Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

जब भी कोई राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!

सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी, किसी रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया।परन्तु राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए! जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर राजपूत बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया। फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब “एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान” में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जाती है! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??

हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं????जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी ‘अबुल फजल’ द्वारा लिखित ‘अकबरनामा’ निकाल कर पढ़ने के लिए ले आई, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ ‘तुजुक-ए-जहांगिरी’ जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है! ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में ‘रुकमा’ नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को ‘रुकमा-बिट्टी’ नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को ‘हीर कुँवर’ नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया! जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

‘अकबर-ए-महुरियत’ में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब ‘परसी’ भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें”!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!

लेकिन अब यह षडयंत्र अधिक दिन नही चलेगा।

साभार हरिसिंह राठौड़ नान्दला जी

Posted in संस्कृत साहित्य

प्राचीन भारतीय सृष्टि विज्ञान एवं दर्शन को रुपायित करती यह घड़ी बहुत अच्छी लगी।
हम सभी को यह स्मरण दिलाती है कि

जब 1 बजे तो स्मरण हो कि ब्रम्ह एक है…!

2 बजने पर सृष्टि विकास में युगल देवों अर्थात अश्विनी और कुमार (रात दिन,पृथ्वी स्वर्ग,विद्युत चुम्बक,इडा पिंगला,दोनों नासापुट,सूर्य चंद्र, दान पुण्य,वैद्य यौवन प्रदाता,आदि) का स्मरण।

3 अर्थात तीन गुण – सत्व, रज और तम।

4 अर्थात चारों वेद – ऋ क, यजु:,साम,और अथर्व।

5 अर्थात पांच प्राण – प्राण,अपान, उदान, व्यान और समान।

6 अर्थात छ रस – अम्ल,नमकीन,कटु, तिक्त,कषाय और मधुर।

7 अर्थात सात ऋषि प्राण – अत्रि,कश्यप,वशिष्ठ,विश्वामित्र,भारद्वाज,गौतम और जमदग्नि।

8 अर्थात आठ सिद्धियां – अनिमा,लघिमा,गरिमा,महिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य,इशित्व और वशीकरण।

9 अर्थात नौ द्रव्य – पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु,आकाश,दिक – काल, मन और आत्मा।

10 अर्थात दस दिशाएं – पूर्व,आग्नेय,दक्षिण, नैरित्य,पश्चिम,वायव्य,उत्तर,ईशान,ऊपर और नीचे।

11 अर्थात ग्यारह रुद्र – कपाली,पिंगल,भीम,विरूपाक्ष,विलोहित,शास्ता,अजपाद, अहिर्बुधन्य,शंभू,चंड,और भव।

12 बजने पर स्मरण हो कि बारह आदित्य (जो कि 12 मास के रूप में सृष्टि चक्र को संचालित करते हैं ) – अंशुमान, भग, पूषा,धाता,मित्र,अर्यमा,वरुण, विवस्वान,सविता,शुक्र,त्वष्टा और विष्णु।

सभी भारतीय इस अद्भुत सृष्टि विज्ञान का चिंतन स्मरण इस घड़ी के माध्यम से करने का आनंद लें।

साभार
-डॉ रामेश्वर आमेटा

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श्रीक्षेन्दू घोसाल

पुरन्दर किला दो चोटियों पर बना था। मुख्य किला 2,500 फुट ऊँची चोटी पर था, जबकि 2,100 फुट वाली चोटी पर वज्रगढ़ बना था। जब कई दिन के बाद भी मुगलों को किले को हथियाने में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने वज्रगढ़ की ओर से तोपें चढ़ानी प्रारम्भ कर दीं। मराठा वीरों ने कई बार उन्हें पीछे धकेला; पर अन्ततः मुगल वहाँ तोप चढ़ाने में सफल हो गये। इस युद्ध में हजारों मराठा सैनिक मारे गये.

पुरन्दर किले में मराठा सेना का नेतृत्व मुरारबाजी देशपाण्डे कर रहे थे। उनके पास 6,000 सैनिक थे, जबकि मुगल सेना 10,000 की संख्या में थी और फिर उनके पास तोपें भी थीं। किले पर सामने से दिलेर खाँ ने, तो पीछे से राजा जयसिंह के बेटे कीरत सिंह ने हमला बोल दिया। इससे मुरारबाजी दो पाटों के बीच संकट में फँस गये. उनके अधिकांश सैनिक मारे जा चुके थे। शिवाजी ने समाचार पाते ही नेताजी पालकर को किले में गोला-बारूद पहुँचाने को कहा। उन्होंने पिछले भाग में हल्ला बोलकर इस काम में सफलता पाई; पर वे स्वयं किले में नहीं पहुँच सके। इससे किले पर दबाव तो कुछ कम हुआ; पर किला अब भी पूरी तरह असुरक्षित था.

किले के मराठा सैनिकों को अब आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी। मुरारबाजी को भी कुछ सूझ नहीं रहा था। अन्ततः उन्होंने आत्माहुति का मार्ग अपनाते हुए निर्णायक युद्ध लड़ने का निर्णय लिया। किले का मुख्य द्वार खोल दिया गया। बचे हुए 700 सैनिक हाथ में तलवार लेकर मुगलों पर टूट पड़े। इस आत्मबलिदानी दल का नेतृत्व स्वयं मुरारबाजी कर रहे थे। उनके पीछे 200 घुड़सवार सैनिक भी थे। भयानक मारकाट प्रारम्भ हो गयी.

मुरारबाजी मुगलों को काटते हुए सेना के बीच तक पहुँच गये। उनकी आँखें दिलेर खाँ को तलाश रही थीं। वे उसे जहन्नुम में पहुँचाना चाहते थे; पर वह सेना के पिछले भाग में हाथी पर एक हौदे में बैठा था। मुरारबाजी ने एक मुगल घुड़सवार को काटकर उसका घोड़ा छीना और उस पर सवार होकर दिलेर खाँ की ओर बढ़ गये। दिलेर खाँ ने यह देखकर एक तीर चलाया, जो मुरारबाजी के सीने में लगा। इसके बाद भी उन्होंने आगे बढ़कर दिलेर खाँ की ओर अपना भाला फेंककर मारा। तब तक एक और तीर ने उनकी गर्दन को बींध दिया। वे घोड़े से निर्जीव होकर गिर पड़े.

यह ऐतिहासिक युद्ध 22 मई, 1665 को हुआ था। मुरारबाजी ने जीवित रहते मुगलों को किले में घुसने नहीं दिया। ऐसे वीरों के बल पर ही छत्रपति शिवाजी क्रूर विदेशी और विधर्मी मुगल शासन की जड़ें हिलाकर ‘हिन्दू पद पादशाही’ की स्थापना कर सके। आज वीरता के उस चरम बिंदु मुराबाजी देशपाण्डे को उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार बारम्बार नमन और वन्दन करते हुए उनकी गौरवगाथा को सदा सदा के लिए अमर रखने का संकल्प दोहराता है ..मुरारबाजी देशपाण्डे अमर रहें …
Remembering the great Maratha warrior MurarBaji Deshpande on his martyrdom day🙏🕯💐

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👇Read this very interesting☺

One day a florist went to a barber for a haircut.
After the cut, he asked about his bill, and the barber replied, ‘I cannot accept money from you, I’m doing community service this week.

The florist was pleased and left the shop.

When the barber went to open his shop the next morning, there was a ‘Thank You’ card and a dozen roses waiting for him at his door.

Later, a grocer comes in for a haircut, and when he tried to pay his bill, the barber again replied, ‘I cannot accept money from you , I’m doing community service this week.

The grocer was happy and left the shop.

The next morning when the barber went to open up, there was a ‘Thank You’ card and a bag of fresh vegetables waiting for him at his door.

Then a politician came in for a haircut, and when he went to pay his bill, the barber again replied, ‘I cannot accept money from you. I’m doing community service this week.

The politician was very happy and left the shop.

The next morning, when the barber went to open up,
there were a dozen politicians lined up waiting for a free haircut.

And that, my friends, illustrates the fundamental difference between the citizens of our country and the politicians who run it.

If you don’t forward this, someone will miss a good laugh.

😃😃😂😝😜

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चंदामामा


जिसे पढ़-पढ़कर हम बड़े हुए हैं उस चंदामामा पत्रिका के बुरे दिन आ गए

अनिरुद्धlallantopaniruddha@gmail.com 

जिसे पढ़-पढ़कर हम बड़े हुए हैं उस चंदामामा पत्रिका के बुरे दिन आ गए

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि बाल मैगजीन चंदामामा के बौद्धिक संपदा अधिकार बेच दिए जाएं. (तस्वीर साभार- फेसबुक.)

बचपन. कंचे, गिल्ली-डंडा, खो-खो, कबड्डी और साइकिल रेस वाला बचपन. पूरे मोहल्ले में हो-हल्ला और धमाचौकड़ी. साइकिल के टायर को लकड़ी से चलाना. अपनी पसंद की कॉमिक्स में खो जाना. नंदन, पराग और चंपक जैसी मैगजीन तमाम घरों की शान थीं. कुछ बच्चे लोटपोट और इंद्रजाल कॉमिक्स लेते थे. हर बच्चा उछल-कूद के बीच छुट्टी के दिनों में इन कॉमिक्स और किस्से कहानियों की दुनिया में डूबा रहता था. ऐसी ही एक और बाल पत्रिका थी चंदामामा. 90 के दशक में इसके सुपरहीरो विक्रम-बेताल की कहानियों का तो बच्चों में जबरदस्त क्रेज था. चंदामामा का बच्चों को हर वक्त इंतजार रहता था. इसमें लोककथाओं, पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित कहानियां आती थीं. मगर अब ये पत्रिका इतिहास बनती दिख रही है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस मैगजीन के बौद्धिक संपदा अधिकार बेचने का आदेश दिया है. क्या है ये पूरा मामला आइए समझते हैं.

कब से छप रही थी मैगजीन?

चंदामामा का पहला अंक जुलाई, 1947 में तेलुगू और तमिल में प्रकाशित हुआ था. (तस्वीर साभार- फेसबुक.)
चंदामामा का पहला अंक जुलाई, 1947 में तेलुगू और तमिल में आया था. (तस्वीर साभार- चंदामामा फेसबुक पेज)

आजादी के वक्त यानी साल 1947 में इस मैगजीन का प्रकाशन शुरू हुआ था. इस पत्रिका की स्थापना दक्षिण भारत के फैमस फिल्म प्रोड्यूसर बी नागी रेड्डी ने की थी. रेड्डी ने अपने करीबी दोस्त चक्रपाणि को इसका संपादन सौंपा. चंदामामा का पहला अंक जुलाई, 1947 में तेलुगू और तमिल में प्रकाशित हुआ. 1975 में इसके संपादक नागीरेड्डी के बेटे बी विश्वनाथ बनाए गए. उन्होंने कई साल तक इस पत्रिका का संपादन और प्रकाशन किया. साल 1990 तक ये पत्रिका हिंदी, इंग्लिश, मराठी, तमिल, तेलुगू, सिंधी, सिंहली और संस्कृत जैसी 13 भाषाओं में आने लगी. लेकिन कुछ वक्त के बाद इस पत्रिका के बुरे दिन भी शुरू हो गए. साल 2006 आते-आते पत्रिका की आर्थिक हालत बिगड़ गई. इसका सर्कुलेशन गिरने लगा. और विज्ञापन आने कम हो गए. विज्ञापन किसी भी पत्रिका की जान होते हैं. चंदामामा इसमें पिछड़ रही थी.

इसके बाद क्या हुआ?

चंदामामा पत्रिका को फिर से चलाने की सारी कोशिशें बेकार गईं. (फोटो साभार- चंदामामा फेसबुक पेज)
चंदामामा पत्रिका को फिर से चलाने की सारी कोशिशें बेकार गईं. (फोटो साभार- चंदामामा फेसबुक पेज)

मार्च 2007 में मुंबई की एक सॉफ्टवेयर कंपनी जियोडेसिक लिमिटेड ने इस मैगजीन को करीब 10 करोड़ रुपए में खरीद लिया. चंदामामा के संस्थापक नागीरेड्डी के बेटे विश्वनाथ और मॉर्गन स्टेनली इनवेस्टमेंट मैनेजमेंट के एमडी विनोद सेठी ने 94 फीसदी हिस्सा जियोडेसिक को बेच दिया. इसके बाद जियोडेसिक ने भी इस पत्रिका को नए सिरे से चलाने की कोशिश की. जियोडेसिक लिमिडेट ने चंदामामा का नवीनीकरण और डिजिटलाइजेशन कराया. इस काम में अमेरिका की कारनेगी-मेलोन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर राज रेड्डी और उनकी टीम की मदद ली. इसके बाद जुलाई 2008 से जियोडेसिक ने अपनी वेबसाइट पर हिंदी, तमिल और तेलुगू में छपे मैजगीन के पुराने अंक मुहैया कराने शुरू कर दिए. साथ ही मैगजीन को आईआईटी बॉम्बे के प्रोफेसर जीवी श्रीकुमार से रिडिजाइन करवाकर रीलांच किया. साल 2008 में अमिताभ बच्चन ने मुंबई में पत्रिका की 60वीं वर्षगांठ पर चंदामामा का नया संस्करण लॉन्च किया. मगर ये सारे दांव बेकार गए. मैगजीन नहीं चली तो नहीं चली.

नया मैनेजमेंट मुसीबत में आ गया
साल, 2014 में जियोडेसिक लिमिटेड का नया मैनेजमेंट एक नई मुसीबत में फंस गया. अप्रैल 2014 में कंपनी अपने 15 एफसीसीबी यानी फॉरेन करेंसी कनवर्टिबल बॉन्ड्स का भुगतान नहीं कर पाया. फॉरेन करेंसी कनवर्टिबल बॉन्ड्स एक खास तरह के बॉन्ड होते हैं, जिनको जारी करके देशी कंपनियां विदेशों से पैसा इकट्ठा करती है. जियोडेसिक लिमिटेड विदेशी निवेशकों का करीब 1000 करोड़ रुपया नहीं चुका पाई. इस पर निवेशकों ने बॉम्बे हाईकोर्ट में केस कर दिया. हाईकोर्ट ने जून 2014 में जियोडेसिक लिमिटेड की संपत्तियों को कब्जे में लेने का आदेश दे दिया. साथ ही कंपनी को लिक्विडेटर यानी कर्ज निपटान अधिकारी के सुपुर्द कर दिया. उसी वक्त से चंदामामा की 10 हजार स्क्वायर फुट की प्रॉपर्टी बंद पड़ी है. और जियोडेसिक लिमिटेड और उसके वरिष्ठ अधिकारी मुंबई पुलिस की आर्थिक अपराध शाखा, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग की निगरानी में हैं. बाद में जियोडेसिक पर 812 करोड़ रुपए की मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप भी लगे. अवैध कमाई को वैध करना मनी लॉन्ड्रिंग कहलाता है. इस आरोप के बाद जियोडेसिक के तीन डायरेक्टर किरन प्रकाश कुलकर्णी, प्रशांत मुलेकर, पंकज श्रीवास्तव और फर्म के सीए दिनेश जाजोडिया को गिरफ्तार कर लिया गया था.

क्या होता है बौद्धिक संपदा अधिकार?

विक्रम बेताल जैसे चंदामामा के पात्र अब शायद इतिहास हो सकते हैं. (तस्वीर साभार- चंदामामा फेसबुक पेज)
विक्रम बेताल जैसे चंदामामा के पात्र अब शायद इतिहास हो सकते हैं. (तस्वीर साभार- चंदामामा फेसबुक पेज)

बॉम्बे हाईकोर्ट ने 11, जनवरी, 2018 को एक नया आदेश जारी किया है. इसमें कहा गया है कि चंदामामा के इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स यानी बौद्धिक संपदा अधिकार बेच दिए जाएं. किसी शख्स या फिर संस्था का अपने प्रोडक्ट पर एक हक होता है. इसे ही बौद्धिक संपदा अधिकार कहा जाता है. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक बॉम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस एस जे कठावाला ने इसी बौद्धिक संपदा अधिकार और बाकी प्रॉपर्टी को बेचने का आदेश दिया है. उन्होंने कहा है कि जियोडेसिक के सभी निदेशक इस बारे में फौरन अपनी सहमित दें. इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट यानी ईडी इनको अपने कब्जे में लेकर बेचे. ईडी कंपनी के डायरेक्टर्स की कोई 16 करोड़ रुपए की प्रॉपर्टी पहले ही अटैच कर चुका है. चंदामामा के अलावा जियोडेसिक के पास करीब 25 करोड़ रुपए की प्रॉपर्टी है. इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी के नाम पर जियोडेसिक के पास चंदामामा की कहानियां आदि ही हैं. एक अनुमान के मुताबिक कंपनी के पास चंदामामा की हस्तलिखित और डिजिटल फॉर्मेट में करीब 6,000 कहानियां हैं. इसके अलावा 36 फिक्शनल कैरेक्टर हैं. विक्रम-बेताल सीरियल के 640 एपिसोड हैं. इनका पेटेंट और मैगजीन का कॉपीराइट अधिकार जियोडेसिक के पास है.

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ચંદામામા चन्दामामा


આજે આપણી પાસે મનોરંજન માટે અગણિત સંસાધનો ઉપલબ્ધ છે, પરંતુ જૂના દિવસો દરમિયાન પરિસ્થિતિ જુદી હતી. બાળકો પાસે મનોરંજનના ફક્ત મર્યાદિત માધ્યમો હતા, તેમાંથી કોમિક્સ સૌથી લોકપ્રિય માધ્યમ હતું, જે બાળકો અને યુવાનોમાં એકદમ લોકપ્રિય હતું અને વૈશ્વિક સ્તરે વ્યાપકપણે પ્રેક્ટિસ કરવામાં આવ્યું હતું. ભારતમાં વિવિધ ભાષાઓમાં કકોમિક્સ જેમ વિવિધ સામયિકો પ્રકાશિત થયા હતા. જેમાંથી કેટલાક એકદમ પ્રખ્યાત થયા. ચાંદમામા પણ તેમાંનું એક હતું.

જુલાઇ 1947 માં ચંદમામા પ્રથમ તેલુગુ (ચંદમામા તરીકે) અને તમિલ (અંબુલીમા તરીકે) માં પ્રકાશિત થયા હતા. તેલુગુ ફિલ્મ નિર્માતા બી.વી. તે નાગી રેડ્ડી અને ચક્રપાણી દ્વારા કરવામાં આવ્યું હતું અને ચક્રપાણીના નજીકના મિત્ર અને તેલુગુ સાહિત્યના મહાન વિદ્વાન કોડાવતીગંતી કુટુંબરાવ દ્વારા સંપાદિત કરવામાં આવ્યું હતું. તેમણે તેમના મૃત્યુ પહેલા 28 વર્ષ સુધી સામયિકનું સંપાદન કર્યું. તે સચિત્ર સામયિક હતું, મુખ્યત્વે બાળકો અને યુવાનો પર ધ્યાન કેન્દ્રિત કરતું. આ માસિક સામયિક તેના ઉત્તમ ઉદાહરણોને લીધે કોઈ પણ સમયમાં સમગ્ર ભારતમાં પ્રચંડ લોકપ્રિયતા હાંસલ કરી હતી. ચાંદમામા ખાસ કરીને પૌરાણિક / જાદુઈ વાર્તાઓ ધરાવતા હતા, જે ઘણા વર્ષોથી ચાલે છે. તેમણે તેમના સામયિક દ્વારા દાદા દાદીની વાર્તાઓને નવો દેખાવ આપવાની પરંપરાને પુનર્જીવિત કરી. સંસ્કૃત સાહિત્ય ‘બેતાલ પચીસી’ માંથી લેવામાં આવેલી વિક્રમ બેટલની વાર્તાઓએ તેમને વિશેષ ખ્યાતિ પ્રાપ્ત કરી.

કુટુંબ રાજે આ જર્નલોમાં ભારતીય પૌરાણિક કથાઓની બધી સુવિધાઓ લખી હતી, સાથે સાથે યુવા લેખકોને પ્રોત્સાહન આપ્યું હતું. આ સામયિકની કેટલીક વાર્તાઓ દસરી સુબ્રહ્મણ્યમ દ્વારા લખી હતી, જેમણે લોકપ્રિય ‘પાટલ દુર્ગમ’ જેવી સિરિયલો બનાવી હતી. મેગેઝિનમાં 2008 માં કેટલાક નોંધપાત્ર ફેરફારો થયા, હવે તે પૌરાણિક કથાઓ તેમજ સમકાલીન વાર્તાઓ, સાહસિક સિરીયલો, રમતગમત, તકનીકી, સમાચાર પૃષ્ઠો વગેરેને ઉમેરી રહ્યા છે. સૌથી પ્રાચીન સામયિકોમાંના એક હોવાને કારણે, સંવેદનશીલ અને શૈક્ષણિક સાહિત્ય સાથે વ્યવહાર કરવાની સાથે યુવાનોને મનોરંજન કરાવવાની જવાબદારી પણ તેની છે. બાળસાહિત્ય અને શૈક્ષણિક અધ્યયનના વધતા વલણો અને તેના વિશ્લેષણને ધ્યાનમાં રાખીને, ચંદમામાએ તેમની સંપાદકીય નીતિઓને સમયની સાથે રાખવાની કોશિશ પણ કરી.

આ સામયિક અંગ્રેજી સહિત 12 ભારતીય ભાષાઓમાં સંપાદિત કરવામાં આવી હતી અને તેમાં લગભગ 2,00,000 વાચકો હતા. 2007 માં, ચંદમામાને મુંબઇ સ્થિત સોફ્ટવેર સર્વિસ પ્રોવાઇડર જિઓડેસિક દ્વારા ખરીદ્યો હતો. તેમણે તત્કાલીન 60 વર્ષ જૂનું સામયિક ડિજિટાઇઝ કરવાની યોજના બનાવી. જુલાઈ, 2008 માં, પ્રકાશન દ્વારા તેલુગુ, અંગ્રેજી, હિન્દી અને તમિલમાં તેનું portalનલાઇન પોર્ટલ શરૂ થયું.

લગભગ છ દાયકાની સુંદર મુસાફરી પછી, માર્ચ 2013 થી, ચંદમામાએ ગ્રાહકોને કોઈ પણ પ્રકારની સૂચના આપ્યા વિના અને ગ્રાહકોને પરત આપ્યા વિના તમામ ભાષાઓમાં પ્રકાશિત કરવાનું બંધ કર્યું. જુલાઈ, 2016 માં, મેગેઝિનની મૂળ વેબસાઇટને ચાંદમામા કંપની દ્વારા બંધ કરવાની મંજૂરી આપવામાં આવી હતી અને તે દૂર કરવામાં આવી હતી. નાણાકીય કટોકટી કંપનીના બંધ થવાના મુખ્ય કારણ તરીકે દર્શાવવામાં આવી હતી. ઇન્ડિયન એક્સપ્રેસના એક અહેવાલ મુજબ, જૂન 2014 માં, બોમ્બે હાઈકોર્ટના સત્તાવાર લિક્વિડેટરએ કંપનીની સંપત્તિનો કબજો લીધો હતો, કારણ કે એપ્રિલે 2014 માં કંપનીએ તેના વિદેશી ચલણ કન્વર્ટિબલ બોન્ડ્સ (એફસીસીબી) ધારકોને 2 162 મિલિયન (લગભગ આશરે) માં વેચી દીધા હતા. 1000 કરોડ). આની વસૂલી હજી ચાલુ છે.

હવે તેની websiteફિશિયલ વેબસાઇટએ તેના મૂળ સંસ્કરણ ઑનલાઇન અપલોડ કરવાનું શરૂ કર્યું છે, જે બધા મફત ડાઉનલોડ માટે ઉપલબ્ધ છે. તમે નીચેની લિંક (https:// Chandamama.in/) ની મુલાકાત લઈને વિવિધ ભાષાઓમાં ચાંદમામાનું ડિજિટલ સંસ્કરણ વાંચી શકો છો. વેબસાઇટ પર 1947 થી 2006 સુધીની વાર્તાઓ ઉપલબ્ધ છે.

૬૦૦ જેટલા માસિક ની પીડીએફ કોપી તદન ફ્રી છે. રોજની એક માસિક વાંચસો તો પણ બે વરસે ખૂટસે. ૧૦,૦૦૦ જેટલી બાળકોની વાર્તાઓ.. અને બીજું ગણું બધુ.

બાળકોનું અગ્રેજી નું ભણતર એ આપણાં સાહિત્ય નું ખૂન છે. આવનારી પેઢી ન તો ડાયરો સમજી સકસે ન સોરઠી ભાષા નું ઊંડાણ.

સંદર્ભ

1.https://en.wikipedia.org/wiki/Chandamama
2.https://yourstory.com/2017/12/chandamama-goes-digital
3.https://bit.ly/2wIYclT
4.https://chandamama.in/hindi/
5.https://bit.ly/2RuFYkR