जब बीकानेर के महाराज ने विफल की औरंगजेब की धर्मानंतरण योजना–
“”बात उन दिनों कि है जब राजपूताने के राजा कटक नदी के किनारे एक सम्मेलन में गए थे और औरंगजेब ने राजस्थान के राजाओं को मुस्लिम बनाने का षड्यंत्र रचा और उन्हें बिना सेना के एक जगह बुलाया ताकि जबरदस्ती “मुस्लिम” बनाया जा सके| औरंगजेब का मंसूबा जान राजाओं ने बीकानेर के राजा के नेतृत्व में उस षड्यंत्र को विफल किया””
अपनी लंबी बिमारी की जकड के बाद औरंगजेब का दरबार खचाखच भरा होना लाजमी था और बिमारी की वजह से चेहरे पर शिकनं अलग नजर आ रही थी। जैसे ही औरंगजेब अपने मयूर सिंहासन पर बैठा त्यों ही उसे एक विशेष दूत आता नजर आया। दूत ने दरबारी शिष्टाचार के तहत झुककर सलाम किया तब बादशाह ने गंभीर शब्दो मे पूछा —
कहां से आए हो?
अजमेर से जहाँपनाह!!
और दूसरे ही क्षण उसने अजमेर के सूबेदार का पैगाम बादशाह के हाथ मे थमा दिया। उस पत्र मे कई बाते लिखी हुई थी पर बादशाह की नजरे एक लाईन पर आकर टिक गई जिसको देखकर उसके चेहरे पर कूटनीतिक वाली एक हंसी आ गई। वाक्यांश था कि उदयपुर के महाराणा राजसिंह का देहांत हो गया है और—!! बादशाह की इस हंसी को कुछ चतुर दरबारी समझ गए थे कि पत्र मे जरूर कुछ खास है, और बादशाह थोडी ही देर मे दरबार को बर्खास्त करके अपने कक्ष मे चला जाता है और वो शहरी काजी और सुन्नी प्रतिष्ठित मौलवीयो के साथ गुप्त बैठक करता है और जैसे ही ये मौलवी बाहर निकलते है तो इनके चेहरे से पहले ही कुछ आभास होने वाली प्रसंन्नता नजर आती है।
इस घटना के काफी समय बाद मुगलो की 70 हजार सैनिक कटक नदी के किनारे पडाव डाले हुए थी और ठीक उसके दक्षिण मे राजपूताने के 10 हजार योद्धाओ के साथ राजपूत राजा पडाव डाले हुए थे इसी राजपूताने की सेना मे एक शिविर मे मंद लो वाली रोशनी मे कुछ राजपूत राजा गुप्त मंत्रणा कर रहे थे जैसे कि वो किसी खतरे को पहले ही भांप गए हो और वो वार्तालाप कर रहे थे कि अब तो काबूल या कशमीर की ओर कोई उपद्रव्य भी नही है तो इतनी बडी मुगलो की शाही सेना का यहां क्या काम? इसमे जरूर कुछ बादशाह की गहरी साजिश है —
मुझे तो ये कोई षडयंत्र ही लग रहा है —
हाँ मुझे भी वरना मुसलमानो के 70 हजार शाही सेना के साथ राजपूतों की सिर्फ 10 हजार सेना क्यो भेजी जाती? सभी राजा सोचते है कि ये पहला अवसर है जब हमे इतनी बडी शाही सेना के साथ उत्तर मे भेजा गया! और हमारी सेना को मुगलो के सेनापति के नेतृत्व मे दक्षिण मे भेजा गया। इससे पहले तो ऐसा कभी नही हुआ के राजपूतों का सेनापति किसी मुगल को बनाया हो या फिर राजपूतो को अलग किया हो! हो सकता है हमारे साथ षड्यंत्र हो?
पर हम तो तख्त के वफादार है!
नही ये बादशाह तख्त के वफादार नही समझता हमे इसकी नजरो मे हम काफिर है और वफादार को ये मजहब की डोरी से नापता है इसके लिए गैर मजहब नमकहराम, बईमान और नालायक है जिनको सजा देना ये इस्लाम का सबसे बडा पुण्य का काम मानता है। इतने मे आमेर के राजा रामसिंह ने तंबू मे प्रवेश किया और वो अपने आसन पर बैठे भी नही थे कि एक ने प्रश्न किया–
क्या षडयंत्र का कोई सूत्र पता चला?
षड्यंत्र? कैसा षड्यंत्र? हम तो तख्त के वफादार सिपाही है।
पर ये वफादार सिपाही नही वफादार अनुयायी चाहता है!
“वफादार अनुयायी”?
हाँ मजहबी वफादार अनुयायी! इतना सुनते ही सबके चेहरे के रंग उड गए और एक दूसरे का मुंह ताकने लगे–! पर महाराजा रामसिंह ने आगे बढकर कहना शुरू किया — बादशाह मेरे पिता जयसिंह जी से बहुत भयभीत रहता था उनके होते हुए वो कभी हिन्दू धर्म को क्षति नही पहुंचा सकता था पर उनके स्वर्गवासी होते ही उसने मंदिरो को तुडवाना शुरू कर दिया और बादशाह राजा जशवंत से भी बहुत डरता था इसलिए उनको दूर ही रखता था और उनको विष देकर मरवा दिया और मारवाड खालसा कर लिया और अब वो उनके उत्तराधिकारी और कुटुंब को इस्लाम कबूल करवाने पर तुला है क्योकी मंदिर तोडने से सभी को इस्लाम नही कबूल करवाया जा सकता पर अगर राजा या उत्तराधिकारी को इस्लाम कबूल करवा दे तो पूरी प्रजा खुद इस्लाम कबूल कर लेगी और हिन्दू धर्म नष्ट हो जाएगा और इस काम,मे उनके बांधक महाराणा राजसिंह जी थे वो नही रहे तो अब वो हम सबको परसो जुम्मे के दिन ही बनाना चाहता है —
और परसो को हमारे मुंह मे गाय का मांस और मौलवी के थूक को ठूसकर हमे कलमा पढाया जाएगा हमारी सुन्नत की जाएगी!!
ऐसे कैसे हो सकता है क्या मुगल राजपूतो की तलवारो के जौहर से अभी भी अनभिज्ञ है? क्या वो भूल गए है कि हम 10 हजार उनका कितना भयानक नुकसान कर सकते है!
क्या आपको नही पता के उस पार से पहले नाव यहां से वहां हमे ले जाने के लिए आएंगी फिर हम वहां अकेले 70 हजार के बीच मे होंगे पर हमे अपनी तलवारो और भुजाओ पर विश्वास है पर हमे थोडा बुद्धि से काम लेना है और माँ भवानी का नाम लेकर आगे की रणनीति अपनानी है सब सहमत हो गए।
अगले दिन प्रात: सभी राजपूत सलाह करते है और कहते है कि सबसे पहलेे हम नदी पार करेगें क्योकी हर युद्ध मे राजपूत आगे होता है मुसलमानो से हर खतरे से टकराने के लिए हमे आगे किया जाता है इसलिए नदी भी हम ही पार करेगें।
ये सुनकर मुसलमान जल जाते है इसमे उनका अपना उपहास नजर आता है पर दूसरी ओर राजपूत अपनी हठ ठान बैठे थे इस पेचिदा स्थिति के सामने मुसलमानो ने राजपूतों की बात मान ली और वो नदी के पार चले गए अब वो ही नाव पहले राजाओं को उस पार लेने आई पर उन्होने कहा के आमेर की माजी साहिबा का देहांत हो चुका है अत: हम यही पर शौक मनाएगे 12 दिन, और 12 दिनो तक दोनो सेनाए आमने सामने पडाव डालकर रही तेहरवे दिन कटक नदी के दक्षिण पर एक सुसज्जित सिहांसन था और उस पर एक राजा विराजमान था सब राजाओं ने मिलकर उसका तिलक किया और “जय जंगलधर बादशाह” की जयघोष की।
दूसरी ओर मुगल सेना चकित होकर देख रही थी कि ये किसका राजतिलक हो रहा है।
और दूसरी ओर जैसे ही नाव राजपूतो को लेने आई तैसे ही उन्होने सारी नाव ध्वस्त कर डाली और नदी के तीव्र बहाव के कारण मुगल सेना उनके पास आ नही सकी और वो दूर से ही अपने गुस्से को पीते रहे सब नावों को तोड़ देने के बाद सब राजा लोग अपनी अपनी राजधानियों को लौट गए | सबका अनुमान था कि अब बीकानेर के महाराजा करणसिंह जी को शाही क्रोधाग्नि का शिकार होना पड़ेगा | उन्हें जय जंगलधर बादशाह बनने का भयंकर मूल्य चुकाना पड़ेगा | इस पहल और सेनापतित्व के लिए उन्हें अब सीधे रूप से मुगलिया शक्ति से टक्कर लेनी पड़ेगी |
जब यह संवाद बादशाह औरंगजेब के पास पहुंचा, तब वह अपनी योजना के विफल होने पर बहुत अधिक झल्लाया और क्रोधित हुआ | राजाओं के इस प्रकार बच निकल जाने पर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ | पर उसने जब निर्जल बालुकामय बीकानेर के विकट मरुस्थल की और ध्यान दिया तो एक विवशता भरी नि:श्वास छोड़ दी | मारवाड़ के राठौड़ों द्वारा प्रदर्शित तलवार की शक्ति को याद कर वह सहम गया | महाराजा करणसिंह की रोद्र मूर्ति और बलिष्ठ भुजाओं का स्मरण कर वह भयभीत हो गया | उसने केवल इतनी ही आज्ञा दी –
” इस सब घटना को शाही रोजनामचे में से निकाल दो और तवारीख में भी कहीं मत आने दो |” परन्तु बीकानेर और राजपूताने आदि की इतिहास से नहीं हटवा सका औरंगज़ेब
किन्तु उस दिन से बीकानेर के केसरिया-कसूमल ध्वज पर सदैव के लिए अंकित हो गया –
” जय जंगलधर बादशाह |”