Posted in संस्कृत साहित्य

किसी मुस्लिम गड़रिये ने नहीं खोजी अमरनाथ गुफा – प्रवीण गुगनानी

SHARE:

https://plus.google.com/102818842669772900590 http://www.krantidoot.in/2018/06/Amarnath-cave-not-found-by-any-Muslim-cleric.html

आजकल जबकि प्रतिवर्ष अमरनाथ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं पर मुस्लिम आतंकवादियों का ख़तरा मंडराता रहता है व यात्रियों पर घातक हमले भी होते र…

आजकल जबकि प्रतिवर्ष अमरनाथ यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं पर मुस्लिम आतंकवादियों का ख़तरा मंडराता रहता है व यात्रियों पर घातक हमले भी होते रहते हैं तब ऐसे जहरीले वातावरण में एक झूठी मान्यता यह भी प्रायोजित कर दी गई है कि वर्ष 1850 में एक कश्मीरी मुस्लिम बूटा मलिक अपनी भेड़ें चराने के दौरान घुमते घुमते यहां पहुंचा और उसी ने श्री अमरनाथ जी के प्रथम दर्शन किये व इस गुफा की जानकारी तत्कालीन कश्मीरी राजा को दी व लोगों ने इस गुफा में जाना प्रारम्भ किया. वस्तुतः यह एक व मिथ्या फैलाई गई प्रायोजित कथा है जिसके आधार पर एक मुस्लिम परिवार स्वयं को बूटा मलिक का वंशज बताते हुए इस पवित्र गुफा की देखरेख करने वाली समिति का सदस्य बना रहा. वस्तुतः बूटा मलिक की यह कथा देश में शनैः शनैः फैलते गए सेकुलरो के झूठ का परिणाम है.

अमरनाथ यात्रा पर मुस्लिम आंतकवादियों के हमले व यात्रियों को यातनाएं व पीड़ा देनें की घटनाओं की दीर्घ श्रंखला के बाद समय समय पर इस झूठ को मीडिया द्वारा देश में स्थापित करनें का प्रयास किया जाता रहा है. नागरिकों को एक व्यर्थ के वर्ष 1850 के एक मुस्लिम व्यक्ति के कारण ही इस देश के हिन्दू अमरनाथ शिवलिंग के दर्शन कर पा रहे हैं इस सर्वथा मिथ्या बात को समय समय पर इस देश के मीडिया, सेकुलर राजनीतिज्ञों व मुस्लिम नेताओं द्वारा फैलाया जाता रहा है. किन्तु वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न है,जो कि इस देश के बहुसंख्य हिंदू बंधुओं के ध्यान में आना चाहिए. अतीव दुर्गम, अतीव मनमोहक व स्वर्गिक पर्वतों के मध्य स्थित इस आस्था केंद्र पर जानें के दौरान व इसके संदर्भ में बोलते सुनते समय सभी के मन में यह विचार अवश्य आता है कि अंततः कौन होगा जो इस निर्जन, एकांत व सुदूर स्थित दिव्य स्थान के दर्शन कर पाया होगा, इसके प्रथम दर्शन कब हुए होंगे, प्रथम दर्शन करनें वाला व्यक्ति यहां किस संदर्भ में आया होगा?! इस प्रश्न के उत्तर में यहां कई प्रकार की किवदंतियां, लोककथाएँ व मान्यताएं सुनने में आती हैं, किंतु सत्य यह है कि हमारें देश में मुस्लिम आक्रान्ताओं के वर्षों पूर्व से ही हम अमरनाथ शिवलिंग के महातम्य को जानते समझते रहें हैं.

इस पवित्र गुफा व दिव्य शिवलिंग के प्रथम मानव दर्शन कब हुए यह तथ्य तो सहस्त्रों वैदिक मान्यताओं की तरह सदैव रहस्य के गर्भ में ही रहेगा किंतु इसके संदर्भ में इतिहास में प्रथम प्रामाणिक लेखन 12 शताब्दी का मिलता है. इस लेख के अनुसार कश्मीर के महाराजा अनंगपाल व महारानी सुमन देवी के साथ सपत्नीक अमरनाथ जी के दर्शन किये थे. 16 वीं शताब्दी के एक ग्रन्थ “वंश चरितावली”” में भी अमरनाथ गुफा का महात्म्य वर्णित किया गया है. वर्ष 1150 में जन्में महान इतिहासकार व विलक्षण कवि कल्हण को कौन नहीं जानता?! मान्यता है कि भारतीय इतिहास को प्रथमतः यदि किसी ने वैज्ञानिक व तथ्यपरक दृष्टिकोण से लिपिबद्ध करने का कार्य किया है तो वे कल्हण ही हैं. कश्मीर के तो चप्पे चप्पे पर कल्हण की छाप है. कल्हण के ग्रन्थ “राजतरंगिनी तरंग द्वितीय” में उल्लेख मिलता है कि कश्मीर के राजा सामदीमत शिवभक्त थे और वे पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के दिव्य शिवलिंग की पूजा करने जाते थे!

प्राचीन ग्रंथ “ब्रंगेश संहिता”” में भी अमरनाथ यात्रा का उल्लेख है व और भी कई स्पष्ट व स्वुदघोषित तथ्य हैं जिनसे सुस्पष्ट प्रमाणित होता है कि बूटा मलिक की 1850 की मिथ्या कथा से हजारों वर्ष पूर्व से इस देश का हिंदू भारत के कोने कोने से जाकर अमरनाथ में दिव्य शिवलिंग के दर्शन करता रहा है. “बृंगेश संहिता” में तो इस यात्रा के वर्तमान पड़ावों अनंतनया(अनंतनाग),माचभवन(मट्टन),गणेशबल(गणेशपुर),ममलेश्वर(मामल), चंदनवाड़ी, सुशरामनगर (शेषनाग),पंचतरंगिनी(पंचतरणी), और अमरावती आदि का स्पष्ट उल्लेख है ग्रंथों में अंकित ये तथ्य बूटा मालिक की मिथ्या कथा को तार तार कर देनें में सक्षम हैं और यह सिद्ध करते हैं कि अमरनाथ जी के दर्शन हमारें पुरखे हजारों वर्षों से करते आ रहें हैं किंतु इसके प्रथम मानव दर्शन किस व्यक्ति ने कब किये इस तथ्य का रहस्योद्घाटन अभी होना बाकी है.

हिमालय की दुर्गम व उत्तुंग पर्वत श्रंखलाओं के मध्य स्थित अमरनाथ गुफा एक पवित्रतम हिंदू तीर्थ स्थल के रूप सर्वमान्य होकर सम्पूर्ण भारत वर्ष में सर्वपूज्य है. कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के उत्तर पूर्व में लगभग चार सौ किमी दूर समुद्र तल से 13600 फीट की दुर्गम ऊंचाई पर स्थित यह पवित्र गुफा 19 फीट गहरी,16 मीटर चौड़ी व 11 मीटर ऊंची है. इस तीर्थ स्थान के “अमरनाथ”” नाम की पृष्ठभूमि में वह कथा है जिसमें उल्लेख है कि यहीं पर त्रिनेत्रधारी शिवशंकर ने जगतजननी माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था. इस अमरत्व की कथा को सुनकर ही गुफा में बैठे एक शुक शिशू को शुकदेव ऋषि का रूप व अमरत्व प्राप्त हो गया था. यहां की प्रमुख विशेषता बर्फ से प्रतिवर्ष बनने वाला अद्भुत शिवलिंग है.

आषाढ़ से लेकर श्रावण के रक्षाबंधन पर्व तक यहां हिन्दू धर्मावलम्बी इस बाबा बर्फानी के नाम से प्रसिद्द शिवलिंग के दर्शनों हेतु आते हैं. गुफा की छत से टपकने वाली बूंदों से शनैः शनैः यह शिवलिंग बनता चलता है एवं दस बारह फीट की ऊंचाई तक पहुँच जाता है. श्रावण मास के चंद्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है. श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है. आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि कश्मीर के इस क्षेत्र में चारो ओर केवल कच्ची भूरभूरी बर्फ ही पाई जाति है. यहां मूल अमरनाथ शिवलिंग से कुछ फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं. गुफा में आज भी यदाकदा श्रद्धालुओं को अमरत्व प्राप्त कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है. मैंने स्वयं श्री अमरनाथ जी के दिव्य दर्शन के दौरान सपरिवार इस कबूतर व कबूतरी के साक्षात दर्शन प्राप्त किये हैं. प्रचलित किवदंती है व ग्रंथों में उल्लेखित भी है कि जब भगवान भोले भंडारी माँ पार्वती को अमरत्व की कथा सुनानें इस निर्जन स्थान की ओर बढ़ रहे थे तब उन्होंने अपने शरीर पर विराजमान सभी छोटे छोटे सांपो व नागों को एक स्थान पर छोड़ दिया था वही स्थान आज अनंतनाग के नाम से प्रसिद्द है, इसके पश्चात जहां उन्होंने अपने माथे के चंदन को उतारा वह स्थान आज चंदनबाड़ी कहलाता है, इसके पश्चात शिवजी ने अपने तन पर लगे पिस्सुओं को जहां उतारा वह स्थान आज पिस्सूटाप कहलाता है. सदैव गले में रहनें वाले शेषनाग को जहां उतारा वह स्थान आज शेषनाग कहलाता है. ये सभी स्थान आज भी इसी नाम से अमरनाथ यात्रा के पड़ाव हैं.

स्वामी विवेकानंद ने भी 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि दर्शन करते समय मेरे मन में विचार आया कि बर्फ का लिंग स्वयं भगवान शिव हैं. मैंने इतना सुंदर, इतना प्रेरणादायक कोई अन्य धर्म स्थल कहीं नहीं देखा और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनंद लिया है.

https://1.bp.blogspot.com/-m4uZIGWphTk/WzZfWJ42U7I/AAAAAAAAKKQ/TYcdXun7fy4hMmn3kfjhnEI6-q6P4wZOgCLcBGAs/s1600/praveen%2Bji.jpg प्रवीण गुगनानी
प्रदेश महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, मध्यप्रदेश
प्रदेश सहसंयोजक, मप्र भाजपा, मीडिया संपर्क, मध्यप्रदेश
प्रदेश महासचिव, वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन भोपाल
सचिव, मप्र दृष्टिहीन कल्याण संघ

Posted in ज्योतिष - Astrology

तिजोरी में रखना चाहिए एक सुपारी क्योंकि ये बढ़ाती है पैसा
तिजोरी जहां पैसा, ज्वेलरी और अन्य बेशकीमती वस्तुएं रखी जाती है। अत: यह जगह बहुत ही पवित्र और सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर होनी चाहिए। जिससे कि घर में बरकत बनी रह सके और पैसों की कभी कमी न आए। यदि तिजोरी के आसपास कोई नकारात्मक शक्तियां सक्रिय हैं तो उस घर में कभी भी पैसों कमी कभी पूरी नहीं हो सकेगी। ऐसे में शास्त्रों के अनुसार कुछ उपाय बताए गए हैं।
तिजोरी में हमेशा पैसा ही पैसा भरा रहे, धन की देवी महालक्ष्मी की कृपा सदैव आप पर बनी रहे, इसके लिए एक छोटा सा उपाय अपनाएं। शास्त्रों के अनुसार श्रीगणेश रिद्धि और सिद्ध के दाता है। कोई भी भक्त नित्य श्रीगणेश का ध्यान करता है तो उसे कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं सताती। श्रीगणेश को प्रसन्न करने के लिए कई उपाय हैं। प्रतिदिन गणेशजी की विधिवत पूजा करें और किसी भी शुभ मुहूर्त में विशेष पूजा करें। पूजन में गणेशजी के प्रतीक स्वरूप सुपारी रखी जाती है। बस यही सुपारी पूजा पूर्ण होने के बाद अपनी तिजोरी में रख दें।
पूजा में उपयोग की गई सुपारी में श्रीगणेश का वास होता है। अत: यह तिजोरी में रखने से तिजोरी के आसपास के क्षेत्र में सकारात्मक और पवित्र ऊर्जा सक्रिय रहेगी जो नकारात्मक शक्तियों को दूर रखेगी। पूजा में उपयोग की जाने वाली सुपारी बाजार में मात्र 1 रुपए में ही प्राप्त हो जाती है लेकिन विधिविधान से इसकी पूजा कर दी जाए तो यह चमत्कारी हो जाती है। जिस व्यक्ति के पास सिद्ध सुपारी होती है वह कभी भी पैसों की तंगी नहीं देखता, उसके पास हमेशा पर्याप्त पैसा रहता है।

संजय गुप्ता

Posted in संस्कृत साहित्य

क्या राधा भगवान कृष्ण की प्रेमिका थीं?

क्या राधा भगवान कृष्ण की प्रेमिका थीं? यदि थीं तो फिर कृष्ण ने उनसे विवाह क्यों नहीं किया? कृष्ण ने अपने जीवनकाल में 8 स्त्रियों से विवाह किया, तो क्या उन्हें राधा से विवाह करने में कोई दिक्कत थी? कृष्ण की 8 पत्नियों के नाम- रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा।

क्यों किया था कृष्‍ण ने पलायन, जानें रहस्य…

कहते हैं कि राधा और कृष्ण के प्रेम की शुरुआत बचपन में ही हो गई थी। कृष्ण नंदगांव में रहते थे और राधा बरसाने में। नंदगांव और बरसाने से मथुरा लगभग 42-45 किलोमीटर दूर है। अब सवाल यह उठता है कि जब 11 वर्ष की अवस्था में श्रीकृष्ण मथुरा चले गए थे, तो इतनी लघु अवस्था में गोपियों के साथ प्रेम या रास की कल्पना कैसे की जा सकती है?

मथुरा में उन्होंने कंस से लोहा लिया और कंस का अंत करने के बाद तो जरासंध उनकी जान का दुश्मन बन गया था जो शक्तिशाली मगथ का सम्राट था और जिसे कई जनपदों का सहयोग था। उससे दुश्मनी के चलते श्रीकृष्ण को कई वर्षों तक तो भागते रहना पड़ा था। जब परशुराम ने उनको सुदर्शन चक्र दिया तब जाकर कहीं आराम मिला। लेकिन इसके पीछे का सच भी जानेंगे अगले पन्नों पर।

उल्लेखनीय है कि महाभारत या भागवत पुराण में ‘राधा’ के नाम का उल्लेख नहीं मिलता है। फिर यह राधा नाम की महिला भगवान कृष्ण के जीवन में कैसे आ गई या कहीं यह मध्यकाल के कवियों की कल्पना तो नहीं?

यह सच है कि कृष्ण से जुड़े ग्रंथों में राधा का नाम नहीं है। सुखदेवजी ने भी भागवत में राधा का नाम नहीं लिया। यदि भगवान कृष्ण के जीवन में राधा का जरा भी महत्व था, तो क्यों नहीं राधा का नाम कृष्ण से जुड़े ग्रंथों में मिलता है? या कहीं ऐसा तो नहीं की वेद व्यासजी ने जानबूझकर श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम प्रसंग को नहीं लिखा?

कृष्ण के साथ राधा भक्ति की शुरुआत कहां से हुई, ,,,,,
भक्तिकाल : माना जाता है कि मध्यकाल या भक्तिकाल में राधा और कृष्ण की प्रेमकथा को विस्तार मिला। अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया और कृष्ण के योद्धा चरित्र का नाश कर दिया गया। राधा-कृष्ण की भक्ति की शुरुआत निम्बार्क संप्रदाय, वल्लभ-संप्रदाय, राधावल्लभ संप्रदाय, सखीभाव संप्रदाय आदि ने की। निम्बार्क, चैतन्य, बल्लभ, राधावल्लभ, स्वामी हरिदास का सखी- ये संप्रदाय राधा-कृष्ण भक्ति के 5 स्तंभ बनकर खड़े हैं। निम्बार्क का जन्म 1250 ईस्वी में हुआ। इसका मतलब कृष्ण की भक्ति के साथ राधा की भक्ति की शुरुआत मध्यकाल में हुई। उसके पूर्व यह प्रचलन में नहीं थी?

पांचों संप्रदायों में सबसे प्राचीन निम्बार्क और राधावल्लभ दो संप्रदाय हैं।दक्षिण के आचार्य निम्बार्कजी ने सर्वप्रथम राधा-कृष्ण की युगल उपासना का प्रचलन किया। राधावल्भ संप्रदाय के लोग कहते हैं कि राधावल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक श्रीकृष्ण वंशी अवतार कहे जाने वाले और वृंदावन के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने वाले रसिकाचार्य हित हरिवंशजी महाप्रभु के संप्रदाय की प्रवर्तक आचार्य राधा हैं।

इन दोनों संप्रदायों मेंराधाष्टमीके उत्सव का विशेष महत्व है। निम्बार्क व राधावल्लभ संप्रदाय का प्रमुख गढ़ वृंदावन है। निम्बार्क संप्रदाय के विद्वान व वृंदावन शोध संस्थान से जुड़े छीपी गली निवासी वृंदावन बिहारी कहते हैं कि कृष्ण सर्वोच्च प्रेमी थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वैष्णवाचार्यों ने भी अपने-अपने तरीकों से उनकी आराधना की है।

निम्बार्क संप्रदाय कहता है कि श्याम और श्यामा का एक ही स्वरूप हैं। भगवान कृष्ण ने अपनी लीलाओं के लिए स्वयं से राधा का प्राकट्य किया और दो शरीर धारण कर लिए। लेकिन यह तो भक्तिभाव में कही गई बाते हैं, इनमें तथ्‍य कहां है? इतिहास अलौकिक बातों से नहीं बनता। ऐसी बातें करने वालों को झूठा माना जाता है और ऐसे ही लोग तो धर्म की प्रतिष्ठा गिराते हैं।

आखिर सच क्या है?

कौन थीं राधा, जानिए =====
बरसाना और नंदगांव :राधा का जिक्र पद्म पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है। पद्म पुराण के अनुसार राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थीं। वृषभानु वैश्य थे। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की मित्र थीं और उसका विवाह रापाण, रायाण अथवा अयनघोष नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। उस जमाने में स्त्री का विवाह किशोर अवस्था में ही कर दिया जाता था। बरसाना और नंदगाव के बीच 4 मील का फासला है।

महाभारत के सभी प्रमुख पात्र भीष्म, द्रोण, व्यास, कर्ण, अर्जुन, युधिष्ठिर आदि श्रीकृष्ण के महान-चरित्र की प्रशंसा करते थे। उस काल में भी परस्त्री से अवैध संबंध रखना दुराचार माना जाता था। यदि श्रीकृष्ण का भी राधा नामक किसी औरत से संबंध हुआ होता तो श्रीकृष्ण पर भी अंगुली उठाई जाती?

बरसाना राधा के पिता वृषभानु का निवास स्थान था। बरसाने से मात्र 4 मील पर नंदगांव है, जहां श्रीकृष्ण के सौतेले पिता नंदजी का घर था। होली के दिन यहां इतनी धूम होती है कि दोनों गांव एक हो जाते हैं। बरसाने से नंदगाव टोली आती है और नंदगांव से भी टोली जाती है।

कुछ विद्वान मानते हैं कि राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था और बाद में उनके पिता बरसाना में बस गए। लेकिन अधिकतर मानते हैं कि उनका जन्म बरसाना में हुआ था। राधारानी का विश्वप्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। बरसाना में राधा को ‘लाड़ली’ कहा जाता है।

बरसाना गांव के पास दो पहाड़ियां मिलती हैं। उनकी घाटी बहुत ही कम चौड़ी है। मान्यता है कि गोपियां इसी मार्ग से दही-मक्खन बेचने जाया करती थीं। यहीं पर कभी-कभी कृष्ण उनकी मक्खन वाली मटकी छीन लिया करते थे।

गौरतलब है कि मथुरा में कृष्ण के जन्म के बाद कंस के सभी सैनिकों को नींद आ गई थी और वासुदेव की बेड़ियां किसी चमत्कार से खुल गई थीं, तब वासुदेवजी भगवान कृष्ण को नंदगांव में नंदराय के यहां आधी रात को छोड़ आए थे। कुछ मानते हैं कि वे मथुरा के पास गोकुल में यशोदा के मायके छोड़ आए थे, जहां से यशोदा उन्हें नंदगांव ले गईं।

नंद के घर लाला का जन्म हुआ है, ऐसी खबर धीरे-धीरे गांव में फैल गई। यह सुनकर सभी नंदगांववासी खुशियां मनाने लगे। कृष्ण ने नंदगांव में रहते हुए पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि असुरों का वध किया। यहां के घाट और उसके पास अन्य मनोरम स्थल हैं, जैसे- गोविंद घाट, गोकुलनाथजी का बाग, बाजनटीला, सिंहपौड़ी, यशोदा घाट, रमणरेती आदि।

गोकुल क्या है :गोकुल यमुना के तट पर बसा एक गांव है, जहां सभी नंदों की गायों का निवास स्थान था। यहीं पर रोहिणी ने बलराम को जन्म दिया था। बलराम देवकी के 7वें गर्भ में थे जिन्हें योगमाया ने आकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में डाल दिया था। यह स्थान गोप लोगों का था। मथुरा से गोकुल की दूरी महज 12 किलोमीटर है।

श्रीचैतन्य महाप्रभु के ब्रज आगमन के पश्चात श्रीवल्लभाचार्य ने यमुना के इस मनोहर तट पर श्रीमद्भागवत का पारायाण किया था। इनके पुत्र श्रीविट्ठलाचार्य और उनके पुत्र श्रीगोकुलनाथजी की बैठकें भी यहां पर हैं। असल में श्रीविट्ठलनाथजी ने औरंगजेब को चमत्कार दिखलाकर इस स्थान का अपने नाम पर पट्टा लिया था। उन्होंने ही इस गोकुल को बसाया था। यह नंद का रहने का स्थान नहीं था। गोकुल के पास काम्यवन से कृष्ण का नाता जरूर है।

राधा की कृष्ण से पहली मुलाकात..

संकेत तीर्थ :कहते हैं कि राधा की कृष्ण से पहली मुलाकात नंदगांव और बरसाने के बीच हुई। एक-दूसरे को देखने के बाद दोनों में सहज ही एक-दूसरे के प्रति आकर्षण बढ़ गया। माना जाता है कि यहीं से राधा-कृष्ण के प्रेम की शुरुआत हुई। इस स्थान पर आज एक मंदिर है। इसे संकेत स्थान कहा जाता है। मान्यता है कि पिछले जन्म में ही दोनों ने यह तय कर लिया था कि हमें इस स्थान पर मिलना है। उस वक्त कृष्ण की उम्र क्या रही होगी?

यहां हर साल राधा के जन्मदिन यानी राधाष्टमी से लेकर अनंत चतुर्दशी के दिन तक मेला लगता है। इन दिनों लाड़ली मंदिर में दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रद्घालु आते हैं और राधा-कृष्ण के प्रथम स्थल पर आकर इनके शाश्वत प्रेम को याद करते हैं।

वृंदावन से राधा-कृष्ण का क्या रिश्ता है?

वृंदावन कृष्ण लीलाओं का स्थल :वृंदावन मथुरा से 14 किलोमीटर दूर है। मथुरा कंस का नगर है, जहां यमुना तट पर बनी जेल से मुक्त कराकर वासुदेवजी कृष्ण को नंदगांव ले गए। मथुरा से नंदगांव 42 किलोमीटर दूर है। प्राचीन वृंदावन गोवर्धन के निकट था। बरसाना मथुरा से 50 किमी दूर उत्तर-पश्चिम में और गोवर्धन से 21 किमी दूर उत्तर में स्थित है। नंदगांव तो बरसाने के बिलकुल पास है लेकिन वृंदावन से दूर।

श्रीमद्भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातियों के साथ नंदगांव से वृंदावन में आकर बस गए थे। विष्णु पुराण में वृंदावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। यहां श्रीकृष्‍ण ने कालिया का दमन किया था।

रासलीला :मान्यता है कि यहीं पर श्रीकृष्‍ण और राधा एक घाट पर युगल स्नान करते थे। यहीं पर श्रीकृष्ण और गोपियां आंख-मिचौनी का खेल खेलते थे। यहीं पर श्रीकृष्ण और उनके सभी सखा और सखियां मिलकर रासलीला अर्थात तीज-त्योहारों पर नृत्य-उत्सव का आयोजन करते थे। कृष्ण की शरारतों के कारण उन्हें बांकेबिहारी कहा जाता है। यहां पर यमुना घाट के प्रत्येक घाट से भगवान कृष्ण की कथा जुड़ी हुई है।

कृष्ण ने जो नंदगांव और वृंदावन में छोटा-सा समय गुजारा था, उसको लेकर भक्तिकाल के कवियों ने ही कविताएं लिखी हैं। उनमें कितनी सच्चाई है? इतिहासकार मानते हैं कि एक सच को इतना महिमामंडित किया गया कि अब वह कल्पनापूर्ण लगता है। कृष्ण जब मथुरा में कंस को मारने गए, तब उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। कंस को मारने के बाद उनके जीवन में उथल-पुथल शुरू हो गई।

क्या राधा कृष्ण की मामी थीं?

कहते हैं कि राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखंड के 5वें अध्याय में श्लोक 25, 26 के अनुसार राधा को कृष्ण की पुत्री सिद्ध किया गया है। राधा का पति रायाण गोलोक में श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था। अतः गोलोक के रिश्ते से राधा श्रीकृष्ण की पुत्रवधू हुई। माना जाता है कि गोकुल में रायाण रहते थे।

ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृति खंड अध्याय 48 के अनुसार राधा कृष्ण की पत्नी (विवाहिता) थीं, जिनका विवाह ब्रह्मा ने करवाया। इसी पुराण के प्रकृति खंड अध्याय 49 श्लोक 35, 36, 37, 40, 47 के अनुसार राधा श्रीकृष्ण की मामी थीं, क्योंकि उनका विवाह कृष्ण की माता यशोदा के भाई रायाण के साथ हुआ था।

ऐसा माना जाता है कि एक जंगल में स्वयं ब्रह्मा ने राधा और कृष्ण का गंधर्व विवाह करवाया था। गर्ग संहिता के अनुसार श्रीकृष्ण के पिता उन्हें अकसर पास के भंडिर ग्राम में ले जाया करते थे। वहां उनकी मुलाकाता राधा से होती थी।

एक बार की बात है कि जब वे अपने पिता के साथ भंडिर गांव गए तो अचानक तेज रोशनी चमकी और मौसम बिगड़ने लगा, कुछ ही समय में आसपास सिर्फ और सिर्फ अंधेरा छा गया। इस अंधेरे में एक पारलौकिक शख्सियत का अनुभव हुआ। वह राधारानी के अलावा और कोई नहीं थी। अपने बाल रूप को छोड़कर श्रीकृष्ण ने किशोर रूप धारण कर लिया और इसी जंगल में ब्रह्माजी ने विशाखा और ललिता की उपस्थिति में राधा-कृष्ण का गंधर्व विवाह करवा दिया। विवाह के बाद माहौल सामान्य हो गया, राधा ब्रह्मा, विशाखा और ललिता अंतर्ध्यान हो गए।

असल में इस वास्तविक घटना को अलंकृत कर दिया गया है। राधा सचमुच ही कृष्ण से बड़ी थीं और सामाजिक दबावों के चलते यह संभव नहीं था कि उम्र में कहीं बड़ी लड़की से विवाह किया जाए। लेकिन यदि दोनों के बीच प्रेम रहा होगा तो निश्चित ही गुपचुप रूप से गंधर्व विवाह किया गया हो और इस बात को छुपाए रखा है।
राधा का कृष्ण से विरह क्यों…

पुराणों के अनुसार देवी रुक्मणि का जन्म अष्टमी तिथि को कृष्ण पक्ष में हुआ था और श्रीकृष्ण का जन्म भी कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि को हुआ था व देवी राधा वह भी अष्टमी तिथि को अवतरित हुई थीं। राधाजी के जन्म में और देवी रुक्मणि के जन्म में एक अंतर यह है कि देवी रुक्मणि का जन्म कृष्ण पक्ष में हुआ था और राधाजी का शुक्ल पक्ष में। राधाजी को नारदजी के शाप के कारण विरह सहना पड़ा और देवी रुक्मणि से कृष्णजी की शादी हुई। राधा और रुक्मणि यूं तो दो हैं, परंतु दोनों ही माता लक्ष्मी के ही अंश हैं।

रामचरित मानस के बालकांड में जैसा कि तुलसीदासजी ने लिखा है कि नारदजी को यह अभिमान हो गया था कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है। नारदजी की परीक्षा लेने के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया। उस नगर के राजा ने अपनी रूपवती पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर में नारद मुनि भी पहुंचे और कामदेव के बाणों से घायल होकर राजकुमारी को देखकर मोहित हो गए।

राजकुमारी से विवाह की इच्छा लेकर वे भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे निवेदन करने लगे कि प्रभु मुझे आप अपना सुंदर रूप प्रदान करें, क्योंकि मुझे राजकुमारी से प्रेम हो गया है और मैं उससे विवाह की इच्छा रखता हूं। नारदजी के वचनों को सुनकर भगवान मुस्कुराए और कहा तुम्हें विष्णु रूप देता हूं। जब नारद विष्णु रूप लेकर स्वयंवर में पहुंचे तब उस राजकुमारी ने विष्णुजी के गले में वरमाला डाल दी। नारदजी वहां से दु:खी होकर चले आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक जलाशय दिखा जिसमें उन्होंने चेहरा देखा तो वे समझ गए कि विष्णु भगवान ने उनके साथ छल किया है और उन्हें वानर रूप दिया है।

नारदजी क्रोधित होकर वैकुंठ पहुंचे और भगवान को बहुत भला-बुरा कहा और उन्हें पत्नी का वियोग सहना होगा, यह श्राप दिया। नारदजी के इस श्राप की वजह से रामावतार में भगवान रामचन्द्रजी को सीता का वियोग सहना पड़ा था और कृष्णावतार में देवी राधा का।

श्रीकृष्ण ने देवी रुक्मणि के प्रेम और पतिव्रत को देखते हुए उन्हें वरदान दिया कि जो व्यक्ति पूरे वर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपका व्रत और पूजन करेगा और पौष मास की कृष्ण अष्टमी को व्रत कर के उसका उद्यापन यानी समापन करेगा उसे कभी धनाभाव का सामना नहीं करना होगा। जो आपका भक्त होगा उसे देवी लक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होगी।

राधा की कृष्ण से एक और मुलाकात…कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेमभाव में और भी वृद्धि हुई। जब कृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा चले गए, तब राधा के लिए उन्हें देखना और उनसे मिलता और दुर्लभ हो गया।

राधा और कृष्ण दोनों का पुनर्मिलन कुरुक्षेत्र में बताया जाता है, जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृंदावन से नंद के साथ राधा आई थीं। राधा सिर्फ कृष्ण को देखने और उनसे मिलने ही नंद के साथ गई थी। इसका जिक्र पुराणों में मिलता है।

अंत में एक अन्य कथा…

ब्रह्मवैवर्त पुराण में आया है कि एक बार राधा गोलोक से कहीं बाहर गई थीं। उस समय श्रीकृष्ण अपनी विरजा नाम की सखी के साथ विहार कर रहे थे। संयोगवश राधा वहां आ गईं। विरजा के साथ कृष्ण को देखकर राधा क्रोधित हो गईं और कृष्ण एवं विरजा को भला-बुरा कहने लगी। लज्जावश विरजा नदी बनकर बहने लगी।

कृष्ण के प्रति राधा के क्रोधपूर्ण शब्दों को सुनकर कृष्ण का मित्र सुदामा आवेश में आ गया। सुदामा कृष्ण का पक्ष लेते हुए राधा से आवेशपूर्ण शब्दों में बात करने लगा। सुदामा के इस व्यवहार को देखकर राधा नाराज हो गईं।

राधा ने सुदामा को दानव रूप में जन्म लेने का शाप दे दिया। क्रोध में भरे हुए सुदामा ने भी हित-अहित का विचार किए बिना राधा को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। राधा के शाप से सुदामा शंखचूर नाम का दानव बना जिसका वध भगवान शिव ने किया। सुदामा के शाप के कारण राधा को मनुष्य रूप में जन्म लेकर धरती पर आना पड़ा।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक राजा ने गाव में रामकथा करवाई और कहा की सभी ब्राह्मणो को रामकथा के लिए आमत्रित किया जय , राजा ने सबको रामकथा पढने के लिए यथा स्थान बिठा दिया |

एक ब्राह्मण अंगुटा छाप था उसको पठना लिखना कुछ आता नही था , वो ब्राह्मण सबसे पीछे बैठ गया , और सोचा की जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पलट दूंगा।

काफी देर देखा की पास बैठा व्यक्ति पन्ना नही पलट रहा है, उतने में राजा श्रदा पूरवक सबको नमन करते चक्कर लगाते लगाते उस सज्जन के समीप आने लगे, तो उस ने एक ही रट लगादी
की “अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा ”
“अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा ”

उस सज्जन की ये बात सुनकर पास में बैठा व्यक्ति भी रट लगाने लग गया ,
की “तेरी गति सो मेरी गति
तेरी गति सो मेरी गति ,”

उतने में तीसरा व्यक्ति बोला ,
” ये पोल कब तक चलेगी !
ये पोल कब तक चलेगी !

चोथा बोला
जबतक चलता है चलने दे ,
जबतक चलता है चलने दे ,
वे चारो अपने सिर निचे किये इस तरह की रट लगाये बैठे है

जब राजा ने उन चारो के स्वर सुने , राजा ने पूछा की ये सब क्या गा रहे है, ऐसे प्रसंग तो रामायण में हम ने पहले कभी नही सुना ,

एक महात्मा उठे और बोले महाराज ये सब रामायण का ही प्रसंग बता रहे है पहला व्यक्ति है ये बहुत विद्वान है ,ये बात सुमन ने ( अयोध्याकाण्ड ) में कही , राम लक्ष्मण सीता जी को वन में छोड़ , घर लोटते है तब ये बात सुमन कहता है की
“अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ?
अब राजा पूछेंगे तो क्या कहूँगा ?

फिर पूछा की ये दूसरा कहता है की तेरी गति सो मेरी गति , महात्मा बोले महाराज ये तो इनसे भी ज्यादा विद्द्वान है ,( किष्किन्धाकाण्ड) में जब हनुमान जी, राम लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधे पर बिठा कर सुग्रीव के पास गए तब ये बात राम जी ने कही थी की सुग्रीव तेरी गति सो मेरी गति , तेरी पत्नीको बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का रावण ने हरण कर लिया..

राजा ने आदरसे फिर पूछा , की महात्मा जी ! ये तीसरा बोल रहा है की ये पोल कब तक चलेगी , ये बात कभी किसी संत ने नही कही ? , बोले महाराज ये तो और भी ज्ञानी है ,( लंकाकाण्ड ) में अंगद जी ने रावण की भरी सभा में अपना पैर जमाया , तब ये प्रसंग मेधनाथ ने अपने पिता रावन से किया की पिता श्री ये पोल कब तक चलेगी , पहले एक वानर आया और वो हमारी लंका जला कर चला गया , और अब ये कहता है की मेरे पैर को कोई यहाँ से हटा दे तो भगवान श्री राम बिना युद्द किये वापिस लौट जायेंगे।

फिर राजा बोले की ये चौथा बोल रहा है ? वो बोले महाराज ये इतना बड़ा विद्वान है की कोई इनकी बराबरी कर ही नही सकता ,ये मंदोदरी की बात कर रहे है , मंदोदरी ने कई बार रावण से कहा की स्वामी आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सौप दीजिये अन्यथा अनर्थ हो जायगा ,
तब ये बात रावण ने मंदोदरी से कही
की ( जब तक चलता है चलने दे )

मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू है ,अगर में राम के हाथो मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी , इस अदम शरीर से भजन -वजन तो कुछ होता नही , और में युद्द जीत गया तो त्रिलोकी में भी मेरी जय जय कार हो जाएगी

राजा इन सब बातोसे चकित रह गए बोले की आज हमे ऐसा अद्भुत प्रसंग सूनने को मिला की आज तक हमने नही सुना , राजा इतने प्रसन्न हुए की उस महात्मा से बोले की आप कहे वो दान देने को राजी हु ।
उस महात्मा ने उन अनपढ़ अंगुटा छाप ब्रहमिन भक्तो को अनेको दान दक्षणा दिलवा दी ।

इन सब बातो का एक ही सार है की कोई अज्ञानी , कोई नास्तिक , कोई कैसा भी क्यों न हो , रामायण , भागवत ,जैसे महान ग्रंथो को श्रदा पूरवक छूने मात्र से ही सब संकटो से मुक्त हो जाते है ,
और भगवान का सच्चा प्रेमी हो जाये उन की तो बात ही क्या है , मत पूछिये की वे कितने धनी हो जाते है

     ।। जय जय श्री सीताराम ।।

मुकेश अग्नि

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

….. लोभ

एक गाँव में एक नाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। नाई ईमानदार था, अपनी कमाई से संतुष्ट था। उसे किसी तरह का लालच नहीं था। नाई की पत्नी भी अपनी पति की कमाई हुई आय से बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी चलाती थी। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी बड़े आराम से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।
नाई अपने काम में बहुत निपुण था। एक दिन वहाँ के राजा ने नाई को अपने पास बुलवाया और रोज उसे महल में आकर हजामत बनाने को कहा।
नाई ने भी बड़ी प्रसन्नता से राजा का प्रस्ताव मान लिया। नाई को रोज राजा की हजामत बनाने के लिए एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी।
इतना सारा पैसा पाकर नाई की पत्नी भी बड़ी खुश हुई। अब उसकी जिन्दगी बड़े आराम से कटने लगी। घर पर किसी चीज की कमी नहीं रही और हर महीने अच्छी रकम की बचत भी होने लगी। नाई, उसकी पत्नी और बच्चे सभी खुश रहने लगे।

एक दिन शाम को जब नाई अपना काम निपटा कर महल से अपने घर वापस जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक आवाज सुनाई दी।
आवाज एक यक्ष की थी। यक्ष ने नाई से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी ईमानदारी के बड़े चर्चे सुने हैं, मैं तुम्हारी 8ईमानदारी से बहुत खुश हूँ और तुम्हें सोने की मुद्राओं से भरे सात घड़े देना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे दिये हुए घड़े लोगे ?
नाई पहले तो थोड़ा डरा, पर दूसरे ही पल उसके मन में लालच आ गया और उसने यक्ष के दिये हुए घड़े लेने का निश्चय कर लिया।
नाई का उत्तर सुनकर उस आवाज ने फिर नाई से कहा, ‘‘ठीक है सातों घड़े तुम्हारे घर पहुँच जाएँगे।’’

नाई जब उस दिन घर पहुँचा, वाकई उसके कमरे में सातy घड़े रखे हुए थे। नाई ने तुरन्त अपनी पत्नी को सारी बातें बताईं और दोनों ने घड़े खोलकर देखना शुरू किया। उसने देखा कि छः घड़े तो पूरे भरे हुए थे, पर सातवाँ घड़ा आधा खाली था।
नाई ने पत्नी से कहा—‘‘कोई बात नहीं, हर महीने जो हमारी बचत होती है, वह हम इस घड़े में डाल दिया करेंगे। जल्दी ही यह घड़ा भी भर जायेगा। और इन सातों घड़ों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जायेगा।
अगले ही दिन से नाई ने अपनी दिन भर की बचत को उस सातवें में डालना शुरू कर दिया। पर सातवें घड़े की भूख इतनी ज्यादा थी कि वह कभी भी भरने का नाम ही नहीं लेता था।

धीरे-धीरे नाई कंजूस होता गया और घड़े में ज्यादा पैसे डालने लगा, क्योंकि उसे जल्दी से अपना सातवाँ घड़ा भरना था।
नाई की कंजूसी के कारण अब घर में कमी आनी शुरू हो गयी, क्योंकि नाई अब पत्नी को कम पैसे देता था। पत्नी ने नाई को समझाने की कोशिश की, पर नाई को बस एक ही धुन सवार थी—सातवां घड़ा भरने की।
अब नाई के घर में पहले जैसा वातावरण नहीं था। उसकी पत्नी कंजूसी से तंग आकर बात-बात पर अपने पति से लड़ने लगी। घर के झगड़ों से नाई परेशान और चिड़चिड़ा हो गया।
एक दिन राजा ने नाई से उसकी परेशानी का कारण पूछा। नाई ने भी राजा से कह दिया अब मँहगाई के कारण उसका खर्च बढ़ गया है। नाई की बात सुनकर राजा ने उसका मेहताना बढ़ा दिया, पर राजा ने देखा कि पैसे बढ़ने से भी नाई को खुशी नहीं हुई, वह अब भी परेशान और चिड़चिड़ा ही रहता था।
एक दिन राजा ने नाई से पूछ ही लिया कि कहीं उसे यक्ष ने सात घड़े तो नहीं दे दिये हैं ? नाई ने राजा को सातवें घड़े के बारे में सच-सच बता दिया।

तब राजा ने नाई से कहा कि सातों घड़े यक्ष को वापस कर दो, क्योंकि सातवां घड़ा साक्षात लोभ है, उसकी भूख कभी नहीं मिटती।
नाई को सारी बात समझ में आ गयी। नाई ने उसी दिन घर लौटकर सातों घड़े यक्ष को वापस कर दिये।

घड़ों के वापस जाने के बाद नाई का जीवन फिर से खुशियों से भर गया था।
.
कहानी हमें बताती है कि हमें कभी लोभ नहीं करना चाहिए। भगवान ने हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार चीजें दी हैं, हमारे पास जो है, हमें उसी से खुश रहना चाहिए। अगर हम लालच करे तो सातवें घड़े की तरह उसका कोई अंत नहीं होता

ज्योति अग्रवाल

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

“ ॐ तत्सत् ……….. श्री सदानन्दाय नमः “
योग ….वास्तविक स्वरुप … भाग..१
योग शब्द युक्ति अर्थात मेल तथा ‘ यूज् समाधौ ‘ धातु के अनुसार समाधि के अर्थ में प्रयुक्त होता है |
योग की प्राचीनता के विषय में पतंजलि मुनि कहते हैं..
‘ अथ योगानुशासनम् ‘…….. शासन शब्द का प्रयोग उपदेश या शिक्षा के लिए होता है | अनुशासन = अनु+शासन … अर्थात जिस विषय का शासन पहले से ही विद्यमान हो |
अतः योग प्राचीन काल से ही विद्यमान है.. |
इसके प्रथम वक्ता के विषय में महाभारत का वचन है …
“सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षिः स उच्यते |
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः ||
सांख्य के वक्ता कपिलाचार्य परमर्षि कहलाते हैं. और योग के वक्ता हिरण्यगर्भ हैं , इनसे पुराना और कोई वक्ता नहीं है|
योग के वक्ता हिरण्यगर्भ के बारे में ऋग वेद का प्रमाण है..
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् |
स दाधार पृथिवी` द्या मुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ||
हिरण्यगर्भ ही सर्वप्रथम हुए | जो समस्त भूतों के अधिपति थे | उन्होंने ही इस पृथिवी और स्वर्ग को धारण किया | उस सुख रूप देव की हम पूजा करते हैं.|
महाभारत के अनुसार ..
हिरण्यगर्भो द्युतिमान य एषच्छन्दशि स्तुतः |
योगै: सम्पुज्यते नित्यं स च लोके विभु: स्मृतः ||
अर्थात:- यह द्युतिमान हिरण्यगर्भ वही है ..जिसकी वेदों में स्तुति की गयी है… जिनकी योगी लोग नित्य पूजा किया करते हैं ..और संसार में जिन्हें “ विभु ” कहते हैं |
श्वेताश्वतर उपनिषद् का आदेश है…
त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदिन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य |
ब्रहमोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि ||
शरीर के तीनो अंगों (छाती, गर्दन तथा सिर ) को सीधा रख कर, इन्द्रियों को मन के साथ ह्रदय में प्रवेश करके .. ॐकार की नौका पर सवार हो कर भय के लाने वाले सारे प्रवाहों से पार उतर जाय |
कठोपनिषद का प्रमाण है…
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम् |
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो ||
जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती हैं और वुद्धि भी चेष्टा रहित हो जाती है… उसे ही योग मानना चाहिए | जो इन्द्रियों की निश्चल धारणा है | उस समय वह योगी प्रमाद रहित होता है क्योकि योग प्रभव ( निरोध के संस्कार के प्रादुर्भाव वाला ) और अप्यय ( व्युत्थान के संस्कारों के अभिभव अर्थात दबने का स्थान वाला) है |
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं ..
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||
भक्ति युक्त पुरुष अंत काल में योग बल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार से स्थित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस हिरण्यगर्भ पुरुष को ही प्राप्त होता है |
सर्वद्वाराणि संयम्य मनोहृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मन: प्राणः प्राणमास्थितो योग धारणाम् ||
ॐइत्येकाक्षर ब्रह्म ब्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||
अर्थात :- सब ईन्द्रियों के द्वारों को रोक कर तथा मन को ह्रदय प्रदेश में स्थिर कर के प्राण को मूर्धा में स्थापित करके आत्म ( मै ) की योग साधना में स्थित होकर जो पुरुष “ ॐ “ इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चरित करता हुआ साथ ही उसके तत्त्वरूप “ मै “ को ( मुझे ) स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है | (अर्थात “ मै “ को प्राप्त होता है…| )
तपस्विभ्यो.धिको योगी ज्ञानिभ्यो.पि मतो.धिकः |
कर्मिभ्यचाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ||
हे अर्जुन योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है और शास्त्र ज्ञानियों में भी ..साथ ही कर्कारने वालों में भी श्रेष्ठ है | अतः तुम योगी हो | ……. क्रमशः
भगवत्कृपा हि केवलम् …… स्वामी सत्यानन्द

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय

‘सूर सूर तुलसी शशि’

सूरदासजी को भक्तिमार्ग का सूर्य कहा जाता है। जिस प्रकार सूर्य एक ही है और अपने प्रकाश और उष्मा से संसार को जीवन प्रदान करता है उसी तरह सूरदासजी ने अपनी भक्ति रचनाओं से मनुष्यों में भक्तिभाव का संचार किया है। इस लेख में सूरदासजी की भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाने वाली एक कथा का वर्णन किया गया है।

सूरदासजी को मन की आंखों से भगवान के श्रृंगार और लीलाओं के दर्शन की थी सिद्धि।

वैशाख शुक्ल पंचमी संवत् 1535 को एक दिव्य ज्योति के रूप में भक्त सूरदासजी इस पृथ्वी पर आए तो उनके नेत्र बंद थे। जन्मान्ध बालक के प्रति पिता और घर के लोगों की उपेक्षा से धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने घर छोड़ दिया। आगरा के पास रुनकता में रहे और फिर वल्लभाचार्यजी के साथ गोवर्धन चले आए वहां वे चन्द्रसरोवर के पास पारसोली में रहने लगे। वे मन की आंखों (अंत:चक्षु) से ही अपने आराध्य की सभी लीलाओं और श्रृंगार का दर्शन कर पदों की रचना कर उन्हें सुनाया करते थे ।

भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय भक्तों के साथ करते हैं लीला

एक बार सूरदासजी अपनी मस्ती में कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक सूखा कुंआ था, उसमें वे गिर गए । कुएं में गिरे हुए सात दिन हो गए । वे नंदनन्दन से बड़े ही करुण स्वर में प्रार्थना कर रहे थे । उनकी प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने आकर उनको कुएं से बाहर निकाल दिया। बाहर आकर वे अपने अंधेपन पर पछताते हुए कहने लगे—‘मैं पास आने पर भी अपने आराध्य के दर्शन नहीं कर सका ।’

एक दिन वे बैठे हुए ऐसे ही विचार कर रहे थे कि उन्हें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की बातचीत सुनायी दी ।

श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा—‘आगे मत जाना, नहीं तो वह सूरदास पाँव पकड़ लेगा ।’

श्रीराधा ने कहा—‘मैं तो जाती हूँ ।’ ऐसा कहकर वे सूरदास के पास आकर पूछने लगीं—‘क्या तुम मेरी पाँव पकड़ लोगे ?’ सूरदासजी ने कहा—‘नहीं, मैं तो अंधा हूँ, मैं क्या पाँव पकड़ूंगा ।’

तब श्रीराधा सूरदासजी के पास जाकर अपने चरण का स्पर्श कराने लगीं ।

श्रीकृष्ण ने कहा—‘आगे से नहीं, पीछे से पाँव पकड़ लेगा।

सूरदासजी ने मन में सोचा कि ‘श्रीकृष्ण ने तो आज्ञा दे ही दी है, अब मैं क्यों न श्रीराधा के चरण पकड़ लूँ?’ यह सोचकर वे श्रीराधा के चरण पकड़ने के लिए तैयार होकर बैठ गए । जैसे ही श्रीराधा ने अपना चरण स्पर्श कराया, सूरदासजी ने उन्हें पकड़ लिया । श्रीराधा तो भाग गयीं लेकिन उनकी पायल (पैंजनी) खुलकर सूरदासजी के हाथ में आ गयी ।

श्रीराधाकृष्ण ने दिया सूरदासजी को दृष्टिदान

श्रीराधा ने कहा—‘सूरदास ! तुम मेरी पैंजनी दे दो, मुझे रास करने जाना है ।’

सूरदासजी ने कहा—‘मैं क्या जानूँ, किसकी है । मैं तुमको दे दूँ, फिर कोई दूसरा आकर मुझसे मांगे तो मैं क्या करुंगा ? हां, मैं तुमको देख लूँ तब मैं तुम्हें दे दूंगा ।’

श्रीराधाकृष्ण हंसे और उन्होंने सूरदासजी को दृष्टि प्रदान कर अपने दर्शन दे दिये ।

जिन आँखों में भगवान की छवि बस जाती है, उनमें अन्य वस्तुओं के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है?
जिन नैनन प्रीतम बस्यौ, तहँ किमि और समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आपु फिरि जाय।।

अर्थात्—जिन आंखों में भगवान की छवि बस जाती है वहां संसारिक वस्तुओं के लिए कोई जगह नहीं रह जाती। जैसे सराय को भरा देखकर राहगीर वापस लौट जाता है।

श्रीराधाकृष्ण ने प्रसन्न होकर सूरदासजी से कहा—‘सूरदासजी ! तुम्हारी जो इच्छा हो, मांग लो ।’

सूरदासजी ने कहा—‘आप देंगे नहीं ।’

श्रीकृष्ण ने कहा—‘तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है ।’

सूरदासजी ने कहा—‘वचन देते हैं !’

श्रीकृष्ण ने कहा—‘हां, अवश्य देंगे ।’

सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’

‘अंधा क्या चाहे, दो आंखें’ । लेकिन आंखें (दृष्टि) मिलने पर पुन: अंधत्व मांग लेना—यह सूरदासजी जैसा अलौकिक व्यक्तित्व का धनी ही कर सकता है । सूरदासजी के मन में श्रीकृष्ण के सिवाय किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं थी ।

उनका पद है—

नाहि रहयौ हिय मह ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसे आनिय उर और ।।

श्रीराधाकृष्ण की आंखें छलछल करने लगीं और देखते-देखते सूरदास की दृष्टि पूर्ववत् (दृष्टिहीन) हो गयी ।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण दुर्वासाजी से कहते है—

‘जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता ।’

सूरदासजी प्रतिदिन गोवर्धन में श्रीनाथजी के दर्शन कर उन्हें नये-नये पद सुनाते थे । एक दिन अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने श्रीनाथजी की केवल मंगला आरती का दर्शन किया और पारसोली आकर श्रीनाथजी के मन्दिर की ध्वजा को प्रणाम कर चबूतरे पर लेट कर गुंसाईंजी और श्रीनाथजी का ध्यान करने लगे ।

श्रृंगार के दर्शनों में सूरदासजी को न देखकर गुंसाई विट्ठलनाथजी ने अन्य अष्टछाप के कवियों से कहा—‘आज पुष्टिमार्ग का जहाज जाने वाला है जिसको जो कुछ लेना हो, वह ले ले ।’

गुंसाईजी सहित सभी लोग सूरदासजी के पास आ गए । गुंसाईजी के यह पूछने पर कि ‘आपका चित्त कहां है ?’ सूरदासजी ने जबाव दिया—‘मैं राधारानी की वन्दना करता हूँ, जिनसे नंदनंदन प्रेम करते हैं।’

सूरदासजी ने 85 साल की अवस्था में अपने आराध्य से यह प्रार्थना करते हुए गोलोक प्राप्त किया—

तुम तजि और कौन पै जाऊँ ।
काके द्वार जाइ सिर नाऊ,
पर हथ कहां बिकाऊँ ।।
ऐसो को दाता है समरथ,
जाके दिये अघाऊँ ।
अंतकाल तुमरो सुमिरन गति,
अनत कहूँ नहिं पाऊँ ॥

गीता (12/8) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन ! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

🌹🌻लोहा या चांदी या सोना ❓🌻🌹
💜💚💚💚💚💚💚💚💚💜
एक बार एक पूर्ण संत सत्संग में बता रहे थे कि मानव जन्म दुर्लभ है चौरासी लाख योनियों को पार करके मिलता है। तभी किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया —
महात्मा जी पर हमने तो सुना है कि कई बार मनुष्य का पुनर्जन्म होता है और उसे सब याद रहता है तो समझाएं ऐसा कैसे होता है। क्या यह सत्य है ❓❓
महात्मा जी– आपकी बात भी सत्य है ऐसा भी होता है क्योंकि
कबहु करि करूणा नर देहि
दाँत ईस बिनु हेतु स्नेही
ईश्वर बिना किसी कारण जीव पर कृपा करते हैं क्योंकि चौरासी लाख योनियों में जीव नया कर्म नहीं कर सकता। ईश्वर प्रेम वश कृपा कर दोबारा मानव तन प्रदान करते हैं परन्तु जीव के भावानुसार
व्यक्ति-“देवी देवता कैसे बनते हैं क्या उनके भी कर्म होते हैं या,,,,
महात्मा जी- मानव के पुण्य कर्म ही देवी देवता के लोक भी ले जाते हैं।
मानव चाहे तो दानव बन जाए चाहे तो देवता बन जाए और चाहे तो मोक्ष और मुक्ति पा ले
व्यक्ति– कौन सी योनि उत्तम है देवी देवता की या मानव की❓❓
महात्मा जी– मानव योनि लोहे के समान है और देवता योनि चाँदी के समान है। आप बताओ किसका मूल्य और सौंदर्य अधिक होगा❓❓
व्यक्ति– चाँदी का।
महात्मा जी– ठीक ! पर लोहे का मूल्य और सौंदर्य कम है चाँदी से पर यदि लोहा पारस मणि का स्पर्श कर ले तो वह सोना बन जाता है और उसका मूल्य और सौंदर्य चाँदी से अधिक हो जाएगा।
मानव यदि पूर्ण संत के सानिध्य में चला जाए तो वह सोना बन जाता है।
और चाँदी वैसी ही रहती है
मानव योनि एक ऐसी योनि है जो मुक्ति का द्वार है।
हर व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है कि वो कोन सा मार्ग चुनता है।
व्यक्ति– अगर पूर्ण सन्त के सानिध्य से ही सोना बन सकते हैं तो फ़िर सभी मानव योनि प्राप्त जीव सोना क्यों नहीं बन जाते हैं❓❓
महात्मा जी– क्योंकि सभी पूर्ण सन्त के शरण में नहीं जाते हैं।
व्यक्ति– ऐसा क्यों❓❓
महात्मा जी– क्योंकि कई लोग तो सन्त के पास जाना पसंद नहीं करते हैं तो कई लोग ग़लत गुरु के हाथों में पड़ जाते हैं और बचते हैं कुछ लोग तो उनमें से वे लोग पूर्ण सन्त के शरण में जाते हैं।
व्यक्ति– ग़लत सन्त के शरण में जाते हैं तो ऐसा क्यों❓❓
महात्मा जी– क्योंकि उन्हें अपने पूर्व सन्तों के वचनों पर विश्वास नहीं होता है अपने धार्मिक-ग्रन्थों के आधार पर जानकारी नहीं होती है या फ़िर जानकर भी अंधे की तरह अपनी श्रद्धा और भक्ति को लुटाते हैं और अधर्मी-पाखंडी लूटते हैं।
व्यक्ति– महात्मा जी ! कृपया कर हमें पूर्ण सन्त की कोई पहचान बताएं ताकि हम भी अपने मानव जन्म को सोना बनाकर सफ़ल कर सकें।
महात्मा जी– गुरु कई प्रकार के होते हैं। तंत्र गुरु तो मन्त्र गुरु तो बाहरी ज्ञान प्रदायक गुरु, शस्त्र गुरु तो शास्त्र गुरु लेकिन इन सब के अलावा भी एक गुरु होते हैं जिन्हें पूर्ण सन्त की संज्ञा दी गई है। पूर्ण सन्त की संज्ञा इसलिए दिए हैं क्योंकि पूर्ण परमात्मा से जुड़े हुए होते हैं। वे पूर्ण परमात्मा को स्वयं देखे हुए होते हैं और केवल उनमें ही सामर्थ्य होता है कि चाहे कैसा भी मानव प्राणी हो चाहे उसमे पात्रता हो या नहीं उसका मानव जन्म ही काफ़ी है परमात्मा के दर्शन के लिए और पूर्ण सन्त वहीं करवाते हैं। सभी धार्मिक-ग्रन्थों में और महापुरुषों ने यहीं पहचान बताया है और चाहे जो गुरु के शरण में चले जाएं लेकिन जब तक पूर्ण सन्त के शरण में नहीं गए तब तक सोना बनना असम्भव है।
व्यक्ति– क्या आप हमें परमात्मा के दर्शन करा सकते हैं महात्मा जी❓❓
महात्मा जी ने उस जिज्ञासु को उसके भीतर ही परमात्मा का दर्शन करवा दिया। और वो जिज्ञासु भी अपने भीतर दर्शन कर धन्य-धन्य हो गया।
लोहा हो या चांदी या सोना लेकिन मानव जन्म पाकर ही मानव को निर्णय लेना पड़ता है कि उसे क्या बनने की चाह है। मानव जन्म मिला है सोना बनने के लिए लेकिन ये पूर्णसंत के शरण में जाने के बाद ही होगा लेकिन आज कलयुग में इतने सारे गुरु हो गए हैं कि सोना बोलकर पीतल थमा देते हैं और अज्ञानी मानव थाम भी लेते हैं क्योंकि उनके पास पहचान नहीं होता है। इसलिए आप सभी से प्रार्थना है कि जब भी पूर्ण सन्त धारण करने जाएं तो धार्मिक-ग्रन्थों के आधार पर जाएं।
मानव जन्म आपका है अब आपको निर्णय लेना है कि आपको क्या बनना है लोहा या चांदी या सोना❓❓

🙏🏻🚩ॐ श्री आशुतोषाय नमः🚩🙏🏻

ज्योति अग्रवाल

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

विवाहयोग्य युवक युवती के परिवार वाले ध्यान से पढ़े
🤔🤔🤔🤔🤔

एक 24 वर्षीय लड़की के पिताजी को उसके नजदीक के परिजन ने एक योग्य वर के बारे में बात की

लड़का शहर में नौकरी करता है, दिखने में सुस्वरूप है.
अच्छे संस्कार वाला है
लड़के के माँ बाप भी सुस्थिति में हैं
लड़के की उम्र 26 साल है
सब अनुरुप है

लड़की के पिताजी- : वो सब तो ठीक है,पर लड़के को पगार कितनी है?
मध्यस्थ : अच्छी है ३० हजार रुपये.
लड़की के पिताजी:- ह् !! शहर में ३० हजार से क्या होता है.
मध्यस्थ : दूसरा एक लड़का है, दिखने में ठीक है, पर पगार अच्छा है।पचास हजार !!

सिर्फ उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा है,वह 28 साल का है.
लड़की का पिताजी : *पचास हजार ?
इस शहरमें 1BHK फ्लैट भी क्या वह खरीद सकता है क्या 50 हजार में?
तो मेरी बेटी को कैसे खुश रख पायेगा वो.

मध्यस्थ : और एक स्थल है. लड़का दिखने मे ठीक-ठाक है.
सिर्फ थोड़ा मोटा है.थोडे से बाल झड़ गए है.(दिमाग से काम कर कर के),पगार भी अच्छा १ लाख है, पर उम्र मात्र 30 साल है !!

देखो अगर आपको जँचता होगा तो.
लड़की के पिताजी : क्या चाटना है 1 लाख पगार को. मेरी कन्या के लिये तो सुन्दर ही लड़का देखूंगा.

कोई और भी कोई अच्छा बताइये जी लड़का कम उम्र का हो. पर अच्छी पगार कमाता हो. घर भी अच्छा होना चाहिए और दिखने में भी स्मार्ट हो.

ऐसे ही बातो में 3/4 साल निकल गए फिर वह मध्यस्थ को बुलाकर बात हुई….

मध्यस्थ : अब आपकी लड़की हेतु योग्य वर देखना मेरे बस की बात नही.*अब मेरे पास आपकी लड़की के अनुरूप 30/32 साल वाले लड़को के ही रिश्ते है, आप बोलो तो बताऊ.

लड़की का बाप: कोई भी अच्छा सा घर बताइये इस उम्र में कही हो जाये ये क्या कम बात है लड़की की उम्र भी तो 29/30 हो रही है!!
अब मेरी लड़की ही अनुरूप नहीं रही तो मैं ज्यादा क्या अपेक्षा रखूँ!!

नोट :

घर के बड़े बुर्जुगों
लड़की और लड़को की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करके उन्हें बर्बाद मत कीजिए
आप अपने आस पास देखेंगे तो पायेंगे की बहुत से लोग शादी के बाद धनवान बने हैं
क्योंकि बहुत बार भाग्य शादी के बाद उदय होता है तो बहुत बार शादी के बाद व्यक्ति का सब कुछ चला जाता है.
इसलिए पैसे को आधार नहीं बनाये

शुरू में पगार कम है तो भी शादी के बाद लड़के लड़कियों में नयी उमंग आती है।
उनका संसार सुचारू रूप से व्यतीत होने के लिए दोनों मिल जुलकर मेहनत एवं विचार करके आर्थिक एवं सांसारिक अड़चनों पर मात करते है.
उनके माता पिता भी साथ सपोर्ट करते है
लड़के लड़कियों को तकलीफ सहन करने के लिये कोई माँ-बाप हवा पर छोड़ते है ऐसा नहीं है. इसका ध्यान लड़कियों के माता पिता को होना चाहिए

लड़का लड़की समान चलने वाले युग मे आप भी थोड़ा लड़की एवं लड़के के पीछे खड़े रहिये.

पर कृपया करके लड़के-लड़कियों की शादी,योग्य उम्र में होने दीजिए

उनकी भी भावनाओं एवं इच्छाओं का ध्यान रखिए

उम्र भर पैसा तो आता जाता रहेगा पर तारुण्य और उम्र वापस नहीं आएगी…….

आपकी सोच पूरे समाज के कुटुंब व्यवस्था को बचा सकती है.
जो कि भविष्य मे खतरे में पड़ने की संभावना अभी दिख रही है.

देखिये सोच कर…

अगर योग्य लगे तो आचरण में लाने का प्रयास करें
हमारे समाज का शुभ चिंतक
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🙏🌹

संजय गुप्ता

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

बरसाना में श्री रुप गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के छः शिष्यो में से एक थे। एक बार भ्रमण करते करते अपने चेले जीव गोस्वामी जी के यहाँ बरसाना आए। जीव गोस्वामी जी ठहरे फक्कड़ साधू..
फक्कड़ साधू को जो मिल जाये वो ही खाले जो मिल जाये वो ही पी ले। आज उनके गुरु आए तो उनके मन भाव आया की में रोज सूखी रोटी, पानी में भिगो कर खा लेता हूं।
मेरे गुरु आये हैं क्या खिलाऊँ..
एक बार अपनी कुटिया में देखा किंचित तीन दिन पुरानी रोटी बिल्कुल कठोर हो चुकी थी। मैं साधू पानी में गला गला खा लूं।
यद्यपि मेरे गुरु साधुता की परम स्थिति को प्राप्त कर चुके है फिर भी मेरे मन के आनन्द के लिए। कैसे मेरा मन संतुष्ट होगा।
एक क्षण के भक्त के मन में संकल्प आया की अगर समय होता तो किसी बृजवासी के घर चला जाता। दूध मांग लेता, चावल मांग लाता।
मेरे गुरु पधारे जो देह के सम्बंध में मेरे चाचा भी लगते हैं। लेकिन भाव साम्रज्य में प्रवेश कराने वाले मेरे गुरु भी तो हैं। उनको खीर खिला देता…
रूप गोस्वामी ने आकर कहा जीव भूख लगी है तो जीव गोस्वामी उन सूखी रोटीयो को अपने गुरु को दे रहा है। अँधेरा हो रहा है। जीव गोस्वामी की आँखों में अश्रु आ रहे हैं और रुप गोस्वामी जी ने कहा तू क्यों रो रहा है हम तो साधू हैं ना।
जो मिल जाय वही खा लेते हैं। मैं खा लूंगा।
जीव ने कहा, नहीं बाबा मेरा मन नहीं मान रहा।
आप की यदि कोई पूर्व सूचना होती तो मेरे मन में कुछ था।
यह चर्चा हो ही रही थी की कोई अर्द्धरात्रि में दरवाजा खटखटाता है। ज्यो ही दरवाजा खटखटाया है। जीव गोस्वामी जी ने दरवाजा खोला।
एक किशोरी खड़ी हुई है 8 -10 वर्ष की हाथ में कटोरा है। कहा, बाबा मेरी माँ ने खीर बनाई है और कहा जाओ बाबा को दे आओ।
जीव गोस्वामी ने उस खीर के कटोरे को ले जाकर रुप गोस्वामी जी के पास रख दिया। बोले बाबा पाओ…
ज्यों ही रूप गोस्वामी जी ने उस खीर को स्पर्श किया… उनका हाथ कांपने लगा।
जीव गोस्वामी को लगा बाबा का हाथ कांप रहा है। पूछा बाबा कोई अपराध बन गया है।
रूप गोस्वामी जी ने पूछा, जीव आधी रात को यह खीर कौन लाया…??
बाबा पड़ोस में एक कन्या है मैं जानता हूं उसे। वो लेके आई है।
नहीं जीव इस खीर को मैने जैसे ही चख के देखा और मेरे में ऐसे रोमांच हो गया।
नहीं जीव् तू पता कर यह कन्या मुझे मेरे किशोरी जी के होने अहसास दिला रही है।
नहीं बाबा वह कन्या पास की है, मैं जानता हूं उसको।
अर्ध रात्रि में दोनों गए है उस के घर और दरवाजा खटखटाया। अंदर से उस कन्या की माँ निकल कर बाहर आई।
जीव गोस्वामी जी ने पूछा आपको कष्ट दिया, परन्तु आपकी लड़की कहां है।
उस महिला ने कहा, का बात है गई बाबा..
आपकी लड़की है कहाँ…??
वो तो उसके ननिहाल गई है गोवेर्धन 15 दिन हो गए हैं।
रूप गोस्वामी जी तो मूर्छित हो गए।
जीव गोस्वामी जी ने पैर पकडे और जैसे तेसे श्रीजी के मंदिर की सीढ़िया चढ़ने लगे। जैसे एक क्षण में चढ़ जायें। लंबे लंबे पग भरते हुए मंदिर पहुचे।
वहां श्री गोसाई जी से कहा, बाबा एक बात बताओ आज क्या भोग लगाया था श्रीजी श्यामा प्यारी को।
गोसांई जी जानते थे श्री जीव गोस्वामी को।
कहा क्या बात है गई बाबा…
कहा क्या भोग लगाया था… गोसाई जी ने कहा, आज श्रीजी को खीर का भोग लगाया था।
रूप गोस्वामी तो श्री राधे श्री राधे कहने लगे।
उन्होंने गोसाई जी से कहा बाबा एक निवेदन और है आप से।
यद्दपि यह मंदिर की परंपरा के विरुद्ध है कि एक बार जब श्री जी को शयन करा दिया जाये तो उनकी लीला में जाना अपराध है।
प्रिया प्रियतम जब विराज रहे हों तो नित्य लीला है उनकी।
अपराध है फिर भी आप एक बार यह बता दीजिये की जिस पात्र में भोग लगाया था वह पात्र रखा है के नहीं रखो है…
गोसाई जी मंदिर के पट खोलते हैं और देखते हैं की वह पात्र नहीं है वहां पर। .
गोसांई जी बाहर आते हैं और कहते हैं बाबा वह पात्र नहीं है वहां पर ! न जाने का बात है गई है…
रूप गोस्वामी जी ने अपना दुप्पटा हटाया और वह चाँदी का पात्र दिखाया,
बाबा यह पात्र तो नहीं है गोसांई जी ने कहा हां बाबा यही पात्र तो है…
रूप गोस्वामी जी ने कहा, श्री राधा रानी 300 सीढ़ी उतरकर मुझे खीर खिलाने आई।
किशोरी पधारी थी, राधारानी आई थी।
उस खीर को मुख पर रगड़ लिया सब साधु संतो को बांटते हुए श्री राधे श्री राधे करते हुऐ फिर कई वर्षो तक श्री रूप गोस्वामी जी बरसाना में ही रहे।।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
हे करुणा निधान ! इस अधम, पतित -दासी को ऐसी पात्रता और ऐसी उत्कंठा अवश्य दे देना कि, इन रसिकों के गहन चरित का आस्वादन कर अपने को कृतार्थ कर सकूँ। इनकी पद धूलि की एक कनिका प्राप्त कर सकूँ।
Jai shri krishna
जय श्री राधे

संजय गुप्ता