Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

(((( हरि शरणम् ))))
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क्षीरसागर में एक त्रिकूट नामक एक प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ पर्वत था।
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उसकी ऊँचाई आसमान छूती थी। उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी चारों ओर काफी विस्तृत थी।
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उसके तीन शिखर थे। पहला सोने का। दूसरा चाँदी का तीसरा लोहे का।
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इनकी चमक से समुद्र, आकाश और दिशाएँ जगमगाती रहती थीं। इनके अलावा उसकी और कई छोटी चोटियाँ थीं जो रत्नों और कीमती धातुओं से बनी हुई थीं।
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पर्वत की तलहटी में तरह-तरह के जंगली जानवर बसेरा बनाए हुए थे।
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इसके ऊपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे।
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इस पर्वतराज त्रिकूट की तराई में एक तपस्वी महात्मा रहते थे जिनका नाम वरुण था।
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महात्मा वरुण ने एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान में अपनी कुटी बनाई थी। इस उद्यान का नाम ऋतुमान था।
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इसमें सब ओर अत्यन्त ही दिव्य वृक्ष शोभा पा रहे थे, जो सदा फलों-फूलों से लदे रहते थे।
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इस उद्यान में एक बड़ा-सा सरोवर भी था जिसमें सुनहले कमल भी खिले रहते थे
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क्षीरसागर से त्रिकूट पर्वत पर एक बार एक दर्दनाक घटना घट गई।
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इस पर्वत के घोर जंगल में एक विशाल मतवाला हाथी रहता था। एक—गजराज। वह कई शक्तिशाली हाथियों का सरदार था।
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उसके पीछे बड़े-बड़े हाथियों के झुण्ड के झुण्ड चलते थे।
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इस गजराज से, उसके महान् बल के कारण बड़े-से-बड़े हिंसक जानवर भी डरते थे , छोटे जीव निर्भय होकर घूमा करते थे क्योंकि उसके रहते कोई भी हिंसक जानवर उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता था।
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गजराज मदमस्त था। उसके सिर के पास से टपकते मद का पान करने के लिए भँवरे उसके साथ गूँजते जाते थे।
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एक दिन बड़े जोर की धूप थी। वह प्यास से व्याकुल हो गया। अपने झुण्ड के साथ वह उसी सरोवर में उतर पड़ा जो त्रिकूट की तराई में स्थित था।
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जल उस समय अत्यन्त शीतल एवं अमृत के समान मधुर था।
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पहले तो उस गजराज ने अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर इस अमृत-सदृश्य जल का पान किया। फिर उसमें स्नान करके अपनी थकान मिटाई।
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इसके पश्चात उसका ध्यान जलक्रीड़ा की ओर गया। वह सूँड़ से पानी भर-भर अन्य हाथियों पर फेंकने लगा और दूसरे भी वही करने लगे।
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मदमस्त गजराज सब कुछ भूलकर जल-क्रीड़ा का आनन्द उठाता रहा। उसे पता नहीं था कि उस सरोवर में एक बहुत बलवान ग्राह भी रहता था।
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उस ग्राह ने क्रोधित होकर उस गजराज के पैर को जोरों से पकड़ लिया और उसे खींचकर सरोवर के अन्दर ले जाने लगा।
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उसके पैने दातों के गड़ने से गजराज के पैर से रक्त का प्रवाह निकल पड़ा जिससे वहाँ का पानी लाल हो आया।
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उसके साथ के हाथियों और हथिनियों को गजराज की इस स्थिति पर बहुत चिंता हुई।
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उन्होंने एक साथ मिलकर गजराज को जल के बाहर खींचने का प्रयास किया किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए
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वे घबराकर ज़ोर-ज़ोर से चिंघाड़ने लगे। इस पर दूर-दूर से आकर हाथियों के कई झुण्डों ने गजराज के झुण्डों से मिलकर उसे बाहर खींचना चाहा किन्तु यह सम्मिलित प्रयास भी विफल रहा।
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सभी हाथी शान्त होकर अलग हो गए। अब ग्राह और गजराज में घोर युद्ध चलने लगा दोनों अपने रूप में काफी बलशाली थे और हार मानने वाले नहीं थे।
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कभी गजराज ग्राह को खींचकर पानी से बाहर लाता तो कभी ग्राह गजराज को खींचकर पानी के अन्दर ले जाता
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किन्तु गजराज का पैर किसी तरह ग्राह के मुँह से नहीं छूट रहा था बल्कि उसके दाँत गजराज के पैर में और गड़ते ही जा रहे थे और सरोवर का पानी जैसे पूरी तरह लाल हो आया था।
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गज और ग्राह के बीच युद्ध कई दिनों तक चला। अन्त में अधिक रक्त बह जाने के कारण गजराज शिथिल पड़ने लगा। उसे लगा कि अब वह ग्राह के हाथों परास्त हो जाएगा।
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उसको इस समय कोई उपाय नहीं सूझा और अपनी मृत्यु को समीप पाकर उसे भगवान नारायण की याद आयी।
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उसने एक कमल का फूल तोड़ा और उसे आसमान की ओर इस तरह उठाया जैसे वह उसे भगवान को अर्पित कर रहा हो।
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अब तक वह ग्राह द्वारा खींचे जाने से सरोवर के मध्य गहरे जल में चला गया था और उसकी सूड़ का मात्र वह भाग ही ऊपर बचा था जिसमें उसने लाल कमल-पुष्प पकड़ रखा था।
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उसने अपनी शक्ति को पूरी तरह से भूलकर और अपने को पूरी तरह असहाय घोषित कर नारायण को पुकारा।
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भगवान समझ गए कि इसे अपनी शक्ति का मद जाता रहा और वह पूरी तरह से मेरा शरणागत है।
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जब नारायण ने देखा कि मेरे अतिरिक्त यह किसी को अपना रक्षक नहीं मानता तो नारायण के ‘ना’ के उच्चारण के साथ ही वह गरुण पर सवार होकर चक्र धारण किए हुए सरोवर के किनारे पहुँच गए।
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उन्होंने देखा कि गजेन्द्र डूबने ही वाला है। वह शीघ्रता से गरुण से कूद पड़े।
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इस समय तक बहुत से देवी-देवता भी भगवान के आगमन को समझकर वहाँ उपस्थित हो गए थे।
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सभी के देखते-देखते भगवान ने गजराज और गजेन्द्र को एक क्षण में सरोवर से खींचकर बाहर निकाला।
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देवताओं ने आश्चर्य से देखा, उन्होंने सुदर्शन से इस तरह ग्राह का मुँह फाड़ दिया कि गजराज के पैर को कोई क्षति नहीं पहुँची।
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ग्राह देखते-देखते तड़प कर मर गया और गजराज भगवान की कृपा-दृष्टि से पहले की तरह स्वस्थ हो गया।
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जिस समय गजेन्द्र श्रीनारायण की स्तुति कर रहा था, सरोवर किनारे उपस्थित देवता आपस में भगवान के कृपालु स्वभाव के सम्बन्ध में वार्तालाप कर रहे थे।
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उनमें से एक ने ठीक ही कहा— ‘जब तक अपनी शक्ति पर विश्वास करते रहो, ईश्वर की सहायता नहीं मिलती। जब अपने को सर्वथा तुच्छ समझ भगवान की शरण में जाओ तभी वह तत्काल

संजय गुप्ता

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🌹 राघव की भक्ति 🌹
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राघव एक बहुत ही निर्धन व्यक्ति था, उसके पास दो समय खाने के लिए भोजन की व्यवस्था करना भी बहुत कठिन कार्य था।
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वह भोजन की आशा में ठाकुर जी के एक बड़े मंदिर के बाहर जाकर बैठ जाता और हर आने जाने वाले से भोजन की आशा रखता था।
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मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं से उसको जो भी भोजन मिल जाता था उसको खा कर संतुष्ट रहता था।
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अधिक की उसने कभी कामना नहीं की थी, पेट भरने लायक भोजन मिल जाए बस उतने में ही संतुष्ट रहता था।
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निर्धन था किन्तु हृदय से बहुत दयालु था, उसका यही प्रयास रहता था, कि यदि किसी को उसकी आवश्यकता है तो वह उसकी सहायता करें।
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किन्तु हमारा समाज ही ऐसा है, निर्धन को तो कभी मनुष्य माना ही नहीं जाता, उसकी सहायता लेना तो दूर कोई उसको अपने पास भी नहीं आने देता था।
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किन्तु राघव अपनी धुन में मस्त रहता था, कभी उसको ज्यादा भोजन प्राप्त हो जाता था तो वह अपनी आवश्यकता के अनुसार भोजन रख कर शेष भोजन अपने जैसे ही किसी निर्धन भूखे को दे देता था।
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कई बार ऐसा भी होता था कि उसको सारे दिन थोड़ा सा भी भोजन नहीं मिल पाता था तब उस दिन वह भूखा ही रह जाता था किन्तु किसी के प्रति मन में कोई मैल नही रखता था।
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एक दिन ठाकुर जी के मंदिर में एक बहुत बड़े संत दर्शन के लिए पहुंचे।
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स्वभाववश राघव ने संत से भी भोजन की अपेक्षा रखी।
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संत समृद्ध और संम्पन्न व्यक्ति थे राघव को देख कर उनको उस पर दया आई..आती भी क्यों ना संत तो आखिर संत ही होते हैं उन्होंने करुणा वश उसकी सहायता करनी चाही किन्तु फिर उनके अंदर का संत जाग्रत हो उठा उन्होंने उसका उद्धार करने के उद्देश्य से मन में सोंचा..
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यदि मैं इसकी आज सहायता करता हूँ तो उससे इसका क्या भला होगा ज्यादा से ज्यादा आज का भोजन मिल जायेगा कल यह फिर भिक्षा मांगेगा,यदि मैं कुछ दिनों के लिए इसके भोजन की व्यवस्था करता हूँ तब भी उतने दिनों तक ही भोजन प्राप्त कर सकता है, उसके बाद फिर से भिक्षा मांगने लगेगा,ऐसे तो इसका जीवन यूं ही व्यतीत हो जायेगा, इस अभागे के लिए कुछ ऐसा किया जाए जिससे इसका जीवन ही सुधर जाए।ऐसा विचार कर उन्होंने मन ही मन ठाकुर जी का स्मरण किया और राघव को झिड़कते हुए बोले..अरे क्या भोजन भोजन की रट लगा रखी है, कभी किसी समय भजन में भी ध्यान लगाया है,ठाकुर जी के मंदिर के द्वार पर आकर भी हर किसी से भिक्षा मांगता रहता है, अरे भिक्षा मांगनी ही है तो ठाकुर जी से मांग, वही सबके दाता हैं।
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जितना प्रयास तू प्रतिदिन भोजन प्राप्त करने के लिए करता है उसका रत्ती भर भी यदि ठाकुर जी को प्राप्त करने के लिए करता तो तेरी यह दुर्दशा ना होती,मेरे पास तुझको देने के लिए कुछ नही है, जा मांगना है तो ठाकुर जी से मांग।इस प्रकार राघव को झिड़कते हुए संत वहां से चले गए।
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किन्तु संत की यह बात राघव के हृदय को लग गई , उसके मन में ठाकुर जी को प्राप्त करने की लालसा जाग उठी,उसने मन में निश्चय कर लिया की अब मैं कभी किसी व्यक्ति से भिक्षा नहीं मांगूंगा जो भी मांगूंगा ठाकुर जी से ही मांगूंगा।निर्धन था, फटे हाल था, कई दिनों से स्नान भी नहीं किया था, जिस कारण उसके वस्त्रों और शरीर से दुर्गन्ध आती थीअपनी इस बुरी स्तिथि को देख राघव ठाकुर जी के मंदिर में प्रवेश करने का साहस नही कर पाया उसने बाहर से ही ठाकुर जी को प्रणाम किया और मन ही मन उनसे बोला कि हे ठाकुर जी आज से आप ही मेरे दाता है,अब आप के सामने ही अपने हाथ फैलाऊंगा, आप दो या ना दो आपकी इच्छा किन्तु जब तक आप नही दोगे मैं किसी से कुछ नही मांगूगा।ऐसा कहकर ठाकुर जी को प्रणाम कर राघव उन संत की तलाश में निकल पड़ा।बहुत भटकने के बाद एक स्थान पर उसको वह संत दिखाई दिए, राघव उनके पास पहुंचा और दोनों हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।संत ने सोंचा कि यह फिर कुछ मांग रहा है, तब उन्होंने कहा तू फिर आ गया, तेरी समझ में नही आया, अरे मेरे पास तुझको देने के लिए कुछ नही है। संत ने इतना कहा ही था कि राघव उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला महात्मा जी मैं आपसे कुछ मांगने नही आया हूँ,
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आपने तो मुझको वह दे दिया जो एक राजा भी नही दे सकता था, अब तो बस आपका आशीर्वाद पाना चाहता हूँ।संत के पूंछने पर राघव ने अपना संकल्प उनको बताया संत की आँखों से आँसू बह निकले उन्होंने राघव को प्रेम पूर्वक उठाया और अपने हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद दिया, जा ठाकुर जी तेरी मनोकामना पूर्ण करें।
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राघव अपने घर लौट आया उस दिन के बाद वह प्रतिदिन ठाकुर जी के मंदिर तो जाता किन्तु भिक्षा मांगने नही बस मंदिर के बाहर बैठा रहता और ठाकुर जी का ध्यान करता रहता।इस प्रकार कई दिन बीत गए, उसको किसी से कोई भोजन प्राप्त नही हुआ, किन्तु उसने किसी से भोजन की मांग नही करी।चार पांच दिन जब भूखे रहते व्यतीत हो गए तो राघव ने सोंचा कि मेने ठाकुर जी को कभी कुछ अर्पित नहीं करा,बल्कि उनके नाम से मांगता ही रहा, शायद इसी कारण वह मुझ पर दया नहीं कर रहे हैं। किन्तु वह निर्धन जिससे पास भोजन के लिए भी कुछ नहीं था भला ठाकुर जी को क्या अर्पित करता,तब उसने विचार किया की क्यों ना ठाकुर जी को फूलों की माला ही अर्पित कर दूँ, कुछ तो दे ही दूँ।
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ऐसा विचार करके चला मंदिर की और किन्तु वह माला भी कहाँ से लाता उसके लिए भी धन की आश्यकता पड़ती, धन उसके पास था नहीं,उसने विचार किया कि फूल बेचने वाले के पास जाता हूँ, शायद वह एक माला दे ही दे। राघव फूल बेचने वाले की दुकान पर पहुंचा किन्तु तभी उसको स्मरण हुआ कि उसने किसी से कुछ ना मांगने का संकल्प लिया है,अब क्या करे सोच-विचार कर ही रहा था की उसकी दृष्टि दुकान के एक कोने पर पड़ी जहां दुकानदार ने पुरानी मुरझाई हुई मालाएं डाल रखी थीं,
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राघव को और कुछ नहीं सूझा उसने उन मुरझाई मालाओं में से एक माला उठा ली और चल दिया ठाकुर जी के मंदिर की और।आज उसके कदमो में विचित्र तेजी थी, एक विश्वास और उत्साह, किन्तु उसका उत्साह क्षण मात्र में विलीन हो गया,जैसे ही वह मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा, मंदिर के सेवादारों ने उसको रोक दिया उसने बहुत मन्नतें की और कहा कि उसको ठाकुर जी के दर्शन करने दो, मैं उनको यह फूलों की माला अर्पित करने आया हूँ,माला देखकर सेवादार हंसने लगे उन्होंने उसका उपहास उड़ाया।यह सब चल ही रहा था तभी मंदिर के मुख्य पुजारी आ पहुंचे। शोर शराबा सुनकर उन्होंने सेवादारों से कारण पूंछा तो उन्होंने सब बात बता दी। मुख्य पुजारी भी राघव और उसकी माला को देखकर मुस्कराए और बोले अरे तू तो जाकर भिक्षा मांग यहाँ तेरा क्या काम,उन्होंने सेवादारों से कहा इसको यहाँ से हटाओ, आने जाने वालो को परेशानी हो रही है।
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सेवादारों ने उसको वहां से चले जाने को कहा।हताश राघव ने मन ही मन ठाकुर जी का समरण किया और कहा कि हे ठाकुर जी मैं कैसे आपके दर्शन को आऊं, अब आप ही दया कीजिए,मैं स्वयं तो आपको माला अर्पित कर नही कर पाया आप ही इसको स्वीकार कीजिये। ऐसा कहकर राघव ने वह मुरझाई माला मंदिर की सीढ़ियों पर ही रख दी और चला गया,राघव को ऐसा करते देख मुख्य पुजारी ने घृणा से सेवादारों से कहा इस माला को यहाँ से हटाओ।सेवादारों ने मुख्य पुजारी के सामने ही माला उठा कर पास की झाड़ियों में डाल दी।इस सारे घटनाक्रम के बाद जब मुख्य पुजारी ने मंदिर में ठाकुर जी के भवन में प्रवेश किया तो वहां विचित्र सा कोलाहल था, जिसे देख कर पुजारी जी ने अन्य सेवादारों से उसका कारण पूछा तो सभी ने एक साथ ठाकुर जी के श्री विग्रह की और संकेत करके कहा कि ठाकुर जी के गले में पड़ी सभी फूल मालाएँ एक क्षण में सूख गई,मुख्य पुजारी ने ठाकुर जी की और देखा तो यह सत्य था, ठाकुर जी के गले में पड़ी सभी फूल मालाएँ ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो कई दिन पुराने सूखे फूलों की हो।सभी लोग बोले की यह सभी मालाएं कुछ क्षण पूर्व एकदम ताजी थी और अपनी सुगंध फैला रहीं थी,किन्तु ना जाने क्या हुआ अचानक ही सब सूख गई।मुख्य पुजारी को बहुत ही आश्चर्य हुआ, उन्होंने सेवादारों से नई मालाएं लाने को कहा, तुरंत ही नई और ताज़ी मालाएं आ गई, पुजारी जी ने जैसे है वह मालाएं ठाकुर जी के गले में पहनाई तुरंत ही वह मालाएं भी पहले की तरह सूख गई।
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अब सब लोग बहुत चिंतित हुए। सभी के मन में एक ही विचार था कि कही ना कही किसी से कोई बड़ा अपराध हुआ है जिस कारण यह सब हो रहा है,सभी लोग विचार विमर्श कर ही रहे थे तभी मुख्य पुजारी की दृष्टि ठाकुर जी के चरणों में पड़ी एक मुरझाई हुई माला पर पड़ी थी,वह माला मुरझाई हुई अवश्य थी, किन्तु सूखी हुई नहीं थी उसमे से भीनी-भीनी सुगन्ध भी आ रही थी,उस माला को देखते ही मुख्य पुजारी के मुख से अचानक ही निकला, अरे यह क्या, यह यहाँ कैसे,उन्होंने देखा वह वही माला थी जो राघव मंदिर की सीढ़ियों पर छोड़ कर गया था।मुख्य पुजारी तुरंत ही मंदिर से बाहर की और भागे, अन्य लोग भी उनके पीछे पीछे गए किन्तु किसी को समझ नहीं आया कि पुजारी जी अचानक बाहर क्यों भागे।सीढ़ियों के पास पहुँच कर पुजारी जी ने सेवादारों से कहा जरा उस माला को देखो जो राघव यहाँ डाल कर गया था।सेवादारों ने झाड़ियों में उस माला को बहुत तलाशा किन्तु वह वहां नहीं मिली।अब मुख्य पुजारी को समझ आ गया की उनसे बड़ा अपराध हो गया है,
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उन्होंने सारी बाते अन्य लोगो को बताई और कहा कैसे भी हो राघव को ढूंढ कर लाओ।बहुत ढूंढने के बाद आखिर एक स्थान पर राघव बैठा मिला, वह ठाकुर जी के ध्यान में मग्न भजन गाने में मस्त था।जब उसने देखा की उसके चारो और बहुत से लोग एकत्रित है तो उसने पूंछा क्यों भाई क्या बात हो गई, मुझसे कोई अपराध हुआ है क्या ?सेवादारों ने कहा शीघ्र चलो मुख्य पुजारी ने तुमको बुलाया है।राघव ने सोंचा कि निश्चित ही उससे कोई अपराध हुआ है, वह डरता हुआ ठाकुर जी को याद करता हुआ सेवादारों के साथ चल दिया।जैसे ही सब लोग मंदिर पहुंचे मुख्य पुजारी दौड़ कर राघव के पास पहुंचे और उसके चरणों में गिर पड़े,
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राघव अचानक हुई इस घटना से अचकचा कर पीछे हट गया, उसकी समझ में नहीं आया कि यह क्या हो रहा हैं।तब पुजारी जी ने राघव को समस्त घटना बताई और उससे अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी और कहा कि.हम सबने तुमको पहचानने में बहुत बड़ी भूल कर दी, तुम तो ठाकुर जी के लाडले हो, ठाकुर जी रुष्ट हो गए है अब तुम्ही उनको मनाओ।यह सब सुनकर राघव को बहुत संकोच हुआ उसकी आँखों से आंसू बह निकले किन्तु वह मंदिर में प्रवेश करने का साहस नहीं कर पा रहा था।
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इस घटना की चर्चा समस्त नगर में अग्नि के सामान फैल चुकी थी, उन संत के कानो में भी इसकी भनक पड़ी, वह तुरंत ही मंदिर की और चल दिए,वहां पहुँच कर संत ने राघव से कहा राघव संकोच क्यों करते हो, ठाकुर जी ने तुमको पुकारा है,यह तुम्हारी भक्ति और निष्ठा का ही फल है जाओ और ठाकुर जी का अभिनन्दन करो।राघव संत के पैरो में गिर पड़ा उसकी आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे,
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संत ने राघव को प्रेम पूर्वक उठाया और उसको लेकर भगवान के भवन की और बढे, पीछे-पीछे सभी लोग चले।भवन में पहुँच कर संत ने राघव को फूलों की माला देते हुए कहा राघव ठाकुर जी के गले में सूखी मालाएं उचित नहीं। राघव ने कांपते हाथो से माला को पकड़ा और ठाकुर जी के चरणों में अर्पित करते हुए रुंधे गले से बोला हे ठाकुर जी, मुझ पापी पर आपने इतनी बड़ी कृपा करी, आप दया के सागर है, सत्य है कि आप ही सबके दाता है,आपने मेरी झोली में वह भिक्षा डाल दी जिसकी मेने स्वप्न में भी कभी कल्पना नहीं कि थी,हे दयानिधान मैं पापी इस योग्य नहीं कि आपके गले में माला अर्पित कर सकूँ, मुझको तो आप अपने चरणों में ही रहने दें, और इस माला को स्वीकार कीजिए।
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राघव के माला अर्पित करने के बाद सभी ने ठाकुर जी को माला अर्पित करी किन्तु अब कोई माला नहीं मुरझाई, सम्पूर्ण भवन फूलों की भीनी भीनी सुगंध से भर उठा।अब राघव पुनः उन संत के चरणों को पकड़ कर बोला, हे महात्मा मेरे जीवन को नया आधार देकर आपने मुझ पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है, मैं जीवन भर आपका ऋणी रहूँगा, अब यह जीवन आपका है, मुझको भी अपने साथ ले लीजिए, आपकी सेवा करूँगा और ठाकुर जी का भजन बस अब यही मेरा जीवन है।संत ने प्रेम से राघव को उठाया और उसको अपने गले लगा कर बोले राघव तुम ठाकुर जी के सच्चे भक्त हो, मैं तुमको इंकार नहीं कर सकता।राघव संत के साथ रहने लगा, मंदिर में ठाकुर जी की सेवा का कार्य भी राघव को सौंप दिया गया।
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अब उसको भिक्षा मांगने की आवश्यकता नहीं रही थी, ठाकुर जी ने उसको इतना दिया कि वह दुसरे भूखों का पेट भरने लगा। राघव अब संत राघव बन चुका था।
जय श्री राधा माधव

संजय गुप्ता

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साधु और चोर

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चार साधु थे| वे शहर के पास एक जंगल में रहते थे और भगवान् का भजन-स्मरण करते थे| उन चारों साधुओं की अपनी अलग-अलग एक निष्ठा थी|

एक दिन वहाँ के राजा ने अपनी स्त्री से कहा कि हमें अपने लड़के को अच्छा सन्त बनाना है, फिर वह चाहे राज्य करे, चाहे साधु बन जाय|

रानी बोली कि महाराज! जो सन्त बनना चाहता है, वही सन्त बन सकता है, दूसरे के बनाने से कैसे बन जायगा?

आपका और मेरा उद्योग थोड़े ही काम करेगा? राजा ने कहा कि इसका एक उपाय है-सत्संग!

‘ सठ सुधरहिं सतसंगति पाई|
पारस परस कुधात सुहाई||’

रानी बोली कि ऐसा कोई अच्छा सन्त है, जिसके पास लड़के को भेजें?

राजा बोला कि यहाँ पास में ही जंगल में चार अच्छे सन्त रहते हैं| उनके पास लड़के को भेज देते हैं| इस प्रकार राजा और रानी बातें कर रहे थे| रात्रि का समय था| दैवयोग से एक चोर, जो चोरी करने के उद्देश्य से वहाँ आया था, छिपकर उनकी बातें सुन रहा था| उस चोर के मन में आया कि चोरी करने से मैं फँस भी सकता हूँ, पर साधु बन जाऊँ तो काम बन जायगा! राजकुमार आयेगा और मेरा चेला बन जायगा, फिर चोरी करने की क्या जरूरत है?

चोर ने गेरुआ वस्त्र पहन लिये और जंगल में चला गया| उसके मन में आया कि कोई पूछेगा तो मैं क्या उपदेश दूँगा! ऐसा सोचकर वह चार सन्तों में से पहले सन्त के पास गया और पूछा कि महाराज! कल्याण कैसे हो?

संत ने कहा- भाई, किसी का जी मत दुखाओ, किसी को दुःख मत दो-‘दिल किसी का मत दुःखा, यह दिल भगवान की अनमोल सौगात है’!

चोर बोला-और महाराज!

सन्त बोले-और की जरूरत नहीं, इस एक बात से ही काम बन जायगा|

चोर दूसरे सन्त के पास पहुँचा और बोला कि महाराज! मैं कल्याण चाहता हूँ, कोई उपाय बताओ|

सन्त बोले-कभी जरा सा भी झूठ नहीं बोलना, सदा सत्य ही बोलना, चाहे गला क्यों न कट जाय! जैसा देखा, जैसा सुना और जैसा समझा, ठीक वैसा-का वैसा कह देना-

साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप|
जाके ह्रदय साँच है, ताके ह्रदय आप||

चोर बोला-*और कोई बात?

सन्त बोला-और की जरूरत नहीं है|

अब वह चोर तीसरे सन्त के पास गया और बोला कि महाराज! मेरा कल्याण कैसे हो?

सन्त बोले-सीधी-सादी बात है, रात-दिन राम-राम जपो

जुगति बताओ ‘जालसी’, राम मिलन की बात|
मिल जासी ओ ‘मालाजी’ राम रटो दिन रात||

चोर बोला*और कोई उपाय?

सन्त बोले- और उपाय की जरूरत नहीं हैं| अब वह चौथे सन्त के पास पहुँचा और बोला कि महाराज! कल्याण कैसे हो?

सन्त बोले-भाई! भगवान् के शरण हो जाओ| मन में यह बात अटल रहे कि मैं तो केवल भगवान् का हूँ| जैसे विवाह होने के बाद लड़की के मन में यह बात दृढ़ हो जाती है कि मैं कुआँरी नहीं हूँ, मेरा विवाह हो गया है, ऐसे ही मन में यह बात दृढ़ हो जाय कि मैं भगवान् का हो गया, अब मैं और किसी का नहीं हो सकता-

‘ मेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरो न कोई’!

चोर बोला-और कोई बात? सन्त बोले-और की जरूरत ही नहीं, इतना ही काफी है|

चोर ने सन्तों से चार बातें सीख लीं और आगे जाकर बैठ गया| अब राजा आया| वह क्रमशः चारों सन्तों के पास गया|

चारों ने एक-एक बात कह दी| राजा ने देखा कि आगे पाँचवाँ साधु भी बैठा है! राजा उसके पास भी गया और प्रार्थना की महाराज! कृपा करके कल्याण की बात बतायें| वह साधु वेशधारी चोर चुपचाप ध्यान में बैठा रहा, कुछ बोला नहीं| राजा ने ज्यादा प्रार्थना की तो वह बोला-मैं जैसा बताउँगा, वैसा करोगे?

राजा ने कहा कि हाँ महाराज! वैसा ही करूँगा| वह बोला-किसी का जी मत दुखाओ| राजा बोला-और कोई बात? वह बोला-भगवान् के नाम जप करो| राजा बोला-और कुछ बताइये! वह बोला-भगवान् के शरण हो जाओ| राजा बोला-महाराज! और कोई बात? वह बोला-सन्त जैसा कहे, वैसा कर दो| राजा ने मन में विचार किया कि यह सन्त ज्यादा ऊँचा है! अन्य सन्तों ने तो एक-एक बात कही, पर इन्होंने पाँच बातें कह दीं! राजा बड़े सरल स्वभाव का था| उसको मालूम नहीं था कि सन्त की पहचान इस तरह नहीं होती| राजा लौटकर महल में आ गया|

रात होने पर वह चोर फिर छिपकर महल में आया| जब राजा रानी के पास गया, तब वह चोर दरवाजे के पीछे छिपकर उनकी बातें सुनने लगा| रानी ने पूछा कि क्या बात हुई? राजा ने कहा कि मैं जंगल में सन्तों के दर्शन करके आया हूँ| मैं तो चार ही सन्त समझता था, पर वहाँ पाँच सन्त थे|

रानी बोली- वहाँ जाकर आपने क्या कहा?

राजा बोला-मैंने भगवत्प्राप्ति की बात पूछी तो उनमें से एक सन्त कहा कि किसी का जी मत दुखाओ, दूसरे ने कहा कि सदा सत्य बोलो, तीसरे ने कहा कि नाम-जप करो, चौथे ने कहा कि भगवान् के शरण हो जाओ|परन्तु पाँचवें सन्त ने उन चारों सन्तों की चार बातें भी बतायीं और साथ में पाँचवीं बात यह बतायी कि सन्त की आज्ञा का पालन करो| राजा और रानी-दोनों सच्चे और सरल स्वभाव के थे| उन्होंने विचार किया कि वह पाँचवाँ सन्त ठीक है, अपने लड़के उसी के पास भेजो| उनकी बातों का चोर पर बड़ा असर पड़ा कि अरे! मैंने तो नकली बात कही, उस पर भी राजा ने श्रद्धा कर ली| अगर सच्ची बात कहूँ तो कितनी मौज हो जाय! राजा ने श्रद्धा सद्भाव के कारण चोर का हृदय बदल गया! वह सच्चा साधु हो गया और जंगल में निकल गया| उसने विचार किया कि चार बातों का तो ठीक पालन करूँगा, पर पाँचवीं बात का पालन तब हो, जब कोई अच्छा और सच्चा सन्त मिले| कोई ऐसा भगवत्प्राप्त सन्त मिले, जिनकी आज्ञा का पालन करूँ| वह सन्त को ढूँढ़ने में लग गया|

पहले चोर होने से वह चालक तो था ही, इसलिये हरेक साधु पर उसका विश्वास नहीं बैठता था| वह कई साधुओं के पास गया, पर किसी पर उसका विश्वास नहीं बैठा| अब अच्छे सन्त को पाने के लिये उसकी लगन लग गयी| उसके मन में यह बात थी कि जिसमें मेरा चित्त खिंच जाय, मेरा विश्वास हो जाय, उसी को गुरु बनाऊँगा| भगवान् ने उसकी सच्ची लगन देखी तो वे सन्त बनकर उसके सामने आ गये| उनको देखते ही उस पर असर पड़ा और बोला महाराज! मैं आपके शरण हूँ, मेरे को दीक्षा दीजिये| आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगा| सन्त रूप में भगवान् बोले-जैसा मैं कहूँगा, वैसा करेगा क्या? सच्ची बात कहता है न? वह बोला-हाँ महाराज! बिलकुल सच्ची बात कहता हूँ| भगवान् बोले-तो फिर पहले एक काम करो, पीछे तुम्हें मन्त्र देंगे| तुम यह काम करो कि जो किसी का जी नहीं दुखाता, उसका सिर काटकर लाओ, और जो सत्य बोलता है, उसका सिर काटकर लाओ, और जो नाम-जप करता है, उसका सिर काटकर लाओ, और जो भगवान् के शरण हैं, उसका सिर काटकर लाओ| ये चार सिर काटकर लाओ, तब तुम्हें दीक्षा देंगे| उसने सोचा कि ये चारों तो एक ही जगह बैठे है, काम आसानी से बन जायगा! वह तलवार लेकर भागा-भागा गया, पर रास्ते में ही विचार आया कि मैंने यह नियम लिया है कि किसी का जी नहीं दुखाउँगा, पर जी दुखाना तो दूर रहा, मैं तो गला ही काटने जा रहा हूँ! उसको विचार हुआ कि यह काम मेरे से नहीं होगा| उसमें सद्बुद्धि पैदा हो गयी| वह भागा-भागा पीछे आया| भगवान् बोले-कहाँ हैं? वह बोला-मेरे एक सिर में चारों बातें हैं! मैं कभी किसी का जी नहीं दुखाता,सदा सत्य बोलता हूँ, नाम-जप करता हूँ और भगवान् के शरण हूँ| ये चारों बातें मेरे में है; अतः मैं अपना ही सिर काटकर आपको देता हूँ| भगवान् ने कहा-बस, अब सिर काटने की जरूरत नहीं, मैं तेरे को दीक्षा देता हूँ! भगवान् ने उसको दीक्षा दी और वह अच्छा सन्त बन गया!

इस प्रकार चालकी से पाँच बातें धारण करने से भी चोर को भगवान् मिल गये और वह सन्त बन गया| अगर कोई सच्चे हृदय से पाँचों बातों को धारण कर ले तो फिर कहना ही क्या है!
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संजय गुप्ता

Posted in मंत्र और स्तोत्र

मित्रो आज हम आपको रामरक्षास्त्रोत भावार्थ सहित बतायेगें, बहुत चमत्कारी है,मुर्दे में भी जान डाल देता है राम रक्षा स्त्रोत!!!!!

राम रक्षा स्त्रोत को एक बार में पढ़ लिया जाए तो पूरे दिन तक इसका प्रभाव रहता है। अगर आप रोज ४५ दिन तक राम रक्षा स्त्रोत का पाठ करते हैं तो इसके फल की अवधि बढ़ जाती है। इसका प्रभाव दुगुना तथा दो दिन तक रहने लगता है और भी अच्छा होगा यदि कोई राम रक्षा स्त्रोत प्रतिदिन ११ बार पढ़े,अगर ग्यारह सम्भव न हो तो दिन में एक बार करना भी बहुत लाभदायक है।

सरसों के दाने एक कटोरी में दाल लें। कटोरी के नीचे कोई ऊनी वस्त्र या आसन होना चाहिए। राम रक्षा मन्त्र को ११ बार पढ़ें और इस दौरान आपको अपनी उँगलियों से सरसों के दानों को कटोरी में घुमाते रहना है। ध्यान रहे कि आप किसी आसन पर बैठे हों और राम रक्षा यंत्र आपके सम्मुख हो या फिर श्री राम कि प्रतिमा या फोटो आपके आगे होनी चाहिए जिसे देखते हुए आपको मन्त्र पढ़ना है। ग्यारह बार के जाप से सरसों सिद्ध हो जायेगी और आप उस सरसों के दानों को शुद्ध और सुरक्षित पूजा स्थान पर रख लें। जब आवश्यकता पड़े तो कुछ दाने लेकर आजमायें। सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

वाद विवाद या #मुकदमा हो तो उस दिन सरसों के दाने साथ लेकर जाएँ और वहां दाल दें जहाँ विरोधी बैठता है या उसके सम्मुख फेंक दें। सफलता आपके कदम चूमेगी।

खेल या प्रतियोगिता या साक्षात्कार में आप सिद्ध सरसों को साथ ले जाएँ और अपनी जेब में रखें।

अनिष्ट की आशंका हो तो भी सिद्ध सरसों को साथ में रखें।

यात्रा में साथ ले जाएँ आपका कार्य सफल होगा।

राम रक्षा स्त्रोत से पानी सिद्ध करके रोगी को पिलाया जा सकता है परन्तु पानी को सिद्ध करने कि विधि अलग है। इसके लिए ताम्बे के बर्तन को केवल हाथ में पकड़ कर रखना है और अपनी दृष्टि पानी में रखें और महसूस करें कि आपकी सारी शक्ति पानी में जा रही है। इस समय अपना ध्यान श्री राम की स्तुति में लगाये रखें। मन्त्र बोलते समय प्रयास करें कि आपको हर वाक्य का अर्थ ज्ञात रहे।

॥ #श्रीरामरक्षास्तोत्रम्‌ ॥

श्रीगणेशायनम: – अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य, बुधकौशिक ऋषि:। श्रीसीतारामचंद्रोदेवता, अनुष्टुप्‌ छन्द:,सीता शक्ति:। श्रीमद्‌हनुमान्‌ कीलकम्‌ ।

श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

#अर्थ: — इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |

॥ अथ,ध्यानम्‌ ॥

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्‌ ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम्‌ ॥

ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें | ॥ इति ध्यानम्‌ ॥

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्‌ ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्‌ ॥१॥

श्रीरघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं।उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है।

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम्‌ ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम्‌ ॥२॥

नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम्‌ ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्‌ ॥३॥

जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम्‌ ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४॥

मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें।

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |

करौ सीतपति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित्‌ ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत्‌ ॥८॥

मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत्‌ ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्‌ ॥१०॥

शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन्‌ ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम्‌ ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |

वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्‌ ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम्‌ ॥१४॥

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |

आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान्‌ प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया।

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम्‌ ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान्‌ स न: प्रभु: ॥१६॥

जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को) और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥

जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्‌ ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्‌ग सङि‌गनौ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम्‌ ॥२०॥

संघान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम,

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥

वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥

नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम्‌ ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥

दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |

रामं लक्शमण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्‌ ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्‌
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम्‌ ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्‌ ॥२६॥

लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ।

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥

राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम्‌ ॥३१॥

जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |

लोकाभिरामं रनरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्‌ ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्‌ ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्‌ ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्‌ ॥३४॥

मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌ ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌ ॥३५॥

मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम्‌ ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्‌ ॥३६॥

‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम्‌ ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

(शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम्‌

संजय गुप्ता

Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

रोग दूर करने वाला जादुई झरना! पानी में आती है गुलाब की खुशबू
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मध्यप्रदेश जबलपुर के देवताल मार्ग के पास ही बने इस झरने की खूबियों की वजह से इसे जादुई झरने के नाम से जाना जाता है। नर्मदा जल की तरह मीठा है।
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कभी नहीं सूखता

जादुई झरना देवताल तालाब के समीप ही बना है। इसकी खासियत है कि तेज गर्मी के दिनों में भी इसका पानी जस का तस बना रहता है। पहाड़ी इलाका होने की वजह से क्षेत्र में अक्सर ही जल संकट गहरा जाता है, लेकिन इस झरने का मीठा और शुद्ध पानी एक इंच भी कम नहीं होता।

होती हैं बीमारियां ठीक

माना जाता है कि ये सिद्ध झरना है किसी जमाने में पहाडियों पर तपस्या करने वाले ऋषि मुनी इसका जल पूजा पाठ के लिए इस्तेमाल करते थे। इसलिए उन दिनों अक्सर ही बीमार होने पर लोग इसका पानी ले जाकर दवाई की तरह इस्तेमाल करते थे।
इसलिए भी बरसों से इसे सिद्ध झरना माना जाता है और लोग अब इसका उपयोग चर्म रोग आदि के लिए करते हैं। माना जाता है कि इसका पानी सीधे पाताल से आता है। इसलिए यहां कभी भी पानी की कमी नहीं होती। इसका पानी कुछ मटमैला है, लेकिन पीने पर गुलाब की तरह खुशबू आती है और नर्मदा जल की तरह मीठा है। क्षेत्रीय लोगों के लिए ये किसी वरदान से कम नहीं है।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक.बार ज़रूर पढ़ियेगा:—
~~ करारा जबाब ~~
निकिता को लड़के वाले देखने आये थें..
परिवार वालों ने दोनों को ही एकांत मे बातें करने का मौका दिया था…. ताकि दोनों ही एक दुसरे को अच्छी तरह से समझ और परख सके आखिर सारी जिंदगी के रिश्तों का सवाल था……
लडका रमेश बोला सुनो तुम्हारा कोई Boyfriend तो नही है या फिर कोई था तो नहीं.,या फिर कोई लव वव का चक्कर तो नही है मतलब किसी से या कभी रहा हो किसी से…
अगर ऐसी कोई बात हो तो खुलकर और सच सच बता दीजिए आप ऐसा ना हो की बाद में फिर …
निकिता नहीं..मेरे साथ ऐसी कोई बात नही है…. मै ऐसी बातों से हमेशा ही दूर रही हूं…..
रमेश बहुत बढ़िया…. अगर ऐसी कोई बात होती तुम्हारे साथ तो फिर मै रिश्ते से ही इंकार कर देता…..
निकिता -लेकिन क्यों.., रमेश क्यो कि मुझको किसी की भी जूठन बिलकुल ही पसंद नहीं हैं…
निकिता अच्छा अब एक बात… आप भी बताइये…. क्या आपकी भी कोई Girlfriend है…. और है तो कितनी एक या उससे भी ज्यादा……
देखो झूठ नही बोलूंगा मै.. तीन चार मेरी गर्लफ्रेंड थी…. मगर अब मै सभी से रिश्ता तोड़ चुका हूं..रमेश
आपका आपनी गर्लफ्रेंडो के साथ.. रिश्ता कहां तक पहुंचा था देखो सच सच बताना झूठ मत बोलना…..
सच सच बताता हूं…. झूठ नही बोलता…हम…. हम लोगो ने सारी…. सीमाओं को पार कर दिया था…आवाज मे गर्व का पुट आ गया था जो स्पष्ट ही…. महसूस हो रहा था….
रमेश
फिर…. फिर तो आप भी…… जूठन… ही हुए ना….अपनी गर्लफ्रेंड के…निकिता बोली
कैसी पागलों जैसी बात कर रही हो…मर्द स्वाद चखते है वो कभी जूठन नही होते है..हां वो जरुर मेरी जूठन है…..
कमाल है ना तुम्हारे साथ उन्होंने सीमा पार की तो वो तुम्हारी जूठन हो गयी….. किस गलतफहमी मे हो तुम तुमने ही सिर्फ उनका स्वाद नही चखा था….. बल्कि उन्होंने भी तुम्हारा स्वाद चखा था…… और माफ करना..अगर वो तुम्हारी नजरों में.. जूठन है तो…..
मेरी…. नजरो में…. तुम….समझे और तुम्हें ही नही.. जूठन मुझे भी पसंद नहीं है..जब जूठन को जूठन पसंद नही है तो फिर मै तुम जैसी जूठन को कैसे पसंद कर सकती हूं जो पता नही ना जाने तुम कितनो की जूठन हो..इसलिए….. इंकार करती हूं मै इस रिश्ते से…..
और सुनो…..सीता की तलाश तभी करना….. जब खुद मे भी राम जिंदा हो.. कहकर निकिता ने रमेश को ” करारा जबाब ” दे दिया ।।।।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

मूर्ख कौन?

किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, “बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?”

सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.

बहू ने उससे पूछा, “आप कौन हैं?”

राहगीर ने कहा, “मैं एक यात्री हूँ”

बहू बोली, “यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी.”

बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.

तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.

बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, “अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?”

दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, “मैं तो एक गरीब आदमी हूँ.”

सेठ की बहू बोली, “भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”

प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.

तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो”

बहू ने पूछा, “अब आप कौन हैं?”

तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ.”

यह सुनकर बहू बोली, “अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?’

बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.

अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, “बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है.”

सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, “आप कौन हैं?”

वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, “मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ.”

बहू ने कहा, “मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”

वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, “यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी”

चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.

इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.

सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, “तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए.”

राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, “क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?”

बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, “नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें.”

सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, “तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?”

बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.

सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, “राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है.”

बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.

राजा ने बहू से पूछा, “तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?”

बहू बोली, “महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था.”

राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.

राजा ने सेठ की बहू से कहा, “भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?”

बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, “तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं.”

बहू बोली, “महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया.” इतना कहकर वह चुप हो गई.

राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?”

“हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं.”

राजा ने कहा, “तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं.”

इस पर बहू बोली, “महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं.”

राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, “तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी.”

बहू बोली, “महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं.” फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, “पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती.”

ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.

राजा ने तब पूछा, “और दूसरा मूर्ख कौन है?”

बहू ने कहा, “दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया.”

बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.

Sanjay gupta

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मित्रो, बात उस समय की है जब भगवान् श्री रामजी वनवास को जा रहे है, तब लक्ष्मणजी भी जाने को तैयार हुए, तब प्रभु रामजी ने लक्ष्मणजी को माता सुमित्राजी से आज्ञा लेने के लिये भेजते है, उस समय माता के भावों को दर्शाने की कोशिश करूँगा, साथ ही उर्मिलाजी जैसे नारी शक्ति के शौर्य के दर्शन भी कराऊँगा, आप सभी इस प्रस्तुति को ध्यान से पूरा पढ़े, और भारतीय नारी शक्ति की महानता के दर्शन करें।

लक्ष्मणजी माँ से वनवास में भगवान् के साथ जाने की आज्ञा मांगते है तब माता सुमीत्राजी ने कहा, लखन बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिये भगवान् ने मुझे माँ के लिये निमित्त बनाया है, “तात तुम्हारी मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही” सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया।

अयोध्या कहाँ हैं? अयोध्या वहाँ है जहाँ रामजी है, और सुनो लखन “जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है, तुम्हारा जन्म ही रामजी की सेवा के लिये हुआ है और शायद तुमको यह भ्रम होगा कि भगवान् माँ कैकयी के कारण से वन को जा रहे हैं, इस भूल में मत रहना, लक्ष्मणजी ने पूछा फिर जा क्यो रहे हैं, माँ क्या बोली?

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं ।
दूसर हेतु तात कछु नाहीं ।।

दूसरा कोई कारण नहीं है, आश्चर्य से लक्ष्मणजी ने कहा, माँ मेरे कारण क्यो वन जा रहे हैं? माँ ने कहा, तू जानता नहीं है अपने को, मैं तुझे जानतीं हूँ, तू शेषनाग का अवतार है, धरती तेरे शीश पर है और धरती पर पाप का भार इतना बढ गया है कि तू उसे सम्भाल नहीं पा रहा है, इसलिये राम तेरे सर के भार को कम कर रहे हैं “दूसर हेतु तात कछु नाहीं” और कोई दूसरा कोई कारण नहीं है।

जब भगवान् केवल तेरे कारण जा रहे हैं तो तुझे मेरे दूध की सौगंध है कि चौदह वर्ष की सेवा में स्वपन में भी तेरे मन में कोई विकार नहीं आना चाहियें, लक्ष्मणजी ने कहा माँ अगर ऐसी बात है तो सुनो जब आप स्वप्न की शर्त दे रही हो तो मै चौदह वर्ष तक सोऊँगा ही नहीं और जब सोऊँगा ही नहीं तो कोई विकार ही नहीं आयेगा।

सज्जनों! ध्यान दिजिये जब जगत का अद्वितीय भाई लक्ष्मणजी जैसा है जो भैया और भाभी की सेवा के लिये चौदह वर्ष जागरण का संकल्प लें रहा है, अगर छोटा भाई बडे भाई की सेवा के लिए चौदह वर्ष का संकल्प लेता है तो बडा भाई पिता माना जाता है, उन्हें भी पिता का भाव चाहिये, जैसे पिता अपने पुत्र की चिंता रखता है, ऐसे ही बडा भाई अपने छोटे भाई की पुत्रवत चिंता करें, लेकिन भगवान् श्री रामजी तो जगत के पिता हैं।

ऐसी सुमित्राजी जैसी माताओं के कारण ऐसे भक्त पुत्र पैदा हुयें, सेवक पैदा हुए, महापुरूष पैदा हुए, कल्पना कीजिये “अवध तुम्हार काज कछु नाहीं” जाओ भगवान् की सेवा में, यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं है और अब हम अपने ऊपर विचार करे, अनुभव क्या कहता है? लडका अगर शराबी हो जाए परिवार में चल सकता है, लडका अगर दुराचारी हो जाए तो भी चलेगा, जुआरी हो जाये तो भी चलेगा, बुरे से बुरा बन जाये तो भी चलेगा।

लेकिन लडका साधु हो जाये, संन्यासी हो जाये, समाजसेवक बन जाये, तो नहीं चलेगा, अपना-अपना ह्रदय टटोलो कैसा लगता है? सारे रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लेते हैं कि भैया इसे समझाओ, सज्जनों! हम चाहते तो है कि इस देश में महापुरुष पैदा हो, हम चाहते तो है कि राणा और शिवाजी इस देश में बार-बार जन्म लें लेकिन मैरे घर में नहीं पडौसी के घर में।

क्या इससे धर्म बच सकता है? क्या इससे देश बच सकता है? कितनी माँओं ने अपने दुधमुंहे बच्चों को इस देश की रक्षा के लिए दुश्मनों के बंदुक की गोलियाँ खाकर मरते हुयें अपनी आखों के सामने देखा है, आप कल्पना कर सकते हो कि माँ के ऊपर क्या बीती होगी? तेरह साल का बालक माँ के सामने सिर कटाता है, माँ ने आँखें बंद कर लीं, कोई बात नहीं जीवन तो आना और जाना है, देह आती है और जाती है, धर्म की रक्षा होनी चाहिये।

जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उनकी रक्षा करता है, “धर्मो रक्षति रक्षितः” इस देश की रक्षा के लिए कितनी माताओं की गोद सूनी हुई, कितनी माताओं के सुहाग मिटे, कितनों की माथे की बिंदी व सिन्दूर मिट गयें, कितनो के घर के दीपक बुझे, कितने बालक अनाथ हुये, कितनो की राखी व दूज के त्यौहार मिटे, ये देश, धर्म, संस्कृति तब बची है, ये नेताओं के नारो से नहीं बची, ये माताओं के बलिदान से बची, इस देश की माताओं ने बलिदान किया।

सज्जनों! हमने संतो के श्रीमुख से सुना है जब लक्ष्मणजी सुमित्रामाताजी के भवन से बाहर आ रहे हैं और रास्ते में सोचते आ रहे हैं कि उर्मिला से कैसे मिलुं इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिला को बोल कर न गये तो वह रो-रो कर प्राण त्याग देगी, और बोल कर अनुमति लेकर जाएंगे तो शायद जाने भी न दे और मेरे साथ चलने की जिद्द करेगी, रोयेंगी और कहेंगी कि जब जानकीजी अपने पति के साथ जा सकती है तो मैं क्यों नहीं जा सकती?

लक्ष्मणजी स्वय धर्म है लेकिन आज धर्म ही द्वंन्द में फँस गया, उर्मिलाजी को साथ लेकर जाया नहीं जा सकता और बिना बतायें जाये तो जाये कैसे? रोती हुई पत्नी को छोड कर जा भी तो नहीं सकते, दोस्तों! नारी के आँसू को ठोकर मारना किसी पुरुष के बस की बात नहीं, पत्थर दिल ह्रदय, पत्थर ह्रदय पुरूष भी बडे से बडे पहाड को ठुकरा सकता है लेकिन रोती हुई पत्नी को ठुकरा कर चले जाना किसी पुरुष के बस की बात नहीं है।

लक्ष्मणजी चिंता में डूबे हैं अगर रोई तो उन्हें छोडा नहीं जा सकता और साथ लेकर जाया नहीं जा सकता करे तो करे क्या? इस चिन्ता में डूबे थे कि उर्मिलाजी का भवन आ गया, इधर उर्मिलाजी को घटना की पहले ही जानकारी हो चुकी है और इतने आनन्द में डूबी है कि मैरे प्रभु, मैरे पति, मैरे सुहाग का इतना बडा सौभाग्य कि उन्हें प्रभु की चरणों की सेवा का अवसर मिला है।

पति की सोच में डूबी श्रंगार किए बैठी है, वो वेष धारण किया जो विवाह के समय किया था, कंचन का थाल सजाया, आरती का दीप सजाकर प्रतीक्षा करती है, विश्वास है कि आयेंगे अवश्य, बिना मिले तो जा नहीं सकते? भय में डूबे लक्ष्मणजी आज कांप रहे है, सज्जनों! आप तो जानते ही है कि लक्ष्मणजी शेषनाग के अवतार हैं और नाग को काल भी कहते हैं।

आप कल्पना कीजिये, इस देश की माताओं के सामने काल हमेशा कांपता है, संकोच में डूबे लक्ष्मणजी ने धीरे से कुण्डी खटखटाई, देवी द्वार खोलो, जैसे ही उर्मिलाजी ने द्वार खोला तो लक्ष्मणजी ने आँखें बंद कर लीं, निगाह से निगाह मिलाने का साहस नहीं, उनको भय लगता है, आँसू आ गयें, उर्मिलाजी समझ गई कि मैरे कारण मेरे पतिदेव असमंजस में आ गये हैं।

उर्मिलाजी ने दोनों हाथों से कंधा पकड लिया और कहा आर्यपुत्र घबराओ नहीं, धीरज धरो, मैं सब जानती हूंँ कि आप भगवान् के साथ वनवास जा रहे हैं, मैं आपको बिल्कुल नहीं रोकूँगी बल्कि मुझे खुशी है कि आपको भ्राता और भाभी की सेवा करने का मौका मिल रहा है, आप निश्चिंत होकर जाइये, मैं माँ सुमित्राजी का पूरा ध्यान रखूंगी।

हम देवी उर्मिलाजी के चरित्र पर चर्चा कर रहे थे, उर्मिलाजी का चरित्र प्रत्येक भारतीय नारी का चरित्र है, भारत की प्रत्येक नारी में उर्मिला जैसा दिव्य चरित्र है लेकिन फर्क है तो केवल जीने का, एक और प्रसंग की चर्चा करते हैं, सज्जनों!

जब लक्ष्मणजी को मेघनाथ की शक्ति से बेसुध हो गये तब वैधजी सुमंतजी की सलाह से संजीवनी लेने पहुंचे।

लेकिन संजीवनी बूटी की परख न होने से पूरा पर्वत ही उठाकर जब अयोध्या के ऊपर से जा रहे थे तब भरतजी ने किसी राक्षस होने की आशंका से हनुमानजी पर बाण चला दिया, बाण हनुमानजी को लगा और हनुमानजी घायल अवस्था में “जय श्री राम” के उद्घोष के साथ पृथ्वी पर आ गये, भरतजी को रामजी के नाम का उद्घोष से भरतजी हनुमानजी के पास पहुंचे और रामजी के नाम का उल्लेख करते हुए कहाँ कि आप कौन है? और रामजी से आपका क्या संबंध है?

तब हनुमानजी ने खुद को रामजी का सेवक बताते हुए लक्ष्मणजी की स्थिति का वर्णन किया, तब तक सभी माताओं के साथ उर्मिलाजी भी हनुमानजी से मिलने पहुंची, हनुमानजी से लक्ष्मणजी के घायल होने की अवस्था का वर्णन किया, तब उर्मिलाजी ने हनुमानजी से कहा कि आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, मैरे पति को कुछ नहीं होगा? हनुमानजी ने कहा कि आप को कैसे मालूम?

उर्मिलाजी बोली, मेरा दीपक मुझे बता रहा है, दीपक जल रहा है तो इसका मतलब कि मेरे पति जीवित हैं, और सुनो मैं तो लंका नहीं गयी थी, आप तो लंका से आए हो? यह बताओ इस समय मेरे पति कहाँ हैं, हनुमानजी बोले भगवान् की गोद में है, उर्मिलाजी ने कहा भैया! अगर मेरे पति भोग की गोद में होते तो काल उनको मार देता पर जो भगवान की गोद में लेटा है उसको काल छू भी नहीं सकता है।

हनुमानजी आपको मालूम होना चाहिये कि जो भगवान् की गोद में है वे हमेशा चिरंजीवी रहते है, मेरे पति भगवान् की गोद में लेटे हैं और मैं भगवान के करूणामयी स्वभाव से परिचित हूँ, मुझे यह मालूम है और भगवान को यह जानकारी है कि लखन जागने का चौदह वर्ष का संकल्प माँ से लेकर आया है जो सोयेगा नहीं और प्रभु का स्वभाव बहुत ही कोमल हैं।

अति कोमल रघुवीर सुभाऊ। जधपि अखिल लोक कर राऊ।।

प्रभु को लगता है मेरा छोटा भाई लखन दिनभर इतने बडे बडे राक्षसों से लडता है, थककर चूर हो जाता है और फिर सन्ध्या समय माँ के संकल्प को याद करता है और सोता नहीं, इसको विश्राम कैसे दिलाये, भगवान् ने मेघनाथ के बाण के बहाने से पतिदेव को अपने गोद में विश्राम के लिए लिटाया है, जो रामजी की चरण में रहता है वह विश्राम के लिए रहता है, वह कभी मरण की चरण में नहीं जाता।

जो आनन्द सिंधु सुख रासी । सीकर तें त्रैलोक सुपासी ।।
सो सुखधाम राम अस नामा । अखिल लोक दायक विश्रामा ।।

जो भगवान श्रीराम की गोद में होगा वो विश्राम में होगा, आराम में होगा, सज्जनों! हमने संतो के श्रीमुख से सुना है कि जब लक्ष्मणजी ने चौदह वर्ष जागरण का संकल्प लें लिया, तब हमने सुना, नींद लक्ष्मणजी के पास आयी और नींद ने लक्ष्मणजी से कहा कि आज तक हमको कोई नहीं जीत पाया और आज आपने हमको जीत लिया है, हमसे कोई वरदान मांगिये।

तो लक्ष्मणजी ने कहा मुझे तो कोई आवश्यकता नहीं है मगर तुम उर्मिलाजी के पास चली जाओ, नींद उर्मिलाजी के पास आई और उर्मिलाजी से कहा आप हमसे कोई वरदान मांगिए, पूछा आपको किसने भेजा है तो बोली आपके पतिदेव ने भेजा है, बोली उन्होंने हमें जीत लिया है हम उन्हें वरदान देना चाहती थीं तो उन्होंने कहा जाओ, उर्मिलाजी के पास अतः आप कोई मांगो वरदान मांगो।

उर्मिलाजी ने कहा अगर आप वरदान देना चाहती हो तो एक वरदान दो कि चौदह वर्ष जब तक मेरे पति भगवान् के चरणों की सेवा में लगे हैं उनको मेरी याद न आयें, पत्नी कहती हैं परमात्मा की सेवा में उनको भोग की याद न आयें, उनको काम की याद न आयें, जो रघुवर की सेवा में बैठे हैं उनको घर की याद न आयें, धन्य हैं भारत की भूमि जहाँ उर्मिलाजी जैसी वीरांगनाओं ने जन्म लिया।

शिवाजी महाराज ऐसे ही पैदा नहीं हुयें, शिवाजी का निर्माण जीजाबाई माँ के द्वारा हुआ, जिस समय जीजाबाई दूध पिलाती थी और दूध पिलाती-पिलाती थपकी देती जाती थीं और भगवान् राम और हनुमानजी की कथायें सुनाती थीं, सज्जनों! भगवान् की कथाओं को सुनकर धर्म की स्थापना हुई है, धर्म संस्थापनाथारय हिन्दू पद पादशाही की स्थापना शिवाजी कर पायें, इतना बडा औरंगजेब का साम्राज्य सारे भारत में फैलने वाला साम्राज्य महाराष्ट्र में जाकर रूक गया।

आजु मोहि रघुबर की सुधि आई। सीय बिना मैरी सूनी रसोई।।
लखन बिना ठकुराई। आजु मोहि रघुबर की सुधि आई।।

हमारे यहाँ ऐसी बूढी मातायें हुई है जिनको कुछ नहीं आता था, वे प्रातःकालीन चक्की (चाकी) पीसा करती थीं तो बालक उनकी गोद में लेटा होता था, चाकी पीसते-पीसते वीर रस के गीत गाया करती थीं, लेकिन आज स्थिति 4 विपरीत है, न प्रात काल की वह चक्की है न वीर रस की गाथायें गाती ऐसी मातायें, मेरी समस्त भारत की बहनों से गुजारिश है कि आने वाली पीढ़ी को अपने भारतीय संस्कृति से रूबरू करवायें, माँ बहनों को नमन् करते हुए आज के इस प्रस्तुति को यही विराम देता हूंँ।

जय माँ भारती!
जय भारत की नारी शक्ति!
जय माँ अम्बे!
जय भारतीय नारी शक्ति!
जय माँ अम्बे!

संजय गुप्ता

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एक दिन संध्या के समय श्री गुरु अर्जुन देव जी के दर्शन करने के लिए हिमाचल के साकेत शहर का राजा आया।

गुरुदरबार में कीर्तन चल रहा था।
रागी शबद गा रहे थे-

🙏🙏🙏🙏 लेख ना मिटिये हे सखी 🙏🙏🙏🙏
🙏🙏🙏🙏 जो लिखेया करतार 🙏🙏🙏🙏🙏

राजा ने प्रश्न किया- महाराज! अगर किस्मत के लेख मिटते नहीं हैं,तो संगत करने का क्या लाभ है?

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने कहा- इसका उत्तर आपको समय आने पर देंगें।अभी आप कुछ आराम कर लीजिये।

राजा रात को सोया तो उसे स्वप्न आया,कि उसका एक अति दरिद्र परिवार में जन्म हुआ है और उसका जीवन अत्यंत दरिद्रता में बीत रहा है।वो युवा हुआ, उसका विवाह हुआ और उसे चार संतानें हुईं।उसके जीवन के चालिस वर्ष बीत चुके हैं।
एक दिन बच्चों की जिद पर वो एक पीलू के वृक्ष पर चढ़कर उनके लिए पीलू तोड़कर नीचे फेंक रहा है और कुछ खुद भी खा रहा है।एक पके गुच्छे को तोड़ने के लिए वो जैसे ही थोड़ा ऊपर उठा तो उसका पैर फिसल गया,और वो धड़ाम से नीचे गिर गया।
राजा यकदम उठ बैठा।भोर हो रही थी और वो दातुन करने लगा,तो मुंह से एक पीलू का बीज निकला।राजा आश्चर्यचकित हो गया।

सुबह जब वो गुरु दरबार में आया,
तो श्री गुरू अर्जुन देव जी ने उसे वन विहार करने के लिए चलने को कहा।और श्री गुरु अर्जुन देव जी और राजा वन के लिए चल पड़े।

राजा वन में श्री गुरु अर्जुन देव जी से बिछड़ गया,और प्यास से व्याकुल होकर जल की तलाश में एक नगर में जा पहुँचा।

कुएं पर पानी भरती औरतों से जब उसने पानी माँगा तो वो भय से चीखने लगीं।राजा अभी हैरान खड़ा ही था कि कुछ बच्चे उससे आकर लिपट गए।कुछ बड़े बजुर्ग और एक औरत उसे हैरानी से देख रहे थे।

राजा ने उन्हें थोड़ा गौर से देखा- अरे! ये क्या,
ये तो वही लोग हैं जिन्हें मैंने सपने में अपने कुटुंब के रूप में देखा था।अरे! ये बच्चे भी वही हैं जो सपने में मेरी संतानें थीं।
पर इनका अस्तित्व कैसे हो सकता है?राजा अभी ये सोच ही रहा था,कि सब लोग उसे खींचकर बेटा, बापू और स्वामी कहते हुए लिपट गए।

तभी श्री गुरु अर्जुन देव जी वहां आ गए।
राजा ने श्री गुरु अर्जुन देव जी से खुद को बचाने की गुहार लगाई।

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने उन लोगों से पूछा- आप इन्हें अपने साथ क्यों ले जा रहे हो?

उन्होंने कहा- ये हमारा परिजन है।
इसे ईश्वर ने हमारे लिए वापिस भेजा है।
अभी कल ही ये बच्चों के लिए पीलू तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ा था,और वृक्ष से गिरने से इसकी मौत हो गई थी।
कुछ और परिजनों के इंतजार में इसका शरीर वैधराज के पास रखा था।हम उसे ही लेने आज जा रहे थे,कि ये जीवित होकर हमारे सामने आ गया।

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने कहा- भले लोगों! ये आपका परिजन नहीं है।आपके परिजन का शरीर वैध के घर में सुरक्षित पड़ा है।

लोग राजा और श्री गुरु अर्जुन देव जी के साथ वैध के घर गए,
और हूबहू राजा से मिलती देह देखकर हैरान रह गए।
उन्होंने राजा से माफी मांगी और उन्हें विदा किया।

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने राजा से कहा – राजन! तुमने कहा था ना कि अगर लिखा मिट नहीं सकता है,
तो सत्संग का क्या लाभ?
आप जो अभी देख के आ रहे हो,
वो आपका आने वाला जन्म था।
जो आपको इस जन्म के कुछ गलत कार्यों के कारण भोगना था।
लेकिन साधू जनों की संगत करने के कारण श्री गुरु नानक देव जी ने आपकी दरिद्रता के चालिस साल,
एक सपने में ही व्यतीत कर दिए।
जिस तरह राजमुद्रा पर अंकित अक्षर उल्टे होते हैं,
लेकिन स्याही का संग मिलते ही वो राजपत्र पर सीधे छपते हैं,
उसी तरह सत्संग का साथ हमारी मलिन बुद्धि को सीधे राह पर डाल देता है।

राजा ये वचन सुनकर,
धन्य श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हुए उनके चरणों में नतमस्तक हो गया।

—— तात्पर्य —-
सतगुरु अपने प्यारे की हर तरह संभाल करते हैं कोई आंच नहीं आने देते। सुई की शूल बनाकर कर्म कटवाते हैं और भवसागर से पार उतार देते हैं।

🙏🙏सतगुरु दया करें, दया करें सुखदाता🙏🙏

🙏🙏🌹🌹🙏🙏Baani Santo Ki🙏🙏🌹🌹🙏🙏

संजय गुप्ता

Posted in ज्योतिष - Astrology

धार्मिक जानकारी=======

रात को सोते समय सिर के पास कभी न रखें ये सामान

आप सभी आदरणीय के अन्दर बसे हुए परम पिता परमेश्वर को प्रणाम करते हुए हमने आपको सूचित किया था की बहुत ही कम समय में धर्म यात्रा पेज को 1700 सौ से ज्यादा दोस्तों ने लाइक कर लिया हैऔर प्रभु भक्ति के रस का आनंद ले रहे हैं आप सबसे जुड़ने पर मैं अपने आप को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ. जो अभी तक नहीं जुड़ें है, वो भी कृपया जुड़ें और प्रभु भक्ति के रस का आनंद उठाएं. प्रभु समस्त प्राणियों का कल्याण करें.

— कथा प्रारंभ: अब कथा का आनंद लें —
शयन कक्ष का ज्योतिष और धार्मिक शास्त्रों में एक विशिष्ट स्थान है। काल पुरूष सिद्धांत के अनुसार बैडरूम को कुण्डली के बारहवें भाव से देखा जाता है। ज्योतिष शास्त्र में बारहवें भाव को नुकसान, शय्या सुख, अनैतिक संबंध तथा रोग निदान से जोड़ कर देखा जाता है। बारहवें भाव से व्यक्ति की दूर क्षेत्र की यात्राओं और विदेश से कमाई का भी पता चलता है। रात को सोते समय कुछ चीजें सिर के पास रखने से व्यक्ति की सेहत, धन और संसारिक सुखों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। आईए जानें किस कारण से बैडरूम में सोते समय ये चीजें नहीं रखनी चाहिए

  • पानी को सिरहाने रखकर न सोएं इससे चन्द्रमा पीड़ित होता है तथा व्यक्ति को मनोरोग जैैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
  • सिरहाने पर्स रखकर न सोेएं इससे अनावश्क चीजों पर खर्च बढ़ता है।

  • सोने और चांदी से बने जेवरात सिरहाने रखकर न सोएं। इससे भाग्य कमजोर होता है।

  • नेल कटर, ब्लेड और कैंची इत्यादि सिरहाने रखकर न सोएं इससे पुरूषार्थ में कमी आती है तथा पौरूष शक्ति का नाश होता है।

  • लोहे के अतिरिक्त किसी अन्य धातु की चाबी रखने से चोरी की संभावना बढ़ जाती है।

  • जूते-चप्पल रखने से बूरे सपने स्वप्न आते है।