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माँ गङ्गा की महिमा


[ माँ गङ्गा की महिमा ]
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बन्धुओं! जैसा कि आप सभी को ज्ञात है किंतु फिर भी स्मृति के लिए बता रहा हूँ कि गङ्गा नदी उत्तर भारत की केवल जीवनरेखा ही नहीं, अपितु हिंदू धर्म का सर्वोत्तम तीर्थ है। ‘आर्य सनातन वैदिक संस्कृति’ गङ्गा के तट पर विकसित हुई, इसलिए गङ्गा हिंदुस्थान की राष्ट्ररूपी अस्मिता है एवं भारतीय संस्कृति का मूलाधार है। इस कलियुग में श्रद्धालुओं के पाप-ताप नष्ट हों, इसलिए ईश्वर ने उन्हें इस धरा पर भेजा है। वे प्रकृति का बहता जल ही नहीं; अपितु सुरसरिता (देवनदी) हैं। उनके प्रति हिंदुओं की आस्था गौरीशङ्कर की भांति सर्वोच्च है। गङ्गाजी मोक्षदायिनी हैं; इसीलिए उन्हें गौरवान्वित करते हुए पद्मपुराण में (खण्ड ५, अध्याय ६०, श्लोक ३९) कहा गया है – ‘सहज उपलब्ध एवं मोक्षदायिनी गङ्गाजी के रहते विपुल धनराशि व्यय (खर्च) करने वाले यज्ञ एवं कठिन तपस्या का क्या लाभ’❓नारदपुराण में तो कहा गया है – ‘अष्टांग योग, तप एवं यज्ञ, इन सबकी अपेक्षा गङ्गाजी का निवास उत्तम है। गङ्गाजी भारत की पवित्रता की सर्वश्रेष्ठ केंद्रबिंदु हैं, उनकी महिमा अवर्णनीय है।’

माँ गङ्गा की ब्रह्मांड में उत्पत्ति —

‘वामनावतार में श्रीविष्णु ने दानवीर बली राजा से भिक्षा के रूप में तीन पग भूमि का दान मांगा। राजा इस बात से अनभिज्ञ थे कि श्रीविष्णु ही वामन के रूप में आए हैं। उन्होंने उसी क्षण भगवान वामन को तीन पग भूमि दान की। वामन भगवान ने विराट रूप धारण कर पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी तथा दूसरे पग में अंतरिक्ष व्याप लिया। दूसरा पग उठाते समय भगवान वामन के ( श्रीविष्णुके) बाएं पैर के अंगूठे के धक्के से ब्रह्मांड का सूक्ष्म-जलीय कवच टूट गया। उस छिद्रसे गर्भोदक की भांति ‘ब्रह्मांड के बाहर के सूक्ष्म-जल ने ब्रह्मांड में प्रवेश किया। यह सूक्ष्म-जल ही गङ्गा है ! गङ्गा जी का यह प्रवाह सर्वप्रथम सत्यलोक में गया। ब्रह्मदेव ने उसे अपने कमण्डलु में धारण किया। तदुपरांत सत्यलोक में ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु के जल से श्रीविष्णु के चरणकमल धोए। उस जल से गङ्गा जी की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात गङ्गा जी की यात्रा सत्यलोक से क्रमशः तपोलोक, जनलोक, महर्लोक, इस मार्ग से स्वर्गलोक तक हुई।

गङ्गा जी की पृथ्वी पर उत्पत्ति —

सूर्यवंश के राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरंभ किया। उन्होंने दिग्विजय के लिए यज्ञीय अश्व भेजा एवं अपने ६० सहस्त्र पुत्रों को भी उस अश्व की रक्षा हेतु भेजा। इस यज्ञ से भयभीत इंद्रदेव ने यज्ञीय अश्व को कपिल मुनि के आश्रम के निकट बांध दिया। जब सगरपुत्रों को वह अश्व कपिल मुनि के आश्रम के निकट प्राप्त हुआ, तब उन्हें लगा, ‘कपिल मुनि ने ही अश्व चुराया है।’ इसलिए सगरपुत्रों ने ध्यानस्थ कपिल मुनि पर आक्रमण करने की सोची। कपिल मुनि को अंतर्ज्ञान से यह बात ज्ञात हो गई तथा अपने नेत्र खोले। उसी क्षण उनके नेत्रों से प्रक्षेपित तेज से सभी सगरपुत्र भस्म हो गए। कुछ समय पश्चात सगर के प्रपौत्र राजा अंशुमन ने सगरपुत्रों की मृत्यु का कारण खोजा एवं उनके उद्धार का मार्ग पूँछा। कपिल मुनि ने अंशुमनसे कहा, “”गङ्गा जी को स्वर्ग से भूतल पर लाना होगा। सगरपुत्रों की अस्थियों पर जब गङ्गाजल प्रवाहित होगा, तभी उनका उद्धार होगा !’’ मुनिवर के बताए अनुसार गङ्गा को पृथ्वी पर लाने हेतु अंशुमन ने तप आरंभ किया ।’ ‘अंशुमन की मृत्युके पश्चात उसके सुपुत्र राजा दिलीप ने भी गङ्गा अवतरण के लिए तपस्या की।अंशुमन एवं दिलीप के सहस्त्र वर्ष तप करने पर भी गङ्गा अवतरण नहीं हुआ; परंतु तपस्या के कारण उन दोनों को स्वर्गलोक प्राप्त हुआ ।’
— (वाल्मीकिरामायण, काण्ड १, अध्याय ४१, २०-२१)

‘राजा दिलीप की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र राजा भगीरथ ने कठोर तपस्या की। उनकी इस तपस्या से प्रसन्न होकर गङ्गा माता ने भगीरथ से कहा, ‘‘मेरे इस प्रचंड प्रवाह को सहना पृथ्वी के लिए कठिन होगा। अतः तुम भगवान शङ्कर को प्रसन्न करो ।’’ आगे भगीरथ की घोर तपस्या से भगवान शङ्कर प्रसन्न हुए तथा भगवान शङ्कर ने गङ्गा जी के प्रवाह को जटा में धारण कर उसे पृथ्वी पर छोड़ा। इस प्रकार हिमालय में अवतीर्ण गङ्गा जी भगीरथ के पीछे-पीछे गौमुख से गङ्गोत्री – हरिद्वार, प्रयाग, काशी आदि स्थानों को पवित्र करते हुए बंगाल के उपसागर में (खाड़ी में) लुप्त हुईं।’ जो गङ्गासागर के नाम से प्रसिद्ध है।

ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, दशमी तिथि, भौमवार (मङ्गलवार) एवं हस्त नक्षत्र के शुभ योग पर गङ्गा जी स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुईं। जिस दिन गङ्गा पृथ्वी पर अवतरित हुईं वह दिन ‘गङ्गा दशहरा’ के नाम से जाना जाता है।

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्यजी, जिन्होंने कहा है : एको ब्रह्म द्वितियोनास्ति । द्वितियाद्वैत भयं भवति ।। उन्होंने भी ‘गङ्गाष्टक’ लिखा है, गङ्गा की महिमा गायी है। रामानुजाचार्यजी, रामानंद स्वामीजी, चैतन्य महाप्रभु जी और स्वामी रामतीर्थ जी ने भी गङ्गा जी की बड़ी महिमा गायी है। कई साधु-संतों, अवधूत-मंडलेश्वरों और जती-जोगियों ने गङ्गा माता की कृपा का अनुभव किया है, कर रहे हैं तथा आगे भी करते रहेंगे।

अब तो विश्व के वैज्ञानिक भी गङ्गाजल का परीक्षण कर दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं ! उन्होंने दुनिया की तमाम नदियों के जल का परीक्षण किया परंतु गङ्गाजल में रोगाणुओं को नष्ट करने तथा आनंद और सात्त्विकता देने का जो अद्भुत गुण है, उसे देखकर वे भी आश्चर्यचकित हो उठे हैं।

हृषिकेश में स्वास्थ्य-अधिकारियों ने पुँछवाया कि यहाँ से हैजे की कोई खबर नहीं आती, क्या कारण है❓ उनको बताया गया कि यहाँ यदि किसी को हैजा हो जाता है तो उसको गङ्गाजल पिलाते हैं। इससे उसे दस्त होने लगते हैं तथा हैजे के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और वह स्वस्थ हो जाता है। वैसे तो हैजे के समय घोषणा कर दी जाती है कि पानी उबालकर ही पियें। किंतु गङ्गाजल के पान से तो यह रोग मिट जाता है और केवल हैजे का रोग ही मिटता है ऐसी बात नहीं है, अन्य कई रोग भी मिट जाते हैं। तीव्र व दृढ़ श्रद्धा-भक्ति हो तो गङ्गास्नान व गङ्गाजल के पान से जन्म-मरण का रोग भी मिट सकता है।

सन् १९४७ में जलतत्त्व विशेषज्ञ कोहीमान भारत आया था। उसने वाराणसी से गङ्गाजल लिया। उस पर अनेक परीक्षण करके उसने विस्तृत लेख लिखा, जिसका सार है – ‘इस जल में कीटाणु-रोगाणुनाशक विलक्षण शक्ति है।’

दुनिया की तमाम नदियों के जल का विश्लेषण करने वाले बर्लिन के डॉ. जे. ओ. लीवर ने सन् १९२४ में ही गङ्गाजल को विश्व का सर्वाधिक स्वच्छ और कीटाणु-रोगाणुनाशक जल घोषित कर दिया था।

कलकत्ता के हुगली जिले में पहुँचते-पहुँचते तो बहुत सारी नदियाँ, झरने और नाले गङ्गाजी में मिल चुके होते हैं। अंग्रेज यह देखकर हैरान रह गये कि हुगली जिले से भरा हुआ गङ्गाजल दरियाई मार्ग से यूरोप ले जाया जाता है तो भी कई-कई दिनों तक वह बिगड़ता नहीं है। जबकि यूरोप की कई बर्फीली नदियों का पानी हिन्दुस्तान लेकर आने तक खराब हो जाता है।

अभी रुड़की विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि ‘गङ्गाजल में जीवाणुनाशक और हैजे के कीटाणुनाशक तत्त्व विद्यमान हैं।’

फ्रांसीसी चिकित्सक हेरल ने देखा कि गङ्गाजल से कई रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। फिर उसने गङ्गाजल को कीटाणुनाशक औषधि मानकर उसके इंजेक्शन बनाये और जिस रोग में उसे समझ न आता था कि इस रोग का कारण कौन-से कीटाणु हैं, उसमें गङ्गाजल के वे इंजेक्शन रोगियों को दिये तो उन्हें लाभ होने लगा।

संत तुलसीदास जी कहते हैं —

गंग सकल मुद मंगल मूला ।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।।
— (श्रीरामचरित. अयो. कां. : ८६.२)

आद्य शङ्कराचार्य जी ने भी अद्भुत मनोरम श्रीगङ्गा स्तोत्र लिखा है –

देवि सुरेश्वरी भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणी तरलतरङ्गे।
शङ्करमौलिविहारिणी विमले मम मतिरास्तां तव पद कमले।।
………. शेष संपूर्ण स्तोत्र आगे फिर कभी

“”””हर हर गङ्गे””””
साभार संकलित
— ज्योतिर्विद पं॰ मनीष तिवारी

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ईर्ष्या-द्वेष आपके मन पर बोझ है इन्हें निकाल फेंकें


बोध कथा:
“ईर्ष्या-द्वेष आपके मन पर बोझ है इन्हें निकाल फेंकें”

एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बडे़ आलू साथ लेकर आयें, उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिये जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं । जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आये । अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आये, किसी पास चार आलू थे,

किसी के पास छः या आठ और प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफ़रत करते थे । अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहाँ भी जायें, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें ।

शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया । दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बडे कष्ट में थे ।

जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताये, और शिष्यों ने महात्मा की शरण ली । महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियाँ निकालकर रख दें, शिष्यों ने चैन की साँस ली । महात्माजी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा ?

शिष्यों ने महात्मा से अपनी आपबीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि बडा हल्का महसूस हो रहा है… महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैने आपको एक शिक्षा देने के लिये किया था…

जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिये कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या नफ़रत करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा, और वह बोझ आप लोग तमाम जिन्दगी ढोते रहते हैं, सोचिये कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी ?

यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह…. इसलिये अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो,

यदि आप किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफ़रत और ईर्ष्या मत कीजिये, तभी आपका मन स्वच्छ, निर्मल और हल्का बना रहेगा, वरना जीवन भर इनको ढोते-ढोते आपका मन और आपकी मानसिकता दोनों बीमार हो जाएँगी।

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जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा


हिंदुत्व

जनक ने सीता स्वयंवर में अयोध्या नरेश दशरथ को आमंत्रण क्यों नहीं भेजा ?
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राजा जनक के शासनकाल में एक व्यक्ति का विवाह हुआ। जब वह पहली बार सज-सँवरकर ससुराल के लिए चला, तो रास्ते में चलते-चलते एक जगह उसको दलदल मिला, जिसमें एक गाय फँसी हुई थी, जो लगभग मरने के कगार पर थी।

उसने विचार किया कि गाय तो कुछ देर में मरने वाली ही है तथा कीचड़ में जाने पर मेरे कपड़े तथा जूते खराब हो जाएँगे, अतः उसने गाय के ऊपर पैर रखकर आगे बढ़ गया। जैसे ही वह आगे बढ़ा गाय ने तुरन्त दम तोड़ दिया तथा शाप दिया कि जिसके लिए तू जा रहा है, उसे देख नहीं पाएगा, यदि देखेगा तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी।

वह व्यक्ति अपार दुविधा में फँस गया और गौ-शाप से मुक्त होने का विचार करने लगा।

ससुराल पहुँचकर वह दरवाजे के बाहर घर की ओर पीठ करके बैठ गया और यह विचार कर कि यदि पत्नी पर नजर पड़ी, तो अनिष्ट नहीं हो जाए। परिवार के अन्य सदस्यों ने घर के अन्दर चलने का काफी अनुरोध किया, किन्तु वह नहीं गया और न ही रास्ते में घटित घटना के बारे में किसी को बताया।

उसकी पत्नी को जब पता चला, तो उसने कहा कि चलो, मैं ही चलकर उन्हें घर के अन्दर लाती हूँ। पत्नी ने जब उससे कहा कि आप मेरी ओर क्यों नहीं देखते हो, तो भी चुप रहा। काफी अनुरोध करने के उपरान्त उसने रास्ते का सारा वृतान्त कह सुनाया। पत्नी ने कहा कि मैं भी पतिव्रता स्त्री हूँ। ऐसा कैसे हो सकता है? आप मेरी ओर अवश्य देखो।

पत्नी की ओर देखते ही उसकी आँखों की रोशनी चली गई और वह गाय के शापवश पत्नी को नहीं देख सका।

पत्नी पति को साथ लेकर राजा जनक के दरबार में गई और सारा कह सुनाया। राजा जनक ने राज्य के सभी विद्वानों को सभा में बुलाकर समस्या बताई और गौ-शाप से निवृत्ति का सटीक उपाय पूछा।

सभी विद्वानों ने आपस में मन्त्रणा करके एक उपाय सुझाया कि, यदि कोई पतिव्रता स्त्री छलनी मे गंगाजल लाकर उस जल के छींटे इस व्यक्ति की दोनों आँखों पर लगाए, तो गौ-शाप से मुक्ति मिल जाएगी और इसकी आँखों की रोशनी पुनः लौट सकती है।

राजा ने पहले अपने महल के अन्दर की रानियों सहित सभी स्त्रियों से पूछा, तो राजा को सभी के पतिव्रता होने में संदेह की सूचना मिली। अब तो राजा जनक चिन्तित हो गए। तब उन्होंने आस-पास के सभी राजाओं को सूचना भेजी कि उनके राज्य में यदि कोई पतिव्रता स्त्री है, तो उसे सम्मान सहित राजा जनक के दरबार में भेजा जाए।

जब यह सूचना राजा दशरथ (अयोध्या नरेश) को मिली, तो उसने पहले अपनी सभी रानियों से पूछा। प्रत्येक रानी का यही उत्तर था कि राजमहल तो क्या आप राज्य की किसी भी महिला यहाँ तक कि झाडू लगाने वाली, जो कि उस समय अपने कार्यों के कारण सबसे निम्न श्रेणि की मानी जाती थी, से भी पूछेंगे, तो उसे भी पतिव्रता पाएँगे।

राजा दशरथ को इस समय अपने राज्य की महिलाओं पर आश्चर्य हुआ और उसने राज्य की सबसे निम्न मानी जाने वाली सफाई वाली को बुला भेजा और उसके पतिव्रता होने के बारे में पूछा। उस महिला ने स्वीकृति में गर्दन हिला दी।

तब राजा ने यह दिखाने कर लिए कि अयोध्या का राज्य सबसे उत्तम है, उस महिला को ही राज-सम्मान के साथ जनकपुर को भेज दिया। राजा जनक ने उस महिला का पूर्ण राजसी ठाठ-बाट से सम्मान किया और उसे समस्या बताई। महिला ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी।

महिला छलनी लेकर गंगा किनारे गई और प्रार्थना की कि, ‘हे गंगा माता! यदि मैं पूर्ण पतिव्रता हूँ, तो गंगाजल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरनी चाहिए।’ प्रार्थना करके उसने गंगाजल को छलनी में पूरा भर लिया और पाया कि जल की एक बूँद भी नीचे नहीं गिरी।

तब उसने यह सोचकर कि यह पवित्र गंगाजल कहीं रास्ते में छलककर नीचे नहीं गिर जाए, उसने थोड़ा-सा गंगाजल नदी में ही गिरा दिया और पानी से भरी छलनी को लेकर राजदरबार में चली आयी।

राजा और दरबार में उपस्थित सभी नर-नारी यह दृश्य देक आश्चर्यचकित रह गए तथा उस महिला को ही उस व्यक्ति की आँखों पर छींटे मारने का अनुरोध किया और पूर्ण राजसम्मान देकर काफी पारितोषिक दिया।

जब उस महिला ने अपने राज्य को वापस जाने की अनुमति माँगी, तो राजा जनक ने अनुमति देते हुए जिज्ञाशावश उस महिला से उसकी जाति के बारे में पूछा। महिला द्वारा बताए जाने पर, राजा आश्चर्यचकित रह गए।

सीता स्वयंवर के समय यह विचार कर कि जिस राज्य की सफाई करने वाली इतनी पतिव्रता हो सकती है, तो उसका पति कितना शक्तिशाली होगा?

यदि राजा दशरथ ने उसी प्रकार के किसी व्यक्ति को स्वयंवर में भेज दिया, तो वह तो धनुष को आसानी से संधान कर सकेगा और कहीं राजकुमारी किसी निम्न श्रेणी के व्यक्ति को न वर ले, अयोध्या नरेश को राजा जनक ने निमन्त्रण नहीं भेजा, किन्तु विधाता की लेखनी को कौन मिटा सकता है?

अयोध्या के राजकुमार वन में विचरण करते हुए अपने गुरु के साथ जनकपुर पहुँच ही गए और धनुष तोड़कर राजकुमार राम ने सीता को वर ले गए।
🚩✊जय हिंदुत्व✊🚩
जय श्री हरि शरणम्…
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बेनी हिन्


देवी सिंह तोमर

हमने लिखने में 35 मिनट खर्च किया है उम्मीद है आप पढ़ने में 3 मिनट जरूर दे सकते हैं।

आप में से शायद कई लोगों ने #बेनी_हिन् का नाम पहले कभी नहीं सुना होगा, क्यूँकि हम अधिकतर वही सुनना और देखना पसंद करते हैं जो हमें दिखाया जाता है..
उसके आगे न हम देखना चाहते हैं और
न हमें उससे कुछ मतलब है…अपनी जिन्दगी चलती रहे, भाड़ में जाए दुनियादारी…
हमें PK दिखाई गई, हमें ‘ओह माय गॉड’ दिखाई गईं, हम खुश रहें और हमने इन पिक्चरों को सुपरहिट बना दिया…

1995-1996 के समय भारत में #Faith_Healing के नाम पर दो बड़े शहर दिल्ली और बेंगलोर में एक अनूठे शो का आयोजन किया गया ;
आयोजन भी कोई छोटा-मोटा नहीं, बेंगलोर सहित कर्नाटक में तत्कालीन मुख्यमंत्री #देवेगोड़ा की सरकार ने तथा दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री #नरसिम्हा राव की सरकार ने इसका जबरदस्त प्रचार-प्रसार किया…

शो में Faith-Healer के रूप में जीसस के दूत-
बेनी हिन् आया और मंच पर कई-कई गंभीर बीमारियों वाले मरीजों को बेनी हिन् ने हाथ रखते से ही एकदम ठीक कर दिया…

● बंगलोर के शो में तो कर्नाटक का मुख्यमंत्री देवगोडा बेनी हिन् के पैरों में गिर गया था ।

कई मरीज स्टेज पर आये, किसी को ब्लड कैंसर था, किसी को आर्थराइटिस था, कोई जन्म से ही विकलांग था तो कोई ब्रेन-ट्यूमर के कारण परेशान था…यह सारे मरीज बेनी हिन् द्वारा अमेरिका से इम्पोर्ट किये गये थें…
और जैसे ही बेनी हिन् का हाथ लगता है, चमत्कार होता है और विकलांग चलने लगता है, जिसे आर्थराइटिस थी उसके पैरों का दर्द गायब हो जाता है, ट्यूमर वाले को अपना सिर कुछ हल्का सा लगने लगता है…
सारा जनसमूह बेनी हिन् के चमत्कारों ( दिखावे ) से अचम्भित हो जाता है और लगातार तालियों से उसका उत्साहवर्धन करता है… बेनी-हिन् अंतिम समय में लोगों से कहता है कि आपको कोई डाउट या समस्या हो तो आप पूछ सकते हैं…तभी…
भीड़ में से एक व्यक्ति खड़ा होता है और सवाल पूछने की अनुमति चाहता है…

बेनी हिन् – आपका नाम क्या है #Jesus_boy…?
व्यक्ति – मेरा नाम “#राजीव_दीक्षित” है और मैं कोई Jesus-boy नहीं, मैं एक सनातनी #हिन्दू हूँ…
बेनी हिन् – अपना सवाल पूछिए, क्या आपको भी कोई बीमारी अथवा समस्या है…?
व्यक्ति – जी नहीं, मुझे कोई बीमारी नहीं है…
पर आपके #ईसाई धर्म ( तथाकथित ) का जो दुनिया का सबसे बड़ा अधिकारी है पॉप, उसे दुनिया की सबसे खतरनाक बीमारी है #पार्किन्सन, तो मेरी आपसे प्रार्थना है कि उसकी बीमारी दुनिया के बड़े से बड़े डॉक्टर ठीक नहीं कर पा रहे हैं तो आप अगली फ्लाइट पकड़ कर सीधा #वैटिकन सिटी जाइए और सबसे पहले अपने पॉप पर हाथ रखकर उसे ठीक कीजिये…
बेनी हिन् – This is an Absurd question, यह एक बेहूदा सवाल है…
व्यक्ति – हाँ, यह बेहूदा सवाल है, पर मेरे लिए नहीं आपके लिए…
यदि आप किसी को भी केवल हाथ लगाकर ठीक कर सकते हो तो सबसे पहले पॉप को ठीक करो जिससे आपको अपने ईसाई धर्म ( तथाकथित ) को फ़ैलाने और आगे बढाने में मदद मिलेगी…।।

सारे शो में उथल-पुथल मच गई, लोग बेनी हिन् को फर्जी-फर्जी चिल्लाकर इधर उधर भागने लगें और उस दिन उस राजीव दीक्षित नाम के व्यक्ति ने कई हज़ार हिन्दुओं को एक झटके में ईसाई बनने से बचा लिया…
उस शो के बाद भी बेनी हिन् के कई शो हुए, पर हर जगह राजीव दीक्षित जैसे व्यक्ति का होना मुश्किल होता है, उस शो के बाद बेनी हिन् के बहकावे में आकर कई लोग अपना धर्म छोड़ Faith-Healing के नाम पर ईसाई बन गएं…हमारे भारत में कई अंधश्रद्धा-निर्मूलन संस्थाएं चलती हैं जिनका एक ही उद्देश्य रहता है कि हिन्दू धर्म के संत, हिन्दू धर्म के शंकराचार्य, हिन्दू धर्म के पंडित जो कुछ करें उसे अंधश्रद्धा घोषित कर उसका विरोध करो… और दूसरे धर्म के प्रचारक कितनी भी अंधश्रद्धा फैलाएं, कितने भी Faith-Healing जैसे शो करें पर उनका कोई भी विरोध, उनके Rules के खिलाफ रहता है…
हिन्दू धर्म के कर्मकांडों का मजाक उड़ाने भारत में PK जैसी फिल्में बनाई जाती हैं और दुर्भाग्यवश हम सब के कारण वो भारत की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बन जाती है…
हम मूर्खता में आकर इतने अंधे हो जाते हैं कि हमें गौमाता को घास खिलाना तक ‘Wrong Number’ दिखाई देने लगता है…
बेनी हिन् आज हार्ट की बीमारी के चलते कई अस्पतालों से इलाज करवा रहा है और 1995 के उस शो से लेकर आज तक जितने
लोग भारत में उसके Faith-Healing नामक झांसे का शिकार बन उसके द्वारा ईसाई बने, वो आज अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
इसीलिए मैं आप सभी बन्धुओं से ये निवेदन करता हूँ कि अपना धर्म कभी न त्यागें।
और सदैव अपने साधु-संतों की इज़्ज़त करें।।

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आज ही क्यों नहीं ?


आज ही क्यों नहीं ?
एक बार की बात है कि एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता था |गुरु भी अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह करते थे लेकिन वह शिष्य अपने अध्ययन के प्रति आलसी और स्वभाव से दीर्घसूत्री था | सदा स्वाध्याय से दूर भागने की कोशिश करता तथा आज के काम को कल के लिए छोड़ दिया करता था | अब गुरूजी कुछ चिंतित रहने लगे कि कहीं उनका यह शिष्य जीवन-संग्राम में पराजित न हो जाये| आलस्य में व्यक्ति को अकर्मण्य बनाने की पूरी सामर्थ्य होती है | ऐसा व्यक्ति बिना परिश्रम के ही फलोपभोग की कामना करता है| वह शीघ्र निर्णय नहीं ले सकता और यदि ले भी लेता है, तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता| यहाँ तक कि अपने पर्यावरण के प्रति भी सजग नहीं रहता है और न भाग्य द्वारा प्रदत्त सुअवसरों का लाभ उठाने की कला में ही प्रवीण हो पता है | उन्होंने मन ही मन अपने शिष्य के कल्याण के लिए एक योजना बना ली |

एक दिन एक काले पत्थर का एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए गुरु जी ने कहा –‘मैं तुम्हें यह जादुई पत्थर का टुकड़ा, दो दिन के लिए दे कर, कहीं दूसरे गाँव जा रहा हूँ| जिस भी लोहे की वस्तु को तुम इससे स्पर्श करोगे| वह स्वर्ण में परिवर्तित हो जायेगी| पर याद रहे कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात मैं इसे तुमसे वापस ले लूँगा|’

शिष्य इस सुअवसर को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ लेकिन आलसी होने के कारण उसने अपना पहला दिन यह कल्पना करते-करते बिता दिया कि जब उसके पास बहुत सारा स्वर्ण होगा तब वह कितना प्रसन्न, सुखी,समृद्ध और संतुष्ट रहेगा| इतने नौकर-चाकर होंगे कि उसे पानी पीने के लिए भी नहीं उठाना पड़ेगा | फिर दूसरे दिन जब वह प्रातःकाल जागा, उसे अच्छी तरह से स्मरण था कि आज स्वर्ण पाने का दूसरा और अंतिम दिन है | उसने मन में पक्का विचार किया कि आज वह गुरूजी द्वारा दिए गये काले पत्थर का लाभ ज़रूर उठाएगा | उसने निश्चय किया कि वो बाज़ार से लोहे के बड़े-बड़े सामान खरीद कर लायेगा और उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देगा| दिन बीतता गया, पर वह इसी सोच में बैठा रहा की अभी तो बहुत समय है, कभी भी बाज़ार जाकर सामान लेता आएगा|

उसने सोचा कि अब तो दोपहर का भोजन करने के पश्चात ही सामान लेने निकलूंगा. पर भोजन करने के बाद उसे विश्राम करने की आदत थी , और उसने बजाये उठ के मेहनत करने के थोड़ी देर आराम करना उचित समझा, पर आलस्य से परिपूर्ण उसका शरीर नीद की गहराइयों में खो गया, और जब वो उठा तो सूर्यास्त होने को था| अब वह जल्दी-जल्दी बाज़ार की तरफ भागने लगा, पर रास्ते में ही उसे गुरूजी मिल गए उनको देखते ही वह उनके चरणों पर गिरकर, उस जादुई पत्थर को एक दिन और अपने पास रखने के लिए याचना करने लगा लेकिन गुरूजी नहीं माने और उस शिष्य का धनी होने का सपना चूर-चूर हो गया | पर इस घटना की वजह से शिष्य को एक बहुत बड़ी सीख मिल गयी| उसे अपने आलस्य पर पछतावा होने लगा, वह समझ गया कि आलस्य उसके जीवन के लिए एक अभिशाप है और उसने प्रण किया कि अब वो कभी भी काम से जी नहीं चुराएगा और एक कर्मठ, सजग और सक्रिय व्यक्ति बन कर दिखायेगा|

मित्रों, जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं , पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवां देते हैं| इसलिए मैं यही कहना चाहता हूँ कि यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम,और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिये – “आज ही क्यों नहीं ?”

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🙏शुभ रात्रि नाथ🙏

एक बार कबीरदास जी हरि भजन करते एक गली से निकल रहे थे।
उनके आगे कुछ स्त्रियां जा रही थीं ।
उनमें से एक स्त्री की शादी कहीं तय हुई होगी तो उसके ससुरालवालों ने शगुन में एक नथनी भेजी थी ।
वह लड़की अपनी सहेलियों को बार-बार नथनी के बारे में बता रही थी कि नथनी ऐसी है वैसी है
ये ख़ास उन्होंने मेरे लिए भेजी है… बार बार बस नथनी की ही बात…

उनके पीछेे चल रहे कबीरजी
के कान में सारी बातें पड़ रही थी ।
तेजी से कदम बढाते कबीर उनके पास से निकले और कहा-

“नथनी दीनी यार ने,
तो चिंतन बारम्बार, और
नाक दिनी जिस करतार ने,
उनको तो दिया बिसार..”

सोचो यदि नाक ही ना होती तो
नथनी कहां पहनती !

यही जीवन में हम भी करते हैं।
भौतिक वस्तुओं का तो हमें ज्ञान रहता है परंतु जिस परमात्मा ने यह दुर्लभ मनुष्य देह दी और इस देह से संबंधित सारी वस्तुऐं, सभी रिश्ते-नाते दिए, उसी को याद करने के लिए हमारे पास समय नहीं होता ।

इसलिए सदा उस दाता, उस ईश्वर के आभारी रहिए।
एक बार प्रेम से कह दो जय श्री राम

दीपेश 🙏🌻🌹💮🌷💐🌹🌼🏵🙏

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प्रसाद देवरानी

ऐरावत हाथी

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ऐरावत देवताओं के राजा इन्द्र के हाथी का नाम है। यह हाथी देवताओं और असुरों द्वारा किये गए समुद्र मंथन के दौरान निकली चौदह मूल्यवान वस्तुओं में से एक था। मंथन से प्राप्त रत्नों के बँटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था।

हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में ऐरावत का वर्णन एक श्वेत गज के रूप में है जो देवराज इंद्र का वाहन है। इसकी भार्या गजा का नाम अभ्रमु कहा गया है।

ऐरावत के दस दन्त है जो दसों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और पाँच सूंड हैं जो पाँच प्रमुख देवताओं (पञ्चदेवता) का प्रतिनिधित्व करते हैं। कहीं-कहीं उसके चार दन्त होने का भी उल्लेख है जो चार प्रमुख दिशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

पुराणों में ऐरावत के और भी कई नाम हैं जिनमे से प्रमुख हैं – अभ्रमातंग, ऐरावण, अभ्रभूवल्लभ, श्वेतहस्ति, मल्लनाग, हस्तिमल्ल, सदादान, सुदामा, श्वेतकुंजर, गजाग्रणी तथा नागमल्ल। महर्षि कश्यप और दक्ष पुत्री क्रुदु द्वारा उत्पन्न एक नाग का नाम भी ऐरावत है किन्तु ये लेख इंद्र के वाहन ऐरावत के बारे में है।

“इरा” का एक अर्थ जल भी होता है और ऐरावत का अर्थ होता है जल से उत्पन्न। उसे ऐसा नाम इस कारण मिला क्यूँकि ऐरावत की उत्पत्ति समुद्र-मंथन के कारण समुद्र से हुई थी।

ये समुद्र-मंथन में उत्पन्न १४ रत्नों में एक रत्न माना जाता है जिसे इंद्र ने भगवान विष्णु से दैत्यराज बलि की सहमति के पश्चात अपने वाहन के रूप में माँग लिया था। रामायण के अनुसार ऐरावत की माता का नाम इरावती था।

मतंगलीला के अनुसार एक बार परमपिता ब्रम्हा ने ब्रम्ह-अण्ड (इसी से ब्रम्हांड शब्द की रचना हुई) के पास अपनी मधुर स्वर में स्त्रोत्र का गायन किया।

इसी के प्रभाव से पहले उस अंडे से पहले गरुड़ और फिर ऐरावत सहित आठ गजों की उत्पत्ति हुई। यही आठ गज आठों दिग्पालों के वाहन माने गए हैं और ऐसी मान्यता है कि इन्ही गजों पर बैठ कर आठों दिग्पाल पृथ्वी को उसकी धुरी पर संभाले रखते हैं। इसी कारण उन्हें दिग्गज (गजों पर विराजित) भी कहते हैं। इनमे से ऐरावत पूर्व दिशा के स्वामी इंद्र का वाहन और अन्य सात गजों का स्वामी है।

विष्णु के अंश पृथु ने ऐरावत को गजों का सम्राट घोषित किया। ऐरावत का एक अर्थ बादलों को बांधने वाला भी होता है जो इंद्र के बादलों के देवता की पदवी को पूरा करता है।

इंद्र ने वृत्रासुर का वध भी ऐरावत की सहायता से उसपर बैठ कर ही किया था।

एक मान्यता के अनुसार जब देवराज इंद्र वर्षा का आह्वाहन करते हैं, ऐरावत अपने शक्तिशाली सूडों से पाताल लोक से जल खींच कर बादलों के द्वारा पृथ्वीलोक पर बरसाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार वो जल भगवान विष्णु के क्षीर-सागर का होता है। कहा जाता है कि ऐरावत अपनी शक्ति से पृथ्वी को अपनी धुरी से भटकने नहीं देता। ऐरावत को स्वर्ग लोक में स्थित इंद्रभवन के द्वार का रक्षक भी माना जाता है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि “अश्वों में मैं उच्चैश्रवा और गजों में मैं ऐरावत हूँ।”

महाभारत के भीष्म पर्व में आर्यावर्त के उत्तरी भू-भाग को कुरु ना कहकर ऐरावत कहा गया है। भीष्म के पूर्वज महाराज हस्ती के शासनकाल में कुरुराज्य का नाम हस्तिनापुर रखा गया और ऐरावत को इस नगर का अधिष्ठाता माना गया। ऐरावत द्वारा पारिजात की माला तोड़ देने के कारण ही महर्षि दुर्वासा ने इंद्र को सिंहासन से च्युत होने का श्राप दे दिया था।

पुराणों में ऐरावत की शक्ति का भी वर्णन है जिसमे कहा गया है कि ऐरावत की शक्ति विराट है। उसकी चिंघाड़ की तुलना इंद्र के वज्र से उत्पन्न तड़ित (बिजली) से की गयी है। कहा गया है कि शेषनाग के सामान ऐरावत भी पृथ्वी का भार सँभालने में सक्षम है। जब इंद्र ऐरावत पर बैठ कर युद्ध को जाते हैं तो उसके समक्ष शत्रुओं के ह्रदय बैठ जाते हैं।

इंद्र पर किया गया हर प्रहार पहले ऐरावत झेलता है, फिर उनका वज्र और फिर वो इंद्र के शरीर तक पहुँचता है। हरिवंश पुराण में वर्णित है कि जब श्रीकृष्ण पारिजात वृक्ष लाने स्वर्ग पहुँचते हैं तो वहाँ उनका सामना ऐरावत से होता है। जब सामान्य बल से वो ऐरावत को पराजित नहीं कर पाते तब वे सुदर्शन चक्र का प्रयोग उसपर करते हैं तब जाकर वो शांत होता है।

जब गरुड़ अपनी माता विनीता को दासत्व से मुक्त करने के लिए स्वर्ग-लोक में पहुँचते हैं तो वहाँ उनका ऐरावत के साथ भीषण संग्राम होता है। ऐरावत के सूंड से निकली वायु के वेग को स्वयं पवन देव की शक्ति के समकक्ष माना गया है। वृत्रासुर के विरूद्ध युद्ध में इंद्र ऐरावत और वज्र के कारण ही उसपर विजय प्राप्त करने के सक्षम होते हैं।

ऐरावत और वज्र की शक्ति को समकक्ष माना गया है। पुराणों में ऐरावत की शक्ति अन्य दिग्पालों के ७ गजों की सम्मलित शक्ति से भी अधिक माना गया है। रामायण में जामवंत ने हनुमान की शक्ति का वर्णन करते हुए उनके पूंछ की शक्ति को ऐरावत के सूंड की शक्ति के सामान बताया है।

तमिलनाडु में तंजौर के निकट दारासुरम के एक मंदिर में ऐरावत भगवान रूद्र के एक लिंग “ऐरावतेश्वर” के रूप में पूजा जाता है जो राजराजा चोला द्वितीय द्वारा बनवाया गया था। कर्नाटक परिवहन ने भी अपने सर्वश्रेष्ठ बस-सेवा का नाम ऐरावत रखा है। जैन धर्म में भी ये मान्यता है कि जब पहले तीर्थंकर स्वामी ऋषभदेव का जन्म हुआ तो स्वयं देवराज इंद्र ऐरावत पर बैठ कर उस उत्सव में आये।

हाथियों के देश माने जाने वाले थाईलैंड में भी ऐरावत का बड़ा महत्त्व है। बैंकाक का वात-अरुण मंदिर ऐरावत को समर्पित है जहाँ उसे तीन सर वाले हाँथी के रूप में दिखाया गया है। थाईलैंड और लाओस देश के ध्वज पर भी ऐरावत का चिह्न बना हुआ है।

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कुछ लोग राम को काल्पनिक मानते है वो सबूत देख लें..

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जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता जी रुके या रहे थे।
वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की।
आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के नाम..

1.#तमसा_नदी :
अयोध्या से 20 किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।

2.#श्रृंगवेरपुर_तीर्थ :
प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

3.#कुरई_गांव :
सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

4.#प्रयाग :
कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है।

5.#चित्रकूट :
प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।

6.#सतना :
चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। हालांकि अनुसूइया पति महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे, लेकिन सतना में ‘रामवन’ नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे, जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

7.#दंडकारण्य:
चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के अधिकतर हिस्से शामिल हैं। दरअसल, उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है।

यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

8.#पंचवटी_नासिक :
दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। यह आश्रम नासिक के पंचवटी क्षे‍त्र में है जो गोदावरी नदी के किनारे बसा है। यहीं पर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथ युद्ध किया था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।

9.#सर्वतीर्थ :
नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया था जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में मौजूद है।
इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी ने यहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण किया था। इसी तीर्थ पर लक्ष्मण रेखा थी।

10.#पर्णशाला :
पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालय से लगभग 1 घंटे की दूरी पर स्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भी कहते हैं। पर्णशाला गोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां से सीताजी का हरण हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपना विमान उतारा था। इसी से वास्तविक हरण का स्थल यह माना जाता है। यहां पर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है।

11.#तुंगभद्रा :
सर्वतीर्थ और पर्णशाला के बाद श्रीराम-लक्ष्मण सीता की खोज में तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

12.#शबरीकाआश्रम :
तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में। जटायु और कबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। शबरी भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा।

‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। केरल का प्रसिद्ध ‘सबरिमलय मंदिर’ तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

13.#ऋष्यमूक_पर्वत :
मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे।

14.#कोडीकरई :
हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है।

यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्ष किया। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया।

15.#रामेश्वरम :
रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

16.#धनुषकोडी :
वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुलर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडी पंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है।

इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नल और नील ने जो पुल (रामसेतु) बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है। इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्र नदी की गहराई जितना है जिसमें कहीं-कहीं भूमि नजर आती है।

  1. #नुवाराएलियापर्वत_श्रृंखला :
    वाल्मीकिय-रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका काल निकाला गया है।

श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानों की भौगोलिक विशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायण में वर्णित किए गए हैं।

इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं। रामायण कथा के संदर्भ निम्नलिखित रूप में उपलब्ध हैं-

  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र (चौथी शताब्दी ईपू)
  • बौ‍द्ध साहित्य में दशरथ जातक (तीसरी शताब्दी ईपू)
  • कौशाम्बी में खुदाई में मिलीं टेराकोटा (पक्की मिट्‍टी) की मूर्तियां (दूसरी शताब्दी ईपू)
  • नागार्जुनकोंडा (आंध्रप्रदेश) में खुदाई में मिले स्टोन पैनल (तीसरी शताब्दी)
  • नचार खेड़ा (हरियाणा) में मिले टेराकोटा पैनल (चौथी शताब्दी)
  • श्रीलंका के प्रसिद्ध कवि कुमार दास की काव्य रचना ‘जानकी हरण’ (सातवीं शताब्दी)

संदर्भ ग्रंथ :

  1. वाल्मीकि रामायण
  2. वैद युग एवं रामायण काल की ऐतिहासिकता l
    🚩✊जय हिंदुत्व✊🚩
    जय श्री हरि शरणम्…
    🍃🎋🍃🎋🕉️🎋🍃🎋🍃
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ओम प्रकाश त्रेहन

आदिशंकराचार्यकेअनमोलकथन :-

आदि शंकराचार्य जयंती के उपलक्ष्य में

आदि शंकराचार्य जी ने 7 वर्ष की आयु में जब मां से सन्यास के लिए विदा ली थी तब मां को आश्वस्त किया था कि तुम्हारे देहावसान पर अग्नि देने मै अवश्य आऊंगा ।
कलाड़ी गांव में जब वह पुनः आये तब उनकी माताजी का देहांत हुआ । लेकिन तब यह विवाद पैदा हुआ कि एक सन्यासी द्वारा मां का क्रियाकर्म कैसे किया जा सकता है ? इतना ही नही , सभी ने आदि शंकराचार्य का बहिष्कार किया । फलस्वरूप आदि शंकराचार्य को स्वयं ही अत्यंत ही कठिन परिस्थितियों के बीच मां का अंतिम संस्कार करना पड़ा ।

विगत पोस्ट से अब आगे
आदि शंकराचार्य जी ने कलयुग के अंधकार को ज्ञान के प्रकाश से समाप्त किया ।
उनका कहना था कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। हमें अज्ञानता के कारण ही ये दोनों अलग-अलग प्रतीत होते हैं।

आदि शंकराचार्य के अनमोल कथन :-

1 : मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।

2 : मोह से भरा हुआ इंसान एक स्वप्न की भांति हैं,तभी तक रहता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सोते है। जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती है ।

3 : जिस तरह एक प्रज्वलित दीपक कॉ चमकने के लिए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा स्वयं ही ज्ञान स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान की आवश्यकता नही होती है, अपने स्वयं के ज्ञान के लिए।

4 : तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।

5 : जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनियावी चीज़े अर्थहीन लगती हैं।

6 : हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राज़ा की समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।

7 : अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है, लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।

8 : धर्म की पुस्तके पढ़ने का उस समय तक कोई मतलब नहीं, जब तक आप सच का पता न लगा पाए। उसी तरह से अगर आप सच जानते है तो धर्मग्रंथ पढ़ने कि कोइ जरूरत नहीं हैं। सत्य की राह पर चले।

9 : आनंद हमे तभी मिलता जब आनंद की तालाश नही कर रहे होते है।

10 : एक सच यह भी है की लोग आपको उसी समय तक स्मरण करते है जब तक सांसें चलती हैं। सांसों के रुकते ही सबसे क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त, यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।

11: आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनियावी चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।

12 : सत्य की कोई भाषा नहीं है। केवल खोजना पड़ता है।

13 : सत्य की परिभाषा क्या है ? सत्य की इतनी ही परिभाषा है की जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।

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राकेश पांडे

।।जय श्री सीता राम।।

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥

भावार्थ:-श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है? संतों से मैंने जैसा कुछ सुना था, वही आपको सुना रहा हूँ ॥

भगवान् राम जब रावण को मारकर अयोध्या आयें और रामजी का राजतिलक हो गया, माता जानकीजी की ब्राह्मणों में बड़ी श्रद्धा है, अपने हाथ से ब्राह्मणों के लिये भोजन बनाती है, रामजी से एक दिन उदास होकर बोले- प्रभु क्या बताऊँ? बड़े प्रेम से भोजन प्रसादी हूं लेकिन जो भी ब्राह्मण देवता आते हैं वे थोड़ा सा पाकर ही उठ जाते हैं, कोई ढंग से भोजन पाता ही नहीं, कभी कोई ऐसा ब्राह्मण तो बुलाओ न प्रभु, जिन्हें मैं जिम्हाकर सन्तुष्ट हो सकू।

रामजी बोले- ऐसा मत कहो देवी, कभी कोई ऐसा ब्राह्मण आ गया तो आप भोजन बनाते-बनाते थक जाओगी, अभी आपने असली ब्राह्मण देखे कहां है? ठीक है किसी दिव्य ब्राह्मण को बुलाता हूंँ, मेरे प्रभु रघुवर आज समाधि लगाकर अगस्त्य मुनि के ध्यान में पहुंच गये, अगस्त्य मुनि वहीं है जो तीन अंजली में पूरे समुद्र को पी गये, अगस्त्य मुनि ने कहा- क्या आज्ञा है प्रभु?

रामजी ने कहा- सिताजी बड़ी तंग करती है बाबा, आज अपना असली रूप बता देना, अगस्त्य मुनि आ गयें, सिताजी ने स्वागत किया, चरणों में प्रणाम किया, चरण धोये, रामजी बोले- महाराज आप भोजन आज यहीं पर करें, अगस्त्यजी बोले, इच्छा तो नहीं है फिर भी आप कहते हैं तो थोड़ा बालभोग ले लेंगे, बाल भोग नास्ते को कहते हैं, माता जानकीजी बोली, मेरी इच्छा है कि अपने हाथ से भोजन बनाकर आपको परोसूं, बोले- हाँ, हाँ क्यों नहीं देवी।

माता जानकीजी ने देखा, दुबला-पतला सा संत है कितना खायेगा? रसोई घर के द्वार पर ही महाराज का आसन लगा दिया, सोने की थाली सज्जायी, उसमें पच्चास कटोरियां रखीं है, कई प्रकार के व्यंजन उनमें सज्जे है, थाली के बीच में पूड़ियां रख दी, अगस्त्य मुनि बैठे, अगस्त्य मुनि ने टेढ़ी नजर से रामजी की ओर देखा, रामजी ने इशारा किया हाँ हो जाओ शुरू, अगस्त्यजी ने कहा- जो आज्ञा।

जानकीजी ने कहा- महाराज भोजन करना शुरू कीजिये, अगस्त्यजी थाली की ओर देख रहे हैं और हंस रहे हैं, जानकीजी बोलीं, आप शुरू करिये न महात्मन्, अगस्त्य मुनि बोले- हंसी तो मुझे इसलिये आ रही है देवी कि कटोरी को आंख में डालूं कि नाक में डालूं या कान में डालूं, जानकीजी बोली क्यों महाराज? बोले, भोजन कराना है तो देवी ढंग से कराओ, नहीं तो रहने दो, जानकीजी तो बड़ी प्रसन्न हुई, कोई भोजन करने वाला तो आया, महाराज! आप पाइयें, मैं बनाती हूं।

सज्जनों! ग्यारह बजे भोजन शुरू किया गया और सायं का छः बज गया, उनको तो डकार भी नहीं आयी, जानकीजी ने पच्चीस बार तो आटा गूंथ लिया, जब सायंकाल हो गयी तो अगस्त्यजी से बोलीं और चाहिये? अगस्त्यजी बोले- अभी तो ठीक ढंग से शुरुआत ही नहीं हुई है, अभी से पूछने लगीं आप? जानकीजी ने कहा- नहीं बाबा ऐसी बात नहीं है आप प्रेम से भोजन पाइयें मैं अभी आती हूं।

जानकीजी ने गणेशजी की दोनों पत्नियों ऋद्धि-सिद्धि का आव्हान किया, दोनों देवी हाजिर हो गयीं और बोले आज्ञा माता, जानकीजी बोली- देखौ, महाराज अगस्त्य मुनि भोजन कर रहे हैं, कुछ भी हो जाय, भूखे नहीं उठने चाहिये, सारे भंडार खोल दो, लेकिन महात्मा भूखा नहीं उठे, ऋद्धि-सिद्धि जहां बैठ जाये वहां क्या कमी है? ऋद्धि-सिद्धियाँ पूरीयां बनाकर महाराज को परोसती जा रही है, महाराज बड़े प्रेम से भोजन कर रहे हैं।

तीन दिन और तीन रात्रि हो गये, महात्माजी का अखंड भोजन चल रहा है, ऋद्धि-सिद्धि भी परेशान हो गई तो माता जानकीजी ने गणपतिजी का आव्हान किया, गणेशजी हलवाई बनकर आ गये, बोले मैं देखता हूंँ ऋषि का पेट कैसे नहीं भरता है, मेरे से तो बड़ा पेटू नहीं होगा, पर वहां कहां पार पडने वाली तो फिर नव निधियों को बुलाया गया, ऋद्धि-सिद्धि और नवनिधि सब मिलकर पूड़ी बेल रही है और गणपति महाराज झरिया में पूड़ियां निकालकर अगस्त्यजी को परोसते जा रहे हैं, महाराजजी मुंह में उड़ेलते जा रहे हैं।

पन्द्रह दिन और पन्द्रह रात्रि पूरे हुए, बिना रुके भोजन चल रहा है, सिताजी अगस्त मुनि के पास आई और सोने की थाली हटा कर बड़ी सी परात रख दी, सिताजी सोचीयों मारे घरे आज कोई डाकी आन बेठगो, उठन रो तो नाम ही नहीं लेवे, जब सोलहवां दिन भी पूरा हो गया, अगस्त्य मुनि के चेहरे पर कोई शिकुड़न नहीं है, वो तो अविश्राम गति से भोजन करने में व्यस्त है, सत्रहवां दिन जब भोजन का चल रहा था तो जानकीजी आयीं और महाराज को प्रणाम किया।

अगस्त महाराज ने कहा, सौभाग्यवती रहो देवी, लेकिन बेटी में अभी कोई बात नहीं कर सकता, क्योंकि मैं भोजन में व्यस्त हूं, वार्ता बाद में करूंगा, जानकीजी बोली, मैं कोई बात करने नहीं आयी, महाराज! मैं तो इतना कहने आयी हूं कि आधा भोजन हो जाये तो पानी पीना चाहियें, अगस्त्य मुनि बोले, चिन्ता मत करो देवी, जब आधा भोजन हो जायेगा तो पानी भी पी लेंगे, जानकीजी बोली- हे भगवान्! ये कैसा महात्मा है? अभी आधा भोजन भी नहीं हुआ है।

महाराज का भोग चल रहा है, सत्रहवें दिन सायंकाल के भगवान् राघवेंद्र आये, रामजी ने आकर देखा कि जानकीजी चिन्तित है, गणपति महाराज भी चिंता में है, ऋद्धि-सिद्धि और नवनिधि सब हार चुकीं, रामजी ने जानकीजी से कहा- क्यों देवी? महाराज का भोजन अभी चल रहा है ना, जानकीजी बोली- सुनिये, ऐसा ब्राह्मण मेरे घर पर फिर कभी मत बुलाना, क्यों? ये भी कोई बात है? श्रद्धा की टांग तोड़कर रख दी, अट्ठारह दिन पूरे हो गये, बोलते है अभी आधा भी नहीं हुआ।

रामजी माता सीताजी से कहते हैं- आप रोज बोलतीं थीं न, तो अब कराओ ब्राह्मण देवता को भोजन, सीताजी ने कहा अब आगे तो भूल कर भी नहीं कहुंगी पर ऐसी कृपा करो कि यह ब्राह्मण मेरे द्वार से भूखा न जाये, भगवान् राम रसोईघर के द्वार पर गये, महाराज भोजन कर रहे हैं, अगस्त्यजी ने भोजन करते-करते तिरछी नजर से राम को देखा और इशारे से पूछा- बस, रहने दें कि और चले?

भगवान् ने कहा- बस रहने दो, रामजी के इशारे पर ही तो हो रहा था सारा काम, अट्ठारह दिन शाम को महाराज को डकार आयी, लाओ तो देवी आधा भोजन हो गया, जल पिलावो, रामजी ने कहा- देवी महाराज के लिये जल लाइयें, जानकीजी बोली, हमारे पास इतने जल की कोई व्यवस्था नहीं है, इतना पानी कहां से लायेंगे? दो-पांच घड़े से तो काम चलेगा नहीं।

अगस्त्यजी बोले- पानी भी पीते है तो फिर ढंग से ही पीते है, ऐसे रोज-रोज तो पीते नहीं, दो-चार युग में एक बार पीते है, रामजी ने कहा- तो महाराज पानी की व्यवस्था नहीं हो पा रही, एक काम करिये, आप तो योगी हो कई दिनों तक भूख व प्यास को रोक सकते हो, एक युग में भोजन करें दूसरे युग में पानी पीयें, आगे जो द्वापर युग आ रहा है, द्वापर युग में मैं गिरिराज को उठाऊँगा, क्रोध में आकर इन्द्र जितनी जल की वृष्टि करें आप सारा जल पी जाना।