Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

शतरंज के खिलाड़ी

वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही के मजे लेता था। शासन-विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-विहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे में, इत्र, मस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे।

संसार में क्या हो रहा है इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौरस बिछी हुई है। पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। शतरंज, ताश, गंजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलीलें जोर के साथ पेश की जाती थीं।

(इस संप्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है।) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिंता न थी। घर में बैठे चखौंतियाँ करते। आखिर और करते ही क्या?

प्रातः काल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेंच होने लगते थे। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम! घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था-‘खाना तैयार है।’ यहाँ से जवाब मिलता, ‘चलो आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ।’ यहाँ तक कि बावर्ची विवश होकर कमरे ही में खाना रख जाता था और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे मिर्जा सज्जादअली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं; मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके इस व्यवहार से खुश हों। घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे-‘बड़ी मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े।’

एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा, ‘जाकर मिर्जा साहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा लाएँ।’ लौंडी गई तो मिर्जा ने कहा, ‘चल अभी आते हैं। बेगम साहिबा का मिजाज गरम था। इतनी तसल्ली कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा, ‘जाकर कह, अभी चलिए नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जाएँगी।’ मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे; दो ही किश्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी, झुँझलाकर बोले, ‘क्या ऐसा दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?’

मीर- ‘जी हाँ, जाकर सुन ही आइए न।‘ मिर्जा- ‘जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ। दो किश्तों में आपकी मात होती है।‘ मीर- ‘जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, और मात हो जाए। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाएगा?’ मिर्जा- ‘इसी बात पर मात करके ही जाऊँगा।‘ मीर- ‘मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।‘ मिर्जा- ‘अरे यार, जाना ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है।‘ मीर – ‘कुछ भी हो, उसकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।’ मिर्जा- ‘अच्छा, एक चाल और चल लूँ।’ मीर- ‘हरगिज नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरों में हाथ न लगाऊँगा।‘

मिर्जा साहब मजबूर होकर अंदर गए तो बेगम साहिबा ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा, ‘तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है।.…नौज कोई तुम जैसा आदमी हो!’ मिर्जा- ‘क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।‘ बेगम- ‘क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी बाल-बच्चे हैं, या सबका सफाया कर डाला है?’

मिर्जा- बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर मुझे खेलना ही पड़ता है। बेगम- दुत्कार क्यों नहीं देते? मिर्जा-बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जे में, मुझसे दो अंगुले ऊँचे, मुलाहिजा करना ही पड़ता है। बेगम-तो मैं ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जाएँगे, हो जाएँ। कौन किस की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ली। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे, आप तशरीफ ले जाइए।

मिर्जा-हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना। बेगम-जाने क्यों नहीं देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके। अच्छा उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ। यह कहकर बेगम साहबा झल्लाई हुई दीवानखाने की तरफ चलीं। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीवी की मिन्नतें करने लगे, ‘खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसैन की कसम। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए।’ लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक चली गईं। पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध से गए। भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर दिए थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिए, कुछ बाहर और किवाड़ अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरें बाहर फेंके जाते देख, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बंद हुआ, तो समझ गए बेगम साहबा बिगड़ गईं। घर की राह ली।

मिर्जा ने कहा, तुमने गजब किया। बेगम- अब, मीर साहब इधर आए तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। आप तो शतरंज खेलें और मैं यहीं चूल्हें-चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ। बोले, जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है? मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे और सारा वृतांत कहा।

मिर्जा-खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा? मीर-इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थीं, यहाँ बैठक होगी तो शायद जिंदा न छोड़ेंगी। मीर साहब की बेगम ने किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करतीं बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यंत विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गई।

राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची चली आती थी, और वह वेश्याओं में, भांडों में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अँगरेजी कंपनी का ऋण दिन-पर-दिन बढ़ता जाता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे। किसी के कानों पर जूँ न रेंगती थी।

खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुजर गए। नए-नए नक्शे हल किए जाते। तू-मैं-मैं तक की नौबत आ जाती। पर शीघ्र ही दोनों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती, मिर्जा जी रूठकर अपने घर चले जाते, मीर साहब अपने घर में बैठते। पर रात-भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे।

एक दिन दोनों मित्र शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गए। यह क्या बला सिर पर आई? यह तलबी किसलिए हुई? घर के दरवाजे बंद कर लिए। नौकर से बोले, कह दो, घर में नहीं है।

सवार-घर में नहीं, तो कहाँ हैं? नौकर- यह मैं नहीं जानता। कहाँ हैं?

सवार- काम तुझे क्या बतलाऊँ? हुजूर में तलबी है, शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गए हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा। नौकर- अच्छा तो जाइए, कह दिया जाएगा। सवार- कहने की बात नहीं। कल मैं खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है। सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जा जी से बोले, कहिए जनाब, अब क्या होगा? मिर्जा-बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो। मीर-कम्बख्त कल आने की कह गया है। मिर्जा- कहीं मोरचे पर जाना पड़ता तो बेमौत मरे। मीर-बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नहीं कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी?

दूसरे दिन दोनों मित्र मुँह-अँधेरे निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाए, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद से चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तंबाकू, चिलम और मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर, शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। ‘किश्त,’ ‘शह’ आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता। दोपहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दुकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम-क्षेत्र में डट जाते कभी-कभी उन्हें भोजन का भी खयाल न रहता था।

इधर देश की राजनीति दशा भयंकर होती जा रही थी। कंपनी की फौजें लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते तो गलियों में से होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाए, नहीं तो बेगार में पकड़े जाएँ।

एक दिन दोनों मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त पर किश्त दे रहे थे। इतने में कंपनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिए। यह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी। मीर साहब बोले, अँगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे। मिर्जा-आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त! मीर-जरा देखना चाहिए; यहीं आड़ में खड़े हो जाएँ। मिर्जा-देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त! मीर- तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे। कैसे जवान हैं। लाल बंदरों से मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ होता है। आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आई हुई है और आपको किश्त की सूझी है। कुछ इसकी खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे?

मिर्जा-जब चलने का वक्त आएगा तो देखी जाएगी, यह किश्त, बस अबकी शह में मात है। फौज निकल फिर बाजी बिछ गई। मिर्जा बोले आज खाने की कैसी ठहरेगी? मीर-अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है? मिर्जा- जी नहीं। शहर में जाने क्या हो रहा है? मीर- शहर में कुछ न हो रहा होगा।

दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए। अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गए थे और फौज उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। अवध के विशाल देश का नवाब बंदी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी। मिर्जा ने कहा, हुजूर नवाब को जालिमों ने कैद कर लिया है। मीर- होगा, यह लीजिए शह। मिर्जा- जनाब, जरा ठहरिए, इस वक्त इधर तबीयत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे। मीर- रोया ही चाहें, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त। मिर्जा- किसी के दिन बराबर नहीं जाते। मीर- हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है। बच नहीं सकते। मिर्जा-खुदा की कसम, आप बड़े बेदर्द हैं। इतना हादसा देखकर भी आपको दुख नहीं होता। हाय, गरीब वाजिदअली शाह! मीर-पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात। लगाना हाथ।

बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गई। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा, आइए! नवाब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिर्जा की राज्यभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे।

शाम हो गई। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे। मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रंग भी अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर संभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाजी खराब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के गजलें गाते थे; चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गए हों।

ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। ‘जनाब, आप चाल न बदला कीजिए। यह क्या कि चाल चले और फिर उसे बदल दिया। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते हैं। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहर छुइए ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिस एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाए। फिर आपने बात बदली? चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए। मीर साहब का फर्जी पिटता था, बोले मैंने चाल चली ही कब थी? मिर्जा-आप़ चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए-उसी घर में। मीर-उसमें क्यों रखूँ? मिर्जा- फर्जी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे। मीर-धाँधली आप करते हैं। धांधली करने से कोई नहीं जीतता। मिर्जा- तो इस बाजी में आपकी मात हो गई। मीर- मुझे क्यों मात होने लगी? मिर्जा- तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।

तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। मिर्जा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते। वे तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता। मीर-क्या! घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते हैं। मिर्जा- अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गई। आज रईस बनने चले हैं। मीर- क्या अपने बुजुर्गों पर कालिख लगाते हो, वे ही बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आए हैं। मिर्जा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर! मीर-जबान संभालिए, वर्ना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखें दिखाईं कि उसकी आँखें निकाली है। है हौसला? मिर्जा-आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जाएँ, इधर या उधर।

मीर-तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है? दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी जमाना था। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों ने पैंतरे बदले, तलवारें चमकीं, छपाछप की आवाजें आईँ। दोनों जख्मी होकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दीं। अपनी बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूंद आँसू न निकला, उन्होंने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिए। अँधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे मानो इन वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखती और सिर धुनती थीं।  – मुंशी प्रेमचंद 

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संतों की अपनी-अपनी कमजोरी

धर्म गुरूओं को एक सम्‍मेलन हुआ। देश से बड़े-बड़े धर्म गुरु आये, सब ने अपने-अपने ज्ञान की गहराई ऊँचाइयों, के बखान किये, सभी श्रोता गण मंत्र मुग्‍ध हो धन्‍य हो गये। इसके बाद चारों एक कमरे में आराम करने चले गये। वहां उनकी चर्चा चली। अब सब सम्‍मेलन तो निपट गया था। वह बैठ कर आपस में चर्चा करने लगे। ऊंची बातें तो हो चुकी, नकली बातें तो हो चुकी। अब वे बैठ कर असली गप-शप कर रहे है।

पचहत्‍तर साल का धर्म गुरु जो सबसे बुजुर्ग था। कि वहां जो गई वे बातें,सुन गये लोग। वो तो सब उपर-उपर की ही समझो, तोता रटन बन गई है बात। पर अब आप लोगो से भी क्‍या छूपाना। और मैं आशा करता हूं की आप भी अपने दिल की बात नहीं छूपाओंगे। फिर यहां तो सब अपने ही धंधे के आदमी बैठे है। अच्‍छा हो की हम बताये कि हमारी जिन्‍दगी क्‍या है। कम से कम यहां तो सच बोले भगवान के सामने जब जाना होगा तो कुछ तो सत्‍य होगा अपने जीवन में नहीं तो सब ढोंग और दिखावा। जो वहां काम नहीं आयेगा। आशा करता हूं कि आप अपने मन की बात सही-सही कहेंगें। मैं तो बस एक ही चीज से परेशान हूं—धन से। और दिन रात घन के सपने देखता हूं और धन की चर्चा करता हूं। पर मैं बोलता हूं धन के विरोध में। धन पर मेरी बड़ी पकड़ है, एक पैसा भी मेरा खो जाये तो मैं रात भर सौ नहीं सकता। या कही से पैसा मिलने भर की उम्‍मीद जग जाये तो मैं इतना उतावला हो जाता हूं कि कब सुबह हो और में जाकर धन कमाऊ,तब भी नींद नहीं आती। पैसा तो मेरे पास इतना है, कि में सो जन्‍म भी खा नहीं सकता। पर कुछ बंधन है। उसका भोग नहीं कर सकता अपने ही शिष्यों के कारण। फिर इतना पैसा होने पर भी पैसे की पकड़ इतनी क्यों है ये मेरी समझ में नहीं आती। मैं तो बस पैसे को देख कर पागल हो जाता हूं। धन मेरी कमजोरी है। इसके पार मैं नहीं हो पा रहा हूं। क्या आप में से कोई पास हो गया है,तो मुल मंत्र मुझे भी बतायेंगे।

दूसरे ने कहां—पार तो हम भी नहीं हुआ हूं, हमारी भी मुसीबतें है। अब भला आप से क्‍या छूपाना, मैं दिन रात ब्रह्मचर्य की बात करता हूं। पर रात दिन बस औरतों के ही सपने आते हे। रात-रात समझाता हूं, प्रवचन करता हूं, ब्रह्मचर्य का व्‍याखान करता हूं, लेकिन उस दिन बोलने में कुछ मजा नहीं आता जिस दिन सत्संग में स्त्रीयां कम आती है। उस दिन में जोश कम हो जाता है। जैसे में मर ही गया, और जिस दिन स्‍त्रीयां आती है तो उस दिन तो मेरा जोश तो बस देखने लायक होता है। और जब कोई स्‍त्री मेरे से एकांत में मिलती है। तो मानों वही पर मेरा स्‍वर्ग निर्मित हो जाता है। उस समय में पूरा संत बन जाता हूं। क्‍या ब्रह्मचर्य का नाटक करता हूं, अकड़ कर सीधा बैठ जाता हूं, और जब वह पास आ मेरे पैर छूती है। तो जीवन धन्‍य हो जाता है। उसको छूने मात्र से कितनी तिरप ती मिलती है कह नहीं सकता। धन की पकड़ है। पर मेरी समस्या धन से भी ज्‍यादा औरत है। दिन भर लोगों को बताता हूं, औरत नर्क का द्वार है, पाप को घड़ा है। पर ये सब उपरी बातें है। अन्‍दर तो बस स्‍त्री—स्‍त्री मन बार-बार यही रटन लगाये रहता है। आप कोई सुझाव दें। मेरी समस्‍या के प्रति।

तीसरे ने कहां—मेरी भी समस्‍या धन-स्‍त्री तो है, मुक्‍ति तो इससे नहीं मिली। पर मेरी सबसे बड़ी समस्‍या अहंकार हे। कैसे में अपना नाम रोशन करूं सपने में भी कदम फूंक-फूंक कर रखता हूं। आज कल के शिष्‍यों भी बड़े बे भरोसे के हो गये है। किसी पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता कब सारी बनी बनाई छवि पर कालिक पोत दे। सो अपने ही शिष्‍यों से क्‍या आपको नहीं बचना पड़ता।

चोथा—आप लोगो की तो एक ही समस्‍या है। अब मेरे तो हालत देखो जेसे तुम सब मेरे दर्पण हो मानों मेरी ही समस्‍या बता रहे हो। आप लोगे, मुझ पर थोड़ी दया करें कृपा मुझे इतनी समस्‍याओं के बदले एक ही में जीना पड़े ऐसा कोई राज बताये। पैसा, औरत, ब्रह्मचर्य,अहंकार…..मत पूछो। कितना साध-साध कर कदम रखना होता है।

पाँचवाँ—उठ कर चल दिया। सब कहने लगें ये तो ठीक नहीं, ये तो सज्‍जनता नहीं। सभा में से यूं उठ जाना। ये तो अपमान है। और तुम उठ कर यूं जा नहीं सकते। कम से कम अपनी कमजोरी का कुछ तो जिक्र करों।

लेकिन पाँचवाँ नहीं माना, और कहने लगा, भाईयों में यहां रूक नहीं सकता। आप मेरी कमजोरी को न सुनें तो बेहतर होगा। पर वह चारो नहीं मानें, कि कुछ तो कहो, तब पांचवें ने कहां भाई अब आप लोगों ने इतना मसाला दे दिया कि मुझसे हजम नहीं हो रहा, मेरी कमजोरी ‘’निंदा’’ है। अब मैं जाता हूं, एक क्षण भी यहां नहीं रूक सकता। मुझे ये सब बातें तो एक-एक चैनल पर जा-जा कर बतानी है। काफी समय लग जायेगा, जो मैं सून लेता हूं वह मैं कहे बिना रह नहीं सकता। क्षमा करें, मेरी तो यही कमजोरी है। और अफवाह…अपवाह…बस मुझे तो इसी बात में रस आता है। वहां जो वाह-वाही मिलती है, उस का क्‍या कहना। एक-एक आदमी सांस रोककर मेरी बात सुनता हे। सभी में तो सब सो रहे होते है। वहां पर मुझे कोई खास रस नहीं आता वहां तो मैं बस नाम के लिए बोल देता हूं। असली मजा तो यहां आता है। अच्‍छा अब में चला।

उन चारों ने उसे पकड़ने की कोशिश की। तू ठहर जो जरा। भाई इस तरह से हमें धोखा दे कर तूँ चेन से नहीं बैठ सकेगा। हम यूं ही नहीं बैठने देंगे तुझे सभा में इतना तो खयाल कर।

पर उसने एक नहीं सूनी और भाग गया….

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युवक सम्राट और काम

एक गांव में एक युवक रहता था। उसका कुल काम इतना था—डट कर दूध पीना और दंड बैठक मारना। वह एक हनुमान का भगत था सो उसकी पूजा भी करता था। कुश्ती जीतने के कारण गांव का नाम था इसलिए गांव के आदमी उसको प्‍यार भी करते थे। जहां भी वह जाता गांव के बारे में लोग दूर-दूर तक जानने लगे थे। लेकिन ताकत के कारण वह एक काम बहुत खराब करता था। जब वहां से राज गुजरता तब अपनी ताकत और गांव के सहयोग के कारण वह हाथ की पूछ पकड़ कर खड़ा हो जाता था। और हाथी हे के अटक जाता महावत लाख मारता। पर उस युवक की ताकत के सामने हाथी लाचार हो जाता। सो उपर बैठे राजा को भी अपमान का घुटी कर रह जाना पड़ता था।

अब जरा कलपना करना की राजा बैठा हो हाथी पर और महावत उसे लाख धक्‍के दे रहा हो। और युवक पीछे से पूछ पकड़ कर खड़ा हो, और हाथी है कि एक इंच भी सरक नहीं पा रहा हो। लोग आस पास तालियां बजा रहे हो। शाबाश जोर से और ताकत लगा। कितनी भद पिटती होगी उस समय राजा की। तो सम्राट बार-बार अपनी ऐसी हालत होती देख कर डरने लगा था। पर करे क्‍या सकता था। क्‍योंकि कहीं भी जाना हो मंदिर तो रास्‍ते में पड़ता था। गुजरना उसको वहीं से पड़ता। कोई और उपाय न देख कर वह एक दिन फिकर को अपने पास बुलवाया।

आखिर सम्राट ने उस फकीर से कहा कि कुछ करो उपाय कुछ तो रास्‍ता बनाओ। क्‍योंकि मैं जब भी बहार निकलता हूं वह युवक सामने आ जाता है। और हाथी की पूछ पकड़ कर खड़ा हो जाता है। वह मेरे साथ हाथी की भी बहुत दुर्गति करता है। वह सरे आम तमाशा बना देता है। मेरे चलते ही लोग मेरे साथ हो लेते है। कि मंदिर के पास होगा तमाशा। वह युवक भी कमाल का है, ताकत उसकी देखते ही बनती है। मैंने कितनी ही बार उसे पता भिजवाया कि तुम दरबार में नौकरी कर लो। शाही पहलवान हो जाओ। पर वह मलंग है। किसी की सुनता ही नहीं। वह कहता है हम कोई काम नहीं कर सकते। बस एक काम है दंड पेलना और हनुमान जी की पूजा करना। अब तो मुझे तभी बहार निकलना पड़ता है जब वह किसी दूसरे गांव में गया हो। पर वह तो कम ही जाता है। जब कभी कहीं दुर कुश्‍ती का आयोजन हो नहीं तो वह सारा दिन मंदिर में ही रहता है। दूध पीता है, हनुमान का सत्‍संग करता है। बतलाओ अब में क्‍या करू।

उस फकीर ने कहा, फिक्र मत करो। ये भी कोई मुश्‍किल काम है, आप इतनी सी बात के लिए नाहक परेशान हो रहे थे इतने दिनों से मुझे पहले ही बतला दिया होता। आप एक काम करो उस युवक को अभी बूलाओ। यहां पर मेरे सामने।

युवक को बुलवाया गया। वह ठाठ से अपनी ताकत की अकड़ में दरबार पहुंचा। फकीर ने उसे अपने पास बुलाया और कहा देख तू कब तक लोगों पर निर्भर रहेगा। किसी दिन अगर लोगों ने खिलाना छोड़ दिया तो तू क्‍या करेगा। और जब तक तेरे शरीर में ताकत है, तू कुश्‍ती करता है और जीतता है। तभी तक ये लोग तुझे प्‍यार आदर और सम्‍मान देते रहेगें। और ये ताकत कब तक तेरे पास रहेगी। एक दिन तो तुझे बूढ़ा होना है। फिर तेरा क्‍या होगा। भलाई इसी में है तू कुछ काम करने लग जा।

युवक ने इस विषय में कभी सोचा ही नहीं था—की कल क्‍या होगा। फिर कभी सवाल ही नहीं उठा था। फुरसत ही कहां थी उसे ये सब सोचने की। मैंने इस विषय में कभी सोचा नहीं।

तो उस फकीर ने कहा, सोच नहीं तो तू बरबाद हो जायेगा। आने वाले दिन तेरी मुसीबत के बनने वाले है। अभी से सम्‍हल, नहीं तो कल जब सब खत्‍म हो जायेगा। तब कुछ किया नहीं जा सकेगा। जवानी हमेशा थोड़े ही रहने वाली है। आज नहीं कल खत्‍म हो जायेगी। और जब तू कमजोर हो जायेगा। या तुझे कोई बिमारी हो जायेगी। तो ये लोग जो आज तुझे सर आंखों पर बिठा कर रखे है। तुझे देखने भी नहीं आयेंगे। युवक थोड़ा डरा। विचार का कीड़ा उसके मन पर रेंगना शुरू हुआ। उसके चेहरे की प्रसन्‍नता में कुछ तनाव आया। उसकी आंखों में कुछ भविष्‍य का भय नजर आया। तब फकीर समझ गया की अब समय है। अब लोहा गर्म है, चोट की जा सकती है।

तब फकीर ने उस युवक को कहा की तू कुछ काम कर ले। तुझ एक रूपया रोज मिल जायेगा। उन दिनों एक रूपये की काफी कीमत थी, महीना भर आप बड़े मजे से एक परिवार को पाल सकते थे। पर युवक ने कहा काम तो मुझे कुछ आता नहीं। न ही में पढ़ा लिख हूं। तब भला मैं क्‍या काम कर सकता हूं। मैं तो दंड बैठक मारता हूं दूध पीता हूं…ओर हनुमान की पूजा करता हूं। तो काम मैं क्‍या करूं?

फकीर ने कहां घबरा मत तुझे काम भी ऐसा देंगे की तुझे अपने दैनिक कार्य में कोई बाधा नहीं होगी। वो जो हनुमान जी का मंदिर है। जिस में तू दंड पेलता है। उस में श्‍याम छह बजे उसमें दिया जला दे और सुबह छह बजे उसे बुझा दे। भगवान के घर रात अंधकार रहता है। ये उनका अपमान है। तुझे कहीं जाना भी नहीं है। बस पाँच मिनट का समय ही तो आने दैनिक कार्य में से निकलना है। युवक की समझ में आया। कि मैं सारा दिन पड़ा ही तो रहता हूं, एक रूपया रोज मिल जायेगा। ये भी कोई काम है। मंदिर की सेवा भी हो जायेगी। और मेरा भी काम बन जायेगा। मुझे एक रूपये की आमदनी रोज….तो युवक राज़ी हो गया।

युवक तो चला गया। सम्राट ने अपना सर धुन लिया। कि आपने ये क्‍या किया। एक तो सांड और उपर से उसे खेत में छोड़ दिया। अब उस एक रूपये से वह घी बादाम और दूध खुब पियेगा खायेगा। और मेरे हाथी की पूछ पकड़ कर खड़ा हो जायेगा। देखना अब तो वह एक ही हाथ से पकड़ कर हाथी को रोक देगा।

फकीर ने कहा तुम थोड़ा सब्र तो करो। इतनी जल्‍दी अच्‍छी नहीं है, तुम एक महीने का इंतजार करो। और सुनो एक महीने तक तुम वहां मत जाना। जो भी काम हो मंत्र वगैरह को भेज कर करवा लेगा। बस एक महीने की बात है। राज को यकीन नहीं आ रहा था। कि फकीर ने नाहक एक रूपया रोज गंवाया।

महीने बाद फकीर ने कहा कि अब तुम अपने हाथी पर बैठ कर जाओ।

सम्राट निकला अपने हाथी पर। महीने भर से युवक रहा भी तक रहा था। उसे भी सम्राट को छकाने में बड़ा मजा आता था। देखता था उसकी लाचारी। हाथी की पूछ पकड़ कर खड़ा हो जाता था। हाथी को चला रहा है महावत, और रोक रहा है युवक बेचार सम्राट केवल तड़प जाता था। उस दिन उस युवक न हाथी की पूछ पकड़ी और रोकने लगा। पर आज क्‍या वह हाथी के पीछे घिसटता चला गया। आज ताक महावत ने भी हाथी को नहीं डाटा न मारा। सब लोग अचरज कर गये। ये चमत्‍कार क्‍या हो गया। आज तो खेल का मजा दूसरी और हो गया। वही हाथी वहीं युवक पर आज हाथी युवक को घसीटते लिए जा रहा है।

सम्राट का चेहरा विजय के गर्व से लाल हो गया। और वह जोर से चिल्‍लाया खड़ा हो बेटा कोई बात नहीं एक बार और कोशिश कर। पर युवक अब डर गया था। उसने दुबारा भी कोशिश की इस बार भी घसीटता चला गया। बहुत भद्द पीट उस दिन युवक की। लोगो ने कहा की ये सांड अब नकारा हो गया। फ्री का माल मलाई खाता हे। और सोता है….

सम्राट ने जाकर फकीर को कहा की तुमने किया क्‍या? मैं तो सोचता था हालत उलटी हो जायेगी।

उस फकीर ने कहा: इसको फिक्र में डाल दिया। अब इसको एक चिंता बनी रहती थी। कि छह बजे की। वह बार-बार लोगों से समय पूछता। कि छह तो नहीं बज गये है। रात चैन से सो भी नहीं पाता था। की कही छह बज गये है। रात कई बार उसकी नींद खुलती। सुबह दीया बुझाना श्‍याम को जलाना। इसकी पुरानी मस्‍ती गायब हो गई। चिंता का कीड़ा अंदर प्रवेश कर गया था। वो खा गया इसकी हिम्‍मत इसके बल को।

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दो भाई और सौ घोड़े

तिब्‍बत में एक पुरानी कथा है कि दो भाई है। और उनके पिता का स्‍वर्ग वास हो गया। उनके पिता के पास सौ घोड़े थे। घोड़ों का ही काम था। सवारियों को लाने ले जाने का, यात्री जो पहाड़ों पर या तीर्थ पर दर्शन को आते उन्‍हें घोड़ों पर बिठा कर ले जाते थे। तो पिता ने मरते वक्‍त बड़े भाई को कह गया कि तू बुद्धिमान है, छोटा तो अभी बच्‍चा है। उसे इतनी समझ नहीं है। तू अपनी समझ से और अपनी मर्जी से बंटवारा कर देना। जैसे तुझे जँचे। और पिता मर गया। तो बड़े भाई ने बंटवारा कर दिया। निन्‍यानवे घोड़े उसने अपने पास रख लिए, और एक घोड़ा छोटे भाई को दे दिया। आस पास के लोग भी चोंके। ये कैसा न्‍याय। पड़ोसियों और बड़े बूढ़ों ने बड़े भाई को समझाया कि ये तू ठीक नहीं कर रहा है। छोटा तो अभी छोटा है। पर तू तो समझ दार हे भला ये भी कोई बात हुई। कहां सौ और कहां एक। भले मानुष कुछ तो न्‍याय किया होता। पर कौन किसकी सुनता है। उसने बहाना लगा दिया कि छोटा तो अभी छोटा है, भला वह इतने घोड़ों को सम्‍हाल ही नहीं सकेगा। सो मैं तो उसकी भलाई के लिए ही ये सब कर रहा हूं। अब उसके लिए मुझे इन निन्यानवे का बोझ ढोना पड़ेगा। जब वह सम्‍हालने लायक हो जायेगा तो जितने चाहे उतने ले-ले। गांव के लोग समझ गये की ये बहुत चतुर चालाक है। बात को टाल रहा है। उन्‍होंने छोटे को भी कहा कि बुद्धू तू एक घोड़ से ही प्रसन्‍न है। तेरा गुजर बसर कैसे होगी। तू अपने हिस्‍से के बाकी घोड़े ले ले।

पर छोटा तो बहुत प्रसन्‍न था। वह खुद ही…उस घोड़े को लेकर सवारियों को यहां से वहां पहुँचाता रहता उसे कोई नौकर चाकर रखने की जरूरत भी नहीं थी। वह खुद ही सईस की तरह साथ चलता। घोड़ की देख भाल करता। उसको अपने हाथ से खिलता, उस घोड़े की देख भाल करता। कहीं पैरों में कोई पत्‍थर या कहीं कोई चोट तो नहीं लग गई है। घोड़ा जब ज्‍यादा थका होता तो उस दिन काम पर नहीं जाता और आराम करता, उसकी मालिश करता। खुद भी आराम करता। कुल मिला कर वह एक घोड़े की कमाई से बहुत प्रसन्‍न था। उसके भोजन का काम बड़े मजे में चल जाता था। उधर बड़ा भाई बहुत परेशान रहता। निन्यानवे घोड़े थे, निन्यानवे के चक्कर के फेर में फंस गया। कभी कोई घोड़ा बीमार हो जाता। कभी, घास कम पड़ जाती,कभी नौकर कम पड़ जाते, चलनेवाला। कभी नौकर पैसे के मामले में बेईमानी कर देता। उनके लिए अस्तबल बनवाना। कभी बर्फ गिर जाती, कभी बरसात हो जाती। हमेशा तो मुसाफिर आते नहीं थे। कुल मिला कर वह सारा दिन परेशान रहता। कभी कोई घोड़ा रात को देर से घर आता तो वह उसका इंतजार करता रहता। और जब तक नहीं आता सो नहीं सकता था। कमाई से साथ उसे परेशानी भी कम नही थी। छोटा भाई एक के साथ ही आनंद से जी रहा था। ये सब वह बड़ा देखता और अंदर ही अंदर उसे ईषा घेर लेती। उसे छोटे भाई के चेहरे पर फैली खुशी सहन नहीं हो रही थी।

एक दिन आगर उसने आपने छोटे भाई को कहा कि तुझ से मेरी एक प्रार्थना है कि तेरा जो एक घोड़ा है वह भी तू मुझे दे दे। उसने कहा—क्‍यों? तो उस बड़े भाई ने कहां—तेरे पास एक ही घोड़ा है, नहीं भी रहा तो कुछ ज्‍यादा नहीं खो जायेगा। मेरे पास निन्यानवे है, अगर एक मुझे और मिल जाए तो सौ की गिनती पूरी हो जाये। अगर मेरे पास सौ घोड़े हो जाते है। तो मेरा रुतबा बढ़ जाता है। लोगो मुझे गर्व से देखेंगे। ये निन्यानवे का फेर मुझे सता रहा है। तेरे लिए तो क्‍या है, पर मेरे लिए मरने वाली बात हो रही है। अब जैसे ही तू मुझे एक देगा मेरी सेंचुरी पूरी हो जायेगी। क्‍यों कि पिता के पास सौ घोड़े थे, अब ये उनके नाम पर कलंक है कि मेरे पास उसके बेटे के पास निन्यानवे घोड़े है। भाई मैं तेरे सामने हाथ जोड़ता हूं, तू पिता की इज्‍जत के लिए इतना त्‍याग और कर दे। छोटे भाई ने एक बार बड़े भाई की और देखा और कहां की भैया तूम परेशान मत हो तूम मेरा एक घोड़ा भी ले जाओ। क्‍योंकि मेरा अनुभव यह है कि निन्यानवे के कारण मैं आपको बहुत तकलीफ में देख रहा हूं। अब इस एक से मेरा गुजर चल रहा था। लेकिन आप मेरी फिक्र मत करें। मैं किसी भी तरह से काम चला लुंगा। और उसने वह एक घोड़ा भी बड़े भाई को दे दिया।

तब वह छोटा और भी आनंद से रहने लगा। क्‍योंकि अब उस एक घोड़े कि लिए उसे काफी समय और मेहनत करनी होती थी। उसकी खान पान हारी बिमारी कि फिक्र करनी होती थी। रात बार-बार उठ कर उसका पाल देखना होता था कहीं वह नंग तो नहीं हो गया। उसे ठंड तो नहीं लग रही। अब ये सब झंझट भी मुका। वह खुद ही घोड़े का काम करने लगा। पहले घोड़े पर सामन लदते समय उसे तकलीफ होती न जाने कितना बोझ ये बर्दाश्त कर सकता है। इसको मैं ज्‍यादा सता तो नहीं रहा हूं, कभी उसे घोड़े से बीमारी में भी काम करना होता। अब खुद ही जितना सामन ढो सकता था उतना ही काम लेता। उसकी जान की हजार परेशानी खत्‍म हो गई। अब तब घोड़े की नौकरी करनी होती थी। उसकी लगाम पकड़नी होती है। उसके संग साथ चल कर आधा उसे भी घोड़ा बनना होता था। अब वह अपने कंधे पर सामान लाद कर मस्‍ती में चल देता। लेकिन इतना सब होने और लेन पर भी बड़े की परेशान कम नहीं हुई। वहीं अपने भाई के चेहरे पर खुशी देख कर बीमार ही रहने लगा। क्‍योंकि उसने कितनी परेशान अपने उपर लाद ली थी। सौ घोड़ों में किसी दिन एक नहीं आता तो पूरी रात उसे परेशानी होती। अगर कोई मर गया तो फिर वहीं निन्यानवे रह जायेगे। अब तो भाई के पास भी और नहीं है कि उसी से और ले लेगा।

ये परेशानी उसे मरते दम रही….दो ही तरह के लोग होते है, एक वे जो वस्‍तुओं पर इतना भरोसा कर लेते है कह उनकी वजह से ही परेशान हो जाते है। और एक वे जो अपने पर इतने भरोसे से भरे होते है कि वस्‍तुएं उन्‍हें परेशान नहीं कर पाती। दो ही तरह के लोग है इस पृथ्‍वी पर। लेकिन आप पहली तरह के लोग यहां वहां रोज देख सकेगें। पर दूसरी तरह के लोग बहुत कम है, है जरूर पर कम है। जो इतने आनंद से में जीते है। इसलिए पहले तरह के लोगों के कारण आप पृथ्‍वी पर आनंद बहुत कम देख पायेंगे। चारो और दुःख, चिंता दुवेश, बेईमान…छीना झपटी और पीड़ा। वृति संक्षेप का अर्थ सीधा नहीं है यह कि आप अपने परिग्रह को कम करें। जब भीतर आपकी वृति संक्षिप्‍त होती है तो बहार परिग्रह कम हो जाता है।

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रथचाइल्‍ड और भिखारी

रथचाइल्‍ड के संबंध में एक कहानी है—यह एक यहूदी धनपति था—एक भिखमँगे को एक दिन अपनी और आते देखते रहे। उसके फटे कपड़े हाथ में सूखी रोट, टूटे हुये जूते। उसके मन में एक विचार आय और उसने भिखारी को अपने पास बेंच पर पास बुलाया। भिखारी ने सोचा कुछ भीख में मिलेगा। सूट टाई पहने काफ़ी अमीर आदमी लग रहा है। रथचाइल्‍ड बहुत बड़ा धनपति था। और धन के साथ दिल भी उसका बहुत अमीर था। हजारों आदमी की मदद करता था। तब उसने उस भिखमँगे को अपने पास बैठने को कहा। और अपना कार्ड जेब से निकाल कर कहां, ये मेरा कार्ड है। तुम मेरे दफ्तर आ जाया करों। मैं हर महीने तुम्‍हें सौ डालर दे दिया करूंगा। नाहक एक-एक पैसे के लिए सारा दिन भटकते रहते हो। भिखारी को तो विश्‍वास ही नहीं हुआ। उसे लगा ये आदमी या तो पागल है, या हवा में बात को उड़ा रहा है।

लेकिन जब भिखारी रथचाइल्‍ड के दफ्तर पहुँचा तो सच ही उसे सौ डालर मिल गये। अब तो वह हर पहली ता को जाता और अपने सौ डालर ऐसे लेता जैसे वह यहां पर काम करता है। ये उसका मेहनताना है। जैसे उसे तनख्‍वाह मिल रही है। कभी अगर दो चार मिनट क्लर्क कुछ और काम में उलझ जाता तो वह शोर मचाने लग जाता की उसे कितनी दे हो गई यहां पर आये हुए उस की और ध्‍यान नहीं दिया जाता। उसके पैसे दे क्यों नहीं देते। जब तुम्‍हें पता है। आज पहली ता0 है। तो सब बातों को इंतजाम पहले से ही क्‍यों नहीं करते। कितना समय हमारा खराब होता है। हम लोग कोई फालतू तो नहीं है। हमें भी बहार बहुत काम है। हमारा भी धंधा खराब होता है। क्लर्क हंसता।

कोई दस साल तक ऐसा चलता रहा। बिना नागा के वह हर पहली ता को आता और अपने सौ डालर ले कर चला जाता। रथचाइल्‍ड ने बहुत धन बांटा,ऐसे और न जाने कितने ही भिखारी उसके यहां से बिना नागा धन ले जाते थे। एक बार जब वह भिखारी आया तो क्‍लर्क ने कहा की इस महीने से तुम्‍हें पचास डालर ही मिलेंगे। क्‍योंकि मालिक को व्‍यवसाय कोई खास ठीक नहीं चल रहा है। उसे पूछा ऐसा क्‍यों क्‍या तुम्‍हारी तनख्‍वाह में भी कुछ कमी हुई है। क्लर्क ने मना कर दिया। नहीं हमें तो पूरी ही मिलती है। तब भिखारी ने उसकी और घूर कर देखा तो ऐसा हमारे साथ ही क्‍यों हो रहा है। सालों से हमें सौ डालर मिल रहे है।

क्‍लर्क ने कहां मालिक की लड़की की शादी है। उस में बहुत खर्च करना है। इस लिए उन्‍होंने दान को आधा कर दिया गया है। वह भिखारी तो एक दम आग बबूला हो गया और टेबल पीटने लगा। उसने कहा बूलाओ मालिक को मैं बात करना चाहता हूं, मेरे पैसे को काट कर अपनी बेटी की शादी में लगाने वाला वह कोन है। एक गरीब आदमी के पैसे काटकर अपनी लड़की की शादी में मजे उड़ाने वाले गुलछर्रे उड़ाने वाला वह कौन होता है। बूलाओ, मालिक कहां है।

रथचाइल्ड ने अपनी आत्‍म कथा में लिखा है, कि मैं गया और मुझे बड़ी हंसी आयी। लेकिन मुझे एक बात समझ में आयी कि यही तो हम परमात्मा के साथ करते है।

यहीं तो हम सबने परमात्‍मा के साथ किया है। जो मिला है उसका धन्‍यवाद नहीं देते। उस दस साल में उसने कभी एक दिन भी धन्‍यवाद नहीं दिया। लेकिन पचास डालर कम हुए तो वह नाराज हो गया। सिकवा शिकायत की। आगबबूला हुआ। कि उसके पचास डालर क्‍यों काटे जा रहे है।

अगर तुमने मांगा तो पहली तो बात मिलेगा नहीं। और ये शुभ भी है कि नहीं मिलता,कयोंकि तुम जो भी मांगते हो। वह गलत होता है। तुम सही मांग ही नहीं सकते। तुम गलत हो। गलत से गलत की ही मांग उठती है। नीम में केवल नीम की निबोलियां ही लग सकती है। आम के सुस्‍वाद फलों के लगने की कोई संभावना नहीं हो सकती। जो तुम्‍हारी जड़ में नहीं है, वह तुम्‍हारे फल में न हो सकेगा। तुम गलत हो तो तुम जो मांगोंगे वह गलत होगा।

–ओशो जिन सूत्र—भाग—2, प्रवचन बाईसवां, पूना

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बौद्ध भिक्षु और वेश्‍या

एक बार एक बौद्ध भिक्षु एक गांव से गुजर रहा था। चार कदम चलने के बाद वह ठिठका। क्‍योंकि भगवान ने भिक्षु संध को कह रखा था। दस कदम दूर से ज्‍यादा मत देखना। जितने से तुम्‍हारा काम चल जाये। अचानक उसे लगया ये गली कुछ अलग है। यहां की सजावट, रहन सहन। लोगों का यूं राह चलते उपर देखना। इशारे करना। कही कोई किसी को बुला रहा है। इशारा कर के। कोई किसी स्‍त्री को प्रश्न करने के लिए मिन्नत मशक्कत कर रहा है। जगह-जगह भीड़ इक्‍कठी है। आग गांव और गलियों में ये दृश्य कम ही देखने को मिलते है। पर भिक्षु विचित्र सेन, थोड़ा चकित जरूर हुआ पर, निर्भय आगे बढ़ा, वह समझ गया की ये वेश्‍याओं का महोला है। यहां भिक्षा की उम्‍मीद कम ही है। वैसे तो भगवान ने कुछ वर्जित नहीं किया था कि किस घर जाओ किस घर न जाओ। पर जीवन में ऐसा उहाँ-पोह पहले आई नहीं थी। वह कुछ आगे बढ़ा।

ऊपर खिड़की से एक वेश्‍या ने भिक्षु विचित्र सेन को देखा और देखती रह गई। कितने ही लोगों का उसने देखा था। एक से एक सुंदर धनवान, बलवान, पर इस भिक्षु के मेले कुचैले कपड़े। हाथ में भिक्षा पात्र, पर इसकी चाल में कुछ ऐसा था मानों आनंद झर रहा हो। उसके चेहरे की आभा और शांति, अभूतपूर्व थी। राजे महाराजों की चाल भी उस युवक भिक्षु के सामने घसर-पसर लगती थी। मानों उसके कदम जमीन पर न पड़ हवा में बादलों पर पड़ रहे है। चलना-चलना न हो उसे पंख लग गये थे उसके पैरो में। बिना किसी सिंगार के वह राजा महाराजा को भी मात दे रहा था। अब ये विरोधाभास देखा आपने देखा ये आपने चमत्‍कार, हजारों लोगों ने उस भिक्षु को चलते हुए देखा। पर किसी और को उसकी चाल में कोई गुण गौरव क्‍यों नहीं नजर आ रहा था। ऐसा नहीं है हम जो देखते है वो सत्‍य है। देखने के लिए भी आंखें चाहिए, अन्‍दर भरा होश चाहिए। बुद्ध आते और हमी लोगों के बीच से होकर चले जाते है और हम नहीं देख पाते। देख पाते है उनके जाने के भी हजारों सालों बाद।

वह वेश्‍या नीचे उतर आई और संन्‍यासी का रास्‍ता रोक कर खड़ी हो गई। संन्‍यासी अपूर्व रूप से सुंदर हो जाता है। संन्‍यास जैसा सौदर्य देता है, मनुष्य को और कोई चीज नहीं देती। संन्‍यस्‍त होकर तुम सुंदर न हो जाओ, तो समझना की कही भूलचूक हो रही है। और संन्‍यासी का कोई शृंगार नहीं है। संन्‍यास इतना बड़ा शृंगार है कि फिर और शृंगार की कोई जरूरत नहीं होती। क्‍योंकि संन्‍यासी अपने में थिर हो जाता है। उसकी वासनाएं उसे घेरे नहीं होती। वह उस कोमल पुष्‍प की तरह हो जाता है। जो अभी-अभी प्रात: की बेला में खिला है। अभी उसकी पंखुड़ियों पर ओस की नाजुक बुंदे चमक रही है। उस पर कोई धुल धमास नहीं ज़मीं है। कोर नि:कुलीश है। उसकी सारी उद्विग्‍नता खो गयी है। उसके सारे ज्‍वर, तनाव, आसक्‍ति, कामनाए गिर गई है। शुन्‍य विराग का गीत गूंजता उसके अंतस से। उसके आस पास एक लयवदिता एक मधुर झंकार अभिभूत कर जाती है, उसके संग साथ मात्र से। आनंद का समुन्दर हिलोरे मारने लग रहा है उसके ह्रदय में। पर आपने देखा इस अनछुए निष्‍कलुष सौन्दर्य पर स्‍त्रीयां कितनी जल्‍दी मोहित हो जाती है। स्‍त्री में एक अद्भुत शक्‍ति है। वह आपकी आंखे, आपके शरीर के हाव भाव आपकी छूआन या देखने भर से आपके अंतस की गहराइयों तक की वासनाओं को जान जाती है एक पल में।

उस वेश्‍या ने भिक्षु विचित्र गुप्‍त का रास्‍ता रोक लिया और आवेदन किया, है देव इस वर्षा काल तुम मेरे घर रूक जाओ। चार महीने वर्षा काल में बौद्ध भिक्षु किसी एक स्‍थान पर निवास करते थे। मैं सब तरह से तुम्‍हारी सेवा करूंगी। भिक्षु विचित्र गुप्‍त ने उस वेश्‍या की और देखा। उसकी आंखों में एक प्‍यास थी। कुछ खोज रही थी, जो उसे भोगविलास में, धन दौलत में नहीं मिल पा रहा था। उसने कहां है ‘’देवा मैं आज तुम्‍हें कुछ कह नहीं सकता। क्‍योंकि मुझे अपने गुरु से इस बात की इजाजत लेनी होगी। तुम कल तक मेरा इंतजार करों, मैं गुरु से पूछ का कल हाजिर होता हूं।‘’ और आगे बढ़ गया। जिस शांति और थिरता से उसके वो शब्‍द कहे थे। वे शब्‍द नहीं अमृत रस हो वह वेश्‍या उन शब्‍दों पर मंत्र मुग्‍ध हो गई। और जाते हुए उस बौद्ध भिक्षु को निहारती भर रही। उसे कोई शब्‍द न सुझा। मन पल के लिए निशब्द हो गया। एक गहरी शांति छा गई मन के आँगन में मानों जेष्ठ की भरी दोपहरी में अचानक एक काली घनी बदली ने सुर्य को ढक चारों और एक सीतलता बिखेर दी हो। उसके तड़पते मन पर पल भर के लिए शीतलता फेल गई। उस वेश्‍या को ये आस नहीं थी की मेरा ऐसा भाग्य होगा कि मैं जीवन में किसी भिक्षु का संग साथ करूंगी। उसे तो वासना के भूखी आंखे, गीध की तरह नोचते जवान मांस के भूखे पशुओं से ही पाला पड़ता रहता था। प्‍यार के दिखावे के नाम पर एक छलावा एक नकली चेहरा चारों और झूठ और फरेब की दीवारें ही देखने को मिली थी। उसका मन बार-बार कह रहा था की देखना, वह जरूर मेरा निमंत्रण स्‍वीकार लेगा। उसकी आंखों में भय नहीं था। और उसने उस भिक्षु की चरण धुल अपने आँचल में समेट ली और आपने निवास की और चली गयी।

वो सब समान को सुनियोजित तरीके से लगाने लगी। दासी को भी कह दिया इस शयन कक्ष को खूब सुन्‍दर सज़ा सवार दे। कल कोई मेहमान आने वाला है। और वह यहां चार माह रहेगा। दासी उसका मुख देखती रह गई। ऐसा कोन मेहमान आ रहा है। यहां तो रोज नये आते है। और चले जाते है। दासी की समझ में कुछ आया कुछ नहीं आया। पर वह कुछ बोली नहीं अपने काम में लग गई। वेश्‍या तो इतनी प्रश्न हुई मानो उसके घर कल खुद भगवान चल कर आ रहे है। उसके पैर ज़मीं पर नहीं गिर रहे थे। इतनी खुशी उसे सहन नहीं हो पा रही थी। उसके होठो पर मधुर गान मुखरित हो रहे थे। उसके कदमों में रागों के नाद डोल रहे थे। ह्रदय हिलोरे ले रहा था। सांसों में सुगंध समा रही थी। इतनी खुशी उसे जीवन में पहले कभी नहीं हुई। लगता था आज जीवन धन्‍य हो गया।

भिक्षु ने जाकर भगवान बुद्ध से भरी सभा में पूछा, दस हजार भिक्षु वहां पर मौजूद थे। भंते: मैं एक गांव में गया था, वह एक वेश्याओं का गांव था। एक युवती ने मेरा रास्‍ता रोक लिया। और आग्रह करने लगी की तुम इस वर्षा वाप पर चार माह मेरे यहां रुको। पास ही बैठे एक भिक्षु ने कहां भगवन वह स्‍त्री अति सुंदर थी और उपर से वेश्‍या भी। सारे भिक्षु में अचानक बिजली सी कौंध गई। कुछ भिक्षु उनमें से उत्‍तेजित भी हो रहे थे। कि भगवान अब क्‍या उत्‍तर देंगे? चारों और सन्नाटा छा गया। भिक्षु ने फिर कहां भगवान वह वेश्‍या है या नहीं इस सब से मुझे क्‍या परियोजना है। वह सुंदर है या कुरूप। ये महत्‍वपूर्ण नहीं है। महत्‍व पुर्ण बात तो ये है कि उसे ने मुझे राह पर रोक कर निमंत्रण दिया। आपकी आज्ञा लेने के लिए मैं आपके पास आया हूं। वैसे इतना भी उसकी श्रद्धा पर तुषार पात लग रहा है। ये मेरे ह्रदय पर एक बोझ है। जो मैं मीलों ढो कर आ रहा हूं। आपकी आज्ञा हो तो इस चार माह उस के निवास पर रहने का निमंत्रण स्‍वीकार करू या नहीं। जैसी आपकी आज्ञा।

भगवान ने एक बार फिर विचित्र सेन की आंखों में झाँका और आज्ञा दे दी। चारों तरफ खुसर-फुसर होने लगी। आग लग गई। भिक्षु संध में। कुछ भिक्षुओं ने खड़े हो कर कहां भगवान ये अन्‍याय है। ये तो सरासर भ्रष्‍ट होने की राह है। आप खुद ही ऐसा करेंगे और कहेंगे तो हमे रोकेगा कौन, समझायेंगा कौन। आप अपने निर्णय पर एक बार और सोच विचार कर ले। एक भिक्षु कहने लगा भगवान मेरे मन में भी ये प्रश्‍न था। में भी आपसे आज्ञा चाहता था। पर झिझक रहा था। कि लोग क्‍या कहेंगे। डर भी लग रहा था कि आप मना कर देंगे। अब तो मेरे प्रश्न का उत्तर आपने स्‍वयं ही दे दिया अब तो पूछने कि कोई जरूरत ही नहीं है। भगवान ने उस भिक्षु को देखा ये तुम्‍हारे लिए आज्ञा नहीं है। ये प्रश्‍न विचित्र सेन का था। तुम्‍हें शायद में ना कर देता। जब प्रश्‍न पूछने का और आज्ञा मांगने का साहस नहीं है तो फिर तुम्‍हारी क्‍या परिणति होगी ये तुम स्‍वंय ही जानते हो। और ये बात समझ लो मैं सोच विचार नहीं करता। मैं तो तुम्‍हारे अंतस में झांक कर देख भर लेता हूं, मुझे अपनी आज्ञा पर सोचने विचारने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब इस बात को यहीं खत्‍म करते है। और चार माह बाद जब विचित्र सेन आयेगा तभी कोई चर्चा होगी। इसे जाने दो इसे मैं जानता हूं, अगर वेश्‍या इसके संन्‍यास को डिगा देगी तो ये संन्‍यास थोथा होगा। इसका कोई मुल्‍य नहीं। तुम्हारे संन्‍यास की नाव में एक वेश्‍या भी यात्रा न कर सके तो दो पैसे का संन्‍यास है। उसका क्‍या मूल्‍य है?

भिक्षु विचित्र सेन भगवान को प्रणाम कर चला गया। सार भिक्षु संध उसे जाते को देखता रहे। कईयों के मन में तरह-तरह लड्डू फूट रहे थे। क्‍या भाग्‍य पाय है। अब यह करेगा चार माह तक मौज, और अपनी किस्‍मत को कोसने लगे। उधर वेश्‍या ने उसका स्‍वगत किया, शायद उसे उम्‍मीद थी की भिक्षु आयेगा। चार माह तक उसकी खूब सेवा की, अपने हाथ से खिलाया। तेल मालिश करती। नहलाती। नरम मुलायम बिस्तरे सोने के लिए देती। कभी नाज गा कर भी उसका मनोरंजन करती। कभी खुद उसकी गोद में लेट जाती। जिन भिक्षुओं को ईषा थी, वह झांक-झांक कर देखते। और भगवान को आकर शिकायत करते की देखा आपने, विचित्र सेन को, वह नाच गाने सुनता है। सुस्‍वाद भोजन करता है, कभी वो वेश्‍या उसकी गोद में लेटी हमने देखी। वह अपने हाथों से उसे तेल लगती है,नहलाती है। और कभी-कभी तो हमने उन्‍हें एक ही बिस्तरे पर संग साथ सोते भी देखा है। भगवान आप ने भी कमाल कर दिया। उस बेचारे का सारा जीवन बर्बाद हो गया। सारी तपस्‍या मिट्टी में मिल गई। भगवान केवल हंस भर देते।

चार माह बाद वह भिक्षु विचित्र सेन आया। वेश्‍या भी उसके साथ चली आ रही थी। उसने भगवान के चरणों में सर रख कर कहां आपके भिक्षु को क्‍या मिल गया। मैं नहीं जानती बस मैने चार माह उसका संग किया है। आपका भिक्षु हर क्रियाकलाप से सतत अप्रभावित रहा। किसी भी चीज का उसने कभी विरोध नहीं किया। जो खाने को देती खा लेता। जो मैं कर सकती थी एक पुरूष को रिझाने के लिए वो सब उपाऐं मैंने किये। नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर वह सदा अप्रभावित रहा। मैं हार गई भगवान ऐसा पुरूष मैंने जीवन में नहीं देखा। हजारों पुरूषों का संग किया है। पुरूष की हर गति विधि से में परिचित हूं। पर आपके भिक्षु ने जरूर कुछ ऐसा रस जाना है। जो इस भोग के रस से कहीं उत्‍तम है। मुझ अभागी को भी मार्ग दो। मैं भी वहीं रस चाहती हूं। जो क्षण में न छिन जाये शाश्वत रहे। में भी पूर्ण होना चाहती हू। सच ही आपका भिक्षु पूर्ण पुरूष है। और उसने दीक्षा ले ली। विचित्र सेन ने भगवान के चरणों में अपना सर रखा। भगवान ने उसे उठा कर अपने गले से लगया। मेरा बेटा विचित्र सेन सच में ही विचित्र हो गया। अर्हत हो गया है। और वेश्‍या के साथ पूरे भिक्षु संध की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे।

भगवान न उस भिक्षु को देख कर कहा, देखा भिक्षु तुमने, मेरा बेटा वेश्‍या के यहां चार मास रहा तो एक और भिक्षु को अपने साथ लाया। तू भी सिख अपने अंदर झांक कर देख,उस मन की चालबाजी को जो तुझे छल रहा है। वह जो कह रहा है..क्‍या वह सत्‍य है या मात्र एक छलावा। आंखें खोल जाग, देख चारों और कितना प्रकाश फैल रहा है। और ये अपने ही दिल पर हाथ रख कर खुद ही उत्‍तर ढुंड़ कि क्‍या तु अगर जाता तो तेरी दबी वासना तुझे डुबो नहीं देती क्‍या तू वापिस आता……शायद कभी नहीं, हां इस संध में एक भिक्षु और कम हो जाता संध में। और सब भिक्षु पल भर के लिए खिल खिला कर हंस दिये।

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सूफी कथा—आगे-आगे और आगे

एक पुरानी सूफी कथा है, एक फकीर जंगल में ध्‍यान करता और एक लकड़हारा रोज लकडियां काटता था। फकीर को उस की गरीबी पर दया आ गई, बह लकड़ हार बहुत बूढ़ा था। उसका शरीर तो बलिष्‍ठ था, पर उसकी बाल सफेद और कमर झुक गई थी। रोज सुबह से श्‍याम तक जंगल में लकड़ी काटते-काटते उसकी उम्र गुजर गई। और बचे बुढ़ापे के दिनों में अब कोई आस भी नहीं थी। क्‍योंकि अब तो वह इतना काम भी नहीं कर सकता था। तब साधु ने उसे बुलाया और कहां, सारी उम्र हो गई पागल तेरे को यहां लकड़ी काटते, तू जरा ओर आगे भी तो जा कर कभी देख…तो उस लकड़हारे ने कहां आगे जाने से क्‍या होगा। सारी उम्र तो कट गई। अब दूर जाने का साहस भी नहीं है मेरे पास। और आगे भी तो ऐसा ही जंगल होगा।

यहां पूरी उम्र गँवाई एक बार मेरी बात मान कर आगे और आग…. भी देख। काफी ना नुच करके वह मरे मन से आगे गया। आरे अभी मील भर आगे भी नहीं गया था कि लकड़हारा क्‍या देखता वहां तो तांबे कि एक बहुत बड़ी खान है। तब वह जितना तांबा ला सकता था उतना ला-ला कर रोज बेचने लगा। एक बार लाता और सात दिन के लिए काफी हो जाता। वह तो मस्‍त हो गया। छ: दिन आराम करे और एक दिन तांबा ला कर बेच। तब एक दिन उसके दिमाग में आई कि सारी उम्र में लकड़ी काटता रहा। तब कही बमुश्किल से फकीर के कहने से आगे गया। पर फकीर ने आगे और आगे…क्‍यों कहा। उस दिन वह जल्‍दी उठा और चल दिया तांबे की खान की और , वह तांबे की खदान को परा कर चलता रहा। मील दो मील चलने के बाद क्‍या देखता है। वहां पर तो चाँदी ही चाँदी है। जहां देखो। और उसने अपना सर घुन लिया। मैं भी कितना मुर्ख था। जो लकड़ी काटते-काटते पूरी उम्र गँवा दी। अब वह चाँदी की खदान से जितनी चाँदी ला सकता था ले आता और बेच देता, छ: महीने तक मौज से खाता। अब तो उसने अपना घर भी ठीक ठाक बनवा लिया। एक दिन काम करता और तीन महीने बैठ कर खाता। विश्राम ही विश्राम था। खूब सुख सुविधा मिल रही थी। भगवान ने अच्छा फकीर भेजा बुढ़ापा मौज से कट रहा था।

साल भर बाद फिर उसके मन में उत्‍सुकता जागी की आगे और आगे….क्‍यों न और आगे जा कर देख लूं और नही तो सेर सपाटा ही हो जायेगा। जो मुझे मिल गया है वह तो मुझसे छीना जाना है नहीं। तब वह एक दिन चाँदी की खादन को पार कर आगे चलता रहा। दोपहर हो गई जंगल और घना हो गया। पेड़ आसमान को छूने लगे थे। उसे लगता यहां के पेड़ काटने में कितना मजा आता। एक ही चंदन का पेड़ काट लेता तो महीना भर खाता पर अब क्‍या पेड़ काटना चाँद का काम अच्‍छा है। मेरे इतने पास इतना सब और मुझे पता तक नहीं। पूरा जंगल मेरा ही तो था। यहां सदा में आया, बस पास से ही लकडियां काट कर लोट जाता था। मैं भी कितना बुद्धू था। कभी मैने सोचा भी नहीं की जंगल में और संपदा ये भी हो सकती है।

तो वह गया। आगे उसे सोने की खदान मिली। फिर तो साल में एक आध बार घूमने की मस्‍ती में जाता और सोना उठा लाता। अब उसे काम कुछ भी नहीं था। तब एक दिन फकीर उसे बैठा ध्‍यान करता दिखाई दिया। वह बैठ गया। जब फकीर ने आंखे खोली तो उनके पैर छूकर कहां आप पहले क्‍यों नहीं मिल गये। मेरी पूरी उम्र यूं ही खत्‍म हो गई। तब फकीर ने कहां अब भी तो यूँ ही गंवा रहा है। कहां तक पहुंचा। तब उसने गर्व से कहा मैंने सोने की खाने खोज ली है। फकीर हंसा पाँच साल में भी तेरी समझ में कुछ नहीं आया। कुंजी तो में तुझे दे ही गया था। जब एक ताला खुला तो और खोलने की जिज्ञासा क्‍यों न आई। तू आज भी मूर्ख है। इतना जान कर भी आगे क्‍यों नहीं जाता।

तब उस लकड़ हारे ने आश्‍चर्य से कहां,अब और क्‍या हो सकता है। सोना तो आखिरी है। इसके आगे क्‍या हो सकता है। मेरी तो समझ में नहीं आता।

फकीर ने कहा: कोई भी चीज कभी आखरी नहीं होती, हर पेडी एक नया द्वार खोलती है। जरा और भी आगे जा कर देख इस संसार में रूकने के लिए कोई स्‍थान नहीं है। चलना ही मंजिल है…..

वह और आगे गया वहां पर हीरे की खादन थी। वह उन में से इतना उठा लाया कि जन्‍म भर कुछ करने की जरूरत नहीं रही। फिर एक दिन खुद उसके घर पर पहुंच गया। बह ठाठ से रह रहा था। तू तो रूक गया और आगे तुझे कुछ दिखाई नहीं दिया।

उस लकड़हारे ने कहां और आगे क्‍या? अपने लिए तो इतना ही काफी है, मेरी सात पीढ़ी भी बैठ कर खा सकती है। अब तो आराम करने दो। और थोड़ा भगवान का भजन करने दो। एक बार और भी जा कर देख,घर पर भी तो तुझे कुछ काम नहीं हे। अब तो तेरा स्‍वस्‍थ भी अच्‍छा हो गया हे। खूब पौष्टिक भोजन करता हे। चेहरा लाल हो गया। बुढ़ापा भी कम झलक रहा है तेरे चेहरे पर। कमर जो झुक गई थी। सीधी हो गई हो आराम के कारण।

उसने मरे मन से कहां और क्‍या हो सकता है हीरों से आगे?

अब हीरो के आगे जाने का उसका मन नहीं था, पर फकीर के सामने मना भी नहीं कर सका। चल दिया दो दिन चार दिन चलने के बाद। जब हीरों की खदान भी पार गया तो क्‍या देखता है। वहीं फकीर तो बैठ हुआ है—परम शांत, अपूर्व उसकी शांति थी। भूल गया लकड़हारा। जो फकीर उसके पास घर आया था वह ये तो नहीं था। आज उसकी आभा देखने जैसी थी। या शायद उसकी उलझी आंखें उसे देख नहीं पाई थी। और यहां न जाने क्‍या हो रहा है चारों और का सौन्‍दर्य देखते ही बनता है। वह झुक गया फकीर कि चरणों में, और उसने आंखें बंध कर ली घड़ी बीती दो घड़ी बीती वह नहीं उठा फकीर के चरणों में अभूत पूर्व आनंद बरस रहा था उन चरणों में पूरे जीवन की जो जलन पीड़ा झेली थी वह न जाने कहा पल में गायब हो गई। ऐसी शांति ऐसा आनंद उसने कभी नहीं जाना था। एक शांति की जल धार बह रही थी। फकीर ने आंखे खोली ओर चिल्लाया पागल फिर भूल गया मैंने जो कहां था। आगे और आगे….तू तो यहीं रूक गया। इन चरणों में भी नहीं रूकना। ये भी मंजिल नही है। और थोड़ा आगे।

उसने कहां अब और नहीं इतनी शांति इतना आनंद तो हीरे जवाहरातों में भी नहीं था। जो आपके चरणों में है। बस और नहीं मुझे यहीं रहने दो। इससे मधुर और इससे सुंदर और आगे क्‍या हो सकता है।

नहीं और आगे जा, तूने देखा है न जिसे तू अंत समझता था वह भी अंत नहीं है। आगे पूर्ण है जा और पूर्ण हो जा। जब तक आदमी पूर्ण नहीं हो जाता तब तक अतृप्‍ति बनी ही रहती है। गुरु के चरणों में सुख है आनंद है, शांति है, संसार के सामने अगर तौलो तो अपूर्व है। लेकिन परमाता के सामने तौलो तो कुछ भी नहीं। गुरु तो तराजू है जो तुम अनुभव देगा। मार्ग बतलायेगा, तुम सुख, दुःख गुरु के तराजू पर तोल सकते है। पर वहां कोई रूकना थोड़े ही है। आगे जाना है परमात्‍मा से पहले कोई पूर्णता तुम्‍हें रोके तो रूकना नहीं। चलते जाना है, और आगे और आगे……

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बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं

तुमने बैताल पच्चीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है। बैताल पच्चीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए है। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी है, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है। जिनमें पर्त दर पर्त अलग-अलग रहस्‍य और अर्थ है। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार या पाँच अर्थ एक साथ दौड़ते रहते है। जैसे एक साथ पाँच रास्‍ते चल रहे हो। पैरेलल, समानांतर।

तो जिसको जो सुविधा हो। एक छोटा बच्‍चा भी बैताल पच्चीसी पढ़कर प्रसन्‍न होगा और परम ज्ञानी भी पढ़कर प्रसन्‍न होगा। खोजी को मार्ग मिल जायेगा। पहुंचे हुए को मंजिल की प्रत्‍यभिज्ञा होगी। जो नहीं खोजी है, नहीं पहुंचा हुआ है, उसके लिए केवल चित के आनंद मनोरंजन होगा। वह भी क्‍या कम है। थोड़ी देर को मन बहलाव हो जायेगा।

बैताल पचीसी की पहली कथा है…..। पच्‍चीसों की कथाएं बड़ी अद्भुत है। लेकिन पहली कथा तुम से कहता हूं। पहली कथा है कि सम्राट विक्रमादित्‍य के दरबार में एक फकीर आया। सुबह का वक्‍त था। रिवाज के अनुसार लोग सम्राट को भेट चढ़ने के लिए सुबह-सुबह आया करते थे। उस फकीर ने भी जंगली सा दिखने वाला फल सम्राट को भेट किया। सम्राट थोड़ा मुस्‍कुराया भी। इस फल को भेंट करने के लिए इतनी दूर आने की जरूरत क्‍या थी? लेकिन फकीर है; लेकिन फकीर है फकीर के पास और हो भी क्‍या सकता है। तो राजा ने उसे स्‍वीकार कर लिया। पास ही बैठा वजीर था, उसने वह फल उसके हाथों में दे दिया, जो भेट आती थी वह वजीर लेता रहता और रखता जाता था।

यह क्रम दस वर्ष तक चला। वह फकीर रोज सुबह आता। और रोज वहीं ,उसी तरह का फिर एक जंगली फल ले आता। दस वर्ष। और रोज सम्राट वजीर को फल दे देता। न तो उसने कभी पूछा, क्‍योंकि सुबह सैंकड़ो लोग भेट लाते थे। फुरसत भी नहीं होगी। समय भी नहीं होगा पूछने का। शायद इस फकीर से पूछने जैसा कुछ लगा न होगा।

पर एक दिन पास ही सम्राट का पाला हुआ बंदर भी बैठा हुआ था। और सम्राट ने वजीर को फल न देकर बंदर को दे दिया। बंदर ने फल खाया और उसके मुंह से एक बहुत बड़ा हीरा, जो उस फल में छिपा था। नीचे गिर गया। सम्राट तो चौंका। इतना बड़ा हीरा तो उसने देखा भी नहीं था। वजीर से कहा कि बाकी फल कहां है?

वजीर ने भी ये सोचा था की जंगली फल है। पर फिर भी उसने सोचा कि सम्राटों के पास सम्‍हलकर रहना पड़ता है। तो एक तलघरे में वह फेंकता जाता था। क्‍योंकि फलों का करोगे क्‍या? जंगली थे; खाने योग्‍य भी नहीं लगते थे। स्‍वाद भी ठीक नहीं होगा।

तल घरा खोला गया। भंयकर बदबू से भरा था। क्‍योंकि सारे फल सड़ गये थे। लेकिन उन सड़े हुए फलों के बीच हीरे चमक रहे थे। ऐसे हीरे कभी सम्राट ने देखे नहीं थे।

फकीर को कहा की यह क्‍या राज है? तुम क्‍या चाहते हो? किस लिए दस साल से यह भेट ला रहे हो? और मैं कैसा अज्ञानी कि मैंने कभी देखा भी नहीं। मैंने समझा, जंगली फल है। होश न हो तो जिन्‍दगी ऐसे ही चूक जाती है।

दूसरी समानांतर अर्थ की धारा शुरू होती है:–

उस फकीर ने कहा की रोज ही जिन्‍दगी लाती है। लेकिन जंगली फल समझकर तुम फेंकते चले जाते हो। और हर फल के अंदर हीरा छिपा है। जिसे तुमने कभी देखा नहीं। खैर, जो हुआ सो हुआ। अब पीछे की तरफ मत जाओ। अन्‍यथा फिर तुम चुक जाओगे। और आगे की तरफ भी मत दौड़ों। कयोंकि मैं देखता हूं, सपने दौड़ रहे है। क्‍योंकि इतने हीरे। दुनिया के तुम सबसे बड़े सम्राट हो गये। आगे भी मत जाओ। पीछे भी मत जाओ। मैं कुछ और तुमसे कहना चाहता हूं। वह सुन लो।

सम्राट सजग होकर बैठ गया, यह आदमी साधारण नहीं है। अब तक समझे कि फकीर है।

जिंदगी साधारण नहीं है। और जिंदगी ने तुम्‍हें जो दिया है। वह बिलकुल असाधारण है। लेकिन तुम्‍हें होश नहीं है। तुम हंसोगे कि दस साल तक यह आदमी क्‍यों बेहोश रहा? तुम कई जन्‍मों से हो। राजा वीर विक्रमादित्‍य तुम भी हो। हजारों साल से तुम ऐसे ही बैठे हो और जिंदगी रोज फल दिए जा रही है। हर पल छिपा हुआ जीवन का हीरा तुम्‍हारे पास आता है।

अब ये कोई साधारण आदमी नहीं था, तब राजा ने कहा तुम्‍हारी एक-एक बात सुनने जैसी है। उसने कहा कि मैं दस वर्ष से आ रहा हूं, इसी प्रतीक्षा में कि किसी दिन तुम जागोगे। क्‍योंकि मैं एक ऐसा आदमी चाहता हूं, जो वीर हो, वह तुम हो।

इस लिए विक्रमादित्‍य का नाम वीर विक्रमादित्‍य पडा। सिर्फ दो ही आदमियों को भारत ने वीर कहा है, एक महावीर को और एक विक्रमादित्‍य को।

निश्‍चित तुम वीर हो, इसमे कोई शक-शुबहा नहीं; लेकिन काफी नहीं है वीर होना। इस लिए में चाहता हूं कि तुम जागों वर्तमान के प्रति। तब तुम मेरे काम के हो सकते हो। अब दोनों बातें घट गई। अब तुम वीर हो, होश और साहस। मैं एक बड़े महान तंत्र पर कार्य करने में लगा हूं। उसमें मुझे एक ऐसे आदमी की जरूरत है। जो बहुत वीर हो, जिसे कोई चीज भयभीत न करे सके, और जो होश पूर्ण हो। अगर तुम तैयार हो तो आज अमावस की रात है। तुम सांझ मरघट पर पहुंच जाओ मैं तुम्‍हें वही मिलूगा।

वह फकीर तो चला गया। सम्राट ने कई बार सोचा भी कि इस झंझट में पड़ना कि नहीं। लेकिन फिर यह तो कायरता होगी। और यह आदमी ऐसा हैं कि इसके साथ थोड़ी दुर तक जा कर देखने जैसा है। पता नहीं हम जैसे जंगली फल को फेंकते रहे…..,पता नहीं मरघट में कौन से स्‍वर्ग का या मोक्ष का द्वार खुल जाए।

अपने आप को राजा वीर विक्रमादित्‍य समझाता रहा…..अंदर-अंदर थोड़ा डर भी लग रहा था।

बहादुर से बहादुर आदमी भी डरता है। तुम यह मत सोचना कि सिर्फ कायर डरते है। डरते तो बहादुर भी है। फर्क क्‍या है बहादुर और कायर में? बहादुर डरता है, तो भी करता है। कायर डरता है, भाग खड़ा होता है। डरते तो दोनों है। डरने के संबंध में कोई फर्क नहीं है। क्‍योंकि जो डरे ही नहीं, वह तो बहादुर भी क्‍या उसको कहना। वह तो लोहे, लकड़ी, पत्‍थर का बना हुआ आदमी है। वह बहादुर नहीं है। जो डरे ही न। डर तो स्‍वाभाविक है। लेकिन बहादुर डर को किनारे पर रख देता है। और घूस जाता है। और भयभीत डर को सिर पर रख लेता है, और भाग खड़ा होता है।

खेर आधी रात विक्रमादित्‍य पहुंच गया मरघट पर। बड़ा डर लगता था। बड़ी । वह कोई साधारण रात नहीं मालूम होती थी। शायद इतनी भंयकर रात को इससे पहले कभी वीर विक्रमादित्‍य न जाना भी नहीं था। इससे पहले इतनी रात को कभी मरघट आया भी नहीं होगा। महलों में ही रहा है। मरघट सिर्फ एक शब्‍द था। जो पढ़ा और सूना होगा। आज मरघट पर जीवन है। उसका दाव है। आज मरघट केवल शब्‍द ही नहीं रहा। आज एक अनुभव है।

तुम भी कभी आधा रात अमावस की मरघट जाओ, तब तुम्‍हें इस शब्‍द का अर्थ पहली बार पता चलेगा। आपके शब्‍द कोश जो अर्थ लिखा है वो सत्‍य नहीं है।

मरघट एक अनूठी घटना है। चारों तरफ रहस्‍य। चारों तरफ फैली एक गहन शांति कि गहन तरंगें, भय, खतरा, भूत-प्रेत,की काल्‍पनिक चीख पुकार। और वह तांत्रिक अपना मंडल रचकर बैठा है नग्‍न। चारों और मानव खोपड़ियों का ढोर लगा है। और एक मानव लाश पास ही रखी है। जिसका उसने सर काट रखा है।

सम्राट ने कहा मैं आ गया हूं, तांत्रिक ने उसकी और गोर से देखा ओर कहां। वह जो वक्ष है। दूर जिस पर थोड़ी-थोड़ी रोशनी पड़ रही है। वह विशाल वृक्ष देख रहे हो ना। उस पर कुछ लाश लटकी है। तुम उस लाश को वृक्ष से उतार कर मेरे पास लाना है। लेकिन एक बात का ध्‍यान रखना। एक दम सजग रहना। होश पूर्ण। यह तलवार की धार पर चलने जैसा ही है। जरा चूके कि गए। शांत रहना। शायद फिर मैं भी तुम्‍हारी कोई सहायता न कर सकूंगा।

धड़कती छाती से विक्रमादित्‍य उस वृक्ष की और चला। हाथ में उसने नंगी तलवार ले रखी थी। चारों तरफ गहन शांति थी। पेर जब जमीन पर पड़े सूखे पत्‍तों पर पड़ रहे थे, उनकी उनका शोर खड़खड़ाहाट भी बहुत भारी कर रही थी कदमों को। अपनी ही साँसे कैसी शांति को चीर रही थी। वह धीरे-धीरे उस वृक्ष के नजदीक जाने लगा, जिस पर लाश लटकी हुई थी। एक नहीं पूरी पच्‍चीस, बड़ी भंयकर बदबू आ रही थी। उन लाशों के चारों और पेड़ो और उनकी टहनीयों पर चमगादड़ उल्‍टे लटके होने का अहसास और भी मन में भय भर रहे थे। उनकी कर्कश ध्‍वनि से, और दुर्गंध से दम घुटा जा रहा था वीर विक्रमादित्‍य का। अंदर तक कहीं कोई भर की लहर भी बीच-बीच में पूरे बदन को कंप-कंपा जाती थी।………..(क्रमश: अगले अंक में)

ओशो गीता-दर्शन,भाग—8, अध्‍याय-17, प्रवचन—10 

 

बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं (2)

किसी तरह नाक को अवरूद्ध कर के वृक्ष पर चढ़ा। हाथ-पैर कंप रहे थे । वृक्ष पर चढ़ना भी बहुत मुश्‍किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्‍म से नीचे गिरी, न केवल गिरी , बल्‍कि खिलखिला कर हंसी। विक्रमादित्‍य के प्राण निकल गये होगें। सोचा था मुर्दा है, वह जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में। घबड़ाया हुआ नीचे आया। और उससे पूछा क्‍यों हंसे? क्‍या मामला है। बस, इतना कहना था कि लाश उड़ी वापस जाकर वृक्ष पर लटक गई थी। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकते हो। तुम बोले और चुक गये।
दोबारा लाश को काट कर नीचे लाया। बड़ा मुश्‍किल काम था। बोलने से भी थोड़ी राहत मिलती है। क्‍योंकि जब आदमी को भय लगता है कुछ बोलना चाहता है। भय जब लगे आपने को भुलाने के लिए गीत गुनगुनाने लग जाता है। थोड़ी हिम्‍मत बड़ जाती है। राम-राम जपने लग जाता है। कोई सहारा चाहिए। अब बोलना भी नहीं है। शांत भी रहना है भयंकर सन्‍नाटा; और चारों ओर मौत।
शायद इस लिए आदमी अतीत की सोचता है। भविष्‍य की सोचता है। क्‍योंकि डरता है। वर्तमान के क्षण में जीवन भी है और मौत भी। दोनों ही एक साथ है। क्‍योंकि वर्तमान में ही तुम मरोगे और वर्तमान में ही तुम जीते है। न तो कोई भविष्‍य में मर सकता है और न भविष्‍य में जी ही सकता है।
तुम भविष्‍य में मर सकते हो? जब मरोगे, तब अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में मरोगे आज मरोगे। कल तो कोई भी नहीं मरता। कल तो मरोगे कैसे? कल तो आता ही नहीं, जब मर नहीं सकते कल में तो जीओगे कैसे? कल का कोई आगमन ही नहीं होता। कल है ही नहीं। जो है, वह अभी और यहीं है। बोले कि चूक जाते हो। सोचे की चुक जाते हो।
बड़ा कर विक्रमादित्‍य ने अपने आप को रोका। आदमी बहादूर था। मुरदा काट कर फिर से नीचे गिराया। फिर हंसा, उसकी भयंकर खिलखिहट से सारा वातावरण क्षण भर के लिए कंप गया। छाती कंप गई। नीचे उतरा। मुरदे को कंधे पर रखा। चलने लगा। मुरदे ने कहा कि सुनो, राह लंबी है, रात अंधेरी है, और तुम्‍हारा बोझ हलका करने के लिए तुम्‍हें एक कहानी सुनाता हूं। ऐसी पहली कहानी।
उसने कहा की तीन युवक थे ब्राह्मण……..।
विक्रमादित्‍य सुनना भी नहीं चाहता था। पड़ना भी नहीं चाहता था चक्‍कर में, क्‍योंकि जब तुम सुनोंगे, तो पता नहीं, बीच में बोल उठो। या कुछ हो जाए। या कम से कम सुनने में ही लग जाओ और जो तुमने सम्‍हाल रखा है अपने को, वह चुक जाए। क्षण में चूक सकती है बात। मगर इससे नहीं कहना भी ठीक नहीं है। क्‍योंकि नहीं कहते ही लाश उड़ जायेगी। और फिर वृक्ष पर चढ़ना पड़ेगा। और उसे नीचे गिराना होगा। इस लिए विक्रमादित्‍य चुप ही रहा। और वह मुर्दा कहानी कहने लगा।
एक गुरु के आश्रम में तीन युवक थे। तीनों ही गुरु की लड़की के प्रेम में पड़ गये……।
कहानी में रस आने लगा। प्रेम की कहानी में किसे रस नहीं आता। विक्रमादित्‍य थोड़ा बेहोश होने लगा। सम्‍हाल रहा है, लेकिन उत्‍सुकता जग गई; जिज्ञासा, कि फिर क्‍या हुआ?
तीनों एक से थे, योग्‍य थे, अप्रतिम थे। प्रतिभाशाली थे। जिज्ञासा, कि फिर क्‍या हुआ। गुरु मुश्‍किल में पड़ गया। कि किसे चुने। और किसे छोड़। युवती भी मुश्‍किल में पड़ गई। और कोई उपाय न देख की कोन जीवन साथी बने। तीनों के गण धर्म इतने गहरे और अंतस को खींचने वाले थे की वह किसी को छोड़ नहीं पाई। और अंत में हार कर आत्‍म हत्‍या कर ली। उसके लिए कोई मार्ग नहीं था। वह जानती थी अगर किसी को छोड़ा तो जीवन भर पछतावा रहेगा की वहीं काबिल था। और एक को चुनने के लिए दो को छोडना ही होता। वह हार गई और अपना जीवन ही समाप्‍त कर दिया।
बड़ी अड़चन थी। तीन से विवाह तो नहीं कर सकती थी। और उसकी लाश को जला दिया गया।
उन तीन युवकों में से एक तो उसी मरघट पर रहनें लगा। उसकी राख के पास एक कुटिया बना ली। और वहां एक मढ़ी बना कर धुनि बना कर ध्‍यान करने लगा। दीवाना हो गया।
दूसरा युवक इतने दुःख से भर गया कि यात्रा पर निकल गया,अपना दुःख भुलाने को। घूमता रहेगा संसार में। अब बसना नहीं है। क्‍योंकि जिसके सा बसना था, वहीं न रही। अब घर नहीं बसाना है। वह परिव्राजक हो गया, एक फकीर, भटकता हुआ आवारा फक्‍कड़ योगी।
और तीसरे युवक किसी आशा से भरा हुआ, क्‍योंकि उसने सुन रखा था कि ऐसे मंत्र भी है कि अस्‍थिपंजर को पुनरुज्जीवित कर दें, तो उसने सारी अस्‍थियां इकट्ठी कर लीं। रोज उसको गंगा जल में ले जाता और धोकर साफ करता। फिर ले आकर रख लेता। उनकी रक्षा करता कि कभी कोई मंत्र का जानने वाला मिल जाए।
वर्षों बित गये। जो घूमने निकल गया था यात्रा पर, उसे एक आदमी मिल गया, जो मंत्र जानता था। उससे उसने मंत्र सीख लिया। मंत्र का शास्‍त्र ले लिया। भागा। वहां से जल्‍दी थी उसे पहुंचने की। डर था उसे कि वो अस्‍थिर पंजर बचेंगे या नहीं। क्‍योंकि वह तो कभी के फेंक दिये होगें। लेकिन जब पहुंचा तो अपने को आश्वस्त पाया, अस्थिर पंजर अभी भी बचे हुए थे। उन को उसके ही एक साथी ने सम्‍हाल, सहज कर रखा था।
उसने उन अस्थिर पिंजरों को जोड़ कर मंत्र पढ़ा। वह युवती पुनरुज्जीवित हो गई। पहले से भी ज्‍यादा सुंदर। मंत्र-सिक्‍त। उसकी देह स्‍वर्ण की हो गई। उसके अंदर कमल की सा कोमलता और ताजगी प्रवेश कर गई। उसका रूप और यौवन देखते ही बनता था। पर फिर वहीं कलह शुरू हो गया। कि अब यह किसकी?
अब तक सम्राट भी भूल गया थ कि वह क्‍या कर रहा है और यह सुनने में लग गया था। जैसा तूम सुनने में लग गए।
उस मुरदे ने पूछा की सम्राट ध्‍यान से सुनो। गौर से सुनो। फिर वहीं झगड़ा शुरू हो गया। अब सवाल यह है कि उन तीन में से यह युवती किसकी? तुम्‍हारे इस विषय में क्‍या ख्‍याल है? और अगर तुम्‍हारे भीतर उत्‍तर आ जाये और तुमने उत्‍तर नहीं दिया तो तुम्हारे सर के टुकड़े-टुकडे हो जायेंगे और तुम तत क्षण में मर जाओगे। हां अगर उत्‍तर न आये तो कोई हर्ज नहीं।
बड़ा मुश्‍किल है उत्‍तर नआना। आदमी का इतना वश थोड़े ही है अपने मन पर। कोई बुद्ध पुरूष हो, तो न आये। ठीक है, सुन लिया प्रश्‍न: कोई हर्ज नहीं ।
विक्रमादित्‍य बड़ी मुश्‍किल में पडा। उत्‍तर तो आ रहा है। बुद्धिमान आदमी था। तर्क-निष्‍ठ था, समझदार था, शास्‍त्र का ज्ञात था। तर्क साफ था। तब मुरदे ने कहा की अगर उत्‍तर आ रहा है तो बोल दे, वरना तू इसी क्षण मर जायेगा।
तब विक्रमादित्‍य ने कहां की उत्‍तर तो आ रहा है। इसलिए बोलना ही पड़ेगा। अत्‍तर मुझे यह आ रहा है। कि जिसने मंत्र पढ़ कर युवती को जिलाया, वह तो पितातुल्‍य है; उसने जन्‍म दिया है। इसलिए वह विवाह के हक से बहार हो गया। पिता तुल्‍य से कोई विवाह थोड़े ही किया जाता है। उसने तो उसे जन्‍म दिया है। और जिसने अस्‍थियां सम्‍हाल कर रखी थी। रोज गंगा जल में पवित्र करता था। उनकी देख रेख करता था। वह तो पुत्र तुल्‍य है। कर्तव्‍य, सेवा, उससे शादी नहीं हो सकती है। प्रेमी तो वही है, जो धूनी रमाए, राख लपेटे, भूखा-प्‍यास मरघट पर ही बैठा रहा, न कहीं गया, न कहीं आया। विवाह तो उसी से….।
लाश छूटी, जाकर वृक्ष से फिर लटक गई। क्‍योंकि न बोलने की बात खत्‍म हो गई विक्रमादित्‍य बोल गया।
इसी तरह की पच्‍चीस कहानियां बारी-बारी से चलती रहती है। और बैताल पच्चीसी तैयार हो जाती है।
जीवन में तुम चूकते हो, जब भी मूर्च्‍छा पकड़ लेती है। जब भी तुम होश खो देते हो। जब भी जागे हुए नहीं होते। तत्‍क्षण जीवन का सुत्र हाथ से छूट जाता है। जब भी तुम जरा से अशांत हो जाते हो, विचार की तरंगें चलने लग जाती है। और तभी आप देखना जीवन का सूत्र आपके हाथ से सरक गया। क्‍योंकि विचार की तरंग। और तुम वर्तमान से च्‍युत। इधर उठी तरंग,उधर तुम हटे वर्तमान से।
वह विक्रमादित्‍य हार गया। वह फिर…। ऐसी पच्‍चीस कहानियां चलती रहती है पूरी रात। और हर बार चुकता जाता है। हर बार चूकता जाता है। पच्‍चीसवीं कहानी पर सम्‍हल पाता है। हर कहानी में ज्‍यादा से ज्‍यादा हिम्‍मत बढ़ती है; साहस बढ़ता है; ज्‍यादा देर तक रोकता है। ज्‍यादा देर तक विचार की तरंगें नहीं अनुकंपित करती। पच्चीसवीं कहानी आते-आते कहानी चलती रहती है। विक्रमादित्‍य सुनता रहता है, भीतर कुछ भी नहीं होता।
जीवन एक तैयारी है। यहां बहुत कुछ है तुम्‍हें उलझा लेने को। बाजार है पूरा,मीना बाजार है। वहां सब तरफ बुलावा है—उत्‍सुकता को, जिज्ञासा को, मनोरंजन को। प्रश्‍न है, विचार की सुविधा है। सोच-विचार का उपाय है, चिंता का कारण है । सब तरह के उलझाव हे।
अगर तुम इस सारे संसार से ऐसे गुजर जाओ,जैसे विक्रमादित्‍य उस मरघट से बिना बोले, चुप चाप और जागा हुआ पच्‍चीसवीं कहानी पर गुजर गया, तो तुम वर्तमान क्षण की अनुभूति को उपलब्‍ध होओगे। अन्यथा तुमने वर्तमान जाना ही नहीं है।
तुम वर्तमान से गुजर जरूर रहे हो, क्‍योंकि और कोई जगह नहीं जहां से तुम गुजर सको। लेकिन बेहोश, सोए हुए गुजर रहे हो। या तो अतीत में खोए हुए गुज़रे हो, या भविष्‍य में डूबे हुए गुज़रे हो। वर्तमान से तुम्‍हारा कभी तालमेल नहीं बैठा है। वर्तमान से संगीत नहीं छिड़ा है। वर्तमान के साथ स्‍वर नहीं मिले।
वर्तमान से स्‍वर मिल जाए, तुम पाओगे, एक ही है; अनेक उसके रूप है। एक है सागर; अनेक है लहरें।
–ओशो गीता दर्शन, भाग—8, अध्‍याय—17, प्रवचन—10,

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उद्दालक और श्‍वेतकेतु

उपनिषद में कथा है:- उद्दालक का बेटा श्‍वेतकेतु ज्ञान लेकर घर लौटा; विश्‍वविद्यालय से घर आया। बाप ने देखा, दूर गांव की पगडंडी से आते हुए। उसकी चाल में मस्‍ती कम और अकड़ ज्‍यादा थी। सुर्य पीछे से उग रहा था। अंबर में लाली फेल रही थी। पक्षी सुबह के गीत गा रहे थे। पर उद्दालक सालों बाद अपने बेटे को घर लोटते देख कर भी उदास हो गया। क्‍योंकि बाप ने सोचा था विनम्र होकर लौटेगा। वह बड़ा अकड़ा हुआ आ रहा था। अकड़ तो हजारों कोस दूर से ही खबर दे देती है अपनी। अकड़ तो अपनी तरंगें चारों तरफ फैला देती है। वह ऐसा नहीं आ रहा था की कुछ जान का आ रहा है। वह ऐसे आ रहा था जैसे मूढ़ता से भरा हुआ। ऊपर-ऊपर ज्ञान तो संग्रहीत कर लिया है। पंडित होकर आ रहा है। ज्ञानी होकर आ रहा है। विद्वान होकर आ रहा है। प्रज्ञावान होकर नहीं आ रहा। ज्ञानी हो कर नहीं आ रहा। कोई अपनी समझ की ज्‍योति नहीं जली है। अंधेरे शास्‍त्रों का बोझ लेकर आ रहा है। बाप दुःखी और उदास हो गया

बेटा आया, उद्दालक ने पूछा कि क्‍या–क्‍या तू सीख कर आया?

उसने कहा, सब सीख कर आया हूं। कुछ छोड़ा नहीं, यही तो मूढ़ता का वक्‍तव्‍य है। उसने गिनती करा दी, कितने शास्‍त्र सीख कर आया हूं। सब वेद कंठ हस्थ कर लिए है। सब उपनिषद जान लिए है। इतिहास, भूगोल, पुराण, काव्‍य, तर्क,दर्शन, धर्म सब जान लिया है। कुछ छोड़ा नहीं है। सब परीक्षाए पूरी करके आया हूं। स्‍वर्ण पदक लेकर आया हूं।

बाप ने कहा लेकिन तूने उस एक को जाना, जिसे जान कर सब जान लिया जाता है?

उसने कहा कैसा एक? किस एक की बात कर रहे है आप? बाप ने कहां ,तूने स्‍वयं को जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। श्वेत केतु उदास हो गया। उसने कहा, उस एक की तो कोई चर्चा वहां हुई ही नहीं।

तो बाप ने कहा, तुझे फिर जान पड़ेगा। क्‍योंकि हमारे कुल में हम सिर्फ जन्‍म से ही ब्राह्मण नही होते रहे है। हम जान कर ब्राह्मण होते है। यह हमारे कुल की परम्‍परा है। मेरे बाप ने भी मुझे ऐसे ही वापस लौटा दिया था। एक दिन तेरे की तरह मैं भी अकड़ कर घर आया था। सोचकर की सब जान लिया है। सब जान कर आ रहा हूं। झुका था बाप के चरणों में, लेकिन मैं झुका नहीं था। अंदर से। भीतर तो मेरे यही ख्‍याल था की मैं अब बाप से ज्‍यादा विद्वान हो गया हूं। ज्‍यादा जान गया हूं। लेकिन मेरे पिता उदास हो गये। और उन्‍होंने कहां वापस जा। उस एक को जान, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। ब्रह्मा को जान कर ही हम ब्राह्मण होते है। तुझे भी वापस जाना होगा श्‍वेतकेतु।

श्‍वेतकेतु की आंखों मैं पानी आ गया। और अपने पिता के चरण छुए। और वापस चला गया। घर के अंदर भी न गया था। मां ने कहां बेटा आया हैं सालों बाद, बैठने को भी नहीं कहां और कुछ खानें को भी नहीं। कैसे पिता हो। लेकिन श्‍वेतकेतु ने मां के पैर छुए और जल पिया और कहां मां अब तो उस एक को जान कर ही तुम्हारे चरणों में आऊँगा। जिसे पिता जी ने जाना है। या जिसे हमारे पुरखों ने जाना है। मैं कुल पर कलंक नहीं बनुगां।

श्‍वेतकेतु गया गुरु के पास। और पूछा गुरूवर उस एक को जानने के लिए आया हूं। तब गुरु हंसा। और कहां चार सौ गायें बंधी है गो शाला में उन्‍हें जंगल में ले जा। जब तक वह हजार न हो जाये तब तक न लोटना। श्वेत केतु सौ गायों को ले जंगल में चला गया। गये चरती रहती, उनको देखता रहता। अब हजार होने में तो समय लगेगा। बैठा रहता पेड़ो के नीचे, झील के किनारे, गाय चरती रहती। श्‍याम जब गायें विश्राम करती तब वह भी विश्राम करता। दिन आये, रातें आई, ,चाँद उगा, चाँद ढला, सूरज निकला, सूरज गया। समय की धीरे-धीरे बोध ही नहीं रहा। क्‍योंकि समय का बोध आदमी के साथ है।

कोई चिंता नहीं, न सुबह की न श्‍याम की। अब गायें ही तो साथी है। और न वहां ज्ञान जो सालों पढ़ा था उसे ही जुगाल कर ले। किसके साथ करे। खाली होता चला गया श्‍वेतकेतु गायों की मनोरम स्‍फटिक आंखे, आसमान की तरह पारदर्शी। देखना कभी गयों की आंखों में झांक कर तुम किसी और ही लोक में पहुंच जाओगे। कैसे निर्दोष और मासूम, कोरी, शुन्य वत होती है गायें की आंखे। उनका का ही संग साथ करते, कभी बैठ कर बांसुरी बजा लेता, अपने अन्‍दर की बांसुरी भी धीरे-धीरे बजने लगी, सालों गुजर गये। और अचानक गुरु का आगमन हो गया। तब पता चला गुरु को मैं यहां किस लिया आया था। तब गुरु ने कहा श्‍वेतकेतु हो गायें एक हजार एक गाय।

अब तू भी गऊ के समान निर्दोष हो गया है। और तूने उसे भी जान लिया जो पूर्ण से पूर्ण है। पर श्वेतकेतु इतना पूर्ण हो गया की उसमे कहीं मैं का भाव ही नहीं था। श्‍वेत केतु बुद्ध हो गया अरिहंत हो गया जान लिया ब्राह्मा को। जब श्वेत केतु अपने घर आया तो ऐसे आया कि उसके पदचाप भी धरा पर नहीं छू रहे थे। तब ऐसे आया विनम्रता आखिरी गहराइयों को छूती हो। मिट कर आया। और जो मिट कर आया। वहीं होकर आया। अपने को खोकर आया। वह अपने का पाकर आया। ये कैसा विरोधा भाष है।

शास्‍त्र का बोझ नहीं था अब, सत्‍य की निर्भार दशा थी। विचारों की भीड़ न थी। अब ध्‍यान की ज्‍योति थी। भीतर एक विराट शून्‍य था। भीतर एक मंदिर बनाकर आया। एक पूजा ग्रह का भीतर जन्‍म हुआ। अपने होने का जो हमे भेद होता है। वह सब गिर गया श्वेत केतु का, अभेद हो गया। वही जो उठता है निशब्द में। शब्‍दों के पास।

–ओशो एस. धम्‍मो. सनंतनो, भाग-3, प्रवचन—27,

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खिड़की का चौखटा- एक सूफी कथा

एक चोर चोरी के इरादे से खिड़की की राह, एक महल मैं घुस रहा था। कि अचानक उसके चढ़ने और पकड़ने के कारण जिस खिड़की से वह अंदर महल में जा रहा था। उसके वज़न के कारण टुट गई और चोर नीचे जमीर पर जाकर गिरा। काफ़ी ऊचाई से गिरा था इस कारण उसकी एक टाँग की हड्डी टुट गइ। चोर न जाकर अदालत में मालिक के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया कि में इनके घर चोरी करेने के इरादे से अंदर जा रहा था। और इनकी खिड़की इतनी बेकार थी की मैं नीचे गिर गया और मेरी टाँग टुट गई। अदालत ने गृहपति को बुलाया और पूछा। क्‍या यह बात सच है। गृह पति ने कहां हाँ जनाब सुबह हमारी खिड़की टूट कर नीचे जमीन पर गिरी हुई जरूर थी। बाकी तो मैं कुछ नहीं जानता की क्‍या माजरा है।

जज ने कहां माजरा यह है उस चोर को देखते हो वह तुम्‍हारे घर चोरी के इरादे से अंदर जा रहा था। उस खिड़की के टुट कर नीचे गिरने की वजह से उसकी टाँग टुट गर्इ। अब बताओ क्‍या करे।

मालिक ने कहा जनाब मेरा क्‍या कसूर है, यह तो उसकी गलती है, जिसने यह खिड़की का चौखटा बनाया है। आप उस बढ़ाई पर मुकदमा चलाईये।

अगले दिन बढ़ाई को बुलाया गया। तब बढ़ाई ने कहा मेरा क्‍या कसूर है जनाब यह तो राज मिश्री की गलती है। खिड़की के होल पास उसने ठीक से नहीं दबाये होंगे इस लिए वह निकल गये।

राज मिश्री आया उससे पूछा गया तब राज मिश्री ने सफाई में कहां, इसमें मेरे उपर आप नाहक दोष मढ़ रहे हो। दोष के लिए तो वह सुंदर स्‍त्री का है, जो उसी वक्‍त उधर से निकली थी; जब मैं यह खिड़की का चौखटा लगा रहा था। उस स्‍त्री को बुलाया गया और पूछा। तब उस स्‍त्री ने कहां: ‘’ये सारा का सारा दोष इस मुये दुपट्टे का ही है, जो मैं उस दिन इसे आढ़े हुए थी। जो इस कि चतुराई के साथ इंद्रधनुषी रंग में रंगा गया।‘’ वरना तो मुझे कोई देखता भी नहीं। जब भी में बन संवर कर निकली हूं, ऐसा तो पहली बार हुआ है। अब मेरा क्‍या दोष जनाब।

इस पर न्‍यायपति ने कहा, ‘’अब अपराधी का पता चल गया। इस चोर की टाँग टूटने की सारी की सारी जिम्‍मेवार उस रंगरेज की है। जिसने वह दुपट्टा इतनी चतुराई से इंद्रधनुषी रंग में रंगा हे। उसी सब के कारण इस चोर की टाँग टुट गई।

लेकिन हद तो तब हो गई जब उस रंगरेज को पकड़ कर अदालत में लाया गया। और उसे न्‍यायपति के सामने जब पेश किया गया। यह देख कर सब दंग रह गये कि वह रंग रेज़ कोई और नहीं, उस स्‍त्री का पति था और वही चोर था जिसकी उस खिड़की के चौखटे से गिरकर की टाँग टूटी थी।