तलाक

समय हो तो जरूर पढ़े

तब मैं जनसत्ता में नौकरी करता था। एक दिन खबर आई कि एक आदमी ने झगड़ा के बाद अपनी पत्नी की हत्या कर दी। मैंने खब़र में हेडिंग लगाई कि पति ने अपनी बीवी को मार डाला। खबर छप गई। किसी को आपत्ति नहीं थी। पर शाम को दफ्तर से घर के लिए निकलते हुए प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी सीढ़ी के पास मिल गए। मैंने उन्हें नमस्कार किया तो कहने लगे कि संजय जी, पति की बीवी नहीं होती।

“पति की बीवी नहीं होती?” मैं चौंका था।

“बीवी तो शौहर की होती है, मियां की होती है। पति की तो पत्नी होती है।”

भाषा के मामले में प्रभाष जी के सामने मेरा टिकना मुमकिन नहीं था। हालांकि मैं कहना चाह रहा था कि भाव तो साफ है न ? बीवी कहें या पत्नी या फिर वाइफ, सब एक ही तो हैं। लेकिन मेरे कहने से पहले ही उन्होंने मुझसे कहा कि भाव अपनी जगह है, शब्द अपनी जगह। कुछ शब्द कुछ जगहों के लिए बने ही नहीं होते, ऐसे में शब्दों का घालमेल गड़बड़ी पैदा करता है।

प्रभाष जी आमतौर पर उपसंपादकों से लंबी बातें नहीं किया करते थे। लेकिन उस दिन उन्होंने मुझे टोका था और तब से मेरे मन में ये बात बैठ गई थी कि शब्द बहुत सोच समझ कर गढ़े गए होते हैं।

खैर, आज मैं भाषा की कक्षा लगाने नहीं आया। आज मैं रिश्तों के एक अलग अध्याय को जीने के लिए आपके पास आया हूं। लेकिन इसके लिए आपको मेरे साथ निधि के पास चलना होगा।

निधि मेरी दोस्त है। कल उसने मुझे फोन करके अपने घर बुलाया था। फोन पर उसकी आवाज़ से मेरे मन में खटका हो चुका था कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। मैं शाम को उसके घर पहुंचा। उसने चाय बनाई और मुझसे बात करने लगी। पहले तो इधर-उधर की बातें हुईं, फिर उसने कहना शुरू कर दिया कि नितिन से उसकी नहीं बन रही और उसने उसे तलाक देने का फैसला कर लिया है।

मैंने पूछा कि नितिन कहां है, तो उसने कहा कि अभी कहीं गए हैं, बता कर नहीं गए। उसने कहा कि बात-बात पर झगड़ा होता है और अब ये झगड़ा बहुत बढ़ गया है। ऐसे में अब एक ही रास्ता बचा है कि अलग हो जाएं, तलाक ले लें।
मैं चुपचाप बैठा रहा।

निधि जब काफी देर बोल चुकी तो मैंने उससे कहा कि तुम नितिन को फोन करो और घर बुलाओ, कहो कि संजय सिन्हा आए हैं।

निधि ने कहा कि उनकी तो बातचीत नहीं होती, फिर वो फोन कैसे करे?

अज़ीब संकट था। निधि को मैं बहुत पहले से जानता हूं। मैं जानता हूं कि नितिन से शादी करने के लिए उसने घर में कितना संघर्ष किया था। बहुत मुश्किल से दोनों के घर वाले राज़ी हुए थे, फिर धूमधाम से शादी हुई थी। ढेर सारी रस्म पूरी की गईं थीं। ऐसा लगता था कि ये जोड़ी ऊपर से बन कर आई है। पर शादी के कुछ ही साल बाद दोनों के बीच झगड़े होने लगे। दोनों एक-दूसरे को खरी-खोटी सुनाने लगे। और आज उसी का नतीज़ा था कि संजय सिन्हा निधि के सामने बैठे थे, उनके बीच के टूटते रिश्तों को बचाने के लिए।

खैर, निधि ने फोन नहीं किया। मैंने ही फोन किया और पूछा कि तुम कहां हो ? मैं तुम्हारे घर पर हूं, आ जाओ। नितिन पहले तो आनाकानी करता रहा, पर वो जल्दी ही मान गया और घर चला आया।

अब दोनों के चेहरों पर तनातनी साफ नज़र आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि कभी दो जिस्म-एक जान कहे जाने वाले ये पति-पत्नी आंखों ही आंखों में एक दूसरे की जान ले लेंगे। दोनों के बीच कई दिनों से बातचीत नहीं हुई थी।
नितिन मेरे सामने बैठा था। मैंने उससे कहा कि सुना है कि तुम निधि से तलाक लेना चाहते हो?

उसने कहा, “हां, बिल्कुल सही सुना है। अब हम साथ नहीं रह सकते।”

मैंने कहा कि तुम चाहो तो अलग रह सकते हो। पर तलाक नहीं ले सकते।

“क्यों?”

“क्योंकि तुमने निकाह तो किया ही नहीं है।”

“अरे यार, हमने शादी तो की है।”

“हां, शादी की है। शादी में पति-पत्नी के बीच इस तरह अलग होने का कोई प्रावधान नहीं है। अगर तुमने मैरिज़ की होती तो तुम डाइवोर्स ले सकते थे। अगर तुमने निकाह किया होता तो तुम तलाक ले सकते थे। लेकिन क्योंकि तुमने शादी की है, इसका मतलब ये हुआ कि हिंदू धर्म और हिंदी में कहीं भी पति-पत्नी के एक हो जाने के बाद अलग होने का कोई प्रावधान है ही नहीं।”

मैंने इतनी-सी बात पूरी गंभीरता से कही थी, पर दोनों हंस पड़े थे। दोनों को साथ-साथ हंसते देख कर मुझे बहुत खुशी हुई थी। मैंने समझ लिया था कि रिश्तों पर पड़ी बर्फ अब पिघलने लगी है। वो हंसे, लेकिन मैं गंभीर बना रहा।

मैंने फिर निधि से पूछा कि ये तुम्हारे कौन हैं?

निधि ने नज़रे झुका कर कहा कि पति हैं। मैंने यही सवाल नितिन से किया कि ये तुम्हारी कौन हैं? उसने भी नज़रें इधर-उधर घुमाते हुए कहा कि बीवी हैं।

मैंने तुरंत टोका। ये तुम्हारी बीवी नहीं हैं। ये तुम्हारी बीवी इसलिए नहीं हैं क्योंकि तुम इनके शौहर नहीं। तुम इनके शौहर नहीं, क्योंकि तुमने इनसे साथ निकाह नहीं किया। तुमने शादी की है। शादी के बाद ये तुम्हारी पत्नी हुईं। हमारे यहां जोड़ी ऊपर से बन कर आती है। तुम भले सोचो कि शादी तुमने की है, पर ये सत्य नहीं है। तुम शादी का एलबम निकाल कर लाओ, मैं सबकुछ अभी इसी वक्त साबित कर दूंगा।

बात अलग दिशा में चल पड़ी थी। मेरे एक-दो बार कहने के बाद निधि शादी का एलबम निकाल लाई। अब तक माहौल थोड़ा ठंडा हो चुका था, एलबम लाते हुए उसने कहा कि कॉफी बना कर लाती हूं।

मैंने कहा कि अभी बैठो, इन तस्वीरों को देखो। कई तस्वीरों को देखते हुए मेरी निगाह एक तस्वीर पर गई जहां निधि और नितिन शादी के जोड़े में बैठे थे और पांव पूजन की रस्म चल रही थी। मैंने वो तस्वीर एलबम से निकाली और उनसे कहा कि इस तस्वीर को गौर से देखो।

उन्होंने तस्वीर देखी और साथ-साथ पूछ बैठे कि इसमें खास क्या है?

मैंने कहा कि ये पैर पूजन का रस्म है। तुम दोनों इन सभी लोगों से छोटे हो, जो तुम्हारे पांव छू रहे हैं।

“हां तो?”

“ये एक रस्म है। ऐसी रस्म संसार के किसी धर्म में नहीं होती जहां छोटों के पांव बड़े छूते हों। लेकिन हमारे यहां शादी को ईश्वरीय विधान माना गया है, इसलिए ऐसा माना जाता है कि शादी के दिन पति-पत्नी दोनों विष्णु और लक्ष्मी के रूप हो जाते हैं। दोनों के भीतर ईश्वर का निवास हो जाता है। अब तुम दोनों खुद सोचो कि क्या हज़ारों-लाखों साल से विष्णु और लक्ष्मी कभी अलग हुए हैं? दोनों के बीच कभी झिकझिक हुई भी हो तो क्या कभी तुम सोच सकते हो कि दोनों अलग हो जाएंगे? नहीं होंगे। हमारे यहां इस रिश्ते में ये प्रावधान है ही नहीं। तलाक शब्द हमारा नहीं है। डाइवोर्स शब्द भी हमारा नहीं है।

यहीं दोनों से मैंने ये भी पूछा कि बताओ कि हिंदी में तलाक को क्या कहते हैं?

दोनों मेरी ओर देखने लगे। उनके पास कोई जवाब था ही नहीं। फिर मैंने ही कहा कि दरअसल हिंदी में तलाक का कोई विकल्प नहीं। हमारे यहां तो ऐसा माना जाता है कि एक बार एक हो गए तो कई जन्मों के लिए एक हो गए। तो प्लीज़ जो हो ही नहीं सकता, उसे करने की कोशिश भी मत करो। या फिर पहले एक दूसरे से निकाह कर लो, फिर तलाक ले लेना।”

अब तक रिश्तों पर जमी बर्फ काफी पिघल चुकी थी।
निधि चुपचाप मेरी बातें सुन रही थी। फिर उसने कहा कि

भैया, मैं कॉफी लेकर आती हूं।

वो कॉफी लाने गई, मैंने नितिन से बातें शुरू कर दीं। बहुत जल्दी पता चल गया कि बहुत ही छोटी-छोटी बातें हैं, बहुत ही छोटी-छोटी इच्छाएं हैं, जिनकी वज़ह से झगड़े हो रहे हैं।

खैर, कॉफी आई। मैंने एक चम्मच चीनी अपने कप में डाली। नितिन के कप में चीनी डाल ही रहा था कि निधि ने रोक लिया, “भैया इन्हें शुगर है। चीनी नहीं लेंगे।”

लो जी, घंटा भर पहले ये इनसे अलग होने की सोच रही थीं और अब इनके स्वास्थ्य की सोच रही हैं।
मैं हंस पड़ा। मुझे हंसते देख निधि थोड़ा झेंपी। कॉफी पी कर मैंने कहा कि अब तुम लोग अलगे हफ़्ते निकाह कर लो, फिर तलाक में मैं तुम दोनों की मदद करूंगा।
शायद अब दोनों समझ चुके थे।

हिंदी एक भाषा ही नहीं संस्कृति है।
इसी तरह हिंदु भी धर्म नही सभ्यता है।

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🐮 मांस का मूल्य 💰

मगध सम्राट बिंबसार ने एक बार अपनी सभा मे पूछा :

देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए

सबसे सस्ती वस्तु क्या है ?

मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोच में पड़ गये ! चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आदि तो बहुत श्रम के बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो, ऎसी हालत में अन्न तो सस्ता हो ही नहीं सकता !

तब शिकार का शौक पालने वाले एक सामंत ने कहा :
राजन,

सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है,

इसे पाने मे मेहनत कम लगती है और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है । सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन प्रधान मंत्री चाणक्य चुप थे ।
तब सम्राट ने उनसे पूछा :
आपका इस बारे में क्या मत है ?

चाणक्य ने कहा : मैं अपने विचार कल आपके समक्ष रखूंगा !

रात होने पर प्रधानमंत्री उस सामंत के महल पहुंचे, सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये प्रधानमंत्री को देखकर घबरा गया ।

प्रधानमंत्री ने कहा :
शाम को महाराज एकाएक बीमार हो गये हैं, राजवैद्य ने कहा है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाए तो राजा के प्राण बच सकते हैं, इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय 💓 का सिर्फ दो तोला मांस लेने आया हूं । इसके लिए आप एक लाख स्वर्ण मुद्रायें ले लें ।

यह सुनते ही सामंत के चेहरे का रंग उड़ गया, उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफी मांगी और

उल्टे एक लाख स्वर्ण मुद्रायें देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें ।

प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामंतों, सेनाधिकारियों के यहां पहुंचे और

सभी से उनके हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ, उल्टे सभी ने अपने बचाव के लिये प्रधानमंत्री को एक लाख, दो लाख, पांच लाख तक स्वर्ण मुद्रायें दीं ।

इस प्रकार करीब दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले वापस अपने महल पहुंचे और समय पर राजसभा में प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्रायें रख दीं ।

सम्राट ने पूछा :
यह सब क्या है ? तब प्रधानमंत्री ने बताया कि दो तोला मांस खरिदने के लिए

इतनी धनराशि इकट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नही मिला ।

राजन ! अब आप स्वयं विचार करें कि मांस कितना सस्ता है ?

जीवन अमूल्य है, हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी है, उसी तरह सभी जीवों को भी अपनी जान उतनी ही प्यारी है। लेकिन वो अपनी जान बचाने मे असमर्थ है।

और मनुष्य अपने प्राण बचाने हेतु हर सम्भव प्रयास कर सकता है । बोलकर, रिझाकर, डराकर, रिश्वत देकर आदि आदि ।

पशु न तो बोल सकते हैं, न ही अपनी व्यथा बता सकते हैं ।

तो क्या बस इसी कारण उनसे जीने का अधिकार छीन लिया जाये ।

शुद्ध आहार, शाकाहार !
मानव आहार, शाकाहार !