अरब के लुटेरों द्वारा भारत पर आक्रमण व भारत मे इस्लाम धर्म का आगमन (एक श्रंखला) भाग-4. -:
गतांक से आगे :- अपने अत्याचारी अभियान को जारी रखते हुये कासिम एक असुरक्षित बिसय (जिला) के प्रमुख नगर पर टूट पङा। इसका प्रमुख मुख्या (मुखिया) कहलाता था। उसे परिवार सहित, अन्य मुखियों के हाथ पैर बांध कर कासिम के सामने पेश किया गया। इस्लाम के कोङे मार-मार कर, अमानवीय यातनायें देकर पहले उन्हें मुसलमान बनाया गया, फिर कासिम का सहयोग करने के लिये विवश किया गया। अब वे हिंदुओं के शत्रु तथा अपने ही राजा दाहीर के विरोध में खङे थे। बिसय मुखिया को कासिम नें बैत का राजा घोषित कर दिया। बैत दाहीर की राज्य सीमा में था। यही अरबों की युद्ध कला थी, एक हिंदु को दुसरे हिंदु से लङा कर कायर का पक्ष ले लो, उसे इस्लाम का मददगार घोषित करो। सबसे पहले उसे तलवार की नोंक पर मुसलमान बना लो। जीत की सारी भूमी उसे उपहार में देनें का लालच दो, नीच से नीच कुकर्मं करने में उसकी पीठ पर रहो, इस प्रकार हिंदुओं को आपस में लङा कर मार डालो और इसका फायदा होता था इन विदेशी अपहरणकारी मुसलमानों का। वे धर्म परिवर्तित मुसलमानों को बहला फुसला कर छ्ल कपट से जीती हुई जमीन का बङा भू-भाग अपने अधिकार में कर लेते थे। पहले या बाद में, मुस्लिम सहायक को हर हाल में मुसलमान बनना पङता था। दुसरे के पद, अधिकार और राज्य को अनाधिकारी हिंदु का घोषित कर हिंदु को हिंदु के विरोध में खङा करने की नीती का पालन अकबर, औरंगजेब, शाहजहाँ आदि सभी मुसलमान शासकों ने समान रूप से किया। अब बिसय मुखिया और इस्लाम का एक ही ध्येय और लक्ष्य हो गया। इसीलिये उसे मोर के चित्र वाला छ्त्र, एक लाख दीरहाम, एक आसन और एक सम्मानित परिधान दिया गया। ठाकुरों को सम्मानित परिधान और सजे-सजाये घोङे दिये गये। इस प्रकार हिंदुओं को घूस देकर, हिंदु नाविकों को डरा धमका कर उन्होनें सिंधु नदी पार की। देवालयपुर (करांची) के पतन के बाद बंदरगाह, दुर्ग स्थित मंदिर एवं वहां का शासक तीनों कासिम के चंगुल में फंस गये। वहां के शासक को मार-मार कर मुसलमान बनाया गया था। कुछ ही दिनों में वह एक पक्का उद्ध्र्ष्ट मुसलमान बन गया। उसने अपना नाम मौलाना इस्लाम रख लिया था। भयंकर कट्टरता में उसनें कासिम के कुछ लुटेरों को भी मात दे दी। उस पर कासिम को पुरा विश्वास हो गया था। कासिम ने इसे एक सीरियन के साथ दूत बना कर दाहीर के पास भेजा। दाहीर के दरबार में वह अपनें भूत-पुर्व राजा के सामने झुका तक नहीं। अब वह एक विदेशी मौलाना इस्लामी जो हो गया था। उसने अपने धर्म से ही नहीं सामान्य शिष्टाचार से भी हाथ धो लिये थे। दाहीर नें इस नये अर्धचंद्री मौलाना को दुत्कार दिया। इन्होनें दाहीर के समर्पण की मांग की थी। हज्जाज की बुरी नज़र दाहीर के अंत:पुर में भी थी। कासीम पर वह बङी आस लगाये बैठा था। उसने कासिम की सहायता के लिये लुटेरों की एक और टुकङी भेजी। कासिम नें सिंधु पुल के दुसरे छोर की निगरानी के लिये नीरुन में बनाये गये नये मुसलमान, बिसय मुखिया,मुसाब,भट्टी ठाकुर, धर्म त्यागी और अफगान जाटों को नियुक्त किया ताकि दाहीर का पुत्र अपनें किले से दाहीर की सहायता के लिये ना आ सके। इधर कासिम ने सिंधु पर नावों का बेङा बनाने की कोशीश की। पर हर बार दाहीर की सेना नें बाणों,पत्थरों और आग के गोलों की वर्षा कर उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। बार बार असफल होनें पर कासिम ने दुसरा तरीका अपनाया। सिंधु के पाट (बहाव क्षेत्र) जितना बेङा उसनें अपनी और नदी के किनारे बना लिया और फिर नदी की धारा में बहा दिया। तरकीब काम कर गई। झट-पट दुसरे किनारे कीलें ठोक कर नावों का पुल बना लिया गया। घमासान लङाई छिङ गई। सैनिकों की संख्या कम होने के कारण दाहीर को पिछे हट कर किले में शरण लेनी पङी। इधर दाहीर का एक मंत्री भयभित हो उठा। उसने दाहीर को संधि करने की सलाह दी। इस कायरता पुर्ण उपदेश पर दाहीर सिंह की तरह दहाङ उठे। उसने सारे क्षेत्र को युद्ध भूमी मे बदल दिया। अपनी मातृभूमी की रक्षा के समय कायरता दिखाने वाले मंत्री का सिर काट दिया। जंगली चीतों से घिरे अकेले हाथी की तरह दाहीर जुझ रहा था। उसकी अपनी ही सेना और प्रजा सामुहिक रूप से मुसलमान बनाये जा रहे थे। नये धर्म के नियमों ने उन्हें रातों रात देशद्रोही बना दिया था। कासिम बैत के किले की और बढा। यहाँ दाहीर के दो पुत्र जयसिम्हा और फूफी थे। किले से सुरक्षित दूरी पर खाई खोद कर कासिम ने अपना धन रखवा दिया। दाहीर का नदी रक्षक पकङा गया था। कासिम की यातनाओं नेंं उसे भी मुसलमान बना दिया था। अब वह कासिम के लुटेरों का मार्ग-दर्शक था। बैत दुर्ग से कासिम रावर के किले की ओर बढा। रास्ते में उसनें जयपुर में भयंकर तबाही का खेल खेला। मंदिरों और लोगों को मुसलमान बना, स्त्रियों और बच्चों को गुलाम तथा बाकियों को काट कर फेंक दिया। जयपुर के मध्य में एक सरोवर था। यहाँ कासिम की जनरक्षक टुकङी थी। दुश्मनों की गतिविधियों की जानकारी देना इसका काम था। अपनी मुख्य सेना के साथ दाहीर सरोवर के दुसरी ओर काजीतात में था। नये मुसलमान रासिल की निगरानी में उन्होनें तीन मार्गों से घुसने का प्रयास किया। काजीतात के पिछे हिंदवादी बसा था। इसे अधिकार मे लेने की सलाह उसने कासिम को दी। कासिम के पहुंचने के साथ ही हिंद्वादी मुस्लिमवादी हो गया। सदा की भांति लूट, हत्या, बलात्कार का बाजार गर्म हो उठा। अब कासिम का विशाल गिरोह दो भागों में बंटा हुआ था। एक भाग वाधवा नदी स्थित जयपुर में तथा दुसरा भाग हिंदवादी मे था। बीच काजीतात में फंसे थे दाहीर। सामरिक महत्व के सभी मार्गों पर कासिम की हैवान सेना का आतंक छाया हुआ था। जिसके लिये न्याय, धर्म और इन्सानिया का कोई मतलब नहीं था। लूट,बलात्कार के नीच से नीच कुकर्म भी इसके लिये महान, आदरणी और अनुकरणीय थे। संकट की इस घङी में दाहीर का एक और मंत्री भयभीत हो उठा। दाहीर नें उसे याद दिलाया कि राजा और मंत्री शांतिकाल में विशेष सुविधा एवं अधिकार प्राप्त प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं, सिर्फ इसलिये कि वे अपनें देश, सभ्यता,धर्म की रक्षा के लिये दुश्मन के साथ लङाई में अपनी जान देने को तत्पर रहें। यह बङे अपमान की बात है कि तुम शांति संधि की बात करते हो। यह कैसी शांति होगी जबकी तुम्हारे मंदिरों को मस्जिद बना देंगे और तुम्हे मुसलमान बना कर तुम्हारा हिंदुत्व मिटा देंगेंं। निर्णायक युद्ध में दाहीर ने अपने सभी आश्रितों, स्त्रियों, बच्चों को रावर के किले में भेज दिया। कासिम की सेना से कुछ ही दूर अपना खेमा गाङ दिया। पांच दिन तक घमासान युद्ध होता रहा। एक के बाद एक कासिम की सेना आती रही और दाहीर की सेना उसे मसलती रही। समय था जुन 712 ई॰ का और स्थान था बधवा और सिंधु का मध्य भाग। कासिम ने जीत के लिये सब तरकीब अपनाई। हिंदु सेना को पथ-भ्र्ष्ट करनें और बहकाने स्त्रियों को मार मार कर राजी किया गया। एक अरबी इतिहासकार के अनुसार जब इस्लाम की सेना ने धावा बोला तो अधिकांश काफिर मार डाले गये। एकाएक सेना के बाईं और कोलाहल होने लगा। दाहीर ने सोचा कि यह शोर उसकी अपनी सेना में हो रहा है। उसने जोरों से चीख कर कहा इधर आओ मै यहाँ हुँ। तब स्त्रियों ने अपनी बुलंद आवाज मे कहा- हे राजा हम आपकी प्रजा हैं, हम इन अरबों के चंगुल में फंस गई हैं, इन्होनें ने हमें बंदी बना लिया है। दाहीर दहाङ उठे और कहा मेरे जीवीत रहते किस में हिम्मत है जो तुम्हें बंदी बना सके, और अपना हाथी मुसलमान सेना की और हाँक दिया। कासिम नें आग के गोले फेंकने वाले से कहा अब तुम्हारी बारी है। एक शक्तिशाली विक्षेपक नें आदेश पा कर दाहीर के हौंदे पर आग का गोला फेंक दिया। हौंदे में आग लग गई। हाथी पानी की ओर भागा। बाणों की वर्षा,मुसलमानी तलवारबाजों के नरसन्हार से सुरक्षार्थ अंग-रक्षकों नें दाहीर के चारों तरफ एक घेरा डाल दिया। महावत नें किसी प्रकार आग बुझाई और हाथी को वश में कर के एक बार फिर उसे शत्रु की सेना की ओर हाँका। दाहीर हाथी से उतर कर घोङे पर सवार हो भयानक तरीके से तलवार चलाते हुये शत्रु सेना को चीर कर अंदर पहुँच गये। सहायकों से दूर, चारों तरफ से अरबी नर-पिशाचों से घिरे दाहीर नें शत्रु सेना का भारी नुकसान किया। राजा दाहीर अब थक कर चूर हो गये थे। उनके प्रत्येक अंग से खुन बह रहा था। आखिरकार वीर शिरोमणी दाहीर समर-भूमी में सो गये। 712 ई॰ जुन महीनें के बृहस्पतिवार को सुर्यास्त के समय हिंदुत्व का गौरवशाली, तेजस्वी सुर्य अपनी पुर्ण गरिमा के साथ सिंधु के पावन तट पर अस्त हो गया। भारत नें अपनें एक साहसी पुत्र को खो दिया। 75 वर्षों से निरंतर अरबी घुसपैठ का यह परिणाम था। हमेंशा लोगों नें यही सोचा- जरा सी जमीन ही तो गई है, थोङे से मंदिर ही तो मस्जिद बनें हैं, कुछ हजार लोग ही तो मुसलमान बनें हैं। इस जरा, थोङे, कुछ की शांत सहशीलता का पालन पोषण ही हमारी एक भयंकर और घातक भूल थी।
शेष अगली पोस्ट में…………….