Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

एक वो दौर था जब पति भाभी को आवाज़ लगाकर अपने घर आने की खबर पत्नी को देता था,
पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे।
बाऊजी की बातों का ‘हाँ बाऊजी-जी बाऊजी’ के अलावा जवाब नही होता था।
आज बेटा बाप से बड़ा हो गया, रिश्तों का केवल नाम रह गया।
ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।
बीवी को तो दूर, बड़ो के सामने हम अपने बच्चों तक को नही बतलाते थे।
आज बड़े बैठे रहते है पर सिर्फ बीवी से ही बतियाते है।

दादू के कंधे मानो पोतों-पोतियों के लिए आरक्षित होते थे, काका जी ही भतीजों के दोस्त हुआ करते थे।
आज वही दादू ‘OLD-HOUSE’ की पहचान है, काकाजी बस रिश्तेदारों की सूची का एक नाम है।
बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे, अपने बेटे के लिए जो खिलौना खरीदा वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे।
‘ताऊजी’ आज सिर्फ पहचान रह गए और छोटे के बच्चे पता नही कब जवान हो गये ?

दादी जब बिलोना करती थी
बेटों को भले ही छाछ दे पर मक्खन तो वो केवल पोतों में ही बाँटती थी।
दादी के बिलोने ने पोतों की आस छोड़ दी क्योंकि पोतों ने अपनी राह अलग मोड़ दी।

राखी पर बुआजी आते थे, घर मे नही मोहल्ले में फूफाजी को चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।
अब बुआजी बस दादा-दादी के बीमार होने पर आते है,किसी और को उनसे मतलब नही चुपचाप नयननीर बरसाकर वो भी चले जाते है।
शायद मेरे शब्दों का कोई महत्व ना हो पर कोशिश करना इस भीड़ में खुद को पहचान ने की कि हम ज़िंदा है या बस “जी रहे” हैं।
ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।
अंग्रेजी ने अपना स्वांग रचादिया, शिक्षा के चक्कर में हमने संस्कारों को ही भुला दिया।
बालक की प्रथम पाठशाला परिवार व पहला शिक्षक उसकी माँ होती थी, आज परिवार ही नही रहे तो पहली शिक्षक का क्या काम?

जब बच्चा घर पर ज़िद्द करता तो मास्टर जी के नाम से उसको डराया जाता था, जिन गुरुओं की भूमि को विश्वगुरु कहा जाता था आज वहीं गुरु को सरेआम पिटा जाता है वही बच्चा बड़ा होकर राजनेता बन जाता है ।

भला क्या करेगा वो नेता जिसको अच्छे-बुरे का ज्ञान नही, जिसने किसी का किया कभी सम्मान नही?
ये समय-समय की नही समझ-समझ की बात है।

युगलकिशोर पवन

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श्रीकृष्ण जी की के सात विशेष विग्रह
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वृंदावन वह स्थान है, जहां भगवान श्रीकृष्ण ने बाललीलाएं की व अनेक राक्षसों का वध किया। यहां श्रीकृष्ण के विश्वप्रसिद्ध मंदिर भी हैं। आज हम आपको 7 ऐसी चमत्कारी श्रीकृष्ण प्रतिमाओं के बारे में बता रहे हैं, जिनका संबंध वृंदावन से है। इन 7 प्रतिमाओं में से 3 आज भी वृंदावन के मंदिरों में स्थापित हैं, वहीं 4 अन्य स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं-

  1. गोविंद देवजी, जयपुर
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    रूप गोस्वामी को श्रीकृष्ण की यह मूर्ति वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि. सं. 1592 (सन् 1535) में मिली थी। उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया इस मूर्ति को स्थापित किया। इनके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंदजी की सेवा पूजा संभाली, उन्हीं के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंदजी का भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर में गोविंद जी 80 साल विराजे। औरंगजेब के शासनकाल में ब्रज पर हुए हमले के समय गोविंदजी को उनके भक्त जयपुर ले गए, तब से गोविंदजी जयपुर के राजकीय (महल) मंदिर में विराजमान हैं।
  2. मदन मोहनजी, करौली
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    यह मूर्ति अद्वैतप्रभु को वृंदावन में कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी। उन्होंने सेवा-पूजा के लिए यह मूर्ति मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांगकर सनातन गोस्वामी ने वि.सं. 1590 (सन् 1533) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित की। बाद में क्रमश: मुलतान के नमक व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहां मदनमोहनजी का विशाल मंदिर बनवाया। मुगलिया आक्रमण के समय इन्हें भी भक्त जयपुर ले गए पर कालांतर में करौली के राजा गोपालसिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहनजी की मूर्ति को स्थापित किया। तब से मदनमोहनजी करौली (राजस्थान) में ही दर्शन दे रहे हैं।

  3. गोपीनाथजी, जयपुर
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    श्रीकृष्ण की यह मूर्ति संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस प्रतिमा को निधिवन के पास विराजमान कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी। बाद में रायसल राजपूतों ने यहां मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इस प्रतिमा को भी जयपुर ले जाया गया, तब से गोपीनाथजी वहां पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं।

  4. जुगलकिशोर जी, पन्ना
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    भगवान श्रीकृष्ण की यह मूर्ति हरिरामजी व्यास को वि.सं. 1620 की माघ शुक्ल एकादशी को वृंदावन के किशोरवन नामक स्थान पर मिली। व्यासजी ने उस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित किया। बाद में ओरछा के राजा मधुकर शाह ने किशोरवन के पास मंदिर बनवाया। यहां भगवान जुगलकिशोर अनेक वर्षों तक बिराजे पर मुगलिया हमले के समय जुगलकिशोरजी को उनके भक्त ओरछा के पास पन्ना ले गए। पन्ना (मध्य प्रदेश) में आज भी पुराने जुगलकिशोर मंदिर में दर्शन दे रहे हैं।

  5. राधारमणजी, वृंदावन
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    गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में एक शालिग्राम मिला। वे उसे वृंदावन ले आए और केशीघाट के पास मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया। एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्रामजी तो ऐसे लगते हैं मानो कढ़ी में बैगन पड़े हों। यह सुनकर गोस्वामीजी बहुत दुखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से राधारमण की दिव्य प्रतिमा प्रकट हो गई। यह दिन वि.सं. 1599 (सन् 1542) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर में इनकी प्रतिष्ठापना सं. 1884 में की गई।

उल्लेखनीय है कि मुगलिया हमलों के बावजूद यही एक मात्र ऐसी प्रतिमा है, जो वृंदावन से कहीं बाहर नहीं गई। इसे भक्तों ने वृंदावन में ही छुपाकर रखा। इनकी सबसे विशेष बात यह है कि जन्माष्टमी को जहां दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात्रि बारह बजे उत्सव पूजा-अर्चना, आरती होती है, वहीं राधारमणजी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है, मान्यता है ठाकुरजी सुकोमल होते हैं उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं।

  1. राधाबल्लभजी, वृंदावन
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    भगवान श्रीकृष्ण की यह सुंदर प्रतिमा हित हरिवंशजी को दहेज में मिली थी। उनका विवाह देवबंद से वृंदावन आते समय चटथावल गांव में आत्मदेव ब्राह्मण की बेटी से हुआ था। पहले वृंदावन के सेवाकुंज में (संवत् 1591) और बाद में सुंदरलाल भटनागर (कुछ लोग रहीम को यह श्रेय देते हैं) द्वारा बनवाए गए लाल पत्थर वाले पुराने मंदिर में राधाबल्लभजी प्रतिष्ठित हुए।

मुगलिया हमले के समय भक्त इन्हें कामा (राजस्थान) ले गए थे। वि.सं. 1842 में एक बार फिर भक्त इस प्रतिमा को वृंदावन ले आए और यहां नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया, तब से राधाबल्लभजी की प्रतिमा यहीं विराजमान है।

  1. बांकेबिहारीजी, वृंदावन
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    मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को स्वामी हरिदासजी की आराधना को साकार रूप देने के लिए बांकेबिहारीजी की प्रतिमा निधिवन में प्रकट हुई। स्वामीजी ने इस प्रतिमा को वहीं प्रतिष्ठित कर दिया। मुगलों के आक्रमण के समय भक्त इन्हें भरतपुर ले गए। वृंदावन के भरतपुर वाला बगीचा नाम के स्थान पर वि.सं. 1921 में मंदिर निर्माण होने पर बांकेबिहारी एक बार फिर वृंदावन में प्रतिष्ठित हुए, तब से यहीं भक्तों को दर्शन दे रहे हैं। बिहारीजी की प्रमुख विशेषता यह है कि यहां साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर में) मंगला आरती होती है, जबकि वैष्णवी मंदिरों में यह नित्य सुबह मंगला आरती होने की परंपरा है।
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देव शर्मा

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प्रेरक प्रसंग

तीन बहुमूल्य उपदेश

  प्रजापति के तीन पुत्र थे ---- देव, मनुष्य और असुर । ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास कर शिष्य - भाव से देव प्रजापति से बोले,

“भगवन्, हमें उपदेश दिजिये ।” प्रजापति ने केवल ‘द’ कहा और चुप हो गये । फिर पूछा, “तुम क्या समझे ?” देव ने थोड़ी देर आत्मनिरीक्षण किया और बोले, “समझ गये, भगवन् , आपने कहा —- ‘दाम्यत’ अर्थात् इन्द्रियों का दमन करना ।”
मनुष्य ने भी कहा, “भगवन्, हमें भी उपदेश दें ।” प्रजापति बोले, ‘द’। मनुष्य आत्मनिरीक्षण कर इस परिणाम पर पहुँचा कि प्रजापति का तात्पर्य ‘दत्त’ — दान करने से है । अब असुरों की बारी आयी । उन्हें भी प्रजापति ने ‘द’ ही कहा । उन्होंने ने भी विचार किया और समझ लिया कि ‘द’ से तात्पर्य ‘दयध्वम’ अर्थात् दया करने से है ।
प्रजापति बोले, “ठीक है ! तुम तीनों ने मेरा अभिप्राय ठीक समझा । आत्मनिरीक्षण कर तुममें से जिसमें जिस गुण की कमी थी, वही गुण उसने ग्रहण कर लिया । मेरे द्वारा दिये गये ‘द’ संकेत का तुमलोगों ने जो उपदेश ग्रहण किया है, वैसा ही तुम चाहो तो प्रकृति से भी संदेश ले सकते हो : उदाहरण के तौर पर यह विद्युत गरजती है —- ‘द, द, द’ ; इससे भी तुम दमन, दान, और दया की प्रेरणा ले सकते हो।”

संजय गुप्ता

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हजारों साल पहले ऋषियों के आविष्कार, पढ़कर रह जाएंगे हैरान
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भारत की धरती को ऋषि, मुनि, सिद्ध और देवताओं की भूमि पुकारा जाता है। यह कई तरह के विलक्षण ज्ञान व चमत्कारों से अटी पड़ी है। सनातन धर्म वेद को मानता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने घोर तप, कर्म, उपासना, संयम के जरिए वेद में छिपे इस गूढ़ ज्ञान व विज्ञान को ही जानकर हजारों साल पहले ही कुदरत से जुड़े कई रहस्य उजागर करने के साथ कई आविष्कार किए व युक्तियां बताईं। ऐसे विलक्षण ज्ञान के आगे आधुनिक विज्ञान भी नतमस्तक होता है।

कई ऋषि-मुनियों ने तो वेदों की मंत्र-शक्ति को कठोर योग व तपोबल से साधकर ऐसे अद्भुत कारनामों को अंजाम दिया कि बड़े-बड़े राजवंश व महाबली राजाओं को भी झुकना पड़ा।

जानिए ऐसे ही असाधारण या यूं कहें कि प्राचीन वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों द्वारा किए आविष्कार व उनके द्वारा उजागर रहस्यों को जिनसे आप भी अब तक अनजान होंगे

  1. महर्षि दधीचि
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    महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। वे संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने की वजह से महर्षि दधीचि बड़े पूजनीय हुए। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि
    एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं ने विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया। विश्वरूप त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर को पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे।
    ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए अपनी हड्डियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।
  2. आचार्य कणाद
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    कणाद परमाणुशास्त्र के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले आचार्य कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं।

  3. भास्कराचार्य
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    आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

  4. आचार्य चरक
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    ‘चरकसंहिता’ जैसा महत्तवपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर की सबसे ज्यादा होने वाली डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग जैसी बीमारियों के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर की।

  5. भारद्वाज
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    आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।

  6. कण्व
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    वैदिक कालीन ऋषियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।

  7. कपिल मुनि
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    भगवान विष्णु का पांचवां अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र चाहा। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि ‘सांख्य दर्शन’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही ‘सांख्य दर्शन’ कहलाता है।
    इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर ने द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुक्त किया।

  8. पतंजलि
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    आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।

  9. शौनक :
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    वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

  10. महर्षि सुश्रुत
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    ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक
    (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है।
    जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।

  11. वशिष्ठ :
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    वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

  12. विश्वामित्र :
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    ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे। ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी। ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग होना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

  13. महर्षि अगस्त्य
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    वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

  14. गर्गमुनि
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    गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के के बारे नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ। कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

  15. बौद्धयन
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    भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोन के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान बनाया।
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देव शर्मा

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संजय गुप्ताRpd
एक गुंडा शेविंग और
हेयर कटिंग कराने के लिये
सैलून में गया.

नाई से बोला -”अगर मेरी
शेविंग ठीक से से बिना कटे
छंटे की तो मुहमाँगा दाम

दूँगा !
अगर कहीं भी कट गया तो
गर्दन उड़ा दूंगा !”
नाई ने डर के मारे मना कर दिया.

गुंडा शहर के दूसरे नाइयों के पास गया और वही बात कही.
लेकिन सभी नाईयो ने डर के
मारे मना कर दिया.

अंत में वो गुंडा एक गाँव के
नाई के पास पहुँचा.
वह काफी कम उम्र का लड़का था.
उसने कहा – “ठीक है,
बैठो मैं बनाता हूँ”.

उस लड़के ने काफी बढ़िया
तरीके से गुंडे की शेविंग
और हेयर कटिंग कर दी.
गुंडे ने खुश होकर लड़के
को दस हजार रूपये दिए.
और पूछा – “तुझे अपनी
जान जाने का डर नहीं था क्या ?”

लड़के ने कहा – “डर ? डर
कैसा…?
पहल तो मेरे हाथ में थी…”.

गुंडे ने कहा – “‘पहल तुम्हारे
हाथ में थी’ .. मैं मतलब नहीँ
समझा ?”

लड़के ने हँसते हुये कहा –:
“भाईसाहब,
उस्तरा तो मेरे
हाथ में था…
अगर आपको खरोंच भी
लगती तो आपकी गर्दन
तुरंत काट देता !!!”

बेचारा गुंडा ! यह जवाब
सुनकर पसीने से लथपथ हो
गया।

Moral : जिन्दगी के हर मोड
पर खतरो से खेलना पडता है
नही खेलोगे तो कुछ नही कर
पाओगे
यानि
डर के आगे ही जीत है…
बेच सको तो बेच के दीखाओ
अपने अहंकार (Ego) को
OLX पर.,

एक रुपीया भी नहीं मीलेगा !!

तभी पता चलेगा की
क्या फालतु चीज पकड रखी थी अब तक…!
😊..Happy thoughts..😊

संजय गुप्ता

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“निराली है भगवान विष्णु की महिमा”

एक नगर में एक सेठ व सेठानी रहते थे और सेठानी रोज विष्णु भगवान की पूजा करती थी। सेठ को उसका पूजा करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था। इसी वजह से एक दिन सेठ ने सेठानी को घर से निकाल दिया। घर से निकलने पर वह जंगल की ओर गई तो देखा चार आदमी मिट्टी खोदने का काम कर रहे थे। उसने कहा कि मुझे नौकरी पर रख लो। उन्होंने उसे रख लिया लेकिन मिट्टी खोदने से सेठानी के हाथों में छाले पड़ गए और उसके बाल भी उड़ गए। वह आदमी कहते हैं कि बहन लगता है तुम किसी अच्छे घर की महिला हो, तुम्हें काम करने की आदत नहीं है। तुम ये काम रहने दो और हमारे घर का काम कर दिया करो। वह चारों आदमी उसे अपने साथ घर ले गए और वह चार मुट्ठी अनाज लाते और सभी बाँटकर खा लेते। एक दिन सेठानी ने कहा कि कल से आठ मुठ्ठी अनाज लाना। अगले दिन वह आठ मुठ्ठी अनाज लाए और सेठानी पड़ोसन से आग माँग लाई। उसने भोजन बनाया, विष्णु भगवान को भोग लगाया फिर सभी को खाने को दिया। सारे भाई बोले कि बहन आज तो भोजन बहुत स्वादिष्ट बना है। सेठानी ने कहा कि भगवान का जूठा है तो स्वाद तो होगा ही।

सेठानी के जाने के बाद सेठ भूखा रहने लगा और आस-पड़ोस के सारे लोग कहने लगे कि ये तो सेठानी के भाग्य से खाता था। एक दिन सेठ अपनी सेठानी को ढूंढने चल पड़ा। उसे ढूंढते हुए वह भी उस जंगल में पहुंच गया जहाँ वह चारों आदमी मिट्टी खोद रहे थे। सेठ ने उन्हें देखा तो कहा कि भाई मुझे भी काम पर रख लो। उन आदमियों ने उसे काम पर रख लिया लेकिन मिट्टी खोदने से उसके भी हाथों में छाले पड़ गए और बाल उड़ने लगे। उसकी यह हालत देख चारों बोले कि तुम्हे काम की आदत नहीं है, तुम हमारे साथ चलो और हमारे घर में रह लो। सेठ उन चारों आदमियों के साथ उनके घर चला गया और जाते ही उसने सेठानी को पहचान लिया लेकिन सेठानी घूँघट में थी तो सेठ को देख नही पाई। सेठानी ने सभी के लिए भोजन तैयार किया और हर रोज की भाँति विष्णु भगवान को भोग लगाया। उसने उन चारों भाईयों को भोजन परोस दिया लेकिन जैसे ही वह सेठ को भोजन देने लगी तो विष्णु भगवान ने उसका हाथ पकड़ लिया। भाई बोले कि बहन ये तुम क्या कर रही हो़? वह बोली– मैं कुछ नहीं कर रही हूँ, मेरा हाथ तो विष्णु भगवान ने पकड़ लिया है। भाई बोले– हमें भी विष्णु भगवान के दर्शन कराओ? उसने भगवान से प्रार्थना की तो विष्णु जी प्रकट हो गए, सभी ने दर्शन किए। सेठ ने सेठानी से क्षमा मांगी और सेठानी को साथ चलने को कहा। भाईयों ने अपनी बहन को बहुत सा धन देकर विदा किया। अब सेठानी के साथ सेठ भी भगवान विष्णु की पूजा करने लगा और उनके परिणाम से उनका घर अन्न-धन से भर गया।

संतोष चतुर्वेदी

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राजा जनक के दरबार में हुई इस घटना से सभी स्‍तब्‍ध थे!!!!!

पूरी सभा स्‍तब्‍ध। मामला ही ऐसा था। शास्‍त्रार्थ के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी प्रश्‍नकर्ता के साथ ऐसा अपमानजनक व्‍यवहार किया गया हो। तुर्रा यह कि यह घटना उस राजा की सभा में हुई जिसे स्‍वयं भी महान विद्वान माना जाता था।

लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। परम आत्‍मज्ञानी के तौर प्रतिष्ठित याज्ञवल्‍क्‍य ने झल्‍लाकर आखिर कह ही दिया- ’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए। याज्ञवल्‍क्‍य की इस कटु और अपमानजनक बात शास्‍त्रार्थ के नियमों के सर्वथा प्रतिकूल थी। लेकिन गार्गी ने वह प्रश्‍न छोड़ दिया।

मगर ऐसा भी नहीं कि ज्ञानी होने के पुरूष-दंभ के सामने वह विदुषी परास्‍त हो गयी, बल्कि उसने तो किसी साधुमना महानता का परिचय दिया और पूरे सम्‍मान के साथ उस विषय को टालकर दूसरे विषय पर बात शुरू कर दी। बेहद गूढ़ विषय पर शुरू हुई इस नयी चर्चा पर अब पूरी विद्वत सभा में जबर्दस्‍त क्षोभ और विषादजनित सन्‍नाटा फैल गया।

अगला प्रश्‍न तो और भी गूढ़ था। लेकिन गार्गी की विनम्रता के सामने अब वह पुरूष-दंभ नतमस्‍तक था। अपराधबोध और पश्‍चाताप में डूबते जा रहे याज्ञवल्‍क्‍य ने अब स्‍वयं को सचेत कर दिया। वे जानते थे कि उनसे अपराध हो गया, और इसी तत्‍वबोध ने उन्‍हें विजयी बना दिया।

लोभ और दंभ समाप्त हुआ तो उन्‍होंने पुरस्‍कार में मिली एक हजार गाय खुद लेने के बजाय प्रजा में ही वितरित करने का फैसला कर लिया। जबकि गार्गी अपनी विनयशीलता के चलते हमेशा-हमेशा के लिए लोगों के दिलोदिमाग में बस गयीं। हालांकि उनके प्रश्‍नों का जवाब आखिरकार याज्ञवल्‍क्‍य ने दे दिया, लेकिन वाचकन्‍वी बन कर गार्गी को वह स्‍थान मिल गया जिसे संवाद या विवाद में कोई हरा न सके।

गार्गी को लेकर इतिहास दरिद्र है। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि गार्गी के पिता वचक्‍नु नामक कोई ऋषि थे। ऐसी हालत में यह स्‍वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि अपनी वाक्‍पटुता और विनयशीलता-सहनशीलता के चलते ही गार्गी को वाचकन्‍वी कहा गया। इतिहास में ऐसे कई संदर्भ हैं कि पुत्र के चलते पिता को पहचाना गया। ऐसी हालत में अगर अपनी वाक्‍पटुता के चलते उनके पिता को वचक्‍नु कहा जाना लगा हो तो क्‍या संदेह। कम से कम लोग अपनी बेटियों को गार्गी जैसा बनाने में गर्व का अनुभव तो करने ही लगेंगे।

गार्गी के बारे में ब्राह्मण और पुराणों में कोई जिक्र नहीं है। लेकिन बृहदारण्‍यक उपनिषद में गार्गी-याज्ञवल्‍क्‍य शास्‍त्रार्थ का जिक्र है। जैसे वैदिक साहित्य पर सूर्या सावित्री प्रकाशमान हैं उसी तरह उपनिषद साहित्य पर गार्गी बेजोड़ हैं। गार्गी इस देश में तब थीं जब वैदिक मंत्र रचना के अवसान के बाद चारों ओर ब्रह्मज्ञान पर वाद-विवाद और बहसें हो रही थीं और याज्ञवल्क्य समाज को अद्भुत नेतृत्व प्रदान कर रहे थे।

युधिष्ठिर के दौर में जनक मिथिला के राजा हुए। इस आधार पर गार्गी को महाभारत युध्द के करीब पचास-साठ वर्ष बाद का माना जा सकता है। यानी आज से करीब पांच हजार साल पहले। कहां की थीं गार्गी? कुछ पता नहीं। याज्ञवक्ल्य पुराणों व महाभारत में खूब हैं, पर गार्गी नहीं। याज्ञवल्क्य के साथ हुए दो संवादों के अलावा कहीं कोई संदर्भ नहीं।

इससे तय है कि गार्गी कुरु-पंचाल के बजाय संभवत: उत्तरी बिहार की थीं जहां से उनके लिए मिथिला की राजसभा में जाना सुगम रहा होगा। तो मैथिल माना जा सकता है गार्गी को। लेकिन इतना तो तय है कि गर्ग गोत्र में उत्‍पन्‍न होने के चलते उनका नाम गार्गी पड़ा होगा। बृहदारण्यकोपनिषद (3.6 और 3.8) के अनुसार राजा जनक ने एक हजार गायों की शर्त पर शास्‍त्रार्थ रखा। सभी विद्वान खामोश कि अचानक याज्ञवल्‍क्‍य ने अपने शिष्‍यों से कहा कि- चलो सभी गायों को हांक ले चलो।

यह सुनते ही गार्गी ने उन्‍हें चुनौती देते हुए पूछा- हे ऋषिवर! जल में हर पदार्थ घुलमिल जाता है तो जल किसमें ओतप्रोत है? याज्ञवक्ल्य ने जवाब दिया कि वायु में। फिर गार्गी ने पूछा कि वायु किसमें मिलती है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था कि अंतरिक्ष लोक में।

पर अदम्‍य गार्गी भला कहां रुकती। वह याज्ञवल्क्य के हर उत्तर को प्रश्न में तब्दील करती गई और इस तरह गंधर्व लोक, आदित्य लोक, चन्द्रलोक, नक्षत्र लोक, देवलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक और ब्रह्म लोक तक जा पहुंची। लेकिन जब गार्गी ने दसवें सवाल में ब्रह्मलोक की स्थिति पूछी तो याज्ञवल्‍क्‍य भडक उठे और गार्गी को लगभग डांटते हुए कहा-’गार्गी, माति प्राक्षीर्मा ते मूर्धा व्यापप्त्त्’। यानी गार्गी, इतने सवाल मत करो, कहीं ऐसा न हो कि इससे तुम्हारा भेजा ही फट जाए। दिक् और काल।

दरअसल, गार्गी का सवाल सृष्टि के रहस्य पर था। अगर याज्ञवल्क्य उसे ठीक तरह से समझा देते तो हालत यह न होती। पर गार्गी तो निपुण वक्ता और विदुषी थी जिसे पता था कि कब बोलना और कब चुप होना है, इसीलिए याज्ञवल्क्य से मिला अपमान वह सह गयी, लेकिन हार नहीं मानी और दूसरा सवाल उठा दिया जिसे आज टाइम और स्‍पेस का विषय कहा जाता है।

“स्वर्गलोक से ऊपर जो कुछ भी है और पृथ्वी से नीचे जो कुछ भी है और इन दोनों के मध्य जो कुछ भी है; और जो हो चुका है और जो अभी होना है, ये दोनों किसमें ओतप्रोत हैं?”उसकी जिज्ञासा थी कि क्‍या स्पेस और टाइम के बाहर भी कुछ है? नहीं है, इसलिए गार्गी ने बाण की तरह पैने इन दो सवालों के जरिए यह पूछ लिया कि सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है?

याज्ञवल्क्य बोले, ‘एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गी।’ यानी कोई अक्षर, अविनाशी तत्व है जिसके प्रशासन में, अनुशासन में सभी कुछ ओतप्रोत है।

गार्गी ने पूछा कि यह सारा ब्रह्माण्ड किसके अधीन है तो याज्ञवल्क्य का उत्तर था- अक्षरतत्व के। इस बार याज्ञवल्क्य ने अक्षरतत्व के बारे में विस्तार से समझाया। वे अन्तत: बोले, गार्गी इस अक्षर तत्व को जाने बिना यज्ञ और तप सब बेकार है। अगर कोई इस रहस्य को जाने बिना मर जाए तो समझो कि वह कृपण है, जिसने अपने जीवन का सार समझा ही नहीं और जो अंधेरे में आया और अंधेरे में ही चला गया।

सूर्य और ज्‍योति के लोक को जाना ही नहीं और ब्राह्मण वही है जो इस रहस्य को जानकर ही इस लोक से विदा होता है। सत्‍यम ऋतम् ज्‍योति।गार्गी इस जवाब से इतनी प्रभावित हुई कि उसने याज्ञवल्क्य को प्रणाम किया और सभा से विदा ली। याज्ञवल्क्य विजेता थे- गायों का धन अब उनका था।

लेकिन गार्गी के प्रति अपने बर्ताव के चलते याज्ञवल्क्य अंदर तक हिल गये और राजा जनक से कहा: “राजन! अब इस धन से मेरा मोह नष्ट हो गया है। विनती है कि धन ब्रह्म का है और ब्रह्म के उपयोग में प्रयुक्‍त हो।” यानी याज्ञवल्‍क्‍य जीत कर भी हार गये और विशिष्टतम दार्शनिक और युगप्रवर्तक गार्गी हार कर भी जीती और अमर हो गयी।

संजय गुप्ता

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क्या आप को पता है एक एक स्थान ऐसा है जहा वर्जित है हनुमान जी की पूजा ?????

हम सब जानते है हनुमान जी हिन्दुओं के प्रमुख आराध्य देवों में से एक है, और सम्पूर्ण भारत में इनकी पूजा की जाती है। लेकिन बहुत काम लोग जानते है की हमारे भारत में ही एक जगह ऐसी है जहां हनुमान जी की पूजा नहीं की जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ के रहवासी हनुमान जी द्वारा किए गए एक काम से आज तक नाराज़ हैं। यह जगह है उत्तराखंड स्तिथ द्रोणागिरि गांव।

द्रोणागिरि गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली के जोशीमठ प्रखण्ड में जोशीमठ नीति मार्ग पर है। यह गांव लगभग 14000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है।

यहां के लोगों का मानना है कि हनुमानजी जिस पर्वत को संजीवनी बूटी के लिए उठाकर ले गए थे, वह यहीं स्थित था। चूंकि द्रोणागिरि के लोग उस पर्वत की पूजा करते थे, इसलिए वे हनुमानजी द्वारा पर्वत उठा ले जाने से नाराज हो गए। यही कारण है कि आज भी यहां हनुमानजी की पूजा नहीं होती। यहां तक कि इस गांव में लाल रंग का झंडा लगाने पर पाबंदी है।

द्रोणागिरि गांव के निवासियों के अनुसार –
द्रोणागिरि गांव के निवासियों के अनुसार जब हनुमान बूटी लेने के लिये इस गांव में पहुंचे तो वे भ्रम में पड़ गए। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था कि किस पर्वत पर संजीवनी बूटी हो सकती है। तब गांव में उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी।

उन्होंने पूछा कि संजीवनी बूटी किस पर्वत पर होगी? वृद्धा ने द्रोणागिरि पर्वत की तरफ इशारा किया। हनुमान उड़कर पर्वत पर गये पर बूटी कहां होगी यह पता न कर सके। वे फिर गांव में उतरे और वृद्धा से बूटीवाली जगह पूछने लगे।

जब वृद्धा ने बूटीवाला पर्वत दिखाया तो हनुमान ने उस पर्वत के काफी बड़े हिस्से को तोड़ा और पर्वत को लेकर उड़ते बने। बताते हैं कि जिस वृद्धा ने हनुमान की मदद की थी उसका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। आज भी इस गांव के आराध्य देव पर्वत की विशेष पूजा पर लोग महिलाओं के हाथ का दिया नहीं खाते हैं और न ही महिलायें इस पूजा में मुखर होकर भाग लेती हैं।

इस घटना से जुड़ा प्रसंग – यूँ तो राम के जीवन पर अनेकों रामायण लिखी गई है पर इनमे से दो प्रमुख है एक तो वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण और एक तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस। इनमे से जहाँ वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण को सबसे प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है वही तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस सबसे अधिक पढ़ा जाता है।

पर जैसा की हमने हमारे एक पिछले लेख में आप सब को बताया था की रामायण और रामचरितमानस में कई घटनाओं में, कई प्रसंगो में अंतर है। ऐसा ही कुछ अंतर दोनों किताबों में इस प्रसंग के संबंध में भी है। यहाँ हम आपको दोनों किताबो में वर्णित प्रसंग के बारे में बता रहे है।

वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार
हनुमानजी द्वारा पर्वत उठाकर ले जाने का प्रसंग वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र चलाकर श्रीराम व लक्ष्मण सहित समूची वानर सेना को घायल कर दिया। अत्यधिक घायल होने के कारण जब श्रीराम व लक्ष्मण बेहोश हो गए तो मेघनाद प्रसन्न होकर वहां से चला गया।

उस ब्रह्मास्त्र ने दिन के चार भाग व्यतीत होते-होते 67 करोड़ वानरों को घायल कर दिया था।हनुमानजी, विभीषण आदि कुछ अन्य वीर ही उस ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से बच पाए थे। जब हनुमानजी घायल जांबवान के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा – इस समय केवल तुम ही श्रीराम-लक्ष्मण और वानर सेना की रक्षा कर सकते हो।

तुम शीघ्र ही हिमालय पर्वत पर जाओ और वहां से औषधियां लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं।जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि- हिमालय पहुंचकर तुम्हें ऋषभ तथा कैलाश पर्वत दिखाई देंगे। उन दोनों के बीच में औषधियों का एक पर्वत है, जो बहुत चमकीला है।

वहां तुम्हें चार औषधियां दिखाई देंगी, जिससे सभी दिशाएं प्रकाशित रहती हैं। उनके नाम मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी है।हनुमान तुम तुरंत उन औषधियों को लेकर आओ, जिससे कि श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना पुन: स्वस्थ हो जाएं। जांबवान की बात सुनकर हनुमानजी तुरंत आकाश मार्ग से औषधियां लेने उड़ चले।

कुछ ही समय में हनुमानजी हिमालय पर्वत पर जा पहुंचे। वहां उन्होंने हनुमानजी ने अनेक महान ऋषियों के आश्रम देखे।हिमालय पहुंचकर हनुमानजी ने कैलाश तथा ऋषभ पर्वत के दर्शन भी किए। इसके बाद उनकी दृष्टि उस पर्वत पर पड़ी, जिस पर अनेक औषधियां चमक रही थीं।

हनुमानजी उस पर्वत पर चढ़ गए और औषधियों की खोज करने लगे। उस पर्वत पर निवास करने वाली संपूर्ण महाऔषधियां यह जानकर कि कोई हमें लेने आया है, तत्काल अदृश्य हो गईं। यह देखकर हनुमानजी बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने वह पूरा पर्वत ही उखाड़ लिया, जिस पर औषधियां थीं।कुछ ही समय में हनुमान उस स्थान पर पहुंच गए, जहां श्रीराम-लक्ष्मण व वानर सेना बेहोश थी।

हनुमानजी को देखकर श्रीराम की सेना में पुन: उत्साह का संचार हो गया। इसके बाद उन औषधियों की सुगंध से श्रीराम-लक्ष्मण व घायल वानर सेना पुन: स्वस्थ हो गई। उनके शरीर से बाण निकल गए और घाव भी भर गए। इसके बाद हनुमानजी उस पर्वत को पुन: वहीं रख आए, जहां से लेकर आए थे।

तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास द्वारा चरित श्रीरामचरितमानस के अनुसार रावण के पुत्र मेघनाद व लक्ष्मण के बीच जब भयंकर युद्ध हो रहा था, उस समय मेघनाद ने वीरघातिनी शक्ति चलाकर लक्ष्मण को बेहोश कर दिया।

हनुमानजी उसी अवस्था में लक्ष्मण को लेकर श्रीराम के पास आए। लक्ष्मण को इस अवस्था में देखकर श्रीराम बहुत दु:खी हुए।तब जांबवान ने हनुमानजी से कहा कि लंका में सुषेण वैद्य रहता है, तुम उसे यहां ले आओ। हनुमानजी ने ऐसा ही किया।

सुषेण वैद्य ने हनुमानजी को उस पर्वत और औषधि का नाम बताया और हनुमानजी से उसे लाने के लिए कहा, जिससे कि लक्ष्मण पुन: स्वस्थ हो जाएं। हनुमानजी तुरंत उस औषधि को लाने चल पड़े। जब रावण को यह बात पता चली तो उसने हनुमानजी को रोकने के लिए कालनेमि दैत्य को भेजा।

कालनेमि दैत्य ने रूप बदलकर हनुमानजी को रोकने का प्रयास किया, लेकिन हनुमानजी उसे पहचान गए और उसका वध कर दिया। इसके बाद हनुमानजी तुरंत औषधि वाले पर्वत पर पहुंच गए, लेकिन औषधि पहचान न पाने के कारण उन्होंने पूरा पर्वत ही उठा लिया और आकाश मार्ग से उड़ चले। अयोध्या के ऊपर से गुजरते समय भरत को लगा कि कोई राक्षस पहाड़ उठा कर ले जा रहा है। यह सोचकर उन्होंने हनुमानजी पर बाण चला दिया।

हनुमानजी श्रीराम का नाम लेते हुए नीचे आ गिरे। हनुमानजी के मुख से पूरी बात जानकर भरत को बहुत दु:ख हुआ। इसके बाद हनुमानजी पुन: श्रीराम के पास आने के लिए उड़ चले। कुछ ही देर में हनुमान श्रीराम के पास आ गए। उन्हें देखते ही वानरों में हर्ष छा गया। सुषेण वैद्य ने औषधि पहचान कर तुरंत लक्ष्मण का उपचार किया, जिससे वे पुन: स्वस्थ हो गए।

श्रीलंका में स्थित है संजीवनी बूटी वाला पर्वत
जहां वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार हनुमान जी पर्वत को पुनः यथास्थान रख आए थे वही तुलसीदास रचित रामचरितमानस के अनुसार हनुमान जी पर्वत को वापस नहीं रख कर आए थे, उन्होंने उस पर्वत को वही लंका में ही छोड़ दिया था। श्रीलंका के सुदूर इलाके में श्रीपद नाम का एक पहाड़ है।

मान्यता है कि यह वही पर्वत है, जिसे हनुमानजी संजीवनी बूटी के लिए उठाकर लंका ले गए थे। इस पर्वत को एडम्स पीक भी कहते हैं। यह पर्वत लगभग 2200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। श्रीलंकाई लोग इसे रहुमाशाला कांडा कहते हैं। इस पहाड़ पर एक मंदिर भी बना है।

संजय गुप्ता

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बृहस्पति व्रत कथा और श्री बृहस्पति देव की पूजा की कहानी

हिन्दू धर्म में बृहस्पतिवार के दिन श्री हरी विष्णु की पूजा की जाती है। माना जाता है इस दिन श्रद्धापूर्वक श्री हरी का व्रत और पूजन करने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। इसके अलावा जल्द शादी करने की इच्छा रखे वालो के लिए भी ये व्रत बहतु लाभदायक होता है। अग्निपुराणानुसार अनुराधा नक्षत्र युक्त गुरुवार से प्रारंभ करके सात गुरुवार तक नियमित रूप से व्रत करने से बृहस्पति ग्रह की पीड़ा से मुक्ति मिलती है।

इसके अलावा घर में सुख शांति और श्री विष्णु भगवान् का आशीर्वाद भी मिलता है। लेकिन केवल पूजन करने और व्रत रखने से सम्पूर्ण फल नहीं मिलते। व्रत के साथ-साथ कथा का होना भी बेहद महत्वपूर्ण है। इसीलिए इस व्रत में भी बृहस्पति व्रत कथा का श्रवण किया जाता है। गुरुवार व्रत कथा निम्न प्रकार से है :-

बृहस्पतिवार व्रत कथा

प्राचीन समय की बात है। एक नगर में एक बड़ा व्यापारी रहता था। वह जहाजों में माल लदवाकर दूसरे देशों में भेजा करता था। वह जिस प्रकार अधिक धन कमाता था उसी प्रकार जी खोलकर दान भी करता था, परंतु उसकी पत्नी अत्यंत कंजूस थी। वह किसी को एक दमड़ी भी नहीं देने देती थी।

एक बार सेठ जब दूसरे देश व्यापार करने गया तो पीछे से बृहस्पतिदेव ने साधु-वेश में उसकी पत्नी से भिक्षा मांगी। व्यापारी की पत्नी बृहस्पतिदेव से बोली हे साधु महाराज, मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूं। आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मेरा सारा धन नष्ट हो जाए और मैं आराम से रह सकूं। मैं यह धन लुटता हुआ नहीं देख सकती।

बृहस्पतिदेव ने कहा, हे देवी, तुम बड़ी विचित्र हो, संतान और धन से कोई दुखी होता है। अगर अधिक धन है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह कराओ, विद्यालय और बाग-बगीचों का निर्माण कराओ। ऐसे पुण्य कार्य करने से तुम्हारा लोक-परलोक सार्थक हो सकता है, परन्तु साधु की इन बातों से व्यापारी की पत्नी को ख़ुशी नहीं हुई। उसने कहा- मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं है, जिसे मैं दान दूं।

साधु वेश धारी बृहस्पति देव का धन नष्ट होने के लिए सेठानी को दिया गया उत्तर

तब बृहस्पतिदेव बोले “यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तुम एक उपाय करना। सात बृहस्पतिवार घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिटटी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, व्यापारी से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस-मदिरा खाना, कपड़े अपने घर धोना। ऐसा करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा। इतना कहकर बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए।

व्यापारी की पत्नी ने बृहस्पति देव के कहे अनुसार सात बृहस्पतिवार वैसा ही करने का निश्चय किया। केवल तीन बृहस्पतिवार बीते थे कि उसी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई और वह परलोक सिधार गई। जब व्यापारी वापस आया तो उसने देखा कि उसका सब कुछ नष्ट हो चुका है। उस व्यापारी ने अपनी पुत्री को सांत्वना दी और दूसरे नगर में जाकर बस गया। वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता। इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा।

पुत्री की इच्छा पर सेठ गया जंगल

एक दिन उसकी पुत्री ने दही खाने की इच्छा प्रकट की लेकिन व्यापारी के पास दही खरीदने के पैसे नहीं थे। वह अपनी पुत्री को आश्वासन देकर जंगल में लकड़ी काटने चला गया। वहां एक वृक्ष के नीचे बैठ अपनी पूर्व दशा पर विचार कर रोने लगा। उस दिन बृहस्पतिवार था। तभी वहां बृहस्पतिदेव साधु के रूप में सेठ के पास आए और बोले “हे मनुष्य, तू इस जंगल में किस चिंता में बैठा है?”

तब व्यापारी बोला “हे महाराज, आप सब कुछ जानते हैं।” इतना कहकर व्यापारी अपनी कहानी सुनाकर रो पड़ा। बृहस्पतिदेव बोले “देखो बेटा, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पति देव का अपमान किया था इसी कारण तुम्हारा यह हाल हुआ है लेकिन अब तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो। तुम गुरुवार के दिन बृहस्पतिदेव का पाठ करो। दो पैसे के चने और गुड़ को लेकर जल के लोटे में शक्कर डालकर वह अमृत और प्रसाद अपने परिवार के सदस्यों और कथा सुनने वालों में बांट दो। स्वयं भी प्रसाद और चरणामृत लो। भगवान तुम्हारा अवश्य कल्याण करेंगे।”

साधु ने दिया व्यापारी को आर्शीवाद

साधु की बात सुनकर व्यापारी बोला “महाराज। मुझे तो इतना भी नहीं बचता कि मैं अपनी पुत्री को दही लाकर दे सकूं।” इस पर साधु जी बोले “तुम लकड़ियां शहर में बेचने जाना, तुम्हें लकड़ियों के दाम पहले से चौगुने मिलेंगे, जिससे तुम्हारे सारे कार्य सिद्ध हो जाएंगे।”

लकड़हारे ने लकड़ियां काटीं और शहर में बेचने के लिए चल पड़ा। उसकी लकड़ियां अच्छे दाम में बिक गई जिससे उसने अपनी पुत्री के लिए दही लिया और गुरुवार की कथा हेतु चना, गुड़ लेकर कथा की और प्रसाद बांटकर स्वयं भी खाया। उसी दिन से उसकी सभी कठिनाइयां दूर होने लगीं, परंतु अगले बृहस्पतिवार को वह कथा करना भूल गया।

अगले दिन वहां के राजा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन कर पूरे नगर के लोगों के लिए भोज का आयोजन किया। राजा की आज्ञा अनुसार पूरा नगर राजा के महल में भोज करने गया। लेकिन व्यापारी व उसकी पुत्री तनिक विलंब से पहुंचे, अत: उन दोनों को राजा ने महल में ले जाकर भोजन कराया। जब वे दोनों लौटकर आए तब रानी ने देखा कि उसका खूंटी पर टंगा हार गायब है।

रानी को व्यापारी और उसकी पुत्री पर संदेह हुआ कि उसका हार उन दोनों ने ही चुराया है। राजा की आज्ञा से उन दोनों को कारावास की कोठरी में कैद कर दिया गया। कैद में पड़कर दोनों अत्यंत दुखी हुए। वहां उन्होंने बृहस्पति देवता का स्मरण किया। बृहस्पति देव ने प्रकट होकर व्यापारी को उसकी भूल का आभास कराया और उन्हें सलाह दी कि गुरुवार के दिन कैदखाने के दरवाजे पर तुम्हें दो पैसे मिलेंगे उनसे तुम चने और मुनक्का मंगवाकर विधिपूर्वक बृहस्पति देवता का पूजन करना। तुम्हारे सब दुख दूर हो जाएंगे।

कथा करने के लिए मंगाया दो पैसे का प्रसाद

बृहस्पतिवार को कैदखाने के द्वार पर उन्हें दो पैसे मिले। बाहर सड़क पर एक स्त्री जा रही थी। व्यापारी ने उसे बुलाकार गुड़ और चने लाने को कहा। इसपर वह स्त्री बोली “मैं अपनी बहू के लिए गहने लेने जा रही हूं, मेरे पास समय नहीं है।” इतना कहकर वह चली गई। थोड़ी देर बाद वहां से एक और स्त्री निकली, व्यापारी ने उसे बुलाकर कहा कि हे बहन मुझे बृहस्पतिवार की कथा करनी है। तुम मुझे दो पैसे का गुड़-चना ला दो।

बृहस्पतिदेव का नाम सुनकर वह स्त्री बोली “भाई, मैं तुम्हें अभी गुड़-चना लाकर देती हूं। मेरा इकलौता पुत्र मर गया है, मैं उसके लिए कफन लेने जा रही थी लेकिन मैं पहले तुम्हारा काम करूंगी, उसके बाद अपने पुत्र के लिए कफन लाऊंगी।”

बृहस्पति व्रत पूजन की पूर्ण विधि जानने के लिए यह पढ़े : बृहस्पति व्रत पूजन विधि

स्त्री ने भी श्रद्धा से सुनी बृहस्पति देव की कथा

वह स्त्री बाजार से व्यापारी के लिए गुड़-चना ले आई और स्वयं भी बृहस्पतिदेव की कथा सुनी। कथा के समाप्त होने पर वह स्त्री कफन लेकर अपने घर गई। घर पर लोग उसके पुत्र की लाश को “राम नाम सत्य है” कहते हुए श्मशान ले जाने की तैयारी कर रहे थे। स्त्री बोली “मुझे अपने लड़के का मुख देख लेने दो।” अपने पुत्र का मुख देखकर उस स्त्री ने उसके मुंह में प्रसाद और चरणामृत डाला। प्रसाद और चरणामृत के प्रभाव से वह पुन: जीवित हो गया।

पहली स्त्री जिसने बृहस्पतिदेव का निरादर किया था, वह जब अपने पुत्र के विवाह हेतु पुत्रवधू के लिए गहने लेकर लौटी और जैसे ही उसका पुत्र घोड़ी पर बैठकर निकला वैसे ही घोड़ी ने ऐसी उछाल मारी कि वह घोड़ी से गिरकर मर गया। यह देख स्त्री रो-रोकर बृहस्पति देव से क्षमा याचना करने लगी।

स्त्री के श्रद्धा भाव को देख देव ने दिया आशीर्वाद –

उस स्त्री की याचना से बृहस्पतिदेव साधु वेश में वहां पहुंचकर कहने लगे “देवी। तुम्हें अधिक विलाप करने की आवश्यकता नहीं है। यह बृहस्पतिदेव का अनादार करने के कारण हुआ है। तुम वापस जाकर मेरे भक्त से क्षमा मांगकर कथा सुनो, तब ही तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।”

जेल में जाकर उस स्त्री ने व्यापारी से माफी मांगी और कथा सुनी। कथा के उपरांत वह प्रसाद और चरणामृत लेकर अपने घर वापस गई। घर आकर उसने चरणामृत अपने मृत पुत्र के मुख में डाला| चरणामृत के प्रभाव से उसका पुत्र भी जीवित हो उठा। उसी रात बृहस्पतिदेव राजा के सपने में आए और बोले “हे राजन। तूने जिस व्यापारी और उसके पुत्री को जेल में कैद कर रखा है वह बिलकुल निर्दोष हैं। तुम्हारी रानी का हार वहीं खूंटी पर टंगा है।”

दिन निकला तो राजा रानी ने हार खूंटी पर लटका हुआ देखा। राजा ने उस व्यापारी और उसकी पुत्री को रिहा कर दिया और उन्हें आधा राज्य देकर उसकी पुत्री का विवाह उच्च कुल में करवाकर दहेज़ में हीरे-जवाहरात दिए।

संजय गुप्ता

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मन का बोझ
अंबर से उस के विवाह को हुए एक माह होने को आया था. इस दौरान कितनी नाटकीय घटना या कितने सपने सच हुए थे. इस घटनाक्रम को अवनि ने बहुत नजदीक से जाना था. अगर ऐसा न होता तो निखिला से विवाह होतेहोते अंबर उस का कैसे हो जाता? हां, सच ही तो था यह. विवाह से एक दिन पहले तक किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि निखिला की जगह अवनि दुलहन बन कर विवाहमंडप में बैठेगी. विवाह की तैयारियां लगभग पूर्ण हो चुकी थीं. सारे मेहमान आ चुके थे. अचानक ही इस समाचार ने सब को बुरी तरह चौंका दिया था कि भावी वधू यानी निखिला ने अपने सहकर्मी विधु से कचहरी में विवाह कर लिया है. सब हतप्रभ रह गए थे. खुशी के मौके पर यह कैसी अनहोनी हो गई थी.
अंबर तो बुरी तरह हैरान, परेशान हो गया था. अमेरिका से उस की बहन शालिनी आई हुई थी और विवाह के ठीक 2 दिन बाद उस की वापसी का टिकट आरक्षित था. मांजी की आंखों में पढ़ी- लिखी, सुंदर बहू के आने का जो सपना तैर रहा था वह क्षण भर में बिखर गया था. वैसे ही अकसर बीमार रहती थीं. अब सब यही सोच रहे थे कि कहीं से जल्दी से जल्दी दूसरी लड़की को अंबर के लिए ढूंढ़ा जाए, लेकिन मांजी नहीं चाहती थीं कि जल्दबाजी में उन के सुयोग्य बेटे के गले कोई ऐसीवैसी लड़की बांध दी जाए.
अंबर के ही मकान में किराएदार की हैसियत से रहने वाली साधारण सी लड़की अवनि तो अपने को अंबर के योग्य कभी भी नहीं समझती थी. वैसे अंबर को उस ने चाहा था, पर उसे सदैव के लिए पाने की इच्छा वह जुटा ही नहीं पाती थी. वह सोचती थी, ‘कहां अंबर और कहां वह. कितना सुदर्शन और शिक्षित है अंबर. इतना बड़ा इंजीनियर हो कर भी पद का घमंड उसे कतई नहीं है. सुंदर से सुंदर लड़की उसे पा कर गर्व कर सकती है और वह तो रूप और शिक्षा दोनों में ही साधारण है.’
अवनि तो एकाएक चौंक ही गई थी मां से सुन कर, ‘‘सुना तुम ने अवनि, अंबर की मां ने अंबर के लिए तुझे मांगा है. चल जल्दी से दुलहन बनने की तैयारी कर और हां…सरला बहन 5 मिनट के लिए तुम से मिलना चाहती हैं.’’ अवनि तो जैसे जड़ हो गई थी. उस का सपना इस प्रकार साकार हो जाएगा, ऐसा तो उस ने सोचा भी न था. अचानक उस की आंखों से आंसू बहने लगे तो उस की मां घबरा गईं, ‘‘क्या बात है, अवनि, क्या तुझे अंबर पसंद नहीं? सच बता बेटी, तू क्यों रो रही है?’’
‘‘कुछ नहीं मां, बस ऐसे ही दिल घबरा सा गया था.’’ तभी मांजी कमरे में आ गईं, ‘‘अवनि, बता तुझे यह विवाह मंजूर है न? देखो, कोई जबरदस्ती नहीं है. अंबर से भी मैं ने पूछ लिया है. इतने सारे चिरपरिचित चेहरों में मुझे तुम ही अपनी बहू बनाने योग्य लगी हो. इनकार मत करना बेटी.’’
‘‘यह आप क्या कह रही हैं, मांजी,’’ इस से आगे अवनि एक शब्द भी न कह सकी और आगे बढ़ कर उस ने मांजी के चरण छू लिए. अगले दिन विवाह भी हो गया. कैसे सब एकदम से घटित हो गया, आज भी अवनि समझ नहीं पाती. वह दिन भी उसे अच्छी तरह याद है जब अंबर की बहन नेहा और अंबर लड़की देखने गए थे. आते ही नेहा ने उसे नीचे से आवाज लगाई थी, ‘‘अवनि दीदी, नीचे आओ.’’
‘‘क्या है, नेहा?’’ नीचे आ कर उस ने पूछा, ‘‘बड़ी खुश नजर आ रही हो.’’ ‘‘खुश तो होना ही है दीदी, अपने लिए भाभी जो पसंद कर के आ रही हूं.’’
‘‘सच, क्या नाम है उन का?’’ ‘‘निखिला, बड़ी सुंदर है मेरी भाभी.’’
‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है. बधाई हो नेहा…और आप को भी,’’ पास बैठे मंदमंद मुसकरा रहे अंबर की ओर मुखातिब हो कर अवनि ने कहा था. ‘‘धन्यवाद अवनि,’’ कह कर अंबर दूसरे कमरे में चला गया था.
अंबर की खुशी से अवनि भी खुश थी. कैसा विचित्र प्यार था उस का, जिसे चाहती थी उसे पाने की कामना नहीं करती थी, पर अपने मन की थाह तक वह खुद ही नहीं पहुंच सकी थी. बस एक ही तो चाह थी कि अंबर हमेशा खुश रहे. एक ही घर में रहने के कारण अवनि का रोज ही तो अंबर से मिलना होता था. अंबर के परिवार में थे नेहा, मांजी, अंबर, छोटा भाई सृजन तथा शालिनी दीदी, जो विवाह होने के बाद अमेरिका में रह रही थीं. सृजन बाहर छात्रावास में रह कर पढ़ाई कर रहा था. अंबर तो अकसर दौरों पर रहता था.
पर अंबर को देखते ही अवनि उन के घर से खिसक आती थी. शांत, सौम्य सा व्यक्तित्व था उस का, परंतु उस की उपस्थिति में अवनि की मुखरता, जड़ता का रूप ले लेती थी. वैसे जब कभी भी अनजाने में अंबर की आंखें अवनि को अपने पर टिकी सी लगतीं, वह सिहर जाती थी. जाने कब उसे अंबर बहुत अच्छा लगने लगा था. अंबर के मन तक उस की पहुंच नहीं थी. कभीकभी उसे लगता भी था कि अंबर के मन में भी एक कोमल कोना उस के लिए है. फिर वह सोचने लगती, ‘नहीं, भला अंबर व अवनि (धरती) का भी कभी मिलन हुआ है.’ जब कभी दौरे से लौटने में अंबर को देर हो जाती तो मांजी और नेहा के साथसाथ अवनि भी चिंतित हो जाती थी. कभीकभी उसे खुद ही आश्चर्य होता था कि आखिर वह अंबर की इतनी चिंता क्यों करती है, भला उस का क्या रिश्ता है उस से? कहीं उस की आंखों में किसी ने प्रेम की भाषा पढ़ ली तो? फिर वह स्वयं ही अपने मन को समझाती, ‘जो राह मंजिल तक न पहुंचा सके, उस पर चलना ही नहीं चाहिए.’
अवनि भी तो खुशीखुशी अंबर के विवाह की तैयारियां नेहा के साथ मिल कर कर रही थी. विवाह का अधिकांश सामान नेहा और उस ने मिल कर ही खरीदा था. निखिला की हर साड़ी पर उस की स्वीकृति की मुहर लगी थी. अवनि का दिल चुपके से चटका था, पर उस की आवाज किसी ने नहीं सुनी थी. आंसू आंखों में ही छिप कर ठहर गए थे. बाबूजी उस के लिए भी लड़का ढूंढ़ रहे थे. पर संयोगिक घटनाओं की विचित्रता को भला कौन समझ सकता है. नेहा और मांजी ने उसे खुले मन से स्वीकार कर लिया था. मांजी का तो बहूबहू कहते मुंह न थकता था.
एक अंबर ही ऐसा था जिसे पा कर भी अवनि उस के मन तक नहीं पहुंची थी. शादी के बाद वह कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाई दे रहा था. कितना चाहा था अवनि ने कि अंबर से दो घड़ी मन की बातें कर ले. उस के मन पर एक बोझ था कि कहीं अंबर उसे पा कर नाखुश तो नहीं था. वैसे भी परिस्थितियों से समझौता कर के किसी को स्वीकार करना, स्वीकार करना तो नहीं कहा जा सकता. हो सकता है मांजी और शालिनी दीदी ने उस पर दबाव डाला हो या अपनी मां के स्वास्थ्य का खयाल कर के उस ने शादी कर ली हो.
अवनि के परिवार ने विवाह के दूसरे दिन ही अपने लिए दूसरा मकान किराए पर ले लिया था. शालिनी दीदी को भी दूसरे दिन दिल्ली जाना था. अंबर उन्हें छोड़ने चला गया था. मेहमान भी लगभग जा चुके थे.
अवनि मांजी के पास रहते हुए भी मानो कहीं दूर थी. काश, वह किसी भी तरह अंबर के मन तक पहुंच पाती. दिल्ली से लौट कर अंबर अपने दफ्तर के कामों में व्यस्त हो गया था. स्वयं तो अवनि अंबर से कुछ पूछने का साहस ही नहीं जुटा पा रही थी. प्रारंभ में अंबर की व्यस्ततावश और फिर संकोचवश चाह कर भी वह कुछ न पूछ सकी थी. अंबर भी अपने मन की बातें उस से कम ही करता था. इस से भी अवनि का मन और अधिक शंकित हो जाता था कि पता नहीं अंबर उसे पसंद करता है या नहीं.
अंबर शायद मन से अवनि को स्वीकार नहीं कर पाया था. वैसे वह उस के सामने सामान्य ही बने रहने का प्रयास करता था. कभी भी उस ने अपने मन के अनमनेपन को अवनि को महसूस नहीं होने दिया था. ऊपरी तौर से उसे अवनि में कोई कमी दिखती भी नहीं थी, पर जबजब वह उस की तुलना निखिला से करता तो कुछ परेशान हो जाता. निखिला की सुंदरता, योग्यता आदि सभी कुछ तो उस के मन के अनुकूल था. अवनि को अंबर प्रारंभ से ही एक अच्छी लड़की के रूप में पसंद करता
था, पर जीवनसाथी बनाने की कल्पना तो उस ने कभी नहीं की थी. सबकुछ कितने अप्रत्याशित ढंग से घटित हो गया था.
दिन बीत रहे थे. धीरेधीरे अवनि का सुंदर, सरल रूप अंबर के समक्ष उद्घाटित होता जा रहा था. घरभर को अवनि ने अपने मधुर व्यवहार से मोह लिया था. मांजी और नेहा उस की प्रशंसा करते न थकती थीं. उस के समस्त गुण अब साथ रहने से अंबर के सामने आ रहे थे, जिन्हें वह पहले एक ही घर में रहने पर भी नहीं देख पाया था. उन दिनों नेहा की परीक्षाएं चल रही थीं और मां भी अस्वस्थ थीं. अवनि के पिताजी एकाएक उसे लेने आ गए थे, क्योंकि उन्होंने नया घर बनवाया था. पीहर जाने की लालसा किस लड़की में नहीं होती, पर अवनि ने जाने से इनकार कर दिया था. मांजी ने कहा था, ‘‘चली जाओ, दोचार दिन की ही तो बात है, सब ठीक हो जाएगा.’’
पर अवनि ही तैयार नहीं हुई थी. वह नहीं चाहती थी कि नेहा की पढ़ाई में व्यवधान पड़े. अंबर सोचने लगा, जिस तरह अवनि ने उस के घरपरिवार के साथ सामंजस्य बैठा लिया था, क्या निखिला भी वैसा कर पाती? मांबाप की इकलौती बेटी, धनऐश्वर्य, लाड़प्यार में पली, उच्च शिक्षित, रूपगर्विता निखिला क्या इतना कुछ कर सकती थी? शायद कभी नहीं. वह व्यर्थ ही भटक रहा था. जो कुछ भी हुआ, ठीक ही हुआ. अंबर अब महसूस करने लगा था कि मां ने सोचसमझ कर ही अवनि का हाथ उस के हाथ में दिया था.
फिर एक दिन स्वयं ही अंबर कह उठा था, ‘‘सच अवनि, मैं बहुत खुश हूं कि मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी मिली. वैसे तुम से मेरा विवाह होना आज भी स्वप्न जैसा ही लगता है.’’ ‘‘क्या आप को निखिला से विवाह टूटने का दुख नहीं हुआ. कहां निखिला और कहां मैं.’’
‘‘नहीं अवनि, ऐसा नहीं है,’’ अंबर ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘निखिला से जब मेरा रिश्ता तय हुआ तो उस से लगाव भी स्वाभाविक रूप से हो गया था. फिर शादी से एक दिन पूर्व ही रिश्ता टूटने से ठेस भी बहुत लगी थी. वैसे भी निखिला से मैं काफी प्रभावित था. ‘‘सच कहूं, प्रारंभ में मैं एकाएक तुम से विवाह हो जाने पर बहुत प्रसन्न हुआ हूं, ऐसा नहीं था क्योंकि एक ही घर में रहते हुए तुम्हें जानता तो था, पर उतना नहीं, जितना तुम्हें अपनी सहचरी बना कर जाना. तुम्हारे वास्तविक गुण भी तभी मेरे सामने आए. तुम्हें एक अच्छी लड़की के रूप में मैं सदा ही पसंद करता रहा था. तुम्हारी सौम्यता मेरे आकर्षण का केंद्र भी रही थी, पर विवाह करने का मेरा मापदंड दूसरा ही था. इसीलिए मैं शायद तुम्हारे गुणों व नैसर्गिक सौंदर्य को अनदेखा करता रहा था, पर अब मुझे एहसास हो रहा है कि शायद मैं ही गलत था.
‘‘वैसे भी अवनि और अंबर को तो एक दिन क्षितिज पर मिलना ही था,’’ अंबर ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘सच,’’ अंबर की स्पष्ट रूप से कही गई बातों से अवनि के मन का बोझ भी उतर गया था.

संजय गुप्ता