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उद्दालक और श्‍वेतकेतु

उपनिषद में कथा है:- उद्दालक का बेटा श्‍वेतकेतु ज्ञान लेकर घर लौटा; विश्‍वविद्यालय से घर आया। बाप ने देखा, दूर गांव की पगडंडी से आते हुए। उसकी चाल में मस्‍ती कम और अकड़ ज्‍यादा थी। सुर्य पीछे से उग रहा था। अंबर में लाली फेल रही थी। पक्षी सुबह के गीत गा रहे थे। पर उद्दालक सालों बाद अपने बेटे को घर लोटते देख कर भी उदास हो गया। क्‍योंकि बाप ने सोचा था विनम्र होकर लौटेगा। वह बड़ा अकड़ा हुआ आ रहा था। अकड़ तो हजारों कोस दूर से ही खबर दे देती है अपनी। अकड़ तो अपनी तरंगें चारों तरफ फैला देती है। वह ऐसा नहीं आ रहा था की कुछ जान का आ रहा है। वह ऐसे आ रहा था जैसे मूढ़ता से भरा हुआ। ऊपर-ऊपर ज्ञान तो संग्रहीत कर लिया है। पंडित होकर आ रहा है। ज्ञानी होकर आ रहा है। विद्वान होकर आ रहा है। प्रज्ञावान होकर नहीं आ रहा। ज्ञानी हो कर नहीं आ रहा। कोई अपनी समझ की ज्‍योति नहीं जली है। अंधेरे शास्‍त्रों का बोझ लेकर आ रहा है। बाप दुःखी और उदास हो गया

बेटा आया, उद्दालक ने पूछा कि क्‍या–क्‍या तू सीख कर आया?

उसने कहा, सब सीख कर आया हूं। कुछ छोड़ा नहीं, यही तो मूढ़ता का वक्‍तव्‍य है। उसने गिनती करा दी, कितने शास्‍त्र सीख कर आया हूं। सब वेद कंठ हस्थ कर लिए है। सब उपनिषद जान लिए है। इतिहास, भूगोल, पुराण, काव्‍य, तर्क,दर्शन, धर्म सब जान लिया है। कुछ छोड़ा नहीं है। सब परीक्षाए पूरी करके आया हूं। स्‍वर्ण पदक लेकर आया हूं।

बाप ने कहा लेकिन तूने उस एक को जाना, जिसे जान कर सब जान लिया जाता है?

उसने कहा कैसा एक? किस एक की बात कर रहे है आप? बाप ने कहां ,तूने स्‍वयं को जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। श्वेत केतु उदास हो गया। उसने कहा, उस एक की तो कोई चर्चा वहां हुई ही नहीं।

तो बाप ने कहा, तुझे फिर जान पड़ेगा। क्‍योंकि हमारे कुल में हम सिर्फ जन्‍म से ही ब्राह्मण नही होते रहे है। हम जान कर ब्राह्मण होते है। यह हमारे कुल की परम्‍परा है। मेरे बाप ने भी मुझे ऐसे ही वापस लौटा दिया था। एक दिन तेरे की तरह मैं भी अकड़ कर घर आया था। सोचकर की सब जान लिया है। सब जान कर आ रहा हूं। झुका था बाप के चरणों में, लेकिन मैं झुका नहीं था। अंदर से। भीतर तो मेरे यही ख्‍याल था की मैं अब बाप से ज्‍यादा विद्वान हो गया हूं। ज्‍यादा जान गया हूं। लेकिन मेरे पिता उदास हो गये। और उन्‍होंने कहां वापस जा। उस एक को जान, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। ब्रह्मा को जान कर ही हम ब्राह्मण होते है। तुझे भी वापस जाना होगा श्‍वेतकेतु।

श्‍वेतकेतु की आंखों मैं पानी आ गया। और अपने पिता के चरण छुए। और वापस चला गया। घर के अंदर भी न गया था। मां ने कहां बेटा आया हैं सालों बाद, बैठने को भी नहीं कहां और कुछ खानें को भी नहीं। कैसे पिता हो। लेकिन श्‍वेतकेतु ने मां के पैर छुए और जल पिया और कहां मां अब तो उस एक को जान कर ही तुम्हारे चरणों में आऊँगा। जिसे पिता जी ने जाना है। या जिसे हमारे पुरखों ने जाना है। मैं कुल पर कलंक नहीं बनुगां।

श्‍वेतकेतु गया गुरु के पास। और पूछा गुरूवर उस एक को जानने के लिए आया हूं। तब गुरु हंसा। और कहां चार सौ गायें बंधी है गो शाला में उन्‍हें जंगल में ले जा। जब तक वह हजार न हो जाये तब तक न लोटना। श्वेत केतु सौ गायों को ले जंगल में चला गया। गये चरती रहती, उनको देखता रहता। अब हजार होने में तो समय लगेगा। बैठा रहता पेड़ो के नीचे, झील के किनारे, गाय चरती रहती। श्‍याम जब गायें विश्राम करती तब वह भी विश्राम करता। दिन आये, रातें आई, ,चाँद उगा, चाँद ढला, सूरज निकला, सूरज गया। समय की धीरे-धीरे बोध ही नहीं रहा। क्‍योंकि समय का बोध आदमी के साथ है।

कोई चिंता नहीं, न सुबह की न श्‍याम की। अब गायें ही तो साथी है। और न वहां ज्ञान जो सालों पढ़ा था उसे ही जुगाल कर ले। किसके साथ करे। खाली होता चला गया श्‍वेतकेतु गायों की मनोरम स्‍फटिक आंखे, आसमान की तरह पारदर्शी। देखना कभी गयों की आंखों में झांक कर तुम किसी और ही लोक में पहुंच जाओगे। कैसे निर्दोष और मासूम, कोरी, शुन्य वत होती है गायें की आंखे। उनका का ही संग साथ करते, कभी बैठ कर बांसुरी बजा लेता, अपने अन्‍दर की बांसुरी भी धीरे-धीरे बजने लगी, सालों गुजर गये। और अचानक गुरु का आगमन हो गया। तब पता चला गुरु को मैं यहां किस लिया आया था। तब गुरु ने कहा श्‍वेतकेतु हो गायें एक हजार एक गाय।

अब तू भी गऊ के समान निर्दोष हो गया है। और तूने उसे भी जान लिया जो पूर्ण से पूर्ण है। पर श्वेतकेतु इतना पूर्ण हो गया की उसमे कहीं मैं का भाव ही नहीं था। श्‍वेत केतु बुद्ध हो गया अरिहंत हो गया जान लिया ब्राह्मा को। जब श्वेत केतु अपने घर आया तो ऐसे आया कि उसके पदचाप भी धरा पर नहीं छू रहे थे। तब ऐसे आया विनम्रता आखिरी गहराइयों को छूती हो। मिट कर आया। और जो मिट कर आया। वहीं होकर आया। अपने को खोकर आया। वह अपने का पाकर आया। ये कैसा विरोधा भाष है।

शास्‍त्र का बोझ नहीं था अब, सत्‍य की निर्भार दशा थी। विचारों की भीड़ न थी। अब ध्‍यान की ज्‍योति थी। भीतर एक विराट शून्‍य था। भीतर एक मंदिर बनाकर आया। एक पूजा ग्रह का भीतर जन्‍म हुआ। अपने होने का जो हमे भेद होता है। वह सब गिर गया श्वेत केतु का, अभेद हो गया। वही जो उठता है निशब्द में। शब्‍दों के पास।

–ओशो एस. धम्‍मो. सनंतनो, भाग-3, प्रवचन—27,

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