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एक गाँव में जिलाधिकारी महोदय नसबंदी के महत्व और उपयोगिता के बारे में ग्राम सेवकों की एक सभा में भाषण कर रहे थे.

भाषण के बाद उन्होंने कहा कि अगर कोई सवाल पूछना चाहे तो पूछ सकता है.

एक ग्राम सेवक खडा हुआ और हाथ जोड़ कर बोला – साहब माफ़ किया जाये एक अटपटा सवाल पूछ रहा हूँ. पर यह मेरा सवाल नहीं है है, गाँव वाले पूछते है.

जिलाधिकारी महोदय ने उसे सवाल पूछने की अनुमति दे दी.

ग्राम सेवक ने कहा – सरकार गाँव वाले पूछते है की क्या जिलाधिकारी महोदय ने नसबंदी कराई है?

जिलाधिकारी महोदय ने कहा- नहीं मैंने नसबंदी नहीं कराई है.

ग्राम सेवक ने पूछा – सरकार गाँव वाले पूछते है की क्या कमिश्नर महोदय ने नसबंदी कराई है?

जिलाधिकारी महोदय ने कहा- जहाँ तक मुझे जानकारी है कमिश्नर महोदय ने भी नसबंदी नहीं कराई है.

ग्राम सेवक ने पूछ – सरकार गाँव वाले पूछते है कि क्या मंत्रालय के सचिव महोदय ने नसबंदी कराई है?

जिलाधिकारी महोदय ने कहा- मैं तुम्हारा सवाल समझ गया… देखो हम सब पढ़े – लिखे लोग हैं…हम बिना नसबंदी कराए ही परिवार नियोजन करते हैं.

ग्राम सेवक ने कहा- हुज़ूर यही तो गाँव वाले कहते हैं कि ” हमें पढ़ाओ लिखाओ ,हमारी नसबंदी क्यों कर रहे हो ??

अमित नामदेव

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एकाग्रता से सफलता

बहुत पुरानी बात है, एक वन था जिसमें बहुत सारे मेंढक रहते थे| वहाँ एक बहुत बड़ा और उँचा पेड़ था| एक बार वन के सभी मेंढको की सभा हुई और उन्होनें एक प्रतियोगिता रखी | जिसमें जो मेंढक सबसे जल्दी पेड़ पे चढ़ कर चोटी पर पहुँचेगा उसे वन का राजा चुना जाएगा |

अगले दिन सारे वन के मेंढक एक जगह एकत्रित हुए और सभी बारी बारी पेड़ पर चड़ने की तैयारी करने लगे| पर पेड़ उतना बड़ा था कि सारे मेंढक उपर चड़ने से घबरा रहे थे |

बारी बारी सभी मेढक उपर चढ़ने लगे लेकिन धीरे धीरे क्या देखते हैं कि सारे मेंढक थक कर चूर होने लगते हैं और कुछ तो थककर वापस नीचे आने लगते हैं | कुछ मेंढक नीचे आकर उपर वालों को आवाज़ लगाते हैं कि वापस आ जाओ क्यूंकी पेड़ की चोटी पर पहुँचना असंभव है |

सारे मेंढक नीचे आजाते हैं लेकिन एक छोटा सा मेंढक लगातार उपर चढ़ता जा रहा था | सारे मेढक उसे भी नीचे उतर आने को बोलने लगे लेकिन वह लगता ऊपर चढ़ता गया और छोटी पर पहुँच गया | जब वह नीचे वापस आया तो सबने उससे सफलता का रहस्या पूछना चाहा| वह कुछ भी नहीं बोला भीड़ में से किसी ने बताया कि वह बहरा है |

तो मित्रों, यही बात हमारे जीवन पर भी लागू होती है जब हम कुछ अच्छा काम करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो बहुत सारे लोग हमें पीछे खींचते हैं | हममें से बहुत सारे धैर्य छोड़ देते हैं लेकिन जो बिना रुके एकाग्रता से आगे बढ़ता है वो अंत में सफल हो जाते हैं| एकाग्रता, समर्पण और आत्मानुशासन के बिना या तो आप असफल हो जायेंगे, या अपने क्षमता से कहीं कम सफलता पा सकेंगे |

ज्योति अग्रवाल

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सिंहासन बत्तीसी : पच्चीसवीं पुतली त्रिनेत्री की कहानी

त्रिनेत्री नामक पच्चीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख-दुख का पता लगाने के लिए कभी-कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर निदान करते थे।

उनके राज्य में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे। वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए जीवन-यापन कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे। वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा सीमित आय से संतुष्ट थे।
सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है। बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अत: उसे कोई और यत्न करना होगा।

भाट यह सुनकर हंस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान कोई रास्ता निकाल ही देंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो हर दंपति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दंपति संतानहीन न रहते। सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है।

दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका। उसकी पत्नी अब दुखी रहने लगी।

भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने की नीयत से निकल पड़ा। कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े-बड़े सेठों को हंसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए।

खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन हो गया। जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई, उन्होंने सारा धन लूट लिया।

वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा।
भाट ने पत्नी को बताया कि उसके बार-बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने को कई प्रदेश गया और तरह-तरह को लोगों से मिला।

लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था। रास्ते में सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है। भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई। उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा?

भाट ने फिर अपनी बात दोहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा। इस पर उसकी पत्नी निराशाभरी खीझ के साथ बोली कि ईश्वर लगता है महाराजा विक्रम को विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे। जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज उसके घर के पास से गुज़र रहे थे। उन्हें भाट की पत्नी की टिप्पणी पर हंसी आ गई।
दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपना कर जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहा था। वह पूजा-पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रूप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था।

ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई। बेटी के विवाह की चिन्ता जब सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा, मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया। पत्नी के बार-बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा-फिराकर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया।

एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं है। कन्यादान तो करना ही है। ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास जरूर जाएगा। महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी। उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुज़र रहे थे।
सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजा और भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया। विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएं दान कीं। फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएं दिलवा दीं।

वे दोनों अति प्रसन्न हो वहां से विदा हो गए। जब वे चले गए तो एक दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी। उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्यादान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया?

भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएं क्यों दीं। विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था। वह ईश्वर से आस लगाए बैठा था।

ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन वंश का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था। वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था। राजा भी आम मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता।

उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए। राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर दरबारी ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा चुप हो गया।
(समाप्त)

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ससुराल
निधि कमरे में बैठी मैगजीन के पन्ने पलट रही थी पर मैगजीन पढ़ने में उसका जरा भी मन नहीं लग रहा था, उसका ध्यान तो बाहर हाल में से आ रही आवाजों पर था….जहाँ उसके ससुर जी, सासू माँ और बड़ी ननद सरला के बीच बातचीत हो रही थी। बातचीत भी कहाँ सीधे-सीधे फैसला सुनाया जा रहा था। आज दोपहर ही उसकी ननद दोनों बच्चों के साथ ससुराल से आई हैं। शाम को पापा(ससुर) स्कूल से आए और अपनी बेटी को देखते ही बोले- “तुम क्यों आईं और बच्चों को भी ले आईं!”
दरवाजे के पीछे खड़ी निधि ऐसे चौंक गई मानो गर्म तवे पर पैर पड़ गए हों, वह हतप्रभ थी कि ससुराल से आई हुई बेटी को देखकर कोई पिता ऐसा व्यवहार कैसे कर सकता है! वह अभी दो महीने पहले ब्याह कर आई थी तो इस घर की प्रथा के अनुसार अभी वह ससुर और घर के अन्य पुरुषों के सामने बिना घूँघट किए बाहर नहीं आती थी, अतः वह वहीं कुर्सी खिसका कर बैठ गई उनकी बातें सुनने के लिए..तब उसे पता चला कि सरला की सास ने उसके गहने अपनी बेटी के लिए माँगे तो सरला ने कह दिया कि बाकी सारे तो आप ले चुके हैं बस ये दो कंगन बचे हैं इन्हें वह नहीं देगी। इसी बात के लिए उसकी सास ने और न जाने क्या-क्या बातें जोड़कर उसकी शिकायत अपने बेटे से की और माँ-बेटे ने मिलकर उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया।
“बड़ों के सामने जबान चलाओगी तो ऐसा तो करेंगे ही।”
उधर ससुर जी की आवाज आई और इधर निधि काँप सी गई। पढ़े-लिखे होकर ऐसे विचार रखते हैं…
“पर पापा मेरी क्या गलती थी मेरे सारे गहने तो ले चुके, जो यहाँ से मिले थे, वो भी।” सरला बोली।
“जो भी हो शादी के बाद बेटी पर माँ-बाप का कोई हक नहीं रह जाता, और ये रोज-रोज छोटी-छोटी बातों पर यहाँ मत चली आया करो, नहीं तो तुम्हें देखकर हमारी बहू भी ऐसा ही करना शुरू कर देगी, इसीलिए जैसे आई हो कल वैसे ही चली जाना।” कहकर पापा जी वहाँ से उठकर बाहर जाने लगे।
निधि को आश्चर्य हो रहा था कि माँ बीच में एक शब्द भी नहीं बोलीं उन्होंने एकबार भी अपनी बेटी का पक्ष नहीं लिया, क्या सिर्फ इसलिए ताकि भविष्य में वो अपनी पुत्रवधू पर इस प्रकार का शासन कर सकें। सरला रोती हुई निधि के कमरे में आ गई और निधि के गले लगकर फफक कर रो पड़ी। निधि ने सरला को स्वयं से अलग किया और सिर पर घूँघट ठीक करती हुई बाहर आ गई और बोली-
“पापा जी, दीदी कहीं नहीं जाएँगीं, ये उनका भी घर है।”
सुनते ही उनके पैर अपनी जगह मानो चिपक गए हों।
“क्या कर रही है बहू, तू चुपचाप कमरे में जा।” उसकी सास हड़बड़ाकर बोलीं।
“निधि ठीक कह रही है माँ, दीदी अब अपनी ससुराल ऐसे नहीं जाएगी।” नीलेश ने हॉल में प्रवेश करते हुए कहा।
मालती मिश्रा, दिल्ली

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(((((( श्री कृष्ण पिता वसुदेव जी के पूर्वजन्म की कथा ))))))
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कश्यप ऋषि विशाल यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। इस यज्ञ को संपन्न कराने के लिए कश्यप वरूण देव के पास गए और उनसे एक ऐसी दिव्य गाय प्रदान करने की प्रार्थना की जिसकी कृपा से वह यज्ञ कार्य पूरा कर सकें।

मुनि का यज्ञ पूर्ण हो जाए यह सोच कर वरूण देव ने कश्यप ऋषि को एक दिव्य गाय दे दी। अनेक दिनों तक यज्ञ चलता रहा. दिव्य गाय की कृपा से यज्ञ का सारा प्रबंध निर्विघ्न होता रहा।

जब यज्ञ पूरा हो गया तो कश्यप ऋषि के मन में लोभ पैदा हो गया. वह वरूण देव से गाय तो केवल यज्ञ को पूरा करने के लिए मांग कर लाए थे लेकिन उनके मन में लालच आ गया।

कश्यप अब उस दिव्य गाय को वापस लौटाने से हिचक रहे थे. यज्ञ पूरा होने के काफी समय बाद भी जब कश्यप ने गाय नहीं लौटाई तो वरूण देव कश्यप के सामने प्रकट हो गए।

वरूण ने कहा- ऋषिवर आपने गाय यज्ञ पूर्ण कराने के लिए ली थी. वह स्वर्ग की दिव्य गाय है. उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर उसे स्वर्ग में वापस भेजना होता है. यज्ञ पूर्ण हुआ अब वह गाय वापस कर दें।

कश्यप बोले- हे वरूण देव ! किसी तपस्वी को दान की गई कोई वस्तु कभी वापस नहीं मांगनी चाहिए. आपके लिए उस गाय का कोई मूल्य नहीं. आप इसे मेरे आश्रम में ही रहने दें. मैं उसका पूरा ध्यान रखूंगा।

वरूण देव ने अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया कि वह उस गाय को इस प्रकार पृथ्वी पर नहीं छोड़ सकते परंतु कश्यप नहीं माने. हारकर वरूण देव ब्रह्मा जी के पास गए और सारी बात बताई।

वरूण देव ने ब्रह्मा से कहा- हे परम पिता ! मैंने तो सिर्फ यज्ञ अवधि के लिए गाय दी थी परंतु कश्यप गाय लौटा ही नहीं रहे. अपनी माता की अनुपस्थिति में दुखी बछड़े प्राण त्यागने वाले हैं. आप राह निकालें।

ब्रह्मा जी वरूण को लेकर कश्यप के आश्रम में आए और बोले- कश्यप तुम विद्वान हो. तुम्हारे अंदर ऐसी प्रवृति कैसे आ रही है, इससे मैं स्वयं दुखी हूं. लोभ में पड़कर तुम अपने पुण्यों का नाश कर रहे हो. वरूण की गाय लौटा दो।

ब्रह्मा जी के समझाने पर कश्यप गाय को अपने पास ही रखने के तर्क देने लगे. वह उलटा समझाने का प्रयास करने लगे कि गाय अब उनकी ही संपत्ति है. इस लिए लोभ की कोई बात ही नहीं।

ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए और कहा- लोभ के कारण तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई. ऋषि होकर भी तुम्हें ऐसा लोभ हुआ है. यह पतन का कारण है. तुम्हारे प्राण एक गाय में अटके हैं. मैं शाप देता हूं कि तुम अपने अंश से पृथ्वी पर गौपालक के रूप में जाओ।

शाप सुनकर कश्यप को बड़ा क्षोभ हुआ. उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने ब्रह्मा जी से और वरूण देव दोनों से क्षमा मांगी. ब्रह्मा जी का क्रोध शांत हो गया. वरूण को भी पछतावा हो रहा था कि कश्यप को ऐसा शाप मिल गया।

ब्रह्मा जी ने शाप में संशोधन कर दिया- तुम अपने अंश से पृथ्वी पर यदुकुल में जन्म लोगे. वहां तुम गायों की खूब सेवा करोगे. स्वयं श्री हरि तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेकर तुम्हें कृतार्थ करेंगे।

कश्यप शाप को वरदान में परिवर्तित होता देखकर प्रसन्न हो गए. उन्होंने ब्रह्मा जी की स्तुति की. कश्यप ने ही भगवान श्री कृष्ण के पिता वसुदेव के रूप में धरती पर जन्म लिया।

  (((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))

देव शर्मा

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एकादशी का लड्डू
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अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के संस्थापक, श्रीश्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी कहा करते थे कि जैसे किसी बच्चे की तबीयत खराब हो और वह कड़वी दवाई न खाना चाहता हो, लाख समझाने पर भी न समझता हो तो उसके माता-पिता क्या करेंगे?

वे डाक्टर के पास जायेंगे और अपनी समस्या बतायेंगे।

ऐसे ही एक माता-पिता को उस डाक्टर ने पूछा कि इस बालक को क्या खाना पसन्द है?

माता ने कहा – इसे मीठे लड्डू खाने बहुत पसन्द हैं।

डाक्टर ने तब उस लड़के के पिता को कहा कि आप अभी जाकर वो लड्डू ले आयें।

पिताजी गये और बाज़ार से लड्डू ले आये।

डाक्टर ने लड्डू बच्चे को दिखाते हुये पूछा – बेटा, लड्डू खाओगे?

बच्चे बहुत खुशी से ‘हाँ’ बोला।

तब डाक्टर ने बच्चे से कहा – लड्डू तो तुम्हें मिल जायेगा, लेकिन पहले यह दवाई खानी होगी।

बच्चे ने लड्डू के लालच में जल्दी से दवाई मुँह में डाली और ऊपर से लड्डू भी मुँह में डाल लिया।

बच्चे ने सोचा की दवाई खाने का फायदा ये है कि इसको खाने से लड्डू मिलता है। परन्तु सच्चाई तो यह नहीं है।

लड्डू तो एक प्रलोभन है, लालच है, वो दवाई देने के लिये। और दवाई तो उस बच्चे की अच्छी सेहत के लिये दी जाती है।

ठीक इसी प्रकार हमारे ॠषियों ने शास्त्रों में जो बताया कि एकादशी व्रत करने से रूपया-पैसा, बड़ा घर, सुन्दर रूप, पुत्र, आदि मिलता है, ये तो मात्र प्रलोभन है, लालच है। क्योंकि सांसारिक व्यक्ति न तो भगवान को चाहता है, न ही उसे भगवान की ज़रूरत महसूस होती है।

सांसारिक व्यक्ति को तो भगवान की भक्ति की ज़रूरत का पता ही नहीं है।

उसे तो बस यही पता है कि एकादशी व्रत करने से व हरिनाम संकीर्तन करने से पाप धुलते हैं और रूपया-पैसा – पुत्र आता है।

जबकि सच्चाई यह है कि एकादशी व्रत करने का लालच दिखाकर हमारे ॠषि सांसारिक आदमियों को उनके नित्य कल्याण के लिये, उन्हें भगवान की भक्ति में लगाते हैंं।

यह बात अलग है कि एकादशी करने से मनुष्यों को धन, घर, सुन्दर रूप, पुत्र आदि की प्राप्ति होती है, ठीक उसी तरह जैसे बच्चे को दवाई खाने के बदले लड्डू मिला था।

भगवान के महान भक्त श्रील रूप गोस्वामी जी ने बताया है कि एकादशी व्रत करना, भगवान के प्रमुख भक्ति अंगों में से एक है।

एकादशी व्रत सभी व्रतों में से ठीक उसी प्रकार श्रेष्ठ है जैसे सभी नदियों में पतित पावनी गंंगा जी।
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देव शर्मा

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(((( परमात्मा की लाठी ))))

एक साधु वर्षा के जल में प्रेम और मस्ती से भरा चला जा रहा था… कि इस साधु ने एक मिठाई की दुकान को देखा जहां एक कढ़ाई में गरम दूध उबला जा रहा था तो मौसम के हिसाब से दूसरी कढ़ाई में गरमा गरम जलेबियां तैयार हो रही थी

साधु कुछ क्षणों के लिए वहाँ रुक गया….. शायद भूख का एहसास हो रहा था या मौसम का असर था….

साधु हलवाई की भट्ठी को बड़े गौर से देखने लगा साधु कुछ खाना चाहता था लेकिन साधु की जेब ही नहीं थी तो पैसे भला कहां से होते….

साधु कुछ पल भट्ठी से हाथ सेंकने के बाद चला ही जाना चाहता था….. कि नेक दिल हलवाई से रहा न गया और एक प्याला गरम दूध और कुछ जलेबियां साधु को दें दी…

मलंग ने गरम जलेबियां गरम दूध के साथ खाई और फिर हाथों को ऊपर की ओर उठाकर हलवाई के लिऐ प्रार्थना की….. फिर आगे चल दिया…..

साधु बाबा का पेट भर चुका था दुनिया के दु:खों से बेपरवाह वे फिर इक नए जोश से बारिश के गंदले पानी के छींटे उड़ाता चला जा रहा था…….

वह इस बात से बेखबर था कि एक युवा नव विवाहिता जोड़ा भी वर्षा के जल से बचता बचाता उसके पीछे चला आ रहें है ……

एक बार इस मस्त साधु ने बारिश के गंदले पानी में जोर से लात मारी….. बारिश का पानी उड़ता हुआ सीधा पीछे आने वाली युवती के कपड़ों को भिगो गया उस औरत के कीमती कपड़े कीचड़ से लथपथ हो गये…..

उसके युवा पति से यह बात बर्दाश्त नहीं हुई…..

इसलिए वह आस्तीन चढ़ाकर आगे बढ़ा और साधु के कपड़ो से पकड़ कर कहने लगा अंधा है…… तुमको नज़र नहीं आता तेरी हरकत की वजह से मेरी पत्नी के कपड़े गीले हो गऐ हैं और कीचड़ से भर गऐ हैं…..

साधु हक्का-बक्का सा खड़ा था…. जबकि इस युवा को साधु का चुप रहना नाखुशगवार गुजर रहा था…..

महिला ने आगे बढ़कर युवा के हाथों से साधु को छुड़ाना भी चाहा…. लेकिन युवा की आंखों से निकलती नफरत की चिंगारी देख वह भी फिर पीछे खिसकने पर मजबूर हो गई…..

राह चलते राहगीर भी उदासीनता से यह सब दृश्य देख रहे थे लेकिन युवा के गुस्से को देखकर किसी में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उसे रोक पाते

और आख़िर जवानी के नशे मे चूर इस युवक ने एक जोरदार थप्पड़ साधु के चेहरे पर जड़ दिया बूढ़ा मलंग थप्पड़ की ताब ना झेलता हुआ…. लड़खड़ाता हुऐ कीचड़ में जा पड़ा…..

युवक ने जब साधु को नीचे गिरता देखा तो मुस्कुराते हुए वहां से चल दिया..

बूढे साधु ने आकाश की ओर देखा और उसके होठों से निकला वाह मेरे भगवान कभी गरम दूध जलेबियां और कभी गरम थप्पड़….

लेकिन जो तू चाहे मुझे भी वही पसंद है…….. यह कहता हुआ वह एक बार फिर अपने रास्ते पर चल दिया….

दूसरी ओर वह युवा जोड़ा अपनी मस्ती को समर्पित अपनी मंजिल की ओर अग्रसर हो गया…..

थोड़ी ही दूर चलने के बाद वे एक मकान के सामने पहुंचकर रुक गए……वह अपने घर पहुंच गए थे….

वे युवा अपनी जेब से चाबी निकाल कर अपनी पत्नी से हंसी मजाक करते हुए ऊपर घर की सीढ़ियां तय कर रहा था….

बारिश के कारण सीढ़ियों पर फिसलन हो गई थी अचानक युवा का पैर फिसल गया और वह सीढ़ियों से नीचे गिरने लगा….

महिला ने बहुत जोर से शोर मचा कर लोगों का ध्यान अपने पति की ओर आकर्षित करने लगी जिसकी वजह से काफी लोग तुरंत सहायता के लिये युवा की ओर लपके…..

लेकिन देर हो चुकी थी युवक का सिर फट गया था और कुछ ही देर मे ज्यादा खून बह जाने के कारण इस नौजवान युवक की मौत हो चुकी थी

कुछ लोगों ने दूर से आते साधु बाबा को देखा तो आपस में कानाफुसी होने लगीं कि निश्चित रूप से इस साधु बाबा ने थप्पड़ खाकर युवा को श्राप दिया है….

अन्यथा ऐसे नौजवान युवक का केवल सीढ़ियों से गिर कर मर जाना बड़े अचम्भे की बात लगती है…..

कुछ मनचले युवकों ने यह बात सुनकर साधु बाबा को घेर लिया एक युवा कहने लगा कि आप कैसे भगवान के भक्त हैं जो केवल एक थप्पड़ के कारण युवा को श्राप दे बैठे……

भगवान के भक्त मे रोष व गुस्सा हरगिज़ नहीं होता …. आप तो जरा सी असुविधा पर भी धैर्य न कर सकें…..

साधु बाबा कहने लगा भगवान की क़सम मैंने इस युवा को श्राप नहीं दिया….

अगर आप ने श्राप नहीं दिया तो ऐसा नौजवान युवा सीढ़ियों से गिरकर कैसे मर गया ?

तब साधु बाबा ने दर्शकों से एक अनोखा सवाल किया कि आप में से कोई इस सब घटना का चश्मदीद गवाह मौजूद है ?

एक युवक ने आगे बढ़कर कहा….. हाँ मैं इस सब घटना का चश्मदीद गवाह हूँ

साधु ने अगला सवाल किया…..मेरे क़दमों से जो कीचड़ उछला था क्या उसने युवा के कपड़े को दागी किया था ?

युवा बोला….. नहीं…. लेकिन महिला के कपड़े जरूर खराब हुए थे

मलंग ने युवक की बाँहों को थामते हुए पूछा.. फिर युवक ने मुझे क्यों मारा ?

युवा कहने लगा…… क्योंकि वह युवा इस महिला का प्रेमी था और यह बर्दाश्त नहीं कर सका कि कोई उसके प्रेमी के कपड़ों को गंदा करे….. इसलिए उस युवक ने आपको मारा….

युवा बात सुनकर साधु बाबा ने एक जोरदार ठहाका बुलंद किया और यह कहता हुआ वहाँ से विदा हो गया…..

तो भगवान की क़सम मैंने श्राप कभी किसी को नहीं दिया लेकिन कोई है जो मुझ से प्रेम रखता है….

अगर उसका यार सहन नहीं कर सका तो मेरे यार को कैसे बर्दाश्त होगा कि कोई मुझको मारे और…

वह इतना शक्तिशाली है कि दुनिया का बड़े से बड़ा राजा भी उसकी लाठी से डरता है ….

उस परमात्मा की लाठी दीख़ती नही और आवाज भी नही करती लेकिन पडती हैं तों बहुत दर्द देंती हैं

हमारें कर्म ही हमें उसकी लाठ़ी से बचातें हैं बस़ कर्म अच्छें होंने चाहीऐं…

((((((( जय जय श्री राधे )))))))

युगलकिशोर पवन

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महाभारत के मुख्य पात्र शकुनि की कथा
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गांधारी के भाई और दुर्योधन के मामा शकुनि को कौन नहीं जानता? महाभारत में शकुनि का किरदार अहम रहा है। कहते हैं कि बुद्धिबल, शस्त्रबल से भी ज्यादा खतरनाक होता है। महाभारत में कृष्ण, शकुनि, भीष्म, विदुर, द्रोण आदि ऐसे लोग थे जिन्होंने अपने बुद्धिबल का प्रयोग किया।

महाभारत की गाथा में शकुनि अपनी कुटिल बुद्धि के लिए विख्‍यात माना जाता है। कौरवों के मामाश्री शकुनि मामा को कौरवों का शुभचिंतक माना जाता है। शकुनि मामा दुर्योधन का कदम-कदम पर मार्गदर्शन करते रहते थे। दुर्योधन भी मामा शकुनि की इच्छा के बगैर एक कदम भी नहीं उठाते थे। यह बात जहां गांधारी को खटकती थी, वहीं धृतराष्ट्र को भी। हम आपको अगले पन्नों पर बताएंगे कि क्यों शकुनि दुर्योधन सहित अन्य कौरवों का दुश्मन था और किस तरह शकुनि का अंत हुआ।

शकुनि गांधार नरेश राजा सुबाल के पुत्र थे। शकुनि का जन्म गांधार के राजा सुबाल के राजप्रासाद में हुआ था। वह माता गांधारी का छोटा भाई था। वह जन्म से ही विलक्षण बुद्धि का स्वामी था अतः राजा सुबाल को अत्यंत प्रिय था।

कई छोटे-छोटे राज्य मिलकर आर्याना क्षेत्र बना था। इसी क्षेत्र में था गांधार राज्य। आज के उत्तर अ‍फगानिस्तान को उस काल में गांधार कहा जाता था, जो कि कम्बोज के पास था। गांधार राज्य में ही हिन्दूकुश पर्वतमाला थी। कंदहार या कंधार गांधार का ही अपभ्रंश है।

कौरवों को छल व कपट की राह सिखाने वाले शकुनि उन्हें पांडवों का विनाश करने में पग-पग पर मदद करते थे, लेकिन उनके मन में कौरवों के लिए केवल बदले की भावना थी।

उस समय गांधार राजकुमारी के रूप-लावण्य की चर्चा पूरे आर्यावर्त में थी। ऐसे में पितामह भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी से करने की सोची। पहले उन्होंने सोचा कि गांधारी का अपहरण कर के लाया जाए, लेकिन अम्बा और अम्बालिका ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया था अतः पितामह भीष्म गांधार की राजसभा में धृतराष्ट्र का रिश्ता लेकर गए, लेकिन उन्हें मालूम था कि उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया जाएगा।

तब पितामह भीष्म ने क्रोधपूर्ण लहजे में कहा कि मैं तुम्हारे इस छोटे से साम्राज्य पर चढ़ाई करूंगा और इसे समाप्त कर दूंगा। अंततः राजा सुबाल को भीष्म के आगे झुकना पड़ा और अत्यंत क्षोभ के साथ उनको अपनी सुन्दर पुत्री का विवाह अंधे राजकुमार धृतराष्ट्र के साथ करना पड़ा।

गांधारी ने भी दुखपूर्वक आजीवन आंखों पर पट्टी बांधे रखने की प्रतिज्ञा की। गांधारी से महाराज धृतराष्ट्र को 100 पुत्रों की प्राप्ति हुई थी, जो आगे चलकर कौरवों के नाम से प्रसिद्ध हुए। हालांकि वे कौरव नहीं थे।

माना जाता है कि गांधारी का विवाह महाराज धृतराष्ट्र से करने से पहले ज्योतिषियों ने सलाह दी कि गांधारी के पहले विवाह पर संकट है अत: इसका पहला विवाह किसी ओर से कर दीजिए, फिर धृतराष्ट्र से करें। इसके लिए ज्योतिषियों के कहने पर गांधारी का विवाह एक बकरे से करवाया गया था। बाद में उस बकरे की बलि दे दी गई।

कहा जाता है कि गांधारी को किसी प्रकार के प्रकोप से मुक्त करवाने के लिए ही ज्योतिषियों ने यह सुझाव दिया था। इस कारणवश गांधारी प्रतीक रूप में विधवा मान ली गईं और बाद में उनका विवाह धृतराष्ट्र से कर दिया गया। ऐसा क्यों किया इसके पीछे और भी कारण थे।

गांधारी एक विधवा थीं, यह सच्चाई बहुत समय तक कौरव पक्ष को पता नहीं चली। यह बात जब महाराज धृतराष्ट्र को पता चली तो वे बहुत क्रोधित हो उठे। उन्होंने समझा कि गांधारी का पहले किसी से विवाह हुआ था और वह न मालूम किस कारण मारा गया।

धृतराष्ट्र के मन में इसको लेकर दुख उत्पन्न हुआ और उन्होंने इसका दोषी गांधारी के पिता राजा सुबाल को माना। धृतराष्ट्र ने गांधारी के पिता राजा सुबाल को पूरे परिवार सहित कारागार में डाल दिया।

कारागार में उन्हें खाने के लिए केवल एक व्यक्ति का भोजन दिया जाता था। केवल एक व्यक्ति के भोजन से भला सभी का पेट कैसे भरता? यह पूरे परिवार को भूखे मार देने की साजिश थी। राजा सुबाल ने यह निर्णय लिया कि वह यह भोजन केवल उनके सबसे छोटे पुत्र को ही दिया जाए ताकि उनके परिवार में से कोई तो जीवित बच सके।

एक-एक करके सुबाल के सभी पुत्र मरने लगे। सब लोग अपने हिस्से का चावल शकुनि को देते थे ताकि वह जीवित रहकर कौरवों का नाश कर सके। सुबाल ने अपने सबसे छोटे बेटे शकुनि को प्रतिशोध के लिए तैयार किया। मृत्यु से पहले सुबाल ने धृतराष्ट्र से शकुनि को छोड़ने की विनती की, जो धृतराष्ट्र ने मान ली थी।

राजा सुबाल के सबसे छोटे पुत्र कोई और नहीं, बल्कि शकुनि ही थे। शकुनि ने अपनी आंखों के सामने अपने परिवार का अंत होते हुए देखा और अंत में शकुनि जिंदा बच गए।

जब कौरवों में वरिष्ठ युवराज दुर्योधन ने यह देखा कि केवल शकुनि ही जीवित बचे हैं तो उन्होंने पिता की आज्ञा से उसे क्षमा करते हुए अपने देश वापस लौट जाने या फिर हस्तिनापुर में ही रहकर अपना राज देखने को कहा। शकुनि ने हस्तिनापुर में रुकने का निर्णय लिया।

शकुनि ने हस्तिनापुर मैं सबका विश्वास जीत लिया और 100 कौरवों का अभिवावक बन बैठा। अपने विश्‍वासपूर्ण कार्यों के चलते दुर्योधन ने शकुनि को अपना मंत्री नियुक्त कर लिया।

सर्वप्रथम उसने गांधारी व धृतराष्ट्र को अपने वश में करके धृतराष्ट्र के भाई पांडु के विरुद्ध षड्‍यंत्र रचने और राजसिंहासन पर धृतराष्ट्र का आधिपत्य जमाने को कहा।

फिर धीरे-धीरे शकुनि ने दुर्योधन को अपनी बुद्धि के मोहपाश में बांध लिया। शकुनि ने न केवल दुर्योधन को युधिष्ठिर के खिलाफ भड़काया बल्कि महाभारत के युद्ध की नींव भी रखी।

यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शकुनि के पास जुआ खेलने के लिए जो पासे होते थे वह उसके मृत पिता के रीढ़ की हड्डी के थे। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात शकुनि ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख ली थीं। शकुनि जुआ खेलने में पारंगत था और उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था।

शकुनि की इस चाल के पीछे सिर्फ पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी भयंकर विनाश छिपा था, क्योंकि शकुनि ने कौरव कुल के नाश की सौगंध खाई थी और उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना मोहरा बना लिया था। शकुनि हर समय बस मौकों की तलाश में रहता था जिसके चलते कौरव और पांडवों में भयंकर युद्ध छिड़ें और कौरव मारे जाएं।

जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर का युवराज घोषित हुआ, तब शकुनि ने ही लाक्षागृह का षड्‍यंत्र रचा और सभी पांडवों को वारणावत में जिंदा जलाकर मार डालने का प्रयत्न किया। शकुनि किसी भी तरह दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत्य रहे और वह इस मुर्ख दुर्योधन की सहायता से भीष्म और कुरुकुल का विनाश कर सके अतः उसने ही पांडवो के प्रति दुर्योधन के मन में वैरभाव जगाया और उसे सत्ता का लोलुप बना दिया।

शकुनि के कारण ही महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवों व कौरवों में होने वाले विभाजन के बाद पांडवों को एक बंजर पड़ा क्षेत्र सौंपा गया था, लेकिन पांडवों ने अपनी मेहनत से उसे इंद्रप्रस्थ में बदल दिया। युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के दौरान दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला।

महल में प्रवेश करने के बाद एक विशाल कक्ष में पानी की उस भूमि को दुर्योधन ने गलती से असल भूमि समझकर उस पर पैर रख दिया और वह उस पानी में गिर गया। यह देख पांडवों की पत्नी द्रौपदी उन पर हंस पड़ीं और कहा कि ‘एक अंधे का पुत्र अंधा ही होता है’। यह सुन दुर्योधन बेहद क्रोधित हो उठा।

दुर्योधन के मन में चल रही बदले की इस भावना को शकुनि ने हवा दी और इसी का फायदा उठाते हुए उसने पासों का खेल खेलने की योजना बनाई। उसने अपनी योजना दुर्योधन को बताई और कहा कि तुम इस खेल में हराकर बदला ले सकते हो। खेल के जरिए पांडवों को मात देने के लिए शकुनि ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु पुत्रों को खेलने के लिए आमंत्रित किया और फिर शुरू हुआ दुर्योधन व युधिष्ठिर के बीच पासा फेंकने का खेल।

शकुनि पैर से लंगड़ा तो था, पर चौसर अथवा द्यूतक्रीड़ा में अत्यंत प्रवीण था। उसकी चौसर की महारथ अथवा उसका पासों पर स्वामित्व ऐसा था कि वह जो चाहता वे अंक पासों पर आते थे। एक तरह से उसने पासों को सिद्ध कर लिया था कि उसकी अंगुलियों के घुमाव पर ही पासों के अंक पूर्वनिर्धारित थे।

खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढ़ाने के लिए शकुनि ने दुर्योधन को आरंभ में कुछ पारियों की जीत युधिष्ठिर के पक्ष में चले जाने को कहा जिससे कि पांडवों में खेल के प्रति उत्साह उत्पन्न हो सके। धीरे-धीरे खेल के उत्साह में युधिष्ठिर अपनी सारी दौलत व साम्राज्य जुए में हार गए।

अंत में शकुनि ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा किया कि यदि वे अपने बाकी पांडव भाइयों व अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाएं। मजबूर होकर युधिष्ठिर ने शकुनि की बात मान ली और अंत में वे यह पारी भी हार गए। इस खेल में पांडवों व द्रौपदी का अपमान ही कुरुक्षेत्र के युद्ध का सबसे बड़ा कारण साबित हुआ।

कैसे अंत हुआ शकुनि का…

कुरुक्षेत्र के युद्ध में शकुनि ने दुर्योधन का साथ दिया था। शकुनि जितनी नफरत कौरवों से करता था उतनी ही पांडवों से, क्योंकि उसे दोनों की ओर से दुख मिला था। पांडवों को शकुनि ने अनेक कष्ट दिए। भीम ने इसे अनेक अवसरों पर परेशान किया। महाभारत युद्ध में सहदेव ने शकुनि का इसके पुत्र सहित वध कर दिया।
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देव शर्मा

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

दिल को छू लेने वाली सच्चाई एक बार अवश्य पढ़ें।

रेलवे स्टेशन के बाहर सड़क के किनारे कटोरा लिए एक भिखारी लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने कटोरे में पड़े सिक्कों को हिलाता रहता और साथ-साथ यह गाना भी गाता जाता –
गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा -२
तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा
गरीबों की सुनो …”

कटोरे से पैदा हुई ध्वनि व उसके गीत को सुन आते-जाते मुसाफ़िर उसके कटोरे में सिक्के डाल देते।

सुना था, इस भिखारी के पुरखे शहर के नामचीन लोग थे! इसकी ऐसी हालत कैसे हुई यह अपने आप में शायद एक अलग कहानी हो!

आज भी हमेशा की तरह वह अपने कटोरे में पड़ी चिल्हर को हिलाते हुए, ‘ग़रीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा….’ वाला गीत गा रहा था। तभी एक व्यक्ति भिखारी के पास आकर एक पल के लिए ठिठकर रुक गया। उसकी नजर भिखारी के कटोरे पर थी फिर उसने अपनी जेब में हाथ डाल कुछ सौ-सौ के नोट गिने। भिखारी उस व्यक्ति को इतने सारे नोट गिनता देख उसकी तरफ टकटकी बाँधे देख रहा था कि शायद कोई एक छोटा नोट उसे भी मिल जाए।

तभी उस व्यक्ति ने भिखारी को संबोधित करते हुए कहा, “अगर मैं तुम्हें हजार रुपये दूं तो क्या तुम अपना कटोरा मुझे दे सकते हो?”

भिखारी अभी सोच ही रहा था कि वह व्यक्ति बोला, “अच्छा चलो मैं तुम्हें दो हजार देता हूँ!”

भिखारी ने अचंभित होते हुए अपना कटोरा उस व्यक्ति की ओर बढ़ा दिया और वह व्यक्ति कुछ सौ-सौ के नोट उस भिखारी को थमा उससे कटोरा ले अपने बैग में डाल तेज कदमों से स्टेशन की ओर बढ़ गया।

इधर भिखारी भी अपना गीत बंद कर वहां से ये सोच कर अपने रास्ते हो लिया कि कहीं वह व्यक्ति अपना मन न बदल ले और हाथ आया इतना पैसा हाथ से निकल जाए। और भिखारी ने इसी डर से फैसला लिया अब वह इस स्टेशन पर कभी नहीं आएगा – कहीं और जाएगा!

रास्ते भर भिखारी खुश होकर यही सोच रहा था कि ‘लोग हर रोज आकर सिक्के डालते थे , पर आज दौ हजार में कटोरा! वह कटोरे का क्या करेगा?’ भिखारी सोच रहा था?

उधर दो हजार में कटोरा खरीदने वाला व्यक्ति अब रेलगाड़ी में सवार हो चुका था। उसने धीरे से बैग की ज़िप्प खोल कर कटोरा टटोला – सब सुरक्षित था। वह पीछे छुटते नगर और स्टेशन को देख रहा था। उसने एक बार फिर बैग में हाथ डाल कटोरे का वजन भांपने की कोशिश की। कम से कम आधा किलो का तो होगा!

उसने जीवन भर धातुओं का काम किया था। भिखारी के हाथ में वह कटोरा देख वह हैरान हो गया था। सोने का कटोरा! …..और लोग डाल रहे थे उसमें एक-दो के सिक्के!

उसकी सुनार वाली आँख ने धूल में सने उस कटोरे को पहचान लिया था। ना भिखारी को उसकी कीमत पता थी और न सिक्का डालने वालों को पर वह तो जौहरी था, सुनार था।

भिखारी दो हजार में खुश था और जौहरी कटोरा पाकर! उसने लाखों की कीमत का कटोरा दो हजार में जो खरीद लिया था।

हम भी अपने अनमोल इंसानी जामे की उपयोगिता भूले बैठे है और उसे एक सामान्य कटोरे की भाँति समझ कर खटका कर कौड़ियां इक्कट्ठे करने में लगे हुए हैं।

संजय गुप्ता

Posted in लक्ष्मी प्राप्ति - Laxmi prapti

झाड़ू में धन की देवी महालक्ष्मी का वास !!!!!!

पौराणिक शास्त्रों में कहा गया है कि जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है वहां धन हानि होती है, क्योंकि झाड़ू में धन की देवी महालक्ष्मी का वास माना गया है।

विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है। झाड़ू घर का कचरा बाहर करती है और कचरे को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है। जिस घर में पूरी साफ-सफाई रहती है वहां धन, संपत्ति और सुख-शांति रहती है। इसके विपरित जहां गंदगी रहती है वहां दरिद्रता का वास होता है।

ऐसे घरों में रहने वाले सभी सदस्यों को कई प्रकार की आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसी कारण घर को पूरी तरह साफ रखने पर जोर दिया जाता है ताकि घर की दरिद्रता दूर हो सके और महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त हो सके। घर से दरिद्रता रूपी कचरे को दूर करके झाड़ू यानि महालक्ष्मी हमें धन-धान्य, सुख-संपत्ति प्रदान करती है।

वास्तु विज्ञान के अनुसार झाड़ू सिर्फ घर की गंदगी को दूर नहीं करती है बल्कि दरिद्रता को भी घर से बाहर निकालकर घर में सुख समृद्घि लाती है। झाड़ू का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि रोगों को दूर करने वाली शीतला माता अपने एक हाथ में झाड़ू धारण करती हैं।

यदि भुलवश झाड़ू को पैर लग जाए तो महालक्ष्मी से क्षमा की प्रार्थना कर लेना चाहिए।जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए।
ऐसे ही झाड़ू के कुछ सतर्कता के नुस्खे अपनाये गये उनमें से आप सभी मित्रों के समक्ष हैं जैसे :-

शाम के समय सूर्यास्त के बाद झाड़ू नहीं लगाना चाहिए इससे आर्थिक परेशानी आती है।

झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए, इससे कलह होता है।

आपके अच्छे दिन कभी भी खत्म न हो, इसके लिए हमें चाहिए कि हम गलती से भी कभी झाड़ू को पैर नहीं लगाए या लात ना लगने दें, अगर ऐसा होता है तो मां लक्ष्मी रुष्ठ होकर हमारे घर से चली जाती है।

झाड़ू हमेशा साफ रखें ,गिला न छोडे ।

ज्यादा पुरानी झाड़ू को घर में न रखें।

झाड़ू को कभी घर के बाहर बिखराकर ना फेके और इसको जलाना भी नहीं चाहिए।

झाड़ू को कभी भी घर से बाहर अथवा छत पर नहीं रखना चाहिए। ऐसा करना अशुभ माना जाता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से घर में चोरी की वारदात होने का भय उत्पन्न होता है। झाड़ू को हमेशा छिपाकर रखना चाहिए। ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहां से झाड़ू हमें, घर या बाहर के किसी भी सदस्यों को दिखाई नहीं दें।

गौ माता या अन्य किसी भी जानवर को झाड़ू से मारकर कभी भी नहीं भगाना चाहिए।

घर-परिवार के सदस्य अगर किसी खास कार्य से घर से बाहर निकले हो तो उनके जाने के उपरांत तुरंत झाड़ू नहीं लगाना चाहिए। यह बहुत बड़ा अपशकुन माना जाता है। ऐसा करने से बाहर गए व्यक्ति को अपने कार्य में असफलता का मुंह देखना पड़ सकता है।

शनिवार को पुरानी झाड़ू बदल देना चाहिए।

सपने मे झाड़ू देखने का मतलब है नुकसान।

*घर के मुख्य दरवाजा के पीछे एक छोटी झाड़ू टांगकर रखना चाहिए। इससे घर में लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।

पूजा घर के ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्वी कोने में झाडू व कूड़ेदान आदि नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से घर में नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है और घर में बरकत नहीं रहती है इसलिए वास्तु के अनुसार अगर संभव हो तो पूजा घर को साफ करने के लिए एक अलग से साफ कपड़े को रखें।

जो लोग किराये पर रहते हैं वह नया घर किराये पर लेते हैं अथवा अपना घर बनवाकर उसमें गृह प्रवेश करते हैं तब इस बात का ध्यान रखें कि आपका झाड़ू पुराने घर में न रह जाए। मान्यता है कि ऐसा होने पर लक्ष्मी पुराने घर में ही रह जाती है और नए घर में सुख-समृद्घि का विकास रूक जाता है।*

संजय गुप्ता