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प्रेरक स्टोरी। फेस बुक

“श्री कृष्ण द्वारा बलराम को सीख”
महाभारत काल की बात है। एक बार कृष्ण और बलराम किसी जंगल से गुजर रहे थे। चलते-चलते काफी समय बीत गया और अब सूरज भी लगभग डूबने वाला था। अधेरे में आगे बढ़ना संभव नहीं था, इसलिए कृष्ण बोले – “ बलराम भाई, हम ऐसा करते हैं कि अब सुबह होने तक यहीं ठहर जाते हैं, भोर होते ही हम अपने गंतव्य की और बढ़ चलेंगे।”
बलराम बोले – “ पर इस घने जंगल में हमें खतरा हो सकता है, यहाँ सोना उचित नहीं होगा, हमें जाग कर ही रात बितानी होगी।”
कृष्ण ने बोला – “अच्छा, हम ऐसा करते हैं कि पहले मैं सोता हूं और तब तक तुम पहरा देते रहो, और फिर जैसे ही तुम्हें नींद आये तुम मुझे जगा देना, तब मैं पहरा दूंगा और तुम सो जाना।”,
बलराम तैयार हो गए। कुछ ही पलों में कृष्ण गहरी नींद में चले गए और तभी बलराम को एक भयानक आकृति उनकी ओर आती दिखी, वो कोई राक्षस था। राक्षस उन्हें देखते ही जोर से चीखा और बलराम बुरी तरह डर गए। इस घटना का एक विचित्र असर हुआ- भय के कारण बलराम का आकार कुछ छोटा हो गया और राक्षस और विशाल हो गया।
उसके बाद राक्षस एक बार और चीखा और पुन: बलराम डर कर काँप उठे, अब बलराम और भी सिकुड़ गए और राक्षस पहले से भी बड़ा हो गया। राक्षस धीरे-धीरे बलराम की और बढ़ने लगा, बलराम पहले से ही भयभीत थे, और उस विशालकाय राक्षस को अपनी और आता देख जोर से चीख पड़े –“कृष्णा…” ,और चीखते ही वहीँ मूर्छित हो कर गिर पड़े।
बलराम की आवाज़ सुन कर कृष्ण उठे, बलराम को वहां देख उन्होंने सोचा कि बलराम पहरा देते-दते थक गए और सोने से पहले उन्हें आवाज़ दे दी। अब कृष्ण पहरा देने लगे। कुछ देर बाद वहीं राक्षस उनके सामने आया और जोर से चीखा। कृष्ण जरा भी घबराए नहीं और बोले, “बताओ तुम इस तरह चीख क्यों रहे हो, क्या चाहिए तुम्हें?” इस बार भी कुछ विच्त्र घटा- कृष्ण के साहस के कारण उनका आकार कुछ बढ़ गया और राक्षस का आकर कुछ घट गया। राक्षस को पहली बार कोई ऐसा मिला था, जो उससे डर नहीं रहा था। घबराहट में वह पुन: कृष्ण पर जोर से चीखा!
इस बार भी कृष्ण नहीं डरे और उनका आकर और भी बड़ा हो गया जबकि राक्षस पहले से भी छोटा हो गया। एक आखिरी प्रयास में राक्षस पूरी ताकत से चीखा पर कृष्ण मुस्कुरा उठे और फिर से बोले – “ बताओ तो क्या चाहिए तुम्हें?” फिर क्या था राक्षस सिकुड़ कर बिलकुल छोटा हो गया और कृष्ण ने उसे हथेली में लेकर अपनी धोती में बांध लिया और फिर कमर में खोंस कर रख लिया।
कुछ ही देर में सुबह हो गयी, कृष्ण ने बलराम को उठाया और आगे बढ़ने के लिए कहा! वे धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे तभी बलराम उत्तेजित होते हुए बोले – “पता है कल रात क्या हुआ था, एक भयानक राक्षस हमें मारने आया था!”
“रुको-रुको”, बलराम को बीच में ही टोकते हुए कृष्ण ने अपनी धोती में बंधा राक्षस निकाला और बलराम को दिखाते हुए बोले, “कहीं तुम इसकी बात तो नहीं कर रहे हो?”
“हां, ये वही है। पर कल जब मैंने इसे देखा था तो ये बहुत बड़ा था, ये इतना छोटा कैसे हो गया?”, बलराम आश्चर्यचकित होते हुए बोले।
कृष्ण बोले – “ जब जीवन में तुम किसी ऐसी चीज से बचने की कोशिश करते हो जिसका तुम्हें सामना करना चाहिए, तो वो तुमसे बड़ी हो जाती है और तुम पर नियंत्रण करने लगती है, लेकिन जब तुम उस चीज का सामना करते हो जिसका सामना तुम्हें करना चाहिए, तो तुम उससे बड़े हो जाते हो और उसे नियंत्रित करने लगते हो!”

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प्रेरक स्टोरी । फेस बुक

गुरु का स्थान

एक राजा था. उसे पढने लिखने का बहुत शौक था. एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की Raja aur Mahatmaव्यवस्था की. शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा. राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए, मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ. गुरु तो रोज खूब मेहनत करता थे परन्तु राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था. राजा बड़ा परेशान, गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत था क्योंकि वो एक बहुत ही प्रसिद्द और योग्य गुरु थे. आखिर में एक दिन रानी ने राजा को सलाह दी कि राजन आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही पूछ कर देखिये.

राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरूजी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी, ” हे गुरुवर , क्षमा कीजियेगा , मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों है ?”

गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, ” राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है…”

” गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये “, राजा ने विनती की.

गुरूजी ने कहा, “राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने ‘बड़े’ होने के अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दुखी हैं. माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं. आप हर दृष्टि से मुझ से पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आप का और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है. गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए, परन्तु आप स्वंय ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं. बस यही एक कारण है जिससे आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है. आपके राजा होने के कारण मैं आप से यह बात नहीं कह पा रहा था.

कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वंय नीचे बैठें तो कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें.”

राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की .

मित्रों, इस छोटी सी कहानी का सार यह है कि हम रिश्ते-नाते, पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है. और यहाँ स्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है , इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं। क्या हम सही मायने में उनको सम्मान दे रहे हैं या स्वयं के ही श्रेस्ठ होने का घमंड कर रहे हैं ? अगर हम अपने गुरु या शिक्षक के प्रति हेय भावना रखेंगे तो हमें उनकी योग्यताओं एवं अच्छाइयों का कोई लाभ नहीं मिलने वाला और अगर हम उनका आदर करेंगे, उन्हें महत्व देंगे तो उनका आशीर्वाद हमें सहज ही प्राप्त होगा.

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मेरा पहला गुरु था एक चोर।!-सुभाष बुड़ावन वाला

महिष्मतिपुर में एक संत रहते थे, जिनका नाम था सेवादास। उनके पास शिक्षा लेने दूर-दूर से शिष्य आते थे। एक दिन एक शिष्य ने उनसे पूछा, स्वामीजी आपके गुरु कौन है ? संत सुनकर मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारों गुरु हैं ! उनमें से तीन गुरुओं के बारे मे जरूर बताऊंगा। मेरा पहला गुरु था एक चोर। एक बार रास्ता भटक कर मैं देर रात किसी गांव में पंहुचा। मुझे एक आदमी मिला, जो एक दीवार में सेंध लगा रहा था। मैंने उससे किसी ठिकाने के बारे में पूछा, तो वह बोला कि इतनी रात गए कोई ठिकाना मिलना बहुत मुश्किल है। आप चाहें, तो मेरे साथ ठहर सकते हैं।
संत ने आगे कहा, संयोग की बात कि मै उसके साथ एक महीने रह गया! वह हर रात मुझे कहता कि मैं काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह लौटकर आता, तो मै उससे पूछता कि कुछ मिला? वह कहता, आज तो कुछ नहीं मिला, पर ईश्वर की कृपा से तो जल्द ही जरूर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था। साधना करते हुए मुझे वर्षों बीत गए और कुछ भी नहीं हो रहा था, तो मैं निराश होकर साधना छोड़ने की बात सोचने लगता। और तब मुझे उस चोर की याद आ जाती और मैं अपना धीरज संभाल लेता।संत ने कहा, दूसरा गुरु एक कुत्ता था। एक बहुत गर्मी वाले दिन मैं बहुत प्यासा था और पानी तलाश रहा था कि सामने से एक कुत्ता आया। वह भी बहुत प्यासा था। पास ही एक नदी थी। कुत्ते ने नदी में झांका, तो उसे अपनी ही परछाईं दिखाई दी। वह परछाईं देखकर भौंकता हुआ पीछे हट गया, लेकिन बहुत प्यासा होने से वह फिर वापस पानी के पास लौट आया और नदी में कूद पड़ा। उसके कूदते ही वह परछाईं भी गायब हो गई। उसे देखकर मुझे लगा कि अपने डर के बावजूद व्यक्ति को आगे बढ़ना चाहिए।
तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है। एक गांव से गुजरते हुए मैंने देखा कि एक बच्चा पास ही किसी मंदिर में एक जलती हुई मोमबत्ती रखने जा रहा था। मैंने पूछा कि यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, हां, तो मैंने उससे पूछा कि तुम बता सकते हो कि इसमें ज्योति कहां से आई? बच्चा हंसा और फूंक मार कर मोमबत्ती बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देख लिया। कहां गई वह? आप ही मुझे बताइए। सुनकर मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए।!-सुभाष बुड़ावन वाला,

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ओशो

जिब्रान की कहानी है कि एक आदमी गांव-गांव कहता फिरता था कि मुझे स्वर्ग का पता है, जिनको आना हो मेरे साथ आ जाओ। कोई आता नहीं था, क्योंकि लोगों के पास हजार दूसरे काम हैं, स्वर्ग जाने की इतनी जल्दी वैसे भी किसी को नहीं है। लोग स्वर्गीय तो मजबूरी में होते हैं। जब हाथ-पैर ही नहीं चलते और लोग मरघट पर पहुंचा आते हैं, तब स्वर्गीय होते हैं। कोई स्वर्गीय होने को राजी नहीं था। लोग कहते, आपकी बात सुनते हैं, जंचती है; जब जरूरत होगी तब उपयोग करेंगे, मगर अभी कृपा करें, अभी…अभी हमें जाना नहीं।

एक गांव में ऐसा हुआ…उस आदमी का खूब धंधा चलता था। क्योंकि जिनको स्वर्ग नहीं जाना, उनको बचने के लिए भी गुरु को कुछ गुरु-दक्षिणा देनी पड़ती थी। वह आ जाए गांव में और समझाए, तो उसकी कुछ सेवा भी करनी पड़ती, पैर भी पड़ने पड़ते। वे कहते, तुम बिलकुल ठीक हो, मगर अभी हम साधारणजन, अभी संसार में उलझे हैं; जब कभी सुलझेंगे, आपकी बातों का ख्याल करेंगे।

<img class="i-amphtml-intrinsic-sizer" src="data:image/svg+xml;charset=utf-8,” style=”max-width: 100%; display: block !important;”>गुरु का धंधा चलता रहा। कुछ समय बाद उस गुरु को एक असली शिष्य मिल गया। उसने कहा, अच्छा, तुम्हें पता है! पक्का पता है? बिलकुल पक्का पता है। उसने कहा, अच्छा, मैं चलता हूं। कितने दिन लगेंगे पहुंचने में? तब जरा गुरु घबड़ाया कि यह जरा उपद्रवी मालूम पड़ता है। पैर छुओ, बात ठीक है। साथ चलने की बात! मगर अब सबके सामने मना भी नहीं कर सका। उसने कहा, देखेंगे, भटकाएंगे साल दो साल, भाग जाएगा अपने आप। छह साल बीत गए। वह उनके पीछे ही पड़ा है। वह कहता है कि कब आएगा? अभी तक आया नहीं।

एक दिन उस गुरु ने कहा, तेरे हाथ जोड़ता हूं, भैया! तू जब तक न मिला था हमको भी पता था स्वर्ग कहां है; अब तेरे कारण हम भी पता भूल गए हैं। दुनिया में नकली गुरु हैं, क्योंकि नकली शिष्यों की बड़ी संख्या है। नकली गुरु तो बाइप्राडक्ट हैं। वे सीधे पैदा नहीं होते। नकली शिष्य उन्हें पैदा कर लेता है।

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एक बार एक राजा ने दर्पण में अपना झुर्रिंयों से भरा चेहरा और सफेद केश देखे तो उसका मन व्याकुल व विरक्त हो गया। राजा अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंप साधना हेतु वन की ओर चल दिया।

उधर राजकुमार शासन संभालने को पूरी तरह तैयार न था। राजकुमार ने अपने गुरु के पास जा राजपाट कैसे संभाले के बारे में मार्ग-दर्शन करने की विनती की।

गुरु ने कहा, ‘मैं तुम्हें एक मंत्र देता हूं, इस मंत्र का नाम है- ‘यह भी नहीं रहेगा।’ तुम इस मंत्र को अपनी भुजा पर गुदवा लो। जब भी तुम्हें राज-सत्ताया ऐश्वर्य और योग्यता का नशा छाए, तुम इस मंत्र का मनन करना औरसोचना कि यह क्षणिक है। इसी प्रकार जब कभी तुम्हें निराशा घेरने लगे और मन व्याकुल हो, तब भी इसी मंत्र का ध्यान करना कि यह भी नहीं रहेगा।‘ इस मंत्र से तुम्हारी बुद्धि सदा निर्मल रहेगी और तुम कभी अधीर नहीं होओगे। तुम सदैव संतुलित रहोगे

राजकुमार ने इस गुरु-मंत्र का निर्वाह करते हुए अपने पिता से भी अधिक अच्छी तरह राजभार संभाला और एक अच्छा शासक प्रमाणित हुआ।

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एक बार एक राजा ने दर्पण में अपना झुर्रिंयों से भरा चेहरा और सफेद केश देखे तो उसका मन व्याकुल व विरक्त हो गया। राजा अपना राजपाट अपने पुत्र को सौंप साधना हेतु वन की ओर चल दिया।

उधर राजकुमार शासन संभालने को पूरी तरह तैयार न था। राजकुमार ने अपने गुरु के पास जा राजपाट कैसे संभाले के बारे में मार्ग-दर्शन करने की विनती की।

गुरु ने कहा, ‘मैं तुम्हें एक मंत्र देता हूं, इस मंत्र का नाम है- ‘यह भी नहीं रहेगा।’ तुम इस मंत्र को अपनी भुजा पर गुदवा लो। जब भी तुम्हें राज-सत्ताया ऐश्वर्य और योग्यता का नशा छाए, तुम इस मंत्र का मनन करना औरसोचना कि यह क्षणिक है। इसी प्रकार जब कभी तुम्हें निराशा घेरने लगे और मन व्याकुल हो, तब भी इसी मंत्र का ध्यान करना कि यह भी नहीं रहेगा।‘ इस मंत्र से तुम्हारी बुद्धि सदा निर्मल रहेगी और तुम कभी अधीर नहीं होओगे। तुम सदैव संतुलित रहोगे

राजकुमार ने इस गुरु-मंत्र का निर्वाह करते हुए अपने पिता से भी अधिक अच्छी तरह राजभार संभाला और एक अच्छा शासक प्रमाणित हुआ।

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एक गुरु था ,एक था चेला . चेला उनसे करबद्ध बोला .
मैं हूँ बालक, मैं अज्ञानी , धन अर्जित करने न जाऊं अकेला .
मुझे आप का साथ चाहिए , सदा ही आशीर्वाद चाहिए .
चलते गए वे दोनों ज्ञानी , पसंद न आता कहीं का पानी .
अंत में पहुचे ऐसे देश , नहीं था जिसका कोई भेष .
बकरी – घोड़े थे एक ही मोल , टके सेर भाजी और मेवे तोल.
चेले को भाया वह स्थान ,अब आगे नहीं करें प्रस्थान.
अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
गुरु ने चेले को खूब समझाया, पर कुछ भी उसकी समझ न आया .
इस राजा का विश्वास न करना , बिन कारण ही पड़ेगा मरना .
गुरु जी बात कुछ अच्छी बोलो , अशुभ अशुभ शब्द मत घोलो .
कितना अच्छा देश है देखो ,टके सेर काजू तुम ले लो .
कितना अच्छा यहाँ का राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
मैं तो रहूँगा इस धरती पर ,मेवा फल खाऊंगा जी भर .
रोज बजाऊँगा मैं बाजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा
गुरु की बात न चेला माने , रहने लगे नगर अनजाने
एक दिवस इक चोर पकड़ाया, सीपाहि उसे दरबार में लाया.
राजा ने मृत्यु दण्ड सुनाया , उसके लिए फंदा बनवाया .
फंदा बड़ा बना कुछ ऐसा ,गर्दन हो भैंसे के जैसा .
चोर की गर्दन सुकडी – पतली , निकल गयी झट बिना ही अकड़ी .
न्याय प्रिय था वहां का राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा
राजा ने देखा जब फंदा , बोले लाओ मोटा बंदा .
मोटी ताज़ी गर्दन हो जिसकी ,फंदे में फंस जाये उसकी .
उसको ही फांसी लटकाओ ,शीघ्र मेरा आदेश बजाओ .
कितना अच्छा था वहां का राजा , टके सेर भाजी टके सेर खाजा .
सिपाही चारों ओर दौड़ते , मोटी गर्दन का व्यक्ति ढूढ़ते .
मोटा ताजा चेला जब पाया ,पकड़ उसे दरबार में लाया .
गुरु जी बोले काजू खा जा,कितना अच्छा है यह राजा.
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
चेला बोला ,’मैं चोर नहीं हूँ ,विनती सुन लो मेरे राजा ,
मैंने सिर्फ किया यह काम , खाया खूब टके सेर खाजा .
चेला सोचे कितना मूरख ,कैसा अन्यायी यहाँ का राजा
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
जो मेवा टके सेर न होता , क्यों मैं इतना खाता जाता ,
गुरु की बात न समझी उस दिन , समझ न पाया कैसा राजा .
चोर को छोड़ पकड़ा है मुझ को , कैसा मूर्ख यहाँ का राजा .
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
गुरु जी मेरी जान बचाओ . चरण पडूं मैं हूँ अज्ञानी ,
अब लालच मैं कभी करूँ न , कान पकड़ कर गलती मानी .
थोड़ी दया गुरु को आई , कान में जा इक बात बताई .
चेला बोला राजा से हंस कर , शीघ्र मुझे लटकाओ ऊपर ,
राजा चौंका यह देख नजारा , चेले को उसने शीघ्र पुकारा .
गुरु ने क्या उपदेश दिया है , जिसने तुम्हें प्रसन्न किया है .?
चेला बोला जल्दी लटकाओ , इसमें न कोई देर लगाओ .
पर राजा ने जिद थी ठानी , बोला,पहले बोलो गुरु बाणी .
चेले ने रहस्य यह खोला , राजा के कान में धीरे से बोला ,
यह क्षण जीवन का अमर काल है , मुझको मरना तत्काल है ,
जो इस क्षण में मृत्यु पायेगा , वह स-शरीर स्वर्ग जायेगा
राजा ने समझा समय का मूल्य , स्वयं गया फंदे पर झूल ,
तुरंत अकड़ गई गर्दन उसकी , सब बोले जयकार गुरु की
कितना मूर्ख था यहाँ का राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
धन्य गुरु यह देश बचाया , सबने समझी ईश्वर की माया .
मूर्ख लोग राजा को प्यारे ,योग्य मंत्री समझा के हारे
गुरु ने अच्छा देश बसाया , भले -बुरे का भेद बताया .
लोगों में विश्वास जगाया , सुन्दर सा एक देश बनाया .

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ज्योति अग्रवाल

हमारे एक ब्राह्मण मित्र ने दो ब्राह्मणों की कहानी भेजी जो ब्राह्मणों के सामने नत-मस्तक होने पर मजबूर करती है……
ऐसे होते हैं ब्राह्मण संस्कार
*****

ब्राह्मण के घर से खाली हाथ कैसै जाएंगे

पिछले दिनों मैं हनुमान जी के मंदिर में गया था ।जहाँ पर मैंने एक ब्राह्मण को देखा, जो एक जनेऊ हनुमान जी के लिए ले आये थे | संयोग से मैं उनके ठीक पीछे लाइन में खड़ा था, मेंने सुना वो पुजारी से कह रहे थे कि वह स्वयं का काता (बनाया) हुआ जनेऊ हनुमान जी को पहनाना चाहते हैं, पुजारी ने जनेऊ तो ले लिया पर पहनाया नहीं | जब ब्राह्मण ने पुन: आग्रह किया तो पुजारी बोले यह तो हनुमान जी का श्रृंगार है इसके लिए बड़े पुजारी (महंत) जी से अनुमति लेनी होगी, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें वो आते ही होगें | मैं उन लोगों की बातें गौर से सुन रहा था, जिज्ञासा वश मैं भी महंत जी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा | थोड़ी देर बाद जब महन्त जी आए तो पुजारी ने उस ब्राह्मण के आग्रह के बारे में बताया तो महन्त जी ने ब्राह्मण की ओर देख कर कहा कि देखिए हनुमान जी ने जनेऊ तो पहले से ही पहना हुआ है और यह फूलमाला तो है नहीं कि एक साथ कई पहना दी जाए | आप चाहें तो यह जनेऊ हनुमान जी को चढ़ाकर प्रसाद रूप में ले लीजिए | इस पर उस ब्राह्मण ने बड़ी ही विनम्रता से कहा कि मैं देख रहा हूँ कि भगवान ने पहले से ही जनेऊ धारण कर रखा है परन्तु कल रात्रि में चन्द्रग्रहण लगा था और वैदिक नियमानुसार प्रत्येक जनेऊ धारण करने वाले को ग्रहणकाल के उपरांत पुराना बदलकर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए बस यही सोच कर सुबह सुबह मैं हनुमान जी की सेवा में यह ले आया था प्रभु को यह प्रिय भी बहुत है | हनुमान चालीसा में भी लिखा है कि – हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे | अब महंत जी थोड़ी सोचनीय मुद्रा में बोले कि हम लोग बाजार का जनेऊ नहीं लेते हनुमान जी के लिए शुद्ध जनेऊ बनवाते हैं, आपके जनेऊ की क्या शुद्धता है | इस पर वह ब्राह्मण बोले कि प्रथम तो यह कि ये कच्चे सूत से बना है, इसकी लम्बाई 96 चउवा (अंगुल) है, पहले तीन धागे को तकली पर चढ़ाने के बाद तकली की सहायता से नौ धागे तेहरे गये हैं, इस प्रकार 27 धागे का एक त्रिसुत है जो कि पूरा एक ही धागा है कहीं से भी खंडित नहीं है, इसमें प्रवर तथा गोत्रानुसार प्रवर बन्धन है तथा अन्त में ब्रह्मगांठ लगा कर इसे पूर्ण रूप से शुद्ध बनाकर हल्दी से रंगा गया है और यह सब मेंने स्वयं अपने हाथ से गायत्री मंत्र जपते हुए किया है | ब्राह्मण देव की जनेऊ निर्माण की इस व्याख्या से मैं तो स्तब्ध रह गया मन ही मन उन्हें प्रणाम किया, मेंने देखा कि अब महन्त जी ने उनसे संस्कृत भाषा में कुछ पूछने लगे, उन लोगों का सवाल – जबाब तो मेरे समझ में नहीं आया पर महन्त जी को देख कर लग रहा था कि वे ब्राह्मण के जबाब से पूर्णतया सन्तुष्ट हैं अब वे उन्हें अपने साथ लेकर हनुमान जी के पास पहुँचे जहाँ मन्त्रोच्चारण कर महन्त व अन्य 3 पुजारियों के सहयोग से हनुमान जी को ब्राह्मण देव ने जनेऊ पहनाया तत्पश्चात पुराना जनेऊ उतार कर उन्होंने बहते जल में विसर्जन करने के लिए अपने पास रख लिया | मंदिर तो मैं अक्सर आता हूँ पर आज की इस घटना ने मन पर गहरी छाप छोड़ दी, मेंने सोचा कि मैं भी तो ब्राह्मण हूं और नियमानुसार मुझे भी जनेऊ बदलना चाहिए, उस ब्राह्मण के पीछे-पीछे मैं भी मंदिर से बाहर आया उन्हें रोककर प्रणाम करने के बाद अपना परिचय दिया और कहा कि मुझे भी एक जोड़ी शुद्ध जनेऊ की आवश्यकता है, तो उन्होंने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तो वह बस हनुमान जी के लिए ही ले आये थे हां यदि आप चाहें तो मेरे घर कभी भी आ जाइएगा घर पर जनेऊ बनाकर मैं रखता हूँ जो लोग जानते हैं वो आकर ले जाते हैं | मेंने उनसे उनके घर का पता लिया और प्रणाम कर वहां से चला आया, शाम को उनके घर पहुंचा तो देखा कि वह अपने दरवाजे पर तखत पर बैठे एक व्यक्ति से बात कर रहे हैं , गाड़ी से उतरकर मैं उनके पास पहुंचा मुझे देखते ही वो खड़े हो गए, और मुझसे बैठने का आग्रह किया अभिवादन के बाद मैं बैठ गया, बातों बातों में पता चला कि वह अन्य व्यक्ति भी पास का रहने वाला ब्राह्मण है तथा उनसे जनेऊ लेने आया है | ब्राह्मण अपने घर के अन्दर गए इसी बीच उनकी दो बेटियाँ जो क्रमश: 12 वर्ष व 8 वर्ष की रही होंगी एक के हाथ में एक लोटा पानी तथा दूसरी के हाथ में एक कटोरी में गुड़ तथा दो गिलास था, हम लोगों के सामने गुड़ व पानी रखा गया, मेरे पास बैठे व्यक्ति ने दोनों गिलास में पानी डाला फिर गुड़ का एक टुकड़ा उठा कर खाया और पानी पी लिया तथा गुड़ की कटोरी मेरी ओर खिसका दी, पर मेंने पानी नहीं पिया कारण आप सभी लोग जानते होंगे कि हर जगह का पानी कितना दूषित हो गया है कि पीने योग्य नहीं होता है घर पर आर.ओ. लगा है इसलिए ज्यादातर आर.ओ. का ही पानी पीता हूँ बाहर रहने पर पानी की बोतल खरीद लेता हूँ | इतनी देर में ब्राह्मण अपने घर से बाहर आए और एक जोड़ी जनेऊ उस व्यक्ति को दिए, जो पहले से बैठा था उसने जनेऊ लिया और 21 रुपए ब्राह्मण को देकर चला गया | मैं अभी वहीं रुका रहा इस ब्राह्मण के बारे में और अधिक जानने का कौतुहल मेरे मन में था, उनसे बात-चीत में पता चला कि वह संस्कृत से स्नातक हैं नौकरी मिली नहीं और पूँजी ना होने के कारण कोई व्यवसाय भी नहीं कर पाए, घर में बृद्ध मां पत्नी दो बेटियाँ तथा एक छोटा बेटा है, एक गाय भी है | वे बृद्ध मां और गौ-सेवा करते हैं दूध से थोड़ी सी आय हो जाती है और जनेऊ बनाना उन्होंने अपने पिता व दादा जी से सीखा है यह भी उनके गुजर-बसर में सहायक है | इसी बीच उनकी बड़ी बेटी पानी का लोटा वापस ले जाने के लिए आई किन्तु अभी भी मेरी गिलास में पानी भरा था उसने मेरी ओर देखा लगा कि उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हों कि मेंने पानी क्यों नहीं पिया, मेंने अपनी नजरें उधर से हटा लीं, वह पानी का लोटा गिलास वहीं छोड़ कर चली गयी शायद उसे उम्मीद थी की मैं बाद में पानी पी लूंगा | अब तक मैं इस परिवार के बारे में काफी है तक जान चुका था और मेरे मन में दया के भाव भी आ रहे थे | खैर ब्राह्मण ने मुझे एक जोड़ी जनेऊ दिया, तथा कागज पर एक मंत्र लिख कर दिया और कहा कि जनेऊ पहनते समय इस मंत्र का उच्चारण अवश्य करूं — | मैंने सोच समझ कर 500 रुपए का नोट ब्राह्मण की ओर बढ़ाया तथा जेब और पर्स में एक का सिक्का तलाशने लगा, मैं जानता था कि 500 रुपए एक जोड़ी जनेऊ के लिए बहुत अधिक है पर मैंने सोचा कि इसी बहाने इनकी थोड़ी मदद हो जाएगी | ब्राह्मण हाथ जोड़ कर मुझसे बोले कि सर 500 सौ का फुटकर तो मेरे पास नहीं है, मेंने कहा अरे फुटकर की आवश्यकता नहीं है आप पूरा ही रख लीजिए तो उन्हें कहा नहीं बस मुझे मेरी मेहनत भर का 21 रूपए दे दीजिए, मुझे उनकी यह बात अच्छी लगी कि गरीब होने के बावजूद वो लालची नहीं हैं, पर मेंने भी पांच सौ ही देने के लिए सोच लिया था इसलिए मैंने कहा कि फुटकर तो मेरे पास भी नहीं है, आप संकोच मत करिए पूरा रख लीजिए आपके काम आएगा | उन्होंने कहा अरे नहीं मैं संकोच नहीं कर रहा आप इसे वापस रखिए जब कभी आपसे दुबारा मुलाकात होगी तब 21रू. दे दीजिएगा | इस ब्राह्मण ने तो मेरी आँखें नम कर दीं उन्होंने कहा कि शुद्ध जनेऊ की एक जोड़ी पर 13-14 रुपए की लागत आती है 7-8 रुपए अपनी मेहनत का जोड़कर वह 21 रू. लेते हैं कोई-कोई एक का सिक्का न होने की बात कह कर बीस रुपए ही देता है | मेरे साथ भी यही समस्या थी मेरे पास 21रू. फुटकर नहीं थे, मेंने पांच सौ का नोट वापस रखा और सौ रुपए का एक नोट उन्हें पकड़ाते हुए बड़ी ही विनम्रता से उनसे रख लेने को कहा तो इस बार वह मेरा आग्रह नहीं टाल पाए और 100 रूपए रख लिए और मुझसे एक मिनट रुकने को कहकर घर के अन्दर गए, बाहर आकर और चार जोड़ी जनेऊ मुझे देते हुए बोले मेंने आपकी बात मानकर सौ रू. रख लिए अब मेरी बात मान कर यह चार जोड़ी जनेऊ और रख लीजिए ताकी मेरे मन पर भी कोई भार ना रहे | मेंने मन ही मन उनके स्वाभिमान को प्रणाम किया साथ ही उनसे पूछा कि इतना जनेऊ लेकर मैं क्या करूंगा तो वो बोले कि मकर संक्रांति, पितृ विसर्जन, चन्द्र और सूर्य ग्रहण, घर पर किसी हवन पूजन संकल्प परिवार में शिशु जन्म के सूतक आदि अवसरों पर जनेऊ बदलने का विधान है, इसके अलावा आप अपने सगे सम्बन्धियों रिस्तेदारों व अपने ब्राह्मण मित्रों को उपहार भी दे सकते हैं जिससे हमारी ब्राह्मण संस्कृति व परम्परा मजबूत हो साथ ही साथ जब आप मंदिर जांए तो विशेष रूप से गणेश जी, शंकर जी व हनूमान जी को जनेऊ जरूर चढ़ाएं… उनकी बातें सुनकर वह पांच जोड़ी जनेऊ मेंने अपने पास रख लिया और खड़ा हुआ तथा वापसी के लिए बिदा मांगी, तो उन्होंने कहा कि आप हमारे अतिथि हैं पहली बार घर आए हैं हम आपको खाली हाथ कैसे जाने दो सकते हैं इतना कह कर उनहोंने अपनी बिटिया को आवाज लगाई वह बाहर निकाली तो ब्राह्मण देव ने उससे इशारे में कुछ कहा तो वह उनका इशारा समझकर जल्दी से अन्दर गयी और एक बड़ा सा डंडा लेकर बाहर निकली, डंडा देखकर मेरे समझ में नहीं आया कि मेरी कैसी बिदायी होने वाली है | अब डंडा उसके हाथ से ब्राह्मण देव ने अपने हाथों में ले लिया और मेरी ओर देख कर मुस्कराए जबाब में मेंने भी मुस्कराने का प्रयास किया | वह डंडा लेकर आगे बढ़े तो मैं थोड़ा पीछे हट गया उनकी बिटिया उनके पीछे पीछे चल रह थी मेंने देखा कि दरवाजे की दूसरी तरफ दो पपीते के पेड़ लगे थे डंडे की सहायता से उन्होंने एक पका हुआ पपीता तोड़ा उनकी बिटिया वह पपीता उठा कर अन्दर ले गयी और पानी से धोकर एक कागज में लपेट कर मेरे पास ले आयी और अपने नन्हें नन्हा हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिया उसका निश्छल अपनापन देख मेरी आँखें भर आईं, मैं अपनी भीग चुकी आंखों को उससे छिपाता हुआ दूसरी ओर देखने लगा तभी मेरी नजर पानी के उस लोटे और गिलास पर पड़ी जो अब भी वहीं रखा था इस छोटी सी बच्ची का अपनापन देख मुझे अपने पानी न पीने पर ग्लानि होने लगी, मैंने झट से एक टुकड़ा गुड़ उठाकर मुँह में रखा और पूरी गिलास का पानी एक ही साँस में पी गया, बिटिया से पूछा कि क्या एक गिलास पानी और मिलेगा वह नन्ही परी फुदकता हुई लोटा उठाकर ले गयी और पानी भर लाई, फिर उस पानी को मेरी गिलास में डालने लगी और उसके होंठों पर तैर रही मुस्कराहट जैसे मेरा धन्यवाद कर रही हो , मैं अपनी नजरें उससे छुपा रहा था पानी का गिलास उठाया और गर्दन ऊंची कर के वह अमृत पीने लगा पर अपराधबोध से दबा जा रहा था, अब बिना किसी से कुछ बोले पपीता गाड़ी की दूसरी सीट पर रखा, और घर के लिए चल पड़ा, घर पहुंचने पर हाथ में पपीता देख कर मेरी पत्नी ने पूछा कि यह कहां से ले आए तो बस मैं उससे इतना ही कह पाया कि एक ब्राह्मण के घर गया था तो उन्होंने खाली हाथ आने ही नहीं दिया |

ब्राह्मण -पुत्रों को अवश्य भेजें…. ये अनुरोध है।।🌺💐🌸🙏🏻

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ज्योति अग्रवाल

भाईदूज
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‘मेरे सामने तो तुम उसे राधा बहन मत बोलो. मुझे तो यह गाली की तरह लगता है,’’ मालती भड़क उठी.
‘‘अगर उस ने बिना कुछ पूछे अचानक आ कर मुझे राखी बांध दी, तो इस में मेरा क्या कुसूर? मैं ने तो उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा था,’’ मोहन बाबू तकरीबन गिड़गिड़ाते हुए बोले.
‘‘हांहां, इस में तुम्हारा क्या कुसूर? उस नीच जाति की राधा से तुम ने नहीं, तो क्या मैं ने ‘राधा बहन, राधा बहन’ कह कर नाता जोड़ा था. रिश्ता जोड़ा है, तो राखी तो वह बांधेगी ही.’’
‘‘उस का मन रखने के लिए मैं ने उस से राखी बंधवा भी ली, तो ऐसा कौन सा भूचाल आ गया, जो तुम इतना बिगड़ रही हो?’’
‘‘उंगली पकड़तेपकड़ते ही हाथ पकड़ते हैं ये लोग. आज राखी बांधी है, तो कल को भाईदूज पर खाना खाने भी बुलाएगी. तुम को तो जाना भी पड़ेगा. आखिर रिश्ता जो जोड़ा है. मगर, मैं तो ऐसे रिश्तों को निभा नहीं पाऊंगी,’’ मालती ने अपने मन का सारा जहर उगल दिया. राधा अभी राखी बांध कर गई ही थी कि उसे याद आया कि वह मोहन बाबू को मिठाई खिलाना भूल गई थी. अपने घर से मिठाई ला कर वे खुशीखुशी मोहन बाबू के घर आ रही थी, मगर मोहन बाबू और उन की बीवी मालती की आपस में हो रही बहस सुन कर उस के पैर ठिठक कर आंगन में ही रुक गए. जब राधा ने उन की पूरी बात सुनी, तो उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. उसे लगा जैसे उस ने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो. वह चुपचाप उलटे पैर लौट गई. उस की आंखों में आंसू छलक आए थे.
मोहन बाबू सरकारी स्कूल में टीचर थे. तकरीबन 6 महीने पहले ही वे इस गांव में तबादला हो कर आए थे. यह गांव शहर से काफी दूर था, इसलिए मजबूरन उन्होंने यहीं पर मकान किराए पर ले लिया. मोहन बाबू बहुत ही मिलनसार और अच्छे इनसान थे. वे बहुत जल्द ही गांव वालों से घुलमिल गए. गांव का हर आदमी उन की इज्जत करता था, क्योंकि वे छुआछूत, जातपांत वगैरह दकियानूसी बातों को नहीं मानते थे. मोहन बाबू के मकान से कुछ ही दूरी पर राधा एक झोंपड़ीनुमा मकान में रहती थी. उस का लड़का मोहन बाबू के स्कूल में पढ़ता था. राधा थी तो विधवा, मगर मजदूरी कर के वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती थी. उसी पर उस की जिंदगी की सारी उम्मीदें टिकी हुई थीं, इसलिए वह समयसमय पर स्कूल आ कर उस की पढ़ाईलिखाई के बारे में पूछती रहती. उस के बेटे के चलते ही मोहन बाबू की उस से जानपहचान थी.
मोहन बाबू भी राधा के बेटे को चाहते थे, क्योंकि वह पढ़नेलिखने में तेज था, इसलिए वे खुद उस के बेटे पर ज्यादा ध्यान देते थे. राधा जब भी स्कूल आती, उन से ही मिलती और अपने बेटे के बारे में ढेर बातें करती. मोहन बाबू राधा को राधा बहन कह कर ही बात करते थे. उन के लिए तो यह केवल संबोधन ही था, मगर राधा तो सचमुच ही उन्हें अपना भाई समझने लगी थी. तभी तो रक्षाबंधन के दिन बिना कुछ सोचेसमझे उस ने उन्हें राखी बांध दी थी. राधा को अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब उस ने उन की और मालती की आपस में हो रही बातें सुनीं. उस के बाद उस ने मोहन बाबू के घर जाना ही बंद कर दिया. एक बार 2-3 दिन तक मोहन बाबू स्कूल नहीं आए, तो राधा को चिंता होने लगी. मोहन बाबू ने चाहे उसे ऊपरी तौर पर बहन माना था, मगर उस के लिए तो वह रिश्ता दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था. लगातार 2-3 दिनों तक उन का स्कूल न आना राधा के लिए चिंता की बात बन गया.
आखिरकार दिल के आगे मजबूर हो कर राधा मोहन बाबू के घर जा पहुंची. घर का दरवाजा खुला हुआ था. उस ने बाहर से ही दोचार बार आवाज लगाई, मगर जब काफी देर तक अंदर से कोई जवाब न आया, तो वह किसी डर से सिहर उठी.
मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. राधा ने पलंग के पास जा कर आवाज लगाई, ‘‘भैया… भैया…’’ मगर उन्होंने कोई जवाब न दिया. वह घबरा गई और उस ने उन्हें झकझोर दिया. मगर उन्होंने तब भी कोई जवाब नहीं दिया.
उस ने मालती को ढूंढ़ा, मगर वह वहां नहीं थी. अस्पताल वहां से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर शहर में था, इसलिए आननफानन उस ने किसी तरह एक ट्रैक्टर वाले को और कुछ गांव वालों को तैयार किया, फिर वह उन्हें अस्पताल ले गई.
डाक्टर ने मोहन बाबू को चैक कर तुरंत भरती करते हुए कहा, ‘‘अच्छा हुआ, आप लोग इन्हें समय पर ले आए, वरना हम कुछ नहीं कर पाते. यह बुखार बहुत जल्दी कंट्रोल से बाहर हो जाता है.’’
‘‘अब तो मोहन भैया ठीक हो जाएंगे न?’’ राधा ने आंखों में आंसू लाते हुए डाक्टर से पूछा.
‘‘जब तक इन्हें होश नहीं आ जाता, हम कुछ नहीं कह सकते. मगर मेरा मन इतना जरूर कहता है कि आप जैसी बहन के होते हुए इन्हें कुछ नहीं हो सकता,’’ डाक्टर ने मुसकराते हुए कहा. मोहन बाबू पलंग पर चुपचाप लेटे थे. उन की दवादारू लगातार चल रही थी, मगर अभी तक उन्हें होश नहीं आया था. राधा उन के पलंग के पास चुपचाप बैठी थी. रहरह कर न जाने क्यों उस की आंखों से आंसू छलक जाते थे. तकरीबन 12 घंटे बाद मोहन बाबू को होश आया और उन्होंने आंखें खोलीं. मोहन बाबू को होश में आया देख राधा की आंखें खुशी से चमक उठीं. बाकी सभी गांव वाले तो उन्हें भरती करवा कर चले गए थे. बस, राधा ही अकेली उन के पास देखरेख के लिए थी. हां, कुछ लोग उन का हालचाल पूछने के लिए जरूर आतेजाते थे, मगर काफी कम, क्योंकि लोगों को राधा का वहां होना खलता था. दवाएं देने व मोहन बाबू की देखरेख की जिम्मेदारी राधा बखूबी निभा रही थी. समय पर दवाएं देना वह कभी नहीं चूकती थी.
मोहन बाबू के मैले पसीने से सने कपड़े धोने में राधा को जरा भी संकोच न होता. उसे खुद के भोजन का तो ध्यान न रहता, मगर उन्हें डाक्टर की सलाह के मुताबिक भोजन ला कर जरूर खिलाती. मालती मायके गई हुई थी. उसे टैलीग्राम तो कर दिया था, लेकिन उसे आने में 3 दिन लग गए. तीसरे दिन वह घर आ पहुंची. जब मालती अस्पताल आई, तो राधा मोहन बाबू के पलंग के पास बैठी थी. मोहन बाबू खाना खा रहे थे. उसे देखते ही उन के हाथ मानो थम से गए.
मालती को देखते ही राधा उठ खड़ी हुई और उस के पास आ कर बोली, ‘‘भाभी, अब आप अपनी जिम्मेदारी निभाइए.’’
राधा जाने के लिए पलटी, मगर फिर वह एक पल के लिए रुक कर बोली, ‘‘और हां, मैं ने इन्हें अपने घर का खाना नहीं खिलाया है. होटल से ला कर खिलाना तो मेरी मजबूरी थी. हो सके, तो इस के लिए मुझे माफ कर देना.’’ मालती बस हैरान सी खड़ी हो कर उसे जाते हुए देखती रह गई, मगर कुछ बोल नहीं पाई. राधा के इन शब्दों को सुन कर मालती समझ चुकी थी कि शायद राधा रक्षाबंधन पर उस के और मोहन बाबू के बीच हुए झगड़े को सुन चुकी है. कुछ ही दिनों में मोहन बाबू ठीक हो गए और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. मगर राधा उन के घर नहीं आई. बस, वह लोगों से ही उन का हालचाल मालूम कर लिया करती थी. एक दिन अचानक मालती राधा के घर जा पहुंची. राधा कुछ चौंक सी गई.
‘‘बैठने के लिए नहीं कहोगी राधा बहन?’’ मालती ने ही चुप्पी तोड़ी.
‘‘हांहां, बैठो भाभी,’’ राधा ने हिचकिचाते हुए कहा और चारपाई बिछा दी.
‘‘कल भाईदूज है. हमारे यहां तो बहनें इस दिन अपने घर भैयाभाभी को भोजन के लिए बुलाती हैं, क्या तुम्हारे यहां ऐसा रिवाज नहीं है?’’
‘‘है तो, मगर…?’’
‘‘अगरमगर कुछ नहीं. हमें और शर्मिंदा मत करो. हम दोनों कल तुम्हारे यहां खाना खाने आएंगे,’’ मालती ने कुछ शर्मिंदा हो कर कहा.
राधा की आंखें खुशी से नम हो गईं. उसे आज लग रहा था कि मोहन बाबू को भाई बना कर उस ने कोई गलती नहीं की.
विधु

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संतोष चतुर्ववेदी

“लालच बुरी बला है”

एक गांव में एक कुत्ता रहता था। वो हमेशा कुछ न कुछ खाने की फिराक में ही रहता था, क्योंकि वह बहुत लालची था। वह भोजन की तलाश में हमेशा यहां-वहां भटकता रहता था, उसका पेट कभी नहीं भरता था। एक दिन की बात है, वो हमेशा की तरह खाने की तलाश में इधर-उधर घूम रहा था, लेकिन उसे कहीं भी भोजन नहीं मिला। अंत में उसे एक होटल के बाहर एक मांस का एक टुकड़ा दिखाई दिया, उसने झट से उस टुकड़े को मुंह में पकड़ लिया और सोचा कि कहीं एकांत में जाकर मज़े से इसे खाया जाए। वह उसे अकेले में बैठकर खाना चाहता था, इसलिए मांस का टुकड़ा लेकर वहां से जल्दी से जल्दी भाग गया। एकांत जगह की खोज करते-करते वह एक नदी के पास पहुंचा। नदी के किनारे जाकर उसने नदी में झांका, तो अचानक उसने अपनी परछाई नदी में देखी। वो समझ नहीं पाया कि यह उसी की परछाई है, उसे लगा कि पानी में कोई दूसरा कुत्ता है, जिसके मुंह में भी मांस का टुकड़ा है। उस लालची कुत्ते ने सोचा क्यों न इसका टुकड़ा भी छीन लिया जाए। अगर इसका मांस का टुकड़ा भी मिल जाए, तो खाने का मजा दुगुना हो जाएगा। वह उस परछाई पर ज़ोर से भौंका. भौंकने से उसके मुंह में दबा मांस का टुकड़ा नदी में गिर पड़ा। अब वह अपना टुकड़ा भी खो बैठा। उसे तब जाकर समझ में आया कि जिसे वो दूसरा कुत्ता समझ रहा था, वो तो उसकी ख़ुद की परछाई है। उसने ज़्यादा के लालच में, जो था वो भी खो दिया। अब वह बहुत पछताया और मुंह लटकाकर वापस गांव में आ गया।

सीख- लालच बुरी बला है। लालच नहीं करना चाहिए। दूसरों की चीज़ें छीनने का फल बुरा ही होता है। लालच हमारी ख़ुशियां छीन लेता है, इसलिए अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहिए और मेहनत से जो भी हासिल हुआ हो, उसमें संतोष करना चाहिए। अगर लालच करेंगे तो हमारे पास अभी जितना है, उससे भी हाथ धोना पड़ सकता है।