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रामकथा में आज वृद्धजनों की चर्चा॥

निषादराज को संदेह हो गया। भरत वन क्यों जा रहे हैं? अवश्य उनमें कपट भाव है, नहीं तो सेना साथ क्यों लेते? यह भरत ने ठीक नहीं किया, अयोध्या में ही रहता तो कलंक ही होता, अब जान से जाएगा।
एक वृद्ध ने पूछा-जान से जाएगा? कैसे? कौन मारेगा उन्हें?
निषादराज-मैं मारूँगा, जब तक मैं जीवित हूँ भरत को गंगा पार नहीं होने दूंगा। सब घाट रोक लो, नावें हटा दो, युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
कहने भर की देरी थी, सब तैयार हो गए, सब। कोई भय नहीं, चिंता नहीं, बरछे, लाठी, पत्थर लेकर खड़े हैं, बारह चौदह साल के लड़के मरने को तैयार हैं, हमें रामजी की रक्षा करनी है। गजब उत्साह है, उमंग है। आज जीवन सफल होने जा रहा है, सबका यही भाव है।
तभी, बाँई ओर छींक पड़ी। ज्योतिषियों ने कहा, शुभ संकेत है, युद्ध में जीत होगी। पर एक बूढ़े ने कहा, युद्ध में जीत होगी ऐसा नहीं, युद्ध होगा ही नहीं।
शब्द ज्ञान और अनुभव में जमीन आसमान का अंतर है। शब्द से सत्य की ओर इशारा तो किया जा सकता है, पर सत्य बताया नहीं जा सकता, सत्य तो शब्दातीत है। दर्पण में जो प्रतिबिंब दिखता है, वह आपका ही है, पर आप वो नहीं हो, आप वहाँ नहीं होते जहाँ दिखते हो, आप वहाँ होते हो जहाँ से दिखता है। अब कोई प्रतिबिंब को ही अपनाआपा समझ ले तो समझ लो कि समझा ही नहीं।
निषादराज को बात जंची, युद्ध टल गया। और निषादराज ही नहीं, जिस जिस ने किसी व्रद्ध की बात मानी, उसका अनर्थ टला, वह लाभ में रहा।
रामकथा में कईं वृद्ध हैं, उनमें से तीन हैं-
सुमंत, जामवंत और माल्यवंत। रामजी ने सुमंतजी को पितातुल्य सम्मान दिया, राज्य वापिस आ गया। हनुमानजी ने जामवंतजी की बात मानी कार्य सफल हुआ, रामजी के प्यारे बने।
पर रावण ने माल्यवंत की बात नहीं मानी, राज ओर कुल सबका सर्वनाश हो गया।

अर्थात यही आशय है कि अपने बड़े बूड़ो ओर वृद्ध जनों की बात ध्यान से सुनकर उसे अवश्य मानना चहिय्ये।क्योंकि यह उनका अनुभव ओर समझ ही होती है जो हमे भविष्य के लिए सही मार्ग दिखाती है।

जय श्री राम🙏

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राजीव उपाध्याय यावर

यात्रा रामायण जी की…….

राजा दशरथ की मृत्यु के बाद गुरु वशिष्ठ के आदेश से भरत-शत्रुघ्न को बुलाने के लिए सिद्धार्थ, विजय, जयंत, अशोक और नंदन नाम के पाँच दूतों को केकय देश भेजा गया।

“एहि सिद्धार्थ विजय जयन्ताशोकनन्दन।
श्रूयतामितिकर्तव्यं सर्वानेव ब्रवीमि वः।।”

इन दूतों ने केकय देश की राजधानी गिरिव्रज जाने के लिए जिस शीघ्रगामी मार्ग का अनुशरण किया गया, उससे तत्कालीन उत्तर भारत, पंजाब और पाकिस्तान के झेलम क्षेत्र तक का भौगोलिक विवरण प्राप्त होता है। यद्यपि उन नगर, ग्रामों के न रहने या नाम परिवर्तन हो जाने, नदियों के मार्ग बदल जाने के कारण आज उन स्थलों की पहचान करना बेहद मुश्किल है। फिर भी कुछ विवरणों के मिलान से परिवर्तनशील भौगोलिक ढाँचा खिंच भी जाता है। आइये आप भी चले उस मार्ग पर जिस मार्ग से अयोध्या से गिरिव्रज तक चले थे अयोध्या के दूत। पाँचों दूत अयोध्या से निकल अपरताल नामक पर्वत के अंतिम छोर अर्थात् दक्षिण भाग और प्रलम्बगिरी के उत्तर भाग में दोनों पर्वतों के बीच से बहने वाली मालिनी नदी से आगे बढ़े। प्रलंब बिजनौर जिले का दक्षिणी भाग था क्योंकि श्लोक में उसे मालिनी नदी के दक्षिण में बताया गया है। एक मतानुसार बिजनौर के 12 किमी उत्तर में स्थित मुंदोरा या मुंदावर पर्वत को प्रलम्ब गिरी पर्वत माना गया है। मालिनी नदी उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में चरकाव्य पर्वत से चौकीघाट तक पहाड़ी क्षेत्र में होते हुए बिजनौर के उत्तरी भाग में बहती है।
दूत आगे बढ़ते हैं-

” ते हस्तिनापुरे गंगा तीत्र्वा प्रत्यंगमुखा ययुः।
पांचालदेशमासाद्य मध्येन कुरुजांगलम्।।

इसके बाद दूत हस्तिनापुर पार कर, उत्तर पांचाल और कुरु जांगल देश से होकर आगे बढ़ते हैं। कुरु जांगल क्षेत्र में वर्तमान सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली आदि का सम्मिलित भाग था। यहां से दूत सुंदर सरोवरों-नदियों का दर्शन कर आगे बढ़ते हैं। दिव्य नदी शरदण्डा को पार करते हैं। यहां दिव्य वृक्ष सत्योपाचन की परिक्रमा करते हैं फिर कुलिंगा पुरी में प्रवेश करते हैं। वहां से तेजोभिभवन गाँव को पार करते हुए अभिकाल गाँव पहुंचते हैं। वहां से आगे बढ़ने पर उन्होंने राजा दशरथ के पूर्वजों द्वारा सेवित इक्षुमति नदी को पार किया। कैथल जिले में नगर से 15 किमी दूर इक्षुमति तीर्थ, पोलड़ स्थित है। इसके बाद दूत बाह्लीक देश के मध्यभाग में सुदामा पर्वत के पास पहुंचे। यहां शिखर पर उन्होंने भगवान विष्णु के चरण चिह्नों का दर्शन किया। सुलेमान पर्वत माला को रामायणकालीन सुदामा पर्वत के रूप में चिंहित किया गया है। इसके बाद विपाशा (व्यास) नदी तक पहुँचे। फिर कई नदियां, पोखर, सरोवर पार किए। अंत में दूत केकय की भव्य राजधानी गिरिव्रज पहुँच गए। इतिहासकार कनिंघम ने पाकिस्तान में झेलम नदी के तट पर बसे जलालपुर कस्बे को ही प्राचीन गिरिव्रज नगरी माना है। जलालपुर नाम बादशाह अकबर के शासनकाल में उसके एक सैन्य अधिकारी मलिक दरवेश खान द्वारा रखा गया। इस का प्राचीन नाम स्थानीय लोग गिरजाक या गिरजख कहते हैं। दूतों द्वारा तय यह यात्रा लगभग 1200 किलोमीटर की रही होगी। यदि इन मार्गों को फिर से तलाश कर पुनर्जीवित किया जाए तो यह अत्यंत रोचक होगा। जय श्री राम। यात्रा जारी है…….

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रासबिहारी बोस


रासबिहारी बोस

13 August 2010 at 14:03 सरफ़रोशी-की-तमन्ना

रासबिहारी बोस (बांग्ला: রাসবিহারী বসু ) (25 मई,1886- 21 जनवरी, 1945) भारत के एक क्रान्तिकारी नेता थे जिन्होने ब्रिटिश राज के विरुद्ध गदर षडयंत्र एवं आजाद हिन्द फौज के संगठन का कार्य किया। इन्होंने न केवल भारतमें कई क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिकानिभाई, बल्कि विदेश में रहकर भी वह भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयासमें आजीवन लगे रहे। दिल्ली में वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौजकी स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। हालांकि देशको आजाद करने के लिए किए गए उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाए, लेकिन इससेस्वतंत्रता संग्राम में निभाई गई उनकी भूमिका का महत्व बहुत ऊंचा है।

रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1986 को बंगाल में बर्धमान के सुबालदह गांव में हुआ। इनकी आरंभिक शिक्षा चंदननगर में हुई, जहां उनके पिता विनोदबिहारी बोस नियुक्त थे।[१]रासबिहारी बोस बचपन से ही देश की स्वतंत्रता के स्वप्न देखा करते थे औरक्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी रही थी। प्रारंभ मेंरासबिहारी बोस ने देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम किया। उसी दौरान उनका क्रांतिकारी जतिन मुखर्जी के अगुवाई वाले युगातंर के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड़ गए। बाद में वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रांत, (वर्तमान उत्तर प्रदेश), और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रांतिकारियों के निकट आए।

दिल्ली में जार्ज पंचम के 12 दिसंबर १९११ को होने वाले दिल्ली दरबार के लिए निकाली गई शोभायात्रा पर वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी।[२]अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसंत कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिननिशाना चूक गया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गई औरवह बचने के लिए रात में रेलगाडी से देहरादूनभाग गए और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगलेदिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा भी बुलाई, जिसमें उन्होंनेवायसराय पर हुए हमले की निन्दा की। इस प्रकार उन पर इस षडयंत्र और कांड काप्रमुख संदिग्ध होने का संदेह उन पर किंचितमात्र भी नहीं हुआ।[१] 1913 में बंगालमें बाढ़ राहत कार्य के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क मेंआए, जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया। रासबिहारी बोस इसके बाददोगुने उत्साह के साथ फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन में लग गए।भारत को स्वतंत्र कराने के लिए उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर की योजना बनाई। फरवरी १९१५ में अनेक भरोसेमंद क्रांतिकारियों की सेना में घुसपैठ कराने की कोशिश की गई।

जुगांतरके कई नेताओं ने सोचा कि यूरोप में युद्ध होने के कारण चूंकि अभी अधिकतरसैनिक देश से बाहर गए हुए हैं, इसलिए बाकी को आसानी से हराया जा सकता हैलेकिन यह प्रयास भी असफल रहा और कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लियागया। ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकड़ने की कोशिश कीलेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढ़े और भागकर विदेश से हथियारों की आपूर्ति केलिए जून १९१५ में राजा पी. एन. टैगोर के नाम से जापान के शंघाई में पहुंचे और वहां देश की आजादी के लिए काम करने लगे।[२]वहां उन्होंने कई वर्ष निर्वासन में बिताए। जापान में भी रासबिहारी बोसचुप नहीं बैठे और वहां के अपने जापानी क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकरदेश की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करते रहे। उन्होंने जापान में अंग्रेजीके अध्यापन के साथ लेखक व पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। उन्होंनेवहां में न्यू एशिया नामक समाचार पत्र शुरू किया। जापानी भाषा सीखी और इसमें १६ पुस्तकें लिखीं।[२] ब्रिटिश सरकारअब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांगकर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और आवास बदलते रहे। १९१६ में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और १९२३ में वहां के नागरिक बन गए।[१] जापान में वह पत्रकार और लेखकके रूप में रहने लगे। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्षमें खड़ा करने और देश की आजादी के आंदोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलानेमें भी रासबिहारी बोस की भूमिका अहम रही। उन्होंने २८ मार्च १९४२ को टोक्योमें एक सम्मेलन बुलाया जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना कानिर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेनाबनाने का प्रस्ताव भी पेश किया।

22जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबंदियों को पकड़ा था। इन युद्धबंदियों को इंडियन इंडीपेंडेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) का सैनिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया। आईएनए का गठन रासबिहारी बोस की इंडियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितंबर १९४२ को किया गया। बोस ने एक झंडे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झंडे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया।[१]रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्यकमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया लेकिनआईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा। बाद में इसी ढांचे पर सुभाष चंद्र बोसने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनएस का पुनर्गठन किया।

भारत को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की जीतोड़ मेहनत करते हुए किन्तु इसकी आस लिए ही21 जनवरी 1945 को इनका निधन हो गया।[१] उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत किया था।rash bihari boserash bihari bose

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महाराणा प्रताप का आदर्श व्यक्तित्व


।।परमेश्वरांजी श्रीएकलिंगनाथ।।
“महाराणा प्रताप का आदर्श व्यक्तित्व और महत्वाकांक्षी ज़ल्लालुदीन मोहम्मद अकबर “

साम्राज्य विस्तार और भारत का एक मात्र सम्राट बनना, अकबर की सामरिक नीति का यह एक महत्वपूर्ण अंग रहा था, लेकिन उस समय मेवाड़ और मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा उसके इस सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा में बाधक बने हुए थे। इसी विचार के चलते अकबर ने 1567 -68 ई. में विशाल सैन्य दल के साथ मेवाड़ को अपने अधिन करने हेतु चितौड़दुर्ग की तरफ आगे बढा ।साढे चार माह तक चितौड़गढ दुर्ग की घेराबंदी की । अधिनता स्वीकार करने हेतु संधि प्रस्ताव भेजा , तोड़ फोड़ की नीति का भी सहारा लिया, स्थानीय लोगो को कई तरह के प्रलोभन भी दिये ? लेकिन मेवाड़ के किसी भी व्यक्ति ने उसका सहयोग नही किया । हर तरह से असफल होने के बाद अकबर ने चितौड़गढ और उसके आसपास के मैदानी भू -भाग को आक्रमण कर बुरी तरह बर्बाद भी किया । मेवाड़ के महाराणा को अपने परिवार, सहयोगियों और जन समुदाय के साथ मैदानी भाग छोड़कर पर्वतों की शरण लेनी पड़ी । चितौड़ दुर्ग विजय के बाद अकबर ने मेवाड़ के समस्त मैदानी भाग में मुगल चौकियां स्थापित कर मेवाड़ को पूरी तरह से मुगल छावनी में तब्दील कर दिया। मेवाड़ के बाकी रहे पर्वतीय क्षेत्र को जैसे गोड़वाड़, सिरोही, पालनपुर, ईडर और मालवा क्षेत्र की तरफ से लगी हुई मेवाड़ की सीमा के अंदर की परिधि में बाकी बचे 300 स्क्वायर किलोमीटर परिधि के पुरे पर्वतीय प्रदेश के चारों ओर मुगल चौकियां स्थापित कर मेवाड़ को छावनी में तब्दील कर दिया । इस तरह मेवाड़ का महाराणा और मेवाड़ का पर्वतीय क्षेत्र लगभग एक लाख मुगल सैनिको के बिच अगले तीस वर्षो तक निरंतर सैन्य टकराव के साथ अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता रहा , हम केवल उस कठिन संकट और संघर्ष की मात्र कल्पना ही कर सकते है? लेकिन उन्होंने सहर्ष ऐसा कठिन संघर्ष किया । लेकिन इतना होते हुए भी महाराणा प्रताप ने अंत समय तक अपनी अस्मिता ,स्वाधीनता और अपने मानवीय नैतिक मूल्यों के साथ समझौता नही किया ।

इन तीस सालो तक मेवाड़ की घेराबंदी और सैन्य अभियान से अकबर को हताशा और बर्बादी के अलावा कुछ भी हांसिल नही हुआ, उल्टा भारत का एक मात्र सम्राट कहलाने का सपना भी चूर चूर हो गया ।
प्रताप की जीवट क्षमता और निरंतर संघर्ष ने ही प्रताप को महान बनाया, इसलिए प्रताप महान कहलाये । यहां तक आचरण और व्यवहार से भी प्रताप ने मेवाड़ की धरा पर आनेवाले हर शख्स के साथ विनम्रतापूर्वक शिष्टाचार का पालन करते हुए, सम्मान जनक व्यवहार किया ,चाहे वह शख्स शत्रु पक्ष का ही क्यों न हो । जैसे जितने भी लोग संधि प्रस्ताव लेकर प्रताप के पास आये उनके साथ उनके पद के अनुसार जो उचित सम्मान जनक व्यवहार होना चाहिए था , वैसा ही किया। आपसी वार्तालाप में भी हर परिस्थिति में शिष्टाचार का पालन किया । इस प्रकार दुसरा उदाहरण, जैसे कुंवर अमर सिंह खाने खाना के परिवार को बंदी बनाकर प्रताप के सामने लाये, तो प्रताप ने अमर सिंह को हुकम दिया , कि आप इन्है बा इज्जत वापस खाने खाना के सैन्य शिविर में सोंप कर आयें । अकबर ने अपनी महत्वाकांक्षा के चलते महाराणा से प्रतिशोध पाला, लेकिन प्रताप ने अकबर के साथ अपमान जनक व्यवहार कभी नही करके, युद्ध का जवाब प्रतिरोध स्वरूप युद्ध करके दिया । यही मानवीय गुण प्रताप को महान बनाता है ।इसलिए प्रताप मात्र एक व्यक्ति नही हो कर भारतीय सनातन संस्कृति के एक आदर्श चरित्र नायक है , जो मानवीय नैतिक मूल्यो की दृष्टि से व्यक्ति, जाती, वर्ग और समुदाय से उपर उठकर देश की सांस्कृतिक स्वाधीनता और स्वाभिमान के प्रति आजीवन समर्पित रहे ।
आज हम ऐसे जन नायक, प्रातः स्मरणीय, आदर्श व्यक्तित्व के धनी की जयन्ती के अवसर पर हार्दिक भावाञ्जंली अर्पित करतेहै ।
जय मेवाड़, जय भारत!
सद्भावी
प्रताप सिंह झाला, तलावदा,
संयोजक -मेवाड़जन, उदयपुर,
राजस्थान

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यक्ष प्रश्न


यक्ष प्रश्न

महाभारत में पांडवों के 12 वर्ष के वनवास के समय एक सरोवर में पानी पीने से पहले यक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्न सर्वविदित है।
ये प्रश्र देश, काल से परे हैं। जीवन मूल्यों से संबंधित प्रश्न हैं।
लेकिन अब प्रश्न यह है कि क्या जीवन मूल्य बदल गये हैं?
आइये, आज के माहौल में इन पर चर्चा करते हैं ।

मैं जूम एप पर अपने अभिन्न मित्रों के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग करने को उद्यत हुआ ही था कि श्रीमती जी की आवाज़ सुनाई दी।

“आर्यपुत्र , आज घर में ना तो दाल है और ना ही कोई सब्जी। अगर भोजन करना है तो दाल, सब्जी वगैरह लाने होंगे। तभी भोजन बन सकेगा , आर्यपुत्र।”

“भार्ये, चिन्ता मत करो। अभी व्यवस्था करते हैं”।

और मैंने अपने छोटे पुत्र नीलेश से कहा।

“वत्स, जाओ और थोड़ी सब्जी और दाल लेकर आओ।”

“जो आज्ञा , पिता श्री।”
और नीलेश कपड़े का थैला लेकर चला गया।

काफी देर तक जब वह नहीं आया तो श्रीमती जी को चिंता होने लगी । बोली

“आर्यपुत्र , नीलेश अभी तक नहीं आया है। मेरा दिल धड़क रहा है।”
“घबराओ नहीं भार्ये । नीलेश कोई ऐसा वैसा व्यक्ति नहीं है। महारथी है। आई आई टी टॉपर है”।

“लेकिन मुझे चिंता हो रही है आर्यपुत्र।”

“वत्स अनिमेष!! जरा जाकर देखो तो पुत्र। नीलेश अभी तक नहीं आया है।”

“जो आज्ञा पिता श्री।” कहकर अनिमेष भी चला गया ।

काफी देर के पश्चात जब अनिमेष भी वापस नहीं लौटा तो श्रीमती जी को ज्यादा चिंता होने लगी। बोलीं

“आर्यपुत्र , अनिमेष को भी गये बहुत समय हो गया है। अभी तक वापस नहीं लौटा है। नीलेश का भी कोई अता पता नहीं है। मेरा मन बहुत घबरा रहा है, आर्यपुत्र।”

मैंने उसे ढांढस बंधाते हुए कहा “भार्ये , अनिमेष जैसा श्रेष्ठ वकील त्रैलोक्य में नहीं है। इसलिए चिंता ना करो भार्ये। बस, आता ही होगा।”

काफी देर के पश्चात भी जब अनिमेष नहीं आया तो मुझे स्वयं जाना पड़ा।

बाहर निकल कर मैंने देखा कि लॉकडाउन के कारण सड़कें वीरान‌ हैं। मैं थोड़ा आगे गया तो देखा कि एक थानेदार बैरीकेडिंग लगाये बीच सड़क पर बैठा है। मैं बेरीकेडिंग के बीच से निकल ही रहा था कि एक कड़कती रौबदार आवाज आई।

“किधर जा रहा है। देखता नहीं लॉकडाउन लगा हुआ है और बेरीकेडिंग लगीं हुई हैं।

मैं बोला , “हे देव! सड़क पर तो सबका समान अधिकार होता है। घर में सब्जी और दाल खत्म हो गई है। बस वही लेने जा रहा था।”

“सावधान!!

तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दिये बिना आगे नहीं जा सकते। इन दोनों ने भी यही गलती की थी इसलिए इनको गिरफ्तार कर लिया गया है।”

मैंने उन दोनों पर निगाह डाली। नीलेश और अनिमेष दोनों के हाथों में हथकड़ी लगी हुई थी। मैं बोला

” पूछो देव। क्या प्रश्न है आपका?”

“सत्य क्या है ?”
“जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार सत्य के भी दो पहलू होते हैं। जिसको जो पहलू नजर आता है उसको वहीं पहलू सत्य नजर आता है।”

“अभिशाप क्या है?”
“आमजन होना ही सबसे बड़ा अभिशाप है देव।”

“वरदान क्या है?”
“वी वी आई पी होना संसार का सबसे बड़ा वरदान है देव।”

“कलाकार किसे कहते हैं?”
“गिरगिट से भी तीव्र गति से जो रंग बदलता हो वही कलाकार कहलाता है।”

“जीवन का उद्देश्य क्या है?”
“सत्ता प्राप्त करना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।”

“स्वर्ग क्या है?”
“दसों उंगली घी में और सिर कड़ाही में होना ही स्वर्ग है देव।”

“चरम सुख क्या है?”
“पर निंदा ही चरम सुख है देव।”

“ज्ञानी कौन है?”
“येन केन प्रकारेण अपना काम निकालने वाला ही परम ज्ञानी है।”

“करने योग्य कार्य कौन सा है?”
“करने योग्य कार्य केवल एक ही है और वह है, चमचागिरी।”

“न करने योग्य कार्य क्या है?”
“अपने बॉस की बुराई।”

“सबसे कठिन कार्य क्या है?”
“थूककर चाटना सबसे कठिन कार्य है, देव।”

“पुलिस का कार्य क्या है?”
“निरपराध को अपराधी और अपराधी को निरपराध बताना ही पुलिस का मुख्य कार्य है।”

“न्यायालय क्या है?”
“एक ऐसा स्थान जहां सत्य को असत्य और असत्य को सत्य सिद्ध किया जाता हो।”

“सरकार का क्या कार्य है?”
“नया वोट बैंक बनाना और पुराने को पुख्ता करना ही सरकार का कार्य है।”

“डरने योग्य क्या है?”
“धारा 3 और धारा 376।”

“दुःख कब होता है?”
“पड़ोसन जब मैके चली जाती है, तब घोर दुख होता है।”

“मीडिया क्या है?”
“पैसे लेकर फेक खबरें चलाना ही मीडिया है।”

“सोशल मीडिया क्या है?”
“गपशप करने और टाइम पास करने का सार्वजनिक मंच ही सोशल मीडिया है।”

“दुस्साहस क्या है ?”
“सत्य को सत्य कहना ही दुस्साहस है।”

“आज की तारीख में मनुष्य को क्या करना चाहिए?”
“आज की तारीख में मनुष्य को केवल अपने घर पर रहना चाहिए और सरकार के दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए।”

“मिसाइल से भी खतरनाक अस्त्र कौन सा है?”
” थूक ” ।

“कृतघ्न किसे कहते हैं?”
“बचाने वाले भगवान पर भी जो पत्थर मारें, वे कृतघ्न कहलाते हैं।”

थानेदार बोला
“आपने मेरे समस्त प्रश्नों का सही सही उत्तर दिया है। अतः आप अपने एक पुत्र को छुड़ा सकते हैं और दाल, सब्जी लेने जा सकते हैं।”

मैंने कहा, “देव अगर आप प्रसन्न हैं तो मेरे छोटे पुत्र नीलेश को छोड़ दें।”

थानेदार चौंक कर बोला
“वत्स, आपने अपने छोटे पुत्र को ही क्यों छुड़वाया? आपका बड़ा पुत्र तो महाप्रतापी है। उसे क्यों नहीं छुड़वाया?”

“भगवन् , इसके दो कारण हैं । पहला तो यह कि छोटा पुत्र मां को अति प्रिय होता है । इसकी मां इसे देखकर अति प्रसन्न होगी। अगर वो प्रसन्न रहेगी तो मैं भी प्रसन्न रह सकूंगा। दूसरा यह कि मेरा बड़ा पुत्र एक नामी वकील है और किसी वकील को ज्यादा देर तक गिरफ्तार करने की शक्ति किसी भी पुलिस अधिकारी में नहीं है। अभी थोड़ी देर में इसकी वकील सेना आ जायेगी और आपके थाने का वैसा ही विध्वंस कर देगी जैसा कि शिवजी की सेना ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस किया था।”

“हम आपके ज्ञान और उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए वत्स। आपके बड़े पुत्र को भी हम रिहा करते हैं। वत्स कोई वर मांगो।”

“अगर आप मुझ पर कृपालु हैं तो हमें एक ऐसा कार्ड दे दीजिए जिसे दिखाने पर कोई पुलिस कर्मी हमें परेशान न करें।”

और थानेदार ने अपना एक वीवीआईपी पास मुझे दे दिया। अपने मातहत से कहकर सब्जी वाले से फ्री सब्जी और दाल वाले से फ्री दाल दिलवा कर मेरे घर तक पहुंचवा दी।

हम सब लोग सकुशल घर वापस आ गये। हम सबको देखकर श्रीमती जी बहुत प्रसन्न हो गयीं।

🙏🙏 यथार्थ ज्ञान कोवीड -१९ यथा प्राप्त

कापी

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एक राजा ने बहुत ही सुंदर महल बनावाया


लक्ष्मीकांत वार्ष्णेय विजयगढ़िया

एक राजा ने बहुत ही सुंदर महल बनावाया
महल के मुख्य द्वार पर एक ”गणित का सूत्र” लिखवाया
एक घोषणा की कि इस सूत्र से यह ‘द्वार खुल जाएगा और जो भी इस ”सूत्र” को ”हल” कर के ”द्वार” खोलेगा में उसे अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दूंगा।

राज्य के बड़े बड़े गणितज्ञ आये और सूत्र देखकर लोट गए, किसी को कुछ समझ नहीं आया।

आख़री दिन आ चुका था उस दिन तीन लोग आये और कहने लगे हम इस सूत्र को हल कर देंगे। उसमे दो तो दूसरे राज्य के बड़े गणितज्ञ अपने साथ बहुत से पुराने गणित के सूत्रो की पुस्तकों सहित आये। लेकिन एक व्यक्ति जो ”साधक” की तरह नजर आ रहा था सीधा साधा कुछ भी साथ नहीं लाया था। उसने कहा मै यहां बैठा हूँ पहले इन्हें मौक़ा दिया जाए। दोनों गहराई से सूत्र हल करने में लग गए लेकिन द्वार नहीं खोल पाये और अपनी हार मान ली।

अंत में उस साधक को बुलाया गया और कहा कि आपका सूत्र हल करिये समय शुरू हो चुका है।

साधक ने आँख खोली और सहज मुस्कान के साथ ‘द्वार’ की ओर गया। साधक ने धीरे से द्वार को धकेला और यह क्या? द्वार खुल गया, राजा ने साधक से पूछा – आप ने ऐसा क्या किया? साधक ने बताया जब में ‘ध्यान’ में बैठा तो सबसे पहले अंतर्मन से आवाज आई, कि पहले ये जाँच तो कर ले कि सूत्र है भी या नहीं। इसके बाद इसे हल ”करने की सोचना” और मैंने वही किया!

कई बार जिंदगी में कोई ”समस्या” होती ही नहीं और हम ”विचारो” में उसे बड़ा बना लेते हैं।

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रास बिहारी बोस


अरुण सुकला

जय हो आज 25-5-1886 है।
भीषण अंधेरी रात और लताओं से घिरा वन, एक शिला की टेक लेकर अपनी थकान मिटाने के लिए अघोरी रुका। शिला से आवाज आई- “सुनो, ध्यान से मेरी बात सुनो। 8 दशक पूर्व की बात है, दक्षिण पूर्व एशिया और शेष विश्व के छोटे छोटे द्वीपों के लाखों गिरमिटिया मजदूर और उनके बीच कुछ निर्वासित क्रांतिकारी, कवि और विद्वान जीवित होकर भी शव की भांति पड़े थे। उनके निश्चेष्ट, निरुद्देश्य अस्तित्व को किसी अघोरी की प्रतीक्षा थी जो व्योम से जीवात्मा का आह्वान करके उनके भीतर आत्मा का संचार कर दे।”

अघोरी ने पूछा- आप कौन हैं महापुरुष?

उत्तर मिला- “मैं मलय से थाईलैंड और जापान की सीमाओं तक घूमता रहा; पर योजनाओं का क्रियान्वयन नही हो पाया। भीड़ जुटती थी, सभी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए व्यग्र थे पर भीड़ का कोई निर्णय नही होता, भीड़ का कोई एक लक्ष्य नही होता अतः भीड़ ने कोई क्रांति नही की। ऐसे में एक अवतारी मेरे सामने प्रकट हुआ और उसने वह कर दिया जो दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकारें भी नही कर पाई। उस सुभाष चंद्र बोस ने भीड़ के अंदर आत्मा का संचार कर दिया और पलक झपकते ही भीड़ एक अनुशासित सेना बन गई।”

“तुम्हें क्या लगता है अघोरी, क्या संसार के बड़े परिवर्तन किसी भीड़ ने किए? भीड़ कभी कुछ नही करती, संसार के सबसे बड़े कार्य कुछ सिरफिरे अकेले लोगों ने ही किए हैं। संसार के सबसे बड़े भाड़ अकेले चनों ने ही फोड़े हैं। फ्लेमिंग न होता तो चिकित्सा विज्ञान वह नही होता जो आज है। पास्चर नही होते तो जीवन और रोगों को नई दृष्टि से हमने देखा नही होता। मंगल पांडे न होते तो वैसा 1857 नही हुआ होता। रोज रोज योजनाएं बनाकर कुछ नही होता है क्योंकि विश्व की 99% अद्भुत योजनाएं कभी भूमि पर नही उतरती हैं। सबसे अविश्वसनीय कार्य अकेले सिरफिरे पागलों ने ही किया है। वाणभट्ट और चाणक्य जैसे अकेले व्यक्तियों ने ही सम्पूर्ण भारत का एकीकरण किया है।
जीवन के हर क्षेत्र में यह बात सत्य है। गांधी हजारो हो सकते हैं क्योंकि गांधी होने में कोई खतरा नही है, सबकी तुष्टि करो;सबसे संवाद करो और वार्ता तथा गोष्ठियां करो पर देश के लिए बलिदान हो जाने के लिए जो अदम्य साहस चाहिए वह भगत सिंह एक ही हो सकता है। कांग्रेसी भीड़ के बिना गांधी कुछ नही थे, विशाल भीड़ के साथ अनेकों आंदोलन करके भी गांधी सफल नही हुए(स्वयं स्वीकारा है उन्होंने)। 23 वर्ष की वय में लोग रंगीन सपनों से बाहर नही निकलते और भगतसिंह इस उम्र में फांसी चढ़ गए, फांसी चढ़ने के पूर्व देश के सैकड़ों शहर और हजारों गांव की खाक भी छानी, गहन अध्ययन भी किया, बम भी बनाए और बलिदानी परिवारों की जिम्मेदारी भी निभाई।

असेम्बली में बम फेंकना एक सुनियोजित, सुविचारित और अद्भुत प्रक्रिया थी। उन्होंने सरकार को पूरे विश्व में नंगा कर दिया। जो पर्चे फेंके गए उसके एक एक शब्द में देश के लिए संदेश था, अंग्रेजों के लिए सन्देश था। इस अकेले दीवाने ने थर्रा दिया था पूरे देश को, हँसते हँसते बलिदान होने का जो उदाहरण इन्होंने दिया उसने पूरे भारत का वह जागरण किया जिसकी तुलना में पूरी कांग्रेस शून्य हो गई थी।
अकेले मदनलाल की एक गोली ने ब्रिटिश तंत्र को इतना डरा दिया जितना विश्वयुद्ध के भय ने भी उन्हें आतंकित नही किया था, पढ़ो लन्दन के अधिकारियों की पत्नियों की डायरी के अंश जिन्होंने मदनलाल धींगरा की गोलियों की धमक बकिंघम पैलेस के ठीक सामने सुनी थी।

भगतसिंह ने कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की आवश्यकता होती है, यह उनकी समस्या है जो आज भी उनका योगदान नही समझते। फांसी के पहले जो अपनी माँ से कहता है कि लाश लेने तुम मत आना, छोटे को भेजना। उसके बलिदान को और आत्मबल को गालियां देने वाले आज भी भारत में हैं यही दुःखद है।

सावरकर जब काला पानी जा रहे थे तो एक अंग्रेज अधिकारी ने कहा- दोहरे कालापानी तक तो यह सूखा आदमी जी ही नही पाएगा। सावरकर ने कहा- तबतक तुम्हारी सरकार ही नही बचेगी। इन क्रांतिकारियों के समक्ष खड़ा होने योग्य कौन है, कहो?”

अघोरी ने पूछा- आप कौन हैं प्रभु?

शिला से आवाज आई- “मैं कौन हूँ यह महत्वपूर्ण नहीं है, क्रांति की परंपरा महत्वपूर्ण है क्योंकि क्रांतियाँ अकेले लोगों ने ही की है, सिरफिरे पागलों ने की है, अचानक ही की है। होशियार लोगों जीवनभर योजनाएं बनाकर इन क्रांतियों का राजनैतिक भोग करते रहे हैं।”

अघोरी बोला- “आपको नमन है क्योंकि आपके लिए ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि पूरी आजाद हिंद फौज न होती अगर आप अकेले न होते।”

तभी आकाश में बिजली चमकी और शिला पर अंकित अक्षर चमक उठे- रास बिहारी बोस।
#अघोरी एकला चलो रे