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😎 ❤️❤️❤️❤️❤️सबक❤️❤️❤️❤️❤️
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रामलाल के बेटे दिनेश की तीसरी सगाई की बात चल रही थी। पहिले दो बार सगाई टूट जाने के कारण वह इस बार बहुत चौकस था। पहिले जो कुछ हुआ उससे सबक ले पाँव फूँक-फूँक कर रख रहा था।

“लड़का पढ़ा-लिखा है और सरकारी नौकरी में भी है। अपने परिवार और लड़के की नौकरी के स्टेट्स के अनुसार दहेज ज़रूर लेना है। हमारे घर टी.वी., फ्रिज़, ए.सी., कार वगैरा सब है, इसलिए दहेज में नकद रकम ही चाहिए।” दीनदयाल ने अपने जीवन-स्तर को बयान करते हुए दहेज की माँग रख दी।
“ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। हम सामान न देंगे, नकद पैसे दे देंगे, बात तो एक ही है।”

लड़की वालों ने सोचा, लड़का सुंदर है, पढ़ा लिखा है और अच्छी नौकरी पर भी लगा है। घर भी देखने योग्य है। क्या हुआ अगर लड़के का बाप जरा लालची है। एक बार खर्च कर अगर लड़की सुखी रहती है तो नकदी देने में भी कोई हरज नहीं है। बातचीत के बाद फैसला हुआ कि लड़की वाले दहेज के रूप में पाँच लाख रुपये नकद देंगे।
निश्चित दिन पर दीनदयाल लड़के की बारात लेकर लड़की वालों के घर पहुँच गया।

“जल्दी करो। लड़के को फेरों पर बिठाओ, लग्न का समय निकलता जा रहा है।” पंडित जल्दी कर रहा था।
“पहले दहेज की रकम, फिर फेरे।”
दीनदयाल पहले नकदी लेने पर अड़ गया। लड़की वालों ने रुपयों का बैग पकड़ाया तब शादी की रस्में शुरु हुईं।
समधियों से बारात की अच्छी खातिरदारी करवा, डोली लेकर मुड़ने लगे तो दीनदयाल ने रुपयों वाला बैग लड़की के पिता को पकड़ाते हुए कहा, “यह लो अपनी अमानत। आपका माल आपको लौटा रहा हूँ।”

लड़की का बाप घबराकर दीनदयाल के मुँह की ओर देखने लगा। वह डर रहा था कि यह लालची व्यक्ति अब कोई और माँग रखना चाहता है।
दीनदयाल ने स्थिति को स्पष्ट करते हे कहा, “मेरे बेटे की सगाई दो बार टूट चुकी थी। कारण एक ही था कि मैं दहेज रहित शादी करना चाहता था। इससे लड़की वालों को यह संदेश गया कि शायद लड़के में कोई नुक्स है। इसले सगाई टूट गई। मैं तीसरी बार सगाई टूटने नहीं देना चाहता था। इसलिए ही मजबूरी में मुझे दहेज माँगना पड़ा। अब शादी हो चुकी है, इसलिए मैं दहेज लौटा रहा हूँ।”

दोस्तों कहानी कैसी लगी कमेंट कर जरूर बताएं

⚘⚘⚘⚘

संजय गुप्त

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RADHE GOVIND

जय श्री कृष्ण वन्दन जी 🌹🌹🌹
रहीम एक बहुत बड़े दानवीर थे। उनकी ये एक खास बात थी कि जब वो दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।
ये बात सभी को अजीब लगती थी कि ये रहीम कैसे दानवीर हैं। ये दान भी देते हैं और इन्हें शर्म भी आती है।

ये बात जब तुलसीदासजी तक पहुँची तो उन्होंने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं जिसमें लिखा था ।

ऐसी देनी देन जु
कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ
त्यों त्यों नीचे नैन।।

इसका मतलब था कि रहीम तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें तुम्हारे नैन नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?

रहीम ने इसके बदले में जो जवाब दिया वो जवाब इतना गजब का था कि जिसने भी सुना वो रहीम का कायल हो गया। इतना प्यारा जवाब आज तक किसी ने किसी को नहीं दिया। रहीम ने जवाब में लिखा –

देनहार कोई और है
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं
तासौं नीचे नैन।।

मतलब, देने वाला तो कोई और है वो मालिक है वो परमात्मा है वो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग ये समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ रहीम दे रहा है। ये सोच कर मुझे शर्म आ जाती है और मेरी आँखें नीचे झुक जाती हैं।

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संजय गुप्ता

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आर्मी कोर्ट रूम में आज एक केस अनोखा अड़ा था!
छाती तान अफसरों के आगे फौजी बलवान खड़ा था!!
बिन हुक्म बलवान तूने ये कदम कैसे उठा लिया?
किससे पूछ उस रात तू दुश्मन की सीमा में जा लिया??

बलवान बोला सर जी! ये बताओ कि वो किस से पूछ के आये थे?
सोये फौजियों के सिर काटने का फरमान कोन से बाप से लाये थे??
बलवान का जवाब में सवाल दागना अफसरों को पसंद नही आया!
और बीच वाले अफसर ने लिखने के लिए जल्दी से पेन उठाया!!

एक बोला बलवान हमें ऊपर जवाब देना है!

और तेरे काटे हुए सिर का पूरा हिसाब देना है!!

तेरी इस करतूत ने हमारी नाक कटवा दी!

अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में तूने थू थू करवा दी!!

बलवान खून का कड़वा घूंट पी के रह गया!

आँख में आया आंसू भीतर को ही बह गया!!

बोला साहब जी! अगर कोई आपकी माँ की इज्जत लूटता हो?

आपकी बहन बेटी या पत्नी को सरेआम मारता कूटता हो??

तो आप पहले अपने बाप का हुकमनामा लाओगे?

या फिर अपने घर की लुटती इज्जत खुद बचाओगे??

अफसर नीचे झाँकने लगा!

एक ही जगह पर ताकने लगा!!

बलवान बोला साहब जी गाँव का गवार हूँ बस इतना जानता हूँ!

कौन कहाँ है देश का दुश्मन सरहद पे खड़ा खड़ा पहचानता हूँ!!

सीधा सा आदमी हूँ साहब! मै कोई आंधी नहीं हूँ!

थप्पड़ खा गाल आगे कर दूँ मै वो गांधी नहीं हूँ!!

अगर सरहद पे खड़े होकर गोली न चलाने की मुनादी है!

तो फिर साहब जी! माफ़ करना ये काहे की आजादी है??

सुनों साहब जी! सरहद पे जब जब भी छिड़ी लडाई है!

भारत माँ दुश्मन से नही आप जैसों से हारती आई है!!

वोटों की राजनीति साहब जी लोकतंत्र का मैल है!

और भारतीय सेना इस राजनीति की रखैल है!!

ये क्या हुकम देंगे हमें जो खुद ही भिखारी हैं?

किन्नर है सारे के सारे न कोई नर है न नारी है!!

ज्यादा कुछ कहूँ तो साहब जी दोनों हाथ जोड़ के माफ़ी है!

दुश्मन का पेशाब निकालने को तो हमारी आँख ही काफी है!!

और साहब जी एक बात बताओ!

वर्तमान से थोडा सा पीछे जाओ!!

कारगिल में जब मैंने अपना पंजाब वाला यार जसवंत खोया था!

आप गवाह हो साहब जी उस वक्त मै बिल्कुल भी नहीं रोया था!!

खुद उसके शरीर को उसके गाँव जाकर मै उतार कर आया था!

उसके दोनों बच्चों के सिर साहब जी मै पुचकार कर आया था!!

पर उस दिन रोया मै जब उसकी घरवाली होंसला छोड़ती दिखी!

और लघु सचिवालय में वो चपरासी के हाथ पांव जोड़ती दिखी!!

आग लग गयी साहब जी, दिल किया कि सबके छक्के छुड़ा दूँ!

चपरासी और उस चरित्रहीन अफसर को मैं गोली से उड़ा दूँ!!

एक लाख की आस में भाभी आज भी धक्के खाती है!

दो मासूमो की चमड़ी धूप में यूँही झुलसी जाती है!!

और साहब जी! शहीद जोगिन्दर को तो नहीं भूले होंगे आप!

घर में जवान बहन थी जिसकी और अँधा था जिसका बाप!!

अब बाप हर रोज लड़की को कमरे में बंद करके आता है!

और स्टेशन पर एक रुपये के लिए जोर से चिल्लाता है!!

पता नही कितने जोगिन्दर, जसवंत यूँ अपनी जान गवांते हैं?

और उनके परिजन मासूम बच्चे यूँ दर दर की ठोकरें खाते हैं!!

भरे गले से तीसरा अफसर बोला बात को और ज्यादा न बढ़ाओ!

उस रात क्या- क्या हुआ था बस यही अपनी सफाई में बताओ!!

भरी आँखों से हँसते हुए बलवान बोलने लगा!

उसका हर बोल सबके कलेजों को छोलने लगा!!

साहब जी! उस हमले की रात, हमने सन्देश भेजे लगातार सात, हर बार की तरह कोई जवाब नही आया!

दो जवान मारे गए पर कोई हिसाब नही आया!!

चौंकी पे जमे जवान लगातार गोलीबारी में मारे जा रहे थे!

और हम दुश्मन से नहीं अपने हेडक्वार्टर से हारे जा रहे थे!!

फिर दुश्मन के हाथ में कटार देख मेरा सिर चकरा गया!

गुरमेल का कटा हुआ सिर जब दुश्मन के हाथ में आ गया!!

फेंक दिया ट्रांसमीटर मैंने और कुछ भी सूझ नहीं आई थी!

बिन आदेश के पहली मर्तबा सर! मैंने बन्दूक उठाई थी!!

गुरमेल का सिर लिए दुश्मन रेखा पार कर गया!

पीछे पीछे मै भी अपने पांव उसकी धरती पे धर गया!!

पर वापिस हार का मुँह देख के न आया हूँ!

वो एक काट कर ले गए थे मै दो काटकर लाया हूँ!!

इस ब्यान का कोर्ट में न जाने कैसा असर गया?

पूरे ही कमरे में एक सन्नाटा सा पसर गया!!

पूरे का पूरा माहौल बस एक ही सवाल में खो रहा था!

कि कोर्ट मार्शल फौजी का था या पूरे देश का हो रहा था…???😢😢😢

संजय गुप्ता

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लोहार्गल – यहां पानी में गल गए थे पांडवों के अस्त्र-शस्त्र, मिली थी परिजनों की हत्या के पाप से मुक्त!!!!!!!

राजस्थान के शेखावटी इलाके के झुंझुनूं जिले से 70 कि. मी. दूर अरावली पर्वत की घाटी में बसे उदयपुरवाटी कस्बे से करीब दस कि.मी. की दूरी पर स्थित है लोहार्गल। जिसका अर्थ होता है जहां लोहा गल जाए। यह राजस्थान का पुष्कर के बाद दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ है। इस तीर्थ का सम्बन्ध पांडवो, भगवन परशुराम, भगवान सूर्य और भगवान विष्णु से है।

महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन जीत के बाद भी पांडव अपने परिजनों की हत्या के पाप से चिंतित थे। लाखों लोगों के पाप का दर्द देख श्री कृष्ण ने उन्हें बताया कि जिस तीर्थ स्थल के तालाब में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।

घूमते-घूमते पाण्डव लोहार्गल आ पहुँचे तथा जैसे ही उन्होंने यहाँ के सूर्यकुण्ड में स्नान किया, उनके सारे हथियार गल गये। इसके बाद शिव जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधि से विभूषित किया।

यहां प्राचीन काल से निर्मित सूर्य मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इसके पीछे भी एक अनोखी कथा प्रचलित है। प्राचीन काल में काशी में सूर्यभान नामक राजा हुए थे, जिन्हें वृद्धावस्था में अपंग लड़की के रूप में एक संतान हुई।

राजा ने भूत-भविष्य के ज्ञाताओं को बुलाकर उसके पिछले जन्म के बारे में पूछा। तब विद्वानों ने बताया कि पूर्व के जन्म में वह लड़की मर्कटी अर्थात बंदरिया थी, जो शिकारी के हाथों मारी गई थी। शिकारी उस मृत बंदरिया को एक बरगद के पेड़ पर लटका कर चला गया, क्योंकि बंदरिया का मांस अभक्ष्य होता है।

हवा और धूप के कारण वह सूख कर लोहार्गल धाम के जलकुंड में गिर गई किंतु उसका एक हाथ पेड़ पर रह गया। बाकी शरीर पवित्र जल में गिरने से वह कन्या के रूप में आपके यहाँ उत्पन्न हुई है। विद्वानों ने राजा से कहा, आप वहां पर जाकर उस हाथ को भी पवित्र जल में डाल दें तो इस बच्ची का अंपगत्व समाप्त हो जाएगा।

राजा तुरंत लोहार्गल आए तथा उस बरगद की शाखा से बंदरिया के हाथ को जलकुंड में डाल दिया। जिससे उनकी पुत्री का हाथ स्वतः ही ठीक हो गया। राजा इस चमत्कार से अति प्रसन्न हुए। विद्वानों ने राजा को बताया कि यह क्षेत्र भगवान सूर्यदेव का स्थान है। उनकी सलाह पर ही राजा ने हजारों वर्ष पूर्व यहां पर सूर्य मंदिर व सूर्यकुंड का निर्माण करवा कर इस तीर्थ को भव्य रूप दिया।

यहां भगवान विष्णु ने लिया था मतस्य अवतार –यह क्षेत्र पहले ब्रह्मक्षेत्र था। माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु ने शंखासूर नामक दैत्य का संहार करने के लिए मत्स्य अवतार लिया था। शंखासूर का वध कर विष्णु ने वेदों को उसके चंगुल से छुड़ाया था। इसके बाद इस जगह का नाम ब्रह्मक्षेत्र रखा।

परशुराम जी ने भी किया था यहां प्रायश्चित –विष्णु के छठें अंशअवतार भगवान परशुराम ने क्रोध में क्षत्रियों का संहार कर दिया था, लेकिन शान्त होने पर उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। तब उन्होंने यहां आकर पश्चाताप के लिए यज्ञ किया तथा पाप मुक्ति पाई थी।

मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा – यहाँ एक विशाल बावड़ी भी है जिसका निर्माण महात्मा चेतनदास जी ने करवाया था। यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। पहाड़ी पर सूर्य मंदिर के साथ ही वनखण्डी जी का मन्दिर है। कुण्ड के पास ही प्राचीन शिव मन्दिर, हनुमान मन्दिर तथा पाण्डव गुफा स्थित है।

इनके अलावा चार सौ सीढ़ियाँ चढने पर मालकेतु जी के दर्शन किए जा सकते हैं। श्रावण मास में भक्तजन यहाँ के सूर्यकुंड से जल से भर कर कांवड़ उठाते हैं। यहां प्रति वर्ष माघ मास की सप्तमी को सूर्यसप्तमी महोत्सव मनाया जाता है, जिसमें सूर्य नारायण की शोभायात्रा के अलावा सत्संग प्रवचन के साथ विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है।

भाद्रपद मास में श्रीकृषण जन्माष्टमी से अमावस्या तक प्रत्येक वर्ष लोहार्गल के पहाडो में हज़ारों लाखों नर-नारी 24 कोस की पैदल परिक्रमा करते हैं जो मालकेतु बाबा की चौबीस कोसी परिक्रमा के नाम से प्रसिद्ध है। पुराणों में परिक्रमा का महात्म्य अनंत फलदायी बताया है। अब यह परिक्रमा और ज्यादा प्रासंगिक है।

हरा-भरा वातावरण। औषधि गुणों से लबरेज पेड़-पौधों से आती शुद्ध-ताजा हवा और ट्रैकिंग का आनंद यहां है। और फिर खुशहाली की कामना से अनुष्ठान तो है ही। अमावस्या के दिन सूर्यकुण्ड में पवित्र स्नान के साथ यह परिक्रमा विधिवत संपन्न होती है।
संजय गुप्ता

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Jai Veer Hangman ..
एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में जनकल्याणकारी कार्यो के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग उसे काफी इज्जत देते थे।

उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति था नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था। जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यो का लेखा-जोखा पूछा। सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएं दीं।

धनिक ने क्रोधित होकर पूछा- “यह भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाया और इसने तेल का दीपक रखा। वह भी अंधेरी गली में, न कि भगवान के समक्ष?”

तब यमराज ने समझाया- “पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। जबकि इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला। उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। तुमने तो अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक जलाया था।“

सार यह है कि ईश्वर के प्रति स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है क्योंकि ‘स्व’ से ‘पर’ सदा वंदनीय होता है।

इसके अतिरिक्त कुछ लोग सिर्फ मंदिर को ही भगवान का घर और विषेश आवरण धारीयों को ही ईश्वर के निकटवर्ती मान लेते हैं। जबकी इतनी बडी दुनिया बनाने वाले का सिर्फ मंदिर में समेट देना उचित नहीं।

मंदिर पूजा गृह हैं जहाँ हम अपने अंतःवासी भगवान से मिलते हैं, अतः मंदिर में दिया स्वयं को दिया हो जाता है… पर भगवान कण-कण वासी हैं उनकी सेवा के लिये मंदिर के बाहर आना होगा, और जीव मात्र, चर-अचर जगत की सेवा और सत्कार का भाव तन-मन में जगाना होगा। 🌹🌹

संजय गुप्ता

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🙏🌹 अमर फल 🌹🙏

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे। उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।

उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया। देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।

ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं, मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है। हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।
वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह फल उन्हें दे आया।

राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे दिया।

लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।
फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।

राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है,
उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।

राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया। पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया। वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।

यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक पुरषोत्तम भगवान् श्री कृष्ण ही एक मात्र पूर्ण हैं । एक वही हैं जो हरबी जीव से उतना ही प्रेम करते हैं , जितना जीव उनसे करता है बल्कि उससे कहीं अधिक। बस हम ही उन्हें सच्चा प्रेम नहीं करते ।श्री राधे कृष्णा जी
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संजय गुप्ता

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किसी गाँव में एक धनी सेठ रहता था उसके बंगले के पास एक जूते सिलने वाले गरीब मोची की छोटी सी दुकान थी। उस मोची की एक खास आदत थी कि जो जब भी जूते सिलता तो भगवान के भजन गुनगुनाता रहता था लेकिन सेठ ने कभी उसके भजनों की तरफ ध्यान नहीं दिया ।

एक दिन सेठ व्यापार के सिलसिले में विदेश गया और घर लौटते वक्त उसकी तबियत बहुत ख़राब हो गयी । लेकिन पैसे की कोई कमी तो थी नहीं सो देश विदेशों से डॉक्टर, वैद्य, हकीमों को बुलाया गया लेकिन कोई भी सेठ की बीमारी का इलाज नहीं कर सका । अब सेठ की तबियत दिन प्रतिदिन ख़राब होती जा रही थी। वह चल फिर भी नहीं पाता था|

एक दिन वह घर में अपने बिस्तर पे लेता था अचानक उसके कान में मोची के भजन गाने की आवाज सुनाई दी, आज मोची के भजन कुछ अच्छे लग लग रहे थे सेठ को, कुछ ही देर में सेठ इतना मंत्रमुग्ध हो गया कि उसे ऐसा लगा जैसे वो साक्षात परमात्मा से मिलन कर रहा हो। मोची के भजन सेठ को उसकी बीमारी से दूर लेते जा रहे थे कुछ देर के लिए सेठ भूल गया कि वह बीमार है उसे अपार आनंद की प्राप्ति हुई ।

कुछ दिन तक यही सिलसिला चलता रहा, अब धीरे धीरे सेठ के स्वास्थ्य में सुधार आने लगा। एक दिन उसने मोची को बुलाया और कहा – मेरी बीमारी का इलाज बड़े बड़े डॉक्टर नहीं कर पाये लेकिन तुम्हारे भजन ने मेरा स्वास्थ्य सुधार दिया ये लो 1000 रुपये इनाम, मोची खुश होते हुए पैसे लेकर चला गया ।

लेकिन उस रात मोची को बिल्कुल नींद नहीं आई वो सारी रात यही सोचता रहा कि इतने सारे पैसों को कहाँ छुपा कर रखूं और इनसे क्या क्या खरीदना है? इसी सोच की वजह से वो इतना परेशान हुआ कि अगले दिन काम पे भी नहीं जा पाया। अब भजन गाना तो जैसे वो भूल ही गया था, मन में खुशी थी पैसे की।

अब तो उसने काम पर जाना ही बंद कर दिया और धीरे धीरे उसकी दुकानदारी भी चौपट होने लगी । इधर सेठ की बीमारी फिर से बढ़ती जा रही थी ।

एक दिन मोची सेठ के बंगले में आया और बोला सेठ जी आप अपने ये पैसे वापस रख लीजिये, इस धन की वजह से मेरा धंधा चौपट हो गया, मैं भजन गाना ही भूल गया। इस धन ने तो मेरा परमात्मा से नाता ही तुड़वा दिया। मोची पैसे वापस करके फिर से अपने काम में लग गया ।

मित्रों ये एक कहानी मात्र नहीं है ये एक सीख है कि किस तरह हम पैसों का लालच हमको अपनों से दूर ले जाता है हम भूल जाते हैं कि कोई ऐसी शक्ति भी है जिसने हमें बनाया है।

आज के माहौल में ये सब बहुत देखते को मिलता है लोग 24 घंटे सिर्फ जॉब की बात करते हैं, बिज़निस की बात करते हैं, पैसों की बात करते हैं। हालाँकि धन जीवन यापन के लिए बहुत जरुरी है लेकिन उसके लिए अपने अस्तित्व को भूल जाना मूर्खता ही है। आप खूब पैसा कमाइए लेकिन साथ ही साथ अपने माता -पिता की सेवा करिये , दूसरों के हित की बातें सोचिये और भगवान का स्मरण करिये यही इस कहानी की शिक्षा है ,

ज्योति अग्रवाल

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मित्रोआज सोमवार है, आज हम आपको द्वादस ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा बतायेगें======

केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है।

यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।

केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।

इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाय हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है।

मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। १८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं।

“पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान है। जबकि पूजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। श्री ट्रेल के अनुसार वर्तमान ढांचा हाल ही निर्मित है जबकि मूल भवन गिरकर नष्ट हो गये। केदारनाथ मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले मे है उत्तरकाशी जिले मे नही।

यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हाँ ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी।

मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं।

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।

2) पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे।

भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए।

भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।

चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है।

यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं।

मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।

संजय गुप्ता

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प्रेरक आख्यान

         सिमरन

एक बार की बात है, एक भक्त के दिल में आया कि गुरु महाराज जी को रात में देखना चाहिए कि क्या वो भी भजन सिमरन करते  हैं.

वो रात को गुरु महाराज जी के कमरे की खिड़की के पास खड़ा हो गया.

गुरु महाराज जी रात 9:30 तक भोजन और बाकी काम करके अपने कमरे में आ गये.

वो भक्त देखता है कि गुरु महाराज जी एक पैर पर खड़े हो कर भजन सिमरन करने लग गये.

वो कितनी देर तक देखता रहा और फिर थक कर खिड़की के बाहर ही सो गया.

3 घंटे बाद जब उसकी आंख खुली तो वो देखता है कि गुरु महाराज जी अभी भी एक पैर पर खड़े भजन सिमरन कर रहे हैं, फिर थोड़ी देर बाद गुरु महाराज जी भजन सिमरन से उठ कर थोड़ी देर कमरे में ही इधर उधर घूमें और फिर दोनों पैरो पर खड़े होकर भजन सिमरन करने लगे.

वो भक्त देखता रहा और देखते-देखते उसकी आँख लग गई और वो सो गया.

जब फिर उसकी आँख खुली तो 4 घंटे बीत चुके थे और अब गुरु महाराज जी बैठ कर भजन सिमरन कर रहे थे.

थोड़ी देर में सुबह हो गई और गुरु महाराज जी उठ कर तैयार हुए और सुबह की सैर पर चले गये.

वो भक्त भी गुरु महाराज जी के पीछे ही चल गया और रास्ते में गुरु महाराज जी को रोक कर हाथ जोड़ कर बोलता है कि गुरु महाराज जी मैं सारी रात आपको खिड़की से देख रहा था कि आप रात में कितना भजन सिमरन करते हो.

गुरु महाराज जी हंस पड़े और बोले:- बेटा देख लिया तुमने फिर?

वो भक्त शर्मिंदा हुआ और बोला कि गुरु महाराज जी देख लिया पर मुझे एक बात समझ नहीं आई कि आप पहले एक पैर पर खड़े होकर भजन सिमरन करते रहे फिर दोनों पैरों पर और आखिर में बैठ कर जैसे कि भजन सिमरन करने को आप बोलते हो, ऐसा क्यूँ?

गुरु महाराज जी बोले बेटा एक पैर पर खड़े होकर मुझे उन सत्संगियो के लिए खुद भजन सिमरन करना पड़ता है जिन्होंने नाम दान लिया है मगर बिलकुल भी भजन सिमरन नहीं करते. दोनों पैरो पर खड़े होकर मैं उन सत्संगियो के लिए भजन सिमरन करता हूँ जो भजन सिमरन में तो बैठते हैं मगर पूरा समय नहीं देते.

बेटा जिनको नाम दान मिला है, उनका जवाब सतपुरख को मुझे देना पडता है, क्यूंकि मैंने उनकी जिम्मेदारी ली है नाम दान देकर.

और आखिर में मैं बैठ कर भजन सिमरन करता हूँ, वो मैं खुद के लिए करता हूँ, क्यूंकि मेरे गुरु ने मुझे नाम दान दिया था और मैं नहीं चाहता की उनको मेरी जवाबदारी देनी पड़े.

वो भक्त ये सब सुनकर एक दम सुन्न खड़ा रह गया ।

तो मित्रों अगर हम लोगों को नाम दान मिला है तो पूरा समय देना चाहिए, क्यूंकि हमारे कर्मों का लेखा जोखा हमारे गुरु नाम दान देते समय अपने पास ले लेते हैं, और उनको हम पर विश्वास होता है कि हम भजन सिमरन को समय देंगे, इसलिए हमें उनके विश्वास पर पूरा उतरना चाहिए, क्यूंकि जवाबदारी हमारे सतगुरु को देनी पड़ती है ।

इसी लिये हमें भजन सिमरन रोज करना चाहिए ,।

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ज्योति अग्रवाल