[ माँ गङ्गा की महिमा ]
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बन्धुओं! जैसा कि आप सभी को ज्ञात है किंतु फिर भी स्मृति के लिए बता रहा हूँ कि गङ्गा नदी उत्तर भारत की केवल जीवनरेखा ही नहीं, अपितु हिंदू धर्म का सर्वोत्तम तीर्थ है। ‘आर्य सनातन वैदिक संस्कृति’ गङ्गा के तट पर विकसित हुई, इसलिए गङ्गा हिंदुस्थान की राष्ट्ररूपी अस्मिता है एवं भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। इस कलियुग में श्रद्धालुओं के पाप-ताप नष्ट हों, इसलिए ईश्वर ने उन्हें इस धरा पर भेजा है। वे प्रकृति का बहता जल ही नहीं; अपितु सुरसरिता (देवनदी) हैं। उनके प्रति हिंदुओं की आस्था गौरीशङ्कर की भांति सर्वोच्च है। गङ्गाजी मोक्षदायिनी हैं; इसीलिए उन्हें गौरवान्वित करते हुए पद्मपुराण में (खण्ड ५, अध्याय ६०, श्लोक ३९) कहा गया है – ‘सहज उपलब्ध एवं मोक्षदायिनी गङ्गाजी के रहते विपुल धनराशि व्यय (खर्च) करने वाले यज्ञ एवं कठिन तपस्या का क्या लाभ’❓नारदपुराण में तो कहा गया है – ‘अष्टांग योग, तप एवं यज्ञ, इन सबकी अपेक्षा गङ्गाजी का निवास उत्तम है। गङ्गाजी भारत की पवित्रता की सर्वश्रेष्ठ केंद्रबिंदु हैं, उनकी महिमा अवर्णनीय है।’
माँ गङ्गा की ब्रह्मांड में उत्पत्ति —
‘वामनावतार में श्रीविष्णु ने दानवीर बली राजा से भिक्षा के रूप में तीन पग भूमि का दान मांगा। राजा इस बात से अनभिज्ञ थे कि श्रीविष्णु ही वामन के रूप में आए हैं। उन्होंने उसी क्षण भगवान वामन को तीन पग भूमि दान की। वामन भगवान ने विराट रूप धारण कर पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी तथा दूसरे पग में अंतरिक्ष व्याप लिया। दूसरा पग उठाते समय भगवान वामन के ( श्रीविष्णुके) बाएं पैर के अंगूठे के धक्के से ब्रह्मांड का सूक्ष्म-जलीय कवच टूट गया। उस छिद्रसे गर्भोदक की भांति ‘ब्रह्मांड के बाहर के सूक्ष्म-जल ने ब्रह्मांड में प्रवेश किया। यह सूक्ष्म-जल ही गङ्गा है ! गङ्गा जी का यह प्रवाह सर्वप्रथम सत्यलोक में गया। ब्रह्मदेव ने उसे अपने कमण्डलु में धारण किया। तदुपरांत सत्यलोक में ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु के जल से श्रीविष्णु के चरणकमल धोए। उस जल से गङ्गा जी की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात गङ्गा जी की यात्रा सत्यलोक से क्रमशः तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, इस मार्ग से स्वर्गलोक तक हुई।
गङ्गा जी की पृथ्वी पर उत्पत्ति —
सूर्यवंश के राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया। उन्होंने दिग्विजय के लिए यज्ञीय अश्व भेजा एवं अपने ६० सहस्त्र पुत्रों को भी उस अश्व की रक्षा हेतु भेजा। इस यज्ञ से भयभीत इंद्रदेव ने यज्ञीय अश्व को कपिल मुनि के आश्रम के निकट बांध दिया। जब सगरपुत्रों को वह अश्व कपिल मुनि के आश्रम के निकट प्राप्त हुआ, तब उन्हें लगा, ‘कपिल मुनि ने ही अश्व चुराया है।’ इसलिए सगरपुत्रों ने ध्यानस्थ कपिल मुनि पर आक्रमण करने की सोची। कपिल मुनि को अंतर्ज्ञान से यह बात ज्ञात हो गई तथा अपने नेत्र खोले। उसी क्षण उनके नेत्रों से प्रक्षेपित तेज से सभी सगरपुत्र भस्म हो गए। कुछ समय पश्चात सगर के प्रपौत्र राजा अंशुमन ने सगरपुत्रों की मृत्यु का कारण खोजा एवं उनके उद्धार का मार्ग पूँछा। कपिल मुनि ने अंशुमनसे कहा, “”गङ्गा जी को स्वर्ग से भूतल पर लाना होगा। सगरपुत्रों की अस्थियों पर जब गङ्गाजल प्रवाहित होगा, तभी उनका उद्धार होगा !’’ मुनिवर के बताए अनुसार गङ्गा को पृथ्वी पर लाने हेतु अंशुमन ने तप आरंभ किया ।’ ‘अंशुमन की मृत्युके पश्चात उसके सुपुत्र राजा दिलीप ने भी गङ्गा अवतरण के लिए तपस्या की।अंशुमन एवं दिलीप के सहस्त्र वर्ष तप करने पर भी गङ्गा अवतरण नहीं हुआ; परंतु तपस्या के कारण उन दोनों को स्वर्गलोक प्राप्त हुआ ।’
— (वाल्मीकिरामायण, काण्ड १, अध्याय ४१, २०-२१)
‘राजा दिलीप की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र राजा भगीरथ ने कठोर तपस्या की। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर गङ्गा माता ने भगीरथ से कहा, ‘‘मेरे इस प्रचंड प्रवाह को सहना पृथ्वी के लिए कठिन होगा। अतः तुम भगवान शङ्कर को प्रसन्न करो ।’’ आगे भगीरथ की घोर तपस्या से भगवान शङ्कर प्रसन्न हुए तथा भगवान शङ्कर ने गङ्गा जी के प्रवाह को जटा में धारण कर उसे पृथ्वी पर छोड़ा। इस प्रकार हिमालय में अवतीर्ण गङ्गा जी भगीरथ के पीछे-पीछे गौमुख से गङ्गोत्री – हरिद्वार, प्रयाग, काशी आदि स्थानों को पवित्र करते हुए बंगाल के उपसागर में (खाड़ी में) लुप्त हुईं।’ जो गङ्गासागर के नाम से प्रसिद्ध है।
ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, भौमवार (मङ्गलवार) एवं हस्त नक्षत्र के शुभ योग पर गङ्गा जी स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुईं। जिस दिन गङ्गा पृथ्वी पर अवतरित हुईं वह दिन ‘गङ्गा दशहरा’ के नाम से जाना जाता है।
जगद्गुरु आद्य शंकराचार्यजी, जिन्होंने कहा है : एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति । द्वितियाद्वैत भयं भवति ।। उन्होंने भी ‘गङ्गाष्टक’ लिखा है, गङ्गा की महिमा गायी है। रामानुजाचार्यजी, रामानंद स्वामीजी, चैतन्य महाप्रभु जी और स्वामी रामतीर्थ जी ने भी गङ्गा जी की बड़ी महिमा गायी है। कई साधु-संतों, अवधूत-मंडलेश्वरों और जती-जोगियों ने गङ्गा माता की कृपा का अनुभव किया है, कर रहे हैं तथा आगे भी करते रहेंगे।
अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी गङ्गाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गङ्गाजल में रोगाणुओं को नष्ट करने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे हैं।
हृषिकेश में स्वास्थ्य-अधिकारियों ने पुँछवाया कि यहाँ से हैजे की कोई खबर नहीं आती, क्या कारण है❓ उनको बताया गया कि यहाँ यदि किसी को हैजा हो जाता है तो उसको गङ्गाजल पिलाते हैं। इससे उसे दस्त होने लगते हैं तथा हैजे के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। वैसे तो हैजे के समय घोषणा कर दी जाती है कि पानी उबालकर ही पियें। किंतु गङ्गाजल के पान से तो यह रोग मिट जाता है और केवल हैजे का रोग ही मिटता है ऐसी बात नहीं है, अन्य कई रोग भी मिट जाते हैं। तीव्र व दृढ़ श्रद्धा-भक्ति हो तो गङ्गास्नान व गङ्गाजल के पान से जन्म-मरण का रोग भी मिट सकता है।
सन् १९४७ में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था। उसने वाराणसी से गङ्गाजल लिया। उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है – ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है।’
दुनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करने वाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् १९२४ में ही गङ्गाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशक जल घोषित कर दिया था।
कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गङ्गाजी में मिल चुके होते हैं। अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भरा हुआ गङ्गाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगड़ता नहीं है। जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आने तक खराब हो जाता है।
अभी रुड़की विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गङ्गाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं।’
फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गङ्गाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। फिर उसने गङ्गाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोग में उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गङ्गाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा।
संत तुलसीदास जी कहते हैं —
गंग सकल मुद मंगल मूला ।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
— (श्रीरामचरित. अयो. कां. : ८६.२)
आद्य शङ्कराचार्य जी ने भी अद्भुत मनोरम श्रीगङ्गा स्तोत्र लिखा है –
देवि सुरेश्वरी भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणी तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणी विमले मम मतिरास्तां तव पद कमले।।
………. शेष संपूर्ण स्तोत्र आगे फिर कभी
“”””हर हर गङ्गे””””
साभार संकलित
— ज्योतिर्विद पं॰ मनीष तिवारी