Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

किसी मठ के एक वरिष्ठ भिक्षु ने कई सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। उस वरिष्ठ भिक्षु का सर्वत्र आदर और सम्मान होता था। एक दिन अपराह्न काल वे ध्यान कक्ष में अन्य भिक्षुओं के साथ बैठे थे। तभी उन्होंने एक भिक्षु के कान में धीरे से कहा, “क्या तुम भूखे हो ?” वह भिक्षु बोला, “यदि भूखे भी हों, तो इस संबंध में क्या किया जा सकता है। मठ के नियमानुसार हम दोपहर में भोजन नहीं कर सकते। नियम तोड़ने का दुस्साहस कौन करेगा ? यदि हम खाना भी चाहें तो रसोईघर में कुछ नहीं होगा।” वरिष्ठ भिक्षु ने कहा, “तुम चिंता मत करो। यदि तुम्हें खाना है, तो मैं कुछ दे सकता हूं। मेरे पास चावल की कुछ रोटियां हैं।” यह कहकर वरिष्ठ भिक्षु ने अपनी जेब में हाथ डालकर चावल की रोटियां निकालीं और उस भिक्षु को दे दी। उस मठ के प्रमुख भी सिद्ध पुरुष थे। वे मठ के नियमों का कड़ाई से पालन करवाने के लिए हमेशा सजग रहते और अपनी सिद्धि का कभी प्रदर्शन नहीं करते थे। अगली सुबह की सामूहिक प्रार्थना में मठ के प्रमुख ने घोषणा की, “कल दोपहर को ध्यान कक्ष में दो भिक्षुओं ने मठ के नियमों का उल्लंघन किया है, अतएव उन्हें मठ से निष्कासित किया जाता है।” इस उद् घोषणा से सभी हैरत में पड़ गए, लेकिन सिद्धि प्राप्त वरिष्ठ भिक्षु ने अपना चोगा उतारकर मठ प्रमुख को साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपनी गलती के लिए क्षमा-याचना की और सजा के अनुसार मठ छोड़कर चले गए। वह चाहे परिवार-समाज हो या व्यक्तिगत जीवन-अनुशासन के बिना सच्ची प्रगति संभव नहीं है। जब मनुष्य कुछ सत्ता, धन या शक्ति संग्रहीत कर लेता है, तब समाज और कार्य क्षेत्र के नियमों को बेमानी तथा बंधनकारी महसूस करने लगता है। ऐसे समय में यह याद रखना जरूरी है कि जीवन में जो भी सफलता या शक्ति हासिल हुई है, उसके पीछे कठोर अनुशासन का हाथ है। उसे तोड़कर वह कोई विकास नहीं कर सकता।

के एल कक्कड़

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प्रेरक प्रसंग

श्रम से दुःख रूज सब मिटै

  सुप्रसिद्ध दार्शनिक सन्त कन्फयूशियस के बुद्धिमान शिष्य चाँग - हो - चाँग एक बार भ्रमण को निकले ।  लोगों के दैनन्दिन जीवन की जानकारी प्राप्त कर उपयुक्त वातावरण निर्माण करना उनके भ्रमण का उद्देश्य था ।  घूमते-घूमते वे ताईवान पहुँचे ।  वहाँ एक स्थान पर उन्होंने एक युवा माली को कुएँ से बाल्टी- बाल्टी पानी निकालते पाया ।  वे थोड़ी देर रुक गये ।  उन्होंने देखा कि वह माली पानी को स्वयं ढोकर हर पौधे को सींच रहा था ।  पसीने से वह तर हो गया था, लेकिन अभी भी बहुत से वृक्षों में पानी सींचना बाकी था ।  चाँग को उसपर दया आयी, सोचते रहे कि क्या कोई ऐसा उपाय नहीं कि पौधों को कम समय में सींचा जाए और माली को इतना श्रम न करना पड़े ।
  चाँग के मन में विचार आया कि लकड़ियों की एक घिर्री बनाकर एवं उसमें रस्सी लपेटकर खड़े-खड़े पानी सींचा जाए और कुएँ के पास से ही प्रत्येक पेड़ तक नाली खोद दी जाए, तो माली को इतना परिश्रम न करना पड़ेगा ।  उन्होंने अपना यह सुझाव माली को बताया ।  उसे वह पसन्द आया ।  थोड़ी ही देर में उसने घिर्री की व्यवस्था की ।  नाली भी खोदी गयी तथा नाली से प्रत्येक वृक्ष तक पानी पहुँचने लगा ।
  चाँग सन्तुष्ट हो आगे बढ़े, मगर रास्ते में सोचते रहे कि क्या इसके श्रम की और बचत नहीं की जा सकती और तब उनके मन में विचार आया कि यदि कुएँ में भाप से चलने वाली मशीन डाल दी जाए, तो उसका श्रम काफी कम हो जाएगा और वृक्षों को पानी भी खूब मिलने लगेगा ।  लौटकर उन्होंने माली को इस सुझाव पर विचार करने को कहा।  माली को सुझाव पसन्द आया और उसने चाँग को इसे अमल में लाने का आश्वासन दिया ।  चाँग वहाँ से आगे बढ़ गये ।
  काफी समय बीत गया और एक दिन चाँग को उस माली का ख्याल आया ।  वे सोचने लगे कि बगीचा अब लहलहाता होगा, इसलिए क्यों न प्रत्यक्ष वहाँ जाकर देख आया जाए ।  वे जब वहाँ गये, तो यह देख चकित हुए कि बगीचे की हालत कोई अच्छी नहीं है । माली हरदम बीमार रहता है और वृक्षों को पानी नियमित रूप से नहीं मिल रहा है ।  वे जब उसके घर गये, तो उन्होंने देखा कि माली काफी कमजोर हो गया है और हाथ-पैर सूख गये हैं ।  उसमें पहले जैसा उत्साह भी नहीं रह गया था ।  उन्होंने हँसते हुए माली से पूछा,  "भाई, तुम्हारे समय की बचत होने पर भी तुम्हारी ऐसी हालत कैसे हो गयी ? क्या कोई और तरकीब सोचने की जरूरत है, जिससे तुम्हें और आराम मिले ?"
  माली की स्त्री पास ही खड़ी थी, झल्लाकर बोली,  "श्रीमानजी, तरकीबें लड़ाना बहुत हो चुका ।  इसके बजाय यदि आप ऐसी सीख दें कि ये पहले जैसे हो जाएँ और अपने हाथों से ही काम करने लगें, तो इनकी हालत में सुधार हो सकता है ।  यही आपकी हमपर मेहरबानी होगी ।  घिर्री और भाप की मशीन ही इनकी बीमारी का कारण है ।"  चाँग ने जो सुना, तो सोचने लगे कि क्या उनका सुझाव ही माली की इस हालत के लिए कारणीभूत हैं ?  और तब उन्होंने महसूस किया कि यदि मनुष्य परिश्रम न करे और हाथ पर हाथ धरे मशीनों पर निर्भर रहे, तो वह कभी भी स्वस्थ नहीं रह सकता ।  उन्होंने माली दम्पत्ति से माफी माँगी और कहा उनके सुझाव सचमुच गलत थे ।  यदि माली पूर्ववत् कुएँ से ही बाल्टी - बाल्टी निकालकर सींचे, तभी वह तन्दुरुस्त रह सकता है ।

अनूप सिन्हा

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कैसे बना था नाथद्वारा में श्रीनाथ जी का मंदिर।

9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने हिंदू मंदिरों को तोड़ने के लिए आदेश जारी किया।

अनेक मंदिरों की तोड़फोड़ के साथ वृंदावन में गोवर्धन के पास श्रीनाथ जी के मंदिर को तोड़ने का काम भी शुरू हो गया ।

इससे पहले कि श्रीनाथ जी की मूर्ति को कोई नुकसान पहुंचे, मंदिर के पुजारी दामोदर दास बैरागी ने मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल लिया।

दामोदर दास बैरागी वल्लभ संप्रदाय के थे और वल्लभाचार्य के वंशज थे।

उन्होंने बैलगाड़ी में श्रीनाथजी की मूर्ति को स्थापित किया और उसके बाद वह बूंदी, कोटा ,किशनगढ़ और जोधपुर तक के राजाओं के पास आग्रह लेकर गए कि श्रीनाथ जी का मंदिर बनाकर उसमें मूर्ति स्थापित की जाए।

लेकिन औरंगजेब के डर से कोई भी राजा दामोदर दास बैरागी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर रहा था।

तब दामोदर दास बैरागी ने मेवाड़ के राजा राणा राज सिंह के पास संदेश भिजवाया ।

राणा राजसिंह पहले भी औरंगजेब से पंगा ले चुके थे।

जब किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमती से विवाह करने का प्रस्ताव औरंगजेब ने भेजा तो चारुमती ने इससे साफ इनकार कर दिया और रातों-रात राणा राजसिंह को संदेश भिजवाया कि चारुमती उनसे शादी करना चाहती है।

राणा राजसिंह ने बिना कोई देरी के किशनगढ़ पहुंचकर चारुमती से विवाह कर लिया।

इससे औरंगजेब का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया और वे राणा राजसिंह को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझने लगे।

यह बात 1660 की है ।

यह दूसरा मौका था जब राणा राजसिंह ने खुलकर औरंगजेब को चैलेंज किया।

राणा राज सिंह ने कहा कि मेरे रहते हुए श्रीनाथजी की मूर्ति को कोई छू तक नहीं पाएगा।

उस समय श्रीनाथजी की मूर्ति बैलगाड़ी में जोधपुर के पास चौपासनी गांव में थी और चौपासनी गांव में कई महीने तक बैलगाड़ी में ही श्रीनाथजी की मूर्ति की उपासना होती रही ।

यह चौपासनी गांव अब जोधपुर का हिस्सा बन चुका है और जहां पर यह बैलगाड़ी खड़ी थी वहां पर आज श्रीनाथजी का एक मंदिर बनाया गया है।

5 दिसंबर 1671 को सिहाड गांव में श्रीनाथ जी की मूर्तियों को का स्वागत करने के लिए राणा राजसिंह स्वयं सिहाद विलेज गए।

यह सिहाड गांव उदयपुर से 30 मील एवं जोधपुर से लगभग 140 मील पर स्थित है

जिसे आज हम नाथद्वारा के नाम से जानते हैं।

20 फरवरी 1672 को मंदिर का निर्माण संपूर्ण हुआ और श्री नाथ जी की मूर्ति सिहाड गांव के मंदिर में स्थापित कर दी गई।

यही सिहाड गांव अब नाथद्वारा बन गया।

संजय गुप्ता

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📚सपनोका खेल📚
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तिन मित्र थे | एक साथ रहते थे कम काज कुछ नहीं था इस लिए पैसो की तंगी चलती थी एक दिन तिनोंकी खीर खाने की इच्छ हुई अपने पास जो कुछ पूंजी थी उससे खीर का सामान ले आये लेकिन खीर बनी तो ध्यान में आया की इतने खीर से तीनो में से एक का पेट तृप्त हो पायेगा थोड़ी थोड़ी खीर खा कर अतृप रहने से क्या फायदा विचार करके उन्होंने तय किया की रात्री को जिसे सुन्दर सपना दिखाई देगा वह पुरी खीर खायेगा तीनो खीर का सपना देखते सो गए सुबह उठते ही एक दुसरे से सपने के विषय में पूछने लगे पाहिले ने कहा ,अरे पूछो मत मुझे तो एकदम बढ़िया सपना पड़ा एक परी सपने में आयी और मुजे स्वर्ग लोग के नंदनवन ले गयी वंहा बढ़िया कार्यक्रम चल रहा था,अप्सरा नाच रही थी मिस्थान्न भोज चल रहा था , मन तृप्त हो गया दुसरे ने कंहा,अरे हट ये भी क्या सपना है ,तू तो एही मोहजाल में ही फसा रहा मै तो सपने में कैलास पर्वत जा पहुंचा वंहा शंकर पार्वती गणेशजी के साथ सत्संग चल रहा था लगा अपन जीवन सार्थक हो गया दोनों ने तीसरे के तरफ देखने लगे तीसरे ने कंहा मेरा सपना तो एकदम भयावह था आपके जैसा सुन्दर, मन:शांती देने वाला एक्दम नहीं था मैने देखा हम एकसाथ प्रवास करा रहे है साथ में डिब्बे खीर भी है रात हुई तो एक बरगद पेड़ के निचेसोये है मध्य रात्री में अचानक एक भयानक आदमी ,जो दिखानेमे बहुतही भयानक तो था लेकिन हाथ में जबरदस्त सोटा लिए खड़ा था |मुझे कहने लगा ये डिब्बे में क्या है मैंने डरते हुए कहा की खीर है फिर कहने लगा डिब्बे में क्यूँ रखी है चल खा जा मैंने कंहा की खीर तो दोस्तोंके साथ खानी है,तो जोर से सोटा पटक कर कंहा खाता है या दिखाऊ मेंरी हालत तो डर से एकदम पतली होगई थी डिब्बा खोला और झट से खीर पी लिया दोनों ने हमें क्यूनहीं बुलाया तीसरे ने कंहा आप तो नंदनवन, कैलास पर्वत आनंद ग्रहण करा रहे थे जल्दी जल्दी दोनोने अन्दर जा कर देखा तो खीर का बरतन साफ हो चूकाथा
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🌞शुभ संध्या🌞
संजय गुप्ता

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आपको यह जानकर आश्चर्य होगा की भारत में ऐसे शिव मंदिर है जो केदारनाथ से लेकर रामेश्वरम तक एक सीधी रेखा में बनाये गये है। आश्चर्य है कि हमारे पूर्वजों के पास ऐसा कैसा विज्ञान और तकनीक था जिसे हम आज तक समझ ही नहीं पाये? उत्तराखंड का केदारनाथ, तेलंगाना का कालेश्वरम, आंध्रप्रदेश का कालहस्ती, तमिलनाडू का एकंबरेश्वर, चिदंबरम और अंततः रामेश्वरम मंदिरों को 79° E 41’54” Longitude के भौगोलिक सीधी रेखा में बनाया गया है।
यह सारे मंदिर प्रकृति के 5 तत्वों में लिंग की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे हम आम भाषा में पंच भूत कहते है। पंच भूत यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष। इन्ही पांच तत्वों के आधार पर इन पांच शिव लिंगों को प्रतिष्टापित किया है। जल का प्रतिनिधित्व तिरुवनैकवल मंदिर में है, आग का प्रतिनिधित्व तिरुवन्नमलई में है, हवा का प्रतिनिधित्व कालाहस्ती में है, पृथ्वी का प्रतिनिधित्व कांचीपुरम में है और अतं में अंतरिक्ष या आकाश का प्रतिनिधित्व चिदंबरम मंदिर में है! वास्तु-विज्ञान-वेद का अद्भुत समागम को दर्शाते हैं ये पांच मंदिर।
भौगॊलिक रूप से भी इन मंदिरों में विशेषता पायी जाती है। इन पांच मंदिरों को योग विज्ञान के अनुसार बनाया गया था, और एक दूसरे के साथ एक निश्चित भौगोलिक संरेखण में रखा गया है। इस के पीछे निश्चित ही कॊई विज्ञान होगा जो मनुष्य के शरीर पर प्रभाव करता होगा। इन मंदिरों का करीब चार हज़ार वर्ष पूर्व निर्माण किया गया था जब उन स्थानों के अक्षांश और देशांतर को मापने के लिए कोई उपग्रह तकनीक उपलब्ध ही नहीं था। तो फिर कैसे इतने सटीक रूप से पांच मंदिरों को प्रतिष्टापित किया गया था? उत्तर भगवान ही जाने।
केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच 2383 किमी की दूरी है। लेकिन ये सारे मंदिर लगभग एक ही समानांतर रेखा में पड़ते है। आखिर हज़ारों वर्ष पूर्व किस तकनीक का उपयॊग कर इन मंदिरों को समानांतर रेखा में बनाया गया है यह आज तक रहस्य ही है। श्रीकालहस्ती मंदिर में टिमटिमाते दीपक से पता चलता है कि वह वायु लिंग है। तिरूवनिक्का मंदिर के अंदरूनी पठार में जल वसंत से पता चलता है कि यह जल लिंग है। अन्नामलाई पहाड़ी पर विशाल दीपक से पता चलता है कि वह अग्नि लिंग है। कंचिपुरम के रेत के स्वयंभू लिंग से पता चलता है कि वह पृथ्वी लिंग है और चिदंबरम की निराकार अवस्था से भगवान के निराकारता यानी आकाश तत्व का पता लगता है।
अब यह आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है कि ब्रह्मांड के पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करनेवाले पांच लिंगो को एक समान रेखा में सदियों पूर्व ही प्रतिष्टापित किया गया है। हमें हमारे पूर्वजों के ज्ञान और बुद्दिमत्ता पर गर्व होना चाहिए कि उनके पास ऐसा विज्ञान और तकनीक था जिसे आधुनिक विज्ञान भी नहीं भेद पाया है। माना जाता है कि केवल यह पांच मंदिर ही नहीं अपितु इसी रेखा में अनेक मंदिर होगें जो केदारनाथ से रामेश्वरम तक सीधी रेखा में पड़ते है। इस रेखा को “शिव शक्ति अक्श रेखा” भी कहा जाता है। संभवता यह सारे मंदिर कैलाश को द्यान में रखते हुए बनाया गया हो जो 81.3119° E में पड़ता है!? उत्तर शिवजी ही जाने। …
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
कमाल की बात है “महाकाल” से शिव ज्योतिर्लिंगों के बीच कैसा सम्बन्ध है……??
उज्जैन से शेष ज्योतिर्लिंगों की दूरी भी है रोचक-
उज्जैन से सोमनाथ- 777 किमी
उज्जैन से ओंकारेश्वर- 111 किमी
उज्जैन से भीमाशंकर- 666 किमी
उज्जैन से काशी विश्वनाथ- 999 किमी
उज्जैन से,मल्लिकार्जुन- 999 किमी
उज्जैन से केदारनाथ- 888 किमी
उज्जैन से त्रयंबकेश्वर- 555 किमी
उज्जैन से बैजनाथ- 999 किमी
उज्जैन से रामेश्वरम- 1999 किमी
उज्जैन से घृष्णेश्वर – 555 किमी

उज्जैन पृथ्वी का केंद्र माना जाता है । इसलिए उज्जैन में सूर्य की गणना और ज्योतिष गण ना के लिए मानव निर्मित यंत्र भी बनाये गये है करीब 2050 वर्ष पहले ।
और जब करीब 100 साल पहले पृथ्वी पर काल्पनिक रेखा (कर्क)अंग्रेज वैज्ञानिक द्वारा बनायीं गयी तो उनका मध्य भाग उज्जैन ही निकला । आज भी वैज्ञानिक उज्जैन ही आते है सूर्य और अन्तरिक्ष की जानकारी के लिये।जय श्री महाँकाल 🚩🚩🚩🚩🚩

संजय गुप्ता

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😎 🌷🌷 🌷 🌷 भगवानकोभेंट 🌷🌷🌷🌷

पुरानी बात है, एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था । सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था जो भी जरुरी काम हो वह सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था।

वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था ।
.
एक दिन उस वक्त ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा भाई मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता ।

तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100/- रुपए मेरी ओर से श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना । भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर🏵️श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया .🏵️

कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा ।
मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा
कि बहुत सारे संत , भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम
संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर
रहे हैं ।

🔹 सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है । जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है । संकीर्तन में बहुत आनंद आ
रहा था । भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा ।
.
फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे भी प्रतीत हो रहे हैं उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ।
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उसने उन सभी को उन सौ रुपए में से भोजन
की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने में
उसे कुल 98 रुपए खर्च करने पड़े ।
.
उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो
रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा
। जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा वह पैसे चढ़ा दिए । सेठ
यह तौ नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए । सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दीजिए। मैं बोल दूंगा कि , पैसे चढ़ा दिए । झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा ।
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वह भक्त श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया ।अंत में उसने सेठ के दो
रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए ।और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं ।
.
उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए आशीर्वाद दिया और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए ।
.
सेठ जाग गया व सोचने लगा मेरा नौकर तौ बड़ा ईमानदार है ,पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी उसने दो रुपए
भगवान को कम चढ़ाए? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा ।
.

काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस
आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे
जगन्नाथ जी को चढ़ा दिए थै ? भक्त बोला हां मैंने
पैसे चढ़ा दिए ।
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सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए । तब भक्त ने सारी बात बताई
की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था । और
ठाकुर जी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे ।
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सेठ सारी बात समझ गया व बड़ा खुश हुआ तथा
भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला आप धन्य हो
आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ
जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए

सन्तमत विचार-भगवान को आपके धन की कोई
आवश्यकता नहीं है । भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो जीव मात्र की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए का कोई महत्व नहीं जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए ।

श्री राधे राधे । 🍁🙏🍁

🏵️🏵️ ||~~ जय जगन्नाथ स्वामी महाप्रभु ~~||🏵️🏵️

संजय गुप्ता

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बालि वध और अगंद को ज्ञान की तीन बातें

जब रावण सीता का हरण करके लंका ले गया तो सीता की खोज करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण की भेंट हनुमान से हुई। ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान ने सुग्रीव और श्रीराम की मित्रता करवाई। सुग्रीव ने श्रीराम को सीता की खोज में मदद करने का आश्वासन दिया।

इसके बाद सुग्रीव ने श्रीराम के सामने अपना दुख बताया कि किस प्रकार बालि ने बलपूर्वक मुझे (सुग्रीव को) राज्य से निष्कासित कर दिया है और मेरी पत्नी पर भी अधिकार कर लिया है। इसके बाद भी बालि मुझे नष्ट करने के लिए प्रयास कर रहा है। इस प्रकार सुग्रीव ने श्रीराम के सम्मुख अपनी पीड़ा बताई तो भगवान ने सुग्रीव को बालि के आतंक से मुक्ति दिलाने का भरोसा जताया।

जब श्रीराम ने सुग्रीव के शत्रु बालि को खत्म करने की बात कही थी तो सुग्रीव ने उसके पराक्रम और शक्तियों की जानकारी श्रीराम को दी। सुग्रीव ने श्रीराम को बताया कि बालि सूर्योदय से पहले ही पूर्व, पश्चिम और दक्षिण के सागर की परिक्रमा करके उत्तर तक घूम आता है। बालि बड़े-बड़े पर्वतों पर तुरंत ही चढ़ जाता है और बलपूर्वक शिखरों को उठा लेता है। इतना ही नहीं, वह इन शिखरों को हवा में उछालकर फिर से हाथों में पकड़ लेता है। वनों में बड़े-बड़े पेड़ों को तुरंत ही तोड़ डालता है।

बालि ने दुंदुभि नामक असुर का किया था वध!!!!

सुग्रीव ने बताया कि एक समय दुंदुभि नामक असुर था। वह बहुत ही शक्तिशाली और मायावी था। इस असुर की ऊंचाई कैलाश पर्वत के समान थी और वह किसी भैंसे की तरह दिखाई देता था। दुंदुभि एक हजार हाथियों का बल रखता था।अपार बल के कारण वह घमंड से भर गया था। इसी घमंड में वह समुद्र देव के सामने पहुंच गया और युद्ध के लिए उन्हें ललकारने लगा। तब समुद्र ने दुंदुभि से कहा कि मैं तुमसे युद्ध करने में असमर्थ हूं। गिरिराज हिमालय तुमसे युद्ध कर सकते हैं, अत: तुम उनके पास जाओ। इसके बाद वह हिमालय के पास युद्ध के लिए पहुंच गया। तब हिमालय ने दुंदुभि को बालि से युद्ध करने की बात कही।
बालि ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जाता था,,,,,,,

सुग्रीव ने बताया कि बालि देवराज इंद्र का पुत्र है, इस कारण वह परम शक्तिशाली है। जब दुंदुभि ने बालि को युद्ध के लिए ललकारा तो उसने विशालकाय दुंदुभि को बुरी तरह-तरह मार-मारकर परास्त कर दिया था। जब पर्वत के आकार का भैंसा दुंदुभि मारा गया तो बालि ने दोनों हाथों से उठाकर उसके शव को हवा में फेंक दिया। हवा में उड़ते हुए शव से रक्त की बूंदें मतंग मुनि के आश्रम में जा गिरीं। इन रक्त की बूंदों से मतंग मुनि का आश्रम अपवित्र हो गया।

इस पर क्रोधित होकर मतंग मुनि ने श्राप दिया कि जिसने भी मेरे आश्रम और इस वन को अपवित्र किया है, वह आज के बाद इस क्षेत्र में न आए। अन्यथा उसका नाश हो जाएगा। मतंग मुनि के श्राप के कारण ही बालि ऋष्यमूक पर्वत क्षेत्र में प्रवेश नहीं करता था।

मरते वक़्त बालि ने अंगद को तीन काम की बातें बताई थी।

रामायण में जब श्रीराम ने बालि को बाण मारा तो वह घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा था। इस अवस्था में जब पुत्र अंगद उसके पास आया तब बालि ने उसे ज्ञान की कुछ बातें बताई थीं। ये बातें आज भी हमें कई परेशानियों से बचा सकती हैं।

मरते समय बालि ने अंगद से कहा-

देशकालौ भजस्वाद्य क्षममाण: प्रियाप्रिये।
सुखदु:खसह: काले सुग्रीववशगो भव।।

इस श्लोक में बालि ने अगंद को ज्ञान की तीन बातें बताई हैं…
1. देश काल और परिस्थितियों को समझो।
2. किसके साथ कब, कहां और कैसा व्यवहार करें, इसका सही निर्णय लेना चाहिए।
3. पसंद-नापसंद, सुख-दु:ख को सहन करना चाहिए और क्षमाभाव के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए।

बालि ने अंगद से कहा ये बातें ध्यान रखते हुए अब से सुग्रीव के साथ रहो। आज के समय में भी यदि इन बातों का ध्यान रखा जाए तो हर इंसान बुरे समय से बच सकता है। अच्छे-बुरे हालात में शांति और धैर्य के साथ आचरण करना चाहिए।

बालि वध का प्रसंग,,,,,

जब बालि श्रीराम के बाण से घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, तब बालि में श्रीराम से कहा कि आप धर्म की रक्षा करते हैं तो मुझे (बालि को) इस प्रकार बाण क्यों मारा?

इस प्रश्न के जवाब में श्रीराम ने कहा कि छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी और पुत्री, ये सब समान होती हैं और जो व्यक्ति इन्हें बुरी नजर से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता है। बालि, तूने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी पर बुरी नजर रखी और सुग्रीव को मारना चाहा। इस पाप के कारण तुझे बाण मारा है। इस जवाब से बालि संतुष्ट हो गया और श्रीराम से अपने किए पापों की क्षमा याचना की। इसके बाद बालि ने अगंद को श्रीराम की सेवा में सौंप दिया।

इसके बाद बालि ने प्राण त्याग दिए। बाली की पत्नी तारा विलाप करने लगी। तब श्रीराम ने तारा को ज्ञान दिया कि यह शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु से मिलकर बना है। बालि का शरीर तुम्हारे सामने सोया है, लेकिन उसकी आत्मा अमर है तो विलाप नहीं करना चाहिए। इस प्रकार समझाने के बाद तारा शांत हुई। इसके बाद श्रीराम में सुग्रीव को राज्य सौंप दिया।

बाली ने रावण को दबाया था अपनी कांख में,,,,पृथ्वी तल के समस्त वीर योद्धाओं को परास्त करता हुआ रावण बालि से युद्ध करने के लिए गया। उस समय बालि सन्ध्या के लिए गया हुआ था। वह प्रतिदिन समस्त समुद्रों के तट पर जाकर सन्ध्या करता था।

बालि के मन्त्री तार के बहुत समझाने पर भी रावण बालि से युद्ध करने की इच्छा से ग्रस्त रहा। वह सन्ध्या में लीन बालि के पास जाकर अपने पुष्पक विमान से उतरा तथा पीछे से जाकर उसको पकड़ने की इच्छा से धीरे-धीरे आगे बढ़ा।

बालि ने उसे देख लिया था किंतु उसने ऐसा नहीं जताया तथा सन्ध्या करता रहा। रावण की पदचाप से जब उसने जान लिया कि वह निकट है तो तुरंत उसने रावण को पकड़कर बगल में दबा लिया और आकाश में उड़ने लगा। बारी-बारी में उसने सब समुद्रों के किनारे सन्ध्या की। राक्षसों ने भी उसका पीछा किया।

रावण ने स्थान-स्थान पर नोचा और काटा किंतु बालि ने उसे नहीं छोड़ा। सन्ध्या समाप्त करके किष्किंधा के उपवन में उसने रावण को छोड़ा तथा उसके आने का प्रयोजन पूछा। रावण बहुत थक गया था किंतु उसे उठाने वाला बालि तनिक भी शिथिल नहीं था। उससे प्रभावित होकर रावण ने अग्नि को साक्षी बनाकर उससे मित्रता की।
Jai shri krishna

संजय गुप्ता

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👑 जय श्री कृष्णा 🙏🏻🙏🏻

महाभारत काल की बात है। एक बार कृष्ण और बलराम किसी जंगल से गुजर रहे थे। चलते-चलते काफी समय बीत गया और अब सूरज भी लगभग डूबने वाला था। अँधेरे में आगे बढना संभव नहीं था, इसलिए कृष्ण बोले, “ बलराम, हम ऐसा करते हैं कि अब सुबह होने तक यहीं ठहर जाते हैं, भोर होते ही हम अपने गंतव्य की और बढ़ चलेंगे।”

बलराम बोले, “ पर इस घने जंगल में हमें खतरा हो सकता है, यहाँ सोना उचित नहीं होगा, हमें जाग कर ही रात बितानी होगी।”

“अच्छा, हम ऐसा करते हैं कि पहले मैं सोता हूँ और तब तक तुम पहरा देते रहो, और फिर जैसे ही तुम्हे नींद आये तुम मुझे जगा देना; तब मैं पहरा दूंगा और तुम सो जाना।”, कृष्ण ने सुझाव दिया।

बलराम तैयार हो गए।

कुछ ही पलों में कृष्ण गहरी नींद में चले गए और तभी बलराम को एक भयानक आकृति उनकी ओर आती दिखी, वो कोई राक्षस था।

राक्षस उन्हें देखते ही जोर से चीखा और बलराम बुरी तरह डर गए।
इस घटना का एक विचित्र असर हुआ- भय के कारण बलराम का आकार कुछ छोटा हो गया और राक्षस और विशाल हो गया।

उसके बाद राक्षस एक बार और चीखा और पुन: बलराम डर कर काँप उठे, अब बलराम और भी सिकुड़ गए और राक्षस पहले से भी बड़ा हो गया।

राक्षस धीरे-धीरे बलराम की और बढ़ने लगा, बलराम पहले से ही भयभीत थे, और उस विशालकाय राक्षस को अपनी और आता देख जोर से चीख पड़े –“कृष्णा…” ,और चीखते ही वहीँ मूर्छित हो कर गिर पड़े।

बलराम की आवाज़ सुन कर कृष्ण उठे, बलराम को वहां देख उन्होंने सोचा कि बलराम पहरा देते-दते थक गए और सोने से पहले उन्हें आवाज़ दे दी।

अब कृष्ण पहरा देने लगे।

कुछ देर बाद वही राक्षस उनके सामने आया और जोर से चीखा।

कृष्ण जरा भी घबराए नही और बोले, “बताओ तुम इस तरह चीख क्यों रहे हो, क्या चाहिए तुम्हे?”

इस बार भी कुछ विच्त्र घटा- कृष्ण के साहस के कारण उनका आकार कुछ बढ़ गया और राक्षस का आकर कुछ घट गया।

राक्षस को पहली बार कोई ऐसा मिला था जो उससे डर नहीं रहा था। घबराहट में वह पुन: कृष्ण पर जोर से चीखा!

इस बार भी कृष्ण नहीं डरे और उनका आकर और भी बड़ा हो गया जबकि राक्षस पहले से भी छोटा हो गया।

एक आखिरी प्रयास में राक्षस पूरी ताकत से चीखा पर कृष्ण मुस्कुरा उठे और फिर से बोले, “ बताओ तो क्या चाहिए तुम्हे?”

फिर क्या था राक्षस सिकुड़ कर बिलकुल छोटा हो गया और कृष्ण ने उसे हथेली में लेकर अपनी धोती में बाँध लिया और फिर कमर में खोंस कर रख लिया।

कुछ ही देर में सुबह हो गयी, कृष्ण ने बलराम को उठाया और आगे बढ़ने के लिए कहा! वे धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे तभी बलराम उत्तेजित होते हुए बोले, “पता है कल रात में क्या हुआ था, एक भयानक राक्षस हमे मारने आया था!”

“रुको-रुको”, बलराम को बीच में ही टोकते हुए कृष्ण ने अपनी धोती में बंधा राक्षस निकाला और बलराम को दिखाते हुए बोले, “कहीं तुम इसकी बात तो नहीं कर रहे हो?”

“हाँ, ये वही है। पर कल जब मैंने इसे देखा
तो ये बहुत बड़ा था, ये इतना छोटा कैसे हो गया?”, बलराम आश्चर्यचकित होते हुए बोले।

कृष्ण बोले, “ जब जीवन में तुम किसी ऐसी चीज से बचने की कोशिश करते हो जिसका तुम्हे सामना करना चाहिए तो वो तुमसे बड़ी हो जाती है और तुम पर नियंत्रण करने लगती है लेकिन जब तुम उस चीज का सामना करते हो जिसका सामना तुम्हे करना चाहिए तो तुम उससे बड़े हो जाते हो और उसे नियंत्रित करने लगते हो!”

दोस्तों, ये राक्षस दरअसल, हमारी life में आने वाले challenges हैं, विपरीत स्थितियां हैं, life problems हैं! अगर हम इन situations को avoid करते रहते हैं तो ये समस्याएं और भी बड़ी होती चली जाती हैं और ultimately हमें control करने लगती हैं लेकिन अगर हम इनका सामना करते हैं, courage के साथ इन्हें face करते हैं तो यही समस्याएं धीरे-धीरे छोटी होती चली जाती हैं और अंततः हम उनपर काबू पा लेते हैं। इसलिए जब कभी भी life में ऐसी problems आएं जिनका सामना आपको करना ही चाहिए तो उसे अवॉयड मत करिए…जिसे फेस करना है उसे फेस करिए, उससे बचने की कोशिश मत करिए, जब आप ऐसा करेंगे तो देखते-देखते ही वे समस्याएं इतनी छोटी हो जायेंगी कि आप आराम से उनपर नियंत्रण कर सकेंगे और उन्हें हेमशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर सकेंगे!

ज्योति अग्रवाल

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(((( नाम की दौलत ))))
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एक बार दशम पातशाही श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का दरबार सजा हुआ था।
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कर्म-फल के प्रसंग पर पावन वचन हो रहे थे कि जिसकी जो प्रारब्ध है उसे वही प्राप्त होता है कम या अधिक किसी को प्राप्त नहीं होता
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क्योंकि अपने किये हुये कर्मों का फल जीव को भुगतना ही पड़ता है।
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वचनों के पश्चात मौज उठी कि जिस किसी को जो वस्तु की आवश्यकता हो वह निःसंकोच होकर माँग सकता है उसे हम आज पूरा करेंगे।
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एक श्रद्धालु ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि प्रभु मैं बहुत गरीब हूँ।
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मेरी तमन्ना है कि मेरे पास बहुत सा धन हो जिससे मेरा गुज़ारा भी चल सके और साधु सन्तों की सेवा भी कर सकूँ
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उसकी भावना को देखकर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने शुभ आशीर्वाद दिया कि तुझे लखपति बनाया और ऐसे ही दूसरे गुरुमुखों ने भी मांगा।
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उसी गुरुमुख मण्डली में सत्संग में एक फकीर शाह रायबुलारदीन भी बैठे थे।
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उसकी उत्सुकता को देखकर अन्तर्यामी गुरुदेव ने पूछा रायबुलारदीन आपको भी कुछ आवश्यकता हो तो निसन्देह निसंकोच होकर कहो,
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उसने हाथ जोड़कर खड़े होकर प्रार्थना की कि प्रभु मुझे तो किसी भी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है।
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परन्तु मेरे मन में एक सन्देह उत्पन्न हो गया है। अगर आपकी कृपा हो तो मेरा सन्देह दूर कर दें,
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प्रार्थना है कि प्रभु अभी-अभी आपने वचन फरमाये हैं कि प्रारब्ध से कम या अधिक किसी को नहीं मिलता अपने कर्मों का फल प्रत्येक जीव को भुगतना ही पड़ता है
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तो मेरे मन में सन्देह हुआ कि अभी जिसे आपने लखपति होने का आशीर्वाद दिया है, जब इनकी तकदीर में नहीं है तो आपने कहां से दे दिये ?
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गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सेवक द्वारा एक कोरा कागज़ मोहर वाली स्याही मँगवाई और अपनी अँगुली की छाप उतार कर रायबुलारदीन से फरमाया कि बताओ इस अँगूठी के अक्षर उल्टे हैं कि सीधे ?
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उसने उत्तर दिया कि उल्टे हैं सच्चे पादशाह,
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फिर स्याही में डुबो कर कोरे कागज़ पर मोहर छाप दी अब पूछा बताओ अक्षर उल्टे हुये है कि सीधे।
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उत्तर दिया कि महाराज अब सीधे हो गये हैं।
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वचन हुये कि तुम्हारे प्रश्न का तुम्हें उत्तर दे दिया गया है, उसने विनय की भगवन मेरी समझ में कुछ नहीं आया।
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गुरु गोबिन्द सिंह जी ने फरमाया जिस प्रकार छाप के अक्षर उल्टे थे लेकिन स्याही लगाने से छापने पर वह सीधे हो गये हैं।
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इसी तरह ही जिस जीव के भाग्य उल्टे हों और अगर उसके मस्तक पर सन्त सत्गुरु के चरण कमल की छाप लग जाये तो उसके भाग्य सीधे हो जाते हैं।
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सन्त महापुरुषों की शरण में आने से जीव की किस्मत पल्टा खा जाती है।
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कहते हैं ब्रह्मा जी ने चार वेद रचे इसके बाद जो स्याही बच गई वे उसे लेकर भगवान के पास गये उनसे प्रार्थना की कि इस स्याही का क्या करना है ?
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भगवान ने कहा इस स्याही को ले जाकर सन्तों के हवाले कर दो उनको अधिकार है कि वे लिखें या मिटा दें या जिस की किस्मत में जो लिखना चाहें लिख दें।
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इसलिये जो सौभाग्यशाली जीव सतगुरु की चरण शरण में आ जाते हैं। सतगुरु के चरणों को अपने मस्तक पर धारण करते हैं।
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सभी कार्य उनकी आज्ञा मौजानुसार निष्काम भाव से सेवा करते हैं सुमिरण करते हैं
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निःसन्देह यहाँ भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं और कर्म बन्धन से छूटकर आवागमन के चक्र से आज़ाद होकर मालिक के सच्चे धाम को प्राप्त करते हैं।
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संतो के वचन हैं नाम बड़ी ऊँची दौलत है, भाग्य से मिलता है, जो भाग्य से मिला है तो इसकी कदर करो
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बुल्लेशाह ने भी कहा है:-
असाँ ते वख नहीं, देखन वाली अख नहीं।
बिना शौह थी दूजा कख नहीं
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पूर्ण सतगुरु नाम दान के दिन से ही हमारी सम्भाल करने लगते हैं
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गुरु जब नाम देता है तो हमारे अंदर ही बैठता है।
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उसी पल से वह हमें आदर्श इंसान बनाने के लिये हमसे प्रेम करना शुरू कर देता है और तब तक संभाल करता है जब तक कि हम प्रभु की गोद में नहीं पहुंचते
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हमें उन पर भरोसा बनाये रखना है और बाकी सब उनका काम है

((((((( जय जय श्री राधे )))))))

ज्योति अग्रवाल

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तुलसी मेरे राम को , रीझ भजो या खीज
भौम पड़ा जामे सभी , उल्टा सीधा बीज ..

एक अनपढ़ किसी महात्मा के पास जाकर बोला- ‘‘महाराज ! हमको तो कोई सीधी-सादी बात बता दो, हम भी भगवान का नाम लेंगे।

महात्माजी ने कहा- ‘‘तुम ‘अघमोचन-अघमोचन’ (‘अघ’ माने पाप, ‘मोचन’ माने छुड़ानेवाला) नाम लिया करो। अब वह बेचारा गाँव का अनपढ़ आदमी ‘अघमोचन-अघमोचन’ करता हुआ चला तो गाँव जाते-जाते ‘अ’ भूल गया। वह ‘घमोचन-घमोचन’ बोलने लगा।

पढ़ा-लिखा तो था नहीं। एक दिन वह हल जोत रहा था और ‘घमोचन-घमोचन’ कर रहा था, इतने में बैकुंठ लोक में भगवान भोजन करने बैठे। उनको हँसी आ गयी। लक्ष्मीजी ने पूछा- ‘‘आप क्यों हँसते हो ?’’

भगवान बोले- ‘‘आज हमारा भक्त एक ऐसा नाम ले रहा है कि वैसा नाम तो किसी शास्त्र में है ही नहीं।” इसपर लक्ष्मी जी ने कहा- ‘‘तब तो हम उसको देखेंगे और सुनेंगेे कि कौन-सा नाम ले रहा है।

लक्ष्मी-नारायण दोनों वेश बदल कर खेत में जा पहुँचे। पास में गड्ढा था, मुख पर कालख लपेट भगवान स्वयं तो वहाँ छिप गये, और लक्ष्मीजी भक्त के पास जाकर पूछने लगीं- ‘‘अरे, तू यह क्या घमोचन-घमोचन बोल रहा है ??

उन्होंने एक बार, दो बार, तीन बार पूछा परंतु वह कुछ उत्तर ही न दे रहा था। वह सोच रहा था कि ‘इसको बताने में हमारा नाम-जप छूट जायेगा।’ अतः वह चुप रहा, बोला ही नहीं।

जब बार-बार लक्ष्मीजी पूछती रहीं तो अंत में उसको गुस्सा आ गया गाँव का आदमी तो था ही, बोला- ‘‘जा-जा ! तेरे खसम (पति) का नाम ले रहा हूँ। अब तो लक्ष्मीजी डरीं कि यह तो हमको पहचान गया। फिर बोलीं- ‘‘अरे, तू मेरे खसम को जानता है क्या ? कहाँ है मेरा खसम ?’’

एक बार, दो बार, तीन बार पूछने पर वह फिर झुँझलाकर बोला- ‘‘कलमुहाँ वहाँ गड्ढे़ में पड़ा है, जा निकाल ले..! लक्ष्मीजी समझ गयीं कि इसने हमको पहचान लिया।

नारायण भी वहाँ आ गये और बोले- ‘‘लक्ष्मी ! देख ली मेरे नाम की महिमा ! यह अघमोचन और घमोचन का भेद भले न समझता हो लेकिन हम तो समझते हैं कि यह हमारा ही नाम ले रहा है। यह हमारा ही नाम समझकर घमोचन नाम से हमको ही पुकार रहा है। अब आओ, इसे दर्शन दें।’ भगवान ने भक्त को दर्शन देकर कृतार्थ किया।

भक्त शुद्ध-अशुद्ध, टूटे-फूटे शब्दों से अथवा गुस्से में भी, कैसे भी भगवान का नाम लेता है तो भगवान का हृदय उससे मिलने को लालायित हो उठता है।

जय जय

अतुल सोनी