Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक गांव में एक बड़ा धनवान आदमी रहता था। उसके पास एक प्राचीन स्वर्ण पात्र था। वह सोचता था कि जब कोई महत्वपूर्ण मौका आएगा, तब उसे निकालेगा। एक बार उसके यहां राज्य का एक मंत्री आया। तब उसने सोचा महज एक मंत्री के लिए इसे निकालूं? किसी बड़े आदमी के सामने उसे निकालूंगा। अगली बार उसके यहां एक संत पधारे तो उसने सोचा भला संत इसकी कद्र क्या जानेंगे? एक बार उसके यहां राजा आया। उसने राजा के साथ भोजन किया, किंतु उसे लगा कि वह पात्र राजा की तुलना में अधिक गौरवप्रद है। जब उसके बच्चों की शादी हुई तब भी उसने वह स्वर्ण पात्र नहीं निकाला। दिन गुजरते गए व एक दिन उसकी मौत हो गई। उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। तेरहवीं के बाद साफ-सफाई की गई तो वह पात्र अन्य सामान के साथ मिला। वर्षों से पड़े रहने के कारण वह गंदा हो गया था। लगता ही नहीं था कि स्वर्ण पात्र है। बच्चों ने काम की चीजें निकाल कर पास रख ली व वह पात्र नौकरों को भोजन करने को दे दिया।
इसीलिए मूल्य या महत्व की दृष्टि से मूल्यवान चीजों का यथा अवसर उपयोग कर लेना चाहिए।

संजय गुप्ता

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जो लड़किया कम कपड़े पहनती है, उनके लिये एक पिता की ओर से समर्पित :-

एक लड़की- को उसके पिता ने iphone गिफ्ट किया..

दूसरे दिन पिता ने लड़की से पुछा, बेटी iphone मिलने के बाद सबसे पहले तुमने क्या किया?

लड़की :- मैंने स्क्रेच गार्ड और कवर का आर्डर दिया…

पिता :- तुम्हें ऐसा करने के लिये किसी ने बाध्य किया क्या?

लड़की :- नहीं किसी ने नहीं।

पिता :- तुम्हें ऐसा नही लगता कि तुमने iPhone निर्माता की बेइज्जती की हैं?

बेटी :- नहीं बल्कि निर्माता ने स्वयं कवर व स्क्रेच गार्ड लगाने के लिये सलाह दी है…

पिता :- अच्छा तब तो iphone खुद ही दिखने मे खराब दिखता होगा, तभी तुमने उसके लिये कवर मंगवाया है?

लड़की :- नहीं, बल्कि वो खराब ना हो इसीलिये कवर मंगवाया है..

पिता :- कवर लगाने से उसकी सुन्दरता में कमी आई क्या?

लड़की :- नहीं, इसके विपरीत कवर लगाने के बाद iPhone ज्यादा सुन्दर दिखता है..

पिता ने बेटी की ओर स्नेह से देखते कहा….
बेटी iPhone से भी ज्यादा कीमती और सुन्दर तुम्हारा शरीर है और इस घर की और हमारी इज्जत हो तुम,
उसके अंगों को कपड़ों से कवर करने पर उसकी सुन्दरता और निखरेगी…

बेटी के पास पिता की इस बात का कोई जवाब नहीं था, सिर्फ आँखों में आँशुओं के अलावा ।

लड़कियों से नम्र निवेदन-भारतीय संस्कृति, संस्कार ओर अस्मिता को बनाए रखे।।
बहूत मेहनत से लिखा है उमीद्व हॆ आपको
पसंद आया होगा

संजय गुप्ता

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#बूढ़ेआदमीकीमानवताएकबारअवश्य_पढ़े…

एक बार एक बूढ़े आदमी के अंगूठे में चोट लग गई थी तो वे चोट को ठीक कराने अस्पताल पहुंचे । लेकिन डॉक्टर के वहाँ बहुत भीड़ लगी थी । वे भीड़ को चीरते हुए डॉक्टर के पास पहुंचे और उनसे निवेदन करते हुए बोले- मै बड़ी जल्दी में हूँ , आप पहले मुझे देख ले । वे बार -बार घडी को देख रहे थे.

सर आप इतनी जल्दी में क्यों हो. क्या आपका किसी अन्य डॉक्टर से अपॉइटमेंट है ? डॉक्टर ने पूछा । बूढ़े आदमी ने बताया की कुछ दूर नर्सिंग रूम में बहुत दिनों से उनकी वाइफ भर्ती है । वे रोज उनके साथ नाश्ता करते है.

डॉक्टर मुस्कराते हुए बोले -अच्छा। ये बात है. इसीलिए आप जल्दी कर रहे हो,क्योंकि देर से पहुंचने पर आपकी पत्नी आपसे नाराज हो जाएगी ।

तब बूढ़ा आदमी बोला – वह अल्जाइमर की मरीज है और वह किसी को नहीं पहचानती और पिछले पांच सालो से वह मुझे भी नहीं पहचानती.

तब डॉक्टर बोला -फिर भी आप रोज उनके साथ नाश्ता करने जाते है,ये जानते हुए भी की वो आपको पहचानती तक नहीं.

बूढ़े आदमी मुस्कराये और डॉक्टर से बोले – वह मुझे नहीं पहचानती तो क्या हुआ,पर मै तो यह जानता हूँ न की वह कौन है ?

दोस्तों ! हमें इस कहानी से यह जरूर सीखना चाहिए की कई बार हमारे लाइफ में भी ऐसे कई मौके आते है जहाँ पर हमारी मानवता का इम्तिहान होता है। इसलिए हमे बिना स्वार्थ के अपने दायित्वों को निभाना चाहिए ये मानवता के लिए बहुत जरुरी है।

संजय गुप्ता

Posted in संस्कृत साहित्य

जानिए स्वस्तिक का लाभ, उपाय, प्रभाव और महत्त्व!!!!!

किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है। मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है। स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है।

स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना। अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।विवाह, मुंडन, संतान के जन्म और पूजा पाठ के विशेष अवसरों पर स्वस्तिक का चिन्ह बनता है।

यही कारण है कि किसी भी शुभ कार्य के दौरान स्वास्तिक को पूजना अति आवश्यक माना गया है। लेकिन असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है, इसके पीछे ढेरों तथ्य हैं। स्वास्तिक में चार प्रकार की रेखाएं होती हैं, जिनका आकार एक समान होता है।

मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं। लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं। कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।

इसके अलावा इन चार रेखाओं की चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार लोक और चार देवों यानी कि भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश (भगवान शिव) और गणेश से तुलना की गई है। स्वास्तिक की चार रेखाओं को जोड़ने के बाद मध्य में बने बिंदु को भी विभिन्न मान्यताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है।

मान्यता है कि यदि स्वास्तिक की चार रेखाओं को भगवान ब्रह्मा के चार सिरों के समान माना गया है, तो फलस्वरूप मध्य में मौजूद बिंदु भगवान विष्णु की नाभि है, जिसमें से भगवान ब्रह्मा प्रकट होते हैं। इसके अलावा यह मध्य भाग संसार के एक धुर से शुरू होने की ओर भी इशारा करता है।

स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।हिन्दू धर्म के अलावा स्वास्तिक का और भी कई धर्मों में महत्व है।

बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।

से तो हिन्दू धर्म में ही स्वास्तिक के प्रयोग को सबसे उच्च माना गया है लेकिन हिन्दू धर्म से भी ऊपर यदि स्वास्तिक ने कहीं मान्यता हासिल की है तो वह है जैन धर्म। हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है।

जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।

केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है? भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।

लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं।

वैज्ञानिकों ने तूफान, बरसात, जमीन के अंदर पानी, तेल के कुएँ आदि की जानकारी के लिए कई यंत्रों का निर्माण किया। इन यंत्रों से प्राप्त जानकारियाँ पूर्णतः सत्य एवं पूर्णतः असत्य नहीं होतीं। जर्मन और फ्रांस ने यंत्रों का आविष्कार किया है, जो हमें ऊर्जाओं की जानकारी देता है। उस यंत्र का नाम बोविस है। इस यंत्र से स्वस्तिक की ऊर्जाओं का अध्ययन किया जा रहा है।

वैज्ञानिकों ने उसकी जानकारी विश्व को देने का प्रयास किया है। विधिवत पूर्ण आकार सहित बनाए गए एक स्वस्तिक में करीब 1 लाख बोविस ऊर्जाएँ रहती हैं। जानकारियाँ बड़ी अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है।

स्वस्तिक का महत्व सभी धर्मों में बताया गया है। इसे विभिन्न देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। चार हजार साल पहले सिंधु घाटी की सभ्यताओं में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं। बौद्ध धर्म में स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध के हृदय स्थल पर दिखाया गया है। मध्य एशिया देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य सूचक माना जाता है।

शरीर की बाहरी शुद्धि करके शुद्ध वस्त्रों को धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए (जिस दिन स्वस्तिक बनाएँ) पवित्र भावनाओं से नौ अंगुल का स्वस्तिक 90 डिग्री के एंगल में सभी भुजाओं को बराबर रखते हुए बनाएँ।

केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल के मिश्रण से अनामिका अंगुली से ब्रह्म मुहूर्त में विधिवत बनाने पर उस घर के वातावरण में कुछ समय के लिए अच्छा परिवर्तन महसूस किया जा सकता है।भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है भवन या फ्लैट के मुख्य द्वार पर एवं हर रूम के द्वार पर अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जाओं का आगमन होता है

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सत्संग का महत्व🙏🏾🙏🏾🙏🏾🙏🏾

एक युवक प्रतिदिन संत का सत्संग सुनता था। एक दिन जब सत्संग समाप्त हो गए, तो वह संत के पास गया और बोला, ‘महाराज! मैं काफी दिनों से आपके सत्संग सुन रहा हूं, किंतु यहां से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहां से सुनकर जाता हूं। इससे सत्संग के महत्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए, मैं क्या करूं?’
संत ने युवक को बांस की एक टोकरी देते हुए उसमें पानी भरकर लाने के लिए कहा। युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा। संत ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतििदन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद संत ने उससेे पूछा, ‘इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई फर्क नजर आया?’
युवक बोला. ‘एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, अब वह साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।’ तब संत ने उसे समझाया, ‘यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे, तो कुछ ही दिनों में ये छेद फूलकर बंद हो जाएंगे और टोकरी में पानी भर पाओगे।
सन्तमत विचार-इसी प्रकार जो लगातर सत्संग जाते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और गुणों का जल भरने लगता है।

इसलिए सत्संग लगातार जारी रखियेगा कभी तो हमारे में भी पानी भरा जा सकेगा..🙏🏾🙏🏾🙏🏾🙏🏾

संजय गुप्ता

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प्रेरक प्रसंग

जाऊँ कहाँ तजि चरण तुम्हारे

  हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के बाईस शिष्य थे ।  उनमें से हर एक की इच्छा थी कि उनकी गद्दी का वारिस वही बने ।  एक दिन हज़रत उन सब को सैर कराने ले गये ।  घूमते-घूमते वे एक गन्दी बस्ती में गये ।  शिष्य सोचने लगे कि उन्हें इस गन्दी बस्ती में क्यों लाया गया है ?  इतने में हजरत ने कहा,  "यहीं रूको, मुझे जरा उपर कुछ काम है ।"  और वे उपर चले गये ।
  एक वेश्या ने उन्हें उपर आया देख हाथ जोड़कर उनसे कहा,  "मेरे तो धन्य भाग हैं, जो एक पीर आज मेरे द्वार पर आये हैं ।"  तब हजरत ने उससे कहा,  "मैं एकान्त चाहता हूँ ।  मेरे लिए एक अलग कमरे में दाल-रोटी और एक बोतल शरबत का प्रबन्ध करो ।"
  थोड़ी ही देर में जब नौकर ये सारी चीजें ढककर ऊपर ले जाने लगा, तो शिष्य आपस में बात करने लगे ___ "आज तो पीर की पीरी निकल गयी ।  अब ऊपर शराब-कबाब खूब उड़ेगा ।"  और वे सब एक-एक कर वहाँ से निकल गये । केवल अमीर खुसरो बच गये और वे गुरु का इन्तजार करने लगे ।
  नौकर ने जब खाना रखा, तो निज़ामुद्दीन बोले,  "मुझे नहीं खाना है, तुम्हीं खा लो ।" और वे नीचे आये ।  देखा तो केवल खुसरो को खड़ा पाया ।  उन्होंने पूछा,  "तुम नहीं गये ?"  खुसरो ने जवाब दिया,  "हज़रत, मैं कहाँ जाता ?"  आपकी नामौजूदगी में कोई जगह ही नहीं दिखाई दी, सो यहीं खड़ा रहा ।"
  हज़रत ने उन्हें गले लगाया और उन्हें ही गद्दी सौंप दी ।

अनूप सिन्हा

Posted in ज्योतिष - Astrology

महाविद्या धूमावती के मन्त्रों से बड़े से बड़े दुखों का नाश होता है।
१- देवी माँ का महामंत्र है-
धूं धूं धूमावती ठ: ठ:
इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-
1. राई में सेंधा नमक मिला कर होम करने से बड़े से बड़ा शत्रु भी समूल रूप से नष्ट हो जाता है
2. नीम की पत्तियों सहित घी का होम करने से लम्बे समस से चला आ रहा ऋण नष्ट होता है
3. जटामांसी और कालीमिर्च से होम करने पर काल्सर्पादी दोष नष्ट होते हैं व क्रूर ग्रह भी नष्ट होते हैं
4. रक्तचंदन घिस कर शहद में मिला लेँ व जौ से मिश्रित कर होम करें तो दुर्भाग्यशाली मनुष्य का भाग्य भी चमक उठता है
5. गुड व गाने से होम करने पर गरीबी सदा के लिए दूर होती है
6 . केवल काली मिर्च से होम करने पर कारागार में फसा व्यक्ति मुक्त हो जाता है
7 . मीठी रोटी व घी से होम करने पर बड़े से बड़ा संकट व बड़े से बड़ा रोग अति शीग्र नष्ट होता है
२- धूमावती गायत्री मंत्र:-
ओम धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात।
वाराही विद्या में इन्हे धूम्रवाराही कहा गया है जो शत्रुओं के मारन और उच्चाटन में प्रयोग की जाती है।
3. धूमावती के साबर मन्त्र :-
ॐ पाताल निरंजन निराकार,
आकाश मण्डल धुन्धुकार,
आकाश दिशा से कौन आई,
कौन रथ कौन असवार,
आकाश दिशा से धूमावन्ती आई ,
काक ध्वजा का रथ असवार ,
थरै धरत्री थरै आकाश,
विधवा रुप लम्बे हाथ,
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव,
डमरु बाजे भद्रकाली,
क्लेश कलह कालरात्रि ,
डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी ,
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते
जाया जीया आकाश तेरा होये ,
धूमावन्तीपुरी में वास,
न होती देवी न देव ,
तहा न होती पूजा न पाती
तहा न होती जात न जाती ,
तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ ,
आप भयी अतीत
ॐ धूं धूं धूमावती फट स्वाहा ।
विशेष पूजा सामग्रियां-
पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है
सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं , केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल , मेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें।
सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें
दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें।
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध-
बिना गुरु दीक्षा के इनकी साधना कदापि न करें। थोड़ी सी भी चूक होने पर विपरीत फल प्राप्त होगा और पारिवारिक कलह दरिद्र का शिकार होंगे।

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राधा रानी जी का अपने भक्तों के लिए प्रेम
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#बहुतमनभावनप्रसंग,💕💚💕 #बड़ेभावसे_पढ़े💕💚💕

तीन साधु थे, राधा रानी जी के बरसाना जा कर राधा रानी जी से मिलने की बहुत इच्छा थी, ऐसा सोच वे साधु यात्रा पर चल दिए।

उनमें एक साधु जिनकी उम्र दोनों साधु से ज्यादा थी, वो वृद्ध थे, उन्होंने कहा “भई हम इस गाँव के बाहर मन्दिर में आसन लगा के यहां रहेगे” तुम तो जवान हो, तुम भले जाओ।

ऐसा सुन कर दोनों साधु आगे चले गए। चलते चलते संध्या हो गयी दोनों साधुओं ने सोचा अब बरसाना आ रहा है, राधा रानी जी का गाँव, क्या करेंगे ? मांगेगे कहाँ ?

साधु दूसरे साधु से बोले,मांगना कहाँ हैं, हम तो राधारानी जी के मेहमान है, खिलाएगी तो खा लेगे नहीं तो मन्दिर में आरती के समय कहीं कुछ प्रसाद मिलेगा वो ही खा के पानी पिलेगें।

साधुओं ने मजाक मजाक में ऐसा कहा और वो साधु पहुंच गये बरसाना और बरसाना में तो आरती हुई, मन्दिर में उत्सव भी हुआ था।

साधु बाबा बोले मांगेगे तो नहीं राधारानी जी के मेहमान है। ऐसे कह कर साधु सो गये।

रात्रि में 11 बजे राधारानी जी के पुजारी को राधारानी जी ने ऐसा जगाया, राधा रानी बोली ” मेहमान हमारे भूखे हैं, तुम सो रहे हो।

“अरे भाई मेहमान कौन है”?

राधा रानी जी बोली दो साधु हैं।बड़ी दूर से आए हैं।

पुजारी के तो होश हवास उड़ गये, पुजारी उठे, सोये साधुओं को उठाया” तुम ” तुम राधारानी के मेहमान हो क्या ? साधु बोले ” नहीं हम तो ऐसे ही।

पुजारी बोले” नहीं आप बैठो” हाथ – पैर धोये पत्तले लाये और अच्छे से अच्छा जो मन्दिर का प्रसाद था, उत्सव का प्रसाद था, जो भी था, लड्डू, रसगुल्ले, खीर बस टनाटन पक्की रसोई जिमाई।

वो साधु थोड़ा टहल के बोले, राधा रानी जी हमने तो मजाक में कहा था आपने सचमुच में हमको मेहमान बना लिया माँ” हे राधे मैया….

साधु राधारानी जी का चिन्तन करते करते सो गये, दोनों साधुओं को एक जैसा सपना आया।

सपने में वो 12 साल की राधारानी बोलतीं है….

साधु बाबा भोजन तो कर लिया आपने, तृप्त तो हो गये, भूख तो मिट गयी ? भोजन तो अच्छा रहा ? बोले” हाँ,

भोजन, जल आपको सुखद लगे ? बोले”हाँ,

अब कोई और आवश्यकता है क्या ? बोले नहीं नहीं राधा मैया,,,,,,

राधारानी जी बोलीं ” देखो वो पुजारी डरा-डरा तुमको भोजन तो कराया लेकिन मेरा पान बीडे का प्रसाद देना भूल गया,

लो ये मैं पान बीडा देती हूँ आपको। ऐसा कहकर उनके सिरहाने पर रखा।

सपने में देख रहे हैं के राधारानी जी सिरहाने पर पान बीडा रख रही है।ऐसे ही उनकी आँख खुल गई।

देखा तो सचमुच में पान बीड़ा सिरहाने पर है दोनों साधुओं के। दोनों साधु राधा रानी जी का धन्यवाद किया और भावविभोर आंखों मैं अश्रु बह रहे हैं।

मेरी राधा प्यारी की कृपा का क्या कहना..

कर लो भजन राधा रानी का,भरोसा नही है जिंदगानी का जग मे मीठा कुछ भी नही,मीठा है नाम बस राधा रानी का

जिसने राधा रानी जी के प्यार को जीत लिया समझो उसने श्रीकृष्ण जी को भी जीत लिया…

🌺🌷जय जय श्री राधे राधे जी🌷🌺
🌹🌹बोलो वृन्दावन बिहारी लाल जी की जय हो🌹🌹

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🙏🙏🙏🌷प्रार्थना हृदय की सुवाष है 💐💐🙏

रामकृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक शूद्र महिला ने, रानी रासमणि ने मंदिर बनवाया। चूंकि वह शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी न हुआ। हालांकि रासमणि खुद भी कभी मंदिर में अंदर नहीं गई थी, क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाए! यह तो ब्राह्मण होने का लक्षण हुआ। जो अपने को शूद्र समझे, वह ब्राह्मण। जो अपने को ब्राह्मण समझे, वह शूद्र।
रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गई, भीतर भी नहीं गई, बाहर-बाहर से घूम आती थी। दक्षिणेश्वर का विशाल मंदिर उसने बनाया था, लेकिन कोई पुजारी न मिलता था। और रासमणि शूद्र थी, इसलिए वह खुद पूजा न कर सकती थी। मंदिर क्या बिना पूजा के रह जाएगा? वह बड़ी दुखी थी, बड़ी पीड़ित थी। रोती थी, चिल्लाती थी–कि कोई पुजारी भेज दो!
फिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण लड़का है, उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, शायद वह राजी हो जाए। क्योंकि यह दुनिया इतनी समझदार है कि इसमें शायद गड़बड़ दिमाग के लोग ही कभी थोड़े से समझदार हों तो हों। यह गदाधर ही बाद में रामकृष्ण बना।
गदाधर को पूछा। उसने कहा कि ठीक है, आ जाएंगे। उसने एक बार भी न कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? गदाधर ने कहा, ठीक है। प्रार्थना यहां करते हैं, वहां करेंगे। घर के लोगों ने भी रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और नौकरी दिला देंगे। नौकरी के पीछे अपने धर्म को खो रहा है? पर गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जाएं, यह बात जंचती नहीं; करेंगे।
मगर तब खबर रासमणि को मिली कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा में यह दीक्षित नहीं है। इसने कभी पूजा की नहीं है। यह अपने घर ही करता रहा है। इसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग, विधि-विधान नहीं है। और इसकी पूजा भी जरा अनूठी है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता है। और भी इसमें कुछ गड़बड़ हैं; कि यह भी खबर आई है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता है। खुद चख लेता है मिठाई वगैरह हो तो। रासमणि ने कहा, अब आने दो। कम से कम कोई तो आता है।
वह आया, लेकिन ये गड़बड़ें शुरू हो गईं। कभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहते। कभी दिन बीत जाते, घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचते ही रहते रामकृष्ण।
आखिर रासमणि ने कहा कि यह कैसे होगा? ट्रस्टी हैं मंदिर के, उन्होंने बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, यह किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?
रामकृष्ण ने कहा, शास्त्र से पूजा का क्या संबंध है? पूजा प्रेम की है। जब मन ही नहीं होता करने का, तो करना गलत होगा। और वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के किया जा रहा है। तुम्हारे लिए थोड़े ही पूजा कर रहा हूं। उसको मैं धोखा न दे सकूंगा। जब मन ही करने का नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगा। वह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जाएगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूं। जब उठता है भाव तो इकट्ठी कर लेता हूं। दोत्तीन सप्ताह की एक दिन में निपटा देता हूं। लेकिन बिना भाव के मैं पूजा न करूंगा।
और उन्होंने कहा, तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता। कहां से शुरू करते, कहां अंत करते।
रामकृष्ण ने कहा, वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं। हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं। यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है। यह प्रेम है। रोज जैसी भाव-दशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं। कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं। कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते। जैसा आविर्भाव होता है भीतर, जैसा वह करवाता है, वैसा करते हैं। हम कोई करने वाले नहीं।
उन्होंने कहा, यह भी जाने दो। लेकिन यह तो बात गुनाह की है कि तुम पहले खुद चख लेते हो, फिर भगवान को भोग लगाते हो! कहीं दुनिया में ऐसा सुना नहीं। पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर प्रसाद ग्रहण करो। तुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो।
रामकृष्ण ने कहा, यह तो मैं कभी न कर सकूंगा। जैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगा। मेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में शक्कर ज्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो मैं उसे नहीं लगाता। कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां न कर सकी मेरे लिए, वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं।
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज नई होगी। उसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकता। उसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में हुआ है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र है? प्रार्थना की भी कोई विधि है? वह तो भाव का सहज आवेदन है। भाव की तरंग है।
🙏🙏 सभी सयानें एक मत ( दादू # 1)
🙏🙏🌹🌹🌹 ओशो 🌹🌹🌹🙏🙏

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एक सच्ची घटना सुनिए – एक संत की

वे एक बार वृन्दावन गए
वहाँ कुछ दिन घूमे फिरे
दर्शन किए

जब वापस लौटने का मन किया तो सोचा
भगवान को भोग लगा कर कुछ प्रसाद लेता चलूँ

संत ने रामदाने के कुछ लड्डू ख़रीदे
मंदिर गए
प्रसाद चढ़ाया
और आश्रम में आकर सो गए
सुबह ट्रेन पकड़नी थी

अगले दिन ट्रेन से चले
सुबह वृन्दावन से चली ट्रेन को मुगलसराय स्टेशन तक आने में शाम हो गयी

संत ने सोचा
अभी पटना तक जाने में तीन चार घंटे और लगेंगे
भूख लग रही है
मुगलसराय में ट्रेन आधे घंटे रूकती है
चलो हाथ पैर धोकर संध्या वंदन करके कुछ पा लिया जाय

संत ने हाथ पैर धोया
और लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला
उन्होंने देखा
लड्डू में चींटे लगे हुए थे
उन्होंने चींटों को हटाकर एक दो लड्डू खा लिए
बाकी बचे लड्डू प्रसाद बाँट दूंगा ये सोच कर छोड़ दिए

पर कहते हैं न
संत ह्रदय नवनीत समाना

बेचारे को लड्डुओं से अधिक उन चींटों की चिंता सताने लगी

सोचने लगे
ये चींटें वृन्दावन से इस मिठाई के डिब्बे में आए हैं
बेचारे इतनी दूर तक ट्रेन में मुगलसराय तक आ गए
कितने भाग्यशाली थे
इनका जन्म वृन्दावन में हुआ था
अब इतनी दूर से पता नहीं कितने दिन
या कितने जन्म लग जाएँगे
इनको वापस पहुंचने में
पता नहीं ब्रज की धूल इनको फिर कभी मिल भी पाएगी या नहीं
मैंने कितना बड़ा पाप कर दिया
इनका वृन्दावन छुड़वा दिया

नहीं
मुझे वापस जाना होगा

और संत ने उन चींटों को वापस उसी मिठाई के डिब्बे में सावधानी से रखा
और वृन्दावन की ट्रेन पकड़ ली

उसी मिठाई की दूकान के पास गए
डिब्बा धरती पर रखा
और हाथ जोड़ लिए

मेरे भाग्य में नहीं कि तेरे ब्रज में रह सकूँ
तो मुझे कोई अधिकार भी नहीं कि जिसके भाग्य में ब्रज की धूल लिखी है
उसे दूर कर सकूँ

दूकानदार ने देखा
तो आया
महाराज चीटें लग गए तो कोई बात नहीं
आप दूसरी मिठाई तौलवा लो

संत ने कहा
भईया मिठाई में कोई कमी नहीं थी
इन हाथों से पाप होते होते रह गया
उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ

दुकानदार ने जब सारी बात जानी तो उस संत के पैरों के पास बैठ गया
भावुक हो गया
इधर दुकानदार रो रहा था
उधर संत की आँखें गीली हो रही थीं

बात भाव की है
बात उस निर्मल मन की है
बात ब्रज की है
बात मेरे वृन्दावन की है
बात मेरे नटवर नागर और उनकी राधारानी की है
बात मेरे कृष्ण की राजधानी की है

बूझो तो बहुत कुछ है
नहीं तो बस पागलपन है
बस एक कहानी है।

संजय गुप्ता