Posted in कविता - Kavita - કવિતા

विषय- बाधाएं आती हैं आयें
विधा-मनहरण घनाक्षरी

शिल्प-८,८,८,७वर्ण प्रति चरण कुल ४चरण।

बाधाएं आती है आयें,
आप नहीं घबरायें।
खुदी पे भरोसा कर,
आगे बढ़ जाइये।

होना न निराश कभी,
बहुत समय है अभी।
कल का पता है किसे,
आज न गँवाइये।

बाधाएँ अनेक मिले,
इरादों से नहीं हिले।
संम्भव है काम सारे,
जोर तो लगाइये।

हुए असफल कभी,
गुजरा वो पल कभी।
जीवन में जीना है तो,
नयी गीत गाइये।
बिनोद कुमार “हँसौड़ा”२/०६/१८
दरभंगा(बिहार)

Posted in राजनीति भारत की - Rajniti Bharat ki

यह मुस्लिम तुष्टिकरण कब तक होगा?
डॉ विवेक आर्य
दिल्ली से एक समाचार मिला। कुछ महीनों पहले रघुबीर नगर में मारे गए अंकित सक्सेना के पिता रमजान के महीने में मुसलमानों को इफ्तार पार्टी देंगे। ध्यान दीजिये कि अंकित की हत्या शांतिप्रिय कौम के सदस्यों ने इसलिए कर दी थी क्यूंकि अंकित का किसी मुसलमान लड़की से प्रेम प्रसंग था। यह बात शांतिप्रिय कौम के सदस्यों को किसी भी प्रकार से सहनीय नहीं थी। टाइम्स ऑफ़ इंडिया, दिल्ली संस्करण दिनांक 31/5/18 में आज एक कार्टून इस विषय में छापा है। इस कार्टून में दर्शाया गया है कि अंकित के पिता गिरते हुए महात्मा गाँधी को संभाल रहे हैं। और महात्मा गाँधी उनका सत्य, अहिंसा और शत्रु को क्षमा करने के सिद्धांत का पालन करने के लिए धन्यवाद कर रहे हैं। सेक्युलर लॉबी की बाछें इस कार्टून को देखकर खिल गई है। मगर इतिहास हमें कुछ ओर ही बताता है। महात्मा गाँधी ने सदा मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए हिन्दुओं के हितों की अनदेखी की। इसका परिणाम भारत-पाक विभाजन के रूप में निकला। हिन्दुओं को सदा अत्याचार सहना पड़ा। आज भी यही हो रहा है। आईये इतिहास से हमें क्या सिखाता है। उसे जाने।

1920 के आरम्भ की बात है। महात्मा गाँधी ने देश के आज़ादी की लड़ाई को मुसलमानों को रिझाने के लिए खिलाफत आंदोलन जो मुसलमानों का निजी मामला था से नत्थी कर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द भी उसी काल में राष्ट्रीय राजनीती में उभरे थे। महात्मा गाँधी ने हिन्दुओं को खिलाफत से जुड़ने का आवाहन किया। हिन्दुओं ने कहा की गौहत्या पर प्रतिबन्ध के मुद्दे पर वे कांग्रेस को सहयोग देने को तैयार है तब महात्मा गाँधी ने यंग इंडिया के 10 दिसंबर, 1919 के अंक में लिखा-

“मेरे विचार है कि हिन्दुओं को गौरक्षा के मुद्दे को यहाँ पर नहीं रखना चाहिए। मित्रता की परीक्षा आपदाकाल में ही होती है, वो भी बिना किसी शर्त के। जो सहयोग शर्त पर आधारित हो वह सहयोग नहीं। अपितु व्यापारिक समझौता है। सशर्त सहयोग उस मिलावटी सीमेंट के समान है, जो कभी नहीं जोड़ती। यह हिन्दुओं का कर्त्तव्य है कि अगर वे मुसलमानों के मुद्दे में इन्साफ देखते है तो उन्हें सहयोग अवश्य देना चाहिए। और अगर मुसलमान भी हिन्दुओं की भावना का सम्मान करते हुए गौवध न करे तो उन्हें भी ऐसा करना चाहिए। चाहे हिन्दू उन्हें सहयोग दे न दे। इसलिए मैं हिन्दुओं से प्रार्थना करूँगा कि उन्हें गौ वध पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग नहीं करनी चाहिए। अपितु बिना किसी शर्त के सहयोग करना चाहिए जो कि गौरक्षा के समान हैं।”

1921 में गाँधी ने अंग्रेजी कपड़ों के बहिष्कार का ऐलान किया। उन्होंने विदेशी कपड़ों की होली जलाने का निर्णय लिया। स्वामी श्रद्धानन्द को जब यह पता चला तो उन्होंने महात्मा गाँधी को तार भेजा। उसमें उन्होंने गाँधी जी से कहा कि आप विदेशी कपड़ों को जलाकर अंग्रेजों के प्रति शत्रुभाव को बढ़ावा न दे। आप उन कपड़ों को जलाने के स्थान पर निर्धन और नग्न गरीबों में बाँट दे। स्वामी जी की सलाह को दरकार कर सी.आर.दास और नेहरू ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। जबकि खिलाफत आंदोलन से जुड़े मुसलमानों ने गाँधी जी से कपड़ों को तुर्की की पीड़ित जनता को भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली। स्वामी जी के लिए यह एक सदमे जैसा था। हिन्दुओं के मुद्दों पर स्वामी जी पहाड़ के समान अडिग और सिद्धांतवादी बन जाते थे। जबकि मुसलमानों के लिए उनके हृदय में सदा कोमल स्थान उपलब्ध रहता था।स्वामी जी लिखते है कि मैं कभी अपने जीवन में यह समझ नहीं पाया कि अपने देश के लाखों गरीबों को अपनी नग्नता छुपाने देने के स्थान पर कपड़ों को सुदूर दूसरे देश तुर्की भेजने में कौनसी नैतिकता है।

1920-1921 के दौर में स्वामी जी ने खिलाफत की आड़ में मुसलमानों को दिए जा रहे प्रलोभनों से यह आशंका पहले ही भांप ली थी कि या प्रयास मुसलमानों को स्वराज से अधिक कट्टरपंथ की ओर ले जायेगा। नागपुर कांग्रेस अधिवेशन के समय कांग्रेस के मंच से क़ुरान की वो आयतें पढ़ी गई जिनका लक्ष्य गैर मुसलमानों अर्थात काफिरों को जिहाद में मारना था। स्वामी जी ने इन आयतों की ओर गाँधी जी का ध्यान दिलाया। गाँधी जी ने कहा कि ये इन आयतों का ईशारा अंग्रेजी राज के लिए है। स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ये आयतें अहिंसा के सिद्धांत के प्रतिकूल है। और जब विरोध के स्वर उठेंगे तो मुसलमान इनका प्रयोग हिन्दुओं के लिए करने से पीछे नहीं हटेंगे। इसी बीच में मुहम्मद अली का तार सार्वजानिक हो गया। जिसमें उनसे काबुल के सुल्तान को अंग्रेजों से सुलह न करने का परामर्श दिया था। स्वामी जी को मुहम्मद अली का यह व्यवहार बहुत अखरा।

अंत में वही हुआ जिसका स्वामी जी को अंदेशा था। 1921 में केरल में मोपला के दंगे हुए। निरपराध हिन्दुओं को बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मारा, उनकी संपत्ति लूटी,उनका सामूहिक धर्म परिवर्तन किया। आर्यसमाज ने सुदूर लाहौर से महात्मा आनंद स्वामी जी, पंडित ऋषिराम आदि के नेतृत्व में सुदूर केरल में राहत कार्य हेतु स्वयंसेवक भेजे। वहां से वापिस लौटकर महात्मा आनंद स्वामी जी ने “आर्यसमाज और मालाबार” के नाम से पुस्तक छापी जिससे दुनिया को प्रथम बार मालाबार में हुए अत्याचार का आँखों देखा हाल पता चला। इस नरपिशाच तांडव के होने के बाद भी महात्मा गाँधी जी का मौन स्वामी जी बेहद अखरा। महात्मा गाँधी हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए हिन्दुओं की सामूहिक हत्या पर प्रतिवाद तक करने से बचते रहे। न ही उन्होंने मुसलिम नेताओं को मोपला दंगों की सार्वजानिक निंदा करने के लिए कहा। आखिर में दबाव बढ़ने पर गाँधी ने बोला तो भी वह मुसलमानों के हिमायती ही बने रहे।

गाँधी जी सबसे पहले तो मोपला मुसलमानों को बहादुर ईश्वर ‘भक्त’ मोपला लिखते हुए इस युद्ध के लिए जिसे वो धार्मिक युद्ध समझते है के लिए बधाई देते हैं। फिर हिन्दुओं को सुझाव देते है कि हिन्दुओं में साहस और विश्वास होना चाहिए कि वे ऐसे कट्टर विद्रोह में अपनी धर्मरक्षा कर सके। मोपला मुसलमानों ने जो किया उसे हिन्दू मुस्लिम सहयोग की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। मुसलमानों के लिए ऐसा करना निंदनीय है, जो उन्होंने मोपला में जबरन धर्मान्तरण और लूट खसोट के रूप में किया। उन्हें अपना कार्य चुपचाप और प्रभावशाली रूप में करना चाहिए ताकि भविष्य में ऐसा न हो।चाहे उनमें कोई कितना भी कट्टर क्यों न हो। मेरा मानना है कि हिन्दुओं को मोपला के पागलपन को समभाव के रूप में लेना चाहिए। और जो सभ्य मुसलमान है उन्हें मोपला मुसलमानों को नबी की शिक्षाओं को गलत अर्थ में लेने के लिए क्षमा मांगनी चाहिए।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने भी मोपला दंगों पर आधिकारिक बयान दिया। उस बयान में कहा गया कि मोपला देंगे खेदजनक है। अभी भी देश में ऐसे लोग है जो कांग्रेस और खिलाफत कमेटी ने सन्देश को समझ नहीं पा रहे है। हम सभी कांग्रेस के सदस्यों से यही कहेंगे कि चाहे उन्हें भारत के किसी भी कौने में कितनी भी चुनौती मिले, वे अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ेगे। हमें कुछ जबरन धर्मपरिवर्तन की सुचना मिली है। ये धर्मपरिवर्तन उन मुसलमानों द्वारा किये गए है जो खिलाफत और असहयोग आंदोलन के भी विरुद्ध थे।

इस प्रकार से गाँधी जी और कांग्रेस ने हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर मुसलमानों के इस कुकृत्य का जोरदार प्रतिवाद करने के स्थान पर कूटनीतिक भाषा का प्रयोग कर अपना मंतव्य प्रकट किया।

स्वामी श्रद्धांनद लिबरेटर के अंक में मोपला के दंगों के विषय में लिखते है-

“मुझे सबसे पहला आभास तब हुआ जब कांग्रेस की सब्जेक्ट कमेटी में मोपला द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार के लिए निंदा प्रस्ताव रखा गया था। तब उस प्रस्ताव को बदल कर मोपला मुसलमानों के स्थान पर कुछ व्यक्तिगत लोगों द्वारा किया गया कृत्या करार दिया गया। प्रस्ताव में परिवर्तन का आग्रह करने वाले कुछ हिन्दू भी थे। परन्तु कुछ मुस्लिम सदस्यों को भी नामंजूर था। मौलाना फ़क़ीर और अन्य मौलाना ने स्वाभाविक रूप से इस प्रस्ताव का विरोध किया। परन्तु मेरे आश्चर्य की सीमा तब न रही जब मैंने राष्ट्रवादी कहे जाने वाले मौलाना हसरत मोहानी को इस प्रस्ताव का विरोध करते सुना। उनका कहना था कि मोपला अब दारुल-अमन नहीं बल्कि दारुल-हर्ब है। वहां के हिन्दुओं ने मोपला के शत्रु अंग्रेजों के साथ सहभागिता की हैं। इसलिए मोपला मुसलमानों का हिन्दुओं को क़ुरान या तलवार देने का प्रस्ताव उचित हैं। और अगर अपने प्राण बचाने के लिए हिन्दुओं ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो यह स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन कहलायेगा नाकि जबरन धर्म परिवर्तन। अंत में नाममात्र का निंदा प्रस्ताव भी सहमति से स्वीकार नहीं हो पाया। अंत में वोटिंग द्वारा प्रस्ताव स्वीकार हुआ जिसमें बहुमत प्रस्ताव के पक्ष में था। यह प्रकरण एक बात और सिद्ध करता था कि मुसलमानों कांग्रेस को अधिक बर्दाश करने वाले नहीं हैं। अगर उनके अनुसार कांग्रेस नहीं चली तो वह इस दिखावटी एकता का त्याग करने से पीछे नहीं हटेंगे।”

स्वामी जी का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। अंत में 1922 में उन्होंने गाँधी जी और कांग्रेस से दूरी बना ली। स्वामी जी अब खुलकर हिन्दू हितों की बात करने लगे।

कांग्रेस से असंतुष्ट होकर स्वामी जी पंडित मदन मोहन मालवीय और सेठ घनश्याम बिरला के प्रस्ताव पर हिन्दू महासभा से जुड़े। उनका कर्नल यु. सी. मुखर्जी से मिलना हुआ जिन्होंने 1921 की जनसँख्या जनगणना के आधार पर स्वामी जी को बताया कि अगर हिन्दुओं की जनसंख्या इसी प्रकार से घटती गई तो लगभग 420 वर्षों में हिन्दू इस धरा से सदा के लिए विलुप्त हो जायेगा।

स्वामी जी ने जब देखा कि अछूतों को सार्वजानिक कुँए से पानी भरने का अधिकार नहीं मिल रहा है तो उन्होंने 13, फरवरी 1924 को अछूतों के साथ मिलकर दिल्ली में जुलुस निकाला। वे अनेक कुओं पर गए और सार्वजानिक रूप से पानी पिया। एक कुँए मुसलमानों से विवाद हुआ जिन्होंने उन्हें पानी भरने से रोका। इस विवाद में पत्थरबाजी हुई जिसमें स्वामी जी के साथ आये अछूतों और आर्यों को चोटें आई। बाद में पुलिस ने आकर दखल दिया।

नौ मुसलमानों की शुद्धि के लिए स्वामी जी ने 13 फरवरी, 1923 को आगरा में भारतीय हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना की। स्वामीजी इस सभा के प्रधान और लाला हंसराज इसके उपप्रधान चुने गए।

स्वामी जी ने लीडर समाचार पत्र में शुद्धि के लिए अपील निकाली जो इस प्रकार थी।

“हमारा महान आर्याव्रत देश वर्तमान में पतन की ओर विमुख है। न केवल इसके सदस्यों की संख्या कम हो रही है। अपितु यह पूरी तरह से अव्यवस्थित भी है। इस देश के निवासीयों के समान पूरी दुनिया में कोई अन्य नहीं हैं। उनके समान प्रतिभा, उनके क्षमता, उनके नैतिकता दुनिया ें किसी अन्य नस्ल में नहीं मिलती। इतना होते हुए भी यह नस्लविभाजित और स्वार्थी होने के कारण असहाय है। लाखों मुसलमान बन गए और हजारों ईसाई बन गए। पिछली दो शताब्दियों से जो ब्राह्मण, वैश्य, राजपूत और जाट नवमुस्लिम बनने के बाद भी हिन्दू समाज की और आशाभरी नज़रों से देखते है कि एक दिन उन्हें वापिस अपने भ्रातित्व में शामिल कर लिया जायेगा।

अगले दो महीनों तक स्वामी जी गांव गांव घूमकर वर्ष के अंत तक 30000 शुद्धियाँ कर लेते है। स्वामी जी स्वाभाविक रूप से मुसलमानों के विरोधी बन गए। जमायत-अल-उलेमा ने 18 मार्च, 1923 को स्वामी जी के विरोध में मुंबई में सभी का आयोजन किया। अनेक शहरों में विज्ञापन के माध्यम यह अफ़वाह उड़ाई गई कि कुछ मुसलमान हिन्दू साधुओं के वेश में मल्कानों को डराने और स्वामी जी की निंदा के लिए घूम रहे हैं। कुछ आर्यों को अपने नेता की सुरक्षा की चिंता हुई। उन्होंने स्वामी जी को अंगरक्षक रखने की सलाह दी। पर उन्होंने परमपिता मेरा रक्षक है। कहकर मना कर दिया। मुरादाबाद में स्वामी जी को भाषण देने से मना कर दिया गया। अनेक स्थानों पर मुसलमानों ने विरोध में सभाएं भी आयोजित की।

राष्टीय स्तर पर अनेक नेताओं ने स्वामी जी का विरोध करना आरम्भ कर दिया। 8 अप्रैल, 1923 को मोतीलाल नेहरू ने लीडर समाचार पत्र में लिखा कि मुझे प्रसन्नता होती अगर यह आंदोलन इस समय न आरम्भ किया जाता जब पंजाब में हिन्दू और मुसलमानों के मध्य विवाद अपने चरम पर हैं। मौलाना अब्दुल कलाम ने लिखा की शुद्धि के बहाने व्यक्तियों का शोषण किया जा रहा हैं। स्वामी जी ने 5 और 6 मई ,1923 के लीडर में इसका प्रतिवाद लिखा। जवाहरलाल नेहरू ने 13 मई, 1923 ले लीडर में अच्छा होता इस समय यह मुद्दा न उछाला जाता। मेरे विचार से सभी बाहरी व्यक्तियों को मलकाना को तुरंत छोड़ देना चाहिए और उन्हें अपने आप शांति पूर्वक अपना काम करने देना चाहिए।

उस काल की CID रिपोर्ट में शुद्धि को लेकर अनेक समाचार दर्ज है। जहां आर्यसमाज और हिन्दू सभा शुद्धि पक्षधर थे। वही कांग्रेस के बड़े नेताओं जहाँ शुद्धि की निंदा कर रहे थे। तो मुसलमानों के प्रतिनिधि बड़े बड़े बयान देकर उकसाने से पीछे नहीं हट रहे थे। स्वामी जी शुद्धि अभियान को दरभंगा के महाराज और बनारस के भारत धर्म महामण्डल के पंडितों का साथ मिला। निःसन्देश स्वामी दयानन्द द्वारा आरम्भ किये गए शुद्धि आंदोलन को स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा गति देकर लाखों बिछुड़ें हुए को वापिस हिन्दू धर्म में शामिल किया गया।

देश में 1923 में हिन्दू और मुसलमानों के मध्य अनेक दंगे हुए। मुलतान, अमृतसर, कोलकाता, सहारनपुर जल उठे। कांग्रेस द्वारा 1923 में एक सम्मेलन कर तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार किया गया। मौलाना अहमद सौद ने स्वामी जी पर हिन्दू मुस्लिम एकता को भंग करने का आरोप लगाया। उसने यहाँ तक कह दिया कि स्वामी जी को इस कार्य के लिए अंग्रेजों से पैसा मिलता है। स्वामी जी ने शुद्धि और संगठन के समर्थन में अपना वक्तव्य पेश किया जो दो घंटे चला। उनका कहना था कि हिन्दू मुस्लिम एकता भारत की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है। मगर इस एकता का शुद्धि या संगठन से कुछ भी लेना देना नहीं है। अपने अपने प्रचारकों को आगरा से हटाने पर कोई सहमति नहीं बन पाई। (सन्दर्भ- हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद की कहानी, दिल्ली ,1924)

यह विवाद चल ही रहा था कि स्वामी जी के प्रकाश में ख्वाजा हसन निज़ामी का लिखा एक उर्दू दस्तावेज “दाइये इस्लाम” के नाम से आया। इस पुस्तक को इतने गुप्त तरीके से छापा गया था की इसका प्रथम संस्करण का प्रकाशित हुआ और कब समाप्त हुआ इसका मालूम ही नहीं चला। इसके द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ अफ्रीका तक पहुँच गई थी। एक आर्य सज्जन को उसकी यह प्रति अफ्रीका में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को भेज दिया। स्वामी ने इस पुस्तक को पढ़ कर उसके प्रतिउत्तर में पुस्तक लिखी जिसका नाम था “अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा”। इस पुस्तक में उस समय के 21 करोड़ हिन्दुओं में से १ करोड़ हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का लक्ष्य रखा गया था। स्वामी जी ने अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा के नाम से पुस्तक लिखकर हिन्दुओं को इस सुनियोजित षड़यंत्र के प्रति आगाह किया। स्वामी जी ने आर्यसमाज से 250 प्रचारक और 25 लाख रुपये एकत्र करने की अपील की ताकि इस षड़यंत्र को रोका जा सके। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा केअंतर्गत दलितोद्धार फण्ड के अंतर्गत यह अपील निकाली गई थी।

स्वामी जी इस बीच में दक्षिण भारत जाते हुए महात्मा गाँधी से जुहू में मिले। दोनों में 2 घंटा चर्चा हुई। गाँधी जी ने अपनी असहमति को 29 मई, 1925 के यंग इंडिया समाचार पत्र में “हिन्दू मुस्लिम तनाव: कारण और निवारण ” के नाम से एक लेख लिखा। इस लेख में गाँधी जी ने आर्यसमाज,स्वामी दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द तीनों के मंतव्यों पर प्रहार किया। गाँधी जी लिखते है-

“स्वामी श्रद्धानन्द जी पर अविश्वास किया जाता है। मैं यह जानता हूँ कि उनकी वकृततायें भड़काने वाली होती है। परन्तु वे हिन्दू मुस्लिम एकता में भी विश्वास करते हैं। दुर्भाग्य से उनका यह विश्वास है कि किसी दिन सारे मुसलमान आर्य बन जायेंगे। जिस प्रकार कि संभवत: बहुत से मुसलमान यह समझते है कि किसी दिन सारे गैर-मुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेंगे। श्रद्धानन्द जी निर्भय है। अकेले ही उन्होंने एक निर्जन जंगल में आलीशान विश्वविद्यालय की स्थापना की। उनका अपनी शक्तियों और उद्देश्य में विश्वास है, परन्तु वे जल्दबाज़ हैं और शीघ्रता से क्रोध के आवेश में आ जाते हैं। उन्होंने आर्यसमाजिक स्वाभाव विरासत में लिए हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के लिए मेरे हृदय में बड़ा सम्मान है। मैं समझता हूँ कि उन्होंने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की है। उनकी वीरता में कोई संदेह नहीं किया जा सकता। परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्यसमाजियों की बाइबिल सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है। जब में यरवदा जेल में था तब मेरे मित्रों ने मेरे पास तीन प्रतियाँ भेजी थीं। मैंने इस प्रकार से महान सुधारक के हाथ से लिखी, इससे अधिक निराशाजनक और कोई पुस्तक नहीं पढ़ी। उन्होंने इस बात का दावा किया है कि वह सत्य के प्रतिनिधि हैं। परन्तु उन्होंने अनजाने जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई मत तथा इस्लाम की असत्य व्याख्या की हैं। उन्होंने संसार भर के अत्यंत विशाल और उदार धर्म को संकुचित बना दिया है। मूर्तिपूजा के विरुद्ध होते हुए भी उन्होंने मूर्तिपूजा चलाई है, क्यूंकि उन्होंने वेद का अक्षर-अक्षर सत्य माना है और सब विद्याओं का होना वेद में बताया है। आर्यसमाज की उन्नति का कारण सत्यार्थप्रकाश की शिक्षायें नहीं है, परन्तु इनके प्रवर्तक का उत्तम आचार है। जहाँ कहीं तुम आर्य समाजियों को देखो वहां जीवन दृष्टिगोचर होगा। परन्तु दृष्टि के संकुचित और दुराग्रही होने के कारण से वे और मतों के लोगों से लड़ाई ठान लेते हैं और जब कोई और लड़ने को नहीं होता तो आपस में लड़ पड़ते हैं। श्रद्धानन्द जी में इस भाव की पर्याप्त मात्रा है। परन्तु इन सब दोषों के होते हुए भी वह इस योग्य हैं कि उनके लिए मंगल कामना कीजिये। यह संभव है कि मेरे लेख से आर्यसमाजियों को क्रोध आयेगा। परन्तु में किसी पर आक्षेप करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ। मेरा समाजियों से प्रेम हैं क्यूंकि उनमें से बहुत से मेरे सहयोगी हैं। जब दक्षिण अफ्रीका में था तब भी स्वामी जी से मेरा प्रेम था, यद्यपि अब मेरा उनसे पास का परिचय हो गया है तथापि मेरा उनसे प्रेम कम नहीं हुआ। यह सब बातें प्रेमभाव से लिखी हैं। ”

शुद्धि और तबलग के विषय में लिखते हुए गाँधी जी बोले-

“शुद्धि करने का वर्तमान दंग हिन्दू मुस्लिम ऐक्य को बिगाड़ने का एक प्रधान कारण हैं। मेरी सम्मति में हिन्दू धर्म में कहीं भी ऐसी शुद्धि का विधान नहीं है- जैसी ईसाईयों और उनसे कम मुलसमानों ने समझी है। मैं समझता हूँ कि इस प्रकार के प्रचार का दंग आर्यसमाज ने ईसाईयों से लिया है। यह वर्तमान दंग मुझे अपील नहीं करता। इससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक हुई है। एक आर्यसमाज का प्रचारक कभी इतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरे धर्मों की निंदा करने से। मेरी हिन्दू प्रकृति मुझसे कहती है कि सब धर्म थोड़े बहुत सच्चे हैं। सबका स्रोत्र एक ही परमात्मा है। परन्तु क्यूंकि उनके आने का साधन अपूर्ण मनुष्य हैं, इसलिए सब धर्म अपूर्ण हैं। वास्तविक शुद्धि यही है कि प्रत्येक मनुष्य अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करे। यदि धर्म परिवर्तन से आदमी में कोई उच्चता पैदा न हो तो इस प्रकार से धर्म परिवर्तन में कोई लाभ नहीं। हमें इससे क्या लाभ होगा कि यदि हम अन्य मतावलम्बियों को अपने धर्म में लायें जबकि हमारे धर्म के बहुत से अनुनायी अपने कार्यों से परमात्मा की सत्ता से इंकार कर रहे हैं। चिकित्सक पहिले अपने आपको स्वस्थ करें यह एक नित्य सच्चाई है। यदि आर्यसमाजी शुद्धि के लिए अपनी अंतरतमा से आवाज़ पाते हैं तो विशेष उन्हें इसके जारी रखने में कोई संकोच न करना चाहिये। इस प्रकार की आवाज़ के लिए समय की तथा अनुभव के कारण बाधा नहीं हो सकती। यदि अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर कोई आर्यसमाजी या मुसलमान अपने धर्म का प्रचार करता है और उसके प्रचार करने से यदि हिन्दू मुस्लिम ऐक्य में विघ्न पड़े तो इसकी परवाह नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार के आंदोलनों को रोका नहीं जा सकता। केवल उसके आधार में सच्चाई होनी चाहिए। यदि मलकाने हिन्दू धर्म में आना चाहते हैं, तो इसका उनको पूरा अधिकार है। परन्तु ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया जाना चाहिये जिससे दूसरे धर्मों को हानि पहुंचे। इस प्रकार के कार्यों का समूह रूप से विरोध करना चाहिये। मुझे पता लगा है कि मुसलमान और आर्यसमाजी दोनों ही स्त्रियों को भगाकर अपने धर्मों में लाने का उद्योग करते हैं।”

आर्यसमाज में गाँधी जी के लेख की बड़ी भारी प्रतिक्रिया हुई। पूरे देश से गाँधी जी को अनेक पत्र इसके विरोध में लिखे गए। गाँधी जी ने मगर अपने शब्द वापिस नहीं लिए। स्वामी जी से जब इसका उत्तर देने के लिए कहा गया। तब स्वामी जी ने 13 जून, 1924 के लीडर उत्तर दिया कि

“मैं नहीं समझता कि गाँधी जी के लेख की किसी को उत्तर देने की आवश्यकता है। गाँधी जी की लेख ही उसका प्रतिउत्तर है क्यूँकि यह अंतर्विरोध से भरा पड़ा है। जो अपने आप यह सिद्ध करता है कि गाँधी जी ने आर्यसमाज के विरुद्ध क्यों लिखा है। आर्यसमाज का ऐसे लेखों से कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। अगर आर्यसमाजी सही है तो न तो महात्मा गाँधी के लेख से और न ही किसी अन्य के लेख से आर्यसमाज की गतिविधियां रुकने वाली हैं।”

पंडित चमूपति और बृजनाथ मित्तल द्वारा गाँधी जी के लेख के प्रतिउत्तर में लिखे गए लेख पठनीय हैं। इतिहास की करवट देखिये कि जिन गाँधी जी ने शुद्धि का तीव्र विरोध किया था। उन्ही गाँधी जी का ज्येष्ठ पुत्र हीरालाल धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गया था। उसी हीरालाल को वापिस से शुद्ध करने के लिए गाँधी जी की पत्नी कस्तूरबा ने आर्यसमाज से गुहार लगाई। आर्यसमाज ने अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए मुंबई में अब्दुल्लाह गाँधी को वापिस हीरालाल बनाकर शुद्ध किया था।

महात्मा गाँधी के लेख के पश्चात मुसलमानों में धार्मिक उन्माद चरम सीमा एक बढ़ गया। उन्हें गाँधी जी के रूप में समर्थक जो मिल गया था। मार्च 1926 में स्वामी जी के पास कराची असगरी बेगम के नाम से एक महिला अपने बच्चों को लेकर शुद्ध होने के लिए आयी। उन्होंने स्वेच्छा से शुद्ध होकर अपन नाम शांति देवी रख लिया। कुछ महीनों बाद उसका पति उसे खोजते हुए दिल्ली आया। उसने अपनी पत्नी का मन बदलने मगर वह नहीं मानी। उसने 2 सितम्बर को स्वामी जी, उनके पुत्र इंद्र जी और जमाई डॉ सुखदेव पर उसकी पति बहकाने का मुकदमा कर दिया। 4 दिसंबर को इस मुक़दमे में फैसला स्वामी जी के पक्ष में हुआ। इस दौरान मुसलमानों में विशेष उत्तेजना देखने को मिली। ख्वाजा हसन निज़ामी दरवेश पत्र के माध्यम से मुसलमानों को भड़का रहा था। इन्द्र विद्यावाचस्पति ने स्वामी जी मुस्लिम मोहल्लों से रोज़ाना भ्रमण करने से मना भी किया। इस दौरान बनारस का दौरा कर स्वामी जी लौटे तो उन्हें निमोनिया ने घेर लिया। वो बीमार होकर अपने निवास पर आराम कर रहे थे। 23 दिसंबर को अब्दुल रशीद के नाम से एक मुसलमान स्वामी जी से चर्चा करने आया। स्वामी जी के सेवक धर्म सिंह ने उसे कहा स्वामी जी बीमार है। आप नहीं मिल सकते। स्वामी जी ने उसे अंदर बुला लिया और कहा कि वो अभी बीमार है। ठीक होने पर उसकी शंका का समाधान अवश्य करेंगे। अब्दुल रशीद ने पीने को पानी माँगा। जैसे ही धर्म सिंह पानी लेने गया तो रशीद ने स्वामी जी पर दो गोलियां दाग दी। स्वामी जी का तत्काल देहांत हो गया। धर्म सिंह ने उसे पकड़ने का प्रयास किया तो उसने धर्म सिंह की जांघ पर गोली मार दी। शोर सुनकर धर्मपाल जो स्वामी जी का सचिव था अंदर आया। उसने रशीद को कसकर पकड़ लिया। इतनी देर में पुलिस आ गई। इंद्र जी ने आकर स्वमी जी का चेहरा देखा जिस पर असीम शांति थी। कुछ दिनों पहले ही स्वामी जी ने इंद्र से कहा था कि

“मुझे संतुष्टि है कि मेरा चुनाव अब बलिदान के लिए हो गया है।”

25 दिसंबर, 1926 को स्वामी जी की अंतिम यात्रा निकली। भीड़ इतनी अधिक थी कि बेकाबू हो रही थी। स्वामी जी का अंतिम संस्कार इंद्रा जी ने किया। अब्दुल रशीद को फांसी पर चढ़ा दिया गया। कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसको पहले बचाने का और फिर शहीद घोषित करने का भरसक प्रयास किया। मगर उनका यह सपना सपना ही रह गया।

महात्मा गाँधी ने 1926 के पश्चात रंगीला रसूल मामले में महाशय राजपाल की हत्या पर भी मुसलमानों का पक्ष लिया। हैदराबाद आंदोलन में आर्यसमाज ने जब हिन्दू समाज के हितों के लिए निज़ाम हैदराबाद के विरोध में आंदोलन किया तब भी मुसलमानों का पक्ष लिया। 1945 में सिंध में सत्यार्थ प्रकाश सत्याग्रह के समय में गाँधी जी मुसलमानों के पक्ष में खड़े दिखाई दिए। 1946 में कोलकाता और नोआखली के दंगों में भी उनका यही हाल था। और देश के 1947 के विभाजन में भी वे मुसलमानों का तुष्टिकरण करते दिखाई दिए। खेदजनक बात यह है कि आज भी उसी गाँधीवादी मानसिकता को हमारे ऊपर थोपा जा रहा है।

आखिर यह मुस्लिम तुष्टिकरण कब तक होगा?
Copied

मनोज शर्मा

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

जब टूटा शनिदेव का अंहकार?
〰️〰️🌼〰️🌼〰️🌼〰️〰️
त्रेतायुग में एक बार बारिश के अभाव से अकाल पड़ा। तब कौशिक मुनि परिवार के लालन-पालन के लिए अपना गृहस्थान छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ चल दिए। फिर भी परिवार का भरण-पोषण कठिन होने पर दु:खी होकर उन्होनें अपने एक पुत्र को बीच राह में ही छोड़ दिया।

वह बालक भूख-प्यास से रोने लगा। तभी उसने कुछ ही दूरी पर एक पीपल का वृक्ष और जल का कुण्ड देखा। उसने भूख शांत करने के लिए पीपल के पत्तों को खाया और कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाई।

वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर और तपस्या कर समय गुजारने लगा। तभी एक दिन वहां देवर्षि नारद पहुंचे। बालक ने उनको नमन किया। नारद मुनि विपरीत दशा में बालक की विनम्रता देखकर खुश हुए। उन्होंने तुरंत बालक का यथोचित संस्कार कर वेदों की शिक्षा दी। उन्होंने उसे ओम नमो भगवते वासुदेवाय की मंत्र दीक्षा भी दी।

वह बालक नित्य भगवान विष्णु के मंत्र का जप कर तप करने लगा। नारद मुनि उस बालक के साथ ही रहे। बालक की तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। भगवान विष्णु ने प्रगट होकर बालक से वर मांगने को कहा। बालक ने भगवत भक्ति का वर मांगा। तब भगवान विष्णु ने बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा दी। जिससे वह परम ज्ञानी महर्षि बन गया।

एक दिन बालक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई। उसने नारद मुनि से पूछा कि इतनी छोटी उम्र में ही क्यों मेरे माता-पिता से अलगाव हो गया। क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगना पड़ रही है।

आपने मुझे संस्कारित कर ब्राह्मण बनाया है। अत: मेरी पीड़ा का कारण भी बताएं। नारद मुनि ने बालक से कहा – तुमने पीपल के पत्तों को खाकर घोर तप किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम पिप्पलाद रखता हूं। जहां तक तुम्हारे कष्टों की बात है, तो उसका कारण शनि ग्रह है। जिसके अहंकार वश धीमी चाल के कारण तुम्हारे साथ ही पूरा जगत भी अकाल की पीड़ा भोग रहा है।

यह सुनकर बालक ने बहुत क्रोधित हो गया। उसने आवेशित होकर जैसे ही आकाश में विचरण कर रहे शनि को देखा। तब शनि ग्रह बालक पिप्पलाद के तेजोबल से जमीन पर एक पर्वत पर आ गिरा।

जिससे वह अपंग हो गया। शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर नारद मुनि खुश हो गए। उन्होंने सभी देवी-देवताओं को यह दृश्य देखने के लिए बुलाया।

तब वहां पर ब्रह्मदेव सहित अन्य देवों ने आकर बालक पिप्पलाद के आवेश को शांत कर कहा कि नारद मुनि द्वारा रखा गया तुम्हारा नाम श्रेष्ठ है और आज से तुम पूरे जगत में इसी नाम से प्रसिद्ध होगे।

जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान कर पूरी श्रद्धा और भावना से पूजा करेगा। उसको शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा मिलेगा और उसको संतान सुख भी प्राप्त होंगे।

ब्रह्मदेव ने साथ ही पिप्पलाद मुनि को शनिग्रह की शांति के लिए उनकी पूजा और व्रत का विधान बताकर कहा कि तुम धराशायी हुए शनि को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो, क्योंकि वह निर्दोष हैं।

पिप्पलाद मुनि ने भी ब्रह्मदेव के आदेश का पालन किया और उनसे शनिश्चर व्रत विधि जानकर जगत को शनि ग्रह की शांति का मार्ग बताया। इसीलिए शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा है।
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

देव शर्मा

Posted in सुभाषित - Subhasit

सुप्रभात,जय श्री कृष्ण

सज्जनस्य हृदयं नवनीतं
यद्वदन्ति कवयस्तदलीकं।
अन्यदेहविलसत्परितापात्
सज्जनो द्रवति नो नवनीतम्॥

कविगण सज्जनों के हृदय को जो नवनीत (मक्खन) के समान बताते हैं, वह भी असत्य ही है। दूसरे के शरीर में उत्पन्न ताप (दुःख) से सज्जन तो पिघल जाते हैं पर मक्खन नहीं पिघलता॥

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

#कन्नौज उत्तर भारत के सबसे समृद्ध शहरों में से एक था, बौद्ध विहारों और शिवालयों की ऊंची अट्टालिकाओं को देख लोग दंग रह जाते जैन मंदिर तो ऐसे के जिन्ह देख लोग दांतों तले उंगली दबा लेते, चारों और वैभव ही वैभव….. उत्तर भारत का व्यापार बिना कन्नौज से गुजरे पूरा न होता…..

वो 1192 ई. का एक दिन था कन्नौज जश्न में डूब था, चारों और दीप जलाए गए थे, भाट अपने राजा का स्तुतिगान कर रहे थे, राजा के दरबारी राज भोज का आनंद ले रहे थे, मदिरा, नृत्य, गायन सब उत्सव को अद्वितीय बना रहे थे…..

आखिर उत्सव होता भी क्यों नही कन्नौज का सबसे बड़ा शत्रु पराजित हुआ था उनके पचास हज़ार योद्धा खेत रहे थे उनकी प्रजा का कत्लेआम हुआ था, चौदह हज़ार स्त्रियों को पकड़ के दासी बना लिया गया था और जिन्ह बर्बर बलात्कार के बाद मृत्यु मिली उनकी संख्या असंख्य थी, थानेश्वर से दिल्ली तक काल स्वयं नग्न नृत्य कर रहा था……

कन्नौज का जश्न मनाना तो बनता ही था क्यों के उन्ह इस विजय उत्सव को मनाने के लिए अपना एक भी योद्धा नहीं खोना पड़ा था, बिना अपने किसी एक सैनिक का रक्त बहाए उन्ह ये उत्सव मनाने का अवसर मिला था……..

उन्हें ये अद्वितीय अवसर आखिर मिला कैसे????

पवित्र महीना अभी बीता ही था….और अपने रसूल का हुक्म ले शांतिदूत चारों दिशाओं में हाथों में नंगी तलवारें ले शांति संदेश फैलाने निकल पड़े थे…..उन्हीं में से एक था मोहम्मद गौरी जो हिंदुस्तान में हार की कड़वाहट भरी बेचैनी के साथ जी रहा था…..पृथ्वीराज के नेतृत्व में एकत्रित हिन्दू सेना से बड़ी मुश्किल से वो प्राण बचा भाग था वो बस बरस भर पहले पर अब मौका अलग था …..हिन्दू अपनी आदत के अनुरूप अपने अपने स्वार्थों में बट चुका था………अन्य राजा पृथ्वीराज चौहान को सबक सिखाना चाहते थे, उन्ह पिछली जीत से पृथ्वीराज को मिली ख्याति बर्दाश्त नहीं थी….ठीक है ऐसा ही वीर धनुर्धर है तो जीत के दिखाए हमारे बिना….का भाव प्रबल था सबके भीतर……..!

मैदान वही था सेनाएं आमने सामने थीं आमने सामने थे मोहम्मद और पृथ्वीराज….. बस समय बदल गया था……भीषण युद्ध में पृथ्वीराज हार गए….हिंदुस्तान की छाती पर इस्लामी परचम लहरा उठा….रणभूमि वीरगति पाये धर्मयोद्धाओं से पट गयी….और आम जन दासता का दुर्भाग्य पा गए…….!

पर कन्नौज इस हार का जश्न मना रहा था कई अन्य राजा भी इसमें शामिल थे….पृथ्वीराज….शब्दभेदी धनुर्धारी…. देखा हमसे प्रतिद्वंदिता का हश्र….हमारे शत्रु की हार हुई…..इन तानों से गूंजता कन्नौज जश्न मना रहा था……..!

दूसरी तरफ तराईन को लाशों से पाट…. और दिल्ली को रौंद…..मुहम्मद गौरी भी जश्न मना रहा था भारत उसका ग़ुलाम बन चुका था….!

ठीक नौ माह के बाद गौरी फिर एक बार युद्ध के मैदान में था इस बार मैदान चंदवार का था वर्ष 1193 ई. का और गौरी के सामने था #जयचंद कन्नौज का राजा…..परिणाम हार और जयचंद की मृत्यु!!!
कन्नौज का जश्न हाहाकार में बदल चुका था …..खुद जयचंद की पोतियों को गौरी की गुलामी को विवश होना पड़ा, उसके हरम में पहुंचना पड़ा….! कन्नौज के शिवालय, बौद्ध मठ, जैन मंदिरों को ध्वस्त करने में गौरी ने कोई भेद नही किया…..सभी ज़मींदोज़ कर दिए गए!…..विजेताओं के कन्नौज को तार तार कर दिया….तब उत्तर भारत का सबसे समृद्ध शहर कभी अपना वैभव दोबारा नहीं पा सका……

कन्नौज ने #पृथ्वीराज की हार पर अपना अंतिम जश्न मनाया था।।।।।

इतिहास खुदको दोहराता है, जगहों के नाम युद्ध के क्षेत्र बदल जाते हैं……सामने अब भी गौरी ही है…..पृथ्वीराज अकेले आज भी मृत्यु को आलिंगन करने को खड़ा है…..जयचंद जश्न मना रहा है…….पर बेटियां जयचंद की भी नहीं बचनी…. मृत्यु और हार उसकी भी निश्चित है….कैराना सबके लिए एक सबक है शायद अंतिम सबक!!!!

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

5 पवित्र कन्याओं का रहस्य
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️

अहिल्या द्रोपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या स्वरानित्यम महापातका नाशका।।

पुराणानुसार पांच स्त्रियां विवाहिता होने पर भी कन्याओं के समान ही पवित्र मानी गई है। अहिल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा और मंदोदरी।

हिन्दू धर्म से जुड़ी पौराणिक कथाओं में ज्यादातर प्रसिद्ध पात्र पुरुषों के ही हैं। पुरुषों को ही महायोद्धा, अवतार आदि का दर्जा दिया गया और उन्हीं से जुड़े चमत्कारों का भी वर्णन हुआ। लेकिन उनके जीवन से जुड़ी महिलाएं, जिनके बिना उनका अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना तक मुश्किल था, उन्हें मात्र एक भूमिका में लाकर छोड़ दिया गया।

यही वजह है कि पौराणिक स्त्रियां जैसे मंदोदरी रावण की अर्धांगिनी के तौर पर, तारा को बाली की पत्नी के बतौर, अहिल्या को गौतम ऋषि की पत्नी के रूप में, कुंती और द्रौपदी को पांडवों की माता और पत्नी के रूप में ही जाना जाता है।

पंचकन्या👉 हिन्दू धर्म में इन पांचों स्त्रियों को पंचकन्याओं का दर्जा दिया गया है। जिस स्वरूप में हम अपने पौराणिक इतिहास को देखते हैं, उसे विशिष्ट स्वरूप को गढ़ने का श्रेय इन स्त्रियों को देना शायद अतिश्योक्ति नहीं कहा जाएगा।

पंचकन्याओं का जीवन👉 मंदोदरी, अहिल्या और तारा का संबंध रामायण काल से है, वहीं द्रौपदी और कुंती, महाभारत से संबंधित हैं। ये पांचों स्त्रियां दिव्य थीं, एक से ज्यादा पुरुषों के साथ संबंध होने के बाद भी इन्हें बेहद पवित्र माना गया। आइए जानते हैं पंचकन्याओं के बारे में, क्या था इनका जीवन।

पंचकन्या 1 : अहिल्या की पौराणिक कथा
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
पद्मपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार देवराज इन्द्र स्वर्गलोक में अप्सराओं से घिरे रहने के बाद भी कामवासना से घिरे रहते थे। एक दिन वो धरती पर विचरण कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि एक कुटिया के बाहर गौतम ऋषि की पत्नी देवी अहिल्या दैनिक कार्यों में व्यस्त हैं। अहिल्या इतनी सुंदर और रूपवती थी कि इन्द्र उन्हें देखकर मोहित हो गए।

इस तरह इन्द्र रोजाना देवी अहिल्या को देखने के लिए कुटिया के बाहर आने लगे। धीरे-धीरे उन्हें गौतम ऋषि की दिनचर्या के बारे में पता चलने लगा। इन्द्र को अहिल्या के रूप को पाने की एक युक्ति सूझी। उन्होंने सुबह गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या के साथ कामक्रीडा करने की योजना बनाई क्योंकि सूर्य उदय होने से पूर्व ही गौतम ऋषि नदी में स्नान करने के लिए चले जाते थे।

इसके बाद करीब 2-3 घंटे बाद पूजा करने के बाद आते थे। इन्द्र आधी रात से ही कुटिया के बाहर छिपकर ऋषि के जाने की प्रतीक्षा करने लगे। इस दौरान इन्द्र की कामेच्छा उनपर इतनी हावी हो गई कि उन्हें एक और योजना सूझी। उन्होंने अपनी माया से ऐसा वातावरण बनाया जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि सुबह हो गई हो। ये देखकर गौतम ऋषि कुटिया से बाहर चले गए। उनके जाने के कुछ समय बाद इन्द्र ने गौतम ऋषि का वेश बनाकर कुटिया में प्रवेश किया। उन्होंने आते ही कहा अहिल्या से प्रणय निवेदन किया.।

अपने पति द्वारा इस तरह के विचित्र व्यवहार को देखकर पहले तो देवी अहिल्या को शंका हुई लेकिन इन्द्र के छल-कपट से सराबोर मीठी बातों को सुनकर अहिल्या भी अपने पति के स्नेह में सबकुछ भूल बैठी। दूसरी तरफ नदी के पास जाने पर गौतम ऋषि ने आसपास का वातावरण देखा जिससे उन्हें अनुभव हुआ कि अभी भोर नहीं हुई है। वो किसी अनहोनी की कल्पना करके अपने घर पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि उनके वेश में कोई दूसरा पुरुष उनकी पत्नी के साथ रति क्रियाएं कर रहा है।

ये देखते ही वो क्रोध से व्याकुल हो उठे। वहीं दूसरी ओर उनकी पत्नी ने जब अपने पति को अपने सामने खड़ा पाया तो उन्हें सारी बात समझ में आने लगी। अंजाने में किए गए अपराध को सोचकर उनका चेहरा पीला पड़ गया। इन्द्र भी भयभीत हो गए। क्रोध से भरकर गौतम ऋषि ने इन्द्र से कहा ‘मूर्ख, तूने मेरी पत्नी का स्त्रीत्व भंग किया है। उसकी योनि को पाने की इच्छा मात्र के लिए तूने इतना बड़ा अपराध कर दिया। यदि तुझे स्त्री योनि को पाने की इतनी ही लालसा है तो मैं तुझे श्राप देता हूं कि अभी इसी समय तेरे पूरे शरीर पर हजार योनियां उत्पन्न हो जाएगी’।

कुछ ही पलों में श्राप का प्रभाव इन्द्र के शरीर पर पड़ने लगा और उनके पूरे शरीर पर स्त्री योनियां निकल आई। ये देखकर इन्द्र आत्मग्लानिता से भर उठे। उन्होंने हाथ जोड़कर गौतम ऋषि से श्राप मुक्ति की प्रार्थना की। ऋषि ने इन्द्र पर दया करते हुए हजार योनियों को हजार आंखों में बदल दिया। वहीं दूसरी ओर अपनी पत्नी को शिला में बदल दिया। बाद में प्रभु श्रीराम ने उनका पैरों से स्पर्श कर उद्धार किया।

इन्द्र को ‘देवराज’ की उपाधि देने के साथ ही उन्हें देवताओं का राजा भी माना जाता है लेकिन उनकी पूजा एक भगवान के तौर पर नहीं की जाती। इन्द्र द्वारा ऐसे ही अपराधों के कारण उन्हें दूसरे देवताओं की तुलना में ज्यादा आदर- सत्कार नहीं दिया जाता।

पंचकन्या 2 : तारा की पौराणिक कथा
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
किष्किंधा की महारानी और बाली की पत्नी तारा का पंचकन्याओं में दूसरा स्थान है। कुछ ग्रंथों के अनुसार तारा, बृहस्पति की पौत्री थीं तो कुछ के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकली मणियों में से एक मणि तारा थी। तारा इतनी खूबसूरत थी कि देवता और असुर सभी उनसे विवाह करना चाहते थे।

बाली की पत्नी :बाली और सुषेण, मंथन में देवताओं के सहायक के तौर पर मौजूद थे। जब तारा क्षीर सागर से निकली तब दोनों ने ही उनसे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। बाली, तारा के दाहिनी तरफ खड़ा था और सुषेण उनकी बाईं ओर। तब विष्णु ने इस समस्या का हल किया कि जो व्यक्ति कन्या की दाहिनी ओर खड़ा होता है वह उसका पति और बाईं ओर खड़ा होने वाला उसका पिता होता है। ऐसे में बालि को तारा का पति घोषित किया गया।

सुग्रीव के साथ युद्ध :असुरों के साथ युद्ध के दौरान बाली की मृत्यु को प्राप्त जैसी अफवाह उड़ने पर सुग्रीव ने बाली की पत्नी के साथ विवाह कर खुद को किष्किंधा का सम्राट घोषित कर दिया। लेकिन जब बाली वापस आया तब उसने अपने भाई से राज्य और अपनी पत्नी को हासिल करने के लिए आक्रमण कर दिया।

बाली ने सुग्रीव को अपने राज्य से बाहर कर दिया और साथ ही उसकी प्रिय पत्नी रुमा को अपने पास ही रखा। जब सुग्रीव को राम का साथ प्राप्त हुआ तब उसने वापस आकर फिर बाली को युद्ध के लिए ललकारा।

तारा का सुझाव :तारा समझ गई कि सुग्रीव के पास अकेले बाली का सामना करने की ताकत नहीं है इसलिए हो ना हो उसे राम का समर्थन प्राप्त हुआ है। उसने बाली को समझाने की कोशिश भी की लेकिन बाली ने समझा कि सुग्रीव को बचाने के लिए तारा उसका पक्ष ले रही है। बाली ने तारा का त्याग कर दिया और सुग्रीव से युद्ध करने चला गया।

बाली का कथन :जब राम की सहायता से सुग्रीव ने बाली का वध किया तो मृत्यु शैया पर रहते हुए बाली ने अपने भाई सुग्रीव से कहा कि वे हर मामले में तारा का सुझाव अवश्य लें, तारा के परामर्श के बिना कोई भी कदम उठाना भारी पड़ सकता है।

पंचकन्या 3 : मंदोदरी की पौराणिक कथा
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
मंदोदरी तीसरा नाम है असुर सम्राट रावण की पत्नी मंदोदरी का, जिसने रावण की हर बुरे कदम पर खेद प्रकट किया और उसे हर बुरा काम करने से रोका। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों में मंदोदरी को एक ऐसी स्त्री के रूप में दर्शाया गया है जो हमेशा सत्य के मार्ग पर चली। मंदोदरी, असुर राजा मयासुर और हेमा नामक अप्सरा की पुत्री थी। मंदोदरी की सुंदरता पर मुग्ध होकर रावण ने उससे विवाह किया था।

पंच कन्याओं में से एक मंदोदरी को चिर कुमारी के नाम से भी जाना जाता है। मंदोदरी अपने पति द्वारा किए गए बुरे कार्यों से अच्छी तरह वाकिफ थी, वह हमेशा रावण को यही सलाह देती थी कि बुराई के मार्ग को त्याग कर सत्य की शरण में आ जाए, लेकिन अपनी ताकत पर गुमान करने वाले रावण ने कभी मंदोदरी की बात को गंभीरता से नहीं लिया।

रावण की मृत्यु के पश्चात, भगवान राम के कहने पर विभीषण ने मंदोदरी से विवाह किया था।

पंचकन्या 4 : कुंती की पौराणिक कथा
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
रामायण काल के बाद चौथा नाम आता है कुंती का। हस्तिनापुर के राजा पांडु की पत्नी और तीन ज्येष्ठ पांडवों की माता, कुंती को ऋषि दुर्वासा ने एक ऐसा मंत्र दिया था, जिसके अनुसार वह जिस भी देवता का ध्यान कर उस मंत्र का जाप करेंगी, वह देवता उन्हें पुत्र रत्न प्रदान करेगा।

मंत्र का प्रभाव : कुंती को इस मंत्र के प्रभावों को जानना था इसलिए एक दिन उन्होंने भगवान सूर्य का ध्यान कर उस मंत्र का जाप आरंभ किया। सूर्य देव ने प्रकट हुए और उन्हें एक पुत्र प्रदान किया। वह पुत्र कर्ण था, लेकिन उस समय कुंती अविवाहित थी इसलिए उन्हें कर्ण का त्याग करना पड़ा।

स्वयंवर में कुंती और पांडु का विवाह हुआ। पांडु को एक ऋषि द्वारा यह श्राप मिला हुआ था कि जब भी वह किसी स्त्री का स्पर्श करेगा, उसकी मृत्यु हो जाएगी। पांडु की मृत्यु के पश्चात कुंती ने धर्म देव को याद कर उनसे युधिष्ठिर, वायु देव से भीम और इन्द्र देव से अर्जुन को प्राप्त किया।

माद्री की प्रार्थना : पांडु की दूसरी पत्नी माद्री ने कुंती से इस मंत्र का जाप कर पुत्र प्राप्त करने की अनुमति मांगी, जिसे कुंती ने स्वीकार कर लिया। अश्विनी कुमार को याद कर माद्री ने उनसे नकुल और सहदेव को प्राप्त किया।

पंच कन्या 5 : द्रौपदी की पौराणिक कथा
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
महाभारत की नायिका द्रौपदी भी पंच कन्याओं में से एक हैं। पांच पतियों की पत्नी बनने वाली द्रौपदी का व्यक्तित्व काफी मजबूत था। स्वयंवर के दौरान अर्जुन को अपना पति स्वीकार करने वाली द्रौपदी को कुंती के कहने पर पांचों भाइयों की पत्नी बनकर रहना पड़ा।

काली का अवतार👉 द्रौपदी को वेद व्यास ने यह वरदान दिया था कि पांचों भाइयों की पत्नी होने के बाद भी उसका कौमार्य कायम रहेगा। प्रत्येक पांडव से द्रौपदी को एक-एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। चौपड़ के खेल में हारने के बाद जब पांडवों को अज्ञातवास और वनवास की सजा हुई, तब द्रौपदी ने भी उनके साथ सजा का पालन किया। कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने पुत्र, पिता और भाई को खोने वाली द्रौपदी को कुछ ग्रंथों में मां काली तो कुछ में धन की देवी लक्ष्मी का अवतार भी कहा जाता है।
〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️🔸〰️〰️

अहल्या द्रौपदी सीता तारा मन्दोदरी तथा ।
पञ्चकं ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ॥
अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, और मंदोदरी, इन पाँचों के नित्य स्मरण से (गुण और जीवन स्मरण से) महापातक का नाश होता है ।

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

मित्रोआज शनिवार है, आज हम आपको हनुमान जी द्वारा शनिदेव को दण्ड,देने की कथा बतायेगें!!!!!!!

एक बार की बात है। शाम होने को थी। शीतल मंद-मंद हवा बह रही थी। हनुमान जी रामसेतु के समीप राम जी के ध्यान में मग्न थे। ध्यानविहीन हनुमान को बाह्य जगत की स्मृति भी न थी।

उसी समय सूर्य पुत्र शनि समुद्र तट पर टहल रहे थे। उन्हें अपनी शक्ति एवं पराक्रम का अत्यधिक अहंकार था। वे मन-ही-मन सोच रहे थे-‘मुझमें अतुलनीय शक्ति है। सृष्टि में मेरा सामना करने वाला कोई नहीं है। टकराने की बात ही क्या, मेरेे आने की आहट से ही बड़े-बड़े रणधीर एवं पराक्रमशील मनुष्ट ही नहीं, देव-दैत्य तक काँप उठते हैं। मैं क्या करूं, किसके पास जाऊँ, जहाँ दो-दो हाथ कर सकूं। मेरी शक्ति का कोई ढंग से उपयोग ही नहीं हो पा रहा है।’

जब शनिदेव यह विचार कर रहे थे, उनकी दृष्टि श्रीराम भक्त हनुमान पर पड़ी। उन्होंने हनुमान जी से ही दो हाथ करने की सोची। युद्ध का निश्चय कर शनि उनके पास पहुँचे।

हनुमान के समीप पहुँच कर अत्यधिक उद्दण्डता का परिचय देते हुए शनि ने अत्यन्त कर्कश आवाज़ में कहा-‘बंदर! मैं महाशक्तिशाली शनि तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हूँं। मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। अपना फालतू का पाखण्ड त्याग कर खड़े हो जाओ, और युद्ध करो।’

तिरस्कार करने वाली अत्यन्त कड़वी वाणी सुनकर भक्तराज हनुमान ने अपने नेत्र खोले और बड़ी ही शालीनता एवं शान्ति से पूछा-‘महाराज! आप कौन हैं और यहाँ पधारने का आपका क्या उद्देश्य है?’

शनि ने अहंकारपूर्वक कहा-‘मैं परम तेजस्वी सूर्य का परम पराक्रमी पुत्र शनि हूँ। जगत मेरा नाम सुनते ही काँप उठता है। मैंने तुम्हारे बल-पौरुष की कितनी गाथाएँ सुनी हैं। इसलिये मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा करना चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ।’

हनुमान जी ने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा-‘शनिदेव! मैं काफी थका हूँ और अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ। इसमें व्यधान मत डालिये। कृपापूर्वक अन्यत्र चले जाइये।’

घमण्डी शनि ने अहंकारपूर्वक कहा-‘मैं कहीं जाकर लौटना नहीं जानता और जहाँ जाता हूँ, वहाँ अपना प्रभाव तो स्थापित कर ही देता हूँ।’

हनुमान जी ने बार-बार प्रार्थना की-‘देव! मैं थका हुआ हूँ। युद्ध करने की शक्ति मुझमें नहीं है। मुझे अपने भगवान श्रीराम का स्मरण करने दीजिए। आप यहाँ से जाकर किसी और वीर को ढूँढ लीजिए। मेरे भजन ध्यान में विध्न उपस्थिति मत कीजिए।’

‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देता।’घमण्ड से भरे शनि ने हनुमान की अवमानना के साथ व्यंगपूर्वक तीक्ष्ण स्वर मे कहा-‘तुम्हारी स्थिति देखकर मुझे तुम पर दया तो आ रही है, किंतु युद्ध तो तुमसे मैं अवश्य करूंगा।’ इतना ही नहीं, शनि ने हनुमान का हाथ पकड़ लिया और उन्हें युद्ध के लिये ललकारने लगे।

हनुमान ने झटक कर अपना हाथ छुड़ा लिया। शनि ने पुनः हनुमान का हाथ जकड़ लिया और युद्ध के लिये खींचने लगे।

‘आप नहीं मानेंगे’ धीरे से कहते हुए हनुमान ने अपनी पूंछ बढ़ाकर शनि को उसमें लपेटना शुरू कर दिया। शनि ने अपने को छुड़ाने का भरसक प्रयास किया। उनका अहंकार, शक्ति एवं पराक्रम व्यर्थ सिद्ध होने लगा। वे असहाय होकर बंधन की पीड़ा से छटपटा रहे थे।

‘अब राम-सेतु की परिक्रमा का समय हो गया।’ हनुमान उठे और दौड़ते हुए सेतु की परिक्रमा करने लगे। शनिदेव की सम्पूर्ण शक्ति से भी उनका बन्धन शिथिल न हो सका। हनुमान की विशाल पूंछ दौड़ने से वानर-भालुओं द्वारा रखे गये पत्थरों पर टकराती जा रही थी। वीरवर हनुमान जानबूझकर भी अपनी पूँछ पत्थरों पर पटक देते थे।

अब शनि की दशा बहुत दयनीय हो गयी थी। पत्थरों पर पटके जाने से उनका शरीर रक्त से लथपथ हो गया। उनकी पीड़ा की सीमा न थी और उग्रवेग हनुमान की परिक्रमा में कहीं विराम नहीं दिख रहा था। पीड़ा से व्याकुल शनि अब बहुत ही दुःखीत स्वर में प्रार्थन करने लगे-‘करुणामय भक्तराज! मुझ पर दया कीजिए। अपनी बेवकूफी का दण्ड में पा गया। आप मुझे मुक्त कीजिए। मेरे प्राण छोड़ दीजिए।’

दयामूर्ति हनुमान खड़े हुए। शनि का अंग-अंग लहुलुहान हो गया था। उनके रग-रग में असहनीय पीड़ा हो रही थी। हनुमान ने शनि से कहा-‘यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ और यदि तुमने ऐसा किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करूँगा।’

‘वीरवर! निश्चय ही मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊँगा।’ पीड़ा से छटपटाते हुए शनि ने अत्यन्त आतुरता से प्रार्थना की-‘अब आप कृपापूर्वक मुझे शीघ्र बन्धन-मुक्त कीजिए।’

भक्तवर हनुमान ने शनि को छोड़ दिया। शनि ने अपना चोटिल शरीर को सहलाते हुए हनुमान जी के चरणों में सादर प्रणाम किया और चोट की पीड़ा से व्याकुल होकर अपनी देह पर लगाने के लिये तेल माँगने लगे। उन्हें तब जो तेल प्रदान करता, उसे वे सन्तुष्ट होकर आशीष देते। कहते हैं, इसी कारण अब भी शनि देव को तेल चढ़ाया जाता है।

संजय गुप्य

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

नारद का अभिमान एवं विश्वमोहिनी की कथा!!!!!!

जब शिव जी ने पार्वती जी को बताया कि देवर्षि नारद ने श्री हरि (विष्णु) को शाप दिया था तो वे बड़ी चकित हुईं। और बोलीं, “नारद जी तो विष्णुभक्त और अत्यन्त ज्ञानी हैं। फिर उन्होंने भगवान को शाप किस कारण से दिया?”
शिव जी न हँस कर कहा, “इस संसार में न तो कोई ज्ञानी है और न मूर्ख। श्री रघुनाथ जी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है। मैं तुम्हें नारद जी की कथा सुनाता हूँ।

हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहाँ पर के पर्वत, नदी और वन को देख कर उनके हृदय में लक्ष्मीकान्त विष्णु जी की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गये। नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो उठे कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से इन्द्रपुरी को अपने अधिकार में न ले लें।

इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहाँ पहुँच कर कामदेव ने अपनी माया से वसन्त ऋतु को उत्पन्न कर दिया। वृक्षों और लताओं में रंग-बिरंगे फूल खिल गये, कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल-मन्द-सुगन्ध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती अप्सराएँ नृत्य व गान करने लगीं।

किन्तु कामदेव की किसी भी कला का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को भय सताने लगा कि कहीं देवर्षि मुझे शाप न दे दें। हारकर वे देवर्षि के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गये।

कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। वहाँ से वे शिव जी के पास चले गये और उन्हें अपने द्वारा कामदेव को जीतने का विवरण कह सुनाया। भगवान शिव समझ गये कि इन्हें अहंकार हो गया है। शंकर जी ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात विष्णु जी जान गये तो देवर्षि का अहित ही होगा। अतः उन्होंने नारद से कहा कि तुमने जो कथा मुझे बताई है उसे श्री हरि को मत बताना।

नारद जी को शिव जी की यह बात अच्छी नहीं लगी। श्री राम की इच्छा ही बलवती होती है अतः नारद जी क्षीरसागर में पहुँच गये और शिव जी के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें सुना दी। भगवान विष्णु तत्काल समझ गये कि इनके मन को अहंकार ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को वे सह नहीं पाते इसलिये उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूँगा कि नारद का अहंकार भी दूर हो जाये और मेरी लीला भी चलती रहे।

नारद जी जब श्री विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया।

इधर श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में सौ योजन का एक अत्यन्त सुन्दर नगर रच दिया। उस नगर में शीलनिधि अत्यन्त वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्वमोहिनी नाम की ऐसी रूपवती कन्या थी जिसके रूप को देख कर साक्षात् लक्ष्मी भी मोहित हो जायें। विश्वमोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिये अनगिनत राजा उस नगर में आये हुए थे।

नारद जी उस नगर के राजा के यहाँ पहुँचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गये और उसे देखते ही रह गये। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो ब्याह करेगा वह अमर हो जायेगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। इन लक्षणों को नारद मुनि ने अपने तक ही सीमित रखा और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ अन्य अच्छे लक्षणों को कह दिया।

अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि यह कन्या मुझे ही वरे। इस मामले में जप-तप से से तो काम चलना नहीं है, जो कुछ होना है वह सुन्दर रूप से ही होना है ऐसा विचार कर के नारद जी ने श्री हरि को स्मरण किया और भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हो गये। नारद जी ने उन्हें सारा विवरण बता कर कहा, “हे नाथ आप मुझे अपना सुन्दर रूप दे दीजिये। जिस प्रकार से भी मेरा हित हो आप शीघ्र वही कीजिये।”

भगवान हरि ने कहा, “हे नारद! हम वही करेंगे जिससे तुम्हारा परम हित होगा। तुम्हारा हित करने के लिये हम तुम्हें हरि हरि शब्द का एक अर्थ बन्दर भी होता है का रूप देते हैं।” यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गये साथ ही उन्होंने नारद जी बन्दर जैसा मुँह और भयंकर शरीर दे दिया। माया के वशीभूत हुए नारद जी को इस बात का ज्ञान नहीं हुआ। वहाँ पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।

ऋषिराज नारद तत्काल विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँच गये और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का वेश बना कर वहाँ पहुँच गये। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुन्दर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गये। विश्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजारूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।

मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी अतः राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरते देख वे विकल हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने व्यंग करते हुए नारद जी से कहा जरा दर्पन में अपना मुँह तो देखये! मुनि ने जल में झाँक कर अपना मुँह देखा और अपनी कुरूपता देख कर अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्रोध में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से प्राप्त हो चुका था।

यद्यपि नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था किन्तु भगवान विष्णु पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आ रहा था क्योंकि विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हँसी हुई थी। वे तुरन्त विष्णु जी से मिलने के लिये चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी, जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्वमोहिनी भी थीं, से हो गई।

उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा, “तुम दूसरों की सम्पदा देख ही नहीं सकते। तुम्हारे भीतर तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र-मंथन के समय तुमने शिव को बावला बना कर विष और असुरों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि को ले लिया। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमेशा कपट का व्यवहार करते हो।

हमारे साथ तुमने जो किया है उसका फल तुम अवश्य पाओगे। तुमने मनुष्य रूप धारण करके विश्वमोहिनी को प्राप्त किया है इसलिये मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा, तुमने हमें स्त्री वियोग दिया इसलिये तुम्हें भी स्त्री वियोग सह कर दुःखी होना पड़ेगा और तुमने हमें बन्दर का रूप दिया इसलिये तुम्हें बन्दरों से ही सहायता लेना पड़ेगा।”

नारद के शाप को श्री विष्णु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिये शाप को याद कर के नारद जी को अत्यन्त दुःख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिये श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर अवतरित होना पड़ा।

शिव जी के उन दोनों गणों ने जब देखा कि देवर्षि नारद अब मोहरहित हो चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर तथा उनके चरणों में गिर कर दीन वचन में कहा, “हे मुनिराज! हम दोनों शिव जी के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण हमें आपसे शाप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा कीजिये।”

नारद जी बोले, “मेरा शाप मिथ्या नहीं हो सकता इसलिये तुम दोनों रावण और कुम्भकर्ण के रूप में महान ऐश्वर्यशाली, बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान विष्णु राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी।”

इस प्रकार से श्री तुलसीदास जी रामचरितमानस में कहते हैं कि श्री हरि अनन्त हैं और उनकी कथा भी अनन्त है। उनकी कथा को संतजन अनेक प्रकार से कहते और सुनते हैं।

संजय गुप्ता

Posted in गौ माता - Gau maata

गाय को बासी रोटी देने वालों पहले ये पोस्ट पढ़ लो,
बरसों से करते आ रहे हो ये बड़ी गलती-

गाय को हिन्दू धर्म में एक विशेष स्थान प्राप्त हैं. शास्त्रों में भी गाय को घर में पालने और उसकी सेवा करने की बात कही गई हैं. ऐसा माना जाता हैं कि गाय के अन्दर 33 करोड़ देवी देवताओं का वास होता हैं. यही वजह हैं कि गाय की सेवा के साथ साथ गोवर्धन पर्व पर उसकी पूजा भी की जाती हैं.धार्मिक महत्त्व के अलावा स्वास्थ की द्रष्टि से भी गाय को पालना और उसके दूध से बने प्रोडक्ट खाना सेहत के अच्छा होता हैं. सिर्फ दूध ही नहीं बल्कि गाय का मूत्र और गोबर भी कई तरह के फायदे प्रदान करता हैं. कुल मिलाकर कहे तो गाय का हमारे दिल, धर्म और घर में एक विशेष स्थान होता हैं.

गाय को बासी रोटी खिलाने से
घटती हैं बरकत-

लेकिन इतना सब जानने के बाद भी जब गाय हमारे दरवाजे पर आती हैं तो हम उसे बासी रोटी और बचा कूचा खाना दे देते हैं. अब जरा एक बार सोचिए. जब भी आप घर में कुछ बनाते हो तो सबसे पहले भगवान को उसका भोग लगाते हो. लेकिन जिस गाय को आप बासी रोटी देते हो उसके अन्दर तो 33 करोड़ देवी देवताओं का वास हैं. ऐसे में आप अनजाने में इन सभी देवी देवताओं को बासी रोटी और खाने का भोग लगा रहे हो.
भगवान को बासे खाने का भोग लगाना मतलब आपके घर में अन्न की बरकत कम होना होता हैं. यदि आप भी गाय को बासी रोटी खिलाते हो तो आज ही संभल जाए, वरना आज नहीं तो कल आपके घर खाने पीने की किल्लत से लेकर धन की कमी तक जैसी समस्याएं आ
सकती हैं.

गाय को भूलकर न खिलाये बासी रोटी, ऐसा
करना बना देगा आपको कंगाल-

अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो गाय एक श्रेष्ठ जीव है। आजकल लोग की व्यस्तता और जीवन शैली ऐसी हो चुकी है की गौ सेवा का लाभ नहीं लिया जा सकता क्योंकि गाँव देहात की बात तो अलग पर शहरों में गाय पालना बेहद मुश्किल काम हैं।

ऐसे में शहरी लोगों के लिए गाय की सेवा के दो ही रास्ते है या तो गौशाला आदि में दान आदि करें या फिर अगर राह चलते गाय मिल जाए तो उसे रोटी खिलाकर लोग पुण्य
कर लेते है।

अक्सर गली मोहल्ले में देखा है लोग घर में रात का बचा हुआ खाना या बासी खाना गौ के लिए निकाल देते है। इसके पीछे लोगों की मंशा होती है की अन्न को फेंकना भी नहीं पड़ा और पुण्य लाभ भी हो गया पर आपको बता दें अगर आप भी ऐसा करते है तो आप पुण्य की जगह पाप
के भोगी बन रहे है।

क्योंकि गाय को रोटी खिलाना तो पुण्य का काम है
पर बासी रोटी खिलाना बिकुल भी ठीक नहीं है।

हमेशा गाय को खिलाए
ताज़ी रोटी-
आप जब भी घर में रोटियां बनाते हो तो सबसे पहले गाय के नाम की एक या अधिक रोटी बनाने की आदत डालो. इसके बाद उस रोटी को जितना जल्दी हो सके गाय को खिला दो. अक्सर यह देखा गया हैं कि लोग गाय के नाम की रोटी तो बना लेते हैं लेकिन उसे समय पर देने की बजाए आलस करते हैं और रोटी के बासी हो जाने के बाद गाय को खिलाते हैं. आपको अपनी यह आदत आज से ही बदलनी होगी. तभी आप 33 करोड़ देवी देवताओं के
पाप के भागीदार बनने से बच पाएंगे.

             !! वन्दे गौ मातरम् !!

ज्योति अग्रवाल

Posted in संस्कृत साहित्य

” मार्शल आर्ट के जनक एक भारतीय हैं ”

मार्शल आर्ट में सबसे अच्छी विद्या मानी जाती है कुंग्फु और इसको सिखाने का सबसे अच्छा विद्यालय माना जाता है चीन में स्थित सओलिन मन्दिर |
आपको यह जानकार बेहद आश्चर्य होगा की इस विद्यालय की आधारशिला रखने वाले और चीन को इस कला का ज्ञान देने वाले भारतीय थे |

उस भारतीय का नाम था – ” बोधिधर्मन ” |

पल्लव साम्राज्य के शासक बल्लव महाराज के तीसरे राजकुमार बोधिधर्मन |
बोधिधर्मन आत्मरक्षा कला के अलावा एक महान चिकित्सक भी थे | उन्होंने अपने ग्रन्थ में डीएनए के माध्यम से बीमारियों को ठीक करने की विधि के बारे में भी आज से १६०० साल पहले बता दिया था |

आज हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को पूर्ण रूप से भूल चुके हैं | जिस संस्कृति को हम लोग भूल रहे हैं और जिन मूल्यों को हम को चुके हैं उनको अपनाकर अनेकों देश आज विकसित अवस्था में हैं और हम क्या हैं आप समझ रहे होंगे |

आज जिस मार्शल आर्ट की कला को हम सीखने के लिए लालायित रहते हैं उसके बारे में हम यही सोचते हैं की यह तो चीन की देन है .. जबकि हकीक़त इसके उल्टे है |
इस कला का ज्ञान चीन ने नहीं बल्कि चीन के साथ पूरे विश्व को हमने दिया था |

लेकिन विडम्बना यह है की इस विद्या के जन्मदाता का नाम ही हमने आज तक नहीं सुना | यह सब मैकाले की शिक्षा नीति का ही प्रतिफल है |

आज जिसे चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों में जिसे भगवन की तरह पूजा जाता है ; वह हमारे देश के हैं और हम उनका नाम भी नहीं जानते हैं, इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है |

आज आवश्यकता है हमें अपने गौरवमय इतिहास को जानने की, जो भी प्राचीन ग्रन्थ हैं उनका अध्ययन करने की, जो भी ज्ञान हमारे हमारे ऋषि – मुनियों ने हमें प्रदान किया हुआ है उस पर अमल करने की |

इस पोस्ट को पड़ने के बाद कई ‘ अंग्रेजो के तलवे चाटने ‘ और ” भारत ने दिया ही क्या है ? ” कहने वालों के पेट में दर्द होना शुरू हो जायेगा .. इन जोकरों से अनुरोध है की पहले गूगल पर जाकर जानकारी प्राप्त कर लें फिर कमेंट करें |

धन्यवाद्

“ भारतीय संस्कृति ही सर्वश्रेष्ट संस्कृति है |”

“ वन्देमातरम् ”