1926 से लेकर 2014 तक के 88 सालों में कांग्रेस ये अखबार नहीं ढूंढ पाई और वर्तमान मोदी सरकार ने ये सच दुनियां को बता दिया कि 1857 की क्रांति कोई विद्रोह नहीं था बल्कि रानी लक्ष्मीबाई को अमेरिका के उस अखबार ने मई 1926 में….Heroine of the war of independence of 1857. बताया है जो एक fact है।……….आजादी की लड़ाई के महारथी..
विदेशी आक्रमणकारियों की भारत विजय अभियान के दौरान दिल्ली सल्तनत पर जब गुलाम वंश का शासन हुआ तो भारत में इस्लामी प्रचार और प्रसार का दौर शुरू हुआ जिसमें मुख्यतः वैदिक हिंदू संरचनाओं और मंदिरो को नष्ट-भ्रष्ट कर उनके ध्वंसावशेषों से मस्जिदों और मकबरों का निर्माण कर उनका इस्लामिकरण करना था और यह दौर मुगल काल के अंतिम शासक तक अनवरत रुप से जारी रहा।
इसी क्रम में ध्रुव स्तंभ जिसे आज कुतुबमीनार कहा जाता है, का भी इस्लामिकरण होना स्वाभाविक था। कुतुबुद्दीन ऐबक एक अभिलेख छोड़ कर गया है जिसमें उसके द्वारा उन सभी 27 नक्षत्रिय मंदिरों जो कि ध्रुव स्तंभ के साथ और उसके आसपास चारों तरफ थे, को तोड़कर कुव्वत उल इस्लाम नामक एक मस्जिद बनवाने का उल्लेख है किंतु उस अभिलेख में उसके द्वारा कुछ भी नया बनवाने का उल्लेख नही है।
आधुनिककाल में ध्रुव स्तंभ को कुतुबमीनार नाम से जानने का मुख्य कारण भाषा का अंतर और वामपंथी इतिहासकारों द्वारा विदेशी आक्रमणकारियों को निर्माता होने का झूठा श्रेय देना है। फारसी में ध्रुव को “कुतुब” और स्तंभ को “मीनार” कहा जाता है। इस वजह से विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा भारत विजयोपरांत फारसी में इसका संयुक्त नामकरण “कुतुबमीनार” हुआ। कालांतर में कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम से समानता पाये जाने पर वामपंथी इतिहासकारों ने यह दुष्प्रचार किया कि ध्रुव स्तंभ का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक और तत्पश्चात इलतुत्तमिश ने करवाया था।
इसी तरह के कई भ्रम आज हमारी आधुनिक इतिहास की किताबों में भर दिये गये है और तोता रटंत की तरह सभी युनिवर्सिटीज़ में इस भ्रामक तथ्य का प्रचार किया जा रहा है।
वस्तुतः ध्रुव स्तंभ “एक नक्षत्रिय वेधशाला” और 27 नक्षत्रिय मंदिरो सहित संपूर्ण परिसर जो कि भगवान विष्णु को समर्पित एक मंदिर था, की रचना सम्राट विक्रमादित्य द्वारा आक्रमणकारी शकों और नेपाल पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में की थी। इस महान विजय और विक्रम संवत की स्थापना के उपलक्ष्य में सम्राट विक्रमादित्य एक ऐसे स्मारक का निर्माण करवाना चाहते थे जो कि उनकी कीर्ति का यशोगान चारो दिशाओं में करें। सुप्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री वाराहमिहिर के अनुमोदन पर सम्राट विक्रमादित्य ने एक ऐसे स्मारक को बनवाने का प्रण किया जो उनकी महाविजय के स्मृति चिन्ह के साथ साथ खगोलशास्त्र का भी अपूर्व उदाहरण हो।
सम्राट विक्रमादित्य द्वारा अधर्म पर धर्म की विजय होने के उपलक्ष्य में महाभारत काल के चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर की राजधानी इंद्रप्रस्थ को ध्रुव स्तंभ की स्थापना के लिये चुना गया था।
ग्रहों, नक्षत्रों और तारों का अध्ययन करने के लिये यहाँ पर 27 छोटे छोटे भवन (मंदिर) बनवाये गये थे जो 27 नक्षत्रों के प्रतीक थे और मध्य में विष्णुस्तम्भ था, जिसे ध्रुव स्तम्भ भी कहा जाता था। इसी ध्रुवस्तंभ संकुल में कुछ दूरी पर एक लौहस्तंभ है जिसपर ब्राह्मी लिपी में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की महाविजय अंकित है। इस लौह स्तंभ को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) ने भगवान विष्णु के सम्मान में विष्णुपद के रुप में स्थापित करवाया था।
प्राचीन भारत में गया स्थित “विष्णुपद मंदिर” और उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर काल गणना, समय मापन और तिथि निर्धारण के दो महत्वपूर्ण स्थान थे जहां से इंद्रप्रस्थ और शेष भारत का शून्य समय मापन निर्धारित किया जाता था और इंद्रप्रस्थ से गया की सीधी दूरी जो लगभग 800 कि.मी. है, का ध्रुवस्तंभ के निर्माण में वैज्ञानिक और गणितीय कारण था।
ध्रुव स्तम्भ द्वारा पृथ्वी की परिधि की गणना भी इसी जटिल वैदिक खगोलशास्त्र का एक भाग मात्र है। ध्रुव स्तम्भ की ऊंचाई की गणना इस तरह से की गई है कि दिन के एक विशेष प्रहर में इसकी परछाई से ऊंचाई का अनुपात 1:8 होता है।
अब यदि चित्रानुसार ध्रुव स्तम्भ की ऊंचाई b और परछाई a और विकर्ण c मानते है और पृथ्वी की त्रिज्या C और B मानते है और A इंद्रप्रस्थ से गया की सीधी भौगोलिक दूरी लगभग 800 कि.मी..मानते है तो अंतर समानांतर के नियमानुसार –
a/b = A/B,
चूंकि b=8a
इस प्रकार B = 8A
अब चूकिं हमारे पास A का मान 800 कि.मी. है तो पृथ्वी की त्रिज्या का माप 8×800 कि.मी. = 6400 कि.मी. आता है। इस तरह से पृथ्वी की परिधि की गणना 2xPIxR = (2×3.14×6400) सूत्र से करने पर परिणाम 40,192 कि.मी. आता है जो कि आधुनिक गणना के परिणाम 40,075 कि.मी. से काफी समानता रखता है।
इसी प्रकार प्राचीन वैदिक भारत में अन्य खगोलीय गणनाएं जैसे कि सूर्य-चंद्र और अन्य नक्षत्रों के व्यास, पृथ्वी से अन्य ग्रहों और खगोलीय पिंडो की दूरी, पृथ्वी की दैनिक और वार्षिक गति, चन्द्रमा की कलाओं आदि की गणना ध्रुव स्तंभ की सहायता से की जाती थी।
गणित, खगोल, और अन्यान्य वैदिक शास्त्रों की सिद्धता और उन पर एकाधिकार प्राप्त करने के लिये कई हजारों वर्षों के वैज्ञानिक अनुसंधान, वैचारिक मंथन, विश्वकल्याण की भावना और कड़ी तपस्या की आवश्यकता होती है जो केवल वैदिक सनातन संस्कृति द्वारा ही संभव है।
क्या आप अब भी एक निरक्षर दास और विदेशी आक्रमणकारी को इस जटिल गणितीय और खगोलीय संरचना का वास्तविक निर्माता मानते है??
इसका निर्माण आज से 1800 साल पहले चोल राजाओं ने करवाया था। इस मंदिर में एक रहस्यमयी भूमिगत जलस्त्रोत है जिसकी वजह से मंदिर में कभी पानी की कमी नहीं पड़ती। अगर आधुनिक उपकरणों के अभाव में भी हमारे पूर्वजों ने इसे निर्मित किया तो फिर उन्नत कौन हुआ? ✨
दिनांक 04 मई 1649 ईस्वी को महाराजा छत्रसाल का जन्म हुआ था।
कम आयु में ही अनाथ हो गए वीर बालक छत्रसाल ने छत्रपति शिवाजी से प्रभावित होकर अपनी छोटी सी सेना बनाई और मुगल बादशाह औरंगजेब से जमकर लोहा लिया और मुग़लो के सबसे ताकतवर काल में उनकी नाक के नीचे एक बड़े भूभाग को जीतकर एक विशाल स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
बुन्देलखंड की भूमि प्राकृतिक सुषमा और शौर्य पराक्रम की भूमि है, जो विंध्याचल पर्वत की पहाड़ियों से घिरी है। चंपतराय जिन्होंने बुन्देलखंड में बुन्देला राज्य की आधार शिला रखी थी, महाराज छत्रसाल ने उस बुन्देला राज्य को ना केवल पुनर्स्थापित किया बल्कि उसका विस्तार कर के उसे समृद्धि प्रदान की।
====जीवन परिचय====
महाराजा छत्रसाल का जन्म गहरवार (गहड़वाल) वंश की बुंदेला शाखा के राजपूतो में हुआ था,काशी के गहरवार राजा वीरभद्र के पुत्र हेमकरण जिनका दूसरा नाम पंचम सिंह गहरवार भी था,वो विंध्यवासिनी देवी के अनन्य भक्त थे,जिस कारण उन्हें विन्ध्य्वाला भी कहा जाता था,इस कारण राजा हेमकरण के वंशज विन्ध्य्वाला या बुंदेला कहलाए,हेमकर्ण की वंश परंपरा में सन 1501 में ओरछा में रुद्रप्रताप सिंह राज्यारूढ़ हुए, जिनके पुत्रों में ज्येष्ठ भारतीचंद्र 1539 में ओरछा के राजा बने तब बंटवारे में राव उदयजीत सिंह को महेबा (महोबा नहीं) का जागीरदार बनाया गया, इन्ही की वंश परंपरा में चंपतराय महेबा गद्दी पर आसीन हुए।
चम्पतराय बहुत ही वीर व बहादुर थे। उन्होंने मुग़लो के खिलाफ बगावत करी हुई थी और लगातार युद्धों में व्यस्त रहते थे। चम्पतराय के साथ युद्ध क्षेत्र में रानी लालकुँवरि भी साथ ही रहती थीं और अपने पति को उत्साहित करती रहती थीं। छत्रसाल का जन्म दिनांक 04 मई 1649 ईस्वी को पहाड़ी नामक गाँव में हुआ था। गर्भस्थ शिशु छत्रसाल तलवारों की खनक और युद्ध की भयंकर मारकाट के बीच बड़े हुए। यही युद्ध के प्रभाव उनके जीवन पर असर डालते रहे और माता लालकुँवरि की धर्म व संस्कृति से संबंधित कहानियाँ बालक छत्रसाल को बहादुर बनाती रहीं।
छत्रसाल के पिता चंपतराय जब मुग़ल सेना से घिर गये तो उन्होंने अपनी पत्नी ‘रानी लाल कुंवरि’ के साथ अपनी ही कटार से प्राण त्याग दिये, किंतु मुग़लों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया।
छत्रसाल उस समय चौदह वर्ष की आयु के थे। क्षेत्र में ही उनके पिता के अनेक दुश्मन थे जो उनके खून के प्यासे थे। इनसे बचते हुए और युद्ध की कला सीखते हुए उन्होंने अपना बचपन बिताया। अपने बड़े भाई ‘अंगद राय’ के साथ वह कुछ दिनों मामा के घर रहे, किंतु उनके मन में सदैव मुग़लों से बदला लेकर पितृ ऋण से मुक्त होने की अभिलाषा थी। बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा। अपने पिता के वचन को ही पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या ‘देवकुंवरि’ से विवाह किया। महारानी देवकुंवरि पंवार के अलावा महाराजा छत्रसाल ने कई विवाह और किये और उनकी अनेक विजातीय दासी रखतें भी थी। उनकी एक मुस्लिम दासी रखत से पुत्री की प्राप्ति हुई जिसका नाम मस्तानी था।
====छत्रपति शिवाजी से सम्पर्क और ओरंगजेब से संघर्ष=====
दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे। अंगद राय ने जब सैनिक बनकर राजा जयसिंह के यहाँ कार्य करना चाहा तो छोटे भाई छत्रसाल को यह सहन नहीं हुआ। छत्रसाल ने अपनी माता के कुछ गहने बेचकर एक छोटी सा सैनिक दल तैयार करने का विचार किया। छोटी सी पूंजी से उन्होंने 30 घुड़सवार और 347 पैदल सैनिकों का एक दल बनाया और मुग़लों पर आक्रमण करने की तैयारी की। 22 वर्ष की आयु में छत्रसाल युद्ध भूमि में कूद पड़े। छत्रसाल बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने पहले ऐसे लोगों को हटाया जो मुग़लों की मदद कर रहे थे।
सन 1668 ईस्वी में उन्होंने दक्षिण में छत्रपति शिवाजी से भेट की,शिवाजी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें वापस बुंदेलखंड जाकर मुगलों से अपनी मात्रभूमि स्वतंत्र कराने का निर्देश दिया,
शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियों का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुग़लन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषें।
छत्रसाल ने वापिस अपने गृह क्षेत्र आकर मुग़लो के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत कर दी। इसमें उनको गुरु प्राणनाथ का बहुत साथ मिला। दक्षिण भारत में जो स्थान समर्थगुरु रामदास का है वही स्थान बुन्देलखंड में ‘प्राणनाथ’ का रहा है, प्राणनाथ छत्रसाल के मार्ग दर्शक, अध्यात्मिक गुरु और विचारक थे.. जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता से, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया। .
छत्रसाल ने पहला युद्ध अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों से किया हाशिम खां को मार डाला और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बाँटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बाँसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए। ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता।
ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रुहल्ला खां के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा।
बार बार युद्ध करने के बाद भी औरंगज़ेब छत्रसाल को पराजित करने में सफल नहीं हो पाया। छत्रसाल को मालूम था कि मुग़ल छलपूर्ण घेराबंदी में सिद्धहस्त है। उनके पिता चंपतराय मुग़लों से धोखा खा चुके थे। छत्रसाल ने मुग़ल सेना से इटावा, खिमलासा, गढ़ाकोटा, धामौनी, रामगढ़, कंजिया, मडियादो, रहली, रानगिरि, शाहगढ़, वांसाकला सहित अनेक स्थानों पर लड़ाई लड़ी और मुग़लों को धूल चटाई। छत्रसाल की शक्ति निरंतर बढ़ती गयी। बन्दी बनाये गये मुग़ल सरदारों से छत्रसाल ने दंड वसूला और उन्हें मुक्त कर दिया। धीरे धीरे बुन्देलखंड से मुग़लों का एकछत्र शासन छत्रसाल ने समाप्त कर दिया।
छत्रसाल के शौर्य और पराक्रम से आहत होकर मुग़ल सरदार तहवर ख़ाँ, अनवर ख़ाँ, सहरूदीन, हमीद बुन्देलखंड से दिल्ली का रुख़ कर चुके थे। बहलोद ख़ाँ छत्रसाल के साथ लड़ाई में मारा गया और मुराद ख़ाँ, दलेह ख़ाँ, सैयद अफगन जैसे सिपहसलार बुन्देला वीरों से पराजित होकर भाग गये थे।
====राज्याभिषेक और राज्य विस्तार====
छत्रसाल के राष्ट्र प्रेम, वीरता और हिन्दूत्व के कारण छत्रसाल को भारी जन समर्थन प्राप्त था। छत्रसाल ने एक विशाल सेना तैयार कर ली जिसमे क्षेत्र के सभी राजपूत वंशो के योद्धा शामिल थे। इसमें 72 प्रमुख सरदार थे। वसिया के युद्ध के बाद मुग़लों ने भी छत्रसाल को ‘राजा’ की मान्यता प्रदान कर दी थी। उसके बाद महाराजा छत्रसाल ने ‘कालिंजर का क़िला’ भी जीता और मांधाता चौबे को क़िलेदार घोषित किया। छत्रसाल ने 1678 में पन्ना में अपनी राजधानी स्थापित की और विक्रम संवत 1744 मे योगीराज प्राणनाथ के निर्देशन में छत्रसाल का राज्याभिषेक किया गया।
छत्रसाल के गुरु प्राणनाथ आजीवन हिन्दू मुस्लिम एकता के संदेश देते रहे। उनके द्वारा दिये गये उपदेश ‘कुलजम स्वरूप’ में एकत्र किये गये। पन्ना में प्राणनाथ का समाधि स्थल है जो अनुयायियों का तीर्थ स्थल है। प्राणनाथ ने इस अंचल को रत्नगर्भा होने का वरदान दिया था। किंवदन्ती है कि जहाँ तक छत्रसाल के घोड़े की टापों के पदचाप बनी वह धरा धनधान्य, रत्न संपन्न हो गयी। छत्रसाल के विशाल राज्य के विस्तार के बारे में यह पंक्तियाँ गौरव के साथ दोहरायी जाती है-
‘इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोस छत्रसाल सों लरन की रही न काहू हौस।’
बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल के समय में बुंदेलखंड की सीमायें अत्यंत व्यापक हो गई। इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्य प्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला, मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड और मोण्डेर के ज़िले और परगने शामिल थे। छत्रसाल ने लगातार युद्धों और आपस में लूट मार से त्रस्त इस पिछड़े क्षेत्र को एक क्षत्र के निचे लाकर वहॉ शांति स्थापित की जिससे बुंदेलखंड का पहली बार इतना विकास संभव हो सका।
छत्रसाल का राज्य प्रसिद्ध चंदेल महाराजा कीर्तिवर्धन से भी बड़ा था। कई शहर भी इन्होंने ही बसाए जिनमे छतरपुर शामिल है। छत्रसाल तलवार के धनी थे और कुशल शस्त्र संचालक थे। वह शस्त्रों का आदर करते थे। लेकिन साथ ही वह विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे और स्वयं भी बहुत विद्वान थे। वह उच्च कोटि के कवि भी थे, जिनकी भक्ति तथा नीति संबंधी कविताएँ ब्रजभाषा में प्राप्त होती हैं। इनके आश्रित दरबारी कवियों में भूषण, लालकवि, हरिकेश, निवाज, ब्रजभूषण आदि मुख्य हैं। भूषण ने आपकी प्रशंसा में जो कविताएँ लिखीं वे ‘छत्रसाल दशक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ‘छत्रप्रकाश’ जैसे चरितकाव्य के प्रणेता गोरेलाल उपनाम ‘लाल कवि’ आपके ही दरबार में थे। यह ग्रंथ तत्कालीन ऐतिहासिक सूचनाओं से भरा है, साथ ही छत्रसाल की जीवनी के लिए उपयोगी है। उन्होंने कला और संगीत को भी बढ़ावा दिया, बुंदेलखंड में अनेको निर्माण उन्होंने करवाए। छत्रसाल धार्मिक स्वभाव के थे। युद्धभूमि में व शांतिकाल में दैनिक पूजा अर्चना करना छत्रसाल का कार्य रहा।
====कवि भूषण द्वारा छत्रसाल की प्रशंसा====
कविराज भूषण ने शिवाजी के दरबार में रहते हुए छत्रसाल की वीरता और बहादुरी की प्रशंसा में अनेक कविताएँ लिखीं। ‘छत्रसाल दशक’ में इस वीर बुंदेले के शौर्य और पराक्रम की गाथा गाई गई है।
छत्रसाल की प्रशंसा करते हुए कवि भूषण दुविधा में पड़ गये और लिखा कि—–
“और राव राजा एक,मन में लायुं अब ,
शिवा को सराहूँ या सराहूँ छत्रसाल को”
====मुगल सेनापति बंगश का हमला और पेशवा बाजीराव का सहयोग====
महाराज छत्रसाल अपने समय के महान शूरवीर, संगठक, कुशल और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल को अपने जीवन की संध्या में भी आक्रमणों से जूझना पडा।सन 1729 में सम्राट मुहम्मद शाह के शासन काल में प्रयाग के सूबेदार बंगस ने छत्रसाल पर आक्रमण किया। उसकी इच्छा एरच, कौच, सेहुड़ा, सोपरी, जालोन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुग़लों से लड़ने में दतिया, सेहुड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। उनका पुत्र हृदयशाह भी उदासीन होकर अपनी जागीर में बैठा रहा। तब छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा –
‘जो गति मई गजेन्द्र की सोगति पहुंची आय
बाजी जात बुन्देल की राखो बाजीराव’
बाजीराव सेना सहित सहायता के लिये पहुंचा और उसने बंगस को 30 मार्च 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हार कर वापिस लौट गया।
4 अप्रैल 1729 को छत्रसाल ने विजय उत्सव मनाया। इस विजयोत्सव में बाजीराव का अभिनन्दन किया गया और बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र स्वीकार कर मदद के बदले अपने राज्य का तीसरा भाग बाजीराव पेशवा को सौंप दिया, जिस पर पेशवा ने अपनी ब्राह्मण जाति के लोगो को सामन्त नियुक्त किया।
प्रथम पुत्र हृदयशाह पन्ना, मऊ, गढ़कोटा, कालिंजर, एरिछ, धामोनी इलाका के जमींदार हो गये जिसकी आमदनी 42 लाख रू. थी।
दूसरे पुत्र जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, नांदा, सरिला, इलाका सौपा गया जिसकी आय 36 लाख थी।
बाजीराव पेशवा को काल्पी, जालौन, गुरसराय, गुना, हटा, सागर, हृदय नगर मिलाकर 33 लाख आय की जागीर सौपी गयी।
=====निधन====
छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया।
इस वीर बहादुर छत्रसाल का 83 वर्ष की अवस्था में 13 मई 1731 ईस्वी को मृत्यु हो गयी। छत्रसाल के लिए कहावत है –
‘छत्ता तेरे राज में,
धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुख करे,
तित-तित फत्ते होय।’
मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है-
‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
एक गरीब ब्राह्मण था। उसको अपनी कन्या का विवाह करना था। उसने विचार किया कि कथा करने से कुछ पैसा आ जायेगा तो काम चल जायेगा। ऐसा विचार करके उसने भगवान् राम के एक मंदिर में बैठ कर कथा आरम्भ कर दी। उसका भाव यह था कि कोई श्रोता आये, चाहे न आये पर भगवान् तो मेरी कथा सुनेंगे ! पंडित जी की कथा में थोड़े से श्रोता आने लगे। एक बहुत कंजूस सेठ था। एक दिन वह मंदिर में आया। जब वह मंदिर कि परिक्रमा कर रहा था, तब भीतर से कुछ आवाज आई। ऐसा लगा कि दो व्यक्ति आपस में बात कर रहे हैं। सेठ ने कान लगा कर सुना, भगवान् राम हनुमान जी से कह रहे थे कि इस गरीब ब्राह्मण के लिए सौ रूपए का प्रबंध कर देना, जिससे कन्यादान ठीक हो जाये। हनुमान जी ने कहा ठीक है महाराज ! इसके सौ रूपए कल हो जायेंगे। सेठ ने यह सुना तो वह कथा समाप्ति के बाद पंडित जी से मिले और उनसे कहा कि महाराज ! कथा में रूपए आ रहें कि नहीं ? पंडित जी बोले श्रोता बहुत कम आते हैं तो रूपए कैसे आयेंगे। सेठ ने कहा कि मेरी एक शर्त है- कथा में जितना पैसा आये वह मेरे को दे देना और मैं आप को पचास रूपए दे दूँगा। पंडित जी ने सोचा कि उसके पास कौन से इतने पैसे आते हैं पचास रूपए तो मिलेंगे, पंडित जी ने सेठ कि बात मान ली। उन दिनों पचास रूपए बहुत सा धन होता था। इधर सेठ कि नीयत थी कि भगवान् कि आज्ञा का पालन करने हेतु हनुमान जी सौ रूपए पंडित जी को जरूर देंगे। मुझे सीधे-सीधे पचास रूपए का फायदा हो रहा है। जो लोभी आदमी होते हैं वे पैसे के बारे में ही सोचते हैं। सेठ ने भगवान् जी कि बातें सुनकर भी भक्ति कि और ध्यान नहीं दिया बल्कि पैसे कि और आकर्षित हो गए। अब सेठ जी कथा के उपरांत पंडित जी के पास गए और उनसे कहने लगे कि कितना रुपया आया है। सेठ के मन विचार था कि हनुमान जी सौ रूपए तो भेंट में जरूर दिलवाएंगे। मगर पंडित जी ने कहा कि पांच सात रूपए ही आये हैं। अब सेठ को शर्त के मुताबिक पचास रूपए पंडित जी को देने पड़े। सेठ को हनुमान जी पर बहुत ही गुस्सा आ रहा था कि उन्हों ने पंडित जी को सौ रूपए नहीं दिए। वह मंदिर में गया और हनुमान जी कि मूर्ति पर घूँसा मारा। घूँसा मारते ही सेठ का हाथ मूर्ति पर चिपक गया। अब सेठ जोर लगाये अपना हाथ छुड़ाने के लिए पर नाकाम रहा हाथ हनुमान जी कि पकड़ में ही रहा। हनुमान जी किसी को पकड़ लें तो वह कैसे छूट सकता है। सेठ को फिर आवाज सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, भगवान् हनुमान जी से पूछ रहे थे कि तुमने ब्राह्मण को सौ रूपए दिलाये कि नहीं ? हनुमान जी ने कहा ‘महाराज पचास रूपए तो दिला दिए हैं, बाकी पचास रुपयों के लिए सेठ को पकड़ रखा है। ये पचास रूपए दे देगा तो छोड़ देंगे’। सेठ ने सुना तो विचार किया कि मंदिर में लोग आकर मेरे को देखेंगे तो बड़ी बेईज्जती होगी, वह चिल्लाकर बोला- ‘हनुमान जी महाराज ! मेरे को छोड़ दो, मैं पचास रूपय दे दूँगा।’ हनुमान जी ने सेठ को छोड़ दिया। सेठ ने जाकर पंडित जी को पचास रूपए दे दिए। ———-::;×:::———-
“जय श्री राम” *******************************************
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નાનપણમાં બોરાં વીણવા જતા. કાતરા પણ વીણતા. કો’કની વાડીમાં ઘૂસી ચીભડાં ચોરતા. ટેટા પાડતા. બધા ભાઇબંધોપોતાનાં ખિસ્સામાંથી ઢગલી કરતા ને ભાગ પાડતા- -આ ભાગ ટીંકુનો. -આ ભાગ દીપુનો. -આ ભાગ ભનિયાનો, કનિયાનો… છેવટે એક વધારાની ઢગલી કરી કહેતા- ‘આ ભાગ ભગવાનનો !’
સૌ પોતપોતાની ઢગલી ખિસ્સામાં ભરતા, ને ભગવાનની ઢગલી ત્યાં જ મૂકી રમવા દોડી જતા.
ભગવાન રાતે આવે, છાનામાના ને પોતાનો ભાગ ખાઇ જાય-એમ અમે કહેતા.
પછી મોટા થયા. બે હાથે ઘણું ય ભેગું કર્યું ; ભાગ પાડ્યા-ઘરના, ઘરવખરીના, ગાય, ભેંસ, બકરીના. અને ભગવાનનો ભાગ જુદો કાઢ્યો ?
મેં પાનખરની ડાળી જેવા મારા બે હાથ જોયા- ઉજ્જ્ડ. એકાદ સુકું તરણું યે નહીં. શેના ભાગ પાડું ભગવાન સાથે ? આંખમાં ઝળઝળિયાં આવ્યાં, તે અડધાં ઝળઝળિયાં આપ્યાં ભગવાનને.
તેણે પૂછ્યું : ‘કેટલા વરસનો થયો તું’ ‘પચાસનો’ હું બોલ્યો ’અચ્છા…’ ભગવાન બોલ્યા : ‘૧૦૦ માંથી અડધાં તો તેં ખરચી નાખ્યાં… હવે લાવ મારો ભાગ !’ ને મેં બાકીનાં પચાસ વરસ ટપ્પ દઇને મૂકી દીધાં ભગવાનના હાથમાં ! ભગવાન છાનામાના રાતે એનો ભાગ ખાય.
હું હવે તો ભગવાનનો ભાગ બની પડ્યો છું અહીં. જોઉં છું રાહ- કે ક્યારે રાત પડે ને ક્યારે આવે છાનામાના ભગવાન ને ક્યારે આરોગે ભાગ બનેલા મને ને ક્યારે હું ભગવાનનાં મોંમાં ઓગળતો ઓગળતો…
શામજી નાનપણ થી ભરાડી ભાઈબંધ ઘણા અને શામજી એનો હેડ ભાઈબંધો ને ભેગા કરી ને પછી આંબલી પાડે કોઈના ખેતર માંથી શિંગ ના પાથરા ઉપાડે ગાંડા બાવળ માંથી હાંઘરા પાડે અને પછી ગામને ગોંદરે વડ નું ખૂબ મોટું જાડ એની નીચે બેસીને બધી વસ્તુના ઢગલા કરતા અને પછી શામજી ભાગ પાડે બધા ભાયબંધ ના ભાગ કરીને છેવટે એક વધારાનો ભાગ કરે ભાઈબંધ પૂછે એલા શામજી આ કોનો ભાગ તો શામજી કહે ‘આ ભાગ ભગવાનનો !’ અને પછી સૌ પોતપોતાનો ભાગ લઈને રમવા દોડી જતા. અને ભગવાનનો ભાગ ત્યાં મૂકી જતા
ભગવાન રાતે આવશે, છાનામાના ને પોતાનો ભાગ ખાઇ જશે એમ શામજી બધા ને સમજાવે
બીજે દિવસે સવારે વડલે જઈને જોતા તો ભગવાન એનો ભાગ ખાઈ ગયા હોય બોરના ઠળીયા ત્યાં પડ્યા હોય અને પછી તો આ રોજની એમની રમત થઈ ગઈ અને આમ રમતા રમતા શામજી મોટો થયો ગામડે થી શહેર કમાવવા ગયો બે હાથે ઘણું ય ભેગું કર્યું જેમ જેમ કમાણી વધતી ગઈ તેમ તેમ શામજી નો લોભ વધતો ગયો ધન ભેગુ તો ઘણું કર્યું પણ શામજી પેલો ભગવાન નો ભાગ કાઢવાનું ભૂલી ગયો લગ્ન કર્યા છોકરા છૈયા ને પરણાવ્યા એના છોકરા છૈયા શામજી ઘર મા દરેક ની જરૂરિયાત પૂરી કરે જેને જે જોતું હોય તે લાવી આપે આ બધી પળોજણ મા ભગવાન નો ભાગ તો હવે હાવ ભુલાઈ જ ગયો ધીમે ધીમે શામજી ને થાક લાગવા માંડ્યો એમાંય તેની પત્ની માંદગીમાં ગુજરી ગઈ પછી તો શામજી હાવ ભાંગી ગયો હવે શરીર સાથ નહિ આપે તેમ લાગવા માંડ્યું છોકરા ઓ ધંધે ચડી ગયા છે હવે હું કામ નહિ કરું તો ચાલશે આ વિચાર શામજી ને આવ્યો અને શામજી એ કમાવવાનું બંધ કર્યું છોકરા ઓ એ વ્યવહાર બધો પોતાના હાથમાં લઈ લીધો અને પછીતો મકાન મિલકત ના ભાગ પડ્યા બધાએ બધું વહેંચી લીધું વધ્યો ફક્ત શામજી એક પણ છોકરાએ રાજી ખુશીથી એમ ના કહ્યું કે બાપા અમારી ભેગા અને શામજી પાછો પોતાના ગામ પોતાના એ જૂના મકાન મા એકલો રહેવા લાગ્યો હાથે રાંધી ને ખાય ને દિવસો પસાર કરે એક દિવસ શામજી ને શરીર મા કળતર જેવું લાગ્યું ભૂખ લાગી હતી પણ પથારીમાંથી ઊઠાતુ ન્હોતું અને આજ શામજી ને ભગવાન યાદ આવ્યા હે ઈશ્વર નાનો હતો ત્યારે રમતા રમતા ય તારો ભાગ કાઢવાનું ન્હોતો ભૂલતો અને પછી જેમ જેમ મોટો થયો એમ આ મારું આ મારું કરવામાં તને હાવ ભૂલી ગયો પ્રભુ જેને હું મારા માનતો હતો તે કોઈ મારા નથી રહ્યા અને આજ સાવ એકલો થઈ ગયો ત્યારે ફરી પાછી તારી યાદ આવી છે મને માફ કરજે ભગવાન…હ્રદય નો પસ્તાવો આંખ માંથી આસુ બનીને વહેવા લાગ્યો…અને ત્યાં ડેલી ખખડી શામજીએ સહેજ ઊંચા થઈને જોયું તો રઘો કોળી એનો નાનપણ નો સાથી બિચારો પગે સહેજ લંગડો એટલે એને ક્યાંય ભેગો રાખતા નહિ તે આજ હાથમાં કંઇક વસ્તુ ઢાકી ને લાવ્યો હતો શામજી એ સૂતા સૂતા જ આવકાર આપ્યો આવ્ય રઘા રધાએ લાવેલ વસ્તુ નીચે મૂકી અને શામજી ને ટેકો કરીને બેઠો કર્યો પાણી નો લોટો આપ્યો અને કહ્યું લ્યો કોગળો કરીલ્યો તમારી હાટુ ખાવાનું લાવ્યો છું શામજી કોગળો કરી મોઢું લૂછીને જ્યાં કપડું આઘુ કર્યું ત્યાં ભાખરી ભરેલ ભીંડાનું શાક અને અડદ ની દાળ ભાંળીને શામજીની આંખમાં આંહુડા આવી ગયા આજ કેટલા દીએ આવું ખાવાનું મળ્યું તેણે રઘા હામુ જોય ને કીધું રધા આપડે નાના હતા ત્યારે તું અમારી હારે રમવા આવતો પણ તારે પગે તકલીફ એટલે અમે તને અમારી ભેગો નો રમાડતા અને આજ તું આ ખાવાનું લાવ્યો મારા ભાઈ આ હું કયે ભવે ચૂકવિશ રધાએ પાણી નો લોટો એની બાજુમાં મૂકતા બોલ્યો તમે તો પેલા ચૂકવી દીધું છે હવે મારો વારો છે ચૂકવી દીધું છે ? ક્યારે ? શામજી ની આંખમાં પ્રશ્નાર્થ આવ્યો રધાએ માંડીને વાત કરી તમે બધા બોર વીણી ને આંબલી પાડી ને ઓલા વડલા હેઠે ભાગ પાડવા બેહતા ત્યારે ખબર છે *ભગવાનનો ભાગ* કાઢતા અને કહેતા કે ભગવાન આવશે અને એનો ભાગ ખાઈ જશે ઇ તમારા ગયા પછી હું ન્યા આવતો અને એ ભાગ હું ખાઈ જતો તમે બધા બિજેદી આવો ન્યા બોરના ઠળિયા પડ્યા હોય એટલે તમને બધાને એમ લાગતું કે ભગવાન એનો ભાગ ખાઈ ગયા પણ એ હું ખાઈ જતો અને વિચારતો કે આ હું કયે ભવ ચૂકવિશ પણ ગઇકાલે રાતે બધા પાદર બેઠા હતા ત્યારે તમારી વાત થાતી હતી કે બિચારો શામજી દુઃખી દુઃખી થઈ ગયો બિચારા નું કોઈ નથી અને ઘરે જઈને રાતે હૂતા હુતા વિચાર આવ્યો કે રઘા ઓલ્યું ઋણ ચૂકવવાનો સમય આવી ગયો છે એટલે પછી આ ખાવાનું લઈને આવ્યો અને હવે તમારે હાથે નથી રાંધવાનું તમારું બેય ટાઈમનું ખાવાનું મારા ઘરેથી આવશે અને બીજું ક્યારેય નાય નથી પાડવાની અને કાય બોલો તો મારા હમ છે શામજી ની આંખમાંથી આહૂડાં પડી ગયા અને રઘા હામુ જોઈને કીધું રઘા કમાવા શીખ્યો ત્યારથી આ મારા છોકરા આ મારો પરિવાર એ દરેક ની જરૂરિયાત પૂરી કરવામાં આખી જુવાની ખરચી નાખી પણ છેલ્લે બધાએ તરછોડી દીધો અને નાનપણ મા ખાલી રમતા રમતા તેદી અણહમજ મા *ભગવાનનો ભાગ* કાઢ્યો હતો તોય આજ એણે પાછો મને હંભાળી લીધો રઘો શામજી હામુ અને શામજી રઘા હામુ જોય રહ્યા અને બેય ની આંખ માંથી એક બીજાના આભાર વ્યક્ત કરતા આંસુ વહી રહ્યાં હતા _કનક દવે
कुछ समय से गीतकार जावेद अख्तर बादशाह अकबर का झंडा बुलंद कर रहे हैं। एक ताने जैसा कि अकबर के समय भारत धनी था, इसलिए मुगल-काल को बुरा नहीं कहना चाहिए। उन के पीछे दूसरे सेक्यूलर-वामपंथी भी वही दुहरा रहे हैं। लेकिन क्या वे जानते हैं कि क्या कह रहे हैं? कुछ लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि भारत और पाकिस्तान में अकबर की छवियाँ उलटी है। यहाँ उसे उदार, काबिल बादशाह का आदर मिलता है; मगर पाकिस्तान में अकबर के प्रति घृणा-सी फैलाई गई। क्योंकि उस ने यहाँ इस्लामी शासन का ढ़ाँचा समेट लिया था। स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने कहा था कि अकबर ने ‘भारत से इस्लाम को खत्म कर दिया’। पाकिस्तानी इतिहासकार आई. एच. कुरैशी भी अकबर को ‘काफिर’ मानते थे। अतः भारत-पाकिस्तान में अकबर की उलटी छवियाँ एक ही सत्य पर खड़ी हैं!
निश्चय ही अकबर पहले जिहादी था। तेरह वर्ष की उम्र में ही उस ने महान हिन्दू नायक हेमचन्द्र को मूर्छित-घायल अवस्था में अपने हाथों कत्ल किया था। अपनी हुकूमत के पहले 24 साल उस ने वही किया जो महमूद गजनवी, मुहम्मद घूरी, अलाउद्दीन खिलजी, आदि ने किया था। बाहरी मुसलमानी फौज के बल पर भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा किया। खुद को ‘गाजी’ और तैमूरी कहने का उसे गर्व था। अकबर ने मेवाड़ और गोंडवाना में जो किया वह घृणित जिहाद ही था।
अकबर लंबे समय तक मोइनुद्दीन चिश्ती का मुरीद रहा, जो हिन्दू धर्म-समाज पर इस्लामी हमले का बड़ा प्रतीक था। 1568 ई. में चित्तौड़गढ़ पर जीत के बाद अकबर ने चिश्ती अड्डे से ही ‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ जारी किया था, जिस के हर वाक्य से जिहादी जुनून टपकता है। उस युद्ध में 8 हजार राजपूत स्त्रियों ने जौहर कर के प्राण दिए। वहाँ अकबर ने राजपूत सैनिकों के अलावा 30 हजार सामान्य नागरिकों का भी कत्ल किया। मारे गए सभी पुरुषों के जनेऊ जमा कर तौला गया, जो साढ़े चौहत्तर मन था। यह केवल एक स्थान पर, एक बार में! वह भयावह घटना हिन्दुओं की स्मृति में रच गई है। आज भी राजस्थान में ‘74½’का तिलक-जैसा चिन्ह किसी वचन पर पवित्र-मुहर समान प्रयोग किया जाता है। कि उस वचन को जो तोड़ेगा, उसे बड़ा पाप लगेगा!
फिर अकबर के अनके सूबेदारों ने उत्तर-पश्चिम भारत में हिन्दू मंदिरों का बेशुमार विध्वंस किया। कांगड़ा, नागरकोट, आदि के प्रसिद्ध मंदिर उन में थे। अकबर ने अपने शासन में शरीयत लागू करने हेतु मुल्लों के विशेष पद भी बनाये। हिन्दुओं की कौन कहे, वह कट्टर-सुन्नी के सिवा अन्य मुस्लिम फिरकों के प्रति भी कठोर था। लेकिन, उसी अकबर में शुरू से एक विचारशील प्रवृत्ति भी थी। इसीलिए जब उस की सत्ता सुदृढ़ हो गई, तब वह मजहबी चिंतन-मनन पर भी समय देने लगा। यह 1574 ई. के लगभग शुरू हुआ, जब अकबर अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी में बाकायदा विमर्श चलाने लगा। उस ने इस्लाम को मजबूत करने के ही इरादे से विभिन्न धर्मों के विद्वान बुलाकर चिश्तियों और सुन्नी मौलानाओं के साथ शास्त्रार्थ-सा कराना शुरू किया। इस के लिए विशेष ‘इबादतखाना’ और उस के सामने ‘अनूप तालाब’ बनवाया। रोचक यह कि अकबर ने यह संस्कृत नामकरण किया था।
‘इबादतखाना’ उन विद्वानों के साथ अकबर के धर्म-विमर्श का स्थान था। वहाँ अकबर के सामने वर्षों जो विमर्श हुए, उन के विवरण अलग-अलग भागीदारों, प्रत्यक्षदर्शियों से उपलब्ध हैं। जैसे, एक पुर्तगाली ईसाई पादरी, गुजरात से आए पारसी विद्वान दस्तूर मेहरजी और अकबर दरबार के मुल्ला बदायूँनी। इन से पता चलता है कि अकबर ने धीरे-धीरे महसूस किया कि जिस इस्लाम पर उसे अंधविश्वास था, वह तो दर्शन और ज्ञान से खाली है! मामूली हिन्दू पंडितों के सामने भी मौलाना टिक नहीं पाते थे। चूँकि अकबर में एक आध्यात्मिक प्यास थी, इसलिए उस ने असलियत समझ ली।
फलतः उस ने लगभग 1582 ई. में एक नये धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ की घोषणा की। यह इस्लाम से हटने की ही घोषणा थी। इसीलिए वामपंथी, मुस्लिम इतिहासकारों ने इसे लीपने-पोतने की कोशिश की है। आखिर प्रोफेट मुहम्मद, कुरान और हदीस के सिवा किसी भी चीज को महत्व देना इस्लाम-विरुद्ध है। तब अकबर ने तो सीधे-सीधे नये धर्म की ही घोषणा की!इस प्रकार, आध्यात्मिक खोजी स्वभाव के अकबर ने लंबी वैचारिक जाँच-पड़ताल के बाद इस्लाम से छुट्टी कर ली। तब दुनिया में सब से ताकतवर मुस्लिम शासक होने के कारण कोई मुल्ला उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। मुल्ला बदायूँनी ने अपनी डायरी ‘मुन्तखाबात तवारीख’ में बेहद कटु होकर लिखा है कि,‘‘बादशाह काफिर हो गया है, चाहे कोई कुछ बोल नहीं सकता।’’
पर आजीवन स्वस्थ अकबर की 63 वर्ष की आयु में आकस्मिक मौत हो गई। कुछ विवरणों में उसे जहर देने की बात मिलती है। यदि सच हो, तो तख्त के लिए शहजादे सलीम का षड्यंत्र भी संभव है। लेकिन उलेमा भी अकबर से बेहद रंज थे। सो, अकबर की मौत का कुछ भी कारण रहा हो सकता है।किन्तु यह संयोग नहीं कि जिस इबादतखाना और ‘अनूप तालाब’ के अनेक समकालीन विवरण तथा पेंटिगें मिलती हैं, आज सीकरी मे इन दोनों का नामो-निशान नहीं है! निस्संदेह, उसे ‘कुफ्र’ की निशानी मानकर बाद में उलेमा ने नष्ट करवाया। यह अकबर की विरासत पर कोलतार पोतने का अंग था। संयोगवश वे मुल्ला बदायूँनी की लिखी गोपनीय डायरी की सभी प्रतियाँ नष्ट नहीं कर सके, जो बहुत बाद मिली थी।
उस जमाने के हिसाब से 1579-1605 ई. कोई छोटी अवधि नहीं, जो अकबर के इस्लाम से दूर हो जाने का काल था। उस दौरान अकबर ने जो किया, उस के अध्ययन के बजाए छिपाने का काम अधिक हुआ। ताकि इस पर पर्दा पड़ा रहे कि भारत के तमाम मुस्लिम शासकों में जो सब से प्रसिद्ध हुआ, वह बाद में मुसलमान ही नहीं रहा।कई बार अकबर से मिलने वाले गोवा के पादरी फादर जेवियर ने लिखा है कि अकबर इस्लाम छोड़कर कोई हिन्दू/देशी संप्रदाय (जेन्टाइल सेक्ट) स्वीकार कर चुका था। पुर्तगाली जेसुइटों ने अलग-अलग बातें लिखी हैं। किसी के अनुसार वह ईसाई हो गया था, तो किसी के अनुसार वह हिन्दू बन गया था। किन्तु अकबर के इस्लाम छोड़ने की बात कई विवरणों में एक जैसी मिलती है।
अकबर ने अपने बेटे को लिखे पत्रों में कर्म-फल और आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत को तर्कपूर्ण और विश्वसनीय बताया था। उस ने शहजादे मुराद को पढ़ने के लिए ‘महाभारत’ का अनुवाद भेजा था। अबुल फजल की अकबरनामा के अनुसार अकबर को अपने जिहादी अतीत पर पश्चाताप भी था।चूँकि अकबर की मृत्यु अस्वभाविक हुई, इसलिए कहना कठिन है कि यदि वह और जीवित रहता तो उस की विरासत क्या होती। पर निस्संदेह वह इस्लाम-विरुद्ध होती। इसीलिए, सारे उलेमा अकबर से चिढ़ते हैं। उन्हें सच अधिक मालूम है, हिन्दुओं को कम। क्योंकि यहाँ सेक्यूलर-वामपंथी प्रचारकों ने अकबर को ‘मुगल शासन’ की उदारता का प्रतीक बनाने की जालसाजी की है।
अतः जावेद अख्तर को समझना चाहिए कि अकबर की महानता हमारे लिए बेमानी है। जैसे पीटर महान या नेपोलियन बोनाप्राट की महानता भारत के लिए प्रसंगहीन है। वे दूसरे देशों के इतिहास के अंग हैं। उसी तरह, अकबर भी किसी विदेशी समाज के इतिहास का हिस्सा है। हमारे लिए यही स्मरणीय है कि चाहे उसे युद्ध-क्षेत्र में हिन्दू पहले नहीं हरा सके, किन्तु यहाँ के मामूली ब्राह्मणों ने उस के मतवाद को उस के सामने ध्वस्त कर दिया था। अकबर की यही विरासत भारतीय मुसलमानों के लिए भी विचारणीय है!
गोपाल गोडसे अक्सर कहा करते थे कि यहूदियों को अपना राष्ट्र पाने के लिये 1600 वर्ष लगे, हर वर्ष वे कसम खाते थे कि “अगले वर्ष यरुशलम हमारा होगा…”
गत कुछ वर्षों से गोड़से की विचारधारा के समर्थन में भारत में लोगों की संख्या बढ़ी है, जैसे-जैसे लोग नाथूराम और गाँधी के बारे में विस्तार से जानते हैं, उनमें गोडसे धीरे-धीरे एक “आइकॉन” बन रहे हैं। वीर सावरकर जो कि गोडसे और आपटे के राजनैतिक गुरु थे, के भतीजे विक्रम सावरकर कहते हैं, कि उस समय भी हम हिन्दू महासभा के आदर्शों को मानते थे, और “हमारा यह स्पष्ट मानना है कि गाँधी का वध किया जाना आवश्यक था…”, समाज का एक हिस्सा भी अब मानने लगा है कि नाथूराम का वह कृत्य सही था। हमारे साथ लोगों की सहानुभूति है, लेकिन अब भी लोग खुलकर सामने आने से डरते हैं…।
डर की वजह भी स्वाभाविक है, गाँधी की हत्या के बाद कांग्रेस के लोगों ने पूना में ब्राह्मणों पर भारी अत्याचार किये थे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने संगठित होकर लूट और दंगों को अंजाम दिया था, उस वक्त पूना पहली बार एक सप्ताह तक कर्फ़्यू के साये में रहा। बाद में कई लोगों को आरएसएस और हिन्दू महासभा का सदस्य होने के शक में जेलों में ठूंस दिया गया था (कांग्रेस की यह “महान” परम्परा इंदिरा हत्या के बाद दिल्ली में सिखों के साथ किये गये व्यवहार में भी दिखाई देती है)।
गोपाल गोडसे की पत्नी श्रीमती सिन्धु गोडसे कहती हैं, “वे दिन बहुत बुरे और मुश्किल भरे थे, हमारा मकान लूट लिया गया, हमें अपमानित किया गया और कांग्रेसियों ने सभी ब्राह्मणों के साथ बहुत बुरा सलूक किया… शायद यही उनका गांधीवाद हो…”।
सिन्धु जी से बाद में कई लोगों ने अपना नाम बदल लेने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने दृढ़ता से इन्कार कर दिया। “मैं गोडसे परिवार में ब्याही गई थी, अब मृत्यु पर्यन्त यही मेरा उपनाम होगा, मैं आज भी गर्व से कहती हूँ कि मैं नाथूराम की भाभी हूँ…”।
चम्पूताई आपटे की उम्र सिर्फ़ 14 वर्ष थी, जब उनका विवाह एक स्मार्ट और आकर्षक युवक “नाना” आपटे से हुआ था, 31 वर्ष की उम्र में वे विधवा हो गईं, और एक वर्ष पश्चात ही उनका एकमात्र पुत्र भी चल बसा। आज वे अपने पुश्तैनी मकान में रहती हैं, पति की याद के तौर पर उनके पास आपटे का एक फ़ोटो है और मंगलसूत्र जो वे सतत पहने रहती हैं, क्योंकि नाना आपटे ने जाते वक्त कहा था कि “कभी विधवा की तरह मत रहना…”, वह राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानतीं, उन्हें सिर्फ़ इतना ही मालूम है गाँधी की हत्या में शरीक होने के कारण उनके पति को मुम्बई में हिरासत में लिया गया था। वे कहती हैं कि “किस बात का गुस्सा या निराशा? मैं अपना जीवन गर्व से जी रही हूँ, मेरे पति ने देश के लिये बलिदान दिया था।