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नव नंदन प्रसाद

आडम्बर

किसी समय में एक बड़े प्रतापी राजा थे । दरबार से लेकर कोष तक , सब एक से बढ़ कर एक रत्नों से भरा था । दुर्भाग्य से उनके ललाट पर फोड़ा हो गया । राजवैद्य ने खूब उपचार किये लेकिन फोड़ा ठीक होने की बजाय और बड़ा होता जा रहा था ।

राज्य के अधिकारीगण से लेकर सेवक तक , सभी परेशान कि क्या उपाय करें जिससे महाराज ठीक हों ? लेकिन निराशा के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा । एक रात राजा पीड़ा से इतने व्याकुल हुए कि शयनकक्ष से उठकर पागलों की भाँति भाग निकले। सारे पहरेदार गहरी नींद में थे , किसी को राजा के महल से बाहर जाने की भनक तक न लगी ।

राजा जितना भागते पीड़ा उतनी बढ़ती , ये और भागते पीड़ा और बढ़ती । इसी दौड़ भाग में वो जंगल पहुँच गए , एक सो रहे साधु के पैर पर उनका पैर पड़ा और उसने गुस्से में पास पड़ी एक लकड़ी उनको लक्ष्य करके दे मारी ।

लकड़ी राजा के पाँव में लगी , वे मुँह के बल गिरे और भीषण चित्कार करते हुए मुर्च्छित हो गए ।

सुबह नींद खुली तो आश्चर्य का ठिकाना न था । अब से पहले हर सुबह भयानक दर्द लेकर आती थी लेकिन आज उसका नामोनिशान तक न था । सामने पड़े पत्थर पर दृष्टि गई , देखा कि उस पर बहुत सारा मवाद फैला हुआ है ।

एक आवाज आई – ” क्या सोच रहे हो राजन ? लकड़ी मैंने ही तुम्हें मारी थी । ये कुछ औषधियां हैं , इनका लेप घाव वाले स्थान पर करवाते रहना , एकदम ठीक हो जाओगे ।”

राजा ने पलटकर देखा । अस्त व्यस्त कपड़ों में एक जटाजूटधारी साधु महाराज वज्रासन में बैठे हैं । हाथ जोड़कर बोले – ” हे महात्मन ! आपकी वजह से आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है । यह जीवन अब आपका है , मेरे लिए कोई सेवा बताएं ।”

साधु मुस्कुराये – ” जीवन विधाता की देन है , तुम्हारा शेष था इसलिये लाख कुकर्मों के बाद भी अभी जीवित हो “

राजा स्वयं के लिए कुकर्मी संबोधन सुनकर थोड़े व्यथित हुए किन्तु जिस असह्य पीड़ा से मुक्त हुए थे उसके कारक के प्रति कृतज्ञता का भाव ज्यादा सबल था – ” आपने सत्य कहा भगवन ! लेकिन इस नवजीवन के माध्यम आप बने , मैं चाहता हूँ कि आप इस निर्जन वन से निकल कर मेरे महल में चलें , वहाँ आपको नाना प्रकार की सुख सुविधाएं मिलेंगी , कोई कष्ट न होगा ।”

साधु ने अट्टहास किया – “वाह रे पापी ! तुझे कैसे पता कि मैं यहाँ कष्ट में हूँ ? उसी महल में तो तू भी रहता है न ,फिर क्यों पागलों की भाँति भाग निकला ? “

राजा अब थोड़े विचलित हुए, लेकिन विनय का आश्रय नहीं छोड़ा – ” आप को शायद ज्ञात न हो , मेरी सभा विश्व के प्रतिष्ठित विद्वानों और हर कला में दक्ष व्यक्तियों से सुसज्जित है । आपके वहाँ जाने से मेरी सभा का गौरव और बढ़ेगा , हर तरह का भय और शोक जाता रहेगा ।”

साधु ने आँखें तरेरीं – “अर्थात काल को बाँधने की सोच रहा है ? ईश्वर की व्यवस्था को चुनौती देना चाहता है ? “

-” नहीं नहीं महाराज ! मैं तो राजा के दायित्व का निर्वहन करना चाह रहा हूँ । मैं और मेरी प्रजा आपके मार्गदर्शन में सत्य और सदाचार के पथ पर चलेंगे “

साधु क्रोधित दिखे – ” रे हतबुद्धि ! तुझे प्रदर्शन से प्रेम है सत्य से नहीं । सत्य कड़वा और निर्दयी होता है , तू इतना सामर्थ्यवान नहीं कि उसे झेल सके ।”

राजा मौन हो सुनते रहे , साधु ने बोलना चालू रखा – ” तेरी मनोदशा तेरे लोग अच्छी तरह जानते हैं , उन्हें पता है कि आडम्बर तुझे आकर्षित करते हैं , अतः तेरा जीवन ही आडम्बर होकर रह गया है । तेरा राजवैद्य सक्षम था तेरा रोग दूर करने में , लेकिन उसे यह भी पता था कि तुझे कड़वी औषधियों से चिढ़ है अतः उसने तुझे ऐसी औषधियां दीं जो तुझे सुस्वादु लगें । फलतः मधु मिश्रित औषधियों के सेवन से तेरा रोग घटने के स्थान पर बढ़ता गया । तुझे लगता है कि तूने हरी चटनी के साथ रोटी खाई तो युद्ध जीता , जबकि सत्य यह है कि वह विजय तेरे सैनिकों की वीरता का परिणाम था । अभी भी समय है , आडम्बर से बाहर निकल वरना पाखंडियों और व्यवसायियों के कारण तू अपने साथ – साथ सबके समूल नाश का कारण बनेगा ।”

राजा ने अपना मस्तक साधु के चरणों में पटक दिया – ” हे भगवन ! मैं अंधा हो गया था , मुझे क्षमा करें , मुझे अपनी शरण में लें ।”

कोई आवाज नहीं आई । राजा ने सिर उठाकर देखा , साधु का कहीं पता न था , वो अपना दायित्व पूरा करके जा चुके थे ।

(चित्र गूगल से)

— Ashish Tripathi जी

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