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!!चिंतनीय!!
यह पोस्ट किसी जाति के लिए नहीं वरन ब्राह्मणों के विरुद्ध समाज में फैलाई जा रही नकारात्मकता के बारे में है कृपया धैर्य से पूरा पढ़ें तभी प्रतिक्रिया दें-

क्या आधुनिक भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा तर्कसंगत
है?

जिन लोगों ने भारत को लूटा, तोडा, नष्ट किया, वे आज इस देश में ‘अतीत भुला दो’ के नाम पर सम्मानित हैं और एक अच्छा जीवन जी रहे हैं। जिन्होंने भारत की मर्यादा को खंडित किया, उसके विश्विद्यालयों को विध्वंस किया, उसके विश्वज्ञान के भंडार पुस्तकालयों को जला कर राख किया, उन्हें आज के भारत में सब सुविधाओं से युक्त सुखी जीवन मिल रहा है। किंतु वे ब्राह्मण जिन्होंने सदैव अपना जीवन देश, धर्म और समाज की उन्नति के लिए अर्पित किया, वे आधुनिक भारत में “काल्पनिक” पुराने पापों के लिए दोषी हैं।

आधुनिक इतिहासकार हमें सिखाते हैं कि भारत के ब्राह्मण सदा से दलितों का शोषण करते आये हैं जो घृणित वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक भी हैं। ब्राह्मण-विरोध का यह काम पिछले दो शतकों में कार्यान्वित किया गया।
वे कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कभी किसी अन्य जाति के लोगों को पढने लिखने का अवसर नहीं दिया। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े शोधकर्ता यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ब्राह्मण सदा से समाज का शोषण करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं, कि उन्होंने हिन्दू ग्रन्थों की रचना केवल इसीलिए की कि वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊपर घोषित कर सकें…किंतु यह सारे तर्क खोखले और बेमानी हैं, इनके पीछे एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। एक झूठ को सौ बार बोला जाए तो वह अंततः सत्य प्रतीत होने लगता, इसी भांति इस झूठ को भी आधुनिक भारत में सत्य का स्थान मिल चुका है।

आइये आज हम बिना किसी पूर्व प्रभाव के और बिना किसी पक्षपात के न्याय बुद्धि से इसके बारे सोचे, सत्य घटनायों पर टिके हुए सत्य को देखें। क्योंकि अपने विचार हमें सत्य के आधार पर ही खड़े करने चाहियें, न कि किसी दूसरे के कहने मात्र से। खुले दिमाग से सोचने से आप पायेंगे कि ९५ % ब्राह्मण सरल हैं, सज्जन हैं, निर्दोष हैं। आश्चर्य है कि कैसे समय के साथ साथ काल्पनिक कहानियाँ भी सत्य का रूप धारण कर लेती हैं। यह जानने के लिए बहुत अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं कि ब्राह्मण-विरोधी यह विचारधारा विधर्मी घुसपैठियों, साम्राज्यवादियों, ईसाई मिशनरियों और बेईमान नेताओं के द्वारा बनाई गयी और आरोपित की गयी,ताकि वे भारत के समाज के टुकड़े टुकड़े करके उसे आराम से लूट सकें।

सच तो यह है कि इतिहास के किसी भी काल में ब्राह्मण न तो धनवान थे और न ही शक्तिशाली। ब्राह्मण भारत के समुराई नहीं है। वन का प्रत्येक जन्तु मृग का शिकार करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है, और भारत का ब्राह्मण वह मृग है। आज के ब्राह्मण की वह स्थिति है जो कि नाजियों के राज्य में यहूदियों की थी। क्या यह स्थिति स्वीकार्य है? ब्राह्मणों की इस दुर्दशा से किसी को भी सरोकार नहीं, जो राजनीतिक दल हिन्दू समर्थक माने गए हैं, उन्हें भी नहीं;सब ने हम ब्राह्मणों के साथ सिर्फ छलावा ही किया है।

ब्राह्मण सदा से निर्धन वर्ग में रहे हैं! क्या आप ऐसा एक भी उदाहरण दे सकते हैं जब ब्राह्मणों ने पूरे भारत पर शासन किया हो?? शुंग,कण्व ,सातवाहन आदि द्वारा किया गया शासन सभी विजातियों और विधर्मियों को क्यूं कचोटता है? चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता की थी एक अखण्ड भारत की स्थापना करने में। भारत का सम्राट बनने के बाद, चन्द्रगुप्त ,चाणक्य के चरणों में गिर गया और उसने उसे अपना राजगुरु बनकर महलों की सुविधाएँ भोगते हुए, अपने पास बने रहने को कहा। चाणक्य का उत्तर था: ‘मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरा कर्म है शिष्यों को शिक्षा देना और भिक्षा से जीवनयापन करना। क्या आप किसी भी इतिहास अथवा पुराण में धनवान ब्राह्मण का एक भी उदाहरण बता सकते हैं?
श्री कृष्ण की कथा में भी निर्धन ब्राह्मण सुदामा ही प्रसिद्ध है।

संयोगवश, श्रीकृष्ण जो कि भारत के सबसे प्रिय आराध्य देव हैं, यादव-वंश के थे, जो कि आजकल OBC के अंतर्गत आरक्षित जाति मानी गयी है।
यदि ब्राह्मण वैसे ही घमंडी थे जैसे कि उन्हें बताया जाता है, तो यह कैसे सम्भव है कि उन्होंने अपने से नीची जातियों के व्यक्तियों को भगवान् की उपाधि दी और उनकी अर्चना पूजा की स्वीकृति भी?(उस सन्दर्भ में यदि ईश्वर ब्राह्मण की कृति हैं जैसा की कुछ मूर्ख कहते हैं) देवों के देव महादेव शिव को पुराणों के अनुसार किराट जाति का कहा गया है, जो कि आधुनिक व्यवस्था में ST की श्रेणी में पाए जाते हैं

दूसरों का शोषण करने के लिए शक्तिशाली स्थान की, अधिकार-सम्पन्न पदवी की आवश्यकता होती है। जबकि ब्राह्मणों का काम रहा है या तो मन्दिरों में पुजारी का और या धार्मिक कार्य में पुरोहित का और या एक वेतनहीन गुरु(अध्यापक) का। उनके धनार्जन का एकमात्र साधन रहा है भिक्षाटन। क्या ये सब बहुत ऊंची पदवियां हैं? इन स्थानों पर रहते हुए वे कैसे दूसरे वर्गों का शोषण करने में समर्थ हो सकते हैं? एक और शब्द जो हर कथा कहानी की पुस्तक में पाया जाता है वह है – ‘निर्धन ब्राह्मण’ जो कि उनका एक गुण माना गया है। समाज में सबसे माननीय स्थान संन्यासी ब्राह्मणों का था, और उनके जीवनयापन का साधन भिक्षा ही थी। (कुछ विक्षेप अवश्य हो सकते हैं, किंतु हम यहाँ साधारण ब्राह्मण की बात कर रहे हैं।)
ब्राह्मणों से यही अपेक्षा की जाती रही कि वे अपनी जरूरतें कम से कम रखें और अपना जीवन ज्ञान की आराधना में अर्पित करें। इस बारे में एक अमरीकी लेखक आलविन टाफलर ने भी कहा है कि ‘हिंदुत्व में निर्धनता को एक शील माना गया है।’

सत्य तो यह है कि शोषण वही कर सकता है जो समृद्ध हो और जिसके पास अधिकार हों अब्राह्मण को पढने से किसी ने नहीं रोका। श्रीकृष्ण यदुवंशी थे, उनकी शिक्षा गुरु संदीपनी के आश्रम में हुई, श्रीराम क्षत्रिय थे उनकी शिक्षा पहले ऋषि वशिष्ठ के यहाँ और फिर ऋषि विश्वामित्र के पास हुई। बल्कि ब्राह्मण का तो काम ही था सबको शिक्षा प्रदान करना। हां यह अवश्य है कि दिन-रात अध्ययन व अभ्यास के कारण, वे सबसे अधिक ज्ञानी माने गए, और ज्ञानी होने के कारण प्रभावशाली और आदरणीय भी। इसके कारण कुछ अन्य वर्ग उनसे जलने लगे, किंतु इसमें भी उनका क्या दोष यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो वाल्मीकि जी रामायण कैसे लिखते और तिरुवलुवर तिरुकुरल कैसे लिखते?

और अब्राह्मण संतो द्वारा रचित इतना सारा भक्ति-साहित्य कहाँ से आता? जिन ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की वे भी एक मछुआरन माँ के पुत्र थे। इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने कभी भी विद्या देने से मना नहीं किया।

जिनकी शिक्षायें हिन्दू धर्म में सर्वोच्च मानी गयी हैं, उनके नाम और जाति यदि देखी जाए, तो वशिष्ठ, वाल्मीकि, कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, कबीरदास, विवेकानंद आदि, इनमें कोई भी ब्राह्मण नहीं। तो फिर ब्राह्मणों के ज्ञान और विद्या पर एकाधिकार का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता! यह केवल एक झूठी भ्रान्ति है जिसे गलत तत्वों ने अपने फायदे के लिए फैलाया, और इतना फैलाया कि सब इसे सत्य मानने लगे।

जिन दो पुस्तकों में वर्ण(जाति नहीं) व्यवस्था का वर्णन आता है उनमें पहली तो है मनुस्मृति जिसके रचियता थे मनु जो कि एक क्षत्रिय थे, और दूसरी है श्रीमदभगवदगीता जिसके रचियता थे व्यास जो कि निम्न वर्ग की मछुआरन के पुत्र थे। यदि इन दोनों ने ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया तो केवल उसके ज्ञान एवं शील के कारण, किसी स्वार्थ के कारण नहीं।

ब्राह्मण तो अहिंसा के लिए प्रसिद्ध हैं।
पुरातन काल में जब कभी भी उन पर कोई विपदा आई, उन्होंने शस्त्र नहीं उठाया, क्षत्रियों से सहायता माँगी।
बेचारे असहाय ब्राह्मणों को अरब आक्रमणकारियों ने काट डाला, उन्हें गोवा में पुर्तगालियों ने cross पर चढ़ा कर मारा, उन्हें अंग्रेज missionary लोगों ने बदनाम किया, और आज अपने ही भाई-बंधु उनके शील और चरित्र पर कीचड उछल रहे हैं। इस सब पर भी क्या कहीं कोई प्रतिक्रिया दिखाई दी, क्या वे लड़े, क्या उन्होंने आन्दोलन किया?

औरंगजेब ने बनारस, गंगाघाट और हरिद्वार में १५०,००० ब्राह्मणों और उनके परिवारों की ह्त्या करवाई, उसने हिन्दू ब्राह्मणों और उनके बच्चों के शीश-मुंडो की इतनी ऊंची मीनार खडी की जो कि दस मील से दिखाई देती थी, उसने उनके जनेयुओं के ढेर लगा कर उनकी आग से अपने हाथ सेके। किसलिए, क्योंकि उन्होंने अपना धर्म छोड़ कर इस्लाम को अपनाने से मना किया। यह सब उसके इतिहास में दर्ज़ है।

क्या ब्राह्मणों ने शस्त्र उठाया? फिर भी ओरंगजेब के वंशज हमें भाई मालूम होते हैं और ब्राह्मण देश के दुश्मन?

यह कैसा तर्क है, कैसा सत्य है?
कोंकण-गोवा में पुर्तगाल के वहशी आक्रमणकारियों ने निर्दयता से लाखों कोंकणी ब्राह्मणों की हत्या कर दी क्योंकि उन्होंने ईसाई धर्म को मानने से इनकार किया। क्या आप एक भी ऐसा उदाहरण दे सकते हो कि किसी कोंकणी ब्राह्मण ने किसी पुर्तगाली की हत्या की? फिर भी पुर्तगाल और अन्य यूरोप के देश हमें सभ्य और अनुकरणीय लगते हैं और ब्राह्मण तुच्छ! यह कैसा सत्य है?

जब पुर्तगाली भारत आये, तब St. Xavier ने पुर्तगाल के राजा को पत्र लिखा “यदि ये ब्राह्मण न होते तो सारे स्थानीय जंगलियों को हम आसानी से अपने धर्म में परिवर्तित कर सकते थे।” यानि कि ब्राह्मण ही वे वर्ग थे जो कि धर्म परिवर्तन के मार्ग में बलि चढ़े। जिन्होंने ने अपना धर्म छोड़ने की अपेक्षा मर जाना बेहतर समझा। St. Xavier को ब्राह्मणों से असीम घृणा थी, क्योंकि वे उसके रास्ते का काँटा थे,
हजारों की संख्या में गौड़ सारस्वत कोंकणी ब्राह्मण उसके अत्याचारों से तंग हो कर गोवा छोड़ गए, अपना सब कुछ गंवा कर। क्या किसी एक ने भी मुड़ कर वार किया? फिर भी St. Xavier के नाम पर आज भारत के हर नगर में स्कूल और कॉलेज है और भारतीय अपने बच्चों को वहां पढ़ाने में गर्व अनुभव करते हैं
इनके अतिरिक्त कई हज़ार सारस्वत ब्राह्मण काश्मीर और गांधार के प्रदेशों में विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों मारे गए। आज ये प्रदेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान कहलाते हैं, और वहां एक भी सारस्वत ब्राह्मण नहीं बचा है। क्या कोई एक घटना बता सकते हैं कि इन प्रदेशों में किसी ब्राह्मण ने किसी विदेशी की हत्या की? हत्या की छोडिये, क्या कोई भी हिंसा का काम किया?

और आधुनिक समय में भी इस्लामिक आतंकवादियों ने काश्मीर घाटी के मूल निवासी ब्राह्मणों को विवश करके काश्मीर से बाहर निकाल दिया। ५००,००० काश्मीरी पंडित अपना घर छोड़ कर बेघर हो गए, देश के अन्य भागों में शरणार्थी हो गये, और उनमे से ५०,००० तो आज भी जम्मू और दिल्ली के बहुत ही अल्प सुविधायों वाले अवसनीय तम्बुओं में रह रहे हैं। आतंकियों ने अनगनित ब्राह्मण पुरुषों को मार डाला और उनकी स्त्रियों का शील भंग किया। क्या एक भी पंडित ने शस्त्र उठाया, क्या एक भी आतंकवादी की ह्त्या की? फिर भी आज ब्राह्मण शोषण और अत्याचार का पर्याय माना जाता है और मुसलमान आतंकवादी वह भटका हुआ इंसान जिसे क्षमा करना हम अपना धर्म समझते हैं। यह कैसा तर्क है?

माननीय भीमराव अंबेडकर जो कि भारत के संविधान के तथाकथित रचियता (प्रारूप समिति के अध्यक्ष) थे, उन्होंने एक मुसलमान इतिहासकार का सन्दर्भ देकर लिखा है कि धर्म के नशे में पहला काम जो पहले अरब घुसपैठिया मोहम्मद बिन कासिम ने किया, वो था ब्राह्मणों का खतना। “किंतु उनके मना करने पर उसने सत्रह वर्ष से अधिक आयु के सभी को मौत के घाट उतार दिया।” मुग़ल काल के प्रत्येक घुसपैठ, प्रत्येक आक्रमण और प्रत्येक धर्म-परिवर्तन में लाखों की संख्या में धर्म-प्रेमी ब्राह्मण मार दिए गए। क्या आप एक भी ऐसी घटना बता सकते हो जिसमें किसी ब्राह्मण ने किसी दूसरे सम्प्रदाय के लोगों की हत्या की हो?

१९वीं सदी में मेलकोट में दिवाली के दिन टीपू सुलतान की सेना ने चढाई कर दी और वहां के ८०० नागरिकों को मार डाला जो कि अधिकतर मंडयम आयंगर थे। वे सब संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान थे। (आज तक मेलकोट में दिवाली नहीं मनाई जाती।) इस हत्याकाण्ड के कारण यह नगर एक श्मशान बन गया। ये अहिंसावादी ब्राह्मण पूर्ण रूप से शाकाहारी थे, और सात्विक भोजन खाते थे जिसके कारण उनकी वृतियां भी सात्विक थीं और वे किसी के प्रति हिंसा के विषय में सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने तो अपना बचाव तक नहीं किया। फिर भी आज इस देश में टीपू सुलतान की मान्यता है। उसकी वीरता के किस्से कहे-सुने जाते हैं। और उन ब्राह्मणों को कोई स्मरण नहीं करता जो धर्म के कारण मौत के मुंह में चुपचाप चले गए।

अब जानते हैं आज के ब्राह्मणों की स्थिति क्या आप जानते हैं कि बनारस के अधिकाँश रिक्शा वाले ब्राह्मण हैं? क्या आप जानते हैं कि दिल्ली के रेलवे स्टेशन
पर आपको ब्राह्मण कुली का काम करते हुए मिलेंगे?
दिल्ली में पटेलनगर के क्षेत्र में 50 % रिक्शा वाले ब्राह्मण समुदाय के हैं। आंध्र प्रदेश में ७५ % रसोइये और घर की नौकरानियां ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार देश के दुसरे भागों में भी ब्राह्मणों की ऐसी ही दुर्गति है, इसमें कोई शंका नहीं। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करने वाले ब्राह्मणों का आंकड़ा ६०% है।

हजारों की संख्या में ब्राह्मण युवक अमरीका आदि पाश्चात्य देशों में जाकर बसने लगे हैं क्योंकि उन्हें वहां software engineer या scientist का काम मिल जाता है। सदियों से जिस समुदाय के सदस्य अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समाज के शिक्षक और शोधकर्ता रहे हैं, उनके लिए आज ये सब कर पाना कोई बड़ी बात नहीं। फिर भारत सरकार को उनके सामर्थ्य की आवश्यकता क्यों नहीं ? क्यों भारत में तीव्र मति की अपेक्षा मंद मति को प्राथमिकता दी जा रही है? और ऐसे में देश का विकास होगा तो कैसे?

कर्नाटक प्रदेश के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां के
वासियों का आर्थिक चित्रण कुछ ऐसा है: ईसाई भारतीय – १५६२ रू/ वोक्कालिग जन – ९१४ रू/ मुसलमान – ७९४ रू/ पिछड़ी जातियों के जन – ६८० रू/ पिछड़ी जनजातियों के जन – ५७७ रू/ और ब्राह्मण – ५३७ रू। तमिलनाडु में रंगनाथस्वामी मन्दिर के पुजारी का मासिक वेतन ३०० रू और रोज का एक कटोरी चावल है। जबकि उसी मन्दिर के सरकारी कर्मचारियों का वेतन कम से कम २५०० रू है। ये सब ठोस तथ्य हैं लेकिन इन सब तथ्यों के होते हुए, आम आदमी की यही धारणा है कि पुजारी ‘धनवान’ और ‘शोषणकर्ता’ है, क्योंकि देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने अनेक वर्षों तक इसी असत्य को अनेक प्रकार से चिल्ला चिल्ला कर सुनाया है।

क्या हमने उन विदेशी घुसपैठियों को क्षमा नहीं
किया जिन्होंने लाखों-करोड़ों हिंदुओं की हत्या की और देश को हर प्रकार से लूटा? जिनके आने से पूर्व भारत संसार का सबसे धनवान देश था और जिनके आने के बाद आज भारत पिछड़ा हुआ third world country कहलाता है। इनके दोष भूलना सम्भव है तो अहिंसावादी, ज्ञानमूर्ति, धर्मधारी ब्राह्मणों को किस बात का दोष लगते हो कब तक उन्हें दोष देते जाओगे?

क्या हम भूल गए कि वे ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा बच्चा गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था? क्या हम भूल गए कि ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा था?

भारत के स्वर्णिम युग में ब्राह्मण को यथोचित सम्मान दिया जाता था और उसी से सामाज में व्यवस्था भी ठीक रहती थी। सदा से विश्व भर में जिन जिन क्षेत्रों में भारत का नाम सर्वोपरी रहा है और आज भी है वे सब ब्राह्मणों की ही देन हैं, जैसे कि अध्यात्म, योग, प्राणायाम, आयुर्वेद आदि। यदि ब्राह्मण जरा भी स्वार्थी होते तो यह सब अपने था अपने कुल के लिए ही रखते दुनिया में मुफ्त बांटने की बजाए इन की कीमत वसूलते। वेद-पुराणों के ज्ञान-विज्ञान को अपने मस्तक में धारने वाले व्यक्ति ही ब्राह्मण कहे गए और आज उनके ये सब योगदान भूल कर हम उन्हें दोष देने में लगे है।

जिस ब्राह्मण ने हमें मन्त्र दिया ‘वसुधैव कुटुंबकं’ वह
ब्राह्मण विभाजनवादी कैसे हो सकता है? जिस ब्राह्मण ने कहा ‘लोको सकलो सुखिनो भवन्तु’ वह किसी को दुःख कैसे पहुंचा सकता है? जो केवल अपनी नहीं , केवल परिवार, जाति, प्रांत या देश की नहीं बल्कि सकल जगत की मंगलकामना करने का उपदेश देता है, वह ब्राह्मण स्वार्थी कैसे हो सकता है?

इन सब प्रश्नों को साफ़ मन से, बिना पक्षपात के विचारने की आवश्यकता है, तभी हम सही उत्तर जान पायेंगे।

आज के युग में ब्राह्मण होना एक दुधारी तलवार पर चलने के समान है। यदि ब्राह्मण अयोग्य है और कुछ अच्छा कर नहीं पाता तो लोग कहते हैं कि देखो हम तो पहले ही जानते थे कि इसे इसके पुरखों के कुकर्मों का फल मिल रहा है। यदि कोई सफलता पाता है तो कहते हैं कि इनके तो सभी हमेशा से ऊंची पदवी पर बैठे हैं, इन्हें किसी प्रकार की सहायता की क्या आवश्यकता? अगर किसी ब्राह्मण से कोई अपराध हो जाए फिर तो कहने ही क्या, सब आगे पीछे के सामाजिक पतन का दोष उनके सिर पर मढने का मौका सबको मिल जाता है। कोई श्रीकांत दीक्षित भूख से मर जाता है तो कहते हैं कि बीमारी से मरा। और ब्राह्मण बेचारा इतने दशकों से अपने अपराधों की व्याख्या सुन सुन कर ग्लानि से इतना झुक चूका है कि वह कोई प्रतिक्रिया भी नहीं करता, बस चुपचाप सुनता है और अपने प्रारब्ध को स्वीकार करता है।

बिना दोष के भी दोषी बना घूमता है आज का ब्राह्मण। नेताओं के स्वार्थ, समाज के आरोपों, और देशद्रोही ताकतों के षड्यंत्र का शिकार हो कर रह गया है ब्राह्मण। बहुत से ब्राह्मण अपने पूर्वजों के व्यवसाय को छोड़ चुके हैं आज। बहुत से तो संस्कारों को भी भूल चुके हैं । अतीत से कट चुके हैं किंतु वर्तमान से उनको जोड़ने वाला कोई नहीं। ऐसे में भविष्य से क्या आशा?

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

8 जून , बेटों को मार कर कलेजा मुँह में ठूस दिया, फिर हाथी से कुचलवा डाला , लेकिन नहीं बने “मुसलमान”.. बलिदान दिवस “बंदा बैरागी ——-

इनकी चर्चा करते तो खतरे में पड़ जाते उनके स्वघोषित धर्मनिरपेक्षता के नकली सिद्धांत .. इनका सच दिखाते तो इतिहास काली स्याही का नहीं बल्कि स्वर्णिम रंग में होता .. इनका जिक्र करते तो समाज मे न तो लव जिहाद होता और न ही धर्मांतरण .. और ये सब न होता तो उनकी दुकानदारी न चलती .. भारत के इतिहास को विकृत करने वाले चाटुकार इतिहासकारो के किये पाप का नतीजा है कि धर्म के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले बंदा बैरागी का आज बलिदान दिवस है जिसे बहुत कम भारतीय जानते हैं ..

बन्दा बैरागी का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पुंछ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।

इसी दौरान गुरु गोविन्दसिंह जी माधोदास की कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त इस्लामिक आतंक से जूझने को कहा। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।

उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख सैनिक भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।

काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च, 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ? बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था।

बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया। बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर भी आज ही के दिन अर्थात आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा वीर बैरागी अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये। आज बलिदान के उस महामूर्ति को उनके बलिदान दिवस पर हम बारम्बार नमन करते हुए उनके गौरवगान को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प लेते हैं ।।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

#काग दही पर जान गँवायो#

कल शाम मैं टीवी पर आँखे गड़ा कर बैठा इंतजार कर रहा था एक ऐतिहासिक पल कहे जा रहे वक्त का । जो कि था RSS के प्रमुख श्री मोहन भागवत और भूतपुर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का मंच साझा करना, वो भी शाखा के मुख्य कार्यालय के प्रांगण में।

आर एस एस के अतिथि विशेष के रूप में उनके मंच पर कांग्रेस के भूतपुर्व नेता और भूतपुर्व राष्ट्रपति प्रणव दा के कल शाम के वक्तव्य ने पक्ष,विपक्ष,आर एस एस,मीडिया,सोश्यल मीडिया सभी के तर्क-वितर्क को एकदम मूक बना दिया । लोग कुछ भी कहें पर प्रणव जी ने यह तो साबित कर ही दिया कि, वे एक मंझे हुए राष्ट्र नेता क्यूं हैं !!

उन्हें दिए गए या कहो तो उनसे अपेक्षित 30 मिनट पूरा तो उन्होंने अपना वक्तव्य नहीं दिया जिसके लिए उन्होंने मंच से ही RSS प्रमुख श्री मोहन भागवत जी से माफी भी मांगी पर उन्होंने अपने स्वयम् सीमित किए वक्तव्य में ऐसे शब्दों का चयन किया जो कि सब को कर्णप्रिय हो न हो पर किसी विवाद को जन्म न दें ।

न ये पूरे खुश, न वो पूरे दुःखी । अपने ही अपने में सारे सुखी ।।

मेरे मन को उन्होंने एक खूबसूरत पूरानी कथा याद दिला दी । उसी का शीर्षक मैंने ऊपर लिखा है….

#काग दही पर जान गँवायो#

कथा ऐसी थी कि, एक गाँव के चौपाल पर एक मिठाई वाले की दुकान थी । जो कि आते जाते पथिकों को आवश्यक चीजें बेचकर अपनी रोजी-रोटी चलाता था ।

उस दुकान से थोड़ी दूरी पर एक प्यासा कौआ बैठा था । गरमी का समय था । दुकान में एक मटके में पथिकों को बेचने के लिए लस्सी भरी थी । कौआ काफी देर इधर-उधर उछलता रहा और लाग मिलते ही मटके की ओर मुड़ा । उसने प्यास बुझाने की चाह में मटकी पर चोंच का एक प्रहार किया और मटकी में छेद हो गया तथा उसमें रखी लस्सी वाली दही बहने लगी । दुकानदार को यह नुकसान देख क्रोध आया और उसने तराजू पर रखा हुआ बाँट उठाकर कौए को दे मारा । और संयोग ऐसा हुआ के वह बाँट जोर से सीधा कौए को लगा और उसके प्राण-पँखेरू उड़ गए ।

एक काव्य-रसिक जो कि, दुकान से कुछ मिठाई खरीद के और खाकर पानी पीने चले तो वँही से एक ईंट का टुकड़ा उठाकर बड़े दुःख के साथ समीप की ही एक दिवाल पर लिख दिया- ‘कागदहीपरजानगँवायो ।।’

लोगों ने कवि के दर्द को मेहसूस किया और कहा वाह-वाह क्या कवि है जिसने एक बेजुबान कौए का दर्द समझ कर सही लिख दिया कि-काग दही पर जान गँवायो ।
माने दही की वजह से और उसके नुकशान के कारक बनने की वजह से काग ने यानी कौए ने अपनी जान गँवा दी । कौए के जीवन का सही सार है ये । कवि को खूब सराहा गया ।

थोड़ी देर बाद एक लेखपाल बाबू वँहा से बड़े दुःखी मन से गुजर रहे थे । सोचा क्यों न रूक कर थोड़ा पानी ही पी लिआ जाए । वे भी जैसे ही पानी पीकर मुड़े उस दीवाल के शब्द देखकर बोले कितना सही लिखा है कवि नें । काश ऐसा काव्य पहले देखा होता । मेरे जीवन का सार है ये ।

लोग आश्चर्यचकित हो गए कि यह काव्य तो उस कवि ने कौए के लिए लिखा था तो ये लेखपाल के जीवन से कैसे जुड़ा है ।

लेखपाल से पूछने पर उसने बताया की एक बड़े धनिक से कुछ धन पाने की चाहत में मैंने कुछ कागजात में घपले किए थे और आज वो बात सामने आ गई और नौकरी से उसे निष्कासित कर दिया गया । और वह इस काव्यपंक्ति में दिख रहा है कि- कागद ही पर जान गँवायो । माने कागज के चक्कर में आज जान के लाले पड़ गए ।

लोगों को ये शब्दों का खेल समझ आता तब तक थोड़ी ही देर बाद अचानक एक मजनू छाप लड़का वँहा से हैरान परेशान गुजर रहा था । दुकान पर से कुछ लेकर खाकर वह भी पानी पीने गया और वही काव्यपंक्ति पढ़ी और जोर जोर से चिल्ला कर हँसने लगा और बोलने लगा सही है,सही है एकदम सही । काश, पहले कोई ये जीवन सार समझा देता । लोग फिर से हैरान होकर देखने लगे कि इस सिरफिरे आशिक को इस में क्या मिल गया और इससे इस कविता का क्या रिश्ता !!

लड़के ने कहा वह एक खूबसुरत औरत के चक्कर में फँस गया था और अपनी पुश्तैनी जमीन-जायदाद बेचकर सारा धन लेकर उस के साथ अन्य नगर में जा बसा था और वही औरत उसे धोखा देकर सारी दौलत चुरा किसी और के साथ भाग गई । और उसने आज पढ़ा-का गदही पर जान गँवायो । माने क्या पड़ी थी तुझे और कैसी गधी के चक्कर में जान गँवा दिया !!

कहानी आप समझ गए होंगे । मुझे सचमुच प्रणव जी के वक्तव्य में भी इसी तरह सब के लिए शीख दिखी ।

-हिन्दू संस्कृति को सबसे प्राचीन और विशेष भी बता दिया
-सम्राट अशोक को महान भी बता दिया
-भारत ने सब का स्वागत किया ये भी बता दिया
-मुगलों का 600 साल का शासन भी रह चुका यह भी याद दिला दिया
-ब्रिटिश की हुकूमत और उससे सब की साझा लड़त भी बता दी
-गांधी,नेहरू के अलाँवा के सत्याग्रहिओं का परिचय भी करा दिया और गांधी के हिसाब के धर्म निरपेक्षता का परिचय भी करा दिया
-नेहरू ने क्यकि या क्या नहीं वो छोड़ कर क्या काम का लिखा यह भी बता दिया
-सब को समान हक है जीने का देश में तो
-सब के लिए बना संविधान भी दिखा दिया
-एक जाति,एक धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद घातक है यह भी बता दिया पर
-सच्चा राष्ट्रवाद भी होना चाहिए यह भी बता दिया
-किसी प्रकार की कट्टरता अच्छी नहीं ये इन्हें भी शिखा दिया उन्हें भी बता दिया
-सब का साथ जरूरी है विकास के लिए कहते हुए
-वंदे मातरम का नारा भी लगा दिया ।।

अब आगे जिसकी जैसी सोच ।

कवि तो बस लिख गया -कागदहीपरजानगँवायो😀😁😀

सधन्यवाद ।

आलोक मिश्रा

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आखिर क्यों हंसने लगा मेघनाद का कटा सिर? रावण पुत्र मेघनाद की पत्नी सती सुलोचना की कथा।

सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी। लक्ष्मण के साथ हुए एक भयंकर युद्ध में मेघनाद का वध हुआ। उसके कटे हुए शीश को भगवान श्रीराम के शिविर में लाया गया था।

अपने पती की मृत्यु का समाचार पाकर सुलोचना ने अपने ससुर रावण से राम के पास जाकर पति का शीश लाने की प्रार्थना की। किंतु रावण इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने सुलोचना से कहा कि वह स्वयं राम के पास जाकर मेघनाद का शीश ले आये। क्योंकि राम पुरुषोत्तम हैं, इसीलिए उनके पास जाने में तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं करना चाहिए।

मेघनाद का वध!!!!!

रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब राम उनसे कहते हैं- “लक्ष्मण, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रणकौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोर्इ संदह नहीं है। परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे।

क्योंकि मेघनाद एकनारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण अपनी सैना लेकर चल पड़े। समरभूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।

कटी भुजा द्वारा सुलोचना को प्रमाण!!!!!

मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुर्इ उसकी पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा- “यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का सारा वृत्तांत लिख दे।

भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया- “प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भार्इ लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कर्इ वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके साथ मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्रीराम के पास है।[1]

सुलोचना की रावण से प्रार्थना!!!!!

पति की भुजा-लिखित पंकितयां पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावणने आकर कहा- ‘शोक न कर पुत्री। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियां बहा दूंगा। करुण चीत्कार करती हुर्इ सुलोचना बोली- “पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी। सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के आभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे।[1] सुलोचना ने निश्चय किया कि ‘मुझे अब सती हो जाना चाहिए।’ किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती?

जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया- “देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो। जिस समाज में बालब्रह्मचारी हनुमान, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण तथा एकपत्नीव्रती भगवान श्रीराम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी।

पति के शीश की प्राप्ति!!!!!

सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही श्रीराम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले- “देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे।

उनमें बहुत-से सदगुण थे; किंतु विधी की लिखी को कौन बदल सकता है। आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना भगवान की स्तुति करने लगी। श्रीराम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा- “देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो।

तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है। अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? सुलोचना ने अश्रुपूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली- “राघवेन्द्र, मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आर्इ हूँ। श्रीराम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मंगवाया और सुलोचना को दे दिया।

पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आंखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण की ओर देखा और कहा- “सुमित्रानन्दन, तुम भूलकर भी गर्व मत करना की मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी।

यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।[1]

सुग्रीव की जिज्ञासा!!!!!

सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुर्इ कि मेघनाद का शीश श्रीराम के शिविर में है।

सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया- “मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुर्इ मेरे पास चली गयी थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया। व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे- “निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है। श्रीराम ने कहा- “व्यर्थ बातें मन करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते। यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है।

महान पतिव्रता स्त्री!!!!!

श्रीराम की मुखकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी। उसने कहा- “यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हंस उठे। सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुर्इ थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हंसने लगा। यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने श्रीराम से प्रार्थना की- “भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। अत: आज युद्ध बंद रहे।

श्रीराम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गर्इ। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।

इस एन व्यास

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🕉नमः शिवाय महाकालेश्वराय महादेवाय नमः नमः नमोस्तुते 🕉
” केदारनाथ को क्यों कहते हैं ‘जागृत महादेव’ ?, दो मिनट की ये कहानी रौंगटे खड़े कर देगी ”
एक बार एक शिव-भक्त अपने गांव से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए। आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया। केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की – कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये । लेकिन वहां का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्थना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।
पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये। वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी। उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा – बेटा कहाँ से आये हो ? उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।
बातों-बातों में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला – कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये। पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा – तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए ! उस आदमी ने आश्चर्य से कहा – नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया। पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था।

उन्होंने कहा – लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ? पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था – लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था। पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विश्वास के कारण ही हुआ है। हम आपकी भक्ति को प्रणाम करते है।

अतुल सोनी

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चामुण्डा माता मंदिर
चामुण्डा माता पार्वती का ही एक रुप है /

माता का नाम
चामुण्ड़ा पडने के पीछे एक कथा प्रचलित है। दूर्गा सप्तशती में माता के नाम की उत्पत्ति कथा वर्णित है। हजारों वर्ष पूर्व धरती पर शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यो का राज था। उनके द्वारा धरती व स्वर्ग पर काफी अत्याचार किया गया। जिसके फलस्वरूप देवताओं व मनुष्यो ने देवी दूर्गा कि आराधना की और देवी दूर्गा ने उन सभी को वरदान दिया कि वह अवश्य ही इन दोनों दैत्यो से उनकी रक्षा करेंगी। इसके पश्चात देवी दूर्गा ने कोशिकी नाम से अवतार ग्रहण किया। माता कोशिकी को शुम्भ और निशुम्भ के दूतो ने देख लिया और उन दोनो से कहा महाराज आप तीनों लोको के राजा है। आपके यहां पर सभी अमूल्य रत्‍न सुशोभित है। इन्द्र का एरावत हाथी भी आप ही के पास है। इस कारण आपके पास ऐसी दिव्य और आकर्षक नारी भी होनी चाहिए जो कि तीनों लोकों में सर्वसुन्दर है। यह वचन सुन कर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत देवी कोशिकी के पास भेजा और उस दूत से कहा कि तुम उस सुन्दरी से जाकर कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनो लोके के राजा है और वो दोनो तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहते हैं। यह सुन दूत माता कोशिकी के पास गया और दोनो दैत्यो द्वारा कहे गये वचन माता को सुना दिये। माता ने कहा मैं मानती हूं कि शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही महान बलशली है। परन्तु मैं एक प्रण ले चूंकि हूं कि जो व्यक्ति मुझे युद्ध में हरा देगा मैं उसी से विवाह करूंगी। यह सारी बाते दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को बताई। तो वह दोनो कोशिकी के वचन सुन कर उस पर क्रोधित हो गये और कहा उस नारी का यह दूस्‍साहस कि वह हमें युद्ध के लिए ललकारे। तभी उन्होंने चण्ड और मुण्ड नामक दो असुरो को भेजा और कहा कि उसके केश पकड़कर हमारे पास ले आओ। चण्ड और मुण्ड देवी कोशिकी के पास गये और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा। देवी के मना करने पर उन्होंने देवी पर प्रहार किया। तब देवी ने अपना काली रूप धारण कर लिया और असुरो को यमलोक पहुंचा दिया। उन दोनो असुरो को मारने के कारण माता का नाम चामुण्डा पड गया।

संजय गुप्ता

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सुप्रभातम्

निन्दन्तु नीतिनिपुणा
यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु
गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु
युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति
पदं न धीराः॥

नीति में निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं॥

जय श्री कृष्ण

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विधूय क्लेशान्मे कुरु चरणयुग्मं धृतरसं
भवत्क्षेत्रप्राप्तौ करमपि च ते पूजनविधौ ।
भवन्मूर्त्यालोके नयनमथ ते पादतुलसी-
परिघ्राणे घ्राणं श्रवणमपि ते चारुचरिते ॥

हे ईश! मेरे समस्त क्लेषों को समाप्त कर के, ऐसी कृपा कीजिये कि मेरे दो पग आपके तीर्थ क्षेत्रों में पहुंचने के रस में आसक्त हों। मेरे हाथ आपकी पूजा करने की विधि में, नेत्र आपकी प्रतिमा के दर्शन में, नासिका आपके चरणों मे अर्पित तुलसिका को सूंघने में, और कान भी आपके सुन्दर चरित को सुनने का रसास्वादन करें।

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धरती फाटै मेघ मिलै,
कपडा फाटै डौर,
तन फाटै को औषधि,
मन फाटै नहिं ठौर।

जब धरती फटने लगे अर्थात दरारे पड़ जाये तो मेघों द्वारा जल बरसाने पर दरारें बन्द हो जाती हैं और वस्त्र फट जाये तो सिलाई करने पर जुड़ जाता है। चोट लगने पर तन में दवा का लेप किया जाता है, जिससे शरीर का घाव ठीक हो जाता है किन्तु मन के फटने पर कोई औषधि या उपाय कारगर सिद्ध नहीं होता। अतः प्रयास रहे कि आपकी वाणी से किसी को ठेस न लगे।

🌺 *।।सुप्रभातम।।*🌺
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🔥 भागवत कथा में बांस की स्थापना क्यों की जाती है?🔥
जब महात्मा गोकर्ण जी ने महाप्रेत धुंधुकारी के उद्धार के लिए श्रीमद् भागवत की कथा सुनायी थी, तक धुंधुकारी के बैठने के लिए कोई बांस की अलग से व्यवस्था नहीं की थी । बल्कि उसके बैठने के लिए एक सामान्य आसान ही बिछाया गया था ।

महात्मा गोकर्ण जी ने धुंधुकारी का आह्वान किया और कहा –

“भैया धुंधुकारी ! आप जहाँ कहीं भी हों, आ करके इस आसान पर बैठ जाईये । यह भागवत जी की परम् पवित्र कथा विशेषकर तेरे लिए ही हो रही है । इसको सुनकर तुम इस प्रेत योनि से मुक्त हो जाओगे ।”

अब धुंधुकारी का कोई शरीर तो था नहीं, जो आसन पर स्थिर रहकर भागवत जी की कथा सुन पाते । वह जब जब आसन पर बैठने लगता, हवा का कोई झोंका आता और उसे कहीं दूर उड़ाकर ले जाता । ऐसा उसके साथ बार-बार हुआ ।

वह सोचने लगा कि ऐसा क्या किया जाये कि मुझे हवा उड़ा ना पाए और मैं सात दिन तक एक स्थान पर बैठकर भागवत जी की मंगलमयी कथा सुन पाऊँ, जिससे मेरा उद्धार हो जाये और मेरी मुक्ति हो जाये । वह सोचने लगा कि मेरे तो अब माता-पिता भी नहीं हैं, जिनके भीतर प्रवेश करके या उनके माध्यम से मैं कथा सुन पाता । वो भी मेरे ही कारण मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं ।

मेरे परिवार का तो कोई सदस्य भी नहीं बचा, जिनके माध्यम से मैं भागवत जी की मोक्षदायिनी कथा सुन पाऊँ । अब तो सिर्फ मेरे सौतेले भाई महात्मा गोकर्ण ही बचे हैं । जिनका जन्म गऊ माता के गर्भ से हुआ है । लेकिन उनके अन्दर मैं कैसे प्रवेश कर सकता हूँ, क्योंकि वो तो पवित्र व्यास पीठ पर बैठकर मुझे परमात्मा की अमृतमयी कथा सुनाने के लिए उपस्थित हैं ।

वह धुंधुकारी महाप्रेत ऐसा विचार कर ही रहा था कि उसने देखा जहाँ व्यास मंच बना हुआ है, वहाँ बांस का एक बगीचा भी है और उसकी नजर एक सात पोरी के बांस पर पड़ी । यह सोचकर कि बांस में हवा का प्रकोप नहीं होगा, सो वह बांस के अन्दर प्रवेश कर गया और बांस की पहली पोरी में जाकर बैठ गया ।

पहले दिन की कथा के प्रभाव से बांस की पहली पोरी चटक गयी । धुंधुकारी दूसरी पोरी में जाकर बैठ गया । दूसरे दिन की कथा के प्रभाव से दूसरी पोरी चटक गयी । धुंधुकारी तीसरी पोरी में जाकर बैठ गया । ऐसे ही प्रतिदिन की कथा के प्रभाव से क्रमशः बांस की एक-एक पोरी चटकती चली गयी और जब अन्तिम सातवें दिन की कथा चल रही थी तो धुंधुकारी महाप्रेत भी अन्तिम सातवीं पोरी में ही बैठा हुआ था । अब जैसे ही अन्तिम सातवें दिन भागवत जी की कथा का पूर्ण विश्राम हुआ तो बांस बीच में से दो फाड़ हो गया और धुंधुकारी महाप्रेत देवताओं के समान शरीर धारण करके प्रकट हो गया ।

उसने हाथ जोड़कर बड़े ही विनय भाव से महात्मा गोकर्ण जी का धन्यवाद किया और कहा –

, “भैया जी ! मैं आपका शुक्रिया किन शब्दों में करुँ ? मेरे पास तो शब्द भी नहीं हैं । आपने जो परमात्मा की मंगलमयी पवित्र कथा सुनाई, देखो उस महाभयंकर महाप्रेत योनि से मैं मुक्त हो गया हूँ और मुझे अब देव योनि प्राप्त हो गयी है । आपको मेरा बारम्बार प्रणाम् ।”

तभी सबके देखते-देखते धुंधुकारी के लिए भगवान के धाम से सुन्दर विमान आया और धुंधुकारी विमान में बैठकर भगवान के धाम को चले गए ।

सही मायने में सात पोरी का बांस और कुछ नहीं, हमारा अपना शरीर ही है ।
हमारे शरीर में मुख्य सात चक्र हैं ।
मूलाधार चक्र,
स्वाधिष्ठान चक्र,
मणिपुर चक्र,
अनाहद चक्र,
विशुद्ध चक्र,
आज्ञा चक्र और
सहस्रार चक्र ।

यदि किसी योग्य गुरु के सानिध्य में रहकर प्राणायाम का अभ्यास करते हुए मनोयोग से सात दिन की कथा सुनें तो उसको आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है और उसकी कुण्डलिनी शक्ति पूर्णरुप से जागृत हो जाती है । इसमें कोई शक नहीं है ।
यह सात पोरी का बांस हमारा ही शरीर है ।

S N Vyas