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विश्वास साहब अपने आपको भाग्यशाली मानते थे। कारण यह था कि उनके दोनो पुत्र आई.आई.टी. करने के बाद लगभग एक करोड़ रुपये का वेतन अमेरिका में प्राप्त कर रहे थे। विश्वास साहब जब सेवा निवृत्त हुए तो उनकी इच्छा हुई कि उनका एक पुत्र भारत लौट आए और उनके साथ ही रहे ; परन्तु अमेरिका जाने के बाद कोई पुत्र भारत आने को तैयार नहीं हुआ, उल्टे उन्होंने विश्वास साहब को अमेरिका आकर बसने की सलाह दी। विश्वास साहब अपनी पत्नी भावना के साथ अमेरिका गये ; परन्तु उनका मन वहाँ पर बिल्कुल नहीं लगा और वे भारत लौट आए,,
दुर्भाग्य से विश्वास साहब की पत्नी को लकवा हो गया और पत्नी पूर्णत: पति की सेवा पर निर्भर हो गई। प्रात: नित्यकर्म से लेकर खिलाने-पिलाने, दवाई देने आदि का सम्पूर्ण कार्य विश्वास साहब के भरोसे पर था। पत्नी की जुबान भी लकवे के कारण चली गई थी। विश्वास साहब पूर्ण निष्ठा और स्नेह से पति धर्म का निर्वहन कर रहे थे।
एक रात्रि विश्वास साहब ने दवाई वगैरह देकर भावना को सुलाया और स्वयं भी पास लगे हुए पलंग पर सोने चले गए। रात्रि के लगभग दो बजे हार्ट अटैक से विश्वास साहब की मौत हो गई। पत्नी प्रात: 6 बजे जब जागी तो इन्तजार करने लगी कि पति आकर नित्य कर्म से निवृत्त होने मे उसकी मदद करेंगे। इन्तजार करते करते पत्नी को किसी अनिष्ट की आशंका हुई। चूँकि पत्नी स्वयं चलने में असमर्थ थी , उसने अपने आपको पलंग से नीचे गिराया और फिर घसीटते हुए अपने पति के पलंग के पास पहुँची। उसने पति को हिलाया-डुलाया पर कोई हलचल नहीं हुई। पत्नी समझ गई कि विश्वास साहब नहीं रहे। पत्नी की जुबान लकवे के कारण चली गई थी ; अत: किसी को आवाज देकर बुलाना भी पत्नी के वश में नहीं था। घर पर और कोई सदस्य भी नहीं था। फोन बाहर ड्राइंग रूम मे लगा हुआ था। पत्नी ने पड़ोसी को सूचना देने के लिए घसीटते हुए फोन की तरफ बढ़ना शुरू किया। लगभग चार घण्टे की मशक्कत के बाद वह फोन तक पहुँची और उसने फोन के तार को खींचकर उसे नीचे गिराया। पड़ोसी के नंबर जैसे तैसे लगाये। पड़ौसी भला इंसान था, फोन पर कोई बोल नहीं रहा था, पर फोन आया था, अत: वह समझ गया व् मामला गंभीर है। उसने आस-पड़ोस के लोगों को सूचना देकर इकट्ठा किया, दरवाजा तोड़कर सभी लोग घर में घुसे। उन्होने देखा -विश्वास साहब पलंग पर मृत पड़े थे तथा पत्नी भावना टेलीफोन के पास मृत पड़ी थी। पहले विश्वास और फिर भावना की मौत हुई। जनाजा दोनों का साथ-साथ निकला। पूरा मोहल्ला कंधा दे रहा था परन्तु दो कंधे मौजूद नहीं थे जिसकी माँ-बाप को उम्मीद थी। शायद वे कंधे करोड़ो रुपये की कमाई के भार से पहले ही दबे हुए थे।शायद मौत आने से पहले विश्वास साहब और श्रीमती विश्वास को करोडो रूपये पाने वाले बेटे की याद जरूर आई होगी।ये वे बेटे हैं जिनके लिये विश्वास दम्पति ने न जाने कितनी तपस्या की होगी। आज ऐसे बेटे जन्म ले रहे हैं।यह सच्चाई मन को को झकझोर देता है।।

संजय गुप्ता

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🔥जीवनधारा🔥

एक समय की बात है गंगा नदी के किनारे पीपल का एक पेड़ था. पहाड़ों से उतरती गंगा पूरे वेग से बह रही थी कि अचानक पेड़ से दो पत्ते नदी में आ गिरे। एक पत्ता आड़ा गिरा और एक सीधा।जो आड़ा गिरा वह अड़ गया, कहने लगा, “आज चाहे जो हो जाए मैं इस नदी को रोक कर ही रहूँगा…चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए मैं इसे आगे नहीं बढ़ने दूंगा.”
वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा – रुक जा गंगा ….अब तू और आगे नहीं बढ़ सकती….मैं तुझे यहीं रोक दूंगा! पर नदी तो बढ़ती ही जा रही थी…उसे तो पता भी नहीं था कि कोई पत्ता उसे रोकने की कोशिश कर रहा है. पर पत्ते की तो जान पर बन आई थी..वो लगातार संघर्ष कर रहा था…नहीं जानता था कि बिना लड़े भी वहीँ पहुंचेगा जहाँ लड़कर..थककर..हारकर पहुंचेगा! पर अब और तब के बीच का समय उसकी पीड़ा का…. उसके संताप का काल बन जाएगा। वहीँ दूसरा पत्ता जो सीधा गिरा था, वह तो नदी के प्रवाह के साथ ही बड़े मजे से बहता चला जा रहा था।यह कहता हुआ कि “चल गंगा, आज मैं तुझे तेरे गंतव्य तक पहुंचा के ही दम लूँगा…चाहे जो हो जाए मैं तेरे मार्ग में कोई अवरोध नहीं आने दूंगा….तुझे सागर तक पहुंचा ही दूंगा।
नदी को इस पत्ते का भी कुछ पता नहीं…वह तो अपनी ही धुन में सागर की ओर बढती जा रही है. पर पत्ता तो आनंदित है, वह तो यही समझ रहा है कि वही नदी को अपने साथ बहाए ले जा रहा है. आड़े पत्ते की तरह सीधा पत्ता भी नहीं जानता था कि चाहे वो नदी का साथ दे या नहीं, नदी तो वहीं पहुंचेगी जहाँ उसे पहुंचना है! पर अब और तब के बीच का समय उसके सुख का…. उसके आनंद का काल बन जाएगा। जो पत्ता नदी से लड़ रहा है…उसे रोक रहा है, उसकी जीत का कोई उपाय संभव नहीं है और जो पत्ता नदी को बहाए जा रहा है उसकी हार को कोई उपाय संभव नहीं है जीवन भी उस नदी के सामान है और जिसमे सुख और दुःख की तेज़ धारायें बहती रहती हैं और जो कोई जीवन की इस धारा को आड़े पत्ते की तरह रोकना का प्रयास भी करता है तो वह मुर्ख है क्योंकि ना तो कभी जीवन किसी के लिये रुका है और ना ही रुक सकता है । वह अज्ञान में है जो आड़े पत्ते की तरह जीवन की इस बहती नदी में सुख की धारा को ठहराने या दुःख की धारा को जल्दी बहाने की मूर्खता पूर्ण कोशिश करता है । क्योंकि सुख की धारा जितने दिन बहनी है उतने दिन तक ही बहेगी आप उसे बढ़ा नही सकते , और अगर आपके जीवन में दुख का बहाव जितने समय तक के लिए आना है वो आ कर ही रहेगा , फिर क्यों आड़े पत्ते की तरह इसे रोकने की फिजूल मेहनत करना।
बल्कि जीवन में आने वाले हर अच्छी बुरी परिस्थितियों में खुश हो कर जीवन की बहती धारा के साथ उस सीधे पत्ते की तरह ऐसे चलते जाओ जैसे जीवन आपको नही बल्कि आप जीवन को चला रहे हो । सीधे पत्ते की तरह सुख और दुःख में समता और आनन्दित होकर जीवन की धारा में मौज से बहते जाएँ।और जब जीवन में ऐसी सहजता से चलना सीख गए तो फिर सुख क्या ? और दुःख क्या ?जीवन के बहाव में ऐसे ना बहो कि थक कर हार भी जाओ और अंत तक जीवन आपके लिए एक पहेली बन जाये,बल्कि जीवन के बहाव को हँस कर ऐसे बहाते जाओ की अंत तक आप जीवन के लिए पहेली बन जायें।.

संजय गुप्ता

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राम राम जी…..

एक दिन नारद मुनि आकाश मार्ग से नारायण नारायण का जाप करते हुए जा रहे थे तभी उनके मष्तिक में एक अजीब सा प्रश्न आया ! वे ब्रह्म लोक पहुंचे. ब्रह्म लोक पहुंचकर उन्होंने ने अपने पूज्य पिता ब्र्ह्मा जी को दण्डवत प्रणाम किया !

नारद को समाने देख ब्र्ह्मा जी ने पूछा – कहो पुत्र ! आज कैसे आना हुआ ? तुम्हारे मुख के भाव कुछ कह रहे है ! कोई विशेष प्रयोजन अथवा कोई समस्या ?

नारद जी ने उत्तर देते हुए कहा – पिताश्री ऐसा कोई विशेष प्रयोजन तो नहीं है, परन्तु एक प्रश्न मन में खटक रहा है . आपसे इसका उत्तर जानने के लिए उपस्थित हुआ हूँ !

“तो फिर विलम्ब कैसा ? मन की शंकाओं का समाधान शीघ्रता से कर लेना ही ठीक रहता है! इसलिए निः संकोच अपना प्रश्न पूछो !” – ब्रम्हाजी ने कहा

“पिताश्री आप सारे सृष्टि के परमपिता है, देवता और दानव आप की ही संतान हैं . भक्ति और ज्ञान में देवता श्रेष्ठ हैं तो शक्ति तथा तपाचरण में दानव श्रेष्ठ हैं !

परन्तु मैं इसी प्रश्न में उलझा हुआ हूँ कि इन दोनों में कौन अधिक श्रेष्ठ है. और आपने देवों को स्वर्ग और दानवों को पाताल लोक में जगह दी ऐसा क्यों ? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए मैं आपकी शरण में आया हूँ” – नारद जी ने ब्रम्हाजी से अपना प्रश्न बताते हुए कहा !

नारद का प्रश्न सुन ब्रम्हदेव बोले – नारद ! इस प्रश्न का उत्तर देना तो कठिन है और इसका उत्तर मैं नहीं दे पाऊँगा क्योंकि देव और दानव दोनों ही मेरे पुत्र हैं एवं अपने ही दो पुत्रों की तुलना अपने ही मुख से करना उचित नहीं होगा !

लेकिन फिर भी तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ढूंढने में भगवान शिव तुम्हारी मदद अवश्य कर सकते है !

ब्र्ह्मदेव से आज्ञा लेकर नारद मुनि महादेव शिव के पास गए तथा उनके सामने अपनी समस्या रखी. महादेव शिव नारद मुनि को देख मुस्कराए तथा उन्हें आदेश दिया – तुम देव और दानवो के लिए एक भोज का आयोजन करो तथा इस भोज के लिए उन्हें निमंत्रण भेजो !

महादेव शिव के आदेशानुसार नारद मुनि ने वैसा ही किया तथा अगले दिन नारद मुनि के साथ महादेव शिव भी देवताओ और दानवो का अतिथि सत्कार करने उनके आश्रम में पधारे !

दानव नारद मुनि के आश्रम में भोजन का आनंद लेने के लिए पहले पहुँच गए और उन्होंने पहले पहुँचने के कारण भोजन की पहली शुरूआत खुद से करने के लिए भगवान शिव से आग्रह किया !

भोजन की थालियाँ परोसी गई, दानव भोजन करने के लिए बैठे, वे भोजन शुरू करने ही वाले थे कि भगवान शिव अपने हाथ में कुछ लकड़ियाँ लेकर उनके समक्ष उपस्थित हुए और उन्होंने कहा – “आज के भोजन की एक छोटी-सी शर्त है मैं यहाँ उपस्थित हर एक अतिथि के दोनों हाथों में इस प्रकार से लकड़ी बांधूंगा कि वो कोहनी से मुड़ नहीं पाए और इसी स्थिति में सभी को भोजन करना होगा !”

कुछ देर बाद सभी असुरों के हाथों में लकड़ियाँ बंध चुकीं थीं. अब असुरों ने खाना शुरू किया , पर ऐसी स्थिति में कोई कैसे खा सकता था !

कोई असुर सीधे थाली में मुँह डालकर खाने का प्रयास करने लगा तो कोई भोजन को हवा में उछालकर मुँह में डालने का प्रयत्न करने लगा . दानवों की ऐसी स्थिति देखकर नारद जी अपनी हंसी नहीं रोक पाए !

अपने सारे प्रयास विफल होते देख दानव बिना खाए ही उठ गए और क्रोधित होते हुए बोले – “हमारी यही दशा ही करनी थी तो हमें भोजन पर बुलाया ही क्यों ?

कुछ देर पश्चात् देव भी यहाँ पहुँचने वाले हैं ऐसी ही लकड़ियाँ आप उनके हाथों में भी बांधियेगा ताकि हम भी उनकी दुर्दशा का आनदं ले सके ! ”

कुछ देर पश्चात् देव भी वहाँ पहुँच गए और अब देव भोजन के लिए बैठे, देवों के भोजन मंत्र पढ़ते ही महादेव शिव ने सभी के हाथों में लकड़ियाँ बाँधी और भोजन की शर्त भी रखी !

हाथों में लकड़ियाँ बंधने पर भी देव शांत रहे , वे समझ चुके थे कि खुद अपने हाथ से भोजन करना संभव नहीं है अतः वे थोड़ा आगे खिसक गए और थाली से अन्न उठा सामने वाले को खिलाकर भोजन आरम्भ किया !

बड़े ही स्नेह के साथ वे एक दूसरे को खिला रहे थे, और भोजन का आनंद ले रहे थे, उन्होंने भोजन का भरपूर स्वाद लिया साथ ही दूसरों के प्रति अपना स्नेह, और सम्मान जाहिर किया !

यह कल्पना हमे क्यों नहीं सूझी इसी विचार के साथ दानव बहुत दुखी होने लगे !

नारद जी यह देखकर मुस्कुरा रहे थे !

नारद जी ने भगवान शिव से कहा – “हे देवो के देव, आपकी लीला अगाध है . युक्ति, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग स्वार्थ हेतु करने की अपेक्षा परमार्थ के लिए करने वाले का जीवन ही श्रेष्ठ होता है !

दूसरों की भलाई में ही अपनी भलाई है यह आपने सप्रमाण दिखा दिया और मुझे अपने प्रश्नों का उत्तर मिल गया है !!

                     ।। ॐ नमः शिवाय ।।
                      ।। हर हर महादेव ।।

संजय गुप्ता

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सुखी जीवन के सरल उपाय –

1-प्रतिदिन अगर तवे पर रोटी सेंकने से पहले दूध के छींटे मारें, तो घर में बीमारी का प्रकोप कम होगा।

2👉 प्रत्येक गुरुवार को तुलसी के पौधें को थोडा – सा दूध चढाने से घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।

3👉प्रतिदिन संवेरे पानी में थोडा – सा नमक मिलाकर घर में पोंछा करें, मानसिक शांति मिलेगी।

4👉 प्रतिदिन सवेरे थोडा – सा दूध और पानी मिलाकर मुख्य द्वार के दोनों ओर डाले, सुख – शांति मिलेगी।

5👉 मुख्य द्वार के परदे के नीचे कुछ घुंघरु बांध दे, इसके संगीत से घर में प्रसन्नता का वातावरण बनेगा।

6👉 प्रतिदिन शाम को पीपल के पेड को थोडा – सा दूध – पानी मिलाकर चढाएं, दीपक जलाएं तथा मनोकामना के साथ पांच परिक्रमा करें। शीघ्र मनोकामना पूरी होगी।

7👉 प्रतिदिन सवेरे पहली रोटी गाय को, दूसरी रोटी कुत्ते को एवं तीसरी रोटी छत पर पक्षियों को डालें।
इससे पितृदोष से मुक्ति मिलती है तथा पितृदोष के कारण प्राप्त कष्ट समाप्त होते हैं।

8👉 किसी भी दिन शुभ – चौघडिये में पांच किलो साबूत नमक एक थैली में लाकर अपने घर में ऐसी जगह रखें जहां पानी नहीं लगे। यदि अपने आप पानी लग जाए तो इसे काम में नहीं ले, फेंक दे तथा नया नमक लाकर रख दें। यह घर के नकारात्मक प्रभाव को कम करता है एवं सकारात्मक प्रभाव को बढाता है।

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जय लक्ष्मी माता दी मित्रों !

संजय गुप्ता

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धन का प्रभाव…..🌹🌹🌹

एक महात्मा जी भक्ति कथाएं सुनाते थे. उनका अंदाज बड़ा सुंदर था औऱ वाणी में ओज था इसलिए उनका प्रवचन सुनने वालों की बड़ी भीड़ होती।उनकी ख्याति दूर-दूर तक हो गई. एक सेठ जी ने भी ख्याति सुनी दान-धर्म-प्रवचन में रूचि रखते थे इसलिए वह भी पहुंचे.

एक दिन उन्होंने अपना वेष बदल रखा था. मैले-कुचैले पहन लिए जैसे कोई मेहनत कश मजदूर हो।प्रतिदिन प्रवचन में आकर वह एक कोने में बैठ जाते और चुपचाप सुनते. प्रवचन में आने वाला एक व्यक्ति कई दिनों बाद आया.
महात्मा जी के पूछने पर बताया कि उसका घर जलकर राख हो गया. उसके पास रहने को घर नहीं है।महात्मा जी ने सबसे कहा- ईश्वर ने कोप किया. वह आपकी परीक्षा लेना चाहते है कि क्या आप अपने साथी की सहायता करेंगे. वह आपकी परीक्षा ले रहे हैं इसलिए जो बन पड़े, सहायता करें।एक चादर घुमाई गई. सबने कुछ न कुछ पैसे डाले. मैले कपड़े में बैठे सेठ ने 10 हजार रूपए दिए. सबकी आंखें फटी रह गईं. वे तो उससे कोई उम्मीद ही नहीं रख रहे थे।सब समझते थे कि वह कंगाल और नीच पुरुष है जो अपनी हैसियत अनुसार पीछे बैठता है. सबने उसके दानशीलता की बड़ी प्रशंसा की. उसके बारे में सब जान चुके थे।

अगले दिन सेठ फिर से उसी तरह मैले कपड़ों में आया और स्वभाव अनुसार पीछे बैठ गया. सब खड़े हो गए और उसे आगे बैठने के लिए स्थान देकर प्रार्थना की पर सेठ ने मना कर दिया।फिर महात्मा जी बोले- सेठ जी आप यहां आएं, मेरे पास बैठिए. आपका स्थान पीछे नहीं।*

सेठ ने उत्तर दिया- सच में संसार में धन की ही पूजा है. आम लोगों की भावनाएं तो भौतिकता से जुड़ी होंगी लेकिन महात्मा जी आप तो संत है. मैले कपड़े वाले को अपने पास बिठाने की आपको तभी सूझी जब मेरे धनी होने का पता चला।

“”माया को माया मिले, कर-कर लंबे हाथ।
तुलसीदास गरीब की, कोई न पूछे बात।।””

महात्मा जी आप माया के प्रभाव में मुझे अपना रहे हैं. क्या यह सत्य है या कोई और कारण है
महात्मा जी बोले- आपको समझने में फेर हुआ है. मैं यह सम्मान आपके धन के प्रभाव में नहीं दे रहा. जरूरत मंद के प्रति आपके त्याग के भाव को दे रहा हूँ।
संतमत विचार-धन तो लोगों के पास होता ही है, दान का भाव नहीं होता. यह उस भाव को सम्मान है।
Jai shri radhey krishna 👍👍

संजय गुप्ता

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रूपान्तरण कैसे हो

• एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा- “गुरुदेव, आपने कहा था कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ, तो क्या धर्म से जीवन का रूपान्तरण नहीं होता है?”

• गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बतलाया- “एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ।” (शिष्य चौंक गया पर फिर भी शिष्य उठ कर गया और लोटे में मदिरा लेकर आया।) गुरुदेव ने शिष्य से कहा- “अब इससे कुल्ला करो।” (अपने शिष्य को समझाने के लिए गुरु को हर प्रकार के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। मदिरा को लोटे में भरकर शिष्य कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।)

• गुरुदेव ने पुछा- “बताओ तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं?” शिष्य ने कहा- “गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

• इस पर संत ने कहा- “इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर पड़ता।

• जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले।

• धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।”

संजय गुप्ता

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🌾 हर दाने का भाग्य🌾

एक समय की बात हैं, के श्री गुरू नानक देव जी महाराज और उनके दो शिष्य बाला और मरदाना किसी गाँव में जा रहे थे। चलते-चलते रास्ते में एक मकई का खेत आया, बाला स्वाभाविक बहुत कम बोलता था,

मगर जो मरदाना था, वो बात की नींव उधेढ़ता था, मकई का खेत देख कर मरदाने ने गुरू नानकजी महाराज से सवाल किया के बाबाजी इस मकई के खेत में जितने दाने हैं, क्या वो सब पहले से निर्धारित कर दिऐ गए हैं कि कौन इस का हकदार हैं और यह किस के मुँह में जाऐंगे तो

इस पर गुरू नानकजी महाराज ने कहा बिल्कुल इस संसार में कहीं भी कोई भी खाने योग्य वनस्पति पर मोहर पहले से ही लग गई हैं और जिसके नाम की मोहर होगी वही जीव उसका ग्रास करेगा,

गुरूजी की इस बात ने मरदाने के मन् के अन्दर कई सवाल खड़े कर दिए, मरदाने ने मकई के खेत से एक मक्का तोड़ लिया और उसका एक दाना निकाल कर हथेली पर रख लिया और गुरू नानकजी महाराज से यह पूछने लगा बाबाजी कृपा करके आप मुझे बताए के इस दाने पर किसका नाम लिखा हैं,

इस पर गुरू नानकजी महाराज ने जवाब दिया के इस दाने पर एक मुर्गी का नाम लिखा हैं। मरदाने ने गुरूजी के सामने बड़ी चालाकी दिखाते हुए, मकई का वो दाना अपने मुँह मे फेंक लिया और

गुरूजी से कहने लगा के कुदरत का यह नियम तो बढ़ी आसानी से टूट गया, मरदाने ने जैसे ही वो दाना निगला वो दाना मरदाने की श्वास नली में फस गया। अब मरदाने की हालत तीर लगे कबूतर जैसी हो गई। मरदाने ने गुरू नानक देव जी को कहा के बाबाजी कुछ कीजिए नहीं तो मैं मर जाउंगा,

गुरू नानक देव जी महाराज ने कहा, बेटा ! मैं क्या करू कोई वैद्य या हकीम ही इसको निकाल सकता हैं। पास के गाँव मे चलते हैं, वहाँ किसी हकीम को दिखाते है। मरदाने को लेकर वो पास के एक गाँव में चले गए।

वहाँ एक हकीम मिले उस हकीम ने मरदाने की नाक मे नसवार डाल दी, नसवार बहुत तेज थी नसवार सुंघते ही मरदाने को छींके आनी शुरू हो गई।

मरदाने के छीँकने से मकई का वो दाना गले से निकल कर बाहर गिर गया। जैसे ही दाना बाहर गिरा पास ही खड़ी मुर्गी ने झट से वो दाना खा लिया।

मरदाने ने गुरू नानक देव जी से क्षमा माँगी और कहा बाबाजी मुझे माफ़ कर दीजिए, मैंने आपकी बात पर शक किया। हम इस त्रिलोकी में फसे हुए अंधे कीड़े हैं। जो दर-दर की ठोकरें खाते हैं और हम खुद को बहुत सयाना समझते हैं।

बड़े अच्छे भाग्य से हमें यह शरीर मिला, बड़े भाग्य से सेवा मिली सत्संग मिला और मुर्शिद ने हम जैसे कीड़ों की जिम्मेदारी लेकर नाम दान की बख्शीश भी कर दी। हमें बिना किसी तर्क वितर्क, कैसे, क्युं, कहाँ को छोड़कर गुरूजी का हुकुम मानना चाहिए।।

संजय गुप्ता

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कथा, राजा पृथु की -अपने पिता वेन की दाहिनी भुजा के मंथन से पैदा हुए थे पृथु !!!!!!

ध्रुव के वनगमन के पश्चात उनके पुत्र उत्कल को राजसिंहासन पर बैठाया गया, लेकिन वे ज्ञानी एवम विरक्त पुरुष थे, अतः प्रजा ने उन्हें मूढ़ एवं पागल समझकर राजगद्दी से हटा दिया और उनके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजगद्दी पर बैठाया।

उन्होंने तथा उनके पुत्रों ने लम्बी अवधि तक शासन किया। उनके ही वंश में एक राजा हुए अंग। उनके यहां वेन नाम का पुत्र हुआ।

वेन की निर्दयता से दुखी होकर राजा अंग वन को चले गए। वेन ने राजगद्दी सम्भाल ली। अत्यंत दुष्ट प्रकृति का होने के कारण अंत में ऋषियों ने उसे शाप देकर मार डाला। वेन के कोई सन्तान नहीं थी, अतः उसकी दाहिनी भुजा का मंथन किया गया। तब राजा पृथु का जन्म हुआ।

ध्रुव के वंश में वेन जैसा क्रूर जीव क्यों पैदा हुआ ? इसके पीछे क्या रहस्य है ? यह जानने की इच्छा बड़ी स्वभाविक है। अंग राजा ने अपनी प्रजा को सुखी रखा था। एक बार उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया था। उस समय देवताओं ने अपना भाग ग्रहण नहीं किया, क्योंकि अंग राजा के कोई सन्तान नहीं थी।

मुनियों की कथानुसार-अंग राजा ने उस यज्ञ को अधूरा छोड़कर पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा यज्ञ किया। आहुति देते समय यज्ञ में से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसने राजा को खीर से भरा एक पात्र दिया। राजा ने खीर का पात्र लेकर सुंघा, फिर अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी ने उस खीर को ग्रहण किया।

समय आने पर उसके गर्भ से एक पुत्र हुआ, किन्तु माता अधर्मी वंश की पुत्री थी, इसी कारण वह सन्तान अधर्मी हुई। इसी अंग राजा का पुत्र वेन था।

वेन के वंश से राजा पृथु की हस्तरेखाओं तथा पांव में कमल चिन्ह था। हाथ में चक्र का चिन्ह था। वे भगवान विष्णु के ही अंश थे। ब्राह्मणों ने राजा पृथु का राज्याभिषेक करके सम्राट बना दिया। उस समय पृथ्वी अन्नहीन थी। प्रजा भूखी मर रही। प्रजा का करुण क्रंदन सुनकर राजा पृथु अति दुखी हुए।

जब उन्हें मालूम हुआ कि पृथ्वी माता ने अन्न, औषधि आदि को अपने उदर में छिपा लिया है तो वे धनुष-बाण लेकर पृथ्वी को मारने दौड़ पड़े। पृथ्वी ने जब देखा कि अब उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता तो वह राजा पृथु की शरण में आई। जीवनदान की याचना करती हुई वह बोली-“मुझे मारकर अपनी प्रजा को सिर्फ जल पर ही कैसे जीवित रख पाओगे ?”

पृथु ने कहा-“स्त्री पर हाथ उठाना अवश्य ही अनुचित है, लेकिन जो पालनकर्ता अन्य प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करता है उसे दंड अवश्य ही देना चाहिए।”

पृथ्वी ने राजा को नमस्कार करके कहा-“मेरा दोहन करके आप सब कुछ प्राप्त करे। आपको मेरे योग्य बछड़ा और दोहन-पात्र का प्रबन्ध करना पड़ेगा। मेरी सम्पूर्ण सम्पदा को दुराचारी चोर लूट रहे थे, अतः मैने वह सामग्री अपने गर्भ में सुरक्षित रखी है। मुझे आप समतल बना दीजिये।”

राजा पृथु सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मनु को बछड़ा बनाया एवं स्वयं अपने हाथो से पृथ्वी का दोहन करके अपार धन-धान्य प्राप्त किया। फिर देवताओं तथा महर्षियों को भी पृथ्वी के योग्य बछड़ा बनाकर विभिन्न वनस्पति, अमृत, सुवर्ण आदि इच्छित वस्तुएं प्राप्त की। उन्होंने पृथ्वी को अपनी कन्या के रूप में स्वीकार किया। पृथ्वी को समतल बनाकर पृथु ने स्वयं पिता की भांति प्रजाजनों के कल्याण एवं पालन-पोषण का कर्तव्य पूरा किया।

राजा पृथु ने सौ अश्वमेघ यज्ञ किए। स्वयं भगवान विष्णु उन यज्ञों में आए, साथ ही सब देवता भी आए। पृथु के इस उत्कर्ष को देखकर इंद्र को ईर्ष्या हुई। उनको सन्देह हुआ कि कही राजा पृथु इंद्रपुरी न प्राप्त कर ले। उन्होंने सौवे यज्ञ का घोडा चुरा लिया।

जब इंद्र घोडा लेकर आकाश मार्ग से भाग रहे थे तो अत्रि ऋषि ने उन्हें देख लिया। उन्होंने राजा को बताया और इंद्र को पकड़ने के लिए कहा। राजा ने अपने पुत्र को आदेश दिया। पृथु कुमार ने भागते हुए इंद्र का पीछा किया। इंद्र ने वेश बदल रखा था।

पृथु के पुत्र ने जब देखा कि भागने वाला जटाजूट एवं भस्म लगाए हुए है तो उसे धार्मिक व्यक्ति समझकर बाण चलाना उपयुक्त न समझा। वह लौट आया, तब अत्रि मुनि ने उसे पुनः पकड़ने के लिए भेजा। फिर से पीछा करते पृथु कुमार को देखकर इंद्र घोड़े को वही छोड़कर अंतर्धान हो गए।

पृथु कुमार अश्व को लेकर यज्ञशाला में आए। सभी ने उनके पराक्रम की स्तुति की। अश्व को पशुशाला में बांध दिया गया। इंद्र ने छिपकर पुनः अश्व को चुरा लिया। अत्रि ऋषि ने यह देखा तो पृथु कुमार को बताया। पृथु कुमार ने इंद्र को बाण का लक्ष्य बनाया तो इंद्र ने अश्व को छोड़ दिया और भाग गए।

इंद्र के इस षड्यन्त्र का पता पृथु को चला तो उन्हें बहुत क्रोध आया। ऋषियों ने राजा को शांत किया और कहा-“आप व्रती है, यज्ञपशु के अतिरिक्त आप किसी का भी वध नहीं कर सकते। लेकिन हम मन्त्र द्वारा इंद्र को ही हवनकुंड में भस्म किए देते है।”

यह कहकर ऋत्विजों ने मन्त्र से इंद्र का आह्वान किया। वे आहुति डालना ही चाहते थे कि वहां ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने सबको रोक दिया। उन्होंने पृथु से कहा-“तुम और इंद्र दोनों ही परमात्मा के अंश हो। तुम तो मोक्ष के अभिलाषी हो। इन यज्ञों की क्या आवश्यकता है ? तुम्हारा यह सौवा यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हुआ है, चिंता मत करो। यज्ञ को रोक दो। इंद्र के पाखण्ड से जो अधर्म उत्पन्न हो रहा है, उसका नाश करो।”

भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को साथ लेकर पृथु की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उन्होंने पृथु से कहा-“मैं तुम पर प्रसन्न हूं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले इंद्र को तुम क्षमा कर दो। राजा का धर्म प्रजा की रक्षा करना है। तुम तत्वज्ञानी हो। भगवत प्रेमी शत्रु को भी समभाव से देखते हो। तुम मेरे परमभक्त हो। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मांग लो।”

राजा पृथु भगवान विष्णु के वचनों से प्रसन्न थे। इंद्र लज्जित होकर राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े। पृथु ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया।

राजा पृथु ने भगवान विष्णु से कहा-“भगवन ! सांसारिक भोगो का वरदान मुझे नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते है तो मुझे सहस्त्र कान दीजिये, जिससे आपका कीर्तन, कथा एवं गुणगान हजारों कानों से श्रवण करता रहूं। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नहीं चाहिए।”

भगवान् विष्णु ने कहा-“राजन ! तुम्हारी अविचल भक्ति से मैं अभिभूत हूं। तुम धर्म से प्रजा का पालन करो।” यह कहकर भगवान विष्णु अन्तर्धान हो गए।

राजा पृथु की अवस्था जब ढलने लगी तो उन्होंने अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर पत्नी अर्चि के साथ वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया। वे भगवान विष्णु की कठोर तपस्या करने लगे। अंत में तप के प्रभाव से भगवान में चित्त स्थिर करके उन्होंने देह त्याग कर दिया।

उनकी पतिव्रता पत्नी महारानी अर्चि पति के साथ ही अग्नि में भस्म हो गई। दोनों परम-धाम प्राप्त हुआ।

संजय गुप्ता

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थोड़ी लम्बी कथा है पर हो सके तो ज़रूर पूरा पढ़े!

हमारे जीवन की सच्चाई….

राजा परीक्षित और शुकदेव महाराज

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनाते हुए जब शुक्रदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और सांप के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था। तब शुक्रदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा सुनानी आरंभ की।

राजन! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुंचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात हो गई और भारी वर्षा भी होने लगी। जंगल में शेर, व्याघ्र आदि जंगली जानवर बोलने लगे। राजा ने सोचा कि किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात बिताने के लिए विश्राम का स्थान मिल जाए तो अच्छा रहेगा।

इसी दौरान राजा को एक दीपक दिखाई दिया, वहां पहुंचकर उसने एक बहेलिये की झोंपड़ी देखी। वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। साथ ही अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे जंगली जानवर और खराब मौसम के कारण राजा ने झोपड़ी में ही विश्राम करने का निर्णय लिया। राजा ने बहेलिये से रातभर ठहने का अनुरोध किया।

बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी-कभी यहां आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूं, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।

राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहां तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है। बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा।

सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया।

कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा, परीक्षित! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था? परीक्षित ने उत्तर दिया, भगवन! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है।

श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा, हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है? राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।

अगर आपने पूरा पढ़ लिया है तो इस ज्ञान को आगे भी भेज दें। ताकि और लोगों को भी प्रेरणा मिले।

धन्यवाद….
।।हरे कृष्णा ।।

संजय गुप्ता

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आज वैदेही बहुत खुश थी, उसका मन उमंग और उत्साह से भरा हुआ था. वो सुबह से ही तैयारी कर रही थी, कभी अपनी किताबें बैग में डालती तो कभी खुद आईने के सामने खड़ी हो जाती और खुद में आत्मविश्वाश भरती, उसके मन में जितनी ख़ुशी थी उतनी घबराहट भी आखिर इतने समय के बाद उसका सपना सच हुआ था वो आज आई.पी.एस की ट्रेनिंग पर जा रही थी उसने बड़ी मेहनत से ये परीक्षा पास की थी.

जबकि उसकी पढाई काफी पहले छुड़वा दी गयी थी जब 18 की उम्र में उसकी मर्ज़ी के खिलाफ उसकी शादी कर दी गयी. वो पढ़ना चाहती थी खुले आसमान में उड़ना चाहती थी पर मानो उड़ने से पहले उसके पर क़तर दिए गए.और नए घर में तो उसे ना कभी मान सम्मान मिला और ना ही प्यार. मिला तो सिर्फ ताने, बेइज़्ज़ती, और जानवरों से बद्द्तर ज़िन्दगी. उसका पति प्रमोद तो उसे आये दिन मारता पीटता भी था. वो अपना दर्द कभी अपने मायके वालों को सुनाती तो उसे और वो समझा देते थे की अब जैसा भी है उसका ससुराल ही उसका घर है और अब उसको वही रहना है.

जैसे तैसे 2 साल बीत गए और वैदेही ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया. बेटी पैदा करने की वजह से वैदेही के साथ अब तो और भी बुरा बर्ताव होने लगा, और प्रमोद की दूसरी शादी करवा देने की धमकी मिलने लगी.उसकी हालत और ख़राब होती जा रही थी और ये सब देख विजय बहुत विचलित हो उठा. विजय उसका पडोसी था जो नया नया पड़ोस में रहने आया था . उसे वैदेही से हमदर्दी होने लगी …… इधर वैदेही को भी एक हमदर्द मिल गया था जिस से वो अपनी तक़लीफ़ बाँट सके . विजय उसमे हिम्मत भरने की कोशिश करता ताकि वो दलदल से निकल अपनी और अपनी बच्ची की ज़िन्दगी सवार सके पर वैदेही ये सोच कर अपने कदम रोक लेती की वो ज़्यादा पढ़ी लिखी तो है नहीं अपनी बच्ची की परवरिश कैसे करेगी.पर जब वैदेही ने देखा की उसके घर में उसकी बच्ची की भी उतनी ही कद्र है जितनी की उसकी,उस नन्ही सी जान की परवाह किसी को भी ना थी तो उस से रहा ना गया और उसने प्रमोद से अलग होने की ठानी, जिसमे विजय ने उसकी पूरी पूरी मदद की.तलाक के लिए वकील से लेकर घर और पार्ट टाइम नौकरी के लिए एन.जी.ओ तक सब का इंतज़ाम विजय ने ही किया.

आखिर एक दिन कोर्ट में उसे प्रमोद से छुटकारा मिल ही गया. और वैदेही ने अपनी पढाई फिर से शुरू की और एक हॉस्पिटल में पार्ट टाइम जॉब भी. पर अचानक उसके मन में एक सवाल आया की विजय उसकी इतनी मदद क्यों कर रहा …..इसमें उसका क्या फायदा.. क्या विजय उसका दिल जीतना चाहता था.. या बस इस्तेमाल करना चाहता था… क्या विजय बाकी मर्दों की तरह ही अपने मतलब के लिए कर रहा था…… इन सवालो से वैदेही का मन बेचैन हो उठा. उसे समझ नहीं आ रहा था की वो कैसे अपनी दुविधा दूर करे. तभी उसने विजय को फ़ोन पर किसी से बात करते हुए सुना,” मेरी परी को तो आज मना के रहूंगा आज उसे मेरी बात माननी पड़ेगी,तुम आज हरी चूड़ियां लेते आना अपनी जान को मैं अपने हाथों से पहनाऊँगा तब वो मेरी बात मान जाएगी”. अब तो वैदेही को अपने शक पर यकीन हो गया… उस से रहा ना गया उन विजय से जाके पूछ ही लिया की उसके मदद के पीछे उसका क्या स्वार्थ है..

विजय ने आहत होकर वैदेही से कहा की तुम जानना चाहती हो ना की मैं तुम्हारी मदद क्यों कर रहा हूँ तो चलो मेरे साथ… वैदेही ज्यों ही विजय के घर जाती है उसकी नज़र दीवार पे टंगे तस्वीर पर पड़ती है.. विजय बोलता है,”देखो वैदेही ये मेरी बहन है गीता इसको इसके ससुराल वालों ने जला कर मार डाला,इसने मुझे और मेरे घरवालों को बार बार अपना दुःख सुनाया पर हमने ध्यान नहीं दिया…सोचा की झगडे हर घर में होते हैं किसी बात पर नाराज़ होकर इसके पति ने युहीं हाथ उठा दिया होगा कोई बड़ी बात नहीं है पर उसे हमेशा के लिए खोने के बाद ये समझ आयी की जिस दिन उसके पति ने उसे पहला थप्पड़ मारा उस दिन ही अगर हमने आवाज़ उठाई होती… अपनी बहन का साथ दिया होता तो आज वो हमारे बीच होती. पत्नी पर हाथ उठाने वाला पति ही सिर्फ दोषी नहीं है.. इसको सहन करने वाली हर लड़की भी दोषी है और उस लड़की का परिवार जो उसका साथ नहीं देता वो भी उतना भी दोषी है. हमेशा से हमारे देश की लड़कियों को शहनशीलता का पाठ पढ़ाया जाता है पर आज ज़रूरत विपरीत है किसी भी लड़की को शहनशील नहीं,साहसी बनने की ज़रूरत है. पत्नी पर हाथ उठाना या बुरा बर्ताव करना किसी भी स्थिति में आम बात नहीं हो सकती. और वैदेही जब तुम्हे देखता हूँ तो मुझे अपनी गीता की याद आती है इसीलिए मैं तुम्हारी मदद कर रहा हूँ ताकि किसी एक गीता को बचा कर अपने अंदर का अपराधबोध कम कर सकूँ. वैदेही अपनी सोच पर शर्मिंदा महसूस करती है. फिर वो पूछती है की विजय ने फिर हरी चूड़ियां किसके लिए मंगवाई.

तभी एक छोटी सी बच्ची अंदर आती है और विजय से गुस्से में पूछती है,”मेले लिए हली चूलीयां नहीं लाये ना मामू” और विजय मुस्कुरा कर उसे गोद में उठा लेता है और बोलता है,”मेरी परी की चूड़ियां रास्ते में है अभी आ जाएँगी” और वैदेही की तरफ रुख़ करके बोलता है,”ये है मेरी छोटी गीता””मेरी जान”अब तो मेरी ज़िन्दगी बस यही है पर तुम अपनी और अपनी बच्ची के भविष्य पर ध्यान दो. और हाँ,कभी किसी गीता पर अत्याचार होते देखो तो उसके लिए ज़रूर लड़ना. अब मैं चलता हूँ…. अलविदा. वैदेही ने तब ही ठान लिया था की वो एक साहसी पुलिस अफसर बनेगी ताकि कभी कोई गीता अपनी जान न गवां बैठे.

संजय गुप्ता