क्या है महापर्व छठ पूजा की पौराणिक कथा? जानिए इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक महत्व:
लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है।
वैसे तो लोग उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं लेकिन यह ऐसा अनोखा पर्व है जिसकी शुरुआज डूबते हुए सूर्य की अराधाना से होती है। इस पर्व के उद्भव के सम्बन्ध में कई उल्लेख (पारम्परिक और ऐतिहासिक) मिलते हैं।
छठ पर्व के प्रारंभ का उल्लेख द्वापर काल में मिलता है। कहा जाता है कि सूर्य पुत्र अंगराज कर्ण सूर्य के बड़े उपासक थे और वह नदी के जल में खड़े होकर भगवान सूर्य की पूजा करते थे। पूजा के पश्चात कर्ण किसी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाते थे। पुनः कहा जाता है कि महाभारत काल में कुंती ने पुत्र प्राप्ति हेतु सूर्य की पूजा की थी, तत्पश्चात उन्हें संतान सुख की प्राप्ति हुई थी।
छठ पूजा की एक अन्य कथा के अनुसार, जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएं में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है।
षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में है। छठ पर्व के पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है।
ऐतिहासिक प्रमाण:-
छठ पूजा 150 वर्ष पूर्व तक केवल मगध यानी पटना, गया तथा मुंगेर के कुछ क्षेत्रों तक और सकलद्वीपीय ब्राह्मणों तक ही सीमित था। ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार, पश्चिमी एशिया मूल के शाक्यद्विपिया ब्राहमण (जिन्हें भोजक और मोगा ब्राह्मिन के नाम से भी जाना जाता है) ने इस पर्व की शुरुआत की थी। शास्त्र के अनुसार, सकलद्वीपीय ब्राह्मण आयुर्वेद के चिकित्सक थे, जिन्हें मूलस्थान (जिसे आज मुल्तान के नाम से जानते हैं) के शासकों ने अपने कुष्ट रोग के निवारण हेतु अपने राज्य में आमंत्रित किया था। इसलिए इस रोग के निवारणार्थ सकलद्वीपीय चिकित्सकों ने कार्तिक पूर्णिमा की षष्टी के दिन सूर्य की उपासना करने को कहा। (कहते हैं कि यही षष्टी कालान्तर में छठी के रूप में कही जाने लगी।)
कुष्ट रोग को ठीक करने के बाद इन ब्राह्मण चिकित्सकों ने पंजाब को अपना निवास स्थान बना लिया और यहीं से वो पूर्व की ओर फैल गए। सकलद्वीपीय ब्राम्हण आयुर्वेद के साथ वैदिक ज्योतिष विज्ञान के भी विद्वान थे। पाटलिपुत्र स्थित ज्योतिष एवं खगोल विज्ञान के विद्वान् श्री वराहमिहिर सकलद्वीपीय कुल के थे। गुप्त साम्राज्य के शासकों ने इन्हें पाटलिपुत्र में संरक्षण दिया था। वराहमिहिर की कृति “वृहत्त संहिता” आज भी खगोलशास्त्र और वैदिक ज्योतिष का मूल ग्रन्थ है।
बिहार के औरंगाबाद जिले के पौराणिक देवस्थल में लोकपर्व कार्तिक छठ पर्व पर चार दिवसीय छठ मेले की भी शुरुआत हो गई। यहां त्रेतायुग में स्थापित प्राचीन सूर्य मंदिर में बृहद सूर्य मेले का आयोजन किया जाता है।
सनातन संस्कृति में सूर्योपासना का महत्त्व केवल धार्मिक ही नहीं अपितु वैज्ञानिक और आध्यात्मिक भी है।
हिंदू परम्परा की मानें तो छठ व्रत का उद्भव त्रेता युग से ही है। मान्यता है कि प्राचीन विदेह के राजा जनक क्षत्रिय होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी भी थे। इसलिए कश्मीर के विद्वान शारस्वत पंडितों ने एक क्षत्रिय के राजा होने के साथ ब्रह्मज्ञानि होने पर प्रश्न उठाया, कहते हैं कि उन्होंने राज जनक को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और इस हेतु तत्कालीन मिथिला के लिये यात्रा पर निकल गये। वर्तमान पीर पांचाल पर्वत पार करने के कारण युगों से चली आ रही प्रथा के अनुसार, परिजनों ने इनका श्राद्ध कर्म कर दिया। लम्बी यात्रा के उपरान्त विदेह पहुंचने के एक सप्ताह बाद राजा जनक से मिलने का समय मिला। कहते हैं कि ये सभी ज्ञानी पंडित प्रतीक्षा करने के क्रम में समाधि में चले गए और समाधि से लौटने के बाद ये सभी प्रश्न गायब थे। इन लोगों ने इस विशिष्ट अनुभव के बाद राजा जनक को गुरु मान लिया और यहीं बस गये। इन्हें ही आज हम मैथिल ब्राह्मण के रूप में जानते हैं। कहते हैं कि ये कश्मीरी पंडित सूर्योपासक थे और सूर्योपासना का पवित्र व्रत इन लोगों ने आरम्भ किया।
उल्लेखनीय है कि त्रेता युग से बिहारवासियों द्वारा छठ व्रत करना यहां के धार्मिक और आध्यात्मिक बोध के साथ-साथ गौरवमयी प्राचीन सभ्यता को दर्शाता है। पुनः वैदिक ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में सदानीरा नदी अर्थात् वर्तमान गंडक नदी के स्त्री-पुरुष द्वारा सूर्योपासना की आराधना से छठ पूजा का प्रमाण मिलता है। कहना न होगा कि भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देव है। इनकी उपासना का लाभ भी प्रत्यक्ष है। सूर्य ऐश्वर्य तथा समृद्धि के देवता है। सूर्योदय व सूर्यास्त के समय अर्घ्य देने से तथा उपासना करने से शरीर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। सूर्य स्नान से चर्म रोग, नेत्र रोग, उदर रोग दूर होते हैं।
ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार, कवि मयूरभट्ट ने सूर्य स्तुति तथा सूर्योपासना करके अपने शरीर को कुष्ठ रोग मुक्त बनाया था। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में आठ सूक्त सूर्य की प्रार्थना और स्तुति में है।
सूर्योपासना से अपने अंदर देवी गुण को समाविष्ट कर उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है और अभीष्ट वरदान पाया जा सकता है। सूर्य की पूजा से मनोकामनाएं पूर्ण होती है तथा कठिनाइयां और विपत्तियां दूर होती हैं। ये भी मान्यता है कि दुष्ट आत्मायें, भूत-प्रेत और राक्षस आदि का प्रभाव सूर्य की अनुपस्थिति में ही होता है, इसलिए सूर्योपासना से इससे मुक्ति भी मिलती है। बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुर्गा पूजा को विश्व धरोहर घोषित किया है। बिहार वासियों के साथ समर्थ बिहार भी प्रयास करेगा कि सभ्यता के आरंभ के साथ हम सभी के सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व छठ व्रत को भी यूनेस्को विश्व धरोहर घोषित करे।
नमस्तुभ्यं परं सूक्ष्मं सुपुण्यं बिभ्रतेऽतुलम्।
धाम धामवतामीशं धामाधारं च शाश्वतम्॥
जगतामुपकाराय त्वामहं स्तौमि गोपते।
आददानस्य यद्रूपं तीव्रं तस्मै नमाम्यहम्॥
ग्रहीतुमष्टमासेन कालेनाम्बुमयं रसम्।
बिभ्रतस्तव यद्रूपमतितीव्रं नातास्मि तत्॥
समेतमग्निषोमाभ्यां नमस्तस्मै गुणात्मने।
यद्रुपमृग्यजुःसाम्नामैक्येन तपते तव॥
विश्वमेतत्त्रयीसंज्ञं नमस्तस्मै विभावसो।
यत्तु तस्मात्परं रूपमोमित्युक्त्वाभिसंहितम्॥
अस्थूलं स्थूलममलं नमस्तस्मै सनातन ॥
सभी मित्रों को महापर्व छठ की हार्दिक शुभकामनाएं
Day: October 30, 2022
क्या है महापर्व छठ पूजा की पौराणिक कथा? जानिए इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक महत्व:
लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है।
वैसे तो लोग उगते हुए सूर्य को प्रणाम करते हैं लेकिन यह ऐसा अनोखा पर्व है जिसकी शुरुआज डूबते हुए सूर्य की अराधाना से होती है। इस पर्व के उद्भव के सम्बन्ध में कई उल्लेख (पारम्परिक और ऐतिहासिक) मिलते हैं।
छठ पर्व के प्रारंभ का उल्लेख द्वापर काल में मिलता है। कहा जाता है कि सूर्य पुत्र अंगराज कर्ण सूर्य के बड़े उपासक थे और वह नदी के जल में खड़े होकर भगवान सूर्य की पूजा करते थे। पूजा के पश्चात कर्ण किसी याचक को कभी खाली हाथ नहीं लौटाते थे। पुनः कहा जाता है कि महाभारत काल में कुंती ने पुत्र प्राप्ति हेतु सूर्य की पूजा की थी, तत्पश्चात उन्हें संतान सुख की प्राप्ति हुई थी।
छठ पूजा की एक अन्य कथा के अनुसार, जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएं में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। लोक परंपरा के अनुसार, सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है।
षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्य इस परंपरा में है। छठ पर्व के पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है।
ऐतिहासिक प्रमाण:-
छठ पूजा 150 वर्ष पूर्व तक केवल मगध यानी पटना, गया तथा मुंगेर के कुछ क्षेत्रों तक और सकलद्वीपीय ब्राह्मणों तक ही सीमित था। ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार, पश्चिमी एशिया मूल के शाक्यद्विपिया ब्राहमण (जिन्हें भोजक और मोगा ब्राह्मिन के नाम से भी जाना जाता है) ने इस पर्व की शुरुआत की थी। शास्त्र के अनुसार, सकलद्वीपीय ब्राह्मण आयुर्वेद के चिकित्सक थे, जिन्हें मूलस्थान (जिसे आज मुल्तान के नाम से जानते हैं) के शासकों ने अपने कुष्ट रोग के निवारण हेतु अपने राज्य में आमंत्रित किया था। इसलिए इस रोग के निवारणार्थ सकलद्वीपीय चिकित्सकों ने कार्तिक पूर्णिमा की षष्टी के दिन सूर्य की उपासना करने को कहा। (कहते हैं कि यही षष्टी कालान्तर में छठी के रूप में कही जाने लगी।)
कुष्ट रोग को ठीक करने के बाद इन ब्राह्मण चिकित्सकों ने पंजाब को अपना निवास स्थान बना लिया और यहीं से वो पूर्व की ओर फैल गए। सकलद्वीपीय ब्राम्हण आयुर्वेद के साथ वैदिक ज्योतिष विज्ञान के भी विद्वान थे। पाटलिपुत्र स्थित ज्योतिष एवं खगोल विज्ञान के विद्वान् श्री वराहमिहिर सकलद्वीपीय कुल के थे। गुप्त साम्राज्य के शासकों ने इन्हें पाटलिपुत्र में संरक्षण दिया था। वराहमिहिर की कृति “वृहत्त संहिता” आज भी खगोलशास्त्र और वैदिक ज्योतिष का मूल ग्रन्थ है।
बिहार के औरंगाबाद जिले के पौराणिक देवस्थल में लोकपर्व कार्तिक छठ पर्व पर चार दिवसीय छठ मेले की भी शुरुआत हो गई। यहां त्रेतायुग में स्थापित प्राचीन सूर्य मंदिर में बृहद सूर्य मेले का आयोजन किया जाता है।
सनातन संस्कृति में सूर्योपासना का महत्त्व केवल धार्मिक ही नहीं अपितु वैज्ञानिक और आध्यात्मिक भी है।
हिंदू परम्परा की मानें तो छठ व्रत का उद्भव त्रेता युग से ही है। मान्यता है कि प्राचीन विदेह के राजा जनक क्षत्रिय होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी भी थे। इसलिए कश्मीर के विद्वान शारस्वत पंडितों ने एक क्षत्रिय के राजा होने के साथ ब्रह्मज्ञानि होने पर प्रश्न उठाया, कहते हैं कि उन्होंने राज जनक को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और इस हेतु तत्कालीन मिथिला के लिये यात्रा पर निकल गये। वर्तमान पीर पांचाल पर्वत पार करने के कारण युगों से चली आ रही प्रथा के अनुसार, परिजनों ने इनका श्राद्ध कर्म कर दिया। लम्बी यात्रा के उपरान्त विदेह पहुंचने के एक सप्ताह बाद राजा जनक से मिलने का समय मिला। कहते हैं कि ये सभी ज्ञानी पंडित प्रतीक्षा करने के क्रम में समाधि में चले गए और समाधि से लौटने के बाद ये सभी प्रश्न गायब थे। इन लोगों ने इस विशिष्ट अनुभव के बाद राजा जनक को गुरु मान लिया और यहीं बस गये। इन्हें ही आज हम मैथिल ब्राह्मण के रूप में जानते हैं। कहते हैं कि ये कश्मीरी पंडित सूर्योपासक थे और सूर्योपासना का पवित्र व्रत इन लोगों ने आरम्भ किया।
उल्लेखनीय है कि त्रेता युग से बिहारवासियों द्वारा छठ व्रत करना यहां के धार्मिक और आध्यात्मिक बोध के साथ-साथ गौरवमयी प्राचीन सभ्यता को दर्शाता है। पुनः वैदिक ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में सदानीरा नदी अर्थात् वर्तमान गंडक नदी के स्त्री-पुरुष द्वारा सूर्योपासना की आराधना से छठ पूजा का प्रमाण मिलता है। कहना न होगा कि भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देव है। इनकी उपासना का लाभ भी प्रत्यक्ष है। सूर्य ऐश्वर्य तथा समृद्धि के देवता है। सूर्योदय व सूर्यास्त के समय अर्घ्य देने से तथा उपासना करने से शरीर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। सूर्य स्नान से चर्म रोग, नेत्र रोग, उदर रोग दूर होते हैं।
ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार, कवि मयूरभट्ट ने सूर्य स्तुति तथा सूर्योपासना करके अपने शरीर को कुष्ठ रोग मुक्त बनाया था। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में आठ सूक्त सूर्य की प्रार्थना और स्तुति में है।
सूर्योपासना से अपने अंदर देवी गुण को समाविष्ट कर उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है और अभीष्ट वरदान पाया जा सकता है। सूर्य की पूजा से मनोकामनाएं पूर्ण होती है तथा कठिनाइयां और विपत्तियां दूर होती हैं। ये भी मान्यता है कि दुष्ट आत्मायें, भूत-प्रेत और राक्षस आदि का प्रभाव सूर्य की अनुपस्थिति में ही होता है, इसलिए सूर्योपासना से इससे मुक्ति भी मिलती है। बताते चलें कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने दुर्गा पूजा को विश्व धरोहर घोषित किया है। बिहार वासियों के साथ समर्थ बिहार भी प्रयास करेगा कि सभ्यता के आरंभ के साथ हम सभी के सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व छठ व्रत को भी यूनेस्को विश्व धरोहर घोषित करे।
नमस्तुभ्यं परं सूक्ष्मं सुपुण्यं बिभ्रतेऽतुलम्।
धाम धामवतामीशं धामाधारं च शाश्वतम्॥
जगतामुपकाराय त्वामहं स्तौमि गोपते।
आददानस्य यद्रूपं तीव्रं तस्मै नमाम्यहम्॥
ग्रहीतुमष्टमासेन कालेनाम्बुमयं रसम्।
बिभ्रतस्तव यद्रूपमतितीव्रं नातास्मि तत्॥
समेतमग्निषोमाभ्यां नमस्तस्मै गुणात्मने।
यद्रुपमृग्यजुःसाम्नामैक्येन तपते तव॥
विश्वमेतत्त्रयीसंज्ञं नमस्तस्मै विभावसो।
यत्तु तस्मात्परं रूपमोमित्युक्त्वाभिसंहितम्॥
अस्थूलं स्थूलममलं नमस्तस्मै सनातन ॥
सभी मित्रों को महापर्व छठ की हार्दिक शुभकामनाएं
दीवान चन्द्र मिश्र एक ब्राह्मण दुकानदार के बेटे थे। 1812 में राजा रणजीत सिंह जी के यहां अकाउंट सेक्शन में एज क्लर्क भर्ती हुये।
फिर अपनी योग्यता के बल तरक्की करते हुये 1817 से 1825 ( हैजा से बीमार होकर मृत्यु हुई) तक रणजीत सिंह जी की खालसा सेना के कमाण्डर इन चीफ रहे।
मुल्तान और कश्मीर को जीतकर सिख साम्राज्य में मिलाने वाले यही थे।
कश्मीर का पठान गवर्नर जब्बार खान पीठ दिखाकर किला छोडकर भाग गया था।
इन्होने कभी कोई लडाई नही हारी थी इसलिए इन्हे फतेह-ओ-नुसरत- जंग उपाधी से रणजीत सिंह जी द्वारा नवाजा गया।
ये रणजीत सिंह जी के सामने दरवार में भी हुक्का पीते थे।
ये सिख साम्राज्य का वो मुख्य स्तंभ थे जिनके कंधो पर सिख साम्राज्य खडा हुआ। ब्राह्मण होने के कारण सिख और अंग्रेज इतिहासकारो ने इन्हे नेगलेक्ट करने की यथासंभव सम्भव कोशिशें की।

એક દિવસ શિક્ષકે ક્લાસરૂમમાં વિદ્યાર્થીઓને કહ્યું,
” હું તમને બધાને એક કાર્ય સોંપું છું. હું તમને દરેકને એક એક ફુગ્ગો આપું છું. તમારે તે ફુગ્ગો ફુલાવીને તેના પર પોતાનું નામ લખીને બધા ફુગ્ગા બાજુના ખાલી રુમમાં રાખવાના છે. શિક્ષકે દરેક વિદ્યાર્થીને ફુગ્ગો આપ્યો અને ત્યારબાદ વિદ્યાર્થીઓએ શિક્ષકની સૂચના મુજબ ફુગ્ગા ફુલાવીને તેના પર પોતાનું નામ લખીને બીજા રુમમાં રાખી દીધા.
ત્યારબાદ શિક્ષકે રુમમાં જઈને બધા જ ફુગ્ગાઓ એકમેક સાથે ભેળવી દીધા. અને વિદ્યાર્થીઓને કહ્યું,
“આ બધા ફ્ગ્ગાઓમાં થી તમારે પાંચ મિનિટના સમયમાં તમારો ફુગ્ગો શોધવાનો છે.”
વિદ્યાર્થીઓએ પોતાનું નામ લખેલ ફુગ્ગા શોધવા મંડી પડ્યા. રુમમાં ધક્કામૂક્કી થઈ ગઈ. અંતે નિર્ધારિત સમય પૂરો થઈ ગયો પણ મોટાભાગના વિદ્યાર્થીઓને તેમનો ફુગ્ગો મળી શક્યો નહીં.
ત્યાર પછી શિક્ષકે વિદ્યાર્થીઓને કહ્યું,” હવે હું તમને બધાને બીજું કામ સોંપું છું. હવે તમે જે કોઈ પણ ફુગ્ગો મળે તે લઈને તેના પર જેનું નામ લખેલું છે તેને આપી દો.
વિદ્યાર્થીઓએ શિક્ષકની સૂચનાનો અમલ કર્યો અને પાંચ જ મિનિટમાં બધા પાસે પોતપોતાના ફુગ્ગા આવી ગયા.
શિક્ષકે વિદ્યાર્થીઓને કહ્યું: “તમે બધાંએ જોયું ને કે બંને કાર્યનુ પરિણામ કેટલું અલગ હતું ? આજના તમારા આ કાર્યમાં જીવનનો એક સુંદર બોધપાઠ છૂપાયેલો છે.
કોઈ કાર્ય કરતાં તેમાં ફક્ત પોતાનો લાભ જ નહિ પરંતુ બીજાના લાભનો પણ વિચાર કરીશું, તો બધાંનું શુભ થશે, કલ્યાણ જ થશે.
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રાધા પટેલ
વિપરીત ધર્મ
વિપરીત ધર્મ
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोअपि सन्।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ।।-भर्तृहरि नीति शतक
विद्या से विभूषित होने पर भी दुर्जन त्याग करने योग्य है।
मणि से अलङ्कृत होने पर भी वह सर्प क्या भयंकर नहीं होता है
દુષ્ટો જ્ઞાનથી ભરેલા હોય તો પણ ત્યાગ કરવા યોગ્ય છે.
એ સાપ રત્નોથી શોભતો હોય તો પણ શું ભયંકર નથી?
એક નદી કિનારે ગામ હતું. ગામ ના લોકો નદી પર બનાવેલા ઘાટ પર નહાવા અને કપડા ધોવા આવતા. ઘાટ એટલો વ્યવસ્થિત નહોતો બનાવ્યો, થોડા પત્થરો રાખી વ્યવસ્થા ની પૂર્તિ કરી હતી.
એક સાધુ તીર્થાટન કરતા કરતા નદી કિનારે પહોચ્યા. ત્યાં તેણે જોયું કે એક વીંછી નીચી પારી પર બેઠો હતો અને તેને જો તટ પર ન મુકે તો તે તણાઈ ને મરી જવાની સંભાવના રહે. સાધુએ વીંછી ને પકડી કિનારે મુકવા પ્રયત્ન કર્યો કે તેણે ડંખ માર્યો. સાધુએ ફરી પ્રયત્ન કર્યો ફરી ડંખ માર્યો. સત્તર વખત ડંખ માર્યો. હાથ સાવ કાળો પડી ગયો. વીંછી એ એનો સ્વભાવ ન છોડયો સાધુએ એનો સ્વભાવ ન છોડયો.સાધુ મૃત્યુ પામ્યો.
ગામ લોકોએ આ કરુણામય દ્રશ્ય જોયું. ગામ ના પાદરે તેનું સ્મારક બનાવ્યું. પૂજવા લાગ્યા. લોકો આવા કરુણાની પ્રેરણા લેવા લાગ્યા. આ વાત લોહીમાં વણાઈ ગઈ. વખત જતાં ઈતિહાસ રચાતો ગયો. મંદિરોમાં મલેચ્છોની તલવારો ઉપડી બધાએ માથું વધાવી નાખ્યું પણ પ્રતિકાર ન કર્યો? હવે એ જગ્યા જ્યાં સાધુ વીંછી ના ડંખ થી મૃત્યુ પામ્યા, હવે એ જગ્યાએ વીંછી નો રાફડો ફાટ્યો જાણે. અસંખ્ય વીંછીઓ થઇ ગયા.
એક સવારના અંધારામાં પ્રથમ પ્રહરે એક મુસાફર નું અજાણતા વીંછી વાળી જગ્યાએ મૃત્યુ થયું. બે નાની દીકરીઓ રાખી મૃત્યુ પામ્યો. ને ગામ ના લોકોએ કહ્યું એ પવિત્ર જગ્યાએ મૃત્યુ પામ્યો, દેવ થયો. દેવ થયો એ તો ખબર નહિ પણ મારી ગયો એ ચોક્કસ. મરેલા સમાજ માં એક વધુ મારી ગયો.
વર્ષો પછી એક જાગૃત સાધુ આવ્યા. તેજસ્વી વીચારો વાવ્યા. જે જગ્યાએ વીંછી નો રાફડો થઇ ગયો એ જગ્યાએ વીંછી ને પકડી પકડી માર્યા. જગ્યા સમથળ બનાવી. નદી નો કાંઠો સુંદર બનાવ્યો. લોકો કહેવા લાગ્યા કે ખરાબ કામ કર્યું. નીશાષા લાગશે.
પણ સત્ય એ હતું. તેમને પેલી બે દીકરી અને તેની માંના આશીર્વાદ પ્રાપ્ત થયા.
આ વિશ્વ માં અધર્મ નો જેટલો ડર નથી એટલો વિપરીત ધર્મ નો ડર છે. જે માણસ ની સંસ્કૃતિ ની સંસ્કૃતિઓ ખલાસ કરે છે.
હર્ષદ અશોડીયા ક.
૮૩૬૯૧૨૩૯૩૫

ईश्वर की लीला
ईश्वर की लीला-कब केसे किसको क्या देना है वह वहीं जानते हैं।
वो बूढ़ी भिखारन आज फिर बीमार है। कल किसी ने बासी पूरियां खाने को दीं तो उसने जिह्ना के आधीन हो, चारों पूरियां गटक लीं। आज सुबह से बार बार पेट की पीड़ा उसे व्याकुल कर दे रही है। काश कहीं से बस दो केले मिल जाते तो उसका पेट और पीड़ा दोनों झट से हलके हो जाएँ। पर यहाँ झुग्गी -झोंपड़ी में उसे कोन दो केले देगा ? बाहर निकल बाजार में भीख मांगे बिना दो केले मिलना नामुमकिन और इतनी पीड़ा में बाजार जाना असंभव।” कर ! मुक्ति दे दो। अब सहा नहीं जाता। केले तो मिल नहीं सकते लेकिन परमेश्वर अपने पास बुला कर इस पीड़ा से मुक्ति तो दे दो। “
यहाँ वो बेचारी दो केले के लिए तरस रही और वहाँ मंदिर में एक श्रद्धालू गौ -ग्रास की पांच सौ की पर्ची कटा रहा। उस को पता होता बूढ़ी भिखारिन के बारे में तो वो कया दो केले न दे देता उस बेचारी को ! लेकिन उस बेचारे को कया पता ? सब ईश्वर की माया !
श्रद्धालू का बेटा भी साथ था। वो भी पिता की तरह ही दयावान। मंदिर से बाहर निकला तो पिता से हठ करने लगा कि बाहर रेहड़ी लगा कर खड़े केलेवाले से केले ले लें। केले काले और कुछ ज्यादा पके हुए – बस इसलिए खरीद लिए गए कि बेचारा रेहड़ी वाला कुछ पैसे तो कमा ले।
“घर पहुंचे तो गृह-स्वामिनी केले देखते ही चौंक गयीं ६
“अरे कैसे केले ले आये हो ?”
“क्या करता ? तुम्हारे लाडले को उस केले वाले की बोहनी कराने का मन हो आया। ” पिता ने मुस्कुराते हुए कहा।
“उफ़ तुम पिता -पुत्र तो कार का खजाना भी बस यूँ ही दान -पुण्य में लुटा सकते हो ” गृहस्वामिनी के ताने में भी गर्व बोल रहा था।*
“संयोग से घर में झाड़ू -पोंछे काम करने वाली कमला काम ख़त्म कर बाहर ही निकल रही थी ।*
“ये केले अपने घर ले जाओ । थोड़े काले हैं, पर अभी खरीदे हैं !” गृहस्वामिनी ने केले कमला को पकड़ाए।
कमला ने खुशी -खुशी केले ले लिए और अपनी झोंपड़ी की तरफ चल पडी।
चलते -चलते एक केला खाया तो देखा, दो केले चिरे से हुए हैं।
कमला की नजर चिरे केलों पर और बूढ़ी भिखारिन की नजर बाई के हाथ में पकडे केलों पर साथ -साथ ही पडी।
“भगवान के नाम पर दो केले दे दे। भगवन खुशियों से तेरी झोली भर देंगे। ” भिखारिन ने टेर लगाई।
“कमला को भी दाता बनने का अवसर मिल गया ।”
“ये ले अम्मा ” कमला ने दोनों चिरे हुए केले बूढ़ी भिखारिन की झोली में डाल दिए।
“ईश्वर की लीला ने एक बार फिर नामुमकिन को मुमकिन बना डाला।*
बद्धिमान की परीक्षा
💐💐बद्धिमान की परीक्षा 💐💐
बहुत समय पूर्व जब गुरुकुल शिक्षा की प्रणाली होती थी | तब हर बालक को अपने जीवन के पच्चीस वर्ष गुरुकुल में बिताना पड़ता था | उस समय एक प्रचंड पंडित राधे गुप्त हुआ करते थे जिनका गुरुकुल बहुत प्रसिद्ध था | जहाँ दूर-दूर के राज्य के शिष्य शिक्षा प्राप्त करने आया करते थे |
बात उन दिनों की हैं जब राधे गुप्त की उम्र ढलने लगी थी और उसकी पत्नी का देहांत हो चूका था | घर में विवाह योग्य एक कन्या थी | राधे गुप्त को हर समय उसकी चिंता सताती रहती थी | वह उसका विवाह एक योग्य व्यक्ति से करना चाहते थे जिसके पास सम्पति भले ना हो पर वह कर्मठ हो जो किन्ही भी परिस्थिती में उसकी बेटी को खुश रखे और उचित समय पर उचित निर्णय ले सके |
एक दिन उनके मस्तिष्क में एक ख्याल आया और उन्होंने इस परेशानी का हल सोचा कि क्यूँ ना वो अपने खुद के शिष्यों में से ही योग्य वर की तलाश करे| उनसे बेहतर उनकी बेटी के लिए और क्या हो सकता हैं | इस कार्य के लिए उन्होंने बुद्धिमान की परीक्षा लेने का निर्णय लिया और सभी शिष्यों को एकत्र किया |
राधे गुप्त ने सभी से कहा कि वे एक परीक्षा आयोजित करना चाहते हैं जिसमे सभी की बुद्धिमानी का परिचय होगा | उन्होंने सभी से कहा कि उन्हें अपनी पुत्री के विवाह की चिंता हैं जिसके लिये उनके पास पर्याप्त धन नहीं हैं इसलिये वे चाहते हैं कि उनके शिष्य विवाह में लगने वाली सभी सामग्री कैसे भी करके एकत्र करे, भले उसके लिये उन्हें चौरी का रास्ता चुनना पड़े लेकिन उन्हें चौरी करता कोई भी देख ना सके इसी एक शर्त का पालन सभी को करना हैं |
अगले दिन से सभी शिष्य कार्य में जुट गये | रोजाना कोई न कोई तरह-तरह की वस्तुयें चुरा कर लाता और राधा गुप्त को दे देता | राधा गुप्त उन्हें एक विशेष स्थान पर रख देते क्यूंकि परीक्षा के बाद यह सभी वस्तुयें उनके मालिक को वापस करना जरुरी था क्यूंकि वे अपने शिष्यों को सही ज्ञान देना चाहते थे |
सभी शिष्य अपने-अपने दिमाग से कार्य कर रहे थे लेकिन इनमे से एक चुपचाप गुरुकुल में बैठा हुआ था जिसका नाम रामास्वामी था | वह राधा गुप्त का सबसे करीबी और होनहार छात्र था | उसे ऐसा बैठे देख राधा गुप्त ने इसका कारण पूछा | तब रामास्वामी ने बताया कि आपने परीक्षा की शर्त के रूप में कहा था कि चौरी करते वक्त इसे कोई ना देख सके | इस प्रकार अगर हम अकेले में भी चौरी करते हैं तब भी हमारी अंतरात्मा उसे देख रही हैं | हम खुद से उसे नहीं छिपा सकते | इसका अर्थ यही हैं कि चौरी करना व्यर्थ हैं | उसकी यह बात सुन राधागुप्त के चेहरे पर ख़ुशी छा जाती हैं | वे उसी वक्त सभी को एकत्र करते हैं और पूछते हैं कि आप सब ने जो चौरी की, क्या उसे किसी ने देखा ? सभी कहते हैं नहीं | तब राधागुप्त कहते हैं कि क्या आप अपने अंतर्मन से भी इस चौरी को छिपा सके ? सभी को बात समझ आ जाती हैं और सबका सिर नीचे झुक जाता हैं सिवाय रामास्वामी के | राधा गुप्त रामास्वामी को बुद्धिमानी की परीक्षा में अव्वल पाते हैं और सभी के सामने कहते हैं कि यह परीक्षा मेरी पुत्री के लिये उचित वर तलाशने के लिये रखी गई थी | इस प्रकार मैं रामास्वामी का विवाह अपनी पुत्री के साथ तय करता हूँ | सभी ख़ुशी से झूम उठते हैं | साथ ही चुराई हुई हर एक वस्तु को उसके मालिक को सौंप विनम्रता से सभी से क्षमा मांगते हैं |
बुद्धिमानी की परीक्षा से यही शिक्षा मिलती हैं कि कोई भी कार्य अंतर्मन से छिपा नहीं रहता और अंतर्मन ही मनुष्य को सही राह दिखाता हैं इसलिये मनुष्य को किसी भी कार्य के सही गलत के लिए अपने मन को टटोलना सबसे जरुरी हैं |
आज मनुष्य ने अंतरात्मा की आवाज सुनना बंद कर दिया हैं इसलिए ही वो गलत रास्ते पर जा रहा हैं | हमारी अंतरात्मा कभी हमें गलत राह नहीं दिखाती | यह जरुर हैं कि मन की आवाज हमें वो करने की सलाह देती हैं जिसे दिमाग कभी स्वीकार नहीं करता क्यूंकि दिमाग सदैव स्वहित में कार्य करता हैं और मन हमें सही और गलत का परिचय करवाता हैं | यह सही गलत का परिचय ही हमें सदैव बुराई से दूर रखता हैं | किसी भी कार्य के पहले हमें मन की आवाज जरुर सुनना चाहिये |
एक कहानी सुंदर सी
👉 *कहानी मानस के 3 भाइयो पर विचार करते है* 🏵️
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1.बालि का भाई सुग्रीव’
2.रावण का भाई विभीषण
3.राम का भाई भरत
ये जीव की तीन दशाओ की तरह भी है,
विषयी
साधक
सिद्ध
सुग्रीव विषयी जीव है ,उसे केवल अपने स्वार्थ और सुख की चिन्ता है, वह अपने पुरूषार्थ से कुछ हासिल नही कर पाता। निजी स्वार्थ के लिऐ अपने भाई को मरवाने मे उसे संकोच नही होता।राम कृपा से सुख सम्पत्ति पाने के बाद ,राम काज भी भूल जाता है।संसार के विषयी लोग आज भी यही करते है।
मानस का दूसरा भाई विभीषण, साधक की तरह जीता है। सुबह उठता है तो, राम नाम तेहि सुमिरन कीन्हा। से दिन की शुरूआत करता है, साधु और विप्र को आदर देता है ₹। घर को ही मन्दिर बनाकर पूजा पाठ करता है।
अपने भाई रावण के हित की बात भी करता है, सत्मार्ग पर ले जाने का असफल प्रयास करता है ।राज्य पाने हेतु आतुर नही है, किन्तु साधकता का फल, रामकृपा से पा जाता है।
तीसरा भाई, भरत जो सिद्ध है, केवल और केवल अपने भाई राम का ही सुख चाहता है।
*जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई, करूनासागर की जयै सोई।*
का भाव रखने मे ही खुश है।उसकी अपनी कोई सुख की कामना नही है। पिता से मिला राज्यसुख भोगने की आकांक्षा नही है।
इसलिऐ राम जी भी ऐसै भाई को केवल प्यार नही करते बल्कि जपते है, इसलिऐ गोस्वामी जी कहते है, *भरत सरिस को राम सनेही,जग जप राम राम जप जेही।*
मानस मे 3 पक्षियो का खास जिक्र है ।
1.चकवा
2.चकोर
3.चातक
अध्यात्म की दृष्टि से ये तीनो ही हमे मार्गदर्शन दे सकते है ।
चकवा और चकवी दिन मे तो दोनो साथ साथ दाना चुगते है, खेलते है किन्तु रात होते ही दोनो दूर दूर हो जाते है मतलब एक नदी के इस किनारे पर और दूसरा नदी के उस किनारे पर। साधको के लिऐ ये संकेत है। मानस मे भरत जी जब भरतद्वाज जी के आश्रम मे रात्रि विश्राम के लिऐ रूकते है तब गोस्वामी जी ने कहा, संपति चकवी भरत चक मुनि आयस खेलवार अर्थात साधक को हमेशा सावधान रहना चाहिऐ।
दूसरा पक्षी चकोर संकेत करता है कि हमे इष्ट पर चकोर की तरह नजर रखनी चाहिऐ तभी लाभ मिल सकेगा, पुष्प वाटिका प्रसंग मे *सिय मुख शशि भये नयन चकोरा* कह कर संत शिरोमणि तुलसी दास जी ने हमे श्रृंगार रस का अद्भुत आनंद दिया है ।
तीसरा पक्षी चातक, गजब का प्रेमी है। स्वाती नक्षत्र मे बरस रहे जल का ही सेवन करता है, नदी, तालाब, समुद्र इत्यादि मे भरे जल से उसे कोई सरोकार नही है। उसे उसका प्रेमी बादल ही जब देगा, तब ही गृहण करेगा नही तो पूरे साल उडता हुआ, प्यासा हूँ, प्यासा हूँ कि रटन लगाऐ रखेगा।प्यास की वजह से नदी पर भी गिर जाऐ तो भी जल मे चंचु नही डुबाऐगा, दृष्टि बादल पर ही रखता है, इसलिऐ प्रेम पथ का अनुपम उदाहरण है, चातक।मानस मे वाल्मीक जी कहते है, *लोचन चातक जिन्ह करि राखे।*
हम सभी प्रेममार्गी इन पक्षियो का अनुकरण करके भी जीवन को रस मय बना सकते है, आध्यात्मिक जीवन को सबल कर सकते है। *ओम शांति*
♦️♦️♦️ रात्रि कहांनी ♦️♦️♦️
*👉 सुकरात और आईना* 🏵️
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*दार्शनिक सुकरात दिखने में कुरुप थे। वह एक दिन अकेले बैठे हुए आईना हाथ मे लिए अपना चेहरा देख रहे थे।*
*तभी उनका एक शिष्य कमरे मे आया ; सुकरात को आईना देखते हुए देख उसे कुछ अजीब लगा । वह कुछ बोला नही सिर्फ मुस्कराने लगा। विद्वान सुकरात शिष्य की मुस्कराहट देख कर सब समझ गए और कुछ देर बाद बोले ,”मैं तुम्हारे मुस्कराने का मतलब समझ रहा हूँ…….शायद तुम सोच रहे हो कि मुझ जैसा कुरुप आदमी आईना क्यों देख रहा है ?”*
शिष्य कुछ नहीं बोला , उसका सिर शर्म से झुक गया।
*सुकरात ने फिर बोलना शुरु किया , “शायद तुम नहीं जानते कि मैं आईना क्यों देखता हूँ”*
“नहीं ” , शिष्य बोला ।
गुरु जी ने *कहा “मैं कुरूप हूं इसलिए रोजाना आईना देखता हूं”। आईना देख कर मुझे अपनी कुरुपता का भान हो जाता है। मैं अपने रूप को जानता हूं। इसलिए मैं हर रोज कोशिश करता हूं कि अच्छे काम करुं ताकि मेरी यह कुरुपता ढक जाए।*
*शिष्य को ये बहुत शिक्षाप्रद लगी । परंतु उसने एक शंका प्रकट की- ” तब गुरू जी, इस तर्क के अनुसार सुंदर लोगों को तो आईना नही देखना चाहिए ?”*
“ऐसी बात नही!” सुकरात समझाते हुए बोले ,” उन्हे भी आईना अवश्य देखना चाहिए”! *इसलिए ताकि उन्हे ध्यॉन रहे कि वे जितने सुंदर दीखते हैं उतने ही सुंदर काम करें, कहीं बुरे काम उनकी सुंदरता को ढक ना ले और परिणामवश उन्हें कुरूप ना बना दे ।*
*शिष्य को गुरु जी की बात का रहस्य मालूम हो गया। वह गुरु के आगे नतमस्तक हो गया।*
*💐💐शिक्षा💐💐*
*प्रिय मित्रो, कहने का भाव यह है कि सुन्दरता मन व् भावों से दिखती है। शरीर की सुन्दरता तात्कालिक है जब कि मन और विचारों की सुन्दरता की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है।*
*सदैव प्रसन्न रहिये।*
*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।। ओम शांति*
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♦️♦️♦️ रात्रि कहांनी ♦️♦️♦️
*👉 निष्काम कर्म का फल*🏵️
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एक गरीब विधवा के पुत्र ने एक बार अपने राजा को देखा। राजा को देख कर उसने अपनी माँ से पूछा- माँ! क्या कभी मैं राजा से बात कर पाऊँगा?
माँ हंसी और चुप रह गई।
पर वह लड़का तो निश्चय कर चुका था। उन्हीं दिनों गाँव में एक संत आए हुए थे। तो युवक ने उनके चरणों में अपनी इच्छा रखी।
संत ने कहा- अमुक स्थान पर राजा का महल बन रहा है, तुम वहाँ चले जाओ और मजदूरी करो। पर ध्यान रखना, वेतन न लेना। अर्थात् बदले में कुछ माँगना मत। निष्काम रहना।
वह लड़का गया। वह मेहनत दोगुनी करता पर वेतन न लेता।
एक दिन राजा निरीक्षण करने आया। उसने लड़के की लगन देखी। प्रबंधक से पूछा- यह लड़का कौन है, जो इतनी तन्मयता से काम में लगा है? इसे आज अधिक मजदूरी देना।
प्रबंधक ने विनय की- महराज! इसका अजीब हाल है, दो महीने से इसी उत्साह से काम कर रहा है। पर हैरानी यह है कि यह मजदूरी नहीं लेता। कहता है मेरे घर का काम है। घर के काम की क्या मजदूरी लेनी?
राजा ने उसे बुला कर कहा- बेटा! तूं मजदूरी क्यों नहीं लेता? बता तूं क्या चाहता है?
लड़का राजा के पैरों में गिर पड़ा और बोला- महाराज! आपके दर्शन हो गए, आपकी कृपा दृष्टि मिल गई, मुझे मेरी मजदूरी मिल गई। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
राजा उसे मंत्री बना कर अपने साथ ले गया। और कुछ समय बाद अपनी इकलौती पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया। राजा का कोई पुत्र था नहीं, तो कालांतर में उसे ही राज्य भी सौंप दिया।
लोकेशानन्द कहता है कि भगवान ही राजा हैं। हम सभी भगवान के मजदूर हैं। भगवान का भजन करना ही मजदूरी करना है। संत ही मंत्री है। भक्ति ही राजपुत्री है। मोक्ष ही वह राज्य है।
हम भगवान के भजन के बदले में कुछ भी न माँगें तो वे भगवान स्वयं दर्शन देकर, पहले संत बना देते हैं और अपनी भक्ति प्रदान कर, कालांतर में मोक्ष ही दे देते हैं।
वह लड़का सकाम कर्म करता, तो मजदूरी ही पाता, निष्काम कर्म किया तो राजा बन बैठा। यही सकाम और निष्काम कर्म के फल में भेद है।
“तुलसी विलम्ब न कीजिए, निश्चित भजिए राम।
जगत मजूरी देत है, क्यों
*सदैव प्रसन्न रहिये।*
*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*
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