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डालमिया


अरुण सिंग

टाटा, बिड़ला और डालमिया ये तीन नाम बचपन से सुनते आए है मगर डालमिया घराना कही व्यापार में नजर नहीं आया ,
डालमिया घराने के बारे में जानने की बहुत इच्छा थी। लीजिए आप भी पढ़िए की नेहरू के जमाने मे भी 1 लाख करोड़ के मालिक डालमिया को साजिशो में फंसा के नेहरू ने कैसे बर्बाद कर दिया

येतस्वीर है राष्ट्रवादी खरबपति सेठ रामकृष्ण डालमिया की ,जिसे नेहरू ने झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया तथा कौड़ी-कौड़ी का मोहताज़ बना दिया ।
दरअसल डालमिया जी ने स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ मिलकर गौहत्या एवम हिंदू कोड बिल पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर नेहरू से कड़ी टक्कर ले ली थी । लेकिन नेहरू ने हिन्दू भावनाओं का दमन करते हुए गौहत्या पर प्रतिबंध भी नही लगाई तथा हिन्दू कोड बिल भी पास कर दिया और प्रतिशोध स्वरूप हिंदूवादी सेठ डालमिया को जेल में भी डाल दिया तथा उनके उद्योग धंधों को बर्बाद कर दिया ।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस व्यक्ति ने नेहरू के सामने सिर उठाया उसी को नेहरू ने मिट्टी में मिला दिया.

देशवासी प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और सुभाष बाबू के साथ उनके निर्मम व्यवहार के बारे में वाकिफ होंगे मगर इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िद के कारण देश के उस समय के सबसे बड़े उद्योगपति सेठ रामकृष्ण डालमिया को बड़ी बेरहमी से मुकदमों में फंसाकर न केवल कई वर्षों तक जेल में सड़ा दिया बल्कि उन्हें कौड़ी-कौड़ी का मोहताज कर दिया.

जहां तक रामकृष्ण डालमिया का संबंध है, वे राजस्थान के एक कस्बा चिड़ावा में एक गरीब अग्रवाल घर में पैदा हुए थे और मामूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने मामा के पास कोलकाता चले गए थे.

वहां पर बुलियन मार्केट में एक salesman के रूप में उन्होंने अपने व्यापारिक जीवन का शुरुआत किया था. भाग्य ने डटकर डालमिया का साथ दिया और कुछ ही वर्षों के बाद वे देश के सबसे बड़े उद्योगपति बन गए.

उनका औद्योगिक साम्राज्य देशभर में फैला हुआ था जिसमें समाचारपत्र, बैंक, बीमा कम्पनियां, विमान सेवाएं, सीमेंट, वस्त्र उद्योग, खाद्य पदार्थ आदि सैकड़ों उद्योग शामिल थे.

डालमिया सेठ के दोस्ताना रिश्ते देश के सभी बड़े-बड़े नेताओं से थी और वे उनकी खुले हाथ से आर्थिक सहायता किया करते थे.

इसके बाद एक घटना ने नेहरू को डालमिया का जानी दुश्मन बना दिया. कहा जाता है कि डालमिया एक कट्टर सनातनी हिन्दू थे और उनके विख्यात हिन्दू संत स्वामी करपात्री जी महाराज से घनिष्ट संबंध थे.

करपात्री जी महाराज ने 1948 में एक राजनीतिक पार्टी राम राज्य परिषद स्थापित की थी. 1952 के चुनाव में यह पार्टी लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी और उसने 18 सीटों पर विजय प्राप्त की.

हिन्दू कोड बिल और गोवध पर प्रतिबंध लगाने के प्रश्न पर डालमिया से नेहरू की ठन गई. पंडित नेहरू हिन्दू कोड बिल पारित करवाना चाहते थे जबकि स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया सेठ इसके खिलाफ थे.

हिन्दू कोड बिल और गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्वामी करपात्रीजी महाराज ने देशव्यापी आंदोलन चलाया जिसे डालमिया जी ने डटकर आर्थिक सहायता दी.

नेहरू के दबाव पर लोकसभा में हिन्दू कोड बिल पारित हुआ जिसमें हिन्दू महिलाओं के लिए तलाक की व्यवस्था की गई थी. कहा जाता है कि देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद हिन्दू कोड बिल के सख्त खिलाफ थे इसलिए उन्होंने इसे स्वीकृति देने से इनकार कर दिया.

ज़िद्दी नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा और इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों से पुनः पारित करवाकर राष्ट्रपति के पास भिजवाया. संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति को इसकी स्वीकृति देनी पड़ी.

इस घटना ने नेहरू को डालमिया का जानी दुश्मन बना दिया. कहा जाता है कि नेहरू ने अपने विरोधी सेठ राम कृष्ण डालमिया को निपटाने की एक योजना बनाई.

नेहरू के इशारे पर डालमिया के खिलाफ कंपनियों में घोटाले के आरोपों को लोकसभा में जोरदार ढंग से उछाला गया. इन आरोपों के जांच के लिए एक विविन आयोग बना. बाद में यह मामला स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिसमेंट को जांच के लिए सौंप दिया गया.

नेहरू ने अपनी पूरी सरकार को डालमिया के खिलाफ लगा दिया. उन्हें हर सरकारी विभाग में प्रधानमंत्री के इशारे पर परेशान और प्रताड़ित करना शुरू किया. उन्हें अनेक बेबुनियाद मामलों में फंसाया गया.

नेहरू की कोप दृष्टि ने एक लाख करोड़ के मालिक डालमिया को दिवालिया बनाकर रख दिया. उन्हें टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अनेक उद्योगों को औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा. अदालत में मुकदमा चला और डालमिया को तीन साल कैद की सज़ा सुनाई गई.

तबाह हाल और अपने समय के सबसे धनवान व्यक्ति डालमिया को नेहरू की वक्र दृष्टि के कारण जेल की कालकोठरी में दिन गुज़ारने पड़े.

व्यक्तिगत जीवन में डालमिया बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे. उन्होंने अच्छे दिनों में करोड़ों रुपये धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए दान में दिये. इसके अतिरिक्त उन्होंने यह संकल्प भी लिया था कि जबतक इस देश में गोवध पर कानूनन प्रतिबंध नहीं लगेगा वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे. उन्होंने इस संकल्प को अंतिम सांस तक निभाया. गौवंश हत्या विरोध में 1978 में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

ये तस्वीर है राष्ट्रवादी खरबपति सेठ रामकृष्ण डालमिया की ,जिसे नेहरू ने झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया तथा कौड़ी-कौड़ी का मोहताज़ बना दिया ।

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मोहनलाल जैन

The Ancient Universities of India

प्राचीन भारत के 13 विश्वविद्यालय, जहां पढ़ने आते थे दुनियाभर के छात्र।

वैदिक काल से ही भारत में शिक्षा को बहुत महत्व दिया गया है। इसलिए उस काल से ही गुरुकुल और आश्रमों के रूप में शिक्षा केंद्र खोले जाने लगे थे। वैदिक काल के बाद जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया। भारत की शिक्षा पद्धति भी और ज्यादा पल्लवित होती गई। गुरुकुल और आश्रमों से शुरू हुआ शिक्षा का सफर उन्नति करते हुए विश्वविद्यालयों में तब्दील होता गया। पूरे भारत में प्राचीन काल में 13 बड़े विश्वविद्यालयों या शिक्षण केंद्रों की स्थापना हुई।

8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था।गणित, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा विज्ञान के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों का कोई सानी नहीं था।

हालांकि आजकल अधिकतर लोग सिर्फ दो ही प्राचीन विश्वविद्यालयों के बारे में जानते हैं पहला नालंदा और दूसरी तक्षशिला। ये दोनों ही विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध थे। इसलिए आज भी सामान्यत: लोग इन्हीं के बारे में जानते हैं, लेकिन इनके अलावा भी ग्यारह ऐसे विश्वविद्यालय थे जो उस समय शिक्षा के मंदिर थे। आइए आज जानते हैं प्राचीन विश्वविद्यालयों और उनसे जुड़ी कुछ खास बातों को..

  1. नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda university)
    यह प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। यह विश्वविद्यालय वर्तमान बिहार के पटना शहर से 88.5 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर में स्थित था। इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज करा देते हैं।

सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण के लिए आए चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में जानकारी मिलती है। यहां 10,000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2,000 शिक्षक थे। इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम 450-470 को प्राप्त है। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवद्र्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी यहां शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

इस विश्वविद्यालय की नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी। सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था। जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियां स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे।

इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक आदि रखने के लिए खास जगह बनी हुई है। हर मठ के आंगन में एक कुआं बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष और अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे व झीलें भी थी। नालंदा में सैकड़ों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था। जिसमें लाखों पुस्तकें थी।

  1. तक्षशिला विश्वविद्यालय (Takshashila university)

तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 2700 साल पहले की गई थी। इस विश्विद्यालय में लगभग 10500 विद्यार्थी पढ़ाई करते थे। इनमें से कई विद्यार्थी अलग-अलग देशों से ताल्लुुक रखते थे। वहां का अनुशासन बहुत कठोर था। राजाओं के लड़के भी यदि कोई गलती करते तो पीटे जा सकते थे। तक्षशिला राजनीति और शस्त्रविद्या की शिक्षा का विश्वस्तरीय केंद्र थी। वहां के एक शस्त्रविद्यालय में विभिन्न राज्यों के 103 राजकुमार पढ़ते थे।

आयुर्वेद और विधिशास्त्र के इसमे विशेष विद्यालय थे। कोसलराज प्रसेनजित, मल्ल सरदार बंधुल, लिच्छवि महालि, शल्यक जीवक और लुटेरे अंगुलिमाल के अलावा चाणक्य और पाणिनि जैसे लोग इसी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे। कुछ इतिहासकारों ने बताया है कि तक्षशिला विश्विद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय की तरह भव्य नहीं था। इसमें अलग-अलग छोटे-छोटे गुरुकुल होते थे। इन गुरुकुलों में व्यक्तिगत रूप से विभिन्न विषयों के आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे।

  1. विक्रमशीला विश्वविद्यालय (Vikramshila University)
    विक्रमशीला विश्वविद्यालय की स्थापना पाल वंश के राजा धर्म पाल ने की थी। 8 वी शताब्दी से 12 वी शताब्दी के अंंत तक यह विश्वविद्यालय भारत के प्रमुख शिक्षा केंद्रों में से एक था। भारत के वर्तमान नक्शे के अनुसार यह विश्वविद्यालय बिहार के भागलपुर शहर के आसपास रहा होगा।

कहा जाता है कि यह उस समय नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी था। यहां 1000 विद्यार्थीयों पर लगभग 100 शिक्षक थे। यह विश्वविद्यालय तंत्र शास्त्र की पढ़ाई के लिए सबसे ज्यादा जाना जाता था। इस विषय का सबसे मशहूर विद्यार्थी अतीसा दीपनकरा था, जो की बाद में तिब्बत जाकर बौद्ध हो गया।

  1. वल्लभी विश्वविद्यालय (Vallabhi university)
    वल्लभी विश्वविद्यालय सौराष्ट्र (गुजरात) में स्थित था। छटी शताब्दी से लेकर 12 वी शताब्दी तक लगभग 600 साल इसकी प्रसिद्धि चरम पर थी। चायनीज यात्री ईत- सिंग ने लिखा है कि यह विश्वविद्यालय 7 वी शताब्दी में गुनामति और स्थिरमति नाम की विद्याओं का सबसे मुख्य केंद्र था। यह विश्वविद्यालय धर्म निरपेक्ष विषयों की शिक्षा के लिए भी जाना जाता था। यही कारण था कि इस शिक्षा केंद्र पर पढ़ने के लिए पूरी दुनिया से विद्यार्थी आते थे।
  2. उदांत पुरी विश्वविद्यालय (Odantapuri university)
    उदांतपुरी विश्वविद्यालय मगध यानी वर्तमान बिहार में स्थापित किया गया था। इसकी स्थापना पाल वंश के राजाओं ने की थी। आठवी शताब्दी के अंत से 12 वी शताब्दी तक लगभग 400 सालों तक इसका विकास चरम पर था। इस विश्वविद्यालय में लगभग 12000 विद्यार्थी थे।
  3. सोमपुरा विश्वविद्यालय (Somapura mahavihara)

सोमपुरा विश्वविद्यालय की स्थापना भी पाल वंश के राजाओं ने की थी। इसे सोमपुरा महाविहार के नाम से पुकारा जाता था। आठवीं शताब्दी से 12 वी शताब्दी के बीच 400 साल तक यह विश्वविद्यालय बहुत प्रसिद्ध था। यह भव्य विश्वविद्यालय लगभग 27 एकड़ में फैला था। उस समय पूरे
विश्व में बौद्ध धर्म की शिक्षा देने वाला सबसे अच्छा शिक्षा केंद्र था।

  1. पुष्पगिरी विश्वविद्यालय (Pushpagiri university)
    पुष्पगिरी विश्वविद्यालय वर्तमान भारत के उड़ीसा में स्थित था। इसकी स्थापना तीसरी शताब्दी में कलिंग राजाओं ने की थी। अगले 800 साल तक यानी 11 वी शताब्दी तक इस विश्वविद्यालय का विकास अपने चरम पर था। इस विश्वविद्यालय का परिसर तीन पहाड़ों ललित गिरी, रत्न गिरी और उदयगिरी पर फैला हुआ था।

नालंदा, तशक्षिला और विक्रमशीला के बाद ये विश्वविद्यालय शिक्षा का सबसे प्रमुख केंद्र था। चायनीज यात्री एक्ज्युन जेंग ने इसे बौद्ध शिक्षा का सबसे प्राचीन केंद्र माना। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस विश्ववविद्यालय की स्थापना राजा अशोक ने करवाई थी।

अन्य विश्वविद्यालय (Other Universities)
प्राचीन भारत में इन विश्वविद्यालयों के अलावा जितने भी अन्य विश्वविद्यालय थे। उनकी शिक्षा प्रणाली भी इन्हीं विश्वविद्यालयों से प्रभावित थी। इतिहास में मिले वर्णन के अनुसार शिक्षा और शिक्षा केंद्रों की स्थापना को सबसे ज्यादा बढ़ावा पाल वंश के शासको ने दिया।

  1. जगददला, पश्चिम बंगाल में (पाल राजाओं के समय से भारत में अरबों के आने तक
  2. नागार्जुनकोंडा, आंध्र प्रदेश में।
  3. वाराणसी उत्तर प्रदेश में (आठवीं सदी से आधुनिक काल तक)
  4. कांचीपुरम, तमिलनाडु में
  5. मणिखेत, कर्नाटक
  6. शारदा पीठ, कश्मीर मे।
    साभार , वैदिक साइंस
Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

नव नंदन प्रसाद

आडम्बर

किसी समय में एक बड़े प्रतापी राजा थे । दरबार से लेकर कोष तक , सब एक से बढ़ कर एक रत्नों से भरा था । दुर्भाग्य से उनके ललाट पर फोड़ा हो गया । राजवैद्य ने खूब उपचार किये लेकिन फोड़ा ठीक होने की बजाय और बड़ा होता जा रहा था ।

राज्य के अधिकारीगण से लेकर सेवक तक , सभी परेशान कि क्या उपाय करें जिससे महाराज ठीक हों ? लेकिन निराशा के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा । एक रात राजा पीड़ा से इतने व्याकुल हुए कि शयनकक्ष से उठकर पागलों की भाँति भाग निकले। सारे पहरेदार गहरी नींद में थे , किसी को राजा के महल से बाहर जाने की भनक तक न लगी ।

राजा जितना भागते पीड़ा उतनी बढ़ती , ये और भागते पीड़ा और बढ़ती । इसी दौड़ भाग में वो जंगल पहुँच गए , एक सो रहे साधु के पैर पर उनका पैर पड़ा और उसने गुस्से में पास पड़ी एक लकड़ी उनको लक्ष्य करके दे मारी ।

लकड़ी राजा के पाँव में लगी , वे मुँह के बल गिरे और भीषण चित्कार करते हुए मुर्च्छित हो गए ।

सुबह नींद खुली तो आश्चर्य का ठिकाना न था । अब से पहले हर सुबह भयानक दर्द लेकर आती थी लेकिन आज उसका नामोनिशान तक न था । सामने पड़े पत्थर पर दृष्टि गई , देखा कि उस पर बहुत सारा मवाद फैला हुआ है ।

एक आवाज आई – ” क्या सोच रहे हो राजन ? लकड़ी मैंने ही तुम्हें मारी थी । ये कुछ औषधियां हैं , इनका लेप घाव वाले स्थान पर करवाते रहना , एकदम ठीक हो जाओगे ।”

राजा ने पलटकर देखा । अस्त व्यस्त कपड़ों में एक जटाजूटधारी साधु महाराज वज्रासन में बैठे हैं । हाथ जोड़कर बोले – ” हे महात्मन ! आपकी वजह से आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है । यह जीवन अब आपका है , मेरे लिए कोई सेवा बताएं ।”

साधु मुस्कुराये – ” जीवन विधाता की देन है , तुम्हारा शेष था इसलिये लाख कुकर्मों के बाद भी अभी जीवित हो “

राजा स्वयं के लिए कुकर्मी संबोधन सुनकर थोड़े व्यथित हुए किन्तु जिस असह्य पीड़ा से मुक्त हुए थे उसके कारक के प्रति कृतज्ञता का भाव ज्यादा सबल था – ” आपने सत्य कहा भगवन ! लेकिन इस नवजीवन के माध्यम आप बने , मैं चाहता हूँ कि आप इस निर्जन वन से निकल कर मेरे महल में चलें , वहाँ आपको नाना प्रकार की सुख सुविधाएं मिलेंगी , कोई कष्ट न होगा ।”

साधु ने अट्टहास किया – “वाह रे पापी ! तुझे कैसे पता कि मैं यहाँ कष्ट में हूँ ? उसी महल में तो तू भी रहता है न ,फिर क्यों पागलों की भाँति भाग निकला ? “

राजा अब थोड़े विचलित हुए, लेकिन विनय का आश्रय नहीं छोड़ा – ” आप को शायद ज्ञात न हो , मेरी सभा विश्व के प्रतिष्ठित विद्वानों और हर कला में दक्ष व्यक्तियों से सुसज्जित है । आपके वहाँ जाने से मेरी सभा का गौरव और बढ़ेगा , हर तरह का भय और शोक जाता रहेगा ।”

साधु ने आँखें तरेरीं – “अर्थात काल को बाँधने की सोच रहा है ? ईश्वर की व्यवस्था को चुनौती देना चाहता है ? “

-” नहीं नहीं महाराज ! मैं तो राजा के दायित्व का निर्वहन करना चाह रहा हूँ । मैं और मेरी प्रजा आपके मार्गदर्शन में सत्य और सदाचार के पथ पर चलेंगे “

साधु क्रोधित दिखे – ” रे हतबुद्धि ! तुझे प्रदर्शन से प्रेम है सत्य से नहीं । सत्य कड़वा और निर्दयी होता है , तू इतना सामर्थ्यवान नहीं कि उसे झेल सके ।”

राजा मौन हो सुनते रहे , साधु ने बोलना चालू रखा – ” तेरी मनोदशा तेरे लोग अच्छी तरह जानते हैं , उन्हें पता है कि आडम्बर तुझे आकर्षित करते हैं , अतः तेरा जीवन ही आडम्बर होकर रह गया है । तेरा राजवैद्य सक्षम था तेरा रोग दूर करने में , लेकिन उसे यह भी पता था कि तुझे कड़वी औषधियों से चिढ़ है अतः उसने तुझे ऐसी औषधियां दीं जो तुझे सुस्वादु लगें । फलतः मधु मिश्रित औषधियों के सेवन से तेरा रोग घटने के स्थान पर बढ़ता गया । तुझे लगता है कि तूने हरी चटनी के साथ रोटी खाई तो युद्ध जीता , जबकि सत्य यह है कि वह विजय तेरे सैनिकों की वीरता का परिणाम था । अभी भी समय है , आडम्बर से बाहर निकल वरना पाखंडियों और व्यवसायियों के कारण तू अपने साथ – साथ सबके समूल नाश का कारण बनेगा ।”

राजा ने अपना मस्तक साधु के चरणों में पटक दिया – ” हे भगवन ! मैं अंधा हो गया था , मुझे क्षमा करें , मुझे अपनी शरण में लें ।”

कोई आवाज नहीं आई । राजा ने सिर उठाकर देखा , साधु का कहीं पता न था , वो अपना दायित्व पूरा करके जा चुके थे ।

(चित्र गूगल से)

— Ashish Tripathi जी

Posted in संस्कृत साहित्य

सुनील त्रिवेदी

यज्ञादि कर्मों में अग्नि के नाम एवं वेदों में अग्नि की महत्ता :-


अग्नि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पौराणिक गाथा इस प्रकार है-सर्वप्रथम धर्म की वसु नामक पत्नी से अग्नि उत्पन्न हुआ। उसकी पत्नी स्वाहा से उसके तीन पुत्र हुए-

पावक
पवमान
शुचि

छठे मन्वन्तर में वसु की वसुधारा नामक पत्नी से द्रविणक आदि पुत्र हुए, जिनमें 45 अग्नि-संतान उत्पन्न हुए। इस प्रकार सब मिलाकर 49 अग्नि हैं। विभिन्न कर्मों में अग्नि के भिन्न-भिन्न नाम हैं। लौकिक कर्म में अग्नि का प्रथम नाम पावक है। गृहप्रवेश आदि में निम्नांकित अन्य नाम प्रसिद्ध हैं-

अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते।
पुंसवने चन्द्रनामा शुगांकर्मणि शोभन:।।
सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि।
नाग्नि स्यात्पार्थिवी ह्यग्नि: प्राशने च शुचिस्तथा।।
सत्यनामाथ चूडायां व्रतादेशे समुद्भव:।
गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते।।
वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजक: स्मृत:।
चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे।।
प्रायश्चित्ते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहस:।
लक्षहोमे तु वह्नि:स्यात कोटिहोमे हुताश्न:।।
पूर्णाहुत्यां मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा।
पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारिके।।
वश्यर्थे शमनी नाम वरदानेऽभिदूषक:।
कोष्ठे तु जठरी नाम क्रव्यादो मृतभक्षणे।।

अर्थात

गर्भाधान में अग्नि को “मारुत” कहते हैं।
पुंसवन में “चन्द्रमा
शुगांकर्म में “शोभन
सीमान्त में “मंगल
जातकर्म में ‘प्रगल्भ
नामकरण में “पार्थिव
अन्नप्राशन में ‘शुचि
चूड़ाकर्म में “सत्य
व्रतबन्ध (उपनयन) में “समुद्भव
गोदान में “सूर्य
केशान्त (समावर्तन) में “अग्नि
विसर्ग (अर्थात् अग्निहोत्रादिक्रियाकलाप) में “वैश्वानर
विवाह में “योजक
चतुर्थी में “शिखी
धृति में “अग्नि
प्रायश्चित (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृतिहोम) में “विधु
पाकयज्ञ (अर्थात् पाकांग होम, वृषोत्सर्ग, गृहप्रतिष्ठा आदि में) ‘साहस
लक्षहोम में “वह्नि
कोटि होम में “हुताशन
पूर्णाहुति में “मृड
शान्ति में “वरद
पौष्टिक में “बलद
आभिचारिक में “क्रोधाग्नि
वशीकरण में “शमन
वरदान में “अभिदूषक
कोष्ठ में “जठर
और मृत भक्षण में “क्रव्याद” कहा गया है।

ऋग्वेद के अनुसार:-


हिन्दू देवमण्डल का प्राचीनतम सदस्य, वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप हैं-

व्योम से सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि

अग्नि की तुलना बृहस्पति और ब्रह्मणस्पति से भी की गई है। वह मंत्र, धी (बुद्धि) और ब्रह्म का उत्पादक है। इस प्रकार का अभेद सूक्ष्मतम तत्त्व से दर्शाया गया है। वैदिक साहित्य में अग्नि के जिस रूप का वर्णन है, उससे विश्व के वैज्ञानिक और दार्शनिक तत्त्वों पर काफ़ी प्रकाश पड़ता है। जैमिनी ने मीमांसासूत्र के “हवि:प्रक्षेपणाधिकरण” में अग्नि के छ: प्रकार बताये हैं-

गार्हपत्य
आहवनीय
दक्षिणाग्नि
सभ्य
आवसथ्य
औपासन

‘अग्नि शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ इस प्रकार है : जो ऊपर की ओर जाता है'(अगि गतौ, अंगेनलोपश्च, अंग्+नि और नकार का लोप)।

वैदिक धर्म के अनुसार:-
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अवेस्ता में अग्नि को पाँच प्रकार का माना गया है। परन्तु अग्नि की जितनी उदात्त तथा विशद कल्पना वैदिक धर्म में है, उतनी अन्यंत्र कहीं पर भी नहीं है। वैदिक कर्मकाण्ड का श्रौत भाग और गृह्य का मुख्य केन्द्र अग्निपूजन ही है। वैदिक देवमण्डल में इन्द्र के अनन्तर अग्नि का ही दूसरा स्थान है। जिसकी स्तुति लगभग दो सौ सूक्तों में वर्णित है। अग्नि के वर्णन में उसका पार्थिव रूप ज्वाला, प्रकाश आदि वैदिक ऋषियों के सामने सदा विद्यमान रहता है। अग्नि की तुलना अनेक पशुओं से की गई है। प्रज्वलित अग्नि गर्जनशील वृषभ के समान है। उसकी ज्वाला सौर किरणों के तुल्य, उषा की प्रभा तथा विद्युत की चमक के समान है। उसकी आवाज़ आकाश की गर्जन जैसी गम्भीर है। अग्नि के लिए विशेष गुणों को लक्ष्य कर अनेक अभिधान प्रयुक्त करके किए जाते हैं। अग्नि शब्द का सम्बन्ध लातोनी ‘इग्निस्’ और लिथुएनियाई ‘उग्निस्’ के साथ कुछ अनिश्चित सा है, यद्यपि प्रेरणार्थक अज् धातु के साथ भाषा शास्त्रीय दृष्टि से असम्भव नहीं है। प्रज्वलित होने पर धूमशिखा के निकलने के कारण धूमकेतु इस विशिष्टिता का द्योतक एक प्रख्यात अभिधान है। अग्नि का ज्ञान सर्वव्यापी है और वह उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणियों को जानता है। इसलिए वह ‘जातवेदा:’ के नाम से विख्यात है। अग्नि कभी द्यावापृथिवी का पुत्र और कभी द्यौ: का सूनु (पुत्र) कहा गया है। उसके तीन जन्मों का वर्णन वेदों में मिलता है। जिनके स्थान हैं-स्वर्ग, पृथ्वी तथा जल। स्वर्ग, वायु तथा पृथ्वी अग्नि के तीन सिर, तीन जीभ तथा तीन स्थानों का बहुत निर्देश वेद में उपलब्ध होता है। अग्नि के दो जन्मों का भी उल्लेख मिलता है-भूमि तथा स्वर्ग। अग्नि के आनयन की एक प्रख्यात वैदिक कथा ग्रीक कहानी से साम्य रखती है। अग्नि का जन्म स्वर्ग में ही मुख्यत: हुआ, जहाँ से मातरिश्वा ने मनुष्यों के कल्याणार्थ उसका इस भूतल पर आनयन किया। अग्नि प्रसंगत: अन्य समस्त वैदिक देवों में प्रमुख माना गया है। अग्नि का पूजन भारतीय संस्कृति का प्रमुख चिह्न है और वह गृहदेवता के रूप में उपासना और पूजा का एक प्रधान विषय है। इसलिए अग्नि ‘गृहा’, ‘गृहपति’ (घर का स्वामी) तथा ‘विश्वपति’ (जन का रक्षक) कहलाता है।

रूप का वर्णन:-
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अग्नि के रूप का वर्णन इस प्रकार है-

पिंगभ्रूश्मश्रुकेशाक्ष: पीनांगजठरोऽरुण:।
छागस्थ: साक्षसूत्रोऽग्नि: सप्तार्चि: शक्तिधारक:।।

भौहें, दाढ़ी, केश और आँखें पीली हैं। अंग स्थूल हैं और उदर लाल है। बकरे पर आरूढ़ हैं, अक्षमाला लिये है। इसकी सात ज्वालाएँ हैं और शक्ति को धारण करता है।

शुभ लक्षण:-


होम योग्य अग्नि के शुभ लक्षण निम्नांकित हैं-
अर्चिष्मान् पिण्डितशिख: सर्पि:काञ्चनसन्निभ:।
स्निग्ध: प्रदक्षिणश्चैव वह्नि: स्यात् कार्यसिद्धये।।

Posted in हिन्दू पतन

देवी सिंग तोमर

एक जमाना था कानपुर की कपड़ा मिल विश्व प्रसिद्ध थीं
कानपुर को ईस्ट का मैन्चेस्टर बोला जाता था. लाल इमली जैसी फ़ैक्टरी के कपड़े प्रेस्टीज सिम्बल होते थे. वह सब कुछथा जो एक औ द्योगिक शहर में होना चाहिए. मिल का साइरन बजते ही लाखों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी की ड्रेस में मिल जाते.
बच्चे स्कूल जाते. पत्नियाँ घरेलू कार्य करतीं. और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्स man, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी.

फ़िर कॉम्युनिस्ट की कुत्सित निगाहें कानपुर पर पड़ीं. आठ घंटे मेहनत मज़दूर करे और गाड़ी से मालिक चले. ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं
मिल मालिकों को मारा पीटा भी गया. नारा दिया गया काम के घंटे चार करो, बेरोज़गारी को दूर करो
. अलाली किसे नहीं अच्छी लगती है. ढेरों मिडल क्लास भी कॉम्युनिस्ट समर्थक हो गया. मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए, ये उद्योग खून चूसते हैं.
कानपुर में कॉम्युनिस्ट सांसद बनी सुभाशिनी अली

अंततः वह दिन आ ही गया जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई. मिलों पर ताला डाल दिया गया.
मिल मालिक आज पहले से शानदार गाड़ियों में घूमते हैं, उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए. कानपुर की मिल बंद होकर भी ज़मीन के रूप में उन्हें अरबों देगी.
वो 8 घंटे यूनफ़ॉर्म में काम करने वाला मज़दूर बारह घंटे रिक्शा चलाने पर विवश हुआ. वह स्कूल जाने वाले बच्चे कबाड़ी बीनने लगे.
और वो मध्यम वर्ग जिसकी आँखों में खून उतरता था मज़दूर को काम करता देख, अधिसंख्य को जीवन में दुबारा कोई नौकरी ना मिली.
एक बड़ी जन संख्या ने अपना जीवन बेरोज़गार रहते हुवे डिप्रेसन में काटा.

कॉम्युनिस्ट अफ़ीम बहुत घातक होती है
उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं
. दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल है

इन दिनों मज़दूर पलायन विषय पर ढेरों कुतर्क सुन रहा हूँ
प्रायः यह कुतर्क दसकों से चली आ रही सोसलिस्ट व्यवस्था की थिंकिंग की वजह से हैं
यदि आप द्रवित हैं तो उनकी मदद करें, यह मानवता है. बाक़ी जब तक दुनिया चलेगी सदैव क्लासेज़ ओफ़ पीपल रहेगा ही
. वो वामपंथी अजेंडा में फँस हवाई जहाज़ में चलने वाले बनाम कार में चलने वाले बनाम सूटकेस में चलने वाले जैसी बातों के सूतियापे में ना फँसे. यह आप ही के लिए घातक है